यह जो मुझे आज सुबह टहलते हुए दिखा ...यह हर नुक्कड पर आप भी रोज़ देखते होंगे |
सुबह टहलते जब निकलते हैं तो हर तरफ़ प्लास्टिक के अंबार देख कर, जलता हुआ प्लास्टिक देख कर, पशुओं को प्लास्टिक निगलते देख कर ..आस पास के नालों को प्लास्टिक से रूके देख कर और वहां से निकलती दुर्गंध से मन दुःखी होता है ...
बार बार मन में यही विचार आता है कैसे हम इस प्लास्टिक वाली बीमारी से निजात पा सकेंगे आखिर ...बहुत साल पहले जब दूध प्लास्टिक की पन्नियों में बिकने लगा तो हैरानगी हुई, फिर जब दही भी इन में मिलने लगा तो भी अजीब सा लगा ...फिर गर्मागर्म दाल भी ढाबे वाले इसी में बेचने लगा ...लेकिन यहां जब यहां यू.पी में देखा कि गर्मागर्म चाय भी इन पन्नियों में भी बिकती है तो आंखे फटी की फटी रह गईं...और जब इन के साथ आने वाले प्लास्टिक के गिलासों की तरफ़ ध्यान गया तो उन का मैला-कुचैला रंग और बिल्कुल पतला प्लास्टिक यह बताने के लिए काफ़ी होता है कि ये किस तरह के घटिया, रीसाईक्लज़ प्लास्टिक से तैयार किए होंगे...और तो और, अब तो पानी पीने के लिए भी बाजा़र में दो रूपये की पानी की पन्नी मिलती है ...जो काम हम लोग किसी प्याऊ पर हथेलियां जोड़ कर ही निपटा लेते थे ...
उस दिन मेरा एक मरीज़ मुझे मशविरा दे गया ... डाक्टर साब, आज कल तो डिस्पोज़ेबल गिलास आते हैं..आप भी यहां ओपीडी में कांच के गिलास इस्तेमाल करना बंद कर दीजिए...उसने मुझे और भी ज्ञान बांट दिया कि उन का तो यही फायदा है कि यूज़ एंड थ्रो...
मानो तो गंगा मां हूं, ना मानो तो बहता पानी...
उस की तो मैंने हां में हां मिला दी ..मरीज़ को क्या नाराज़ करना, लेकिन करता मैं वही हूं जो मैं ठीक समझता हूं...मेरे यहां आने से पहले यहां डिस्पोज़ेबल गिलास ही इस्तेमाल होते थे ...लेकिन मैंने कभी नहीं मंगवाये...दिक्कत क्या है, कांच के इतने सारे गिलास हैं, आराम से साफ़ हो जाते हैं...जिसे दिक्कत है, वह घर से अपना गिलास ले आए...(कुछ लोग लाते भी हैं!) ..बेकार में हम लोग जितना कचड़ा जमा करते रहेंगे, कहीं न कहीं ढेर लगता रहेगा, इतने ज़्यादा प्लास्टिक या थर्मोकोल का डिस्पोज़ल भी तो एक सिरदर्दी ही है!
यहां घर के पास ही हफ्ते में दो दिन सब्जी मंडी लगती है ..अकसर देखता हूं कि लोग कपड़े के थैले तो उठाए रहते हैं लेकिन हर सब्जी अलग प्लास्टिक की पन्नी में मिलने की वजह से उस थैले में पंद्रह बीस पन्नियों तो जमा हो ही जाती होंगी...सोचने वाली बात है कि ऐसे में फिर उस कपड़े वाले थैले के साथ दिखने का फायदा ही क्या....nothing beyond a new fashion statement!
बचपन की यादें हैं कि जब कपड़े की थैलियों में सब्जी आती थी तो कितना समय तो उन सब्जीयों को अलग अलग करने में ही लग जाता था...मिर्ची मेथी में घुसी हुई ...और अरबी आलू-कचालू में...एक एक मटर को अलग करना, आप को भी थोडा़ बहुत याद तो होगा (नाटक मत कीजिए!) कि किस तरह से उस थैले को जमीन पर उल्टा कर के सब्जियों को अलग अलग करने की प्रक्रिया शुरू हो जाती थी.. फिर वही मलाल....कईं बार जब टमाटर और केले और कभी कभी आम और आलूबुखारे भी दब जाते थे ... लेकिन उस दौर में भी लोगों को अच्छी समझ तो थी ही कि टमाटर और केले सब से आखिर में ही खरीदने हैं...
अब टमाटर आदि के लिए चाहे लोग अलग से थैला लेकर जाने लगे हैं..लेकिन दुकानदार उसे फिर भी प्लास्टिक की पन्नी में डाल के ही देता है ...
हमें इस तरह से खरीदारी का ढंग बदलना होगा ..हम से मतलब मुझे भी ...यह जो हमारा लाइफ-स्टाईल बन चुका है जिस में हम लोग प्लास्टिक की पन्नियां ही इक्ट्ठी करते रहते हैं...इस से निजात पानी होगी ...अगर हम चाहते हैं कि हमारा पर्यावरण ठीक रहे ...बद से बदतर होने से बचा रहे...एक बार एक आश्रम में लिखा देखा था कि आप जिस कमरे में रह रहे हैं..खुशी से रहिए, बस लौटते समय इतना सुनिश्चित कीजिए कि इसे आप उसी हालत में छोड़ कर जाएँ जिस हालत में यह आप को मिला था ...बात मन को छू गई........क्या हम यही बात अपने वातावरण के लिए नहीं कर सकते कि अगली पीढ़ी को भी धरा, वन-सम्पदा, नदी, तालाब, पोखर, झरने ....हम विरासत में वैसे ही देकर जाएं जैसे ये कभी हमें मिले थे ....सोचिएगा!
काम मुश्किल भी नहीं है इतना जितना हम समझ लेते हैं... शुरूआत करने की ज़रूरत है ...यह लिखने से मेरे को यह फायदा हुआ है कि अब मैं जब भी थैला लेकर निकलूंगा तो उस में प्लास्टिक की पन्नियां डलवाने से गुरेज करूंगा ....कर लेंगे ध्यान यार टमाटर और केलों को बचाने का ... पहले अपने आप को तो बचा लें, हम भी अगर कहीं प्लास्टिक के पहाड़ों के नीचे दब गये तो!
कहने को तो ये इज़ी-डे, स्पेन्सर्ज़ जैसे स्टोर भी खरीदारी के वक्त अगर थैली देते हैं तो उस का अलग से चार्ज करते हैं...लेकिन इन जगहों पर भी सब्जी और फलों के लिए अलग अलग प्लास्टिक की पन्नीयां ही दिखती हैं.. बड़ी बड़ी दुकानों ने भी कागज़ के थैले के लिए अलग से पैसे वसूलने शुरू किए हुए हैं...अच्छा है वैसे तो यह भी उपाय...जितने भी छोटे छोटे कदम दिखें, मुबारक हैं...क्योंकि इन सब का बड़ा उद्देश्य एक ही है ...पर्यावरण की रक्षा।
बंद करता हूं अब इस पोस्ट को ...ड्यूटी पर जाने का समय हो गया है ...
बस, यही गुजारिश है कि अगली बार जब कपड़े का थैला लेकर बाज़ार के लिए निकलें तो उस में प्लास्टिक की पन्नियां डलवा कर उस की सौम्यता को ग्रहण मत लगने दीजिए....मैं स्वयं आज ही से इस बात का विशेष ध्यान रखूंगा ... अपने आप से यह वादा कर रहा हूं!!
कुछ दिन पहले टीवी पर किसी ने बड़ी सुंदर बात कही कि गंगा नदी को साफ़ करने पर करोड़ो रूपये खर्च हो रहे हैं....लेकिन यह साफ़ तभी होगी जब हम लोग इसे गंदा करना बंद कर देंगे...
सही कहा।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया, ज्योत्स्ना जी।
हटाएंलखनऊ में कुछ जगहों पर पन्नी मना की जा सकती है,कुछ जगहों पर विकल्प ही नहीं होते ।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रेरक प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंशुक्रिया, कविता जी।
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