सुबह एक जगह खटमल का ज़िक्र हुआ...हमारे एक वाट्सएप ग्रुप पर ...बस फिर क्या था, सरसों का तेल ऐसे याद आया कि अभी तक उस से जुड़ी सभी यादें उमड़ पड़ी हैं...
बचपन के दिन भी क्या दीवानेपन के, बेपरवाह दिन हुआ करते हैं...
मुझे याद है कि खटमल जब भी लड़ते तो हमें तुरंत सरसों का तेल लगाने को दिया जाता ..बस, चंद ही लम्हों में हम अपना दुःख भूल जाते ..
दरअसल खटमल के काटने से चमड़ी जो थोड़ी सी उभर जाती है उसे धफ्फड़ कहते हैं... (पंजाबी में) ...इलाज तो मैंने बता ही दिया है ...धफ्फड़ ही नहीं, अगर मच्छर भी रात में काट रहे हैं, परेशान हो कर उठ बैठे हैं तो भी तेल की वह प्लास्टिक वाली शीशी ही काम आती थी...बडा़ सुकून मिल जाता था ...
अगर तितैया काट गया ... तो भी कटी हुई जगह पर लोहा रगड़ने के बाद तेल ही लगाना होता था ....
अब क्या क्या गिनाएं....झिझक भी होती है ... लेकिन मैं दूसरे लेखकों को पढ़ने के बाद थोड़ी हिम्मत करने लगा हूं ...बिंदास बात कहने लगा हूं ...सरसों के तेल की उपयोगिता चमूने लड़ने से लेकर कान और दांत में तेज़ दर्द में भी होती थी ...चमूने वाली परेशानी का मैं ज़्यााद वर्णऩ करने में असमर्थ हूं...जो भुक्तभोगी हैं वे सब जानते हैं....और कान में सरसों का तेल डालने से पहले उसे अंगीठी पर गर्म करते समय उस में लहसुन के दो टुकडे़ ज़रूर डाल दिये जाते थे ... कईं सालों बाद पता चला कि कान नाक के डाक्टर कहते हैं कि कान में कभी भी सरसों का तेल नहीं डालना चाहिए...लेकिन हमारे दोनों कानों में जब तक एक आध चम्मच तेल नहीं पहुंचता था, हमारी खारिश ही जाने का नाम न लेती थी ...
चलिए, पुरानी बातें को भी कितना याद करें....ऐसे ही कभी उमड़-घुमड़ आती हैं... बस, कहावत फिर वही याद आ जाती है कि अज्ञानता एक वरदान है .....यह कहावत बड़ी गहरी है, इसे सब लोग अपने अपने नज़रिये से पढ़ते हैं..
हां, जब हमें लासें पड़ जाती थीं....लासें (यह लाशें नहीं है, नोट करिए) ठेठ पंजाबी का शब्द है, इस का मतलब जब उमस आदि का मौसम हो ज़्यादा पसीना आता है तो हमारी साइडें लग जाती हैं...मतलब यह की हमारी जांघों के अंदरूनी हिस्सों में खारिश, लाली ...बस यह सब होने लगता है ...कईं दिन तक परेशानी का सबब...हमारे बचपन के दिनों में ये कैंडिड -इचगार्ड आदि कुछ भी नहीं था....क्या पता होता भी होगा, हमारी ही पहुंच से दूर होगा......चलिए, जो भी हो, हमें तो इस का सीधा इलाज समझाया गया था...कि रात को स्नान करने के बाद, सरसों का तेल चुपड़ लिया जाए, और सब से खुला पायजामा पहन कर सो जाया जाए......सच्ची यार, अगली सुबह ऐसे लगता था जैसे कुछ हुआ ही न हो। हैरान होता हूं कि पिछले दौर के लोग भी बहुत जुगाड़ू थे ..
कोई किसी को चोट लग जाए, कोई किसी को अंदरूनी चोट हो....हर एक के मुंह पर सब से पहले सरसों का तेल ही आता था....फर्स्ट एड कह ले ंया मरीज़ का ध्यान बंटाने के लिए या प्लेसिबो इफेक्ट कह लें.....कुछ भी कह लेते हैं क्योंकि अब कुछ कहने लिखने की और शायद उन बातों की थोड़ी खिल्ली भी उड़ाने की थोड़ी औकात हो गई है ......लेकिन याद है अच्छी तरह से जब केवल और केवल एक सरसों के तेल का ही सहारा हुआ करता था...
सिर पर भी रोज़ यह तेल चुपड़ा जाता था ...और कईं हफ्तों बाद इस से अपनी मालिश भी खुद करनी होती थी ...विशेषकर रविवार के दिन धूप में बैठ कर ..नहाने से पहले ....सिर पर कईं बार मां या बहन चंपी कर दिया करते थे..
बहुत से मरीज़ आते हैं जो कहते हैं कि हम लोग दांतों और मसूड़ों पर कड़ुवा तेल (यहां यू.पी मे इसे कड़ुवा तेल कहते हैं...कड़वा कहते हैं या कड़ुवा ...लेकिन उनके बोलने पर मुझे कड़ुवा ही सुनता है)..लगाते हैं, मालिश करते हैं मसूड़ों की उस से, बस उसी की वजह से दांत कायम हैं..
शरीर में कहीं भी शुष्कता लगे ...पंजाबी में कहते हैं खुश्की, तो भी यही तेल झस (लगा) दिया जाता था...और हां, सर्दियों में अकसर उन दिनों हमारे पैरों की अंगुलियां लाल हो जाती थीं, सूज जाती थीं...तब हमें गर्म पानी में सरसों का तेल और नमक डाल कर एक बड़े से पतीले में दिया जाता था...हम उस में पांच दस मिनट पांव रखे रहते, तोलिये से सुखा कर और जुराबें डाल कर सो जाते ...और सुबह एक दम चकाचक ....सब कुछ ठीक हुआ होता था...
मैं अपने दोस्तो ं से शेयर कर रहा था कि हमारे दिनो ं में तो भाई सरसों के तेल का संजीवनी बूटी जैसा मान सम्मान था... समय बदलता है तो लोगों की आदतें भी बदलने लगती हैं...स्वभाविक है ....वरना हमारे दिनों में तो फर्स्ट एड ही बस यह थी ... सरसों का तेल, मीठा सोड़ा (बेकिंग सोड़ा) पानी के साथ अगर कभी अफारा हो जाए... और सिरदर्द होने पर टूंडे (excuse me, हम उसे ऐसे ही बुलाते थे) की दुकान से एक सैरीडोन, पेट दर्द होने पर अजवाईन- नमक की पानी के साथ फक्की, और मां के दांतदर्द के समय बाज़ार से नसवार (powdered tabacco) लाना और पापा के दांत के दर्द के इलाज के लिए बाहर आंगन से गर्मा-गर्म ईंट के एक टुकड़े को उन्हें लाकर देना....सेंकने के लिए...
हां, सरसों के तेल की कुछ बातें और याद आ गईं... घर में कोई ताला नहीं खुल रहा, कोई कील-पेंच जाम हो गया तो वही सुपरहिट फार्मूला ....हिदायत दी जाती ऊपर से ...डाल दो इस ताले (जंदरे) में तेल और पड़ा रहने दो ....अपने आप रवां हो जायेगा....और पता नहीं फिर होता था कि नहीं, लेकिन जब कभी उस जंदरे को रिपेयर करने के लिए बाज़ार लेकर जाया जाता तो ताले वाले की फटकार ज़रूर सुनने को मिलती कि आप लोग तालों में सरसों का तेल क्यों डाल देते हो? मत किया करो यह कारस्तानी, खराब कर देता है यह ताले को।
ध्यान आ रहा है कि घर में छोटी सी एक पीतल की या कांसे की (कांसे को पंजाबी में कैं कहते हैं क्या, मुझे पता नहीं) कटोरी तेल के साथ हर समय तैयार ही रहती थी ....याद आ गया लिखते लिखते कि कभी साईकिल भारी चल रहा होता था तो साईकिल की चेन को भी इसी सरसों के तेल की चंद बूंदों का टॉनिक पिला दिया जाता था ... हा हा हा हा हा ....साईकिल की गरारी भी रवा हो जाती थी ........हा हा हा हा हा हा ... और वह हल्का चलने लगता था बिना ज़्यादा शोर शराबे के।
और हां, जब यह सरसों का तेल चोट, खरोंच या चमूनों-वूनों पर लगता था और चीखें निकलती थीं और कोई न कोई यह कह कर ढाढस भी बंधा देता था ....इस का मतलब खरा (शुद्ध) है, इसलिए लगेगा तो...लेकिन देखना आराम भी तुरत-फुरत आ जायेगा... हां भई हां, और होता भी ऐसा ही था ..... As I always say......Good Old Days!
बचपन के दिन भी क्या दीवानेपन के, बेपरवाह दिन हुआ करते हैं...
मुझे याद है कि खटमल जब भी लड़ते तो हमें तुरंत सरसों का तेल लगाने को दिया जाता ..बस, चंद ही लम्हों में हम अपना दुःख भूल जाते ..
दरअसल खटमल के काटने से चमड़ी जो थोड़ी सी उभर जाती है उसे धफ्फड़ कहते हैं... (पंजाबी में) ...इलाज तो मैंने बता ही दिया है ...धफ्फड़ ही नहीं, अगर मच्छर भी रात में काट रहे हैं, परेशान हो कर उठ बैठे हैं तो भी तेल की वह प्लास्टिक वाली शीशी ही काम आती थी...बडा़ सुकून मिल जाता था ...
अगर तितैया काट गया ... तो भी कटी हुई जगह पर लोहा रगड़ने के बाद तेल ही लगाना होता था ....
अब क्या क्या गिनाएं....झिझक भी होती है ... लेकिन मैं दूसरे लेखकों को पढ़ने के बाद थोड़ी हिम्मत करने लगा हूं ...बिंदास बात कहने लगा हूं ...सरसों के तेल की उपयोगिता चमूने लड़ने से लेकर कान और दांत में तेज़ दर्द में भी होती थी ...चमूने वाली परेशानी का मैं ज़्यााद वर्णऩ करने में असमर्थ हूं...जो भुक्तभोगी हैं वे सब जानते हैं....और कान में सरसों का तेल डालने से पहले उसे अंगीठी पर गर्म करते समय उस में लहसुन के दो टुकडे़ ज़रूर डाल दिये जाते थे ... कईं सालों बाद पता चला कि कान नाक के डाक्टर कहते हैं कि कान में कभी भी सरसों का तेल नहीं डालना चाहिए...लेकिन हमारे दोनों कानों में जब तक एक आध चम्मच तेल नहीं पहुंचता था, हमारी खारिश ही जाने का नाम न लेती थी ...
चलिए, पुरानी बातें को भी कितना याद करें....ऐसे ही कभी उमड़-घुमड़ आती हैं... बस, कहावत फिर वही याद आ जाती है कि अज्ञानता एक वरदान है .....यह कहावत बड़ी गहरी है, इसे सब लोग अपने अपने नज़रिये से पढ़ते हैं..
हां, जब हमें लासें पड़ जाती थीं....लासें (यह लाशें नहीं है, नोट करिए) ठेठ पंजाबी का शब्द है, इस का मतलब जब उमस आदि का मौसम हो ज़्यादा पसीना आता है तो हमारी साइडें लग जाती हैं...मतलब यह की हमारी जांघों के अंदरूनी हिस्सों में खारिश, लाली ...बस यह सब होने लगता है ...कईं दिन तक परेशानी का सबब...हमारे बचपन के दिनों में ये कैंडिड -इचगार्ड आदि कुछ भी नहीं था....क्या पता होता भी होगा, हमारी ही पहुंच से दूर होगा......चलिए, जो भी हो, हमें तो इस का सीधा इलाज समझाया गया था...कि रात को स्नान करने के बाद, सरसों का तेल चुपड़ लिया जाए, और सब से खुला पायजामा पहन कर सो जाया जाए......सच्ची यार, अगली सुबह ऐसे लगता था जैसे कुछ हुआ ही न हो। हैरान होता हूं कि पिछले दौर के लोग भी बहुत जुगाड़ू थे ..
कोई किसी को चोट लग जाए, कोई किसी को अंदरूनी चोट हो....हर एक के मुंह पर सब से पहले सरसों का तेल ही आता था....फर्स्ट एड कह ले ंया मरीज़ का ध्यान बंटाने के लिए या प्लेसिबो इफेक्ट कह लें.....कुछ भी कह लेते हैं क्योंकि अब कुछ कहने लिखने की और शायद उन बातों की थोड़ी खिल्ली भी उड़ाने की थोड़ी औकात हो गई है ......लेकिन याद है अच्छी तरह से जब केवल और केवल एक सरसों के तेल का ही सहारा हुआ करता था...
सिर पर भी रोज़ यह तेल चुपड़ा जाता था ...और कईं हफ्तों बाद इस से अपनी मालिश भी खुद करनी होती थी ...विशेषकर रविवार के दिन धूप में बैठ कर ..नहाने से पहले ....सिर पर कईं बार मां या बहन चंपी कर दिया करते थे..
बहुत से मरीज़ आते हैं जो कहते हैं कि हम लोग दांतों और मसूड़ों पर कड़ुवा तेल (यहां यू.पी मे इसे कड़ुवा तेल कहते हैं...कड़वा कहते हैं या कड़ुवा ...लेकिन उनके बोलने पर मुझे कड़ुवा ही सुनता है)..लगाते हैं, मालिश करते हैं मसूड़ों की उस से, बस उसी की वजह से दांत कायम हैं..
शरीर में कहीं भी शुष्कता लगे ...पंजाबी में कहते हैं खुश्की, तो भी यही तेल झस (लगा) दिया जाता था...और हां, सर्दियों में अकसर उन दिनों हमारे पैरों की अंगुलियां लाल हो जाती थीं, सूज जाती थीं...तब हमें गर्म पानी में सरसों का तेल और नमक डाल कर एक बड़े से पतीले में दिया जाता था...हम उस में पांच दस मिनट पांव रखे रहते, तोलिये से सुखा कर और जुराबें डाल कर सो जाते ...और सुबह एक दम चकाचक ....सब कुछ ठीक हुआ होता था...
मैं अपने दोस्तो ं से शेयर कर रहा था कि हमारे दिनो ं में तो भाई सरसों के तेल का संजीवनी बूटी जैसा मान सम्मान था... समय बदलता है तो लोगों की आदतें भी बदलने लगती हैं...स्वभाविक है ....वरना हमारे दिनों में तो फर्स्ट एड ही बस यह थी ... सरसों का तेल, मीठा सोड़ा (बेकिंग सोड़ा) पानी के साथ अगर कभी अफारा हो जाए... और सिरदर्द होने पर टूंडे (excuse me, हम उसे ऐसे ही बुलाते थे) की दुकान से एक सैरीडोन, पेट दर्द होने पर अजवाईन- नमक की पानी के साथ फक्की, और मां के दांतदर्द के समय बाज़ार से नसवार (powdered tabacco) लाना और पापा के दांत के दर्द के इलाज के लिए बाहर आंगन से गर्मा-गर्म ईंट के एक टुकड़े को उन्हें लाकर देना....सेंकने के लिए...
हां, सरसों के तेल की कुछ बातें और याद आ गईं... घर में कोई ताला नहीं खुल रहा, कोई कील-पेंच जाम हो गया तो वही सुपरहिट फार्मूला ....हिदायत दी जाती ऊपर से ...डाल दो इस ताले (जंदरे) में तेल और पड़ा रहने दो ....अपने आप रवां हो जायेगा....और पता नहीं फिर होता था कि नहीं, लेकिन जब कभी उस जंदरे को रिपेयर करने के लिए बाज़ार लेकर जाया जाता तो ताले वाले की फटकार ज़रूर सुनने को मिलती कि आप लोग तालों में सरसों का तेल क्यों डाल देते हो? मत किया करो यह कारस्तानी, खराब कर देता है यह ताले को।
ध्यान आ रहा है कि घर में छोटी सी एक पीतल की या कांसे की (कांसे को पंजाबी में कैं कहते हैं क्या, मुझे पता नहीं) कटोरी तेल के साथ हर समय तैयार ही रहती थी ....याद आ गया लिखते लिखते कि कभी साईकिल भारी चल रहा होता था तो साईकिल की चेन को भी इसी सरसों के तेल की चंद बूंदों का टॉनिक पिला दिया जाता था ... हा हा हा हा हा ....साईकिल की गरारी भी रवा हो जाती थी ........हा हा हा हा हा हा ... और वह हल्का चलने लगता था बिना ज़्यादा शोर शराबे के।
और हां, जब यह सरसों का तेल चोट, खरोंच या चमूनों-वूनों पर लगता था और चीखें निकलती थीं और कोई न कोई यह कह कर ढाढस भी बंधा देता था ....इस का मतलब खरा (शुद्ध) है, इसलिए लगेगा तो...लेकिन देखना आराम भी तुरत-फुरत आ जायेगा... हां भई हां, और होता भी ऐसा ही था ..... As I always say......Good Old Days!