ज़िंदगी ज़िंदाबाद ...👍 |
उस फोटो को ज़ूम कर के देखा ...मेरे से रहा नहीं गया, मैंने तुरंत उस डाक्टर को ही फोन मिलाया जिसने ये तस्वीरें भेजी थीं...मैंने उसे कहा कि भाई, ये जो बंदा अपनी शेल्फ़ी खींच रहा है, इस की ज़िंदादिली ने तो मेरे दिल को छू लिया ...पता नहीं बंदा कहां से आ रहा है, कहां जाना है, इस स्टेशन से आगे जाने का क्या ठिकाना है, रहने, खाने-पीने का शायद ही कोई ठौर-ठिकाना होगा...लेकिन इस शख़्स की ज़िंदादिली पर प्यार आ गया ...इन हालात में भी शेल्फ़ी लेने के चक्कर में है...। उस डाक्टर ने बताया- शेल्फ़ी कहां, वह तो वीडियो बना रहा था, उसे मेडीकल स्टॉफ को कहना पड़ा कि जल्दी आगे चलिए, भाई, भीड़ इक्ट्ठा हो रही है..
शेल्फ़ी लेने के बारे में बहुत सी बातें आती रहती हैं ...लेकिन मुझे कभी भी कोई बंदा शेल्फ़ी लेता आक्वर्ड नहीं लगा- भला ऐसा क्यों ? - उस का कारण मैं बाद में बताता हूं ...लेकिन अभी एक बात और याद आ गई कि हम लोग कुल्लू से मनीकरण गुरुद्वारा जा रहे थे ..जून 2007 की बात है ...इतनी खराब सड़क, भुरते हुए किनारे, नीचे ब्यास दरिया अपने उफ़ान पर ...यकीं मानिए, उस सड़क पर एक तरफ़ से ही जैसे गाड़ियां जा रही थीं, देख कर डर लग रहा था...ऐसे में दूसरी तरफ़ से आती गाड़ी देख कर तो क्या हालत होती होगी, हम लोग आज भी याद करते हैं तो कांप जाते हैं ...लेकिन फिर भी पहाड़ के एक्सपर्ट ड्राईवर कैसे कट-वट मार कर....एक दूसरे को रास्ते देते-लेते अपने ठिकानों की तरफ़ चले जा रहे थे ...लेकिन उस दिन के बाद मुझे कभी भी ट्रैफिक जाम से डर नहीं लगा .......जैसे मैंंने कहा न कि मुझे कभी भी कोई भी शेल्फ़ी लेता बंदा गलत नहीं लगता, अब नहीं लगता तो नहीं लगता, क्या करें......बस, मैं यह दुआ ज़रूर करता हूं कि आज कल के युवा रेलवे लाइनों पर और ख़तरनाक पहाड़ियों पर खड़े होकर शेल्फी न खिंचवाया करें....
मेरे घर आई इक नन्हीं परी ...रेलगाड़ी पर हो के सवार !! |
बस, ऐसे ही यह लिखने बैठ गया .... आम आदमी की ज़िंदादिली को सलाम करने के लिए....कभी भी देखिए, मैंने तो बहुत कुछ देखा है, देख देख कर बुड्ढा हो गया हूं कि आम इंसान को जितनी दुश्वारी होती है उन्हें उतनी ही कम शिकायत होती है किसी भी व्यवस्था से ....मैं अकसर यह सोच कर बहुत हंसी आती है कि जैसे जैसे रेल गाड़ी की यात्रा का दर्जा बढ़ने लगता है ...शिकायतों उन की ही सब से ज़्यादा होती हैं ...कभी आप भी इस तरफ़ गौर फरमाईएगा..
अनुपम खेर की एक फिल्म आई थी ..ए वेडनेसडे ---अच्छी फिल्म थी ...एक डॉयलाग था उसमें - never underestimate the power of a poor bloody common man! आम आदमी के साथ मैं कोई विशेषण नहीं लगा रहा हूं ....क्योंकि मैं समझता हूं कि जिन्हें हम श्रमिक कहते हैं, आम जन कहते हैं ....यह भी बहुत ज़हीन होते हैं ...और ज़िंदादिल भी .... वो बात अलग है कि रोज़ी-रोटी के लिए इन्हें अपने गांव-कसबे को छोड़ कर दर-बदर भटकना पड़ता है ...और बड़े शहरों में इन श्रमिकों के साथ जैसा व्यवहार होता है ... वे किन हालात में वहां गुज़र-बसर करते हैं ...सामाजिक सुरक्षा नाम की कोई चीज़ नहीं होती इन के पास.... यह सब हम जानते ही हैं......इस सब के बावजूद भी अगर इन में से कुछ लोग अपनी ज़िंदादिली कायम रख पाते हैं तो उन के इस जज़्बे को सलाम करना तो बनता है ......है कि नहीं!
हिन्दुस्तान दिनांक 25 मई 2020, लखनऊ |
और हांं, मैंने ऊपर लिखा है कि दो अढ़ाई बरस पहले मेरी मां जब हम से रूख़सत हुई तो मैं और उस के पोते उन के पार्थिव शरीर के साथ शेल्फ़ी ले रहे थे ...इसलिए उस दिन के बाद मुझे कभी भी कहीं भी कोई भी शेल्फ़ी लेता अजीब नहीं लगता ... (बस, वह अपनी सुरक्षा का ध्यान रख रहा हो..) ...अच्छा, एक बार फिर से दुआ करते हैं कि सभी श्रमिक सही सलामत अपने अपने ठिकाने पर पहुंच जाएं और इन्हें अपने गांव, खेत-खलिहान से ही इतना कुछ मिल जाया करे कि इन्हें अपना घर-बार छोड़ कर दर-बदर भटकना ही न पडे़ कभी ..........आमीन......आज ईद है, काश! यह दुआ भी कुबूल हो जाए!
बचपन के दौर का सब से पहला गीत जो मुझे अकसर याद आता है ...(रेडियो पर खूब बजता था यह)
Dil Ko pansand aa gayi aapki post. ATI sunder ..umda soch...
जवाब देंहटाएंआप को बहुत शुक्रिया इस पोस्ट देखने के लिए और अपनी मूल्यवान टिप्पणी के द्वारा उत्साहवर्धन करने के लिए...धन्यवाद...
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