बुधवार, 29 मई 2024

स्किन केयर के बारे में पढ़ कर उस दिन .....

वैसे भी आज कल से गुसलखाने ....नहीं, नहीं, बाथरूम....बड़े कंफ्यूज़िंग से हो गए हैं...बीसियों तरह की बोतलें, ट्यूबें, शैंपों, बॉडी वाश...कंडीशनर, म्वायशराईज़र....दाड़ी के लिए अलग शेंपू भी और तेल भी ....लेकिन मेरी निगाहें तो बस एक सादे से साबुन को ढूंढती हैं....

गुज़रे दौर में सब कुछ इतना कंप्टीकेटेड नहीं था....बाथरूम की खिड़की में एक देसी साबुन, एक अंग्रेज़ी, एक झावां (स्क्रब) और एक कोई कांच की या प्लास्टिक की शीशी में सरसों का तेल रखा होता था....जिसे नहाने से पहले या बाद में शरीर पर चुपड़ना अच्छा माना जाता था...यह मेरे से तो हो नहीं सका कभी ....इसलिए नहाने के बाद बस बहुत सारा तेल बालों पर ज़रूर चुपड़ लेता था ....इतना ज़्यादा की गर्मी के मौसम में पसीने के साथ सारा दिन बहता रहता था....गर्मी और भी ज़्यादा लगती थी ....नहाने के लिए पहले तो लाईफब्वाय ही चलता था...फिर जब हमें होश आया तो सिनेमा हाल में रेक्सोना के विज्ञापन दिखने लगे तो हमें भी हवा लग गई और हम भी वही लाने लगे ...हां, कभी कभी घर में पियरसोप भी दिखता था लेकिन उसे बड़ी एहतियात से इस्तेमाल किया जाता था ....तुरंत साबुनदानी में वापिस रखना होता था, नहीं तो उस के घिस जानेे का डर सताए रखता था ...लोग इतने सादे कि मां और नानी-दादी देसी साबुन (कपड़े धोने वाला साबुन) से ही सिर धो लेती थीं ...यह कह कर कि इस से जुएं भी खत्म हो जाती हैं और ठंड भी पड़ जाती है....

मैं भी यह सब क्या राम कहानी ले कर बैठ गया....बात यह है कि मैंने पिछले दिनों स्किन केयर(चमड़ी की देखभाल) के लिए एक इंगलिश में लिखा लेख देखा...एक बड़े चमड़ी रोग विशेषज्ञ ने लिखा था....उसमें चमड़ी की देखभाल के लिए नुस्खे लिखे थे....क्लीनिंग लोशन, सन-स्क्रीन और मवायसचराईरज़ की बातें खूब की गईं उसमें ...मैं पढ़ता रहा उसे चुपचाप .....

लेख पढ़ने के बाद मैं यही सोच में पड़ गया कि इस तरह के लेखों की उपयोगिता उन साधन-सम्पन्न लोगों तक ही होगी जिन के पास इन सब चीज़ों पर खर्च करने का सामर्थ्य है ....रहने की अच्छी जगह है ..पानी मुहैया है ......इन सब साधनों की बात क्या करें ऐसे माहौल में जहां लोगों के पास पानी पीने के लिए तो है नहीं ..अगर है भी तो सुरक्षित नहीं है ....आए दिन दूषित पानी से फैलने वाले रोग पनपते रहते हैं....

आज यह लिखते लिखते पता नहीं पहली बार ऐसा हो रहा है कि लिखते लिखते टैक्स्ट स्वयं ही डिलीट हो रहा है ....इसलिए थोड़ी सी बात लिख कर बंद करता हूं अभी ....


हां, उस लेख में सब से सुंदर बात यह लगी कि हमें अपनी चमड़ी को अंदर से सुंदर-सौम्य बनाने के बारे में सोचना चाहिए....अच्छा पौष्टिक खाना, नींद पूरी लेना, तनाव से दूर रहना ....इत्यादि इत्यादि ....यह बात बहुत अच्छी लगी ...क्योंकि सब से अहम् बात ही यही है ....लेकिन पौष्टिक खाना भी हर इंसान अपनी चादर देख कर ही खरीदेगा....तनाव भी बडे़ शहरों में कितना कम हो सकता है, यह हम देखते ही हैं रोज़ाना...जहां ज़िंदा रहने की ही जंग सी छिड़ी हो, वहां कोई कैसे पौष्टिक खाने का जुगाड़ करे ....लेकिन हां, अगर हम लोगों को जंक फूड से जैसे-तैसे रोक पाएं यह उन की सब से बड़ी सेवा होगी...निःसंदेह .....क्योंकि जो हम देख रहे हैं आज का खाना ही बहुत ज़्यादा गड़बड़ है .....जो हृदय के लिए, जो दांतों के लिए, जो लिवर के लिए ठीक नहीं है, वह चमड़ी के लिए भी ठीक नहीं है ....

इसलिए किसी भी तरह डरा के, बहला, फुसला के.....जो भी जुगाड़ हम इस्तेमाल कर सकें, अगर हम लोगों को जंक- फूड से बचा लें तो बहुत अच्छा होगा...दरअसल बहुत सी बाकी चीज़ों के बारे में लोग कुछ कर नहीं पाते ....महंगे महंगे फ्रूट खरीदना, और अच्छा पौष्टिक आहार खरीदना अमूमन  लोगों की पहुंच से दूर हो रहा है ....ऐसे में अगर हम उन को अगर यह समझा पाएं कि छोड़ो भाई अब जंक-फूड को ....जंक-फूड कुछ नहीं होता .....या तो जंक होता है या फूड...

बात वही है कि मैंने इतनी उम्र होने पर भी कोई ऐसा नहीं देखा जिसने क्रीम-पावडर लगा कर अपनी स्किन को एक दम बढ़िया कर लिया हो, मैं कास्मैटिक क्रीमों की बात कर रहा हूं ....तरह तरह की क्रीमें चुपड़ कर बंदा किसी पार्टी में अच्छी तस्वीरें तो खिंचवा सकता है लेकिन वह मेक-अप उतरते ही क्या होता, यह कौन नहीं जानता....

पारंपरिक भोजन में भरपूर पोष्टिकता है, पानी पर्याप्त मात्रा में पिएं....यह सब महंगे महंगे पावडर-क्रीम किस काम के हैं, मुझे नही ंपता लेकिन इतना पता है कि चेहरे वही सब से सुंदर दिखते हैं जो किसी भी तरह के मेक-अप के बिना होते है ं....उन की आभा, ओजस निराला ही होता है और ऊपर से अगर हल्की सी मुस्कान से चेहरे को सजाना जानता है तो हो गया ......सोने पर सुहागा।

पता नहीं मैं अपनी बात ठीक से रख पाया भी हूं या नहीं ....जो लोग खरीद सकते हैं महंगे लोशन वे खरीदते रहेंगे, जो न महिला-पुरुष सैलून में जा कर उतना खर्च करते हैं जितने में एक मध्यम वर्गीय परिवार में महीने भर का राशन आ जाता है .....लेकिन ये सब मेक-अप, बाहरी दिखावट...सुंदरता अंदर से आनी चाहिए....कुछ भी बिक रहा है ...इन से खुद भी बचिए और दूसरों को भी बचाईए...

दरअसल, यह स्किन केयर मेरा फील्ड नहीं है....यह लिखने का पंगा ले लिया है ...हमारे यहां भी बाथरूम में इन दिनों बीसियों क्रीमें,लोशन पड़े दिखते हैं ...लेकिन मेरी निगाहें बस रेक्सोना को ही ढूंढ रही होती हैं....धूप में निकलने से पहले सन-स्क्रीन लगाना बताते हैं ज़रूरी है ...लेकिन मैं नहीं लगाता, यह मेरी अपनी समझ है, यह दूसरों को कोई मशविरा नहीं है, जो खरीद सकते हैं, जो अपने विवेकानुसार इन का इस्तेमाल करना चाहते हैं वे करते रहेंगे .....सोचने वाली बात यह है कि सन-स्क्रीन की सब से ज़्यााद ज़रूरत सारा दिन धूप में काम कर रहे जिन लोगों को है, उन को कोई मतलब नहीं ....लेकिन जो ए.सी मोटरगाडि़यो में चलते हैं, वे अकसर धूप से बचने का पूरा इंतज़ाम कर के निकलते हैं.....

इतना सब लिखने का सिट्टा क्या निकला.....कुछ खास नहीं, बस मन की बात लिख डाली....जितने भी प्रोड्क्टस् हैं, स्किन केयर के हों या किसी और तरह की केयर के,कॉस्मैटिक्स हों या महंगे महंगे न्यूट्रिशन सप्लीमैंट .....जिन के पास पैसा है, वे खरीदते हैं, खरीदते रहेंगे ....और अकसर बहुत से लोग इस तरह की नसीहत पर अमल करना तो दूर, सुनना तक नहीं चाहते.....लेकिन हां, जो हम लोगों की बात अभी भी सुनते हैं उन को ज़रूर सुनाईए.....खुद उन के पास जा कर सुनाइए....देखिए, सोचिए, विचार कीजिए कि कैसे एक कामगार के बच्चे के हाथ में चिप्स की जगह दो केले हों, नूडल्स की जगह मूंगफली हो, राजगिरा चिक्की हो......भुने हुए चने हों....

वैसे मैं अपने किसी मरीज़ को महंगे महंगे माुउथवाश इस्तेमाल करने की कभी सलाह नहीं देता ....मैं उन को कहता हूं कि रोज़ाना ब्रुश करें और रोज़ाना जीभ की सफाई जीभी (टंग-क्लीनर) से करिए....तंबाकू को लात मारिए ...फिर भी अगर सांस की दुर्गंध परेशान करे तो हमें बताइए.....रोजाना जीभ की सफाई करना सब से बेहतरीन...सस्ता, सुंदर और टिकाऊ माउथवाश है .... 

जहां तक गोरे काले का लफड़ा है .....यह गीत में सही समझा दिया गया है ...गोरों की न कालों की, दुनिया है दिल दारों की ...(इस पर किल्क कर के सुनिए) 

गुरुवार, 23 मई 2024

रीडर डाईजेस्ट भी अब बुक-स्टॉल से हो जाएगी गायब ....

विदेश में छपने वाली रीडर-डाईजेस्ट, जिस की प्रिंटिंग मई २०२४ से बंद होने की खबर है 


खैर, मैंने ऊपर लिखा जब से होश संभाला......उसी तरह से कल मेरे होश ही उड़ गए जब मैंने मेरी बड़ी बहन ( जो कि यूनिवर्सिटी में प्रोफैसर रही हैं) का एक मैसेज पढ़ा कि इस महीने से रीडर डाईजेस्ट की छपाई बंद हो जाएगी...साथ में एक बड़ा दिल को छू लेने वाला वीडियो भी था....

यह आर.डी जो भारत में छपती है...

रीडर-डाईजेस्ट आज कल जो इंडिया में बिकती है उस का दाम एक सौ रूपए हो गया है ....हम लोग ५५०रूपए की दाल फ्राई ले लेंगे लेकिन इतनी महंगी रीडर-डाईजेस्ट खरीदने का मन ही कभी न हुआ...हां, मन ही न हुआ, अगर मन करता तो ले लेता, विटेंज मैगज़ीन महंगे से महंगे खरीद लेता हूं तो फिर इसे खरीदने में इतना क्या! एक तो यही लगता कि इसे खरीद कर मैं पूरा पढ़ता तो हूं नहीं ....दूसरी बात यह कि एक दो महीने के बाद वही रीडर-डाईजेस्ट आते जाते रास्तों में पुरानी किताबों की दुकानों पर इस के पुराने अंक  दस-बीस रूपए में बिक रहे होते थे ....वहां से कईं बार एक साथ कईं अंक खरीद लेता ....लेकिन उन को केवल खरीदा ही, कभी पढ़ा नहीं, बस उन के पन्ने उलट-पलट लेने तक ही बात सिमटी रही ....

लेकिन आज सुबह जैसे ही मुझे पता चला कि इस महीने से छपना बंद हो जाएगा तो पहले तो इस के बारे में गूगल से पूछा कि वह क्या कह रहा है। उसने भी इस बात की पुष्टि की ...कल शाम के वक्त मैं मुंबई वीटी स्टेशन इस मैगज़ीन का मई अंक लेने के लिए गया लेकिन वहां जा कर पता चला कि एक जो किताबों-मैगज़ीनों की शॉप भी वेटिंग-एरिया में वह बंद हो चुकी है.....अच्छा, मुझे नहीं पता था ....शायद दो तीन महीने पहले ही तो मैंने वहां से भारतीय विद्या भवन की मासिक पत्रिका नवनीत खरीदी थी ....यह वीटी से या चर्चगेट स्टेशन पर ही मिल जाती है, अगर किसी का मुकद्दर अच्छा हो तो ....नवनीत में भी बहुत अच्छे लेख होते हैं...और उस का दाम भी सिर्फ ३५-४० रूपए है....

कल शाम मैं फिर वीटी स्टेशन के बाहर पंचम पूरी वाले वाली गली में चला गए...उस के सामने ही नुक्कड़ पर एक न्यूज़-पेपर वेंडर है जिस के पास सभी पत्रिकाएं एवं सभी समाचार पत्र मिल जाते हैं.....वहां से यह रीडर-डाईजेस्ट खऱीद ली ....मुझे नहीं पता कि यह भी बंद हो रही है इसी महीने से या नहीं, लेकिन जब पेरेंट कंपनी ही बंद कर रही है इस की प्रिंटिंग तो पता नहीं भारत में छपने वाली रीडर डाईजेस्ट का क्या हश्र होने वाला है ....

ऑन-लाईन जो पत्रिकाएं पढ़ने में सहज होते होेंगे वे पढ़ लिया करेंगे शायद ...लेकिन मैं तो नहीं पढ़ जाता बहुत कुछ ऑन-लाईन ...पुरानी आदतें हैं सब कुछ हाथ में थाम कर ही पढ़ना है ....

पत्र-पत्रिकाओं की दुकानें बंद हो रही हैं.....वे भी क्या करें, लोगों में जब इन को पढ़ने की और खरीदने कीआदत ही कम हो रही है तो वे भी क्या करें, हर काम के साथ इन को बेचने वालों की रोज़ी-रोटी जुड़ी होती है.....

मुझे पुरानी ...बहुत पुरानी कुछ पत्रिकाओं की कलेक्शन करने का शौक तो है...लेकिन कभी जब इक्ट्ठी हो जाती हैं, सिर दुखने लगता है उन को देख कर तो रद्दी में चली जाती हैं....आज लग रहा है कि रीडर-डाइजेस्ट भी अगर पुरानी रखी होती हों तो अच्छा लगता....

शायद आप को यह भी पता ही होगा कि रीडर डाइजेस्ट की कंपनी इस मैगज़ीन के साथ साथ कुछ बहुत अच्छी किताबें भी निकालती रही हैं....मेरे पास भी कुछ हैं.....जैसे जब रीडर-डाईजेस्ट के ५० साल पूरे हुए तो उन्होंने एक अंक निकाला था जिस में पिछले ५० बरसों के दौरान उन में छपे बहुत पसंदीदा लेख और स्टोरियां होती थीं। वर्ल्ड-पावर के ऊपर, तरह तरह के शब्दकोष, विश्वकोष, नावल भी आर.डी की कंपनी छापा करती थीं....मैंने बहुत सी ऐसी किताबें देखी हैं, कुछ खऱीदी भी हैं, लेकिन पढ़ा इतना कुछ नहीं है, कारण मैंने ऊपर लिखा ही है ....



 

शायद १९९५ के आस पास की बात होगी .....एक बार एक साल की सब्सक्रिप्शन ली थी मैंने भी रीडर डाईजेस्ट की ...उन दिनों वे कुछ न कुछ साथ में भेजते थे ...कोई डॉयरी, कैलेंडर या कुछ ऐसा ही .....कुछ अंक मिले थे ....कुछ डाक में ही गुम हो गए थे, फिर कभी ऐसी सब्सक्रिप्शन नहीं ली.....इसीलिए कुछ महीने पहले जब मैं विश्व पुस्तक में मेले में गया तो वहां पर दो तीन हिंदी की पत्रिकाओं की वार्षिक मेंबरशिप मिल रही थी तो मुझे झिझक हुई कि फिर डाक में गुम होने का लफड़ा रहेगा ...लेकिन जब पता चला कि वे अब रजिस्टर्ड डाक के द्वारा भिजवाते हैं तो मैंने उन की सब्सक्रिपशन ले ली .....अब वे नियमित आ तो रही हैं, लेकिन पढ़ने का फुर्सत नहीं है, कभी एक आधा लेख, कहानी, निबंध देख लेता हूं....

रह रह याद आ रही है रीडर-डाईजेस्ट के दिनों की ....जब यह मैगज़ीन की ख्याति शिखर पर थी ....उसमें छपे कुछ लेख बहुत प्रेरक होते थे, सोचने पर मजबूर भी करते थे और कुछ चुटकुले भी बहुत बढ़िया होते थे, जिन की इंगलिश समझ में आ जाती थी वे खूब हंसाते भी थे .....सोच रहा हूं उस ज़माने में रीडर-डाईजेस्ट पढ़ना या अपने घर में टेबल पर रखना भी एक स्टेट्स सिंबल से कम न था ... हा हा हा ह ाह ाहा हा 😎😆

I want to share here the post that i received from my elder sister, and the video alongwith that post....

"30th April, 2024 a sad day for the book readers.. THE READERS DIGEST has been closed.  Following is that sad news along with a symbolic video presentation, which appeared with a note by the its editor in chief also  on International Book Day. Some of the images are fabulous.                                                                      

End of an era ..... as of April 30, 2024, Reader's Digest UK has ceased publishing its print edition after 86 years. The magazine's editor-in-chief, Eva Mackevic, announced on LinkedIn that the company was unable to withstand the financial pressures of the current magazine publishing landscape. The May 2024 issue was the last to be published."


आज का युवा शायद इन बातों से रिलेट न कर पाएगा कि पुराने दौर में किताबों, पत्र-पत्रिकाओं का हमारे लिए क्या मतलब होता था ...बिल्कुल आत्मीय दोस्तों के जैसे ये हमें रास्ता भी दिखाती थीं, हमारे संशय, भय भी दूर करती थीं, हमारा हाथ थामे रहती थीं....हमें हंसाती थीं, रूलाती थीं, और बहुत बार बहुत कुछ विचार करने पर मजबूर भी करती थीं....

PS.. This post is dedicated to the friend whom i met two days ago after some time and who asked smilingly.....kyon bhai tumhare blog nahin aa rahe? likhna band na kiya karo, isi bahane hum bhi kutch padh lete hain....i said just out of laziness, i dont feel like writing. He advised to stay away from laziness and start writing regularly. He is very easy going and well-read friend for the last 30 years, this is his style of inspring....i am thankful to your, dear Sharma ji....for your kind, inspiring words of wisdom -full of encouragement and Josh, as they say!!