शुक्रवार, 3 जून 2016

बोतल बंद पानी नहीं दिखेगा...An eco-friendly move!

10-15 वर्ष पहले मैं कोंकण रेलवे पर सफर कर रहा था..विभिन्न स्टेशनों पर पानी के टोटियों के साथ एक नोटिस लगा हुआ था...आप को यहां बोतल बंद पानी खरीदने की ज़रूरत नहीं है, यहां पर नल में जो पानी सप्लाई हो रहा है, इसे विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के अनुसार जांचा परखा गया है। आप इस की शुद्धता के बारे में आश्वस्त हो सकते हैं। मुझे बहुत अच्छा लगा था उस दिन वह नोटिस पढ़ कर।

आप से एक प्रश्न पूछना है...आप किसी मीटिंग में जाते हैं..आप देखते हैं स्टेज पर जितने लोग हैं, हर माननीय के सामने एक बोतल रखी है ...कुछ लोग बोतल खोलते हैं..पानी की एक चुस्की लेते हैं..बस...बाकी बोतल वही...बस, कचड़ा हो गया जमा...और नीचे पंडाल में बैठे लोगों के िलए कोई छबील तो क्या, मई जून के महीने में गर्म पानी के पानी की टोटियां भी नहीं दिखतीं कईं बार...पीना है तो खरीद कर पियो....नहीं तो प्यास को दबाए रखो...आक्रोश की तरह!


हां, तो प्रश्न यह है कि अगर इस तरह के पंडाल या सभागृह में बैठे हों तो आप को कैसा महसूस होता है, चलिए, जवाब किसी को बताने की भी ज़रूरत नहीं...अपने मन में ही रखिए...आप की चुप्पी से मैं आप का जवाब समझ गया।

मैं भी जब कुछ मीटिंगों, वर्कशापों, सैमीनारों में इस तरह की व्यवस्था देखा करता था कि स्टेज पर सब के सामने एक एक बोतल पानी की ...मुझे तो बहुत अजीब या भद्दा दिखता था यह सब कुछ....क्यों भाई..कईं तरह के विचार भी मन में आते थे जिन्हें मैं भी आप की तरह मन में दबा के रखना चाहता हूं..

लेकिन आज सुबह सुबह मुझे वाट्सएप पर एक सरकारी सर्कुलर देख कर बहुत अच्छा लगा..पेयजल मंत्रालय की तरफ़ से था .. सभी सरकारी विभागों को एक रिक्वेस्ट की गई है कि सभी मीटिंगों, वर्कशापों एवं सैमीनारों में बोतलबंद पानी नहीं दिया जायेगा....बहुत बहुत बधाई ..इतना बोल्ड स्टेप लेने के लिए..

दरअसल वाट्सएप ने हमें शक्की भी बहुत बना दिया है ...हम अपने स्कूल के दोस्तों के चुटकुलों एवं उन की बातों के अलावा किसी पर भरोसा ही नहीं करते ... मैं भी किसी सरकारी सूचना को बिना वैरीफाई किए किसी के साथ आगे शेयर नहीं करता...क्योंकि फिर यह हमारी सिरदर्दी बन जाती है ..कुछ महीने पहले एक बार किसी ने  मार्फ्ड दस्तावेज (morphed) अपलोड कर दिया था...बिना वजह का झंझट...

मैंने गूगल सर्च से वेरीफाई कर के ही यह पोस्ट लिखनी शुरू की...मुझे बहुत अच्छा लग रहा है...

कुछ सुझाव भी हैं... like a bottled message in a sea! लिख रहा हूं...
  • अब यह न हो कि बोतलों की जगह वे प्लास्टिक के सीलबंद गिलास मिलने शुरू हो जाएं इन मीटिंगों में...वे भी उतने ही भद्दे लगते हैं और पर्यावरण के लिए बेहद खराब तो है ही यह सब कचड़ा...
  • सभागार में बैठे श्रोताओं के लिए भी किसी कोने में जो पानी का डिस्पेन्सर रखा है, उस के पास भी प्लास्टिक के डिस्पोज़ेबल गिलास नहीं रखे जाने चाहिए....क्यों भई, कांच के दो चार गिलास रख दीजिए..जिसे प्यास होगी, थोड़ा धो के पी लेगा..तो कौन सा शान कम हो जायेगी!
  • डेलीगेट्स के लिए छोटी छोटी मिनी बोतलबंद पानी की बोतलों का भी चलन बहुत खराब है ...ऐसी ही सैंकड़ों भरी हुई और खाली बोतलों का अंबार मेरे आधे सिर के दर्द के ट्रिगर करने के लिए काफी होता है, चलिए, मेरे पुराने सिर दर्द से किसी को क्या लेना-देना, लेकिन एन्वार्यनमैंट से तो है...यह सिलसिला भी खत्म होना ही चाहिए..
  • यह जो सर्कुलर है यह एक निवेदन जैसा है...मुझे ऐसा लगता है कि अब सभी मंत्रालयों एवं विभागों को इस तरह के सर्कुलर निकालने होंगे...और आदेश वाली भाषा में ...निवेदन-वेदन क्या, सरकारी नौकर हैं सभी ..ऊपर से नीचे तक...जैसा आदेश होगा, उस की पालना करनी ही होगी..
  • कहीं पर भी सरकारी दफ्तरों में डिस्पोजेबल गिलास भी न खरीदे जाएं...न पानी के लिए न चाय के लिए...बिना वजह हम लोग कचड़े के अंबार लगाते रहते हैं...थर्मोकोल भी तो खराब ही है ..कांच और चीनी के बर्तनों में चाय-वाय पिलाई जाए...जिसे पीनी हो पिए, वरना कोई बात नहीं घर जा के पी लेंगे..
  • और क्या लिखना है, जितना लिखें कम है..टॉपिक ही ऐसा है, हम सब कि ज़िंदगी से जुड़ा हुआ..जितनी जल्दी हम लोग अपनी आदतें सुधार लें, बेहतर होगा हमारे लिए भी और अगली पीढ़ी के लिए भी ...वरना वे भी हंसेंगे हमारे बाद कि ये बुड्ढे लोग भी कचड़े के ढेर पर बिठा कर चले गये..
  • एक सुझाव और भी है ...ये जो राजधानियां और शताब्दीयां चलती हैं..इन में भी रोज़ाना लाखों पानी की बोतलें बांटी जाती हैं...यह सब भी बंद होना चाहिए...हम कोई फिरंगी साहब लोग नहीं हैं...देश की आम जनता है सब लोग..बिना वजह के शोशेबाज़ी, फिज़ूल के नखरे (इस महान प्रजातंत्र में एक चाय बेचने वाला अगर प्रधानमंत्री बन सकता है..इस से बड़ा और मजबूत प्रजातंत्र का और क्या प्रमाण चाहिए), जिसे ज़रूरत होगी पानी खुद खरीद लेगा ...आज से तीस चालीस साल पहले ट्रेन के पहले दर्जे के डिब्बों में एक किनारे पर एक स्टील की टंकी सी पड़ी होती थी पीने वाले पानी की...वरना लोग अपनी अपनी बोतलें, मश्कें और सुराहियां साथ ही ले कर चला करते थे......एक सुझाव है..एक आईडिया देने में, जनमत तैयार करने में अपना क्या जाता है! वैसे भी मन की बात कहने को आज कल अच्छा समझा जाता है। 
जब मैं इस बोतलबंद पानी की बोतलों को मीटिंग से दूर भगाने वाली खबर गूगल कर रहा था तो कुछ और खबरें भी मिल गईं...पढ़ रहा था कि मिक्स रिस्पांस है, वह तो होगा ही ....Change is always traumatic.... लेकिन फिर जो काम करना हो तो करना ही होता है...No ifs and buts! Just orders, that's all! हम लोग ऐसे ही सुधरेंगे...फिरंगियों ने हमें इसी तरह से ही सुधरने की आदतें डाल दी हैं, क्या करें, हमारी भी मजबूरी है!

पानी ही बोतलें ही नहीं, हर जगह ध्यान रखें कि हम किस तरह से नॉन-बॉयोडिग्रेडेबल कचड़े को कम कर सकते हैं...प्लास्टिक का इस्तेमाल कम कर सकते हैं...थर्मोकोल हटा सकते हैं...To add fuel to fire...हम लोग इन चीज़ों के अंबार लगा देते हैं..फिर उन्हें जला देते हैं...ताकि फेफड़ों तक इन के तत्व आसानी से पहुंच जाएं...जिस सत्संग में जाते हैं, वहां हलवे जैसा प्रसाद भी प्लास्टिक लाईनिंग वाले दोने में मिलता है, क्या करें, कह कह के थक गये हैं...कुछ कहते ही नहीं,अब चुप ही रहते हैं...अगर पत्तल के दोने नहीं भी मिलते तो हाथ में प्रसाद देने में क्या दिक्कत है, मेरी समझ में यह नहीं आता... लंगर के दौरान चाय भी प्लास्टिक या थर्मोकोल के गिलासों में ही होती है ...और तो और लखनऊ में बड़े मंगलवारों(यहां ज्येष्ठ माह में आने वाले मंगलवारों को बड़े मंगलवार कहते हैं..फिर कभी इन के बारे में बात करेंगे)  के दिनों लाखों टन कचड़ा प्लास्टिक और थर्मोकोल इक्ट्ठा हो जाता है.....बहुत बड़ा मुद्दा है शहर में यह कि इसे कौन उठायेगा.......इन्हें चिंता होती है उठवाने की, मुझे चिंता होती है इस कचड़े के हश्र की .....उठवा के कहीं भी जला देंगे..

इसलिए मुझे इस तरह के भंडारे बहुत अच्छे लगते हैं जिस में पत्ते के दोनों में प्रसाद दिया जाता है ...इन का क्या है, यहां से उठाए जाने के बाद दो दिन में मिट्टी में िमट्टी हो जाएंगे....

आज यहां लखनऊ में इतनी उमस है, इतनी चिलकन और गर्मी है कि क्या बताऊं...ऊपर से मैं पोस्टमार्टम के लिए विषय ऐसा शुष्क सा लेकर बैठ गया...जो भी हो, पेय जल मंत्रालय के इस सर्कुलर की जितनी तारीफ़ की जाए कम है...मुझे सरकार के इस तरह के कदम बहुत भाते हैं....अब कहने वाले कह रहे हैं कि इस से क्या होगा...क्यों नहीं होगा...There is a chinese proverb...Journey of 3000 miles start with a first step!.... हो जायेगा सब कुछ होगा धीरे धीरे, शुरूआत तो हुई...किसी को यह भी लग रहा होगा कि यह भी कोई PR exercise के तहत हो रहा होगा...just a publicity gimmick... चलिए, अगर किसी को यह भी लग रहा है तो भी क्या बुराई है....कुछ भला ही तो हो रहा है हमारे और हमारे बच्चों के लिए...

कुछ ज्यादा brain-storming करने की ज़रूरत नहीं, चुपचाप इस तरह के छोटे छोटे काम पर्यावरण के लिए आप भी करते रहिए...एक एक बूंद से भी घड़ा भर जाता है....

अब इतनी ड्राई पोस्ट के बाद अगर मैं कोई डिप्रेसिंग सा गीत चला दूंगा तो बहुत अन्याय होगा...कुछ ऐसा याद करते हैं जिस में थोड़ी ठंडक हो, कुछ मस्ती हो...आप चंद लम्हों के लिए घमौरियों को भूल जाएं.....ठंडी हवाओं ने गोरी का घूंघट उठा दिया...यह गीत कैसा रहेगा! Again, one of my favorites since childhood!






4 टिप्‍पणियां:

  1. सार्थक पोस्ट ...



    ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " बिछड़े सभी बारी बारी ... " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  2. शिवम् मिश्रा जी, स्वागत है ...पोस्ट देखने के लिए और उसे ब्लॉग बुलेटिन पर शेयर करने के लिए...शुभेच्छाएं..

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  3. सही व सटीक
    वंचित रह गई थी इसे पढ़ने में
    भला हो भाई शिवम् का
    पढ़वा दिया
    सादर

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इस पोस्ट पर आप के विचार जानने का बेसब्री से इंतज़ार है ...