दो दिन पहले एक दिन के लिए गाज़ियाबाद जाना हुआ...बाज़ार में टहल रहे थे ...इतने में आंच पर सिक रही लिट्टी की तरफ़ ध्यान गया...इतनी सर्दी के मौसम में जहां पर भी अंगीठी जल रही होती है ... वहीं पर थोड़ा रुक जाने की इच्छा तो होती ही है ...और ऊपर से इस रेहड़ी पर लिट्टी-चोखा तैयार करने वाला बड़े उत्साह से, साफ़-सफ़ाई से अपने काम में मस्त था....
हम भी रूक गए...उसने कहा कि एक प्लेट सादी 25 रूपये की है और शुद्ध घी वाली 35 रूपये की है ...हमारे पूछने पर उसने घी का ब्रांड भी बता दिया... मैं पहले भी दो एक बार लिट्टी चोखा खाया था ...एक दो बार तो लखनऊ में और एक बार घर ही में तैयार हुआ था..लेकिन इतना मज़ा नहीं आया ..उस दिन ब्रह्म देव जी के ख़ालिस-घी की लिट्टी-चोखे की बात ही अलग थी...
खाते समय थोड़ी बहुत बात होती रही ..समस्तीपुर से हैं, 13-14 साल से यहीं गाज़ियाबाद में यह काम कर रहे हैं, यहां पर अकेले ही रहते हैं...18-20 घंटे डट कर मेहनत करते हैं...लिट्टी चोखा तो शाम को 5 से रात 9 बजे तक ही बेचते हैं...लेकिन सारा दिन इस की तैयारी में कट जाता है। सुबह 6 बजे उठ कर सब्जी खरीदने जाते हैं...फिर उस की धुलाई, कटाई, और तरह तरह की चटनी की तैयारी में शाम हो जाती है ...और कहने लगे कि बीच में अपने लिए खाना भी तैयार करना होता है।
वहां रेहड़ी पर खाने वाले तो हम जैसे इक्का-दुक्का ही थे...अधिकतर लोग मोटर-कार में आकर अपना आर्डर दे रहे थे ...एक युवती ने कार से ही आवाज़ दी - लिट्टी वाले अंकल, दो प्लेट दीजिए...एक चटपटा, एक सादा। हमारी मिसिज़ ने उस युवती से कहा कि आप तो इन के रेगुलर कस्टमर लगते हो ...वह हंसने लगी। लिट्टी-चोखा खाते वक्त हमारी मिसिज़ ने भी उन से चटनी और सत्तू के बारे में दो एक टिप्स ले ही लीं..
उन का लिट्टी-चोखा देसी घी में डुबोई हुई लिट्टी के साथ इतना उम्दा था कि हमने एक एक प्लेट और ली। उन्हें देख कर, अपने पेशे के प्रति उन का समर्पण देख कर और सब से बड़ी बात उन का उत्साह देख कर यही लग रहा था कि उम्र कुछ भी हो, अगर कुछ करने का जज़्बा कायम-दायम है ...और सब से अहम् बात यह कि अगर अपने कम्फर्ट-ज़ोन से बाहर निकलने के लिए कोई निकलना जानता है तो ज़िंदगी बड़ी ख़ुशग़वार है ...नहीं तो सब कुछ बड़ा नीरस सा, घिसा-पिटा लगने लगता है...
अब ब्रह्म देव भी चाहते तो अपने गृह-नगर में ही रहते ....वहां से बाहर निकले, एक नया आकाश बांहें फैलाए उन की इंतज़ार कर रहा था ...अच्छा लगा उन से मिल कर ...आते आते मैं भी अपनी आदत से मजबूर ...ब्रह्म देव जी आप को हम 10 में से 10 नंबर देकर जा रहे हैं..यह सुनते ही उन के दूसरे ग्राहक भी हंसने लगे जैसे हमारी कही बात की हामी भर रहे हों...हमने उनसे वायदा किया कि जब भी यहां आया करेंगे, आप के पास ज़रूर आएंगे।
हम जैसे लोगों के लिए भी लिट्टी-चोखा खाना अपने कम्फर्ट-जो़न से बाहर निकलने जैसा ही है ...क्योंकि ये भटूरे, चने जैसे हमारे डी. एन.ए में ही शामिल हो चुके हैं ...ब्रह्म देव की रेहड़ी पर खड़े एक युवक ने कहा कि यह तो बिहार का बहुत ही पसंदीदा पकवान है ...मैंने कहा कि जैसे देश के इस भाग में भटूरे-चने ...इस पर ब्रह्म देव जी ने कहा कि लिट्टी चोखे में तो कोई भी ऐसी चीज़ नहीं है जिस का नुकसान हो ...मैंने उन की बात में हामी भर दी..। मुझे उस दिन पता चला कि चोखे में बैंगन के साथ आलू भी डाला होता है ...और एक चटनी नारियल और सरसों की भी उन के यहां जो खाई, वह भी लाजवाब थी।
कम्फर्ट ज़ोन से बाहर निकलने पर लिखने का मन पता नहीं आज कैसे कर गया....बहुत विशाल विषय है ... जितना भी लिखना चाहें, लिखते चले जाएं...ख़ैर, मैं अकसर कहता हूं शहर, कस्बा, देश कोई भी हो, उसे अच्छे से देखने, फील करने के लिए भी हमें कम्फर्ट-ज़ोन से बाहर निकलना बहुत ज़रूरी है ...मैं अपने अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि शहर तो वहां से शुरू होते हैं जहां से उन में हमारी मोटर-गाड़ीयां घुसनी बंद होती हैं....या यह भी कह सकते हैं जब हम अपनी मोटर-गाड़ी से उतर कर अपने पैरों को ज़ेहमत देने लगते हैं, उसी घड़ी से मान लीजिए हम उस गली, मोहल्ले, उस कसबे को जैसे टटोलने लगते हैं....कहीं पर कोई कदीमी दुकान दिख जाती है, किसी दूसरी नुक्कड़ पर कोई बहुत बुज़ुर्ग कारीगर अपने फ़न की इबादत करता दिख जाएगा....कही ं पर कोई ऐसी दुकान जिस पर ऐसा सामान बिक रहा होता है जो हमारे बचपन में ही बिकता हुआ दिखता था .... नए नए लोग दिखते हैं, उन से कभी थोड़ी ग़ुफ्तगू भी हो जाती है ... इस का मतलब नहीं कि हम लोगों ने उस शहर से अगला चुनाव जीतना है ...लेकिन बस ऐसे ही जहां पर रहते हैं वहां के बारे में पता हो तो ज़िंदगी थोड़ी ज़िंदगी जैसी लगती है ....नहीं तो वही रोबोट की तरह, जहां भी जाएं वहां पर पार्किंग की टेंशन करते करते ही थक हार कर अपने घर लौट आते हैं...है कि नहीं...कार में जब घूमने निकलते हैं तो यही तो होता है। मुझे और किसी का पता नहीं, मुझे तो बिल्कुल मज़ा नहीं आता....शहरों-कस्बों के ऐसे हवाई दौरों से ....ये हवाई-सर्वेक्षण जैसा काम नहीं है, यहां तो भई शहर-कस्बे की नब्ज टटोलने के लिए उस की रफ़्तार के साथ ही चलना पड़ता है..।
इसलिए मुझे टू-व्हीलर पर घूमना और उस से कहीं ज़्यादा साईकिल पर या पैदल चल कर सड़कों को नापना बहुत भाता है ... हर दिन हमें कुछ नया दिखता है ...कुछ ऐसा पता चलता है जो कल पता नहीं था, बस इन्हीं छोटी छोटी खुशियों से ही तो ज़िंदगी में थोड़ी ऊर्जा आती है ... साईकिल पर चलने वालों के, पैदल टहलने वालों के मेेरे पास सैंकड़ों किस्से हैं....अब क्या क्या लिखें, क्या क्या सुनाएं...शायद वह भी कम्फर्ट ज़ोन में अटके होने वाली बात है मेरे लिए...जिस दिन ठान लूंगा कि नहीं यह सब भी लिख कर शेयर करना ही है, करने लगूंगा।
इस तस्वीर का किस्सा फिर कभी . |
कम्फर्ट ज़ोन से बाहर निकलने के बारे में दो-चार अहम् बातें अगली पोस्ट में करूंगा... जाते जाते अपने बचपन के दौर का 50 साल पुराना अपना एक बेहद पसंदीदा गीत ही लगा दूं....इस लिंक पर क्लिक करिए... अगर नीचे यू-ट्यूब वीडियो नहीं चले तो ...
बहुत सुंदर आलेख। सही बात है, सिर्फ घर बैठकर शिकायत करने से बेहतर,बाहर निकल कुछ करने की कोशिश की जाए।
जवाब देंहटाएंBahut acha laga apki post padhkar mujhe blog likhne ka shauk h aur recently shuru bhi kiya h...best of luck...thnk u
जवाब देंहटाएंSend Teddy Day Gifts Online
जवाब देंहटाएंSend Valentine's Day Gifts Online
Send Valentine's Day Roses Online
सादर वन्दे।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा और प्रभावी लेखन होता है आपका। यह लेख सामान्य जनमानस के पटल को तो छुयेगा ही , आपकी सामाजिक सरोकारों से युक्त छवि को भी निखारेगा।