रविवार, 30 जनवरी 2022

आज की सुबह प्रियदर्शिनी पार्क के नाम ...

 कुछ दिन पहले हम प्रियदर्शिनी पार्क (पी डी पी, इस नाम से भी यह जाना जाता है...) गए थे ...शाम की बेला थी...सात-साढ़े सात का वक्त था, आठ बजे रात में यह बंद हो जाता है ...कुछ कुदरती नज़ारे दिख भी नहीं रहे थे ...वैसे भी यह पार्क कोई गार्डन जैसा नहीं है, इसे तो एक कुदरती स्पॉट के तौर पर बरकरार रखा गया है ... उस दिन अच्छे से देख नहीं पाए ...इसलिए आज सुबह 6 बजे ही निकल पड़े पी.डी.पी के लिए ...

हमारी यादें इस पीडीपी से इस तरह से जुड़ी हुई हैं कि आज से 22 साल पहले जब हमने बंबई छोड़ने का बेवकूफ़ाना फैसला लिया तो हम जाने से पहले कुछ जगह हो कर आए..उस में यह प्रियदर्शिनी पार्क भी था ...उस वक्त इस को बनाने की शुरुआत ही हुई थी ...समंदर के किनारे पर खूब मिट्टी विट्टी डाली जा रही थी ..खुला खुला एरिया था, अच्छा लगा था...

आज सुबह जाकर भी वहां अच्छा ही लगा ...कौन होगा वैसे जिसे कुदरत के इतना पास जाकर अच्छा न लगता होगा...वैसे सुबह ठंड थी, रज़ाई से निकलने की इच्छा न हो रही थी ....लेकिन वही बात है कि एक बार तो रज़ाई के मोहपाश से आज़ाद होना ही पड़ता है ..

पार्क के गेट के बाहर यह डाक-पेटी लगी हुई थी ..एक छोटी सी बच्ची ने अपने डैड से पूछा - डैड, यह क्या है?..डैड ने उस के सवाल को अनसुना कर के उसे कहा .."लुक, आई टोल्ड यू नॉ!" अब हमें नहीं पता क्या टोल्ड और क्या अन-टोल्ड, लेकिन उस मासूम के सवाल का तो फिलहाल कत्ल हो गया...

पार्क की साफ़ सफ़ाई और उम्दा रख-रखाव आने वालों को अपनी तरफ़ खींचता है 

और इसे तो बस फोटो-सैशन का एक मौका चाहिए होता है ...साथ जाने वालों की आफ़त हो जाती है सच में 

पार्क काफी बड़े एरिया में फैला हुआ है ...और अच्छी हरियाली से मन तरोताज़ा हो जाता है ..

पीडीपी अभी तो है ..कुछ एरिया शायद कोस्टल-रोड़ के चक्कर में लपेट लिया गया है या लपेटा जा रहा है, टाइम्स में आता रहता है, मुझे इस की कुछ खास समझ है नहीं ...

बड़ी बड़ी भारी भरकम मशीनरी ब्यां तो यही कर रही थी कि विकास कार्य तेजी से चल तो रहा है ...😄

इतने बढ़िया मिट्टी के वॉकिंग-ट्रैक देख कर मज़ा आ गया ...

पता नहीं यह बतखें हैं या कोई और जानवर हैं, लेकिन वे भी पूरा मज़ा कर रहे थे 

पार्क में बैठने के लिए पर्याप्त बैंच हैं ..कोई उस की याद में, कोई इस की याद में ...चलो, पब्लिक के लिए तो अच्छा ही है, दानवीरों का ईश्वर भला करे ...

बच्चों के लिए भी एक बहुत अच्छा पार्क है उस के अंदर ...रख-रखाव भी बहुत बढ़िया 


दिल तो बच्चा है जी ...उछल कर एक शाख पर बैठने की इच्छा तो हुई मेरी भी..लेकिन फिर दिल की सदा सुन ली कि अपने घुटनों का और इम्तिहान न ले, उन पर तरस खा....अभी चल रहे हैं न जैसे तैसे, बस, काम चला...ज़्यादा उड़ने की कोशिश न कर ...फिर कईं कईं दिन घुटने का दर्द लेकर बैठा रहता है ...

पार्क में ओपन-एयर जिम भी है ...और बहुत से लोग कसरत करते दिखे ..


वातावरण ऐसा कि कोई भी वहां बैठ कर कवि बन जाए ...

इन सीनियर सिटिजनों को चलते चलते क्लीन-इंडिया की वोटिंग की चिंता सताए जा रही थी, यार ...हंसी मज़ाक करो ...क्या इतने गंभीर मु्द्दे के साथ सुबह सुबह उलझ रहे हो ...

फुर्सत के पल भी ऐसे कि वहां से उठने की इच्छा ही नहीं होती ..

बड़े बड़े पौधे देख कर मन खिल जाता है ...

हम से का भूल हुई...जो यह सज़ा हम का मिली...😕



कुछ वक्त बिताने के बाद जैसे ही वापिस लौटने लगे तो देखा कि अब वहां के कुदरती नज़ारे की छटा अलग दिख रही है...सूरज देवता प्रकट हो रहे है ं...दो दिन पहले रेडियो पर सुनी बात याद आ गई कि किसी भी कुदरती नज़ारों को देखने जाओ तो वहां पर सिर्फ हाथ लगाने न जाओ...वहां पर वक्त बिताओ...दिन में हर पहर के साथ वहां की छटा अलग होती है ...जिसे यादों की पिटारी में सहेज कर रखने से बड़ा सुकून मिलता है ...

मिट्टी के रास्ते के साथ साथ इस तरह के पक्के रास्ते भी हैं ...फिसलने का कोई चांस ही नहीं ...

सुबह होते ही लड़के अपना जाल लेकर वहां पहुंच चुके थे ..

पेट्स का मेल-जोल देख कर अच्छा लगा..

पार्क के बारे में यह बात बढ़िया लगी ...और यह बिल्कुल सच भी लगा...

इतना कुछ होता है इस पार्क में ....बस, मुझे हमेशा लाफ्टर क्लब वाली बात हज़म नहीं होती ...हंसने के लिए भी यार कोई क्लब....हंसना तो बिल्कुल हमारी सांसों की तरह होना चाहिए ..बिल्कुल बिंदास, स्वतः ही हो जाने वाला और आसपास के माहौल को भी सहज कर देने वाला ...

इस तरह के कुदरती नज़ारे बरकरार रखने के लिए भी कितने लोग आगे आते हैं, इस पोस्टर से पता चला ...क्योकि वहां पर कोई टिकट नहीं है ...
अच्छा, एक बात और ...यह सुबह 10 बजे तक खुला रहता है, शायद 5-6 बजे खुलता है ...शाम में चार से आठ बजे तक खुलता है .हो कर आया करिए जब भी वक्त मिले ..पार्किंग की भी कोई ज़्यादा सिरदर्दी है नहीं ...लोग आसपास की सड़कों के किनारे लगा ही लेते हैं वाहन ...यह कोई ज़्यादा दूर भी नहीं है ...महालक्ष्मी मंदिर से यही पांच सात मिनट की  ड्राइव होगी ....नेप्यिनसी रोड़ जो आगे जाकर मालाबार हिल की तरफ़ निकल जाती है ..,

अभी भूख लग रही है ..उठता हूं नाश्ता कर लूं ...चलिए, इतनी तस्वीरें लगाने के बाद आज नाश्ते की प्लेट की तस्वीरें भी लगा देते हैं...




जितना आज की जेनरेशन को पिज़्जा, रोल, बर्गर, और भी पता नहीं क्या क्या ....पसंद है, उस से कहीं ज़्यादा हमें सर्दी में रोज़ यह खाना पसंद है, जब से होश संभाला है, मक्की की रोटी गुड़ या गुड़ की शक्कर के साथ सर्दी में लगभग रोज़ ही खाते रहे हैं...अकसर आखिरी रोटी यही होती थी ...अब इसे आप स्वीट-डिश कहिए या सप्लीमेंट या कोई टॉनिक ही कहिए ...हां, जवान थे तो दो-तीन भी एक साथ खा लेते थे....

जाते जाते ....इतनी तस्वीरें खींचते-खिंचवाते साथी से एक नसीहत भी मिल गई कि उसने कहीं वाट्सएप पर एक सुंदर संदेश देखा था ...Leave the Camera, Live the Moment! बात तो बढ़िया है, लेकिन अगली बार ख़्याल रखेंगे ....😃

आज पार्क की बात हुई ....फूलों की बात हुई, इसलिए गीत भी वैसा ही कोई सुन कर इस सुस्त सी ऐतवार की सुबह में कुछ तो नया जोश भरते हैं ...

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