शुक्रवार, 6 मार्च 2015

पुराने कपड़े दो और नये बर्तन लो...

यह खेल भी आज से ३०-३५ वर्ष पहले बहुत हुआ करता था...बहुत मजा आता है जिस जगह भी यह खेल चल रहा होता तो मोहल्ले के बच्चे उसी जगह पर इक्ट्ठा हो जाते और उन के टाइम पास का अच्छा जुगाड़ हो जाया करता।

मैं सोच रहा था कि हम लोगों के बचपन में टाइमपास के जुगाड़ बड़े हुआ करते थे....इस खेल के बारे में तो अभी बात करूंगा ...एक और टाइमपास...उस जमाने में जब स्टील चला नहीं था, पीतल के बरतन हुआ करते थे ...तो अकसर उन की कलई उतरने लगती थी जो कि कलई करने वाला आकर कर फिर से चढ़ा जाया करता था।

हमें तो देख कर ही इतना मजा आया करता था .. हमें कलई शब्द ही अभी पता चला...हम तो पंजाबी में इसे भांडे कली करवाने के नाम ही से जाना करते थे.....हम किसी जादू से कम नहीं लगता था जब वह भट्ठी पर बर्तन गर्म कर के, उस के अंदर एक कैमीकल रगड़ता और झट से पानी में झोंकता.......लो जी, हो गई कली। हम लोग उसे ऐसे घेरे रहते थे ...तब तक जब तक वह अपना सामान बंद कर के रफा-दफा नहीं हो जाता था। उस के साथ पहले मोल-तोल देखना भी अच्छा लगता था।


हां, तो ऊपर कपड़े वाले खेल की बात करें.......अभी वाट्सएप पर एक मैसेज दिखा कि मोदी का सूट तो करोड़ों में बिक गया लेकिन एक बंदे को मलाल है कि उस की बीवी ने तो उस की तीन जीन पैंट्स एक पतीली लेने के चक्कर में दे डाली।

दोस्तो, हम बचपन में अकसर देखा करते थे जब नये नये स्टील के बर्तन चले तो एक टोकड़ी में कुछ बर्तन रख के अकसर महिलाएं (हां, पुरूष ही हुआ करते थे) मोहल्ले मोहल्ले में आवाज़ें लगाती रहती थीं...कि पुराने कपड़े दो और नये बर्तन ले लो।

वाह यार वाह.....मोहल्ले में किसी के भी घर के सामने या दरवाजे पर जैसे ही वह बैठती तो तुरंत बच्चे उसे घेर लेते......उस घर की गृहिणी की यह तमन्ना होती कि उसे लूट ले और उस बर्तनों वाली की इच्छा तो आप समझ ही सकते हो, गृहिणी कितने भी कपड़े िनकाल निकाल कर लाती, उस बर्तन वाली का पेट नहीं भरता......वह फिर कहती ..यह साड़ी तो पुरानी है, यह पैंट तो घिसी हुई है , यह कमीज का कॉलर चला गया है........दो साड़ियां लाओ और एक बढ़िया पतलून दो ...और यह बड़ा स्टील का पतीला ले लो........सच में यार यह सब देख कर बड़ा मज़ा आता था...कभी न खत्म होने वाली सौदेबाजी........हमें इस से कोई मतलब नहीं होता था कि किस की जीत हुई, हमें तो बस इसी में मजा आता था कि समय बढ़िया पास हो रहा है...और जिज्ञासा तो स्वाभाविक है बनी रहती थी कि कौन लूटेगा, कौन लुटेगा........लेिकन चंद मिनटों में जैसे ही डील पक्की हुआ करती तो दोनों के चेहरों पर संतोष का भाव झलकने लगता...और यही नहीं, फिर वह स्टील का बर्तन मोहल्ले की औरतें में अगले दो दिन तक चर्चा का विषय बना रहता .....कि यार, सोढ़न (सोढ़ी की बीवी ने) ने पुराने कपड़ों से एक बहुत बड़ा पतीला ले लिया, और कपूरनी (कपूर की बीवी) ने छः गिलास ले लिए...पुराने कपड़े दे कर।

मुझे ध्यान आ रहा है िक ये लोग एल्यूमीनियम और कांच के बर्तन भी इस तरह से एक्सचेंज में देने के लिए ऱखा करते थे।

बस, यही ध्यान आया तो आप से शेयर कर दिया........ऐसी यादें भी अब चंद लोगों के पास ही बची होंगी......फिर धीरे धीरे यह काम बंद तो नहीं हुआ.....बहुत कम हो गया। हां, एक बात का और ध्यान आ गया कि अकसर ये लोग पुराने प्लास्टिक से तैयार सामान भी लेकर आया करते थे। अकसर लोग इन लोगों को यह भी कह दिया करते कि हमें फलां फलां स्टील का बर्तन चाहिए.....तो वे कुछ दिनों बाद फिर से हाजिर हो जाते .....और पहले ही बता कर जाते कि इस के लिए इतने कपड़े देने होंगे......बस, यार, वह मंजर भी देखने वाला हुआ करता था।


 एक बात और, एक रिसाईक्लिंग की और उदाहरण याद आ गई..साईकिल पर एक आदमी करता था जो पुराना, टूटा फूटा प्लास्टिक लेकर जाता और उस के बदले कांच के गिलास, कांच की प्यालियां, प्लेटें कुछ भी दे जाता.......ऑन डिमांड...

बस, यार बंद करता हूं.......होली है, होली मनाओ......यादें तो यादें हैं.....आती ही रहती हैं.....

जाते जाते भांडे कली करवाने (बर्तन कलई करवाने) वाला पंजाबी फिल्म का एक गीत आप से शेयर करना है.....


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