लिखने वाले के लिए लेख भी बच्चोंं की तरह पीछे पड़ जाते हैं...मुझे मोहम्मद रफी साहब के बारे में कुछ लिखना है, स्टेचू ऑफ यूनिटी, गुजरात के बारे में कुछ लिखना है ...अभी वह सब सोच ही रहा था, ख़्याली पुलाव बना ही रहा था कि यह लाटरी वाला छोटा बालक जैसे बार बार कहने लगे ..हमारी बात कह पहले ...कह न ...हमारी बात पहले ....
तो दोस्तो हुआ यूं कि आज शाम को बंबई के भायखला स्टेशन में तीन चार महिलाओं का एक ग्रुप कुछ घरेलू सामान बेच रहा था ....कुछ लाटरी वाटरी सिस्टम था ...अच्छा, उन के बारे में सब से बाद में लिखूंगा ..सब से पहले आज से ५५ बरस पहले की बातें याद आ रही हैं इन लाटरीयों की, उन्हें तो लिख लूं ...यही कोई पहली दूसरी जमात में स्कूल में जाते वक्त दस पैसे तो मिलते ही थे ...यार, बहुत होते थे, उन दिनों दस पैसे भी ...उस से ज़्यादा तो हम संभाल भी न पाते ... और असल बात यह भी है कि हम से वह दस्सा (पंजाबी में दस पैसे के सिक्के को कहते थे दस्सा ..जो पीतल का होता था ...मेरी सिक्कों की क्लेक्शन में पड़ा है उस तरह की दस्सा भी ...) ...बचपन की कितनी यादें कितनी मीठी होती हैं न ..मां पीतल की एक डिब्बी में एक-दो परांठे गुड़ के साथ रख देतीं और पिता जी जाते वक्त एक दस्सा हाथ में रख देते ....बस, हम अपने आप को महाराजा पटियाला समझने लगते ...आस पास के दोस्तों के साथ, जिनमें एक देवकांत भी था...हम स्कूल के लिए निकल पड़ते .... वहां पर पांच पैसे की कभी कभी लाटरी खरीद लेते ..मेरे जैसे सठिया गए लोगों को तो याद होगा कि यह लाटरी का क्या चक्कर था, आप समझिए एक कैलेंडर जितनी शीट थी, जिस के ऊपर सौ-पचास छोटे छोटे पतले कागज के स्टिकर चिपके रहते थे ...हम उस स्कूल वाली मौसी को पांच पैसे देते, वह हमें एक स्टिकर उखाड़ने को कहती ...हम उसे खोलते, और इनाम निकलता ...कभी एक टाफी, कभी कुछ नहीं ...कभी यह इनाम होता कि चलो, एक बार लाटरी और खेल लो...कभी कोई छोटा-मोटा प्लास्टिक का लाटू, झुनझुना ...कुछ भी निकल आता ....
और हां, यह पांच पैसे की लाटरी हम लोगों को बड़े गुपचुप तरीके से खरीदनी होती थी ..क्योंकि जब भी घर में आकर बात चलती कि आज लाटरी खरीदी थी तो मां समझाने लगती - न खरीदया कर लाटरी, जुए दी आदत पै जांदी ए...(मत खरीदा कर ये लाटरीयां-वाटरीयां, इन से जुए की आदत पड़ जाती है ...) खैर, यह दौर ऐसे ही चलता रहा ..कुछ बरस पहले..यही कोई दस बरस पहले की बात होगी मैंने शायद लखनऊ की किसी दुकान पर वैसी ही लाटरी वाली शीट देखी तो मुझे पुराने दिन याद आ गये।
खैर, आगे बढ़ते हैं ...घरों में अखबार के साथ एक प्रिंडेट पोस्टकार्ड आ जाता कभी कभी ...जिस में कुछ खानों में अंक इस तरह से भरे होते कि उन का जोड़ ४४ आता था ...हमें कहा जाता था कि इस के साथ ही खाली खानों में आप ने अंक तरह से भरने हैं कि उन का योग ४८ आ जाए.... और साथ में लिखा होता कि जिन का जवाब सही होगा उन्हें वीपीपी से ट्रांजिस्टर या टार्च या प्रैस ...(और भी पता नहीं क्या क्या, अब इतना याद नहीं ...उम्र हो चली है भई अब अपनी भी)....भिजवा दिया जाएगा...अच्छा एक बात मज़ेदार यह कि उस कार्ड की खासियत यह होती कि उस पर बिना टिकट लगाए ही हमें उसे डाकपेटी के सुपुर्द करना होता था ...उस पर लिखा रहता था कि इस पर टिकट लगाने की कोई ज़रूरत नहीं ....अच्छा, एक तो हमारा दिमाग यह बात खराब कर देती कि यार, हम ने तो पहेली का सही हल ढूंढ लिया....वैसे उसमें करने को कुछ होता न था, बस हर खाने में एक एक अंक बढ़ाना होता था ...खैर, चलिए उसे डाकपेटी में डाल भी आए........और कुछ ही दिनों में किसी कंपनी से एक पैकेट आ जाता वीपीपी से कि ५० रूपये दो और आप के लिए यह इनाम आया है ...रियायती दामों पर ......मुझे नहीं याद कि कभी इस तरह का वीपीपी का पैकेट हमने या हमारे मोहल्ले में किसी ने भी उस डाकिये से लिया हो .....इतने पैसे होते ही किस के पास थे। खैर, एक दो बार में इन पोस्टकार्डों वाले धंधे की बात समझ में आ गई .....
और हां, यही ५० बरस पुरानी बातें यह भी हैं कि मोहल्ले की औरतें कमेटियां डालती थीं ... ५० रूपये की कमेटी या २५ रूपये की कमेटी फलां फलां महीने के लिए ..पुरुष लोग भी डालते थे लेकिन अलग ..महिलाओं की कमेटीयां का भी एक अलग ही नज़ारा होता था ....जब कमेटी खुलती यानि जिस की लाटरी निकलती, उस के घर में थोड़ी बहुत पार्टी होती ..समोसे-जलेबी-गुलाब-जामुन-बर्फी की ...लेकिन ये जो औरतें कमेटी की आर्गेनाइज़र होती थीं, वे सब की सब बड़ी लडाकू किस्म की होती थीं ...क्या करती वो भी ....उन्हें दबंग होना ही पड़ता था ....वरना कोई वक्त पर कमेटी की रक्म न दे तो .....और हां, कईं बार कमेटी निकलने पर बहुत से बर्तन या कोई आइटम जैसे सिलाई-मशीन या कोई प्रेशर कुकर या कुछ भ ी....(याद नहीं यार अब इतना तो ...यह भी आज इतने लंबे अरसे बाद इसलिए याद आ गई बातें क्योंकि लिखने बैठ गया हूं ......मैं इसलिए कहता हूं अकसर को लिखते वक्त अपने आप बातें पुरानी से पुरानी जो हम भूल भी चुके होते हैं ..वे भी याद आने लगती हैं..) ..
खैर, आगे चलें ....यह जो कमेटियों वाला दौर था ...उसी दौर में बाज़ार में लाटरीयों वाले खड़े रहते थे ..एक रूपये की लाटरी, दो की, पांच की, दस की ..पचास की ..जहां तक मुझे याद है मेरे पिता जी भी कभी कभी तनख्वाह वाले दिन एक लाटरी टिकट खरीद कर लाते थे, और बडा़ संभाल कर रखते थे ....हमारे सारे कुनबे को यह फ़िक्र सताए रहती कि यह न हो कि इनाम निकल आए और फिर हमारी टिकट ही गुम हो जाए ....इसलिए मां अपनी लकड़ी की अलमारी में किसी साड़ी की तह में उसे संभाल कर रखती...फिर हम लोग रोज़ इंतज़ार करने लगते कि अभी इतने दिन हैं लाटरी का नतीजा आने में ...और अकसर यह नतीज़ा अखबार में भी आता ...यार, कैसे सांसे थाम कर हम लोग उस नतीजे का देखा करते थे ... अच्छा, लाख वाला तो नहीं आया, चलो दस हज़ार वाला देखो, पिछले पांच अंक भी नहीं मिल रहे टिकट के साथ.....इसी तरह जब हम आश्वस्त हो जाते कि दस रुपये भी नहीं निकले ....तो फिर कोई यह देता कि क्या पता अखबार में छपने में गलती हो गई हो ....इसलिए कोई न कोई घर का बंदा अगले दिन बाज़ार आते जाते उस लाटरी वाले से भी नतीजे का कंफर्म कर ही लेता .....एक बात तो मैं बतानी भूल ही गया कि मां अकसर कुछ लोगों के बारे में यह भी बताया करतीं कि फलां फलां की लाटरी निकली दस लाख और उस का यह खबर सुनते ही हार्ट फेल हो गया.......हम भी ठहरे एकदम कोरे भोले पंछी.....हमें यही लगता कि चलो अच्छा ही हुआ ईनाम नहीं आया, ज़िंदगी से बढ़ कर भी है क्या कुछ.....सच में हम बहुत डर जाते यह सुन कर कि जिन का बड़ा ईनाम निकलता है ....उन की खुशी के सदमे से मौत भी हो जाती है ....
और हां, दीवाली, दशहरा, लौहड़ी पर कुछ खास लाटरीयां बिकती थीं ..बम्पर-शम्पर ...५०-१०० की टिकटें बिकती थीं ...शायद कभी कभी हम लोगों ने भी खरीदी थीं ....बड़ी हसरत के साथ के कभी तो निकले यार .....हमारी भी एक लाटरी ...घर में हम सब लोग ख्याली पुलाव बनाते कि अगर एक लाख की लाटरी निकलेगी तो उस से क्या क्या करेंगे ...और खूब हंसा करते ...और जब नतीजा आता तो हमारे सभी ख्वाब मिट्टी में मिल जाते ....
अब और क्या लिखूं यार....याद करूंगा तो बहुत कुछ याद आता जाएगा....अब बात करते हैं आज की ...उन महिलाओं की ...मैंने सोचा कि यहां क्या चल रहा है, थोड़ा वह भी समझ लिया जाए। एक महिला लोगों को बता रही थी उस के हाथ मे ं एक शीट थी जिस पर स्क्रेच करने वाला एक स्टिकर था ...यह छोटी सी शीट १०० रुपये में बेच रहे थे .....चलिए, जल्दी से उसे स्क्रेच करें...और हां, उस पन्ने पर दो तरह की चीज़ों की लिस्ट बनी हुई थीं ....अगर तो उस स्टिकर को खरोंचने पर आप का कुछ इनाम इस तरह का आ गया जिस की कीमत ८५० रुपये होगी तो आप उस को मुफ्त हासिल कर सकेंगे .....बस, आप लूट ले जाइए....और अगर कोई बड़ी आइटम निकलती है तो आप को उस आइटम के दाम में २७५० रूपये की छूट मिल जाएगी..........और अगर कुछ नहीं भी निकला ...अगर आप इतने ही किस्मत के मारे हैं तो भी गम नहीं ...आप के १०० रुपये कहीं नहीं गए......आप को १०० की जगह ३०० रूपये वापिस मिल जाएंगे......वाह.....वाह ...
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
इस पोस्ट पर आप के विचार जानने का बेसब्री से इंतज़ार है ...