बहुत साल हो गये एड़्स के बारे में विभिन्न भ्रांतियों को दूर भगाने के लिए एक लघु फिल्म में शबाना आज़मी आया करती थी...याद होगा आप को भी....एचआईवी से ग्रसित बच्चे के साथ शायद खाना खा रही होती हैं....और कहती हैं ....इस से प्यार फैलता है, एड्स नहीं।
आज सोच कर लगता है कि उस दौर में जब एड्स के बारे में इतनी भ्रांतियां थी, एचआईव्ही-एड्स के रोगियों के साथ इतना भेदभाव होता था, ऐसे में उस तरह की फिल्मों ने लोगों को जागरूक करने के लिए बहुत काम किया।
ऐसे ही कैंसर को लेकर भी कुछ बेबुनियाद से डर एवं भ्रांतियां हैं, मुझे ध्यान आ रहा था कि जब हम कॉलेज में थे मुंह और गले के कैंसर के रोगी के दांतों का इलाज करते हुए कईं बार हल्की सी झिझक होती ....एक अनजाना, बेबुनियाद डर...लेकिन उन्हीं दिनों फिर यह भी पता चल गया कि यह बीमारी इस तरह से एक दूसरे में नहीं फैलती। झिझक का अनुमान इस बात से लगा सकते हैं कि उस दौर में हम लोग हर मरीज के मुंह में सर्जरी करने से पहले ग्लवज़ (दस्ताने) नहीं पहना करते थे लेकिन मुंह और गले के कैंसर के रोगियों के मुंह में सर्जरी करने से पहले दस्ताने ज़रूर चढ़ा लिया करते थे।
मुझे मेरी एक बुज़ुर्ग महिला का ध्यान आज आया......यह मुंह के कैंसर से ग्रस्त हैं...कुछ महीने पहले की बात है...एक दिन वह नहीं आई थीं...उस का बेटा और बहू अपने पांच-सात साल के बेटे के साथ मां की कुछ दवाईयां लेने आए थे।
बहुत सी बीमारियों और उस के कारणों की बात करें तो हम चिकित्सक अक्सर यह सोचने की हिमाकत कर जाते हैं कि ये सब बुनियादें बातें तो लोगों को, मरीज़ के तीमारदारों को पता ही होंगी।
लेकिन नहीं, हमें बार बार अहम् संदेश देते रहना चाहिए।
उस दिन भी वह जब युवक, उस की पत्नी और बेटा आए तो पता नहीं अचानक कैसे मैंने उस से पूछ लिया कि क्या आप को पता है कि यह बीमारी कैसे फैलती है?...उसे मेरी बात शायद पूरी समझ में नहीं आई थी, मैंने आगे कहा कि क्या उन्हें पता है कि यह बीमारी ऐसे ही एक आदमी से दूसरे में नहीं फैलती। उसने मुझे कहा कि हां, हमें पता है ...बिल्कुल पता है।
मैंने उन लोगों को कहा कि मैं यह इसलिए कह रहा हूं कि आप लोगों के छोटे बच्चे हैं, ज़ाहिर सी बात है अपनी दादी के साथ सोते होंगे ..उस के साथ मिलते जुलते होंगे.......तो ऐसे में किसी तरह का भ्रम न रखा जाए।
वह युवक कहने लगा कि हमें तो कोई भ्रम नहीं, मां ही इन बच्चों से अब दूरी बना कर रखती हैं..उसे डर लगता है कि कहीं बच्चे............मैंने कहा कि इस की कोई ज़रूरत नहीं है।
मैं उस बुज़ुर्ग महिला को जानता हूं ..वे बड़ी बुद्धिमान महिला हैं।
तभी उस की बीवी बोल पड़ीं कि डाक्टर साहब, कहते हैं कि जब कीमोथेरिपी लगती है तो मरीज के शरीर में से ज़हर निकलता है जो बच्चों को नुकसान करता है। मैंने तो ऐसा कुछ नहीं सुना था, इसलिए मैंने उसे कहा कि नहीं, ऐसा कुछ नहीं है...बस कुछ बेसिक सी सावधानियां होती हैं वह भी कीमोथेरिपी लगने के अगले दो दिन तक केवल......क्योंकि जो दवाई मरीज़ को दी जाती है वह अगले ४८ घंटे के दौरान शरीर से बाहर निकलती है...और यह मरीज़ के पेशाब, मल, अश्रु एवं उल्टी में पाई जाती है...इसलिए अगर मरीज़ को उल्टी हो तो उस की देखभाल करने वाले को ग्लवज़ डाल कर अच्छे से वॉश-बेसिन या टायलेट की अच्छे से दो बार फ्लश करने की सलाह दी जाती है....विस्तृत जानकारी के लिए आप यह लिंक देखिए...अगर मरीज का इस तरह का कोई शारीरिक द्रव्य किसी अन्य की चमड़ी के संपर्क में आता है तो चमड़ी की थोड़ी irritation हो सकती है....और यह भी बस कीमोथेरिपी लगने के केवल दो दिन बाद तक।
Chemo Safety
Safety Precautions
उस बुज़ुर्ग महिला की बहू ने यह बताया कि यह बात इस बच्चे की स्कूल की टीचर ने कही थी .. कि बच्चों को इसलिए दूर रखा जाना चाहिए। मुझे अभी भी हैरानगी है कि टीचर ऐसी बात कैसे कह सकती है। वैसे तो वह बुज़ुर्ग महिला को एक दो बार ही कीमो दी गई थी क्योंकि वह हृदयरोग से भी ग्रस्त होने की वजह से उसे सहन नहीं कर पा रही थी और विशेषज्ञों ने पहले उन में रेडियोथेरिपी से मुंह के कैंसर के आकार को कम करने की युक्ति लगाई गई थी।
बहरहाल, आज सुबह जब उस बुज़ुर्ग महिला का ध्यान आया तो ये विचार आप सब तक पहुंचाने ज़रूरी लगे। एक तो जब किसी मरीज़ को पता चलता है कि उसे कैंसर है, वह अपनी सुध-बुध खो बैठता है, ऊपर से अस्पतालों के चक्कर बार बार काटने वाला इलाज ...सुबह से शाम तक लंबी लंबी लाइनें, कीमोथेरिपी और रेडियोथेरिपी (जिसे आम भाषा में सिंकाई कहते हैं) सहना .....पहले से ही इतना परेशान होने पर अगर उसे किसी तरह के भेदभाव की भनक भी लग जाए तो वह भीतर ही भीतर बुरी तरह से टूट जाता है.....इस तरह के मरीज़ों के तीमारदारों को बहुत ही ज़्यादा संवेदनशील बने रहने की ज़रूरत है। इलाज के दौरान तो उसे और भी ज़्यादा प्यार-अपनेपन की ज़रूरत है........करते हैं घर वाले इन सब बातों का पूरा ध्यान रखा करते हैं, फिर भी इस तरह के पाठ दोहराते रहना हम लोगों की आदतों में शुमार है, बस।
हां, एक बात ...जब किसी मरीज़ की कीमोथेरिपी चल रही हो तो उस दौरान उस की स्वयं रोग-प्रतिरोधकता क्षमता कम हुई होती है इसलिए अगर घर का कोई सदस्य या परिचित जिसे कोई इंफैक्शन आदि है ...जैसे खांसी-जुकाम, फ्लू आदि तो विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए कि इस तरह के लोग दूरूस्त होने तक मरीज के निकट संपर्क में न आएं क्योंकि इस से उसे भी ये परेशानियां हो सकती हैं।
बातें छोटी छोटी होती हैं, भेदभाव केवल कहने से ही नहीं होते ....या वे ही नहीं होते जो कुछ लोग हम से शेयर कर जाते हैं, बहुत से भेदभाव कुछ करने से या कुछ न करने से, कुछ कहने या न कहने से ही नहीं होते, बल्कि नॉन-वर्बल किस्म के भी (या ही?) होते हैं.......ऐसे किसी रोगी को अंदर तक तोड़ देने के लिए बस एक हिकारत भरी नज़र ही काफ़ी है. और इस तरह की यातनाएं भी बड़े subtle ढंग से दी जाती हैं....िबना किसी को कानों कान खबर हुए और बिना किसी को भनक लगे। प्रोफैशन में रहते हुए इतने वर्षों से बहुत कुछ देख-सुन रहे हैं।
निष्कर्ष यही है.... दोस्तो, प्यार बांटते रहिए.....बहुत बड़ी औषधि है यह भी।
आज सोच कर लगता है कि उस दौर में जब एड्स के बारे में इतनी भ्रांतियां थी, एचआईव्ही-एड्स के रोगियों के साथ इतना भेदभाव होता था, ऐसे में उस तरह की फिल्मों ने लोगों को जागरूक करने के लिए बहुत काम किया।
ऐसे ही कैंसर को लेकर भी कुछ बेबुनियाद से डर एवं भ्रांतियां हैं, मुझे ध्यान आ रहा था कि जब हम कॉलेज में थे मुंह और गले के कैंसर के रोगी के दांतों का इलाज करते हुए कईं बार हल्की सी झिझक होती ....एक अनजाना, बेबुनियाद डर...लेकिन उन्हीं दिनों फिर यह भी पता चल गया कि यह बीमारी इस तरह से एक दूसरे में नहीं फैलती। झिझक का अनुमान इस बात से लगा सकते हैं कि उस दौर में हम लोग हर मरीज के मुंह में सर्जरी करने से पहले ग्लवज़ (दस्ताने) नहीं पहना करते थे लेकिन मुंह और गले के कैंसर के रोगियों के मुंह में सर्जरी करने से पहले दस्ताने ज़रूर चढ़ा लिया करते थे।
मुझे मेरी एक बुज़ुर्ग महिला का ध्यान आज आया......यह मुंह के कैंसर से ग्रस्त हैं...कुछ महीने पहले की बात है...एक दिन वह नहीं आई थीं...उस का बेटा और बहू अपने पांच-सात साल के बेटे के साथ मां की कुछ दवाईयां लेने आए थे।
बहुत सी बीमारियों और उस के कारणों की बात करें तो हम चिकित्सक अक्सर यह सोचने की हिमाकत कर जाते हैं कि ये सब बुनियादें बातें तो लोगों को, मरीज़ के तीमारदारों को पता ही होंगी।
लेकिन नहीं, हमें बार बार अहम् संदेश देते रहना चाहिए।
उस दिन भी वह जब युवक, उस की पत्नी और बेटा आए तो पता नहीं अचानक कैसे मैंने उस से पूछ लिया कि क्या आप को पता है कि यह बीमारी कैसे फैलती है?...उसे मेरी बात शायद पूरी समझ में नहीं आई थी, मैंने आगे कहा कि क्या उन्हें पता है कि यह बीमारी ऐसे ही एक आदमी से दूसरे में नहीं फैलती। उसने मुझे कहा कि हां, हमें पता है ...बिल्कुल पता है।
मैंने उन लोगों को कहा कि मैं यह इसलिए कह रहा हूं कि आप लोगों के छोटे बच्चे हैं, ज़ाहिर सी बात है अपनी दादी के साथ सोते होंगे ..उस के साथ मिलते जुलते होंगे.......तो ऐसे में किसी तरह का भ्रम न रखा जाए।
वह युवक कहने लगा कि हमें तो कोई भ्रम नहीं, मां ही इन बच्चों से अब दूरी बना कर रखती हैं..उसे डर लगता है कि कहीं बच्चे............मैंने कहा कि इस की कोई ज़रूरत नहीं है।
मैं उस बुज़ुर्ग महिला को जानता हूं ..वे बड़ी बुद्धिमान महिला हैं।
तभी उस की बीवी बोल पड़ीं कि डाक्टर साहब, कहते हैं कि जब कीमोथेरिपी लगती है तो मरीज के शरीर में से ज़हर निकलता है जो बच्चों को नुकसान करता है। मैंने तो ऐसा कुछ नहीं सुना था, इसलिए मैंने उसे कहा कि नहीं, ऐसा कुछ नहीं है...बस कुछ बेसिक सी सावधानियां होती हैं वह भी कीमोथेरिपी लगने के अगले दो दिन तक केवल......क्योंकि जो दवाई मरीज़ को दी जाती है वह अगले ४८ घंटे के दौरान शरीर से बाहर निकलती है...और यह मरीज़ के पेशाब, मल, अश्रु एवं उल्टी में पाई जाती है...इसलिए अगर मरीज़ को उल्टी हो तो उस की देखभाल करने वाले को ग्लवज़ डाल कर अच्छे से वॉश-बेसिन या टायलेट की अच्छे से दो बार फ्लश करने की सलाह दी जाती है....विस्तृत जानकारी के लिए आप यह लिंक देखिए...अगर मरीज का इस तरह का कोई शारीरिक द्रव्य किसी अन्य की चमड़ी के संपर्क में आता है तो चमड़ी की थोड़ी irritation हो सकती है....और यह भी बस कीमोथेरिपी लगने के केवल दो दिन बाद तक।
Chemo Safety
Safety Precautions
उस बुज़ुर्ग महिला की बहू ने यह बताया कि यह बात इस बच्चे की स्कूल की टीचर ने कही थी .. कि बच्चों को इसलिए दूर रखा जाना चाहिए। मुझे अभी भी हैरानगी है कि टीचर ऐसी बात कैसे कह सकती है। वैसे तो वह बुज़ुर्ग महिला को एक दो बार ही कीमो दी गई थी क्योंकि वह हृदयरोग से भी ग्रस्त होने की वजह से उसे सहन नहीं कर पा रही थी और विशेषज्ञों ने पहले उन में रेडियोथेरिपी से मुंह के कैंसर के आकार को कम करने की युक्ति लगाई गई थी।
बहरहाल, आज सुबह जब उस बुज़ुर्ग महिला का ध्यान आया तो ये विचार आप सब तक पहुंचाने ज़रूरी लगे। एक तो जब किसी मरीज़ को पता चलता है कि उसे कैंसर है, वह अपनी सुध-बुध खो बैठता है, ऊपर से अस्पतालों के चक्कर बार बार काटने वाला इलाज ...सुबह से शाम तक लंबी लंबी लाइनें, कीमोथेरिपी और रेडियोथेरिपी (जिसे आम भाषा में सिंकाई कहते हैं) सहना .....पहले से ही इतना परेशान होने पर अगर उसे किसी तरह के भेदभाव की भनक भी लग जाए तो वह भीतर ही भीतर बुरी तरह से टूट जाता है.....इस तरह के मरीज़ों के तीमारदारों को बहुत ही ज़्यादा संवेदनशील बने रहने की ज़रूरत है। इलाज के दौरान तो उसे और भी ज़्यादा प्यार-अपनेपन की ज़रूरत है........करते हैं घर वाले इन सब बातों का पूरा ध्यान रखा करते हैं, फिर भी इस तरह के पाठ दोहराते रहना हम लोगों की आदतों में शुमार है, बस।
हां, एक बात ...जब किसी मरीज़ की कीमोथेरिपी चल रही हो तो उस दौरान उस की स्वयं रोग-प्रतिरोधकता क्षमता कम हुई होती है इसलिए अगर घर का कोई सदस्य या परिचित जिसे कोई इंफैक्शन आदि है ...जैसे खांसी-जुकाम, फ्लू आदि तो विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए कि इस तरह के लोग दूरूस्त होने तक मरीज के निकट संपर्क में न आएं क्योंकि इस से उसे भी ये परेशानियां हो सकती हैं।
बातें छोटी छोटी होती हैं, भेदभाव केवल कहने से ही नहीं होते ....या वे ही नहीं होते जो कुछ लोग हम से शेयर कर जाते हैं, बहुत से भेदभाव कुछ करने से या कुछ न करने से, कुछ कहने या न कहने से ही नहीं होते, बल्कि नॉन-वर्बल किस्म के भी (या ही?) होते हैं.......ऐसे किसी रोगी को अंदर तक तोड़ देने के लिए बस एक हिकारत भरी नज़र ही काफ़ी है. और इस तरह की यातनाएं भी बड़े subtle ढंग से दी जाती हैं....िबना किसी को कानों कान खबर हुए और बिना किसी को भनक लगे। प्रोफैशन में रहते हुए इतने वर्षों से बहुत कुछ देख-सुन रहे हैं।
निष्कर्ष यही है.... दोस्तो, प्यार बांटते रहिए.....बहुत बड़ी औषधि है यह भी।