मंगलवार, 20 जनवरी 2015

बेशक पहले खुलापन था और दिमाग पे दबाव कम था...

हमारे ज़माने के खुलेपन के कुछ साक्ष्य ...(मेरे संग्रह से) 
कभी कभी लेटे लेटे पुराने दिनों की बातें याद आती हैं तो यकीन नहीं होता कि हम लोग उस युग में भी रहते थे ...जहां इतना खुलापन था कि एक पोस्टकार्ड आने पर गली-मोहल्ले के दस घरों को पता चला था कि उस घर में आज चिट्ठी दे गया है, हां, यह भी सब को पता ही होता था कि उस पोस्टकार्ड में लिखा क्या है...लेकिन किसी से कोई भी बात छिपी न थी, सब कुछ खुला ही रहता था, घर के किवाड़ों की तरह।

किस के घर कितने रूपये का मनीआर्डर आया है, किस ने भेजा है और उस मनीआर्डर के साथ आने वाले कागज के पुर्जे पर क्या लिखा है, यह भी किसी से छुपा न होता था।

चिट्ठी से याद आया कि मुझे बंबई से इधर आए १५ वर्ष होने को हैं, तो एक बार मैंने केंद्रीय हिंदी संस्थान का विज्ञापन देखा...नवलेखक शिविर के लिए...उस में उन्होंने रचनाएं मांगी थी. इस से पहले मैं पत्रिकाओं में मेडीकल विषयों पर ही लिखता था..लेकिन उस समय पहली बार मैंने एक गैर-मेडीकल लेख लिखा था...यह एक संस्मरणात्मक लेख ही था...डाकिया डाक लाया....जिस में मैंने चिट्ठियों के बारे में अपनी यादें साझा की थी, किस तरह से हमें नानी, दादी और अन्य रिश्तेदारों की चिट्ठीयां आया करती थीं और हम कैसे उन्हें संभाल कर रखा करते और कैसे बार बार पढ़ कर खुश हो लिया करते। वैसे मेरे पिता जी भी एक बहुत बढ़िया चिट्ठाकार थे... इंगलिश और उर्दू में इत्मीनान से चिट्ठीयों का जवाब देना उन की आदत में शुमार था...सभी रिश्तेदार कहा करते थे कि सुदर्शन चिट्ठी बहुत बढ़िया लिखता है, ऐसे लगता है जैसे पास ही बैठ कर बातें कर रहा है।

हां, तो मैं नवलेखक शिविर की बात पर वापिस लौटता हूं...उस डाकिया डाक लाया वाले लेख के आधार पर मेरा भी शिविर के लिए चुनाव कर लिया गया......और मैं बहुत दूर आसाम के जोरहाट में नवलेखक शिविर के लिए दो हफ्ते के लिए पहुंच भी गया....सारे देश से २०-२५ लेखक आये हुए थे, सभी विधाओं से संबंधित। उन १५ दिनों ने मुझे यह समझा दिया कि लेखन है क्या, कितनी सहज प्रक्रिया है, दबाव वाली तो बात है नहीं कोई।

पोस्टकार्ड की बात हो रही थी इस से पहले.. पोस्टकार्ड हम लोग अपने पड़ोसियों के लिए लिखा भी करते थे और उन के जवाब आने पर उन्हें पढ़ कर भी सुनाया करते थे।



आज कोई सोच सकता है कि खत का जब ज़िक्र हो तो पोस्टकार्ड भेजे जाएं.....नहीं ना, यहां तक कि अंतरर्देशीय चिट्ठी भी कम ही लोग भेजते देखे हैं, सब को लिफाफा ही भेजना होता है, अगर कभी राखी-टीके के लिए भेजना ही हो तो, वरना हर कोई रजिस्टरी, स्पीड-पोस्ट या फिर कूरियर पर ही भरोसा करते हैं।

हर एक डर है कि कहीं कोई और हमारा लिखा पढ़ न ले......पहले चिट्ठीयां पूरे घर परिवार के लिए हुआ करती थीं, अब चिट्ठीयां लगभग घर के एक शख्स के पढ़ने के लिए ही हुआ करती हैं......यही आज की पीढ़ी के दिमाग पर दबाव का कारण है। है कि नहीं?

 यार, ऐसा कुछ हम आखिर लिख ही क्या रहे हैं कि जिस के बारे में हमें चिंता है कि कोई और पढ़ लेगा तो फजीहत हो जाएगी, पोल खुल जाएगी....वैसे तो मोबाइल ने यह भी समस्या दूर कर दी है, आप घर या बाहर किसी भी कोने में खड़े होकर किसी से कुछ भी बात कर लें, दूसरे बंदे को कानों कान खबर न होगी। और आज की युवा पीढ़ी....माशाल्लाह, ये एक िसरा आगे......घर में हर बशिंदे के अलग अलग मोबाइल फोन तो हैं हीं, लेिकन जेनरेशन-एक्स ने तो अपने मोबाइल पर तो स्क्रीन लॉक भी लगा रखा है.....वैसे हर कोई इतना व्यस्त है कि किसे दूसरे के मोबाईल में झांकने की फ़ुर्सत है!

 फोन से ध्यान आया... आज से पच्चीस-तीस साल पहले गली-मोहल्ले में दो तीन लैंड-लाइन फोन हुआ करते थे....वही पी.पी नंबर सारे मोहल्ले के काम कर दिया करता था। लोग संवेदनशील थे, सामने वाले का ध्यान रखते थे कि किस समय फोन करना है, किस समय नहीं।

फोन पर बातें करते समय सारी बातें खुले में हुआ करती थीं, किसी से कोई परदा नहीं...मुझे याद है मैं हनीमून पर गया था....जब मैंने घर बात करने के लिए पड़ोस की शर्मा आंटी को फोन किया तो मेरे पेरेन्ट्स से बात करने से पहले उस ने मसूरी के मौसम का पहले तो अच्छे से हाल जाना...उस दिन उन में कितना कुछ एक सांस में जान लेने की जिज्ञासा कितनी तीव्र थी....हा हा हा हा ...सीधे सादे पुराने दिनों की इनोसेंट यादें!!

लैंडलाइन के  बाद वह भी आ गया ...क्या कहते हैं उसे पोर्टेबल हैंडसेट.....आप किसी भी जगह उस हैंडसेट को उठा कर बात सकते थे...कोई बाथरुम में साथ ले जाता और कोई छत पर ले जाता.....इसने भी खुलेपन में खलल डाला.....लेकिन मोबाइल ने तो सभी सीमाएं ही लांघ लीं........ऐसा नहीं है कि कोई किसी की बातें सुनना चाहता है, इस से क्या हो जाएगा, लेकिन जो कोई भी शख्स किसी से भी छुप छुप कर बातें कर रहा है उस के अपने दिमाग पर ही प्रेशर पड़ता है, है कि नहीं! कितना कष्टदायी होता है ना कि किस से क्या बात करनी है, क्या छिपा कर रखनी है और किस के सामने फोन करना है ...यहां तक कि जिसे फोन करना है, उसे भी कभी कभी पूछ लेना कि क्या आप इस समय अकेले हैं! क्या है यार, हम किस युग में जी रहे हैं!!

अब इतने दबावों के चलते रक्तचाप सामान्य रह गया तो गनीमत है.... हम हर कुछ छुप कर करना चाहते हैं, परदे में....मोबाइल पर स्क्रीन लॉक की बात चलती है तो मैं अकसर कहता हूं . अगर घर में बच्चे यह सब करते हैं तो साफ़ सी बात है कि कुछ न कुछ ऐसा ज़रूर कर रहे हैं जिसे वे छिपाना चाहते हैं और यह बात ठीक हो ही नहीं सकती.......मैं नैतिक-अनैतिक के झंझट में नहीं पड़ना चाहता, लेकिन इतना तो कह ही सकता हूं इस लुका-छुपी के खेल के परिणाम हम लोग हर रोज अखबार की सुर्खियों के रूप में देखते हैं.....कितना स्वच्छंद वातावरण हो चुका है, प्रेमी युगल एक ही छत के नीचे रहने लगे हैं बिना शादी की ज़रूरत समझे........कुछ वर्ष अच्छे से टेस्टिंग करने के बाद अगर टेस्ट में पास तो शादी की फार्मेलिटी भी कर ली जाती है.....वरना, Darling, you move on!..हम भी चले अपने रास्ते!.... पेरेन्ट्स कभी इंवॉल्व होते नहीं इस तरह के रिश्तों में या उन्हें किया ही नहीं जाता, इसलिए उन की कीमत स्कूटर की स्टपनी से भी कम हो कर रह जाती है।

जाते जाते एक बात का ध्यान आ गया.....मॉस-कम्यूनिकेशन पढ़ रहा था तो एक बार प्रोफैसर साहब ने सुंदर बात कही आज से ८-१०साल पहले कि जब से हम लोगों का टीवी ड्राईंग रूम से अपने अपने रूमों में चला गया, हम लोगों के रिश्तों पर तो इस का असर पड़ा ही...हम लोग एक साथ इसी बहाने बैठ लिया करते थे......साथ ही साथ, छोटे बच्चों और युवाओं को कौन सा कंटेंट देखना है, इस पर भी कोई कंट्रोल नहीं रहा। पहले जब लोग एक साथ बैठ कर बैठक में टीवी के सामने एक दो घंटे बिताया करते थे ...तो सब को पता था कि कब कौन सा असहज सा दृश्य आते ही चैनल बदलना है, कब घर के बुज़ुर्ग बहाने से कमरे से पांच मिनट के लिए कट लिया करते थे......लेकिन धीरे धीरे सब कुछ खुल्लम-खुल्ला सारा परिवार देखना लगा......और अब मोबाइल हर बंदे के हाथ में है, बड़ा सी टीवी कमरे में सजा कर रखने की भी कोई टेंशन ही नहीं।

इस से पहले १९७० के दशक की बात करें..जब टीवी नया नया आया ही था, तब गली-मोहल्ले में एक दो वह चार टांगों वाले स्टैंड पर टिके ब्लैक एंड व्हाइट टीवी हुआ करते थे जिस पर गली-मोहल्ले के बीस-तीस लोग इत्मीनान से हफ्ते में दो दिन आने वाली हिंदी फिल्म और दो दिन चित्रहार का आनंद लिया करते थे.......अब तो हर पल चित्रहार है, हर क्षण चलचित्र है....लेकिन वही बात है ..........एक सौ आठ हैं चैनल, फिर भी दिल बहलते क्यों नहीं!!

लगता है बस करूं.....वैसे मैं क्यों अपने दिमाग पे इतना लोड ले रहा हूं....यार, कितना तैरूंगा अतीत के भवंडर में....कहीं इन में गोते खाते खाते...!!

अभी अभी १९७०के दशक में पड़ोस की कपूर आंटी (मोहल्ले में कपूरनी के नाम से जाने जानी वाली......पंजाब में औरतों की पहचान का एक आसान तरीका...जो भी सरनम हो उसी का स्त्रीलिंग बनाकर दिमाग पे लोड थोड़ा सा कम कर लिया करते थे ...चोपड़ी, कपूरनी...नहीं तो सिपाही की जोरू सिपाहिन, मास्टर की मास्टरनी, मुंशी राम की बीवी मुंशियानी आदि..., है कि नहीं मजेदार बात).. के यहां टीवी पर देखी गोपी फिल्म का यह भजन आज सुबह सुबह याद आ रहा है.....आप भी इस में खो जाइए...



अभी अभी आज का अखबार उठाया तो देखा कि दूसरे लोग भी यादों के महासागर में डुबकियां लगा रहे हैं... ऑल इंडिया रेडियो लखनऊ से जुड़ी मीनू खरे की यादें पढ़ कर भी मज़ा आ गया....आप भी पढ़िए...यह रहा लिंक