Dr Praveen Chopra
पिछली बार जब अमृतसर में था तो वहां पर केसर के ढाबे पर मेरे लंच की थाली -😎 |
मैंने सोचा बहुत हो गईं गाने-बजाने की पोस्टें, कुछ खाने पीने की बात भी की जाए….अच्छा लगता है गाने पीने की बातें करते हुए, पुराने दिनों के खान-पान के तौर तरीके याद कर के …
आज पुराने दौर के खाने पीने की बातें कैसे याद आ गईं, सुनाता हूं पूरी बात …
आज एक स्टोर में गए…बहुत चलता है, बहुत पुराना भी है, खाने-पीने की सभी चीज़ें वहां मिलती हैं…मेरे काम के तो आटे के बिस्कुट और सैंकडो़ं तरह की ओर चीज़ें जो मुझे अब पसंद नहीं हैं ज़्यादा….मिठाईयां-विठाईयां बहुत खा लीं, अब अपराध-बोध घेर लेता है दो टुकड़े मिल्क-केक के खा कर भी ….
हां, तो उस स्टोर में हम कुछ सामान खरीद रहे थे तो एक युवक को मैंने देखा कि वह एक बर्नी और हाथ में कुछ डिस्पोज़ेबल चम्मच लेकर इधर उधऱ घूम रहा था …अचानक मेरी नज़र उस की तरफ़ गई तो वह किसी महिला को एक चम्मच उस बर्नी में से निकाल कर दे रहा था ….मैंने सोचा आचार होगा…
आप को भी याद होगा पहले जब हम लोग कभी मेलों वेलों मेंं जाते थे तो एक स्टॉल जहां पर दुनिया भर के खट्टे-मीठे चूरण और चटपटी गोलियां बिक रही होतीं तो वो बुला बुला कर कोई हाजमा दुरुस्त करने वाला चूरण चटवा के या दो चार चूरण की हींग वाली गोली का प्रसाद देकर ही मानते ….एक बार किसी का चूरण चाट लिया तो कोई भी बंदा कोई भी छोटा-मोटा पैकेट-डिब्बी तो लेकर ही जाएगा।
आज जब उस युवक को देखा तो मुझे लगा कि यह भी कोई चटपटा आचार चटवा रहा है ….मैंने कुछ सुना भी ऐसा ..लेेकिन मेरे पूछने पर उसने बताया कि यह दाल मक्खनी है जो कोयले पर पकी हुई है….झट से उसने चम्मच पर थोड़ी सी लाग लगा कर (जैसे रबड़ी खिला रहा हो) मेरी तरफ कर दी…..मैंने मना भी किया ….लेकिन उसने कहा कि आप देखिए तो चख कर …ठीक है, चख ली…अच्छी है मैंने कहा ….
फिर उसने उस की तारीफ़ का पुराण सुनाना शुरु किया। बताने लगा कि इसे कोयले पर पकाने में 12 घंटे लगते हैं….मैं भी कौन सा शरारती कम हूं….मैंने पूछा कि इसे कोयले पर पकाते कहां हो।
मालाड़ में हमारा गोदाम है, वहीं पर पकाते हैं….
बंबई जैसे महानगर में कोयले पर किसी चीज़ को पकाना एक बहुत बड़ी बात है, इस से उस की वेल्यू बढ़ जाती है…कईं बार किसी रेस्टरां में जाएं तो कोयले पर पकी या फ्राई हुई कोई चीज़ लाते हैं तो सारे कमरे में धुआं धुआं सा हो जाता है, वह भी एक स्टेट्स सिंबल भी है….मुझे ऐसा लगता है …लोग उस धुएं की तरफ़ देखने लगते हैं….शायद सिज़लर्स कहते हैं इन चीज़ों को ….तुक्का ही लगा रहा हूं, शायद कभी खाया नहीं और न ही खाने की कोई तमन्ना ही है।
हां, कोयले पर बनी हुई दाल मकखी क्या, लगभग हर दाल, साग सब्जी हम लोगों ने अंगीठी या चुल्हे पर पकी हुई खाई है ….इसलिए मां के हाथ की उन चीज़ों ने हम लोगों (हम लोगों का मतलब मेरी उम्र के लोग) के नखरे का लेवल बड़ा ऊपर सेट किया हुआ है …हम अभी भी हर खाने पीने वाली चीज़ की तुलना मां की रसोई से ही करते हैं….है न मज़ेदार बात…..इतनी मेहनत से पहले अंगीठी को जलाना, और वह भी 3-4 डिग्री तापमान वाली कड़ाके की ठंड में भी ….कोई नागा नहीं, कोई छुट्टी नहीं…..फिर उस पर दाल को मिट्टी की हांड़ी (पंजाबी में उसे कुन्नी कहते हैं) में चढ़ाना और साथ में तंदूर तपा देना ….क्या क्या याद करें, यादें पीछा ही नहीं छोड़ती …पता नहीं कब कैसे घेर लेती हैं अचानक ….जैसे आज उस दाल मक्खनी का मर्तबान (बर्नी) देखी आधा किलो दाल 570 रुपए में और एक किलो वाली दाल मक्खनी की बर्नी 970 रूपए की…..वैसे मां के खाने का स्वाद तो शायद पीढ़ियों तक आगे चलता है यूं ही ...क्योंकि मां जब तक रहीं वह अपनी मां (हमारी नानी) के बनाए लज़ीज़ राजमा, आलू-बैंगन, बैंगन का भुर्ता और भरवें करेले याद करती रहीं ...और हां, एक कदम कड़क तंदूरी रोटियां भी ...वह मैं कैसे भूल गया...नानी को भी अकसर देखते हम पसीने से तरबतर परात भर भर कर शिखर दोपहरी में रोटियां लगाती रहतीं, और हम उन को आलू-बड़ी की सब्जी, राजमां के साथ खाते न थकते ..... पेट भरने पर भी कमबख्त नीयत भरने का नाम ही न लेती....
बंबई के हिसाब से रेट कोई ज़्यादा नहीं हैं, वैसे भी किसी भी रेस्टरां में पांच-छः सौ रुपए से कम कहां कोई डिश मिलती है….सो रेट तो बिल्कुल सैट है, और स्टोर की मार्केटिंग भी एक दम टनाटन ….जिस युवक ने यह बर्नी उठाई हुई है उस की सारे दिन की ड्यूटी यही है ग्राहकों को चटनी की तरह इस दाल को चटवाना….जैसे चंदू की चाची चंदू के चाचा को चांदनी रात में चांदी के चम्मच से चटनी चटवाया करती थी ….
वैसे जो मेरा तजुर्बा है …वह यही है कि दाल मक्खनी बंबई में एक तो दादर (सेंट्रल साइड) में प्रीतम के ढाबे में ….और एक बांदरा में पाली हिल नाका (पाली नाका) पर पापा पॉचो ढाबे में बहुत लज़ीज़ मिलती है ….दाल मक्खनी ही नहीं, पंजाबी खाना सभी तरह का …बहुत ही बढ़िया मिलता है …और खिलाते भी पापा पॉचो ढाबे में तो एक बहुत पुरानी थालियों और कटोरियों में हैं ….पंजाबी में हम उस धातु को ‘कैं’ कहते हैं …हिंदी इंगलिश में पता नहीं….
एक बात का अहसास होता है कि ज़िंदगी भर घर में, बाहर कुछ भी खा लो लेकिन मां के हाथ की सब्जी और रोटियां दुनिया क्या, सारी कायनात का सब से बढ़िया खाना होता है…
और हां, एक बात और …उस स्टोर में एक भिंड़ी भी बिक रही थी, लिखा था वेक्यूम फ्राईड थी…दो सौ रूपए की सौ ग्राम ….यानि सिर्फ 2000 रुपए किलो ….
मैंने कुछ ऐसे खाने पीने के वीडियो चेैनल सब्सक्राईब कर रखे हैं जहां पर मुझे आए दिन अमृतसर से और पंजाब से बहुत बढ़िया बढ़िया खाने पीने की चीज़ें बनती दिखती हैं, उन के ज़ायका पहुंचता है मेरे पास …….लेेकिन मुझे लगता है कि पंजाब में या पंजाबियों की और अब कहें तो सारे हिदोस्तान की खाने पीने की आदतें बहुत बिगड़ी हुई हैं…तेल, मसाले, मैदा, घी, मक्खन …ज़्यादा नमक, ज़्यादा चीनी …इसलिए मैं इन सब चीज़ों के अंधाधुंध इस्तेमाल की कभी किसी को सलाह नहीं देता …कभी कभी ठीक है ….क्योंकि मैं भी कोशिश करता हूं कि मैं सेहतमंद खाना ही खाऊं…..मेरा टॉरगेट है दिन भर में जो खाता हूं उस का दो तिहाई तो कच्चा ही खाऊं…..लेकिन अभी भी शायद 30 फीसदी तक ही पहुंचा हूं….और वैसे भी कच्चा खाना (रॉ-फूड) कम ही खाया जाता है …बहुत कम …बहुत जल्दी तृप्ति हो जाती है ….यह लिखने का मेरा मकसद यह है कि हमें एक दूसरे से कुछ न कुछ प्रेरणा लेनी चाहिए….
अगर किसी को यह प्लेट देख कर कोई प्रेरणा मिलेगी तो अच्छा ही है …दिन में एक बार तो कोशिश रहती है कि एक मील तो ऐसा ही हो ….बहुत बार मन बेईमान हो जाता है …लेकिन फिर भी कच्चा खा ही लेता हूं कुछ न कुछ …जंक फूड लगगभ न के बराबर लेता हूं …बीकानेरी भुजिया थोड़ा बहुत खा लेता हूं …यह ध्यान में रहता है कि क्यों खा रहा हूं, कुछ पौष्टिकता तो है नहीं, फ़िज़ूल में कैलरी जमा करने का जुगाड़ है…कईं महीनों से चाय में चीनी कम बिल्कुल और मिठाईयों से भी दूर ही रहता हूं जब तक घर में दिख न जाएं….
पंजाबियों का सीधा सादा फंडा खाने पीने के मामले में ...
वैसे एक फोटो मेरे पास और भी है, हिंदोस्तान में मेरे सब से फेवरेट ढाबे ..अमृतसर के केसर के ढाबे की मेरे लंच की थाली की ….मैंने इस से बेहतर खाना कहीं नहीं खाया अभी तक ….यह अमृतसर का केसर का ढाबा सौ साल से ज़्यादा पुराना है, और वहां कितना भी खा लो, कितनी भी फिरनी चटम कर लो, सब कुछ हज्म होना ही है ….और ऊपर से, उस के बाद भी हाल बाज़ार वाले ज्ञानी की मिट्ठी लस्सी के लिए जगह हमेशा बन ही जाती है ….
अभी मैंने व्लर्ड-काउंट से देखा तो पाया कि इस पोस्ट में 1250 शब्द लिख दिए….बात ऐसी भी नहीं थी कि इतना लंबा लिखा गया ….जब कि अगर मैं थोड़ा सा भी दिमाग लगा देता तो चुपचाप उसी पुराने दौर का यह गीत लगा कर फ़ारिग हो सकता था ….दाल रोटी खाओ..प्रभु के गुण गाओ….1973 में आई फिल्म ज्वार भाटा फिल्म का सुपर-डुपर गीत ...लक्ष्मी प्यारे के संगीत का जादू ...,सारी ज़िंदगी का फ़लसफ़ा पांच मिनट में पल्ले पड़ जाए किसी के भी .....इसे सुन कर ....
सर जी बहुत अच्छा लगा आप का ब्लॉग पढ़ कर लज़ीज़ खाना के बारे में।
जवाब देंहटाएंमां का और नानी का और मौसी का हाथ का बनाया खाना का स्वाद बहुत अच्छा लगता है।
सही कहा बबलू आप ने बिल्कुल.....
हटाएंपूरा लेख लज़ीज़ है प्रवीण जी! यहाँ भी माँ ही छाई हुई है! वो यादें याद भी हमारी ही पीढ़ी करती है! हमारे याद अतीतराग की परंपरा का लोप भी हो जाना है 🙏😞
जवाब देंहटाएंरेणु जी, आप सही फ़रमा रही हैं ...जी बिल्कुल यह परंपरा भी लोप होने की कगार पर ही है ....आप का शुक्रिया, आप ने पोस्ट देखी और अपनी राय लिखी....शुक्रिया फिर से ...
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