गुरुवार, 25 सितंबर 2025

चलिए, आज उस 40 साल पुरानी स्पोर्ट्स्टार मैगजीन में झांकते हैं....

 पिछले रविवार के दिन एक प्रेत-लेखक से साथ सारा दिन बिताने का मौका मिला  …प्रेत-लेखक यानि गोश्त राईटर …जो लेखक लिखता तो है लेकिन कहीं भी उस का नाम नहीं आता…नाम उस का आता है जो उसे लिखने के लिए हॉयर करता है ….


यह प्रेत-लेखक भी 80-85 के आस पास के हैं….नाम मैं नहीं लिख रहा, ज़रूरी नहीं है, उन्होंने मुझे मना नहीं किया लेकिन मुझे खुद ही लगता है….राज़ को राज़ रहने दो …जाने महफिल में फिर क्या हो!😀


उन्होंने मुझे बताया कि उन्होंने किन किन हस्तियों के लिए प्रेत-लेखन किया है ….किन पत्र-पत्रिकाओं के लिए भी लोगों ने उन से लेखन करवाया है …कहीं पर भी जो भी छपा उन के नाम से नहीं छपा….लेकिन उन्हें इस से कोई फ़र्क नहीं पड़ता….उन्होंने भरपूर लिखा है ….और अभी भी लिख रहे हैं…और मज़े में बंबई के जुहू इलाके में बढ़िया से फ्लैट में रहते हैं…


ये लेखक मेरे फूफा जी के छोटे भाई हैं….मेरे दिवंगत फूफा जी साउथ मुंबई के एक कॉलेज के प्रिंसीपल रह चुके थे, एक बहुत नामचीन ईकानमिस्ट ….और रिटायर होने के बाद उन्होंने बंबई में बहुत से शिक्षण संस्थानों के खड़े होने में अपनी निष्काम सेवाएं दी थीं…मैं जब भी उन को मिलने जाता तो उन के घर भी किताबों की अलमारियां देख कर दंग रह जाता था…


हां, तो उस प्रेत-लेखक के पास बैठ कर, उन की बातें सुन कर मज़ा आ रहा था ….उन के पूरे फ्लैट में किताबें, पत्रिकाएं और अखबारें ही फैली हुई थीं….चाय की चुस्कियां लेते लेते मेरी नज़र एक स्पोर्टस्स्टार मैगज़ीन पर पड़ गई …


मैंने उसे उठा लिया ….यह लगभग 40 चालीस पुरानी मैगज़ीन थी ….शायद मैं कल ज़िंदगी में पहली बार किसी खेल मैगज़ीन के पन्ने उलट-पलट रहा था …मैंने आजतक कभी भी एक भी खेल मैगज़ीन नहीं खरीदी…..क्योंकि मेरी खेलों में बिल्कुल भी रूचि ही नहीं, कोई समझ ही नहीं….अखबारों में भी जो स्पोर्टस के पन्ने होते हैं, मैंने उन को न तो पढ़ने की कोशिश की है न ही मेरी समझ में कुछ भी आएगा…काला अक्षर भैंस बराबर …..


खैर, कल जब मैं इस पत्रिका के पन्ने उलटा-पलटा रहा था …तो यह क्रिकेट और फुटबाल खेल की कवरेज से भरा हुआ था ….मुझे नहीं था उन से कुछ भी वास्ता…..लेकिन हां, एक बात मज़ेदार रही कि मुझे चालीस साल पुराने जो विज्ञापन दिख गए, उन को देख कर मुझे बहुत मज़ा आया….उन के बारे में आप से कुछ साझा करना चाहता हूं….




थम्स-अप …..


फ्रंट-कवर के अंदर वाला साईड में थम्स-अप का इश्तिहार दिखा जिस में सुनील गवास्कर और इमरान खां एक साथ बैठे थम्स-अप की बोतल का मज़ा ले रहे हैं। कांच वाली बोतल जो हमें बहुत लुभाती थी। उन की फोटो देख कर मैं यही सोच रहा था कि दोनों देशों के हालात भी इतने बरसों में कहां से कहां पहुंच गए हैं……





अवंती-गैरेली मोपेड


इस का विज्ञापन भी देख कर मज़ा आया…पुराने दिन याद आ गए…हालांकि जहां तक मुझे याद है उत्तर भारत के जिस हिस्से में मैं बहुत बरसों तक रहा ….वहां पर यह मोपेड नहीं चलती थी…वहां पर तो ज़्यादातर हीरो-मैजेस्टिक मोपेड ही चलती थी। चलती क्या थी, खूब चलती थी, दौड़ती थी…..जहां तक मेरी यादाश्त साथ दे रही है, उस के विज्ञापन के साथ लिखा रहता था कि यह एक लिटर में 65 किलोमीटर चल जाती है ….जब कि यह अवंती-गैरेली के एक लिटर में 81 लिटर तक चलने का लिखा है…यह विज्ञापन देख कर मुझे पता चला कि इसे केल्वीनेटर कंपनी बनाती थी …मैं तो समझता था कि केल्वीनेटर के केवल रेफ्रिजरेटर ही आते हैं….





लूना भी दिख गई यहां तो ….


इस मैगज़ीन में लूना के भी दर्शन हो गए …कितना अरसा हो गया था लूना को देखे ….लेकिन पंजाब में लूना भी खूब चलती थी ….सीधी सीधी सी बात थी ….यह अस्सी के दशक का वह दौर था जिन दिनों जिस की स्कूटर लेने की हैसियत नहीं होती थी, वह मोपेड ले लेता था …यानि हीरो-मैजस्टिक या लूना ….। और खास कर के कामकाजी महिलाओं के लिेए यह एक वरदान साबित हुई थी। पैट्रोल के खर्च की बचत तो थी ही ….


कुछ लघु-उद्योग करने वालों ने भी मोपेड खरीद ली थी ..जैसे जो लोग घर में पापड़-वडीयां बनाते थे या लिफाफे बनाते थे या कोई भी और काम-धंधा करते थे, वे अपना सामान मार्कीट में बेचने के लिए इस पर लाद लेते थे…..


एक खास बात जो मुझे बार बार खटक रही है …..आज से चालीस साल पहले लोग इतने भारी-भरकम नहीं थे, लोग दुबले-पतले, स्लिम-ट्रिम होते थे जो ये हल्की-फुल्की मोपेड उन को आसानी से ढो लेती थी ….एक बंदे को क्या, उस के पीछे उस की बीवी भी बैठ जाती थी….लेकिन अगर कोई तगड़ा बंदा बैठ कर चला रहा होता और पीछे उस के बीवी भी थोड़ी ज़्यादा तंदरुस्त सी ही होती …तो यह मोपेड इतना लोड न लेने के कारण बिल्कुल धीमी स्पीड से चलती …..फिर भी रास्ते में जिस का भी ध्यान इस मोपेड और इन की सवारियों की तरफ़ चला जाता, यह उन के लिए एक मनोरंजन जैसा होता …मानो कह रहे हों कि …अब क्या मोपेड की जान ले लोगे?


मैं जब इस मैगजीन में से इतनी तस्वीरें खींच रहा था तो वह प्रेत-लेखक हंसने लगे ….क्या करोगे इन तस्वीरों का। 


मैंने बताया कि इन की मदद से एक कहानी बुनूंगा ….तो बहुत खुश हुए….हां, हां, यह बात बढ़िया है …जो भी कंटेट मिले, उस में वेल्यू-एडिशन करते रहना चाहिए। 




व्ही-आई-पी ब्रांडो और क्रिस्टल स्पोर्ट …


वह दौर था जब मर्दों के अंडरवियर-बनियान के विज्ञापन भी पत्र-पत्रिकाओं में छपते थे …इस मैगजीन में भी ये दोनों छपे हैं …मुझे एक और विज्ञापन जो उन दिनों खूब दिखता था ….व्हीआईपी…फ्रैंची। 


उस दौर के युवाओं की अंडरवियर की च्वाईस भी इन विज्ञापनों से ही प्रभावित हुआ करती थी….मैं सोच रहा था कि इन विज्ञापनों की तस्वीरें यहां ब्लॉग में लगाऊं या रहने दूं….फिर मुझे यही लगा कि एक तो लगा ही दूं…..मेरी उम्र के लोगों को तो वो दिन याद आ ही जाएंगे जब इतने बोल्ड विज्ञापन आते थे ….यह जो तस्वीर मैं यहां लगा रहा हूं, अगर हो सके तो उसमें पूरा लिखा वार्तालाप पढ़िए…


हम अकसर कह देते हैं कि आज कल मीडिया में, ओटीटी पर, फिल्मों में यह हो रहा है, वह हो रहा है …..लेकिन पहले भी कुछ कम न था, अपने वक्त के मुताबिक वे भी वक्त के आगे ही थे ….




बाटा का पावर ब्रॉंड - 


इस मैगज़ीन में एक विज्ञापन देख कर तो मज़ा ही आ गया…बाटा के पावर शूज़। मैंने यह भी खूब पहने हैं, लेकिन शायद इस से पहले नार्थ-स्टार के शूज़ आते थे …और मैंने इन को 1979 में खरीदा था…मैं ग्याहरवीं में पढ़ता था…अपनी बड़ी बहन के साथ बाज़ार गया तो उन्होंने मुझे नार्थ-स्टार के शूज़ दिलाए थे …125 रुपए के। आज 15-20 हज़ार तक के शूज़ पहनने के बाद भी उस नार्थ-स्टार वाले शूज़ नहीं भूला….क्योंकि उन दिनों मेरे पास दो ही जोड़ी शूज़ थे, एक तो लैदर के काले शूज़ और दूसरे यह नार्थ-स्टार के। और जहां तक मुझे याद है मैंने उन को अगले चार पांच सालों तक लगातार पहना….अब भी मैं जब बहन को मिलता हूं तो बातों बातों में उस के वह वाले तोहफे का ज़िक्र आ ही जाता है ….और मैं अकसर उसे कहता हूं कि मुझे उस दौर में उन दिनों उस शूज़ की बहुत ज़रूरत थी ….


पहले एक दो शूज़ होते थे …हम उन को पहन पहन कर घिस देते थे, जब वे फट जाते थे तो कईं बार मोची से मुरम्मत भी करवा लेना कोई बड़ी बात न होती थी….अब घरों में शूज़ रैक भरे होते हैं…कईं कईं महीने तक जिन शूज़ को पहनते नहीं, जब कभी पहनने के लिए उठाएं तो फटे मिलते हैं, पेस्टिंग उखड़ी पाते हैं, सोल क्रैक हुआ मिलता है …..महंगे से महंगे शूज़ का यही हाल है…। 




कावासाकी बजाज मोटरसाईकिल …


इस मैगज़ीन के बैक कवर पर कावासाकी बजाज मोटरसाईकिल का विज्ञापन भी देख लीजिेए….कैसे स्टंट किया जा रहा है, उसे भी देखिए….बस, जैसा आज कल लिखते हैं कि इस तरह से स्टंट मत करिए, यह प्रोफैशनल ने किया है, यह जोखिम का काम है….इस विज्ञापन में ऐसा कुछ नहीं लिखा है….


खैर, उस दौर में जिस दौर का यह मैगज़ीन है हमें तो तीन मोटरसाईकिल का ही पता था…एक तो राजदूत जिसे कहा जाता था दूध वाले खरीदते हैं, दूसरा फैशनुबेल येज्दी…और तीसरा थोड़ा रूआब वाले खरीदते थे …बुलेट …। मेरे बड़े भाई से मुझे 1986 जनवरी में येज़्दी मोटरसाईकिल मिल गया था ….मुझे उसे चलाने में बड़ा मज़ा आता था ….बस, उन सुनहरी यादों की तहें इस वक्त नहीं खोल रहा हूं….अभी उन को ठप्पे ही रहने देते हैं, बाद में फिर कभी देखते हैं….बाकी मुझे उस की आवाज़ बहुत पसंद थी…, मैंने उसे पांच-छः साल तक खूब चलाया….फिर वह आए दिन रिपेयर मांगने लगा और मुझे ऐसे लगने लगा कि वह पैट्रोल से चलता नहीं, पैट्रोल पी जाता है…..इसी चक्कर में सिर्फ 6500 रूपए में वह बिक गया 1990 में…..किसी आटो-मैकेनिक ने खरीदा था, उसने उसे बिल्कुल नया जैसा कर लिया और कईं सालों तक उसे मैं चलाते देखा करता था।  


तो चलिए, बहुत हुई बातें आज एक चालीस साल पुराने मैगज़ीन के ऊपर …..यह तो मात्र एक ट्रेलर ही रहा ….उस सब्जेक्ट के बारे में तो मैंने कोई बात की नहीं जिस के बारे में वह मैगज़ीन था, क्योंकि स्पोर्ट्स के मामलों में मैं बिल्कुल कोरा हूं….अंगूठाछाप …मैं अकसर कहता हूं कि जैसे किसी लेखक की किताब पढ़ना उसे मिलने के बराबर है, किसी पुरानी मैगजीन को देखना, उस में छपे कंटैंट को पढ़ना भी उस गुज़रे दौर की बहुत सी मीठी यादें को फिर से जी लेने जैसा अनुभव है…..


अब इन किताबों मैगज़ीनों की बातें चली हैं तो मैं दो बातें भी यहां दर्ज करना चाहता हूं…..


कपूर साहब मौसा जी…..


दिल्ली में हम लोग 1990 में श्रीमती जी के जी मौसा जी कपूर साहब के घर गए….वह दिल्ली में अध्यापक थे, रिटायर हो चुके थे, बहुत खुश-मिज़ाज इंसान, एक रात ही उन के पास ठहरे …बहुत अच्छा लगा था। पढ़ने-लिखने के शौकीन, कपूर साहब के कमरे में देखा तो हर तऱफ़ किताबें ही किताबें, इंगलिश के टीचर थे, अधिकतर इंगलिश की किताबें, मेज़ के ऊपर किताबें, नीचे किताबें, परछत्ती पर किताबें, पलंग के बॉक्स में किताबें, पलंग पर बिछे गद्दों के नीचे किताबें…..और उन किताबों के बारे में सुन कर मुझे बहुत अच्छा लग रहा था, लगभग सभी जॉनर की किताबें थीं उन के पास…..चलो जी, सोने का वक्त आ गया…सो तो मैं गया उन के ही कमरे में …लेकिन सच मानिए मुझे रात में करवट लेते हुए भी डर लगता रहा कि कहीं दो चार किताबें ही न फट-फटा जाएं….


वह बहुत नेक इंसान थे, अभी नहीं रहे, लेकिन उस के बाद जब कभी किसी भी पारिवारिक समारोहों में मिले, मैं उन के साथ उन की किताबों के बारे में अपनी यादें साझा करता तो हम खूब हंसते। और अब उन के बेटे के साथ जब भी मुलाकात होती है तो उन के बुक-लवर डैड का ज़िक्र तो जरूर होता ही है ….


 देहरादून वाले चाचा जी ..


यह भी बात 1990 की है …हम लोग देहरादून वाले नाना जी (नाना जी के छोटे भाई) के घर गए….आलीशान घर ….देहरादून के पॉश इलाके में….उस वक्त उन की उम्र इतनी हो चुकी थी कि उन्हें ज़्यादा कुछ समझ नहीं आ रहा था ….उन्हें वन-विभाग के उच्च अधिकारी के पद से सेवानिवृत्त हुए बरसों बीत चुके थे …पढ़ते बहुत थे और किताबों, अखबारों और पत्रिकाओं को संभाल कर भी रखते थे ….सामने एक बहुत बड़ा लोहे का ट्रंक पड़ा हुआ था ….(लोहे के बडे़ ट्रंक का मतलब ज़्यादातर हिंदोस्तानियों के लिए वह ट्रंक जिस में पांच सात रज़ाईयां, कंबल, बीसियों स्वैटरें, जैकटें सर्दी खत्म होने के बाद रख दी जाती हैं…) …लेकिन चाची जी ने बताया कि इस ट्रंक में इन की किताबें हैं, पुराने मैगज़ीन हैं, और बहुत पुरानी पुरानी अखबारों की कतरने हैं…., लेकिन रद्दी में नहीं देने देते, कहते कहते हंसने लगी…। 


अभी उस स्पोटर्स-मैगज़ीन में में छपी कुछ और तस्वीरें यहां साझा कर रहा हूं…




अप्रैल 1987 




और हां, पद्मिनी कोल्हापुरे भी दिख गईं एक विज्ञापन में ....




सोमवार, 22 सितंबर 2025

बरसों बीत गए भुट्टा खाए...

मुझे लगता है शायद बीस बरस हो गए होंगे …भुट्टा खाए हुए…कारण, ऐसा वैसा कुछ नहीं है …इसे हम लोग कभी भुट्टा नहीं कहते …हमारी ज़ुबान में इसे छल्ली कहते हैं….हां, काऱण, सिर्फ़ इतना है कि अब ये छल्लीयां जहां भी बिकती हैं, उन में वह पुराने वाला तो छोड़िए, कुछ भी स्वाद नहीं है ….बिल्कुल बकबकी सी लगती हैं अब छल्लीयां….क्या करें, अब उन को खाने की इच्छा ही नहीं होती तो कैसे खा लें….

कुछ दिन पहले मैं सोच रहा था कि मैं भी खाने-पीने के मामले में बड़ा ज़िद्दी हूं….अगर एक बार कुछ ठान लेता हूं कि नहीं खाना तो नही खाना….और मैं यही सोच रहा था कि बहुत सी खाने की चीज़ें मेरी ज़िंदगी से मिलावट की वजह से निकल गईं…..और बहुत सी ऐसी हैं जिन के स्रोत के बारे में अगर मैं आशवस्त नहीं होता तो मैं नहीं खाता ऐसी चीज़ों को …कोई बुरा मनाए, अच्छा मनाए….मैं तो दिल की आवाज़ सुनता हूं….


और हां, कुछ कुछ चीज़ें बदले हुए, बेकार हो रहे स्वाद की वजह से भी छूट गईं…यह सब इसलिए है कि हमने बचपन और युवावस्था में खानेपीने का सुनहरी दौर देखा है …अमृतसर में ….अमृतसर क्या और मथुरा क्या, उस दौर में लोगों को खाने के लिए अच्छा सी मिल जाता था…लालच नहीं था, कोई कीटनाशक इतने नहीं थे, स्प्रे न थे, गोबर की खाद ….और यह सब जेनेटिक्ली मॉडीफाईड का भी कुछ झँझट नहीं था…



यह छल्ली इसी वजह से छूट गई ….बंद गोभी, तोरई मुझे बहुत पसंद थीं, अब कभी कभी ठीक ठाक मिल जाती है तो खा लेते हैं…नहीं खाया जाता ….एक तो बात यह की पहले ये सब चीज़ें सारा साल नहीं बिकती थीं, साल के कुछ महीने ही होते थे बंद गोभी सर्दियों में, तोरई गर्मियों में ….और छल्लीयां भी गर्मी और मानसून के दिनों में ही बिकती थीं….अब तो पता ही नहीं कोल्ड-स्टोर से निकाल कर, अंधाधुंध कीटनाशकों का स्प्रे कर के सब कुछ सारा साल बिकने लगा है ….बस उन की रुह ही गायब है ….


दिक्कत यह है कि जिन लोगों की उम्र मेरे जितने पक चुकी है वही मेरी इस पोस्ट में लिखी बातों से रिलेट कर पाएंगे ….बाकी जिन लोगों ने वह दौर देखा ही नहीं, जो पले-बढ़े ही ये अजीब सी छल्लीयां भुट्टे खा कर हुए हैं, उन को मेरी बातें बोझिल लग सकती हैं….


पांच पैसे की छल्ली ….


आज से 50-55 बरस पहले की बात याद करता हूं तो छल्ली हमें पांच पैसे में मिल जाती थी …छोटी पांच पैसे में और बडी़ दस पैसे में …अब स्कूल से आते वक्त छोटे बच्चों के लिए वह छोटी छल्ली सी नहीं खत्म होती थी…


पूरी ईमानदारी से लिख रहा हूं कि वैसी छल्लीयां जो बचपन और युवावस्था में खा लीं, उन जैसी कभी नहीं खाई…….अब तो कोई स्कोप ही नहीं है ….अब तो भुट्टे इस तरह के बिक रहे होते हैं जैसे किसी खेत से नहीं सीधा किसी फैक्ट्री से निकल कर आ रहे हैं….उधर देखने की इच्छा नहीं होती, क्योंकि बे-स्वाद चीज़ को कोई क्या देखे, जो आदमी रूखा है, ऐंठन-अकड़ के रोग से ग्रस्त है, जब किसी को उस से ही मिल कर खुशी नहीं होती तो फिर यह तो ठहरा एक भुट्टा…..


कैसे तैयार होती थी छल्ली….


उन दिनों अमृतसर में मैं 50-55 साल पहले की बात कर रहा हूं….ये छल्लीयां बेचने का काम उत्तर-प्रदेश और बिहार से आए प्रवासी लोग किया करते थे…..लकड़ी के कोयलों के बारे में तो आप जानते ही होंगे….उन पर ये छल्लीयां भुनी जाती थीं …और पान-चबा रहे उस छल्ली वाले या वाली के होंठ पान से लाल हुए होते थे ….पान चबाना साथ साथ चलता रहता था और हाथ में एक पंखी से हवा की जाती थी ….और एक दो मिनट में बेहतरीन छल्ली तैयार….फिर उसे अच्छे से साफ कर के, उस पर नमक-नींबू लगा कर हमे दे दिया जाता था …


बेहतरीन यादें….


बहुत बाद फिर हम देखते थे भुट्टे को जिस भट्टी पर भुना जाता था, उस पर हवा करने के लिए वह मशीन इस्तेमाल होने लगी जिसे कलई करने वाले इस्तेमाल किया करते थे …लेकिन शायद वह थोड़े वक्त के बाद बंद हो गई…..या मुझे ही नहीं दिखी….लेकिन एक छोटी सी अंगीठी पर छल्ली भुनने का दौर चलता रहा ….आज भी ऐसे ही भुनती होगी लेकिन अब कभी उस तरफ़ जाते ही नहीं ….

कहां कहां खाईं ये छल्लीयां…..


उन दिनों में पिकनिक स्पॉट पर, टूरिस्ट स्पॉट पर छल्लीयां बिका करती थीं …जैसे गिरगांव चौपाटी, जुहू चौपाटी और ऐसे सभी पर्यटक स्थलों पर ये बिकती ही थीं…और सब लोग बड़े चाव से खाते थे….जैसे बाद की पीढ़ी नूडल्स और मोमोज़ की दीवानी हो गई, हम लोग भुट्टे के दीवाने थे ….और यहां तक कि मनाली के आगे रोहतांग पास है ...सुना होगा आपने नाम....जहां बर्फ जमी रहती है ...15 बरस पहले जब हम लोग वहां पर गए तो वहां पर बिहार से आया एक प्रवासी व्यक्ति भुट्टे बेच रहा था ....बस से आता था सुबह मनाली से दोपहर में लौट जाता था बस में ...सारा सामान साथ लेकर आता था ...वहां वे भुट्टे खा कर अच्छा लगा था, भूख लगी हुई थी, यही भुट्टे थे जो आजकल मिलते हैं...बेस्वाद से .बकबके से.......लेकिन वहां पर ठीक लग रहे थे, शायद कमाल भूख का भी होता होगा....😎 हम लोग यही बात करते हुए हंस रहे थे कि पंजाब में तो हम ऐसे भुट्टों को देखते नहीं।


गर्म रेत में भुनी हुई छल्ली ….


रेत में भुनी हुई छल्ली का भी अपना ही ज़ायका होता था…जिसने यह सब खाया है वही जानता है। मुझे यह भी बहुत पसंद थीं……गर्मरेत में दबा कर इसे भूना जाता था…नमक-नींबू लगा कर मज़े से खाना …..वाह क्या दिन थे भई वो भी ….


और वह उबली हुई छल्ली ….


यह मैं पानी में उबली हुई छल्ली को कैसे भूल गया….यह या तो पूरी खा सकते थे जिस पर वह भुट्टे वाला बढ़िया सा मसाला और ईमली की चटनी लगा कर देता था और याद है बचपन में हम लोग उस ईमली की चटनी को चूसते हुए उसे खा जाया करते थे …


और हमेशा जब भी अमृतसर के दुर्ग्याणा मंदिर के बाहर लगने वाले नवरात्रि मेले में जाते थे तो वहां पर दोने में डाल कर छल्ली के उबले हुए दाने मसाले और मीठी चटनी के साथ मिलते थे …बहुत स्वादिष्ट …..


मक्का भुनवाने वाले दिन …


मक्का भी बचपन और जवानी का ऐसा साथी रहा कि इस से जुड़ी सभी बातें याद हैं….उस दौर में स्नैक्स का मतलब यही होता था कि भुजवा (भड़भूंजा पंजाबी में) के पास जा कर मक्का भुनवा कर लाते थे …शहर में कईं जगह इस तरह की भट्ठीयां होती थीं ..जहां पर अधिकतर महिलाएं यह काम बड़ी मेहनत से किया करती थीं….मैं पंजाबी में भी ब्लॉग लिखता हूं और पंजाबी में लिखना मुझे सब से अच्छा लगता है ….जो मैं कहना चाहता हूं सीधा कागज़ पर उतर जाता है ….हां, तो उस पंजाबी ब्लॉग में मैंने छः साल पहले 2019 में एक पोस्ट में ऐसी ही एक भट्ठीवाली बीबी के बारे में अपनी यादें दर्ज की थीं…..अगर आप पंजाबी पढ़ लेते हैं तो इसे मेरे पंजाबी ब्लॉग के इस लिंक कर पढ़ सकते हैं….


ਬਚਪਨ ਦੀ ਭੱਠੀ ਵਾਲੀ ਬੀਬੀ - बचपन की भट्ठी वाली बीबी …..उस के बारे में इतनी यादें हैं कि उन के लिए एक पोस्ट अलग से लिखनी होगी…लेकिन वैसे करने की मेरी कोई इच्छा नहीं है, लिख दिया है पंजाबी में …देखेंगे कभी अनुवाद करना हुआ तो हो जाएगा…..लिखना भी कभी कभी बोझिल काम लगता है ..जैसे मैंने इस भुट्टों के किस्से तो शुरु कर लिए हैं…लेकिन नींद आ रही है, लिखने की बिल्कुल इच्छा नहीं है, लेकिन मैं जैसा हूं मुझे पता है, अगर बात पूरी हो गई तो हो गई, वरना फिर रह जाती है ….बीसियों पोस्टें ऐसे ही आधी अधूरी पड़ी हैं लैपटाप में….. 


पंजाब में लोग मक्का खरीदते थे लेकिन पहाड़ी मक्का पंसद किया जाता था ….वह मीठा होता था….अभी लिखते लिखते ख्याल आया कि मक्का भी जैसे हमारे खान पान का अभिन्न अंग था…जब बरसात के बाद सर्दियों में छल्लीयां मिलनी बंद हो जाती थीं तो फिर सूखे मक्के को भुनवा कर ….फुल्ले खाए जाते थे …फुल्ले ..वही जिन्हें अब लोग पॉप-कॉर्न कहते हैं…..पंजाबी में हम फुल्ले ही कहते थे …थे वे कुछ नहीं, ज़ुबान थोड़े न बदलती है…अभी भी फुल्ले ही कहते हैं….सर्दी में ताज़े फुल्ले और साथ में गुड़ शाम के वक्त खाने का क्या नज़ारा होता था, मेरे पास लफ़्ज़ ही नहीं है उस को ब्यां करने के लिए….


मक्की की रोटी ….


मक्की की रोटी और सरसों का साग , यह मैं कैसे भूल गया…..बचपन ही से सरसों के साथ तो मक्की की रोटी खाते ही रहे हैं और साथ में मक्की की रोटी पर देशी घी या मक्खन रख कर गुड़ की शक्कर या गुड़ मेरा मनपसंद खाना रहा है ….अभी हाल तक ….कुछ महीने पहले गुड़ की मिलावट पर एक ऐसी दिल दहला देने वाली वीडियो देखी कि कईं महीने हो गए हैं गुड़ को हाथ नहीं लगाया…वैसे भी इसी बहाने मीठा खाना थोड़ा तो कम हुआ मेरा…..


लो जी 34 वर्ष पहले दिख गए कॉर्न-फ्लैक …..


1991 में पहली बार मैंने कॉर्न-फ्लैक खाए ….कुछ दिन जहां पर रहे वहां पर नाश्ते में ये दिख जाते थे …दूध साथ में रहता था, चीनी भी। अच्छा लगा था पहली बार खाना….फिर कभी कभी खाने लगे ….


शायद थोड़ा बहुत आईडिया तो हो ही गया होगा कि ये मक्के से ही बने हैं…

फिर तो कुछ बरसों तक ये कॉर्न-फ्लैक्स छाए रहे …खाते रहे हम लोग भी …फिर धीरे धीरे जब समझ आई कि जो चीज़ ताजा़ मिल रही है वह फूड है और जो पैकेट में आ गई वह प्रोड्क्ट हो गई ….


बस, ऐसे ही धीरे धीरे कॉर्न-फ्लैक्स से भी मोहभंग हो गया….एक तो कारण यही कि ये प्रोसैस्ड फूड है, दूसरा यही कि इसमें बहुत शक्कर डालनी पड़ती थी…धीरे धीरे छूट गया यह भी खाना….अब तो तरह तरह के फ्लेवर आ गए हैं, चाकलेट वाले, और भी पता नहीं रंग बिरंगे कौन कौन से ..लेकिन मैंने अगर कुछ छोड़ दिया तो फिर छोड़ ही दिया….


भुट्टे की सब्जी ..


पिछले कुछ बरसों से भुट्टे की सब्जी भी बनने लगी है …..लेेकिन हमें जैसे अब भुने हुए भुट्टे खाने में कोई रूचि नहीं है, वैसे ही अब भुट्टे की सब्जी में भी कोई दिलचस्पी नहीं है। बस, यही ख्याल आता है कि जो सब्जी है ही इतनी बेस्वाद सी, बकबकी सी ….वह कितना पोषण दे देगी……

और ये जो बेबी-कॉर्न हैं, ये भी अजीबोगरीब किस्म के दिखते हैं बाज़ार में ….ये कितनी बड़ी तोपे हैं कह नहीं पाऊंगा क्योंकि कभी इन को खाने का शौक नहीं रहा….


छल्ली के फ़ौरन बाद पानी पीने की मनाही ....मां की सीख


बातें याद आती हैं तो पहले उन को लिख देना चाहिए…हमारी माता श्री को हमारे भुट्टे खाने की आदत से कोई एतराज़ न था….लेकिन उन्हें बस यही फिक्र रहती थी कि छल्ली खाने के बाद कहीं यह पानी पी कर अपना पेट न दुखा ले …वैसे, उस दौर में एक और बात लोगों के दिलोदिमाग में थी कि तरबूज खाने के तुरंत बाद पानी नहीं पीना चाहिए वरना बीमार हो जाते हैं….फिर तो हमारी आदत ही बन गई कि छल्ली और तरबूज़ खाने के फ़ौरन बाद पानी नहीं पीना है ….


दूसरी बात यह भी कि जैसे घरों में समोसे, कचौरियां आती थीं -अकसर गिन कर …ऐसे ही दोपहर में बहुत बार सब के लिए एक एक छल्ली लेकर आते थे ….भुट्टे के पत्ते में रखा कर, और कभी कोई भुट्टे वाले के पास कोई कागज़ होता तो वह उन में रख कर दे देता….


घर में सिके भुट्टों में कहां वह बात .....


बात और ...बाज़ार में कच्चे भुट्टे भी बिकते थे ...लेकिन घर में लाकर उन को अंगीठी पर सेंक कर वह मज़ा नहीं आता था जो बाज़ार में बिक रहे भुट्टे खाने से आता था....और बाद में जब ये भुट्टे कुकिंग गैस पर घर में कभी सेंके जाते तो ........तो क्या, भई, एक दम बेकार.....अभी लिखते लिखते याद आई एक बात कि हम लोगों ने स्टोव पर घर में सिके हुए भुट्टे भी खाए हैं, कमबख्त भुट्टों में घासलेट की बास आया करती थी....


वैसे छल्लीयां उन दिनों मीठी ही होती थीं….यह तो मैं पहले ही कितनी बार लिख चुका हूं….अभी एक बात याद आ रही है कि घर में कभी कभी कॉर्न-फ्लोर की बात होती है ….मेरे विचार में कस्टर्ड पावडर में भी यह होता होगा…..उस के ऊपर शायद कुछ लिखा तो रहता है ….मुझे कस्टर्ड खाना बहुत अच्छा लगता था लेेकिन जब से मिल्क और मिल्क प्रोडक्ट्स से किनारा किया है …कस्टर्ड भी छूट गया …


चलिए, अब एक बात लिख कर बंद करूं …बहुत हो गया….पढ़ने वालों को बोरिंग लग सकता है .. क्या करूं, मैं तो जब अपनी डॉयरी लिख रहा हूं तो उसमें सभी बातें जो भी याद आती हैं, दर्ज कर देने को उतावला रहता हूं…जाते जाते यह भी लिखना होगा कि ये जो बातें मैंने ऊपर लिखी हैं और मल्टीप्लेक्स में 400-500 रुपए में मीठे-कोटेड-फ्लेवर्ड पॉप-कार्न वाले टब की बातें क्या एक ही संसार की लगती हैं….


सोमवार, 15 सितंबर 2025

ऐसी भी क्या कशिश थी सिडनी शेल्डन की आत्मकथा में !


उस दिन दिल्ली बंबई की फ्लाईट के बोर्डिग गेट के बाहर लॉबी में बैठा मैं सिडने शेल्डन की यह किताब पढ़ने में इस कद्र डूबा हुआ था ...और वैसे भी बोर्डिंग के लिए कतार में खड़े होने में मुझे बड़ी चिढ़ है ....सब को लेकर ही तो उड़ेगा ....और खड़ा भी कम नहीं रहना पड़ता, कईं बार 10-15 मिनट भी .....खैर, जब वह कतार ख़त्म हो गई तो मैं भी उठा....और मैंने एयरक्रॉफ्ट में अंदर जाते वक्त देखा कि पहली कतार में देश का एक महान् फिल्म-मेकर , स्टोरी-टेलर बैठा हुआ था....जिसने हमें बहुत बड़ी नामचीन फिल्में दी हैं....और निरंतर अपने काम में अपनी धुन में लगा ही हुआ है....जाते वक्त देखा कि वह हाथ में एक पेन लिए एक शेयरो-शायरी की किताब पढ़ने में व्यस्त है ....अच्छा लगा जैेेसे वह साथ साथ उस किताब को अपनी कलम से काला कर रहे थे .....किताब के एक तरफ़ कंटैंट रोमन में लिखा हुआ था और दूसरी तरफ़ देवनागरी में ...वह देवनागरी में लिखी इबारत पढ़ रहे थे और अपनी कलम से उसे टिक-मार्क किए जा रहे थे....

मैं भी थोड़ी दूरी पर बैठ गया....सिडने शेल्डन की जो किताब मैं पढ़ रहा था वह मैंने लगभग पूरी पढ़ ली थी, अभी बस 20-25 पन्ने ही रहते थे ....मैं भी किसी किताब को पढ़ते वक्त हाथ में एक पेन ज़रूरत रखता हूं और उसे खुल कर उन पन्नों पर चलाता हूं, यह अक्ल मुझे कुछ वक्त पहले ही आई है .....अगर अपनी खरीदी हुई किताब से ही बंदा खेल न पाया तो और कहां खेलेगा.....बाद में कौन पढ़ेगा, कब पढ़ेगा, कब पढ़ेगा, ये सभी बेकार की बातें हैं, बाद में रद्दी ही में जाएंगी.....चिंता मत करिए। इसलिए दिल खोल कर अपने दिल में आने वाली बातें उन पन्नों पर लिखते रहिए, रंग डालिए उस किताब को ....तभी लगता है कि हमने उसे पढ़ा है, कुछ कुछ बातें तो हाइटलाइट करने वाली होती हैं....

यह किताब ...सिडनी शेल्डन ...मैंने कुछ सोच समझ कर नहीं खरीदी. ....असल बात तो यह है कि जब मैंने यह किताब खरीदी तो मुझे यह भी न पता था कि यह शख्स है कौन.....बस, इतनी धुंधली सी बात पता थी कि यह शख्स कोई बड़ा लेखक है ....नावलिस्ट है .....बस, इतना ही पता था ...

इस किताब को खरीदने का किस्सा भी बड़ा रोचक है....

मैं जुलाई 2023 में एक बुक-स्टोर में किताबें देख रहा था...अचानक मेरी नज़र इस किताब पर पड़ी....इस का कवर तो आकर्षक तो था ही ....उस के बैक-कवर पर एक बात लिखी हुई थी इँगलिश में .....ज़िंदगी एक नावल की तरह है। यह कौतुहल से से भरी हुई है ....जब तक इस नावल का अगला पन्ना नहीं खुलता, कुछ पता ही नहीं होता कि आगे क्या होने वाला है ....। 

बस, मैं इस बात से खुश हो गया और साथ में उसी बैक-कवर पर लेखक के बारे में लिखा हुआ था कि उसका रचना संसार कितना विशाल था ...मैं पहली बार यह पढ़ रहा था ....बस, उस किताब को खरीद लिया....

दो साल दो महीने लग गए इसे पढ़़ने में ....

कईं बार किताब खरीदने के बाद मैं उस के ऊपर वह तारीख के साथ साथ कहां से खरीदी वह भी लिख देता हूं...अब एक आदत सी हो गई है ....इस वक्त यह किताब मेरे सामने है ...जिस से मुझे पता चला कि मैंने इसे 19 जुलाई 2023 को पढना शुरू किया ...चार दिन तक ...दो बरस पहले 23 जुलाई तक मैंने इसे पढ़ा, किताब बहुत रोचक लगी ....डेढ़ सौ पन्ने जैसे मैं पी गया ....इतनी रोचक किताब ...होनी ही थी जब इतना महान लेखक अपनी ज़िंदगी की कहानी लिख रहा है तो क्यों न होगी वह उस की तमाम किताबों से कहीं ज़्यादा रोचक ....

खैर, इस के 368 पन्ने हैं....मैंने तब तक 150 पन्ने पढ़ लिए थे ...मैं किताबें खरीद लेता हूं लेकिन बहुत ही कम किताबें होंगी जिन को मैंने पूरा पढ़ा है ....जिस किताब में रोचकता होगी, रवानगी होगी ...ज़्यादा ज्ञान नहीं दिया होगा, मुझे वे किताबें ही बढ़िया लगती हैं, मैं उन को ही पढ़ता हूं....कितना भी बढ़िया लेखक हो, अगर वह मुश्किल इंगलिश या हिंदी लिखता है और मैं अगर बीच बीच में कुछ लफ़्जों पर अटक  जाता हूं तो मैं ऐसी किताब को नहीं पढ़ जाता ...उसे सज़ा देने के लिए बुक शेल्फ पर टांग देता हूं....

अच्छा, एक बात और मैंने की इस किताब को पढ़़ते वक्त ...कि जिस तारीख को भी इसे पढ़ा उस नए पन्ने पर वह तारीख लिख दी....इसी से मुझे पता चला कि खरीदने के चार पांच दिनों के बाद तक मैंने इसे पढ़ा, उस के बाद एक महीने का बाद यानि कि अगस्त 2023 में भी इस किताब के भाग्य खुले ....जब मैंने इस के दो चार पन्ने पढ़े। 

और फिर किताब गुम हो गई ....मेरी नज़रों से भी और ज़ेहन से भी.....

जी हां, फिर पूरे दो साल तक यह किताब मेरे स्टडी-रुम के कबाड़खाने में कहीं दब के रह गई....उन दो बरसों में कभी दो चार इस किताब की रोचकता का ख्याल भी आया....लेकिन सवाल यह था कि अब इसे कहां तलाश करूं ...रुई के डेर में सूईं तलाश करने से भी मुश्किल काम था ....

ऐसे ही दो बरस बाद इस साल 19 जुलाई 2025 को यह किताब मिल गई ...फिर से पढ़ना शुरू किया....

और हां, इस किताब को मैंने ट्रेन यात्रा, हवाई यात्रा, मुंबई की लोकल ट्रेन और दिल्ली की मेट्रो ट्रेन में ही अधिकतर पढ़ा ....क्योंकि यात्रा के दौरान कोई रोचक किताब हाथ में हो तो वक्त अच्छा पास हो जाता है ....हम लोगों को सफर के दौरान बिल्कुल बात न करने की आदत है ....अजनबियों से तो क्या, हम लोग परिवार वाले भी सफर में बहुत कम बात करते हैं...बस, एक दूसरे की बात का जवाब देने तक ही वास्ता रखते हैं....सफर में बातें करने से भी हमारा सर भारी हो जाता है ....यह बात तो अजीब है ..लेकिन अब जो है सो है .....पहले पहले तो हम लोग राजधानी ट्रेन में जैसे बंबई से दिल्ली जा रहे हैं, तो बिल्कुल कम वार्तालाप, हम लोग बाद में हंसते थे कि दूसरे लोग सोचते होंगे कि ये लड़ाई करने के बाद गाड़ी में चढ़ें हैं, या इन की आपस में बातचीत ही नहीं है....

खैर, यह किताब मैंने पूरी पढ़ ली है ...और मैंने इस तरह की इतनी ईमानदारी से लिखी किताब शायद कम ही पढ़ी हैं ...यह बात भी है कि ईमानदारी के साथ साथ इस की रोचकता भी बरकरार रह पाई....यह बहुत बड़ी बात है ..शेल्डन कोई सीख नहीं दे रहा, अपने जिंदगी के तजुर्बे साझा कर रहा है .... कोई उन में क्या चुनना चाहे, चुन ले। 

आज कल हर इंसान ...हर फील्ड में हथेली पर सरसों उगाना चाहता है ....रातों रात अमीर बन जाता है, शोहरत, रुतबा.....हर कुछ हर कीमत पर फ़ौरन हासिल करना चाहता है....ज़ाहिर सी बात है इस तरह की किताब को पढ़ना सब के लिए बहुत ज़रूरी है .....यह समझने के लिए कि ये लोग जिस मुकाम तक पहुंचे इस के पीछे कितनी मेहनत, लगन, मुफलिसी, कितनी सहनशीलता, कर्मठता, नेटवर्किंग, नाकामीयां, डगमगाने, गिरने की कहानी और फिर से उठ कर खड़ा होने की चाहत .....ये तो मैं 10 फीसदी भी नहीं लिख पा रहा हूं कि आखिर इन 350 पन्नों में दर्ज क्या है .....कर भी कैसे सकता हूं ...क्योंकि शेल्डन सारी ज़िदगी सृजन कार्य में डूबा रहा ....इतनी फिल्में लिख दीं, इतने नाटक, इतने नावल ....और भी इतना कुछ ...फेहरिस्त लंबी है ....बहुत......

शेल्डन का जन्म 1917 में हुआ और 2007 तक जिए....88 साल की आयु में उन्होंने 2005 में यह अपनी आखिरी किताब लिखी ....आत्मकथा की शैली में....मुझे नहीं पता था यह सब जब मैंने इस किताब को खरीदा या जब मैं इसे पढ़ रहा था ...इसे पढ़ते पढ़ते जिज्ञासा हुई तो विकीपीडिया से यह सब जाना.... 

जैसे हिंदी फिल्मी गीतों के बारे में हम कहते हैं ...विशेषकर 60-70-80 से सुनहरे दौर के बारे में कि उन में जिंदगी के सभी रंग दिख जाते हैं ..हम उन को अनुभव करते हैं ...ये गीत हम में हर तरह के भाव पैदा करते हैं ...ठीक उसी तरह शेल्डन की यह आत्मकथा भी पाठक के मन में जिंदगी के सभी भाव पैदा करती है....कुछ बातें भावुक करती हैं, कुछ गुस्सा दिलाती हैं, कुछ करुणा भाव पैदा करती हैं, कुछ हंसाती हैं, कुछ आंखें नम भी करती हैं....और यह तभी मुमकिन हो पाता है जब कलम चलाने वाले ने दिल खोल कर अपनी जिंदगी के पन्ने पाठकों के सामने खोल दिए हों .....अपनी लेखनी के ज़रिए.....

पिछळी बार मैंने कौन सी किताब पूरी पढ़ी थी ...

जैसा कि मैंने बताया कि मैं किताबों से बहुत जल्दी ऊब जाता हूं....कारण मैंने लिख दिए हैं....यहां तक कि मैंने तो अपने स्कूल-कालेज के दिनों में किताबें उतनी ही पढ़ीं जितनी बहुत ज़रुरी हुआ करती थीं...पहली बात तो यह कि उन में लिखा बहुत कुछ बोर कर देता था, कुछ ज़्यादा समझ वमझ भी नहीं आती थी, क्लास में टीचरों की बातें ही पल्ले पड़ती थीं.....इसलिए टैक्सट-बुक्स से इतना रिश्ता कभी जु़ड़ न पाया...सब कुछ अनुमान पर ही चलता रहा ....सिलेक्टिव रीडिंग ...पहले गैस पेपर आते थे ..उन को भी देख लिया करते थे ....पेपरों के कुछ दिनों पहले गैस पेपरों का अध्ययन इतनी बारीकी से किया जाता था जितना अध्ययन आज कल शेयर-ब्रोकर भी न करते होंगे....

2019 की बात है ....सुरेंद्र मोहन पाठक की आत्मकथा आई थी ....पाठक जी नावल लिखते हैं और अब तक 300 नावल लिख चुके हैं ...और इतने नावल लिखने के बाद ही उन्होंने अपनी जीवनी लिखी है ....मुझे याद है उस के भी लगभग चार सौ पन्ने थे ....और उन के लिखने का स्टाईल इतना रोचक था कि मैंने तीन चार दिनों में वह किताब पढ़ ली थी ...मैं उन दिनों छुट्टी पर था ...यही नहीं, उस के बाद उन की आत्मकथा के दो हिस्से और भी आए जिन को मैंने उसी शिद्दत से पढ़ा, और हर किताब को पढ़ कर उन को एक ख़त लिखा जिन को उन्होंने तुरंत जवाब भी दिया....कुछ साल पहले दिल्ली में एक साहित्य सम्मेलन के दौरान उन से मुलाकात भी हुई थी ....

किताबें हज़ारों हम लोगों के इधर उधर बिखरी होती हैं....मुफ्त में मिली हुई किताबें अकसर पढ़ी नहीं जातीं.....एक बात मज़ाक में कही जाती है ....हिंदोस्तान में शादी ब्याह में रिश्तेदारों को भी कपड़े मिलते हैं अकसर .....अब तो पता नहीं ..मिलते ही होंगे और कपड़े भी बिना सिले हुए और इन कपड़ों के बारे में यह बात मशहूर है कि इन के मुकद्दर में दर्जी के पास जाना लिखा ही नहीं होता,  वे आगे से आगे रिश्तेदारों में दिए-लिए ही जाते रहते हैं.....मुझे भी एक ऐसी कमीज़-पैंट मिली थी , कहीं से कालेज के दिनों में, मैंने गल्ती से उसे सिलवा लिया था ...कमबख्त कपड़ा ऐसा था कि पहनते ही मुझे घमौरियां हो जाती थीं और मैं परेशान हो जाता था ....कईं बार फैंक देने की इच्छा भी हुई लेकिन.....वही हाल किताबों का है, जो किताबें हमें गिफ्ट में मिलती हैं, वे अकसर हम लोग पढ़ते नहीं, हमें उन की कद्र नहीं होती,  जो किताबें हम लोग ढूंढ कर अपनी रुचि के मुताबिक खरीदते हैं, हम उन के ही दो चार पन्ने पढ़ कर परे रख देते हैं ....ऐसे में किसी किताब को पूरा पढ़ लेना, उस किताब की महानता ही दर्शाता है ...हम लोगों का अटैंशन-स्पैन ही कितना कम है अब तो ...

ऐसा क्या है इस किताब में .....

शेल्डन की  किताब में ऐसा क्या है जो मैं यह सिफारिश कर रहा हूं कि इसे हर किसी को पढ़ना चाहिए...विशेषकर युवाओं को जो रातों रात रईस बनना चाहते हैं, रातों रात नाम, दौलत, शोहरत हासिल कर लेना चाहते हैं....इस का हर पन्ना आप के लिए कुछ मैसेज लिए हुए है.....इस के बारे में तो मैं पहले ऊपर लिख ही चुका हूं.....बार बार एक ही बात क्या लिखूं....

और हां, एक बात यह भी लिखनी है कि किताब इतनी रोचक है....फिर भी जब मैंने इस का बाकी का हिस्सा दो साल बाद पढ़ने के लिए उठाया तो मुझे कुछ याद नहीं था कि पहले 150 पन्नों में मैंने क्या पढ़ा था ...कुछ भी याद न था....और आज जब इसे पूरा पढ़ लिया है तो भी इस के बारे में कुछ ज़्यादा याद नहीं है, जितना याद था मैंने ऊपर लिख दिया है ....लेकिन इस तरह की किताब को फिर से पढ़ने के लिए किसी को कौन रोक रहा है.....मैं भी यही सोच रहा हूं कि अपनी यात्राओं के दौरान इसे तो फिर से पढ़ना ही होगा.....आसान होगा शायद अब इसे पढ़ना क्योंकि मैंने इसे खूब काला-पीला किया हुआ है ...... जिससे लगता है कि यह किताब अपनी है, इसी वजह से अपनेपन का अहसास होता है इस को देखने भर से...छूने भर से .... 😃

किस दूसरी भाषा में उपलब्ध है यह किताब ....

जितना मैंने नेट पर चेक किया यह किताब मराठी भाषा में भी अनुवाद की हुई उपलब्ध है...वैसे मैं तो सोच रहा था कि इस तरह की किताबें देश की सभी भाषाओं में अनुवादित होनी चाहिए...ताकि ये हर युवा तक पहुंचे और उनमे ं एक ठहराव पैदा करें ....कबीर की बात हम सब के पल्ले पड़े....धीरे धीरे रे मना...धीरे सब कुछ होय....

वैसे मुझे कभी कोई अनुवाद की हुई किताब पढ़ने में मज़ा आया हो, याद नहीं.....अकसर अनुवाद करने वाला उस की रुह गायब कर देता है ...उसका भी कसूर नहीं है.....वह मूल लेखक के दिल में कैसे घुस सकता है .....बहुत सी बातें, भाव, हाव-भाव, सामाजिक, सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य जिन का अनुवाद नामुमकिन है........शायद यही कारण है कि मुझे ये डब की हुई फिल्में भी बिल्कुल पसंद नहीं हैं......कल्पना कीजिए, तमिल, कन्नड फिल्म को पंजाबी में डब करना या पंजाबी फिल्म कैरी-ऑन-जट्टा को अगर तमिल में डब कर के दर्शकों तक पहुंचाया जाए ......इन फिल्मों का क्या हश्र होगा.....कल्पना कर के देखिए....

और उस दिन फ्लाईट के दौरान पूरी पढ़ ली यह किताब ....

उस दिन फ्लाईट में जब मैं अंदर आ रहा था तो मैंने उस महान फिल्म मेकर को जो किताब पढ़ते देखा उस का नाम मैं अपनी सीट तक जाते जाते भूल चुका था ....मैंने सोचा कि अगर यह बंदा मुझे लगेज-बेल्ट के पास मिलेगा तो उससे किताब का नाम तो पूछ ही लूंगा....वापिस लौटते वक्त वह बंदा मुझे वहीं लगेज-बेल्ट के पास इंतज़ार करते दिख गया ...मेरा तो कुछ सामान नहीं था ...लेकिन मैंने उन के पास जा कर अपनी इंट्रोडक्शन दी और बताया कि लखऩऊ और बंबई में होने वाले उन के लगभग सभी प्रोग्रामों में मैं शिरकत कर चुका हूं.....बात कर के अच्छा लगा ...जो लोग विनम्र  होते हैं ....उन से मिल कर किसे अच्छा नहीं लगता.....मेरे से कब रहा जाता....मैंने पूछ ही लिया कि सर, आप जो किताब पढ़ रहे थे उस का नाम बता दीजिए.....उन्होंने हंसते हंसते मुझे उस किताब का नाम लिखवा दिया.....और इतने में उन का सामान उन को दिख गया और अपना हाथ उस शख्स ने मेरे साथ मिलाने के लिए आगे बढ़ा दिया.......मेरा दिन बन गया.....देखा तो इन को बहुत से कार्यक्रमों में था लेकिन कभी बात नहीं हुई थी .....

पोस्ट खत्म हो गई....उस महान शख्स का नाम नहीं बताया मैंने, इसलिए मुझे ही अजीब सा लग रहा है ......वह महान फिल्म पर्सेनिलिटी थी ....मुज़फ्फर अली साहब। 

आज पोस्ट के नीचे गाना एम्बेड नहीं हो रहा ...इसलिए लिंक यह रहा उस गीत का ...ज़िंदगी क्या है इक लतीफा है......

बुधवार, 10 सितंबर 2025

सफ़र में पानी की सुराही साथ लेकर चलने वाले दिन ....


सफ़र के दौरान
 हर तरफ़ पानी की खाली प्लास्टिक की बोतलें देखना बड़ा कष्ट देता है ...कभी कभी अचानक हमें पुराना सुनहरा दौर याद आ जाता है ...दो दिन पहले मुझे कहीं वह एक लंबी सी ईगल की लंबी सी थर्मस दिख गई जिसमें हम लोग फ्रिज में जमाई हुई बर्फ लेकर चलने लगे थे ...लेकिन शुरुआत हमारी यहां से नहीं हुई थी...

चलिए...चलें ज़रा 1960 के दशक के आखिरी दौर में ....मुझे याद है जब भी कोई ट्रेन में यात्रा करनी होती तो हर परिवार साथ में एक स्टील का या पीतल का गिलास लेकर चलता था ...क्योंकि पानी वानी का कोई इतना झंझट नहीं होता था, सभी लोग स्टेशन पर लगे नलकों से ही अपनी प्यास बुझाते थे ....

अगर सफ़र पांच छः घंटे का होता या इस से थोड़ा ज़्यादा भी होता और दिन का सफ़र होता तो बस एक खाली गिलास साथ रख लिया जाता। जैसे हम लोग अमृतसर से गाड़ी में बैठते तो स्टेशन से पूरी-छोले की ज़रुरी डोज़ लेने के बाद, पानी को गले तक फुल कर लिया जाता...टंकी फुल कर के ही सीट पर बैठते थे ....

लेकिन पंजाब की गर्मी के लू-के थपेड़े के दिनों में वह टंकी जालंधर तक ही खाली हो जाती ...फिर प्यास से परेशान...इतने में स्टेशन आ जाता और सब की बस इसी बात का ख्याल रहता कि डिब्बा पानी के नलके के सामने रुका है या दूर ....अगर तो सामने ही होता तो मांएं हिम्मत कर के बच्चों को गिलास थमा देतीं कि जाओ पानी पी लो और एक गिलास ले आओ....भेज तो देतीं लेकिन सांसे उन की टंगी रहती जब तक बच्चा वापिस डिब्बे में चढ़ न जाता ....

मेरी मां जैसी साहसी औरते भी होती थीं कुछ ....मुझे याद है मैं बहुत छोटा था ....लेकिन याद पक्की है मुझे....डिब्बे में से कोई भी बंदा बाहर पानी पीने जा रहा होता तो मां, अकसर उसे कहती.....भरा जी, जरा ऐन्नूं वी पानी पिया के लै आओ...।(भाई साहब, ज़रा इस को भी पानी पिला लाओ).....और वह बंदा मेरा हाथ थाम कर नीचे ले जाता और मैं उन दिनों इतना छोटा था कि मेरा मुंह पानी के नल तक ही न पहुंच पाता ....और वह बंदा अपनी दोनों हथेलियां मिला कर उस में पानी भर कर मुझे पानी पिला देता ...और मुझे वापिस गाड़ी में ले आता ....इस तरह के साहसी काम ज़्यादातर लुधियाना स्टेशन पर ही होते थे जहां पर गाड़ी 10-15 मिनट रुकती थी ....और वही पानी पी कर लोगों का पकौड़ों, भटूरे-चने और पूरी-छोले के खोमचों पर टूट पड़ना....

अच्छा, एक बात और दर्ज करनी बहुत ज़रुरी है कि पानी स्टेशन पर मिलता तो था लेकिन अलग अलग किस्म का ...लुधियाना, जालंधर जैसे स्टेशन पर पानी ठीक ठाक मिल ही जाता था ....लेकिन कईं बार कुछ लोग पानी की सेवा करने वाले डिब्बे डिब्बे में पहुंच कर ठंडा पानी पिलाते थे ....

मैं बस लिखना यही चाहता हूं कि उन दिनों ये प्लास्टिक की बोतलें नहीं थी चाहे, लेकिन प्यास बुझाने में कोई दिक्कत न आती थी ....पानी मिल ही जाता था ....प्लेटफार्म पर या किसी न किसी स्वयं-सेवी संस्था द्वारा सेवा के रूप में ही ....भीषण गर्मी के दिनों में लोग अगले स्टेशन का इंतज़ार करते थे कि वहां पर तो ठंडा पानी मिल ही जाएगा...सब लोग तसल्ली से पीते थे और जिस किसी के पास कोई कैनी (छोटा-मोटा कैन) होती वह उसे थोड़ी बहुत भरवा भी लेता....

प्लेटफार्म पर हैंड-पंप भी बहुत काम के होते थे ......गाड़ी से यात्रा करने का जितना मेरा अल्प-ज्ञान है, उस के आधार पर मैं जब याद करता हूं तो यह जो दिल्ली से फिरोज़पुर लाईन पर बहुत से स्टेशन ऐसे थे जहां पर पानी की मुफ्त सेवा करने लोग पहुंचे होते थे और दूसरी बात यह की बहुत से स्टेशनों पर हैंड-पंप का ठंडा पानी भी उपलब्ध रहता था ....गाड़ी के रुकते ही वहां भीड़ जमा हो जाती थी ...कौन उस नल को गेड़ रहा है कौन पी रहा है, कोई हिसाब किताब नहीं...बस, गाड़ी जब तक खड़ी रहती, उस हैंड-पंप से ठंडा-मीठा पानी निकलता रहता......जब पानी पी पी के बंदों के पेट ऑफर से जाते .....मतलब और कोई गुंजाइश न होती ...तब लोग उस ठंडे जल से मुंह धोने लगते .....और अपने परने (अंगोछे) गीले करने लगते ....चूंकि अकसर ये हैंड-पंप किसी बहुत पुराने बरगद, शीशम के पेड़ के नीचे होता तो यह नज़ारा भी देखने लायक होता था .....उस पेड़ और उस हैंडपंप के लिए एक कृतज्ञता का भाव स्वतः पैदा हो जाता था ....

लिखते लिखते एक बात याद आ रही है कि कुछ स्टेशन वहां के खारे नमकीन पानी के लिए भी जाने जाते थे क्योंकि वहां पर पानी तो लोग जैसे तैसे मजबूरी में पी लेते थे लेकिन चाय वाय वहां की पसंद न की जाती थी- नमकीन पानी वाली चाय कोई कैसे पिए......

अच्छा, एक बात है जब लोग रात में सफर करते या लंबा सफ़र करते तो साथ में एक मश्क में पानी भर ले कर चलते...मेरी सब से पुरानी याद है 1967-68 के आस पास की ..हम लोगों ने अमृतसर से फ्रंटियर ट्रेन पकड़ी है, फर्स्ट क्लास के एक डिब्बे में हम सब एक साथ हैं...मेरे पिता जी एक बहुत बढ़िया एल्यूमिनियम की फ्लॉस्क लाए थे ...जिस का ढक्कन भी एल्यूमिनियम का होता था . एक चेन से बंधा हुआ ...बाहर एक मोटा सा फेल्ट जैसा कपड़ा लगता होता था ...एक तो उस में पीने का पानी था और दूसरी हमारे पास एक पानी की मश्क थी .. जिस में यही 1-2 लिटर पानी आता होती ...जिसे मेरे पिता जी रस्सी से उस डिब्बे की खिड़की के साथ बांध रहे हैं, ताकि हवा लगने से पानी ठंडा हो जाए.....यह नज़ारा मेरी यादों की स्क्रीन पर यूं का यूं मानो फ्रीज़ हुआ पड़ा है ....

अच्छा, 1970 के दशक के थोड़ा इधर उधर की बात याद करें तो लंबे सफर में पानी की सुराही लेकर चलने का रिवाज चल निकला था ....नहीं, मैंने यह क्या लिख दिया ...रिवाज.....

रिवाज वाज कुछ नहीं, उन दिनों सब कुछ ज़रूरत से तय होता था ....

हां, तो सुराही लेेकर सफर में चलना तो है लेकिन घर से जब रिक्शे या तांगे पर स्टेशन आते थे तो उस वक्त वैसे ही इतना भारी भरकम सामान - बड़े बड़े लोहे के 1-2 ट्रंक और एक बड़ा सा बिस्तरबंद और अगर हमारी दादी भी साथ होती तो एक दो पीपे भी साथ होते थे ...(पीपे तो आप समझते ही होंगे, वहीं बड़े बड़े टीन के घी के खाली डिब्बे जिन पर ढक्कन और कुंडा लगवा लिया जाता था ....वैसे लगवाने की ज़रूरत न पड़ती थी, ऐसे डिब्बे बाज़ार में मिलते थे और उस दौर के बुज़ुर्गों के ये हॉट-फेवरेट होते थे क्योंकि इन में छोटा सा ताला (नाम के लिए बस...) लग जाता था और अगर ताला न भी मिलता तो सिर की सूईं मरोड़ कर उस से ताले का काम ले लिया जाता ....) ...

तो फिर सुराही तो स्टेशन ही से खरीद ली जाती थी ....अकसर स्टेशन पर मिल जाती। नहीं तो अमृतसर स्टेशन के बाहर दुकान से ये सुराही 8-10 रूपए में मिल जाती थी ....और पानी डाल कर उस की लीकेज भी चेक करवा के आना पड़ता था ...लेकिन वक्त की कोई टेंशन नही होती थी ....वक्त खुल्लम खुल्ला रहता था....गाड़ी छूटने से लगभग पौन-एक घंटा पहले आ जाएगा कोई परिवार स्टेशन पर तो सब के पास अपने आप काम करने के लिए टाइम ही टाइम होता था ....मैं अपना 2 रुपए वाला स्कूटर लेकर खुश हो जाता, बड़ी बहन अपनी कोई मैगज़ीन खरीद लेती, बड़ा भाई पूरी छोले खाने में बिज़ी हो जाता ....मां ट्रंक पर बैठी रहती, पिता जी सिगरेट के छल्ले उडाते हुए प्लेटफार्म पर घूमते रहते ....रिजर्वेशन का जुगाड़ करने में लगे दिखते....जी हां, उन दिनों सब काम जुगाड़ ही से चलते थे ....गाड़ी के अंदर बैठने तक पता नहीं होता था कि रिज़र्वेशन कंफर्म है भी या नहीं.....

और  मेरा काम था प्लेटफार्म के नल से सुराही को भर के लाना और उसे एहतियात से रखना .....कहीं टूट-फूट गई तो पंगा ...पंगा वंगा वैसे कुछ नहीं, हमारे यहां किसी को, कभी भी, कुछ भी हो जाए डांट-वांट लगाने का कुछ चलन नहीं था, लेकिन सब लोग वैसे ही विचारशील थे ...छोटे, बड़े सभी। यही हमारी सब से सुखद यादें है। हां, भरी हुई सुराही पानी की होती थी तो सफ़र आराम से कट जाता था ... ज़रूरत न होने पर भी बार बार पानी पीने की इच्छा जाग जाती थी ...मानो उस में पानी न, शरबत भरा हो .... 

पहली बार प्लास्टिक की बोतल देखी 1977 में....

मई 1977 के दिन, बम्बई सेंट्रल स्टेशन ....मेरा भाई हमें स्टेशन पर छोड़ने आया था...हमने डी-लक्स ट्रेन से अमृतसर जाना था ...जब पानी की बात चली तो वह जाकर एक प्लास्टिक की पानी की बोतल ले कर आया ....यह एक ब़़ड़ी सी डेढ़-दो लिटर क्षमता की पानी की खाली बोतल थी.....बिल्कुल पतले से प्लास्टिक से तैयरा, ऊपर ढक्कन लगा हुई था और पकड़ने के लिए या कंधे पर लटकाने के लिए एक पतला सा स्ट्रैप था .....हम उस बोतल को देख कर बहुत खुश हुए.....लेकिन सफर के दौरान उस में रखा पानी इतना गर्म हो गया कि उसे पीना दुश्वार था ...फिर कभी हम लोग उस पानी का प्लास्टिक वाली बोतल को लेकर सफर में नहीं गए....लेकिन हिंदोस्तानी घरों में कोई भी चीज़ को आसानी से फैंका नहीं जाता....मुझे याद आ रहा है माता श्री ने उस में कच्चे चावल स्टोर करने शुरू कर दिए......

मैं अपने ब्लॉग में अकसर लोगों को कहता हूं कि कुछ न कुछ लिखते रहा करें....कम से कम डॉयरी ही लिखा करें....इस का सब से बड़ा फायदा यही होता है कि पता नहीं कहां पर दबी पड़ी यादें उभरने लगती हैं....जैसे कि मैं एक बात भूल ही गया था कि एक दौर वह भी आया था जब 1-2 लिटर की सफेद रंग की कैनीयां (जैसे हरिद्वार में गंगा जल लाने के लिए मिलती हैं) मिलने लगी थीं, सफर में पानी साथ लेकर चलने के लिए। बाद में तो बड़ी बड़ी पानी के कैन लेकर लोग देिख जाते थे .....अगर आप की उम्र भी पक चुकी है तो आप भी ये सब देखते देखते ही पके होंगे....

लेकिन हां, अगले कुछ ही सालों में वो एक,डेढ, दो लीटर वाली ईगल और सैल्लो की मजबूत सी बोतलें बिकने लगी थीं ....जिन्हें सफर में लेकर जाया जाता ....पानी अकसर ठीक ठाक ठंडा भी रह जाता.....हमने भी ऐसी ही एक ढ़ाई लीटर वाली बोतल भी खरीद ली, बाद में एक बढ़िया सी ईगल की पांच लिटर वाली बोतल भी खरीद ली.....जाते थे कभी कभी इन को सफर में साथ लेकर ....ठंडे पानी से भर कर। गाड़ी में एक दूसरे को पानी की ज़रूरत होती तो लोग आगे बढ़ कर उसे पानी दे देते.....किसी का बच्चा पानी की प्यास की वजह से अगर रो रहा होता, या गर्मी की वजह से किसी बुज़ुर्ग बीबी का दिल घटने लगता ....इन सब के लिए इस तरह की पानी की बोतलें बडे़ काम आती थीं.... 

एक बात और बहुत बार 1980 के आस पास की बातें हैं...एक ईगल की लंबी से फ्लास्क में हम लोग घर में फ्रिज में जमी बर्फ डाल कर उस में ले जाते थे ...पानी को अच्छे से ठंडा कर के पीने के लिए....। 

बस, सब कुछ सही सलामत चल रहा था कि अचानक ये 15-20 रुपए वाली पानी की बोतलें हमारी ज़िंदगी में आ गई ....हर तरफ़ प्लास्टिक के अंंबार लगे हुए हैं.....हर तरफ़ पहा़ड़ बन रहे हैं प्लास्टिक के ....जो फिर धीरे धीरे हमारी ज़िंदगी में ज़हर घोल रहे हैं...हवा, पानी के ज़रिए.......लेकिन हम हैं कि हमें किसी की कोई नसीहत असर नहीं करती, हमें माईक्रोप्लास्टिक वाली बात किताबी लगती है....

पोस्ट बंद करने का वक्त है...पानी की बातें हुईं तो बारिश याद आ गई ...और बारिश की याद आते ही बहुत से गीत याद आने लगते हैं....यह गीत भी मेरे दिल के बहुत करीब है ....जिस तरह की हूक से मेघ को बुलाया जा रहा है, उस का दिल तो पसीजना ही था.....


PS....यह जो मैंने ऊपर सुराही की फोटो चसपा की है, वह गूगल से ली है.....एक से एक बढ़ कर फैंसी सुराहीयां दिखीं मुझे गूगल सर्च के बाद ...लेकिन यह सुराही मुझे उस सुराही से मेल खाती दिखी जिसे हम लोग सफर पर चलने से पहले अमृतसर स्टेशन के बाहर की किसी दुकान से खरीदा करते थे ....सुनहरी, मीठी यादें....😎😂...आप भी इस टापिक से बावस्ता अपनी यादें नीचे कमेंट में लिखिएगा....अच्छा लगेगा...

गुज़रे दौर के लोग और बच्चे इतने सीधे थे कि जा कर ट्रेन के वॉशरूम से ही पानी पी लेते थे, मांं बाप बाद में उन को मना करने लगे कि वह पीने वाला पानी नहीं है।

 


 


देश के कईं हिस्से पानी की मार झेल रहे हैं इस वक्त....ईश्वर से प्रार्थना है कि सभी जगह पर सामान्य हालात हो जाएं, लोग सुखी और स्वस्थ रहें, उन का पशुधन भी स्वस्थ रहे .....पानी की दीवानगी से सभी बचे रहें, निदा फ़ाज़ली ने सही फरमाया है .....
बरसात का बादल तो दीवाना है क्या जाने....
किस राह से बचना है, किस छत को भिगोना है ....