कल पहली बार किसी दुर्गा पूजा उत्सव में जाने का अवसर मिला। अच्छा अनुभव रहा....मां दुर्गा पंडाल के पास मैंने यह वीडियो बनाई ...
जब इस भक्त ने अपनी अर्चना कर ली तो मैंने सोचा कि अब कोई भी दूसरा आ कर पूजा करेगा....दो चार मिनट तक जब कोई नहीं आया तो मैंने पास खड़े युवकों से पूछा कि आप लोग भी चले जाओ अंदर.........उन में से एक ने कहा कि अंदर ऐसे ही थोड़ा जा सकते हैं, पैसे लगते हैं........मैंने पूछा ...कितने? उन्हें यह पता नहीं था....लेकिन इतना पता था कि या तो जो इस समारोह के प्रबंधक लोग हैं, वही जा सकते हैं...जब हम लोग बाहर सांस्कृतिक कार्यक्रम में बाहर आ कर बैठे तो देखा कि यह पूजा करने वाला भक्त एक आर्गेनाइजर ही था। लोगों में इतनी श्रद्धा देख कर अच्छा लगा।
खूब रौनक थी...खाने पीने के स्टालों पर और भी ज़्यादा। एक जगह बिहार का मशहूर बाटी-चोखा भी बिक रहा था....उस का बनाने का तरीका ही इतना आकर्षित करने वाला है कि तुरंत खाने की इच्छा हो उठती है।
कमाल खान साहब प्रसिद्ध गजलें सुना कर लोगों को खुश कर रहे थे....जश्न का माहौल था। उन्होंने लोगों की फरमाईश पर बहुत ही खूबसूरती से समय बांध के रखा.....
इस तरह के विभिन्न धार्मिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों पर जाने से हमें देश के बारे में पता चलता है.....आपसी प्रेम-प्यार, सौहार्द, मिलवर्तन की भावनाएं प्रबल होती हैं। लोग एक दूसरे के रीति-रिवाज से वाकिफ हो पाते हैं।
वैसे वहां बैठे बैठे मुझे पता नहीं बार बार दो बातें याद आ गईं.....जब मैं छोटा बालक था तो किसी धार्मिक स्थान में जाया करता था तो पूजा की थाली हमेशा किसी आगे आगे बैठे सेठ के हाथ में देख कर मुझे बड़ी हैरानी हुया करती थी...केवल एक दो परिवार ही हमेशा थाली थाम के रखते थे.......मन में प्रश्न उठा करते थे....ये सभी प्रश्न २००७ तक उठते ही रहे जब मुझे ब्रह्मज्ञान की दात हासिल हो गई और सब परतें अपने परतें खुलती चली गईं और निरंतर खुलती चली जा रही हैं।
एक बात का और ध्यान आ रहा था .....१९८१ में मैं, मेरी मां और बड़ा भाई जो बंबई से आया था, हम लोग एक धार्मिक स्थल पर गये.......बड़े भाई के पास लगभग १२-१३०० रूपये थे......हम लोग कुछ ही घंटों में पहुंच गये जी वहां....लेकिन वहां तो इतनी भीड़-भड़क्का, भाई ने वापिस भी जाना था, वह आस पास के क्वार्टरों में जाकर सैटिंग कर के आया कि लाइन में खड़े होने की बजाए किसी दूसरी तरफ़ से किसी के घर के रास्ते से घुस कर विशेष दर्शन कर पाएंगे.....प्रति व्यक्ति दो सौ रूपये लगेंगे........मुझे याद नहीं है ठीक से लेकिन इतना तो पक्का है कि लगभग ४०० रूपये उस सुविधा के लिए उस के खीसे से निकाले गये थे.....बाकी भी वहां पर बहुत खर्च हुआ था......
वापिस लौटते लौटते यह हाल था कि डर लग रहा था कि हम लोग किसी तरह से वापिस अमृतसर लौट जाएं..... किराया तो बच ही जाना चाहिए........मुझे पक्का याद है कि जब हम लोग अमृतसर के बस अड्डे पर पहुंचे तो भाई की जेब में कुल १०रूपये थे जिन्हें रिक्शे वाले को थमा कर हम घर पहुंचे........ढंग से खाना खाया और राहत की सांस ली।
कईं वर्षों से मुझे यह सवाल कचोटता रहा कि भक्ति हम जैसों की ज़्यादा थी जिन्होंने पैसे फैंक कर एक तरह से जबरदस्ती दर्शन कर लिए या फिर वे भक्त जो चुपचाप धूप में अपनी बारी की इंतज़ार करते रहे.......कृपा किसके ऊपर ज़्यादा होगी......तब तो यही प्रश्न था, लेकिन २००७ में जब ब्रह्मज्ञान की दात हासिल हुई तो सभी के सभी प्रश्न ही हवा हो गये।
हां, एक बात और......दु्र्गा पूजा जैसे धार्मिक-सांस्कृतिक उत्सवों से हमें बहुत कुछ सीखने को मिलता है......ये जो ऊपर वीडियो में ढोल बजा रहे हैं, इन्हें ढाकिये कहते हैं जो विशेष रूप ले कलकत्ता से आते हैं इस तरह के समारोहों के लिए।
घर लौटने पर जब गुंडे फिल्म देख रहे थे तो दुर्गा पूजा का एक सीन आया.....जिस में औरतें एक दूसरे के ऊपर सिंदूर फैंक रही थीं.....बेटे ने पूछा कि यह क्या है, तो उस की मां ने कहा ....इसे सिंदूरखेला कहते हैं......कहानी फिल्म में नहीं देखा था कि सुहागिनें दुर्गा-पूजा के विसर्जन से पहले एक दूसरे को सिंदूर लगाती हैं............वैसे देखा जाए तो हमारी फिल्में भी हमें बहुत कुछ बताती हैं, शर्त यही है कि मन में बस जिज्ञासा की आग चाहिए।
मेरे ज़हन में भी फिल्मी गीतों का इतना अपार खजाना है कि मुझे लगता है कि सब कुछ छोड़-छाड़ कर किसी एफएम रेडियो चैनल में नौकरी कर लेनी चाहिए.......लोगों को गीत सुनाने के बहाने स्वयं भी सारा दिन सुनता रहूंगा......अभी भी याद आ गया.........परवरिश फिल्म का मेरा एक बेहद पसंदीदा गीत.........गीत के बोलों की तरफ़ विशेष ध्यान दीजिए........खुली नज़र क्या खेल दिखेगा दुनिया का...बंद आंख से देख तमाशा दुनिया का.
जब इस भक्त ने अपनी अर्चना कर ली तो मैंने सोचा कि अब कोई भी दूसरा आ कर पूजा करेगा....दो चार मिनट तक जब कोई नहीं आया तो मैंने पास खड़े युवकों से पूछा कि आप लोग भी चले जाओ अंदर.........उन में से एक ने कहा कि अंदर ऐसे ही थोड़ा जा सकते हैं, पैसे लगते हैं........मैंने पूछा ...कितने? उन्हें यह पता नहीं था....लेकिन इतना पता था कि या तो जो इस समारोह के प्रबंधक लोग हैं, वही जा सकते हैं...जब हम लोग बाहर सांस्कृतिक कार्यक्रम में बाहर आ कर बैठे तो देखा कि यह पूजा करने वाला भक्त एक आर्गेनाइजर ही था। लोगों में इतनी श्रद्धा देख कर अच्छा लगा।
खूब रौनक थी...खाने पीने के स्टालों पर और भी ज़्यादा। एक जगह बिहार का मशहूर बाटी-चोखा भी बिक रहा था....उस का बनाने का तरीका ही इतना आकर्षित करने वाला है कि तुरंत खाने की इच्छा हो उठती है।
कमाल खान साहब प्रसिद्ध गजलें सुना कर लोगों को खुश कर रहे थे....जश्न का माहौल था। उन्होंने लोगों की फरमाईश पर बहुत ही खूबसूरती से समय बांध के रखा.....
इस तरह के विभिन्न धार्मिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों पर जाने से हमें देश के बारे में पता चलता है.....आपसी प्रेम-प्यार, सौहार्द, मिलवर्तन की भावनाएं प्रबल होती हैं। लोग एक दूसरे के रीति-रिवाज से वाकिफ हो पाते हैं।
वैसे वहां बैठे बैठे मुझे पता नहीं बार बार दो बातें याद आ गईं.....जब मैं छोटा बालक था तो किसी धार्मिक स्थान में जाया करता था तो पूजा की थाली हमेशा किसी आगे आगे बैठे सेठ के हाथ में देख कर मुझे बड़ी हैरानी हुया करती थी...केवल एक दो परिवार ही हमेशा थाली थाम के रखते थे.......मन में प्रश्न उठा करते थे....ये सभी प्रश्न २००७ तक उठते ही रहे जब मुझे ब्रह्मज्ञान की दात हासिल हो गई और सब परतें अपने परतें खुलती चली गईं और निरंतर खुलती चली जा रही हैं।
एक बात का और ध्यान आ रहा था .....१९८१ में मैं, मेरी मां और बड़ा भाई जो बंबई से आया था, हम लोग एक धार्मिक स्थल पर गये.......बड़े भाई के पास लगभग १२-१३०० रूपये थे......हम लोग कुछ ही घंटों में पहुंच गये जी वहां....लेकिन वहां तो इतनी भीड़-भड़क्का, भाई ने वापिस भी जाना था, वह आस पास के क्वार्टरों में जाकर सैटिंग कर के आया कि लाइन में खड़े होने की बजाए किसी दूसरी तरफ़ से किसी के घर के रास्ते से घुस कर विशेष दर्शन कर पाएंगे.....प्रति व्यक्ति दो सौ रूपये लगेंगे........मुझे याद नहीं है ठीक से लेकिन इतना तो पक्का है कि लगभग ४०० रूपये उस सुविधा के लिए उस के खीसे से निकाले गये थे.....बाकी भी वहां पर बहुत खर्च हुआ था......
वापिस लौटते लौटते यह हाल था कि डर लग रहा था कि हम लोग किसी तरह से वापिस अमृतसर लौट जाएं..... किराया तो बच ही जाना चाहिए........मुझे पक्का याद है कि जब हम लोग अमृतसर के बस अड्डे पर पहुंचे तो भाई की जेब में कुल १०रूपये थे जिन्हें रिक्शे वाले को थमा कर हम घर पहुंचे........ढंग से खाना खाया और राहत की सांस ली।
कईं वर्षों से मुझे यह सवाल कचोटता रहा कि भक्ति हम जैसों की ज़्यादा थी जिन्होंने पैसे फैंक कर एक तरह से जबरदस्ती दर्शन कर लिए या फिर वे भक्त जो चुपचाप धूप में अपनी बारी की इंतज़ार करते रहे.......कृपा किसके ऊपर ज़्यादा होगी......तब तो यही प्रश्न था, लेकिन २००७ में जब ब्रह्मज्ञान की दात हासिल हुई तो सभी के सभी प्रश्न ही हवा हो गये।
सिंदूरखेला. |
हां, एक बात और......दु्र्गा पूजा जैसे धार्मिक-सांस्कृतिक उत्सवों से हमें बहुत कुछ सीखने को मिलता है......ये जो ऊपर वीडियो में ढोल बजा रहे हैं, इन्हें ढाकिये कहते हैं जो विशेष रूप ले कलकत्ता से आते हैं इस तरह के समारोहों के लिए।
घर लौटने पर जब गुंडे फिल्म देख रहे थे तो दुर्गा पूजा का एक सीन आया.....जिस में औरतें एक दूसरे के ऊपर सिंदूर फैंक रही थीं.....बेटे ने पूछा कि यह क्या है, तो उस की मां ने कहा ....इसे सिंदूरखेला कहते हैं......कहानी फिल्म में नहीं देखा था कि सुहागिनें दुर्गा-पूजा के विसर्जन से पहले एक दूसरे को सिंदूर लगाती हैं............वैसे देखा जाए तो हमारी फिल्में भी हमें बहुत कुछ बताती हैं, शर्त यही है कि मन में बस जिज्ञासा की आग चाहिए।
मेरे ज़हन में भी फिल्मी गीतों का इतना अपार खजाना है कि मुझे लगता है कि सब कुछ छोड़-छाड़ कर किसी एफएम रेडियो चैनल में नौकरी कर लेनी चाहिए.......लोगों को गीत सुनाने के बहाने स्वयं भी सारा दिन सुनता रहूंगा......अभी भी याद आ गया.........परवरिश फिल्म का मेरा एक बेहद पसंदीदा गीत.........गीत के बोलों की तरफ़ विशेष ध्यान दीजिए........खुली नज़र क्या खेल दिखेगा दुनिया का...बंद आंख से देख तमाशा दुनिया का.
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