रेलवे के एक सीनियर डाक्टर डा अनिल थॉमस ने सोशल मीडिया में कुछ दिन पहले अपने अनुभव इन शब्दों में साझा किए... (उन्होंने इंगलिश में लिखा था...लेकिन पता नहीं मैं कैसा टूटा-फूटा अनुवाद कर पाया हूं)...
"आज का दिन काफ़ी व्यस्त था, ओपीडी का समय समाप्त होने में यही कुछ पौन घंटा रहता होगा... बरामदे में बहुत से मरीज़ अभी प्रतीक्षा कर रहे थे . मैंने अगले मरीज़ के लिए घंटी बजाई और एक ६३ वर्षीय पुरुष अपनी पत्नी के साथ कमरे के भीतर आया...उन्होंने बहुत अच्छे कपड़े पहने हुए थे ...और वे बढ़ती उम्र के साथ होने वाली आम शारीरिक समस्याओं के लिए मुझ से मशविरा करने आये थे, वह अकसर नियमित परामर्श लेने आते हैं।
इस बार उन्हें पेशाब की
धार में कुछ समस्या थी पिछले पंद्रह दिनों से ..और दवाई से उन्हें कुछ आराम लग रहा
था।
मैं अभी उनसे उन
की तकलीफ़ के बारे में बात कर ही रहा था कि बीच में ही उस की पत्नी कहने लगी कि
मैं तो इन्हें कहती हूं कि किसी अच्छे से मशहूर अस्पताल में चल कर दिखा लेते हैं
..और एक ऐसे ही अस्पताल में हमारी बेटी एंडोक्राईनोलॉजिस्ट है और यही नहीं, इन का
आठ लाख रूपये का मैडीकल इंश्योरेंस कवर भी है...
उस की पत्नी से इतनी
जानकारी मिलने पर मुझे भी यह उत्सुकता हुई कि एक नामचीन अस्पताल में जाने की बजाए यह व्यक्ति इस पॉलीक्लिनिक में आना ही क्यों चुनता है? दोस्तो, उस पुरुष ने ऐसे कारण बताए जो किसी की भी
आंखें खोलने के लिए काफ़ी हैं और जिस से रेलकर्मियों के रेल अस्पतालों में भरोसे और विश्वास की एक झलक मिलती है ...
१. वह ३६ साल तक रेलवे में लोकोपाइलट (ट्रेन ड्राईवर) रहा और इन ३६ सालों में
वह एक बार भी कभी रेल अस्पताल के बाहर किसी चिकित्सक से परामर्श करने नहीं गया।
२.उस के दोनों बच्चों का जन्म भी रेलवे अस्पताल त्रिची में ही हुआ था।
३. बीस साल तक उस के दोनों बच्चों की सेहत की बेहतरीन देखरेख रेलवे के अस्पताल
में ही होती रही।
४. २००४ में उस व्यक्ति की दोनों आंखों के मोतियाबिंद का आप्रेशन भी चेन्नई के
बड़े रेलवे अस्पताल में हुआ।
५. उस की पत्नी जिसे मधुमेह है ..इस से आंखों पर किसी किसी को जो असर पड़ता है डॉयबिटिक
रेटिनोपैथी...उस के लिए और ग्लुकोमा (काला मोतिया) के लिए यहां चेन्नई के
हैडक्वार्टर अस्पताल के आंखों के विभाग में उस का लंबा और संतोषजनक इलाज चलता रहा।
६. हर महीने ये पति पत्नी आते हैं, लंबी कतारों में अपनी बारी का इंतज़ार करते
हैं और नियमित चलने वाली अपनी दवाईयां ले कर जाते हैं।
७. इस दंपति का बेटा गूगल में सॉफ्टवेयर इंजीनियर है और बेटी एक
एंडोक्राईनोलॉजिस्ट है ..ये दोनों अपने मां-बाप के लिए बढ़िया से बढ़िया अस्पताल
में ऑनलाइन एप्वांयऐंट लेकर बिना फीस की परवाह किए...सब से बढ़िया इलाज चाहते हैं।
लेकिन इस पुरूष ने आगे कहा ...लेकिन हम लोग रेलवे अस्पतालों के साथ पिछले ४०
बरस का नाता ऐसे कैसे तोड़ सकते हैं? हमें एक अपनेपन का अहसास होता है यहां जब हम
डाक्टरों, पैरामैडीकल स्टॉफ एवं मरीज़ों में जाने पहचाने चेहरे दिखते हैं और हमें
यहां घर जैसा माहौल मिलता है। प्राईव्हेट
अस्पताल अति उत्तम हैं भी अगर, तो भी हमें वहां पर ओपीडी में हमें अकेलापन काटता है
और अनजान डाक्टरों से बात करने पर भी कुछ तो खालीपन खलता है।
यह बंधन तो प्यार का बंधन है ....
उस व्यक्ति ने जाते समय रेलवे के पुराने डाक्टरों के बारे में मेरे ज्ञान को
टटोला, मेरे से अपनी हेल्थ-बुक और नुस्खा लिया और मुझ से हल्के से हाथ मिला कर और
एक मुस्कुराहट बिखेरते हुए कमरे से बाहर चला गया...
मेरी यह पोस्ट उन सभी विशेष डाक्टरों, पैरामैडीकल स्टॉफ को समर्पित है जो रेल
के मुलाजिमों और सेवानिवृत्त कर्मियों को ता-उम्र रेलवे चिकित्सा सेवा की लत लगाए अपने साथ जोड़े रखते हैं.."
मुझे डा अनिल थॉमस की यह फेसबुक पोस्ट पढ़ कर बहुत अच्छा लगा...जो शब्द किसी
प्रोफैशनल के दिल से निकलते हैं वे किसी प्रशंसा के मोहताज नहीं होते और जब यह
प्रोफैशन कोई डाक्टर हो तो क्या कहने! मैं इस पोस्ट के एक एक शब्द की ईमानदारी को तसदीक
करता हूं क्योंकि पिछले २६ बरसों से मैं भी इसी व्यवस्था का हिस्सा रहा हूं..
पोस्ट पढ़ कर पिछले एक सप्ताह से लग रहा था कि इस पोस्ट को (जो अंग्रेजी में
थी) हिंदी में लिख कर ज़रूर शेयर करूंगा..लेकिन बस, ऐसे ही आलस करता रहा .. इसे
पढ़ने के बाद सोच रहा हूं कि हम सब को --सब से पहले पॉलिसीमेकर्स को, स्वयं
चिकित्सकों को ...और किसी भी सरकारी विभाग में नये नये दाखिल हुए डाक्टरों, एवं
लाभार्थियों (beneficiaries) को….यह पोस्ट गहराई से सोचने पर मजबूर करती है ... इस
पोस्ट में बहुत गहराई है।
एक दूसरी बात का भी लिखते लिखते ध्यान आ रहा है ...कि यह तो थी एक ६३ साल के
व्यक्ति की बातें जिसने हमें अपने फीडबैक से खरीद लिया ....अब सोचिए कि ७०-८० और
८५-९० साल के हो चुके रेलकर्मियों के पास इस तरह की हौंसलाअफ़जाई के लिए उनकी मीठी
यादों के पिटारे के रूप में कितना बड़ा खजाना दबा पड़ा होगा....जिसे कभी किसी ने
ताकने की भी कोशिश नहीं की....समय की कमी, झिझक या बहुत से दूसरे कारणों के रहते
....चलिए, इन से बात करते हैं .......क्योंकि बात करने से ही बात बनती है .....और
यह बातचीत भी अपने जीवन की दूसरी पारी खेल रहे इन बेशकीमती शख्शियतों के समग्र
इलाज (holistic health care) का एक हिस्सा भी है ...कोई कोयले झोंकता रहा बरसों तक, कोई स्टीम-इंजन की
गर्मी सहता रहा ५८ साल की उम्र तक.... हमें अपनी मंज़िल तक पहुंचाने के लिए.....कोई भारी भरकम
थैले उठा कर रेल लाइनों को ठोंक-पीट कर रोज़ाना देखता रहा .......अब इन के शरीर के कलपुर्ज़ों और नट-बोल्ट को दुरुस्त रखने की बारी हमारी है। क्या ख्याल है आपका?
very nice expression. we get it every day.
जवाब देंहटाएंGreat indeed...
हटाएंPlease do share your experiences too...
Thanks
सर बहुत ज्यादा अच्छा। अनुभव आपने शेयर किया है। आपसे मिलने वाले भी आपके बारे में ऐसे विचार ही रखते होंगे, ऐसा मेरा विचार है।
हटाएंशुक्ला जी, इस ज़र्रानवाज़ी के लिए तहेदिल से शुक्रिया। आपकी नज़रों में ही अच्छाई है।
हटाएंआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन जन्मदिवस : भीष्म साहनी और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
जवाब देंहटाएंडाक्टर के व्यवहार से मन को जो तुष्टि मिलती है वह भी चिकित्सा का एक अंग है मन और तन परस्पर संबद्ध हैं.
जवाब देंहटाएंबिलकुल सही बात है।
हटाएंI admire his feelings toward Railway doctors and system..
जवाब देंहटाएंSS Parashar
DyCME PLG NCR
Of course, sir,i also admire his feelings....
हटाएंप्रिय ब्लॉगर,
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सादर
आप बहुत महान काम कर रहे हैं।
हटाएंइसमें हम भी आहूति डालेंगे ज़रूर।
I really appreciate your professional approach. These are pieces of very useful information that will be of great use for me in future.
जवाब देंहटाएंकई दिनों से व्यस्तता भरा जीवन पर आज जैसे ही ब्लॉग खोला परवीन जी काम समय में ज्यादा जानकारी मिली आज आपके ब्लॉग से ...अनुभव आपने शेयर करने के लिए आभार !!
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