मंगलवार, 29 जनवरी 2008

बीमार बंदे की जगह अगर डाक्टर खुद को खड़ा कर के देख ले.....


कुछ महीने पहले किसी स्त्री-रोग विशेषज्ञ के हास्पीटल में जाने का मौका मिला- लेकिन यह क्या, उस का रिसेप्शनएरिया स्वागत करने की बजाए लोगों को डराने का काम कहीं ज्यादा कर रहा थाआप भी सोच रहे होंगे कि आखिरऐसा क्या था उस की रिसेप्शन लॉबी में......तो सुनिए, दोस्तो, उस की लॉबी में खूब बड़े बड़े शीशे के पारदर्शी मर्तबानरखे हुए थे....अब आप यही सोच रहे हैं कि आखिर उस महिला-रोग विशेषज्ञ को सारे आचार, मुरब्बे वहीं रख करधाक जमाने की क्या पड़ी थीलेकिन, दोस्तो, उन बड़े बड़े मर्तबानों में तो महिलाओं का आप्रेशन कर के निकालीगईं रसोलियां, टयूमर पड़े हुए थे......चूंकि ऐसे नमूनों को सुरक्षित रखने के लिए किसी फार्मलिन जैसे द्वव्य में डालकर रखना होता है इसलिए उस सारी जगह में एक अजीब सी गंध फैली हुई थीयह सब देख कर मुझे अजीब सालग रहा थामैं तो यही सोच कर परेशान हो रहा था कि कईं लोग तो हम डाक्टरों के पास हास्पीटल में इस लिए हीनहीं आते कि उन्हें हास्पीटल की गंध पसंद नहीं है, उन्हें पट्टीयों के लिए इस्तेमाल की जाने दवाईयों की गंध नहींभाती, या उन्हें वार्ड में मरीज़ों को देख कर अजीब सा लगता हैहोता है, होता है, दोस्तो, नईं जगह पर ...किसी कोभी , अब अगर मेरे जैसे पढ़ेलिखे बंदे को अपने घर में हुई चोरी की रिपोर्ट किसी थाने में जाकर लिखवाने मेंइसलिए थोड़ी( थोड़ी नहीं यार...बहुत ज्यादा) झिझक है कि मुझे लगता है कि यार, पता नहीं वहां क्या हो जाए, रिपोर्ट लिखेगा कोई लिखेगा.....लेकिन दोस्त किसी ने मेरी रिपोर्ट लिखी थी.....तरह तरह कीबहानेबाजी......इसीलिए मैं हमेशा ही आम बंदे की बात करता हूं और करता रहूंगा...क्योंकि मैं समझ सकता हूं किअगर मेरे जैसा पढ़ा-लिखा बंदे अपने घर में हुई चोरी की एफआईआर करवाने में नाकामयाब रहा, तो आम बंदे कीक्या हालत होती होगी........मैं तो कई महीने यही बातें कर के परेशान रहाचलो, इसी बात को इधर छोड़ते हैं, नहींतो पता नहीं कहां के कहां निकल जाएंगे) .... मेरा यह अपने घर में हुई चोरी का किस्सा थोड़ा बताने का उद्देश्यकेवल इतना था कि हम थोड़ा यह देखें कि किसी भी नई, अपरिचित जगह पर हमें कैसे कोई अनजान-सा भय घेरेरहता हैऔर ऊपर से मरीज जब किसी हस्पताल में गया हो तो उस को कम्फर्टेबल करने की बजाए उसे इनबड़ी-बड़ी रसोलियों, ट्यूमरों से डराया जायेगा तो क्या होगाबस , दोस्तो, क्या बताऊं वह नज़ारा अजीब ही था

वह महिला डाक्टर सुशिक्षित है , अनुभवी है मरीज़ों से बहुत ढंग से बात भी करती हैऔर हां, उसी रिसेप्शनएरिया में उस ने अपने काफी सारे ( कम से कम बीस तो होंगे ही) सर्टिफिकेट फ्रेम कर के टांग रखे थे.....सभीअंग्रेज़ी में ही थेइस के बारे में दोस्तो मेरा विचार यह है कि जो भी मरीज़ किसी डाक्टर के पास जा रहा है तो वहकहीं कहीं उस की चर्चा सुन कर ही गया है.....अब इन सर्टिफिकेटों में क्या लिखा है, मैंने देखा है कि 2-4फीसदीलोगों से ज्यादा इस में किसी को कोई रूचि होती नहीं, और जिन को होती भी है, वे इन्हें पढ़ नहीं पाते क्योंकि येअकसर इतनी ऊंचाई पर लगाए होते हैं या इतनी बारीक फांट्स में होते हैं कि अब इन्हें पढ़ने के भी झंझट में कौनपड़े !! और इन सब के साथ-साथ काफी ऊंचाई पर लगे टीवी पर मार-धाड़ वाली कोई एक्शन फिल्म चल रही थी

इस के विपरित मुझे मुंबई के एक पुरूष गायनोकॉलोजिस्ट के यहां जाने का मौका जब मिला था, तो उस ने अपनेकक्ष के बाहर कुछ बढ़िया से पोस्टर लगवा रखे थे ...उन में से एक पर यह पंक्तियां भी लिखी हुईं थीं..... Seek the will of God .....Nothing more, nothing less, nothing else…. अर्थात्.....भगवान की रज़ा मे ही राज़ी रहनासीख ले बंदे, उस से तो कुछ ज्यादा, ही कुछ कम एवं ही उस से कुछ इलावा की ख्वाहिश करयह पढ़ करहमें बहुत अच्छा लगा....ये छोटी छोटी बातें हमें कुछ नाज़ुक लम्हों में बड़ा हौंसला सा दे जाती हैं, आपको क्यालगता हैजब मरीज़ हस्पताल में पहुंचता है या डाक्टर से मिलने से पहले जब अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहा हैतो उस समय हमें उसे ऐसा वातावरण उपलब्ध करवाना चाहिए जिस से वह सहज अनुभव करे, उसे कुछ तोअपनापन लगेअब कोई अपनी मां को दिखाने गया हुया ,अपनी बारी की प्रतीक्षा करते हुए क्या उस समय इसगाने में किसी तरह से भी उस का मन लगता होगा......मेरी मम्मी ने तुम्हें चाय पे बुलाया है !!! ही उस समयरेडियो की आवाज़ ही अच्छी लगती हैवह भी मरीज़ एवं उन के अभिभावकों को चुभती हैंउस समय ज़रूरत होतीहै .....म्यूज़िक फॉर हीलिंग की.....ढ़ेरों सी.डीयां एवं कैसेट्स इस तरह की बाज़ार में उपलब्ध हैं.....साथ ही अच्छीअच्छी प्राकृतिक नज़ारों की तस्वीरें लगी हों, कोई प्रेरक-प्रसंग दिख जाएं तो मन को अच्छा सा लगता है

अच्छा तो दोस्तो,यह रसोलियों एवं टयूमरों की डाक्टर के वेटिंग हाल में पड़े होने की चर्चा तो हम ने कर ली, लेकिनक्या इस से पहले ये हमें समाचार-पत्रों में दिखते होंगे.......क्यों नहीं, अब किसी ने 16किलो का ट्यूमर किसी केपेट से निकाला है तो यह हिंदी अखबार वाले या क्षेत्रीय भाषा की अखबार वाले ना छापे.....यह कभी हो सकता हैक्यामरीज की गोपनीयता को मारो गोली.....मरीज की लाचारी गई तेल लेने----हमें तो बस अपनी पब्लिसिटी सेमतलब है, जब तक दो-तीन अखबारों के स्थानीय संस्करणों में आप्रेशन-थियेटर के कपड़े पहन कर किसी ऐसी हीपीड़ित महिला के बिस्तर के सिर पर खड़े होकर अच्छी सी रंगीन फोटो लगेगी तो आसपीस के चालीस-पचासगांवों के लोगों पर अपनी धाक आखिर कैसे जमेगी( गब्बर सिंह का वह डॉयलाग पता नहीं क्यों बार-बार याद रहा है...यहां से पचास पचास कोस दूर जब बच्चा रोता है, तो मां कहती है.......) । वह मरीज़ लाचार दिख रही है तोदिखा करे....उस से हमें इतना सरोकार नहीं, वैसे भी तो हम ने उस पर पहले कम एहसान किया है वह 16किलो काट्यूमर निकाल करबस, दोस्तो, यही बात आज डाक्टरों को एवं प्रिंट मीडिया को गहराई से सोचने की ज़रूरत हैकि क्या उस जगह हमारे ही घर की कोई महिला हो तो हम उस की उस हालत में तस्वीर किसी समाचार-पत्र केस्थानीय संस्करण में देखना पसंद करेंगे....................तो फिर उस सीधी सादी, लगभग बेजुबान( कम से कम इसमामले में) सी बीमार महिला से हमने इतनी लिबर्टी लेने की आखिर सोच ही कैसे ली।...और वह भी केवल इस लिएकि हमें एवं हमारे हास्पीटल को इस से पब्लिसिटी मिल जाएगीवैसे भी मेरा तो यह दृढ़ विश्वास है कि वर्नैकुलरप्रेस में तो मरीज़ की प्राइवेसी का कुछ ज्यादा ख्याल नहीं रखा जाता....कहा है , उन्हें तो केवल गर्मा-गर्म खबरपरोसने में ही मज़ा आता है

दोस्तो, आपने भी कितनी बार देखा होगा कि किसी नशा-मुक्ति केन्द्र पर जब कोई बड़ा आदमी (काहे का , यह मतपूछिए ???) जाता है तो उस की वह इलाज करवा रहे रोगियों के साथ तस्वीरें भी मीडिया में सुर्खियों के साथ छपजाती हैंअब अगर किसी ऐसी तस्वीर की वजह से किसी मरीज़ के बच्चे को अथवा बीवी को किसी प्रकार के तानेसहने पड़ें भी तो उस से अखबार छापने वालों को क्या मतलब......क्योंकि वह तो कोई खबर है ही नहीं--- इस कीन्यूज़-वैल्यू खाक है

बस, अब विराम लेना चाह रहा हूं...कल रात को किसी पार्टी में स्वाद स्वाद के चक्कर में मूंग की दाल का हलवाकुछ( कुछ नहीं, बहुत ही कहूं तो ठीक है) ज्यादा ही खा-फूट लेने से अभी तक एसिडिटी से परेशान हो रहाहूं...लेकिन क्या करूं....बिल्कुल आप ही की तरह आदत से मज़बूर हूं कि बस जो चीज़ पसंद हो, बस उसे खाते हुएफिर कोई डाक्टरी-वाक्टरी का ध्यान नहीं रहताठीक है, ठीक है , दोस्तो, कभी कभी चलता है

बस, एक मिनट में अपनी बात समाप्त कर रहा हूं.....हैल्थ बीट कवर करने वाले पत्रकार बंधुओं से भी यह अनुरोध हैकि हैल्थ-रिपोर्टिंग करते समय थोड़ा इन बातों का ध्यान रखना ही होगाक्या है , सिने तारिकाओं के द्वारा अपनीकाया को छरहरी रखने के लिए करवाये जा रहे लाईपोसक्शन( शरीर में जमी चर्बी को निकलवाने का आप्रेशन), उन के द्वारा बोटॉक्स इंजैक्शन लगवाने अथवा हालीवुड की लेटेस्ट हार्ट-थ्रोब्स के द्वारा अपनी छाती को और भीज्यादा सुडौल बनाए रखने के उन के प्रयासों के ब्यौरे देने से कहीं ज्यादा ज़रूरी है कि हम इस देश की उस आममहिला की सेहत के बारे में भी लिखें कि वह बच्चेदानी के कैंसर से अथवा स्तन-कैंसर से कैसे बच सकती है...क्योंउस का स्त्री-रोग विशेषज्ञ से किसी छोटी सी छोटी दिखने वाली महिला-शिकायत के लिए मिलना ज़रूरी है

दोस्तो, शायद बात हास्पीटलों के सुकून देने वाले वातावरण के बारे में शुरू हुई थी.......वैसे मेरा तो एक सुखदअनुभव है, जब दो साल पहले मेरा जयपुर के एक हास्पीटल में आप्रेशन में होना था, तो एनसथीसिया देने से पहलेमैं भी बहुत खौफ़ज़दा था.....लेकिन तभी मुझे .टी के अंदर ही एफ-एम पर चल रहे मेरे उस फेवरिट गाने के बोलसुनाई दिए........आंखें भी.. होती हैं दिल की ज़ुबां, पल भर में कर देती हैं हालत ये दिल की ब्यां....!! बस, कुछ लाइनेंही सुनीं थीं कि मुझे पता नहीं कब एनसथिसीया के लिए दिए गये उस टीके ने मेरी आंखें चंद क्षणों में ही बंद करदीं......फिर मुझे कुछ पता नहीं........लेकिन उस आप्रेशन थिय़ेटर के स्टाफ का मैं आज भी ऋणी हूं क्योंकि वे भीमेरी तरह के ही बिगड़े हुए रेडियो-फैन रहे होंगे क्योंकि उन के एफ-एम के सैट से बज रहे उस गीत के खूबसूरतशब्दों ने उन बेहद डरावने से दिखने वाले लम्हों में भी मेरा हाथ थामे रखा

1 टिप्पणी:

  1. बहुत बढ़ि‍या! शोरूम वाली मानसिकता के कारण डॉक्‍टर, मरीजों मे रौब जमाने के लिए इतना तामझाम करते हैं। जबकि उन्‍हें भी सहज बनाने वाला माहौल पैदा करना चाहिए।

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