शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2021

बचपन के दिन भुला न देना....यादें दशहरे की

कईं बार मैं भी सुबह सुबह कुछ लिखने का सोच कर ऐसा पंगा ले लेता हूं कि मुझे भी नहीं पता होता कि बात कहीं सिरे लगेगी भी कि नहीं। ख़ैर, आज दशहरा है, बचपन के दौर का दशहरा जब याद करता हूं तो बस यही याद आता है कि उस दिन जलेबीयां ज़रूर खाई जाती थीं और दशहरे के मेले पर ज़रूर जाया करते थे...बस, और कुछ याद नहीं.....लेकिन मैं सब को यही कहता हूं कि एक बार आप किसी विषय पर कुछ लिखने लगेंगे तो ख़ुद ही पता नहीं कहां कहां से बातें याद आती जाएंगी...जो दिल के किसी कोने में दबी पड़ी और सोई पड़ी होती हैं...देखते हैं खैर...

जी हां, मैं बात कर रहा हूं 1970 के आस पास के दशहरे की ....इस से दो साल पहले और शायद 1970 वाले दशक के आखिर तक यह सिलसिला चला...फिर बदकिस्मती से हम बड़े हो गए...मेलों में बिकने वाले खाने में हमें तरह तरह की गंदगी दिखने लगी, मक्खियां ज़्यादा नज़र आने लगीं...गन्ने के रस में हैपेटाइटिस ए के जीवाणु "दिखने" लगे....

यह उन दिनों की बात है जब दशहरे से पहले हम रामलीला देखने के लिए दिन गिनते रहते थे ...और नवरात्रोत्सव शुरू होने से कईं दिन पहले ही हम यह सोच सोच कर खुश होते रहते थे कि चलो, अभी रामलीला शुरू होने में इतने ही दिन बाकी बचे हैं...वे भी क्या दिन थे...हम रोज़ रात का खाना खाने के बाद रामलीला देखने चले जाते। स्टेज के आगे टाट बिछा रहता था, कुछ कुर्सियां वुर्सियां भी रखी होती थीं....उन्हें या तो पहले आने वाले हथिया लेते थे .....वैसे हमें बचपन ही से कभी कुर्सी वुर्सी के लिए सिरदर्दी मोल लेने का शौक रहा नहीं ...अब जैसा रहा है, वैसा ही लिख रहे हैं, झूठ बोलने से मुझे अपना पता है सिरदर्द के सिवा मुझे कुछ हासिल न होगा..!!

रामलीला की लीलाएं सुनाने बैठ गया तो फिर दशहरा का मंज़र कहीं पीछे छूट जाएगा...रामलीला की बातें फिर कभी छेडेंगे। वैसे भी दशहरे वाले दिन के नाम पर मेरे पास गन्ने और जलेबियों के अलावा कुछ है भी तो नहीं ...

लीजिए, आ गया जी दशहरा ..आप सब को भी विजय-पर्व की ढ़ेरों बधाईयां...दशहरे वाले दिन सुबह ही से बड़ी खुशी का माहौल पसरा होता था .. हमें बस बाज़ार से जलेबियां लाने की ड्यूटी मिल जाती थी...लेकिन जब बहुत छोटे से तब नहीं...यही कोई कक्षा दस -बारह तक पहुंचते पहुंचते ...मुझे अभी भी अच्छे से याद है कि अमृतसर के पुतलीघर बाज़ार में पिपलीवााल गुरुद्वारे के पास हलवाई की दुकान से या लोहगढ़ गेट के अंदर थथ्थे हलवाई की दुकान से ही जलेबीयां लाते थे ...(थथ्था हलवाई का मतलब वह हलवाई बोलते समय थोड़ा हकलाता था ...टुटलाने-शाने को मारो गोली, वह बंदा बहुत अच्छा था, हंसता रहता था, और मुझे तो और भी अच्छा लगता था क्योंकि मुझे उस की दुकान के बेसन के लड्डू बहुत ज़्यादा भाते थे ...मैंने बहुत खाए..एक दम अच्छे से सिके हुए बेसन से बने हुुए....चार पांच एक बार खा कर मज़ा आ जाता था। 

थथ्थे हलवाई की दुकान पर जब भी जाते थे तो इंतज़ार करनी ही पड़ती थी...सुबह सुबह वह आलू-पूरी बेचता था ...मुझे उस की पूरी के सिवा कभी पूरी को आलू के साथ खाना नहीं भाता, हमारे लिए पूरी का मतलब साथ में बढ़िया से छोले होने ही चाहिएं...😎लोग सच ही कहते हैं कि अमृतसर के लोगों का खाने-पीने का बड़ा नखरा होता है ...क्योंकि उस शहर की फिज़ाओं में ही जैसे एकदम लज़ीज़ खाने की महक रची बसी है...

और उन दिनों जलेबियां कागज़ के खाकी लिफाफों में मिला करती थीं...शायद एक किलो जलेबीयां तो ले ही आते थे...और यह काम दशहरे वाले दिन चार पांच बजे तक हो जाता था...फिर हमें जल्दी होती थी दशहरे के मेले पर जाने की ...

दशहरा के मेले का मतलब जो दशहरा ग्राउंड के आस पास और रास्तों पर दूर दूर तक खाने पीने की दुकानें सज जाती थीं वही हमारा मेला होता था ...रावण का पुतला दुर्ग्याणा मंदिर के एक बडे़ से ग्रांउड में जलाया जाता था...वहां से हमारा घर यही कोई एक-डेढ़-दो किलोमीटर होगा ...बचपन के छोटे छोटे कदमों को दो ही लगता होगा...अब एक किलोमीटर लगता है। दशहरे वाले दिन उस रास्ते पर सुबह ही से दुकानें सजने लगती थीं...मिठाईयों की दुकानें...जलेबियां, पकौड़े तलने के लिए वहां ताज़ी ताज़ी तैयार की गई मिट्टी की भट्टियों पर (कुछ तो अभी सूखी भी न होतीं) बड़ी बड़ी लोहे की कड़ाहीयां पड़ी दिखतीं...(बाज़ार के पकौड़ों का अलग ही नज़ारा हुआ करता था...😎).., पास ही कोई बेसन में पानी डाल कर, आलू-प्याज़ काट कर अपनी धुन में तैयारी में लगा रहता., तीर-कमान भी, दस बीस पैसे में सिर की टोपियां, और हां, बाजे भी ....यही कोई पांच दस पैसे में बिकने वाले बाजे...और हां, जगह जगह बिक रहे गन्ने...दशहरे के दिन घर में गन्ने लेकर आना बड़ा शुभ माना जाता था...और दशहरे के मेले से लौटते वक्त मुझे वह नज़ारा भी अच्छे से याद है कि लोगों के हाथों ने हाथों में लंबे लंबे गन्ने पकड़े हुए और बच्चे लगातार बाजे बजा रहे होते ...

ऐसी मान्यता थी कि सूर्य के डूबने के साथ ही रावण का पुतला जलाया जाए....इसलिए वह नज़ारा देखते बनता था...इतनी भीड़ में हमें डर भी लगता था...तरह तरह के डर हमारे दिलो-दिमाग में बैठ चुके थे...इतने भीड़-भड़क्के में कहीं गुम हो गए तो, कहीं दब-कुचल गये तो ....और एक बात, घर से जाते वक्त वो ख़ास हिदायत ...पुतले के पास बिल्कुल नहीं जाना, दूर ही से देखना...कईं बार पुतला ऊपर भी गिर जाता है, यह भी याद दिला दिया जाता। हम भी अपने दौर के सभी बच्चों की तरह मां-बाप की बात को गांठ बांध कर रखते थे ..चुपचाप जा कर नज़ारा देख कर, खा-पी कर, और बाजा बजाते हुए घर लौट आते थे। 

एक बात और ...एक क्रेज़ और भी ..क्रेज़ कहूं या एक चलन था कि रावण का पुतला जलने के बाद जब नीचे गिरता तो उस की कोई न कोई अधजली लकड़ी को अपने साथ लेकर वापिस लौटना सारे परिवार के लिए बड़ा शुभ माना जाता था...यह काम हमने 2005 में फिरोज़पुर रहते हुए भी किया था...मन तब भी इन ढकोंसलों को नहीं मानता था, आज भी नहीं मानता....लेकिन दुनिया के इस थियेटर में हर कोई अपना अपना किरदार निभा रहा है, हम भी वही कर रहे हैं।

मैंने कहा था न कि जब हम कुछ लिखने लगते हैं तो दिल के कोने में दबी पड़ी यादों की पोटली खुद-ब-खुद खुलने लगती है..हम अतीत की यादों के समंदर में डुबकीयां लगाने लगते हैं...और मन बाहर आने को करता ही नहीं। इतना पढ़ने के बाद आप को यह महसूस होगा कि मुझे यश चोपड़ा की फिल्म वीर-ज़ारा का यह गीत क्यों इतना ज़्यादा पसंद है ...(अलग नीचे दिया हुआ गीत न चले तो आप इस लिंक पर क्लिक कर के भी वह सुंदर गीत सुन सकते हैं... धरती सुनहरी, अंबर नीला....हर मौसम रंगीला, ऐसा देश है मेरा। 

बाप के कंधे चढ़ के जहां बच्चे देखें मेले, मेलों में नट के तमाशे, कुलफी के चाट के ठेले, 

कहीं मीठी मीठी गोली, कहीं चूरण की है पुडिया, भोले भोले बच्चे हैं जैसे गुड्डे और गुडिया.....😄👏👌


यहां बंबई में भी 1990 के दशक की दशहरे से जुड़ी यादें हैं...उन दिनों चौपाटी पर रावण का पुतला जलाया जाता था ... और वहां पर एक बहुत बड़ा लोहे का पुल हुआ करता था ...हम कईं बार उस के ऊपर चढ़ कर दशहरे का नज़ारा देखा करते थे...

फिर धीरे धीरे क्या हुआ...हमारे हाथों में कैमरे आ गए...घरों में केबल-टीवी की घुसपैठ हो गई...हम लोगों ने जब टीवी पर ही देश भर में मनाए जा रहे दशहरे का जश्न देखना शुरू किया...हमें लगा यही है दशहरा...लोग दशहरे के मेले के असली रोमांच से महरूम रहने लगे ...और सिलसिला अभी भी जारी है ...अब तो टीवी-वीवी की तो बात ही क्या करें, सारी दुनिया हमारे हाथ में पकड़े मोबाइल तक ही सिमट गई है ....इसी पर दशहरे की वीडियो देख देख कर खुश हो लेते हैं...इसी पर दशहरे की मुबारकबाद भेजते-भिजवाते ही दशहरा बीत जाता है ...और हम उस वक्त बड़े हैरान होते हैं जब कोई हमें बताता है कि उन के दो साल के नाती को खाना खिलाने के लिए पहले उस शिशु की मां उस के सामने बढ़िया बढ़िया वीडियो चला देती हैं...यह भी कोई हैरान करनी वाली बात है। हम सारा दिन क्या कर रहे हैं, हमारी दुनिया भी तो ऐसे ही सिमट गई है 

लेकिन असली वाला रोमांच जो इन पर्वों के मेलों पर हम महसूस किया करते थे, दुनिया देखा करते थे, बहुत सी चीज़ें घर से बाहर निकल कर खुद जान लेते थे, अच्छे-बुरे का फ़र्क समझ में आने लगता था .......वह सब अब गुज़रे ज़माने की बातें हैं ......अब अगर कोई मेरे जैसा भूला-भटका बंदा कभी ऐसे इस तरह के लेख में अपने मन के कबाड़ को बाहर निकालने की ज़हमत करे तो करे...। लेकिन एक बात और भी तो है....आज खूब मिठाईयों की बात हो रही है...मुझे ख्याल यह भी आ रहा है कि जैसे हलवाई अपनी मिठाई नहीं खाता, उसी तरह मैं भी अपना डायरी रूपी यह ब्लॉग लिखने के बाद पढ़ना बिल्कुल भी पसंद नहीं करता। अब डायरी में कुछ लिख दिया ..तो उसे बार बार कौन पढ़े, पहले ही इतनी सिरदर्दीयां हैं....दिल ने जो लिखवाया, सो लिख दिया...और एक बार जो दिल से लिख दिया, उसे कांट-छांट कर दुरूस्त करने का तो सवाल ही नहीं उठता....

कभी आथेंटिक पंजाबी खाना खाने को मन मचलने लगे तो यहां हो कर आइए....

मेरा रिश्तेदार नहीं है, मुझे कोई डिस्काउंट भी नहीं  ...फिर भी इमानदारी से कुछ जगहों की तारीफ़ करनी बनती है .. 

फिर से मिठाई की बातें ....जलेबीयों की बातें...मेरा इस वक्त तो जलेबीयां खाने का कोई मूड नहीं है, क्योंकि मैं पिछले दो दिनों में पंजाबी चंदू हलवाई का पतीसा इतना ज़्यादा खा चुका हूं कि अब रोटी खाने की भी इच्छा नहीं हो रही ...इसी चक्कर में कल रात को भी रोटी नहीं खाई क्योंकि पतीसा बहुत ज़्यादा खा लिया था...देखते हैं अगर शाम को फिर जलेबीयां याद आ गईं तो खा लेंगे ...गुड की जलेबीयां...जुहू में एक पंजाबी रसोई में बिकती हैं...😄😄जितनी मेहनत मैंने और बेटों ने पंजाबी ज़ायके वाली खाने-पीने की चीज़ो की रिसर्च करने में की है, अगर हम लोग अपनी पढ़ाई ही में इतना मन लगा लेते तो आज अपना भी नाम होता। 

इस जश्न में मुझे मेरे शहर में हुए एक हादसे की याद बहुत दुःखी करती है ....अमृतसर के जोड़ा फाटक के पास तीन चार साल पहले दशहरे का आयोजन था...लोग लाइनों के आसपास इक्ट्ठा थे...अंधेरा हो चुका था...बत्ती गुल थी...इतने में इस लाइन पर गाड़ी आ गई ...लोगों में अफरातफ़री मच गई ...इसी चक्कर में तीस चालीस लोग उस दिन गाड़ी के नीचे कट गये थे...बहुत अफसोसनाक घटना थी...आज उन सब आत्माओं की शांति की प्रार्थना करते हैं ......और आप सब को दशहरे की बहुत बहुत बधाईयां....काश!आज भी बुराई पर अच्छाई की विजय होती रही, झूठ पर सच भारी पड़ता रहे। 

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