रविवार, 10 अगस्त 2014

बी बी सी हिंदी की साइट कैसी है?

मुझे याद है जब मैं आठ-दस वर्ष का था, हमारे पास एक बाबा आदम के जमाने का मर्फी रेडियो हुआ करता था जिस का सब से बड़ा फैन मेरा बड़ा भाई था, उसे फिल्मी गीत सुनना बड़ा अच्छा लगता था, सारे प्रयोग कर लिया करता था चंद गीतों को सुनने के लिए -- ऊपर छत पर ऐरियर जैसी तार किसी पत्थर के नीचे रख कर आना, आवाज़ में गड़गड़ होने पर उस को हल्के से दो-तीन हाथ भी लगा देता था.......अरे यार, जो स्विच को ऑन करने के बाद वह एक-डेढ़ मिनट का इंतज़ार हुआ करता था कि अब आई आवाज़, अब आई.......वह रोमांच भुलाए नहीं भूलता।

और हां, खबरें भी तो हम उसी पर सुना करते थे और जिस दिन देश में कोई घटना हो जाती तो पड़ोसी-वड़ोसी यह कह कर बड़ी धौंस जमाया करते थे कि अभी अभी बीबीसी पर खबर सुनी है। मुझे धुंधला धुंधला सा याद आ रहा है कि १९७१ के भारत-पाक की सही, सटीक जानकारी के लिए हम लोग किस तरह से बीबीसी रेडियो के कैच होने का इंतज़ार किया करते थे ...शायद अकसर यह रात ही के समय कैच हो जाता था, उस रेडियो के साथ पूरी मशक्कत करने पर.....उस ऐरियर वाली तार के जुगाड़ को कईं बार इधर उधर हिला कर। लेकिन यह क्या, दो मिनट सुन गया, फिर आवाज़ गायब........कोई बात, हम इस के अभ्यस्त हो चुके थे। बहुत सारा सब्र... कोई अफरातफरी नहीं।

उस के पंद्रह बीच वर्ष बाद जब फिलिप्स का वर्ड-रिसीवर लिया.....तब बीबीएस को सुनना हमारे एजेंडा से बाहर हो चुका था. बस १९९० के दशक के बीच तक हम केवल रेडियो पर एफएम ही सुनने के दीवाने हो चुके थे।

हां, अब मैं बात शुरू करूंगा बीबीसी हिंदी वेबसाइट की....... इसे आप इस लिंक पर जाकर देख सकते हैं और आनंद ले सकते हैं। इस का यूआरएल यह है ...  www.bbc.co.uk/hindi 

इस वेबसाइट से मेरा तारूफ़ पांच वर्ष पहले हुआ.. मैं इग्न्यू दिल्ली में विदेशी विशेषज्ञों सें इंटरनेट लेखन की बारीकियां  एक दो महीने के लिए सीखने गया था। वहां पर हमें अकसर बीबीसी साइट (इंगलिश) का उदाहरण लेकर कईं बातें समझाई जाती थीं, इसलिए धीरे धीरे इस साइट में मेरी भी रूचि बढ़ने लगी।

कैसे लिखना है, कितना लिखना है, लेखन को कैसे प्रेजैंट करना है, यह बीबीसी की अंग्रेजी और हिंदी वेबसाइट से बढ़िया कोई सिखा ही नहीं पाएगा, यह मैंने बहुत अच्छे से समझ लिया है।

जब भी इस वेबसाइट पर गया हूं अच्छा लगता है। एक बहुत बड़ी खूबी यह कि जो कुछ भी लिखा जाता है एकदम विश्वसनीय....यह इन की प्रशंसनीय परंपरा है।

एक बात और मजे की यह है कि इस पर हिंदी पत्रकारिता का कखग सीखने के लिए भी रिसोर्स है..... हिंदी पत्रकारिता पर हिंदी बीबीसी की वेबसाइट

एक बार और...जो मैंने नोटिस की कुछ बहुत ही लोकप्रिय हिंदी की वेबसाइटों के बारे में कि कुछ अजीब किस्म की चीज़ें अपनी साइटों पर डालने लगे हैं...सैक्स के फार्मूले, सैक्स पावर बढ़ाने के नुक्ते, बेड-रूम के सीन.......यानि कुछ भी ऐसा अटपटा खूब डालने लगते हैं ...शायद वे लोग यह नहीं समझते कि इस काम के लिए उन्हें इतनी मेहनत करने की ज़रूरत है ही नहीं, वैसे ही नेट इस्तेमाल करने वाले इस तरह की सामग्री से एक क्लिक की दूरी पर हैं, आप का काम है केवल हिंदी में साफ़-सुथरी उपलब्ध करवाना .......और इस महत्वपूर्ण वैश्विक सामाजिक दायित्व के काम के लिए मैं बीबीसी की हिंदी वेबसाइट को पूरे अंक देना चाहता हूं.....एक दम साफ सुथरी, ज्ञान-वर्धक, विश्वसनीय और बिना किसी अश्लील कंटैंट के ......इसलिए भी यह इतनी लोकप्रिय साइट है।

मैंने पिछले दिनों इस के रेडियो के भी कईं प्रोग्राम सुने और फिर उस के बारे में प्रोड्यूसर को फीड बैक भी भेजी.....मैंने भगवंत मान की इंटरव्यू सुनी थी और उसे इतने अच्छे तरीके से पेश किया गया था कि मुझे तुरंत प्रोग्राम प्रस्तुत करने वाले श्री जोशी जी को बधाई भिजवाने पर विवश होना पड़ा।

कुछ बातें इस वेबसाइट पर देख कर थोड़ा अजीब सा लगता है ......... सब से ज़्यादा अहम् बात तो यह है कि पता नहीं क्या कारण है, मेरी समझ से परे है, ये बीबीसी हिंदी वाले लोग (इंगलिश वाले भी) अपने पाठकों से सीधा संवाद क्यों नहीं स्थापित करना चाहते, इस के कारण मेरी समझ में नहीं आ रहे।

 इंटरएक्शन और फीडबैक तो वेब 2.0 की रूह है यार और वही गायब हो तो ज़ायका कुछ खराब सा लगता है, कुछ नहीं बहुत खराब लगता है....ठीक है यार आप लोगों ने अपनी स्टोरी परोस दी, दर्शकों-पाठकों तक पहुंच भी गई, लेिकन उस की भी तो सुन लो, उस की प्रतिक्रिया कौन लेगा।

आप इन की किसी भी न्यूज़-रिपोर्ट के साथ नीचे टिप्पणी देने का प्रावधान पाएंगे ही नहीं, आज के वक्त में यह बात बड़ी अजीब सी लगती है, फीडबैक से क्यों भागना, बोलने दो जो भी कुछ दिल खोल कर कहना चाहता है, उस से दोनों का ही फायदा होगा, वेबसाइट का भी और सभी यूजर्स का भी। अपने दिल की बात लिखने से ज़्यादा क्या कर लेगा फीडबैक देने वाला.......आप चाहे तो मानिए, वरना विवश कौन कर रहा है। लेकिन इस तरह की पारदर्शिता से लोग उस वेबसाइट से सीधा जुड़ पाते हैं --एक रिश्ता सा कायम होने लगता है।

एक बात और मैंने नोटिस की.....वह शायद मुझे ही ऐसा लगा हो कि बीबीसी हिंदी का फांट इतना अच्छा नही है, अगर कोई बढ़िया सा और थोड़ा बड़ा फांट हो तो इस साइट को चार चांद लग जाएंगे।

बहरहाल, यह वेबसाइट हिंदी वेबसाइटों की लिस्ट में से मेरी मनपसंद वेबसाइटों पर बहुत ऊपर आती है.......क्योंकि यहां फीडबैक के प्रावधान के बिना शेष सब कुछ बढ़िया ही बढ़िया है............लेकिन आज के दौर में फीडबैक का अभाव अपने आप में एक उचित बात नहीं लगती, वह ठीक है, उन की अपनी पालिसी होगी। हां, संपर्क के लिए एक फार्म तो भरने के लिए कहते हैं........लेकिन यार यह नेट पर जा कर फार्म वार्म भरने का काम बड़ा पकाने वाला काम लगता है....कौन पड़े इन फार्मों के चक्कर वक्कर में........ दो एक बार भर भी दिया.....लेकिन ये लोग कभी उस का जवाब नहीं देते......कम से कम मैंने यह पाया कि  ..they dont revert back!

फिर भी यह साइट रोज़ाना देखे जाने लायक तो है ही......... strong recommendation!

लीजिए इसी साइट पर रेडियो के एक प्रोग्राम को सुनिए.....बेहतरीन प्रस्तुति ..... (नीचे दिए गये लिंक पर क्लिक करिए) ..

http://www.bbc.co.uk/hindi/multimedia/2014/08/140807_sikh_us_video_akd.shtml

शनिवार, 9 अगस्त 2014

केवल गुटखा-पानमसाला ही तो नहीं है विलेन...

हिंदी की एक अखबार के पहले पन्ने पर एक विज्ञापन देखा --एक पानसाले का..
उस मे लिखे शब्दों पर ध्यान दीजिए..
अच्छा खाईये निश्चिंत रहिये
वो स्वाद जिसमें छुपी हैं अनमोल खुशियां
भारत का सर्वाधिक लोकप्रिय पान मसाला
साफ---सुरक्षित-- स्वादिष्ट
0%Tobacco   0%Nicotine

ठीक है, ठाक है .. एक कोने में छुपा कर यह भी लिखा है .... पानमसाला चबाना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।

अब आप बताएं कि इस तरह का विज्ञापन हो और आप के शहर में हर तरफ़- आप के दोस्त, परिवारजन, अध्यापक, डाक्टर हर तरफ पान मसाला गुटखा चबाने में लगे हों तो फिर कैसे एक स्कूल-कालेज जाने वाला लोंडा इस से बच सकता है।

कितनी खतरनाक बात लिखी है कि पानमसाले में तंबाकू नहीं, निकोटीन नहीं... बहुत से पानमसालों पर यह लिखने लगे हैं.. लेकिन फिर भी क्यों इसे खा कर युवक अपनी ज़िंदगी बरबाद कर लेते हैं। उस का कारण है सुपारी ---और नाना प्रकार के अन्य कैमीकल जो इस में मौजूद रहते हैं और जिन्हें खाने से रोटी खाने के लिए मुंह तक न खुलने की नौबत आ जाती है...इस अवस्था को ओरल-सबम्यूकसफाईब्रोसिस कहते हैं और यह मुंह के कैंसर की पूर्व अवस्था भी है।
अब आप ही बताईए की गुटखा तो विलेन है ही जिस में तंबाकू-वाकू मिला रहता है लेकिन यह पान मसाला भी कितना निर्दोष है?

सब से पहले तो मैं बहुत से मरीज़ों से पूछता हूं कि क्या आप गुटखा-पान मसाला खाते हैं तो जवाब मिलता है कि नहीं, नहीं वह तो हम बिल्कुल नहीं लेते, कभी लिया ही नहीं, या बहुत पहले छोड़ दिया। लेकिन थोड़ी बात और आगे चलने पर कह देते हैं कि बस थोड़ी बहुत बीड़ी से चला लेता हूं। ऐसे किस्से मेरे को बहुत बार सुनने को मिलने लगे हैं.....बहुत बार......और कितने युवक यह कह देते हैं कि और किसी चीज़ का नशा नहीं, बीड़ी सिगरेट नहीं,  बस कभी कभी यह सुपारी वारी ले लेते हैं.......फिर उन की भी क्लास लेने पड़ती है कि ये सब के सब आग के खेल हैं।

आज मेरे पास एक महिला आई..सारे दांत बुरी तरह से घिसे हुए.....ये जो देसी मंजन बिकते हैं न बाज़ार में ये बेइंतहा किस्म के खुरदरे होते हैं....और इन को दांतों पर लगाने से दांत घिस जाते हैं। उसने कहा कि उसने इन्हें कभी इस्तेमाल नहीं किया.... मैं भी हैरान था कि ऐसे कैसे इस के दांत इतने ज़्यादा घिस गये। कहने लगी नीम की दातुन पहले करती थी गांव में. मैंने कहा कि उस से दांत इस तरह खराब नहीं होते। बहरहाल, अभी मैं सोच ही रहा था कि उसने कहा कि एक बात आप से छुपाना नहीं चाहती.......कहने लगी कि मैं गुल मंजन इस्तेमाल करती हूं. बस, फिर मैंने उसे समझा दिया कि क्यों गुल मंजन को छोड़ना ज़रूरी है......और बाकी तो उस का इलाज कर ही दूंगा, घिसे हुए दांत बिल्कुल नये जैसे हो जाते हैं आज कल हमारे पास बहुत से साधन मौजूद हैं।

उस के बाद अगला मरीज़ था, एक दो दांतों में दर्द था, मेरा प्रश्न वही कि गुटखा-पानमसाला लेते हैं, तो कहने लगा कि कभी नहीं यह सब किया. लेकिन कुछ अरसे से दांत में जब दर्द होता है तो तंबाकू-चूना तेज़ सा मिक्स कर के दांत के सामने गाल में दबा लेता हूं. .आराम मिल जाता है।

यहां यह बताना चाहूंगा कि तंबाकू की लत लगने का एक कारण यह भी है कि लोग दांत के दर्द के लिए मुंह में तंबाकू या नसवार (पिसा हुआ तंबाकू) रगड़नी शुरू कर देते हैं......मेरी नानी को भी तो यही हुआ था, दांत में दर्द होता रहता था, पहले डाक्टर वाक्टर ढंग के कहां दिखते थे, नीम हकीम ही दांत उखाड़ देते थे (अभी भी बहुत जगहों पर यही चल रहा है).. सो, मेरी नानी को नसवार मसलने की लत लग गई..... और फिर वह आदत नहीं छूटी......इस तरह की आदत का शिकार लोगों को मसाने में भयंकर रोग होने का रिस्क तो रहता ही है, बस इसी रोग ने हमारी चुस्त-दुरूस्त नानी हम से छीन ली। अफसोस, मुझे उन दिनों पता ही नहीं था कि यह नसवार इतनी खराब चीज है, वह बहुत झिझकते हुए हमें हमारे स्कूल-कालेज के दिनों में बाज़ार से नसवार की डिब्बी लाने को कहती और हम भाग कर हरिये पंसारी से खरीद लाते।

बच के रहो बई इन सब तंबाकू के रूपों से और हां, पानमसाले से भी....... कुछ दिन पहले मेरे पास एक मरीज आया ५० के करीब का रहा होगा, यही पानमसाले से होने वाला रोग था, मुंह नहीं खुल रहा था, घाव तो मुंह के पिछले हिस्से में थे ही, मुंह के अंदर की चमड़ी बिल्कुल सख्त चमड़े जैसी हो चुकी थी.....और साथ ही एक घाव मुझे ठीक नहीं लग रहा था जिस की टेस्टिंग होनी चाहिए और पूरा इलाज होना चाहिए......मैंने उसे समझाया तो बहुत था लेकिन वह वापिस लौट कर ही नहीं आया। यह युवक की बात केवल इसलिए की है कि पानमसाला छोड़ने के वर्षों बाद तक इस ज़हर का दंश झेलना पड़ सकता है, तो क्यों न आज ही, अभी ही से मुंह में रखे पानमसाले को दस गालियां निकाल कर हमेशा के लिए थूक दें।

तंबाकू-गुटखे की बातें लिख लिख कर थक गया हूं. लेकिन फिर भी बातों को दोहराना पड़ता है। हां, एक काम करिएगा, अगर मेरे इन विषयों से संबंधित लेख देखना चाहें तो इस ब्लॉग के दाईं तरफ़ जो सर्च का ऑप्शन है, उस में तंबाकू, गुटखा या पानमसाला लिख कर सर्च करिएगा। ये सब ज़हर आप हमेशा के लिए थूकने के लिए विवश न हो जाएं तो लिखिएगा।

सदियों से होता आ रहा कीटाणुओं का जंग में इस्तेमाल

जब कभी कैमीकल वारफेयर के बारे में या फिर बॉयोलाजीकल वॉरफेयर के बारे में मैं कभी भी पढ़ता था तो यही सोचता था कि यह तो एक आधुनिक जुनून है। लेकिन आज ही पता चला कि लड़ाईयों में कीटाणुओं को इस्तेमाल पिछली कईं सदियों से चला आ रहा है।

बीबीसी इस रिपोर्ट पर जब मैंने इस विषय पर लिखा पढ़ा तो मुझे बड़ा शॉक सा लगा कि किस तरह से चेचक का वैसे तो उन्मूलन बीसवीं सदी में ही हो गया था और अगर आज चेचक कहीं फैल गया तो दुनिया किस तरह से फनां हो जायेगी। यह बात भी इस रिपोर्ट में लिखी है कि अमेरिका और सोवियत संघ ने किसी गोपनीय लैब में स्माल-पॉक्स के कीटाणु सहेज कर रख छोड़े हैं। सोच कर ही डर लगता है ना।

एक और देश के बारे में लिखा है कि उसने ३५०० वर्ष पूर्व एक दुश्मन देश के बार्डर पर छः भेड़े छोड़ दीं.....और जब उस देशवासियों ने उन्हें अंदर कर लिया तो उन भेड़ों के शरीर पर विद्यमान टिक्स (ticks) ने ऐसी एक बीमारी फैला दी जिस से देश की आधी जनसंख्या खत्म हो गई होगी।

How long mankind has been waging warfare?

मुझे यह सब पढ़ कर यही लग रहा है कि सुबह सवेरे उठ कर फेसबुक पर निरंतर धुआंधार स्टेट्स छोड़ने की बजाए सारे संसार की सद्बुद्धि की प्रार्थना निरंतर करते रहना चाहिए, पता नहीं किस के पास क्या धरा-पड़ा है और कब किस की बुद्धि थोड़ी सी भी सटक जाए।

एटमबम-वम के बारे में तो हम सुनते ही हैं, हीरोशीमा-नागासाकी अभी तक सत्तर वर्ष बाद भी उस एक धमाके का दंश सह रहे हैं, लेकिन क्या ये कीटाणु और कैमीकल्स भी किसी एटमबम से कम हैं।

चलिए सब के कल्याण की कामना करते हैं........

दांत उखड़वाने के लिए हर सप्ताह ५०० बच्चे भर्ती

मुझे अभी तक किसी भी बच्चे का दांत उखड़वाने के लिए उसे अस्पताल में दाखिल करने की ज़रूरत नहीं पड़ी। जब हम लोग डैंटिस्ट्री पढ़ रहे थे तब भी कभी नहीं सुना-देखा कि इस तरह से बच्चों के दांत उखड़वाने के लिए कभी हमारे प्रोफैसरों ने भी बच्चों के दांत उखाड़ने के लिए उन्हें पहली भर्ती किया हो।

हां, कभी कभी कुछ वर्षों बाद कोई ऐसा बच्चा आ जाता था जो बहुत ही डरा हुआ, भयभीत सा या फिर किसी ऐसी मानसिक अथवा शारीरिक बीमारी से ग्रस्त होता था कि उस के दांत बिना उस को भर्ती किए और बिना अलग तरह का अनेस्थिसिया दिए (जिस के पश्चात उसे कुछ समय के लिए नींद आ जाती है)... नहीं हो पाता था। यह भी मैंने अपनी प्रोफैसर को एक बार करते देखा था।

वैसे तो जो भी चिकित्सक यह इलाज करते होंगे वे सब कुछ जांच कर ही करते होंगे, लेकिन वर्ष में २०-२५ हज़ार बच्चे अगर अस्पतालों में दांत उखड़वाने के लिए दाखिल किए जा रहे हैं तो यह एक चिंताजनक आंकड़ा है।
इस मुद्दे पर अपने विचार लिखना चाहता हूं।

इंग्लैंड जैसे देशों में बच्चों के दांत यहां की अपेक्षा बहुत ज़्यादा खराब होते हैं.......इस के पीछे उन का खानपान बहुत ज़्यादा जिम्मेदार है। वे बच्चें कोला ड्रिंक्स, चाकलेट्स, बर्गर और दूसरे तरह के जंक फूड के किस कद्र दीवाने हैं, हम जानते हैं। दीवानापन इधर भी बढ़ रहा है लेकिन यहां बच्चे के मां बाप दाल-रोटी की जुगाड़बाजी में ही इतने उलझे हुए हैं कि अधिकतर पेरेन्ट्स बच्चों को यह सब कचरे जैसा खाना उपलब्ध नहीं करवा पाते, और यह बच्चों का सौभाग्य नहीं तो और क्या है कि अधिकांश को दाल-रोटी-सब्जी से ही संतुष्ट होना पड़ता है।

मैं नहीं गया कभी इंगलैंड..लेकिन जो मीडिया से जाना वहां के बारे में कि वहां पर डाक्टरों और मरीज़ों के बीच कुछ ज़्यादा बढ़िया संवाद है नहीं, किसी के पास समय ही नहीं है इस तरह के संवाद में पड़ने का.......लेकिन यहां अभी भी डाक्टर और पेरेन्ट्स के बीच अच्छी बातचीत हो ही जाती है...... पता नहीं आप मेरे से कितना सहमत हों, लेकिन अभी यहां हालात उतने स्तर तक गिरे नहीं है, मुझे तो ऐसे लगता है।

इसी संवाद के अभाव में...शायद डाक्टर मरीज़ के संबंध में विश्वास का हनन भी हुआ है, ऊपर से इतने सारे कोर्ट-केस, मुआवजा ..और सब तरह की पेशियां, झंझट..ऐसे में लगता है कि बच्चों को अस्पताल में भर्ती कर के उन के दांत निकालना ही इंगलैंड के दंत चिकित्सकों को एक सुरक्षित रास्ता जान पड़ता होगा।

वहां पर इंश्योरैंस का भी कुछ चक्कर है, अस्पतालों को भुगतान इंश्योरैंस द्वारा होता है, इसलिए अस्पताल में इस तरह की भर्तीयां करनी ज़रूरी भी होती होंगी।

यहां के बच्चे बात समझ लेते हैं, अकसर मां-बाप उन के साथ ही होते हैं, वहां पर मां-बाप बाहर रोक दिये जाते हैं.....बच्चे मां-बाप की उपस्थिति में बिंदास अनुभव करते हैं, है कि नहीं ?...और इलाज के लिए बच्चे हम जैसों की बातों में भी आसानी से आ जाते हैं कि दांत उखड़वाने के बाद पापा, दो आइसक्रीम दिलाएंगे, कुछ को उन के पापा दस रूपये का नोट थमा देते हैं.........यानि कि कुछ भी जुगाड़बाजी से आसानी से बिना किसी विशेष परेशानी के बच्चे अाराम से दांत उखडवा ही लेते हैं।

हां, कभी कभार दो एक साल में एक बच्चा आ जाता है जो बहुत डरता है, रोता है और डैंटल चेयर पर बैठने ही से मना करता है, अकसर वह भी दूसरी या तीसरी बार प्यार-मनुहार से काम करवा ही लेता है। कोई विशेष दिक्कत नहीं आती, कोई विशेष दवाईयां या विशेष टीके नहीं लगवाने पड़ते। थैंक गॉड--तुसीं ग्रेट हो।

मैं उस इंगलैंड वाली रिपोर्ट में पढ़ रहा था कि कईं बच्चों के सारे के सारे दांत ही उखड़वाने पड़त हैं। इस से पता चलता है कि वहां बच्चों के दांतों की स्थिति कितनी खराब है।

ऐसा मैंने कोई बच्चा नहीं देखा अभी तक यहां जिस के सारे दांत निकलवाने की ज़रूरत पड़ी हो........ वैसे भी हम जैसे लोगों ने अपने प्रोफैसरों की बात तीस साल पहले ही गांठ बांध ली थी कि बिना किसी विशेष कारण के बच्चों के दांतों को उखाडना नहीं चाहिए क्योंकि उन के गिरने का एक नियत समय है, जब वे गिरेंगे और उन की जगह पर पक्के दांत उन का स्थान लेंगे। अब अगर किसी दांत के गिरने वाले टाइम-टेबल से बहुत पहले उसे निकाल दिया जाए या निकालना पड़े तो फिर उस के नीचे विकसित हो रहे पक्के दांत के मुंह में निकलने में गड़बड़ी होने की आशंका बनी रहती है... ऊबड़-खाबड़ दांत होने का एक बहुत बड़ा कारण।

हमें यह सिखाया गया कि अगर बच्चे के दांत में कोई दांत पूरी तरह से क्षतिग्रस्त हो चुका है और उस की केवल जड़ या जड़ें ही बाकी रह गई हैं लेकिन बच्चे को इन जड़ों की वजह से कोई परेशानी नहीं है, तो भी इन जड़ों को बिना निकाले ही रहने दिया जाना चाहिए जब तक वे अपने नियत टाइम-टेबल अनुसार या तो स्वयं ही हिल कर न निकल जाएं या फिर जब तक उन में कोई दिक्कत न हो। ये बातें बच्चों के दांतों के बारे में लिख रहा हूं।

लेकिन यह निर्णय कि कौन से बच्चे में कौन से दांत बिना किसी चिंता-परेशानी के पड़े रहें और किन्हें निकालना ज़रूरी है, यह निर्णय दंत चिकित्सक का होता है, आप स्वयं यह निर्णय नहीं कर पाएंगे. मेरे निर्णय को यह बात अकसर प्रभावित करती है कि अगर तो किसी टूटे फूटे दूध के दांत में बार बार पस पड़ने लगी है, ऐब्सेस बन रहा है जिस के लिए बच्चे के बार बार कुछ कुछ समय के बाद ऐंटीबॉयोटिक दवाईयां खिलानी पड़ रही हैं तो ऐसे टूटे फूटे दूध के दांतों को बाहर का रास्ता दिखाना ही ठीक रहता है।

मैं यह बात एक सामान्य दंत चिकित्सक की हैसियत से रख रहा हूं ..जो दंत रोग विशेषज्ञ बच्चों के स्पैशलिस्ट हैं, उन के अनुभव क्या हैं, जब वे लिखेंगे तो पता चलेगा। बाकी बातें तो सब की सब वही हैं जो मैंने लिखी हैं, लेकिन चूंकि उन के पास जटिल से जटिल केस भी आते होंगे जब वे किसी डैंटल कालेज में काम कर रहे हों, ऐसे में वे किस तरह के दांत उखाड़ते हैं.......क्या उन्हें बच्चे को रिलैक्स करने के लिए, उस का भय भगाने के लिए कोई टीका भी इस्तेमाल करना पड़ता है, यह तो वे ही बता सकते हैं। लेिकन मुझे कभी इस की ज़रूरत महसूस नहीं हुई या मैंने इस्तेमाल नहीं किया...इस का आप जो भी मतलब निकाल लें।

कईं बार किसी पोस्ट में इतनी विश्वसनीयता घुस आती है कि उस के नीचे डिजिटल सिग्नेटर करने की इच्छा होती है।
Warning Over Children's Dental Health 

शुक्रवार, 8 अगस्त 2014

यौवन की दहलीज़ तो ठीक है लेकिन ...

कुछ दिन पहले मैं एक किताब का ज़िक्र कर रहा था ... यौवन की दहलीज़ पर जिसे यूनिसेफ के सहयोग से २००२ में प्रकाशित किया गया है।

इस के कवर पेज पर लिखा है...... मनुष्य के सेक्स जीवन, सेक्स के माध्यम से फैलने वाले गुप्त रोगों(एस टी डी) और एड्स के बारे में जो आप हमेशा से जानना चाहते थे, लेकिन यह नहीं जानते थे कि किससे पूछें।

मैंने इस किताब के बारे में क्या प्रतिक्रिया दी थी, मुझे याद नहीं ..लेकिन शायद सब कुछ अच्छा ही अच्छा लिखा होगा --शायद इसलिए कि मैं पिछले लगभग १५ वर्षों से हिंदी भाषा में मैडीकल लेखन कर रहा हूं और मुझे हिंदी के मुश्किल शब्दों का मतलब समझने में थोड़ी दिक्कत तो होती है लेकिन फिर भी मैं कईं बार अनुमान लगा कर ही काम चला लेता हूं।

यह किताब हमारे ड्राईंग रूम में पड़ी हुई थी, मेरे बेटे ने वह देखी होगी, उस के पन्ने उलटे पलटे होंगे। क्योंकि कल शाम को वह मेरे से पूछता है --डैड, यह किताब इंगलिश में नहीं छपी?..... मैंने कहा, नहीं, यह तो हिंदी में ही है।

वह हंस कर कहने लगा कि डैड, इसे पढ़ने-समझने के लिए तो पहले संस्कृत में पीएचडी करनी होगी। उस की बात सुन कर मैं भी हंसने लगा क्योंकि किताब के कुछ कुछ भागों को देख कर मुझे भी इस तरह का आभास हुआ तो था.....पीएचडी संस्कृत न ही सही, लेकिन हिंदी भाषा का भारी भरकम ज्ञान तो ज़रूरी होना ही चाहिए इस में लिखी कुछ कुछ बातों को जानने के लिए।

अच्छा एक बात तो मैं आप से शेयर करना भूल ही गया ... इस के पिछले कवर के अंदर लिखा है...यह पुस्तक बिक्री के लिए उपलब्ध नहीं है। मुझे यह पढ़ कर बड़ा अजीब सा लगा ...कि यौवन की दहलीज पर लिखी गई किताब जिन के लिए लिखी गई है, वे इस के अंदर कैसे झांक पाएंगे अगर यह किताब बिकाऊ ही नहीं है।कहां से पाएंगे वे ऐसी किताबें.

मुझे जब इस में कुछ कुछ गूढ़ हिंदी में लिखी बातों का ध्यान आया तो मेरा ध्यान इस के पिछले कवर की तरफ़ चला गया जिस में लिखा था कि जिस ने इस पुस्तक में बतौर हिंदी अनुवादक का काम किया वह बीएससी एम ए (अर्थशास्त्र) एम ए (प्रयोजन मूलक हिंदी) अनुवाद पदविका (हिंदी) आदि योग्यताओं से लैस थीं.......उन की योग्यता पर कोई प्रश्न चिंह नहीं, हो ही नहीं सकता।

लेिकन फिर भी अकसर मैंने देखा है कि इस तरफ़ ध्यान नहीं दिया जाता कि एक तो हम आम बोल चाल की हिंदी ही इस्तेमाल किया करें, सेहत से जुड़ी किताबों में जो किसी भी हिंदी जानने वाले को समझ में आ जाए। यह बहुत ज़रूरी है। किताबों में तो है ही बहुत ज़रूरी यह सब कुछ.... वेबसाइट पर तो इस के बारे में और भी सतर्क रहने की ज़रूरत है...किताबें तो लोग खरीद लेते हैं, अब एक बार खरीद ली तो समझने के लिए थोड़ी मेहनत-मशक्कत कर ही लेंगे, लेकिन नेट पर आज के युवा के पास कोई भी मजबूरी नहीं है......एक पल में वह इस वेबपेज से उस वेबपेज पर पहुंच जाता है, आखिर इस में बुराई भी क्या है, नहीं समझ आ रहा तो क्या करे, जहां से कुछ समझने वाली बात मिलेगी, वहीं से पकड़ लेता है।

ऐसे में हमें सेहत से जुड़ी सभी बातें बिल्कुल आम बोलचाल की भाषा ही में करनी होंगी...वरना वह एक सरकारी आदेश की तरह बड़ी भारी-भरकम हिंदी लगने लगती है। और उसी की वजह से देश में हम ने हिंदी का क्या हाल कर दिया है, आप देख ही रहे हैं......दावों के ऊपर मत जाइए। जो मीडिया आम आदमी की भाषा में बात करता है वह देखिए किस तरह से फल-फूल रहा है।

और दूसरी बात यह कि अनुवाद में भी बहुत एहतियात बरतने की ज़रूरत है। सेहत से संबंधित जानकारी को जितने रोचक अंदाज़ में अनुवादित किया जायेगा, उतना ही अच्छा है.. और इस में इंगलिश के कुछ शब्दों को देवनागरी लिपी में लिखे जाने से भला क्या आपत्ति हो सकती है।

बस यही बात इस पोस्ट के माध्यम से रखना चाह रहा था।

आप देखिए कि इंगलिश में कितनी बेबाकी से डा वत्स इन्हीं सैक्स संबंधी विषयों पर अपनी बात देश के लाखों-करोड़ों लोगों तक कितनी सहजता से पहुंचा रहे हैं........ आईए मिलते हैं ९० वर्ष के सैक्सपर्ट डा वत्स से।  (यहां क्लिक करें)

गुरुवार, 7 अगस्त 2014

मेंढक, कॉकरोच, केंचुआ, खरगोश, छिपकली बच गये जी बच गये..

आज जब अखबार पकड़ा तो पहले ही पन्ने पर यह खबर देख कर बहुत खुशी हुई कि यूजीसी ने कालेजों में जीव-जंतुओं की चीड़-फाड़ पर प्रतिबंध लगा दिया है।

खबर तो कुछ वर्ष पहले भी इस तरह की छपी थी लेकिन अब यह खबर....अखबार पढ़ने पर पता चल गया कि पहले यूजीसी ने प्रतिबंध लगाया था कि विद्यार्थी कालेजों में ऐसी चीड़-फाड़ नहीं कर सकेंगे, लेकिन उन के प्रोफैसर लोग छात्रों को सिखाने के लिए यह चीड़-फाड़ कर सकते हैं।

लेकिन आज की खबर ने तो कमाल ही कर दिया कि अब तो प्रोफैसर लोग भी यह सब नहीं कर सकेंगे।

यह यूजीसी का एक प्रशंसनीय निर्णय है। आज कल के छात्र तकनीकी तौर पर इतने एडवांस हो चुके हैं कि नेट पर दुनिया जहान की चीज़ें सीखते रहते हैं....सब कुछ तो नेट पर पड़ा है। इसलिए बस इतने से काम के लिए इतने सारे जीव-जंतुओं की बलि दे दी जाए ... बात गलत तो बिल्कुल है ही।

लेकिन अफसोस मेरे जैसे लोगों को भी अब यह बात गलत दिखने लगी जब जानवरों के हितों के लिए सक्रिय संस्थाओं ने इस मुद्दे पर हाय-तौबा मचाई शुरू की। और वे बिल्कुल ठीक हैं .. उन के प्रयासों से लाखों-करोड़ों जीव-जंतु लगता है आजकल जश्न के मूड में होंगे।

मुझे याद है मैंने कालेज में प्री-यूनिवर्सिटी मैडीकल और प्री-मैडीकल के दौरान-- काकरोच, अर्थवर्म (केंचुआ), मेंढक, छिपकली---इन की चीड़फाड की थी। प्री-यूनीवर्सिटी में काकरोच और अर्थवर्म ... और अगले साल मेंढक और छिपकली की चीड़फाड़ की थी। हमें लैब में एक ट्रे दे दी जाती थी जिस में इन में से किसी भी जीव-जंतु को रख दिया जाता था....मुझे अभी ध्यान नहीं आ रहा कि क्या वे सब मरे हुए ही हुआ करते थे.... जहां तक याद है कईं बार मेंढक आदि के कुछ अंग उसकी चीड़फाड़ करने पर फड़फड़ाते से दिखते थे। अब कुछ ठीक से याद नहीं आ रहा।

जो भी हो, इस निर्णय से बड़ी राहत मिली है। जीव-जंतुओं के कल्याण के लिए काम करने वाली संस्थाओं को बड़ी आपत्ति थी कि इन जीव-जंतुओं को चीर-फाड़ के लिए उन के प्राकृतिक वातावरण (natural habitat) से ही पकड़ा जाता है और इस सब की वजह से वातावरण मंडल का संतुलन गड़बड़ हुआ जा रहा है।

एक धुंधली सी याद यह भी आ रही है कि उस जमाने में जिस छात्र के हाथ में एक डाईसैक्शन बाक्स होता था, जिस में एक छोटी कैंची और दो-तीन और औजार हुया करते थे.. तो जिस ने इस बाक्स को अपने हाथ में पकड़ा होता या फिर साईकिल के अगले हैंडल पर लगे कैरियर पर कसा होता, उस की ठसक मोहल्ले में और कालेज में पूरी होती थी क्योंकि आर्ट्स वाले छात्र इतना तो समझ ही लेते थे कि ये चीड़फाड़ वाले हैं........और इसी चक्कर में मेरे जैसा अनाड़ी भी बाक्स को पकड़े हुआ अपने आप को आधा डाक्टर तो समझने ही लगता था।

वे भी क्या दिन थे, हमारी डेयरी वाला एक बार किसी अन्य प्रदेश में गया, वहां से खरीद कर एक बीवी लेकर आया, जो अपने आप को डाक्टर कहा करती थी और अकसर पूरे विश्वास के साथ कहा करती थी कि हमारे यहां तो बंदर के दिल को आदमी के दिल में आसानी से लगा दिया जाता है......और हम छोटे छोटे बच्चे उस की बातें सुन कर हैरान हुआ करते थे।

जब हम लोग कालेज में थे तो एक लकड़ी की जाली वाली अलमारी में खरगोश भी देखा करते थे....हमें बताया जाता था कि जो बीएससी मैडीकल करते हैं उन्हें खरगोश की चीर-फाड़ करनी होती है। मैं भी दो दिन बीएससी मैडीकल की क्लास में गया था ... लेिकन फिर बीडीएस का बुलावा आ गया और हम अगले आठ साल के लिए सरकारी डैंटल कालेज अस्पताल के सुपुर्द कर दिए गये।
UGC finally gives in, bans animal dissections in colleges





अगली बार कोई खुला मेनहोल दिखे तो इस का ध्यान रखिएगा

इस पोस्ट का हीरो नं१.. सुरेश कुमार
पांच छः दिन पहले की बात है मैं अपनी ड्यूटी पर जा रहा था.. उस िदन मैं अपने टू-व्‌हिलर पर था। अस्पताल के अंदर जा रहा था, आगे एक बिल्कुल नुकीला सा मोड़ है जिसे क्रॉस करने पर मैंने पाया कि यह क्या कुछ तो खुला हुआ था
मेनहोल की चौड़ई और लंबाई का अंदाज़ा आप इस से लगा सकते हैं
मैंने आगे चल कर अपना स्कूटर रोक दिया...और फिर देखा कि वहां तो एक बहुत बड़ा मेनहोन खुला पड़ा है...तीन चार फुट गहरा और चौड़ाई तो आप इस इन तस्वीरों में देख ही रहे हैं।

एक बार तो मैं हिल गया.....मुझे लगा कि आज तो जान बाल बाल बच गई... ईश्वर का शुक्र अदा किया...लेकिन इतना बड़ा मेनहोल खुला देख कर वहां से हटने की इच्छा नहीं हुई।

सब से पहले तो मुझे पास ही कुछ ईंटे पड़ी हुईं मिली तो मैंने झट से उन पांच सात ईंटों को उस के किनारे पर रख दिया..इस उम्मीद के साथ कि आने वाले को दूर से ही कुछ तो दिखेगा कि यहां कुछ तो गड़बड़ है।

खुले मेनहोल की लोकेशन को आप यहां देख सकते हैं
इतने में मैंने अपने सहायक सुरेश कुमार को फोन किया....वह बाहर आया ..मैंने कहा कि देखो, इस का क्या हो सकता है।

बहरहाल उसे वहीं खड़ा कर के मैं अंदर आ गया और अंदर आने पर वह सब कुछ किया.....लिख कर, फोन पर, सूचित किया, इंफार्म किया......और इस एमरजैंसी के बारे में बताया। एक शख्स ने तो इतना कह दिया की ये लोग इतनी जल्दी सुनते नहीं हैं।

जो भी हो, मुझे पता चल गया कि अभी कुछ दिन तो होने वाला है नहीं.... मैं जानता हूं ना जहां हम लोग काम करते हैं। इसलिए मेरी चिंता यही थी कि अस्पताल में आने वाला कोई कर्मचारी, मरीज या कोई रिश्तेदार अगर उस में गिर विर कर चोटिल हो गया तो अगर उस की जान पर ना भी बन आई तो बेचारा कुछ हड्डियां तो टुड़वा ही बैठेगा और अगर सिर पर चोट लग गई तो और मुसीबत।

इतने में मेरा अटैंडेंट वापिस लौट आया...और मुझे खबर देने लगा कि सर, ऐसा जुगाड़ कर आया हूं कि दूर ही से किसी भी वाहन चालक को पता चल जायेगा कि यहां लफड़ा है, इस से बच कर निकलना है। बताने लगा कि एक पेड़ की टहनी उन ईंटों के बीचो बीच खड़ी कर के आ गया है। 

चलिए मुझे इत्मीनान पहले से थोड़ा ज़्यादा तो हुआ कि चलिए, ईंटों की बजाए यह तो एक बेहतर तरीका है दूर से ही आने वालों को सचेत करने का।

लेकिन उस दिन अपनी ओपीडी में मन बिल्कुल भी लगा नहीं.....शायद अगले दिन ईद की छुट्टी थी और यही चिंता सता रही थी कि पेड़ की टहनी कितना समय ऐसा ही टिकी रहेगी....अंधेरी से, पानी बरसने से िगर विर जायेगी और विशेषकर रात में आने वालों की तो भयंकर आफ़त हो जायेगी।

शायद प्रार्थना ही काम कर गई.....मेरे अटैंडेंट ने भी इस समस्या का हल खोजने के लिए कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। उस दिन वह भी उस काम ही में लगा रहा.....अपने पांच छः साथियों को, सफ़ाई वालों को इक्ट्ठा कर के अस्पताल के किसी दूर कोने में पड़े एक बहुत बड़े पत्थर को धक्का देता हुआ वहां तक पहुंच गया और उस खुले मेनहोल पर टिका दिया। बनियानें इन लोगों की पसीने से लथपथ हो रही थीं।

 ऐसे  जुगाड़ से जनता को बचाने की कोशिश की गई
मुझे भी बुलाने आया बाद में कि आप देखो सर, कैसा है यह इंतजाम। मैं भी उस के साथ वहां देखने गया.... वह भारी भरकम पत्थर देख कर इतना हैरान हुआ कि ये लोग कैसे धक्का मारते हुए इसे यहां तक लाए होंगे। Where there is will, there is a way!

उस मेनहोल से जिस लोहे के कवर को चुराया गया था, उस का वजन ही ५०-६० किलो का बताया जाता है, पुराने जमाने के तैयार ये कवर......किसी चिंदीचोर की नज़र पड़ गई होगी, उसे काट कर उठा ले गया।

स्टॉफ के कुछ लोगों ने जिस तरह से इस एमरजैंसी को संभाल लिया ...मैं उस दिन यही सोचता रहा कि हर संस्था में कुछ न कुछ ऐसे लोग ज़रूर होते ही हैं जिन के लिए हर काम उन का अपना काम है, वे कभी किसी काम को ना करना तो जैसे सीखे ही नहीं, बल्कि स्वयं आगे आ कर इस तरह की सेवा में लग जाते हैं। 

सही बात है, विभिन्न तरह के ईनामों के सही पात्र इसी तरह के लोग होते हैं........लेकिन मजे की बात है कि इन लोगों की इन सब दिखावटी चीज़ों की कोई भी तमन्ना नहीं होती। जब मैंने अपने अटैंडेंट से ऐसा कहा तो उस ने हंसी में बात टाल दी और अपने साथियों के साथ चाय-पार्टी करने चला गया।

यह बात तो थी आज से शायद पांच-सात दिन पुरानी लेकिन आज भी यह पत्थर ही उधर पड़ा लोगों को बचा रहा है, देखते हैं कब तक उस का कवर तैयार हो कर आता है।

इस पोस्ट को लिखते का उद्देश्य केवल यही था कि हम लोग िजस रास्ते पर भी चल रहे हैं, वहां पर इस तरह के खुले मेनहोलों के बारे में सजग रहें और कुछ इस तरह का इंतजाम कर दें कि आने वाला बिना किसी पूर्वाभास के अपने जान माल का नुकसान न करवा बैठे..... चलिए माल तो फिर इक्ट्ठा हो भी जाएगा लेकिन हर बंदे की जान बेशकीमती है, अनमोल है, उस की हर कीमत पर रक्षा होनी चाहिए। पिछले महीने मैं अंधेरी क्षेत्र में एक फुटपाथ पर चल रहा था तो अचानक देखा उस फुटपाथ के बीचो बीच एक बहुत बड़ा मेनहोल खुला पड़ा है...... ऐसा दिखना ही संवेदनशीलता की कमी को दर्शाता है।

अाज कल हम सोशल मीडिया को इतना इस्तेमाल करते हैं....तो उस की फोटू निकाल कर व्हस्ट-एप, फेसबुक, ट्विटर पर संबंधित अधिकारियों तक पहुंचाने में देखिए तो क्या होता है। कुछ अरसा पहले एक फेसबुक पेज के बारे में इलैक्ट्रोिनक मीडिया से जाना कि उन्होंने उस पेज पर देश में कहीं भी मिलने वाले खुले मेनहोलों, गड्ढ़ों की तस्वीरें अपलोड की हुई हैं...... और फिर उन के ही कुछ वालेंटियर्ज़ उस गड्ढे को भरने निकल भी जाते हैं। इन के काम को सलाम। यही सच्ची इबादत है....जैसा कि इस गीत में भी कहा जा रहा है। 

मेरा बेटा बता रहा था कि कुछ दिन पहले बंबई में एक फ्लाईओव्हर पर एक गड्‍ढा होने से एक बाईक चालक की जान चली गई।




बुधवार, 6 अगस्त 2014

सर्दी-खांसी-जुकाम में ऐंटीबॉयोटिक्स का रोल

आज से ३६ वर्ष पहले -- १९७८ में जब मैं दसवीं कक्षा में पढ़ा करता था...स्कूल की मैगजीन का स्टूडैंट संपादक था तो मैंने इसी सर्दी-खांसी-जुकाम के ऊपर एक लेख लिखा था.. मैंने अभी तक उसे अपने पास रखा हुआ है ..और जो पिछले वर्षों में अखबारों में लेख छपे हैं, उन में से मेरे पास कितने हैं, कितने नहीं है, वह कोई बात नहीं

मंगलवार, 5 अगस्त 2014

कैमिस्ट की दुकानों पर होने वाली २० रूपये की ब्लड-शूगर जांच

अकसर अब हम लगभग सभी शहरों में कैमिस्टों की दुकानों पर इस तरह की जांच होने के बोर्ड देखने लगे हैं कि रक्त में शूगर की जांच २० रूपये में और ब्लड-प्रैशर की जांच १० रूपये में। यह जो १०-२० रूपये में जांचें वांचें होने लगी हैं, ठीक है, एक-दो रूपये में सड़क पर चलते हुए अपना वज़न देख लिया, और ज़रूरत पड़ने पर अपनी ब्लड-प्रेशर भी मपवा लिया.....कोई विशेष बात नहीं लगती, लेकिन है। और जहां तक यह २० रूपये में कैमिस्ट की दुकान से अपना ब्लड-प्रैशर मपवाने की बात है, यह मुझे ठीक नहीं लगती, क्योंकि इस के लिए मुझे नहीं पता कि ये लोग ज़रूरी सावधानियां बरतते भी होंगे कि नहीं!

 मैंने यह भी देखा है कि जिन घरों में भी यह घर में ही ब्लड-शूगर की जांच करने वाली मशीनें होती हैं, उस घर में दूसरे सदस्यों, रिश्तेदारों, मेहमानों और पड़ोसियों को भी अपनी शूगर की जांच के लिए एक उत्सुकता सी बनी रहती है। लेकिन मेरे विचार में यह सब करना बीमारी को बुलावा देने जैसा है।

मैं कईं बार लोगों से पूछा है कि आप जिस मशीन से इतने सारे लोग यह जांच करते हो, क्या उस लेंसेट (जिस से अंगुली से ब्लड निकाला जाता है) को बदलते हो, तो मुझे कभी संतोषजनक जवाब मिला नहीं। हर बार यही बात सुनने को मिलता है कि स्पिरिट से पोंछ लेते हैं। नहीं, ऐसा करना बिल्कुल गलत है।

इस तरह की मशीनों के पेम्फलेट पर भी लिखा रहता है कि यह जो इस में लेंसेट है, यह केवल एक ही व्यक्ति के ऊपर इस्तेमाल करने के लिए है।

जो बात मैं कहना चाहता हूं वह केवल इतनी सी है कि जिस भी चीज़ से --लेंसेट आदि से-- अंगुली से रक्त निकाला जाता है, उसे आज के दौर में एक दूसरे के ऊपर ऐसे ही स्पिरिट से पोंछ कर इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। किया पहले भी नहीं जाना चाहिए था, आज से ३०-४० वर्ष पहले भी ..लेकिन तब कुछ बीमारियों के बारे में हैपेटाइटिस बी, सी और एचआईव्ही संक्रमण जैसे रोग के बारे में जागरूकता ही कहां थी, इसलिए सब कुछ भगवान भरोसे ही चलता रहा।

मुझे याद है बचपन में एक टैस्ट तो हम लोगों को बार बार लगभग हर साल करवाना ही पड़ता था , मलेरिया की जांच के लिए पैरीफ्रल ब्लड फिल्म...इस के लिए लैब वाला अंकल हमारी अंगुली से रक्त निकालने के लिए कुछ चुभो देता और सभी मरीज़ों पर उसी को स्पिरिट से पोंछ पोंछ कर इस्तेमाल किया करता। निःसंदेह एक खतरनाक प्रैक्टिस।

हां तो मैं बाज़ार में होने वाली कैमिस्ट की दुकान पर ब्लड-शूगर की जांच की बात कर रहा था, मुझे नहीं पता कि ये लोग हर केस में नईं लेंसेट इस्तेमाल करते होंगे या नहीं।

आज मुझे पता चला कि ये जो कंपनियां इस तरह की मशीनें बना रही हैं वे अलग से इस तरह के लेंसेट भी बेचती हैं लेकिन ये थोड़े महंगे ही दिख रहे थे जब मैंने नेट पर चैक किया। ऐसे में क्या आप को लगता है कि बाज़ार में २० रूपये में होने वाली जांच के लिे हर मरीज़ के लिए नया डिस्पोज़ेबल लेसेंट इस्तेमाल किया जाता होगा। आप इस के बारे में अवश्य सोचिए और उसी के आधार प ही इस तरह की जांच के लिए निर्णय लें और अपने से कम पढ़े-लिखों तक भी यह बात पहुंचाएं।

बात जितनी छोटी दिखती है उतनी है नहीं .. इस तरह का सस्ता टैस्ट बाज़ार में करवाना और जिस के लिए लेंसेट नया नहीं है, बिल्कुल वैसा ही हो गया जैसे कि कोई किसी दूषित या किसी दूसरे पर इस्तेमाल की गई सिरिंज से टीका लगवा ले। जहां पर एक दूसरे पर इस्तेमाल किए जाने वाले लेंसेंट या सिरिंज से बीमारी फैलने की बात है, इस में ज्यादा अंतर नहीं है, यह जानना बहुत ज़रूरी है।

वो फिल्मों की बात अलग है कि अमर अकबर एंथोनी में अकबर का खून निकल रहा है और सामने ही दूसरे किरदार को चढ़ाया जा रहा है, कोई बीमारी फैलने के लिए बिना टैस्ट किये हुए रक्त की जांच ही नहीं, रक्त की एक बूंद का उतना छोटे से छोटा अंश (देखना तो दूर, जिस की आप कल्पना भी नहीं कर सकते ) भी भयानक संक्रमण फैला सकता है।

ऐसा नहीं है कि लेंसेट बाज़ार में सस्ते नहीं मिलते ... मिलते हैं, मैंने कईं अस्पतालों मेंंदेखा है कि जिन रक्त की जांच के लिए उन्हें अंगुली को थोड़ी सूईं चुभो कर रक्त निकालना होता है, वे लोग यह काम एक कागज़ में मिलने वाली डिस्पोज़ेबल लेंसेट से करते हैं और फिर उस को नष्ट कर देते हैं। होना भी यही चाहिए, वरना तो खतरा बना ही रहता है।

मैं सोच रहा था कि क्या ऐसा नहीं हो सकता कि जिन लोगों को बाज़ार से बार बार रक्त की इस तरह की जांच करवानी पड़ती है, वे लोग कुछ डिस्पोज़ेबल लेंसेट खरीद लें ...और अगर टैस्ट के समय देखें कि वहां पर इस तरह के उपलब्ध नहीं हैं तो अपना लेंसेट ही इस्तेमाल किए जाने का अनुरोध करें।

मामला इतना आसान है नहीं , यह काम हम डाक्टर लोग किसी लैब में जाकर नहीं कर पाते, ऐसे में आप कैसे कर पाएंगे यह आपने देखना है, क्योंकि यह आप की सेहत का मुद्दा है, किसी भी दूषित उपकरण के चुभने से आप की सेहत खतरे में पड़ सकती है।

इतना पैनिकि होने की बात भी नहीं है, बस बात तो है केवल सचेत करने के लिए।

ध्यान आ रहा है कि पिछले सरकार के कुछ दावे अखबारों में खूब छपा करते थे ..कि अब शूगर की जांच के लिए स्ट्रिप्ज़ २-२ रूपये में बिकने लगेंगी.......कहां गई ऐसी स्ट्रिप्ज़ जो आने वाली थीं।

अपनी सेहत के बारे में स्वयं भी सगज रहिए. और औरों को भी करते रहिए।

जाते जाते ध्यान यह भी आ रहा है कि क्या ये कैमिस्ट की दुकानों वाले इस तरह की रक्त की जांचें करने के लिए अधिकृत भी हैं या बस धक्कमपेल किए जा रहे हैं। विचारों का क्या है, कुछ भी मन में आ सकता है......पिछले दिनों आपने देखा कि एम्स जैसी संस्था के डाक्टरों ने अखबारों में लिखा था कि चिकित्सा व्यवसाय में कैसे कैसे गोरखधंधे चल रहे हैं...... जब मैडीकल प्रैक्टीशनर किसी के साथ सांठ-गांठ कर लेते हैं, इसलिए मुझे तो यह भी लगता है कि हो न हो, कहीं कुछ कैमिस्ट की दुकानों पर होने वाले टैस्ट भी ये दवाईयां बनाने वाले कंपनियों के सांठ-गांठ का ही तो नतीज़ा नहीं है... चलते फिरते राहगीर का खड़े खड़े ब्लड-प्रैशर मापो, ब्लड-शूगर की जांच करो और जब रिपोर्ट देख कर वह डरा हुआ इलाज के बारे में पूछे तो उसे उन्हीं कंपनियों की दवाईयां थमा दो...बस, इस चक्कर में चिकित्सक बाहर हो गया, कितने लोग तो वैसे ही इसी तरह से दवाई लेकर खाना शुरू कर देते हैं।

इन मसलों पर जागरूक किये जाने की बहुत ज़रूरत है........लेकिन अकसर मीडिया को आइटम नंबर की राजनीति और किस हीरो को किस हीरोइन के साथ किस देश के किस होटल में एक साथ देखा गया, मीडिया को ये सब चटखारे लेने से फुर्सत मिले तो ऐसी जनोपयोगी बातों को उठाने की बारी आए।

बीच साइड हैल्थ चैक अप स्टाल 
शूगर की जांच हो जायेगी बहुत सस्ती 
एक आवश्यक सूचना..
रक्त की जांच के समय ध्यान रखिए..

केवल बिस्तर से उठना ही तो मुश्किल होता है..

हम में से शायद ही कोई ऐसा हो जिसने सुबह सवेरे की खूबसूरती का कभी न कभी आनंद न लूटा हो.. है कि नहीं, कभी बचपन में गर्मी की छुट्टियों में हम लोग सुबह उठ कर जब भ्रमण के लिए निकल जाया करते थे। फिर जब बड़े हुए तो हमारी कुछ अलग यादें बन गईं......मैं बंबई में जब रहा तो कुछ बार सुबह समुद्र के किनारे मैरीन ड्राइव पर टहलने चले जाना, बहुत बार महालक्ष्मी रेस-कोर्स की तरफ़ सुबह चल पड़ना...शाहर से बाहर गये हैं तो मद्रास का मैरीना समुद्री तट........कहने का मतलब केवल यही कि ये सब यादें ही हमें कितना सुख दे देती हैं।

और एक बात यह भी है कि अब भी हम सब लोग सुबह सवेरे उठ कर टहलना, बाग की हरियाली को निहारते हुए वक्त बिताना, योगाभ्यास, प्राणायाम, प्रार्थना ...सब कुछ करना चाहते हैं, उस में नैसर्गिक आनंद है, लेकिन पता नहीं मेरे जैसे लोग सब कुछ जानते हुए क्यों इतना आलस करते रहते हैं......वैसे भी सुबह सवेरे नेट पर दोस्तों के दस स्टेट्स पढ़ने से कहीं ज़्यादा ज़रूरी है कि हम अपने आप को समय देना शुरू करें। 

मैंने कुछ दिन पहले निहाल सिंह के बारे में बात की थी कि वे किस तरह से मिलने वाले लोगों को योगाभ्यास के लिए प्रेरित करते रहते हैं। आज सुबह मैं अपने एक मित्र को लेकर उसी पार्क में पहुंच गया जहां उन का ग्रुप योगाभ्यास करता है। 

योगाभ्यास तो कितना हुआ या नहीं हुआ, किस से नीचे बैठा गया और किस से नहंीं, कौन प्राणायाम की बारीकी समझ पाया, कौन नहीं........यह तो बिल्कुल भी मुद्दा है ही नहीं.......अहम् बात तो यह है कि सुबह सवेरे घर से बाहर निकल कर खुली फ़िज़ाओं में रहना एक अजीब सी तरोताज़गी देता है। मैं अपने मित्र से कह रहा था कि योगाभ्यास तो हम ने पांच-छः मिनट ही किया होगा, लेकिन उस से भी हम कितना हल्का महसूस कर रहे हैं। उन का भी यही मानना था कि केवल से बिस्तर से उठना ही मुश्किल होता है, बाकी तो फिर बस एक आदत बनने की बात होती है। 

हम लोग अकसर यही सोचते हैं ना कि हम से न  हो पायेगा यह योग वोग..हम नहीं कर पाएंगे प्राणायाम् ....कोई बात नहीं, सुबह सवेरे बिस्तर से उठ कर बैठ गये, इस से ही लाभ मिलने शुरू हो गये.......और घर से टहलते हुए पास के किसी पार्क में पहुंच गये, लाभ बढ़ गया.........वहां जाकर थोड़ा बहुत भ्रमण किया, हरियाली देख, फूल-पत्ते देख कर मन हर्षित हुआ......(एक आदमी को सुबह सुबह फूल तोड़ते देख कर मन थोड़ा दुःखी हुआ).... और उस के बाद जितना भई हो सका, योगाभ्यास किया, प्राणायाम् किया......ध्यान किया............ये सब लाभ जुड़ते जुड़ते आप अनुमान लगाईए कि लाभ की गठड़ी कितनी भारी भरकम हो जाएगी। 

आज उस योगाभ्यास की पाठशाला में भी यही बात कह रहे थे कि बस, योग का आनंद लो, सहजता लाओ, अपने आप पर दबाव डाल कर कुछ करने की कोशिश न करो...... सब कुछ अपने आप होने लगा, कुछ लोग पालथी मार नहीं बैठ पाते थे वे अब पद्मासन करने लगे हैं, जिन के घुटनों में तकलीफ़ थी और घुटने बदलवाने की कगार पर थे, वे अब पांच किलोमीटर तक सैर करते दिखते हैं........लोग कुछ न कुछ अनुभव बांट रहे थे। 

आदमी जैसी संगति में रहता है, उन की कुछ न कुछ बातें ग्रहण भी करने लगता है.......आज उन्होंने ने हमें आंखों की सफ़ाई करने वाले कप दिए------और कहा कि रात को सोते वक्त उन में पानी भर कर आंखों पर लगाकर आईलिड्स को हिलाएं कुछ समय ...फिर पानी को फैंक दें। अच्छा लगा जब अभी अभी घर आकर यह किया। 

संगति की बात हो रही थी तो कल की ही बात याद आ गई......कुछ दिन पहले मेरे पास एक लगभग १८-२० वर्ष का लड़का आया अपनी मां के साथ....गुटखे पान मसाले का व्यसन लग चुका था, मुंह में छोटे मोटे घाव........ऐसे युवाओं को इस गुटखे रूपी कोढ़ से मुक्ति दिलाना मैं अपनी सब से अहम् ड्यूटी समझता हूं.....उस दिन मैंने उस के साथ १०-१५ मिनट बिताए....उसे अच्छे से समझाया....डरा भी दिया कि नहीं छोड़ोगे तो क्या हो जाएगा। 

आज जब आया तो बताने लगा कि उस दिन के बाद मैंने गुटखा पान मसाला छुआ तक नहीं......उस की सच्चाई का उस के मुंह ही से पता चल रहा था। मैंने कहा कि जो यार दोस्त थोड़ा बहुत देने की कोशिश करते हैं, उन का क्या करते हो। तो उसने बताया कि अब उस ने उन दोस्तों को ही इग्नोर करना शुरू कर दिया है। मैंने पूछा कि छोड़ने में दिक्कत तो नहीं हुई, कहने लगा कि दो-तीन दिन थोड़ा सिर भारी रहा, लेकिन आप के बताए अनुसार मैं कोई दर्दनिवारक टिकिया ले लिया करता था --बस दो तीन दिन....... और फिर तो पता ही नहीं चला कि कब तलब ही लगनी बंद हो गई। 

और खुशी की बात तो यह कि ३-४ दोस्तों ने भी उस के कहने पर यह गुटखा-वुटखा खाना-चबाना छोड़ दिया है। मैंने जब खुश हो कर उस की पीठ थपथपाई तो मुझे यही लगा कि जैसे मैंने अपने बेटे को इस ज़हर से बचा लिया हो। 
अच्छा लगता है जब आप की वजह से कोई सीधे रास्ते पर आ जाए........ यह प्रयास बार बार करने योग्य है। 

बचपन से ही अपनी मां के मुंह को यह गीत गुनगुनाते पाया है, इसलिए इस समय याद आ गया....

सोमवार, 4 अगस्त 2014

एक इंसान जिस ने ५ करोड़ लोगों को दिया जीवन-दान

आज मैंने एक ऐसे इंसान के बारे में जाना जिस ने एक ऐसा काम कर दिखाया जिस से अब तक ५ करोड़ जानें बच गईं। हैरान करने वाली बात लगती है ना, लेकिन है यह बिल्कुल सच।

और यह करिश्मा हो पाया इस डाक्टर की रिसर्च से.. जिस ने जीवन रक्षक घोल का आविष्कार किया। जिसे इंगलिश में हम लोग ओ आर एस घोल भी कहते हैं और जिस के बारे में अकसर हम सब सरकारी सेहत विभागों के विज्ञापनों के बारे में सुनते रहते हैं।

इस घोल को तो मैं भी जानता हूं लेकिन कभी भी इस तरफ़ बिल्कुल भी ध्यान नहीं किया कि इस घोल का आविष्कार करना भी कितना जटिल काम रहा होगा। आप सब की तरह मैं भी ऐसा ही सोचा करता था कि ठीक है, पानी में नमक मिलाया, चीनी मिलाई...घोल तैयार और अगर नींबू आसानी से उस समय उपलब्ध है तो उस की चंद बूंदें भी उस घोल में डाल दी जाएं (स्वाद के अनुसार)... हां, इतना ज़रूर रहा कि जब भी मैंने इसे बनाना चाहा या बनाने में मदद की, मेरी डाक्टर बीवी ने इतना ज़रूर ध्यान रखा कि न तो नमक न ही चीनी ...न ही कम हो और न ही ज़्यादा हो.....जब भी मैंने ज्यादा चीनी डालनी चाहिए तो उन्होंने रोक लिया..यह कहते हुए कि इस का फ़ायदा नहीं, नुकसान होगा... दस्त रोग में।

जब हम छोटे छोटे थे तो --शायद सात आठ साल की अवस्था रही होगी,  रेडीमेड पाउच भी मिलना शुरू हो गये था.....जिन्हें पानी में मिला कर पिला दिया जाता था।

मैंने बीबीसी की साइट पर यह लेख पढ़ने के बाद डा आनंद की अद्भुत किताब को भी देखना चाहा---पहले भी कईं बार देख चुका हूं वैसे तो ... लेकिन फिर भी देखना ज़रूरी लगता है। उन्होंने अपनी किताब में लिखा है कि आज कर बाज़ार में रेडीमेड ओ आर एस -जीवन रक्षक घोल के रेडीमेड पाउच मिलने लगे हैं, जिन्हें पानी में घोलने के बाद तुंरत घोल तैयार हो जाता है, लेकिन वे कहते हैं कि वे मार्कीट में बिकने वाले इस तरह के उन पाउचों के पक्ष में नहीं हैं जिन में ग्लूकोज़ की मात्रा रिक्मैंडेड मात्रा से अधिक होती है, और इस से बात बनने की बजाए बिगड़ सकती है।

लिखते लिखते ध्यान आ जाता है पुरानी से पुरानी बातों का.......बचपन में हम देखा करते थे कि किसी को दस्त लग गए, एक तो रेडीमेड पाउच आदि पानी में घोल कर पिला दिया जाता था और उस की खटिया के पास स्टूल पर एक छोटा सा गत्ते का ग्लूकोज का डिब्बा भी रख दिया जाता था जो कुछ कुछ समय के अंतराल के बाद उसे घोल घोल कर पिला दिया जाता था।

एक तो पोस्ट इतनी लंबी होने लगी हैं कि मेरी मां भी मेरे लेखों की आलोचना में यही कहती हैं......लिखता तूं बढ़िया है, प्रेरणा मिलती है, जानकारी मिलती है तेरे लिखने से..... पर तू लिखता बड़ा लंबा है।

मेरी दिक्कत यह है कि मैं थोड़े शब्दों में अपनी बात कहना सीख ही नहीं पाया।

हां, तो बात चल रही थी, उस घोल में ज्यादा चीनी की, ज्यादा नमक की...... इस को जानने समझने के लिए कि यह क्या चक्कर है, आप को उस महान डाक्टर नार्बट हिर्स्चार्ण के काम के बारे में जानना होगा।

यह डाक्टर साहब १९६४में पूर्वी पाकिस्तान जिसे अब बंगला देश कहा जाता है में पोस्टेड थे.....वहां पर हैजे से मरने वालों की संख्या बहुत ज्यादा थी..... ऐसे मरीज़ों की दस्त की वजह से ही मौत हो जाया करती थी क्योंकि जितने लोगों को  इंट्राविनस फ्लयूड्स (जिसे ग्लूकोज या सेलाइन चढ़ाना कहते हैं ...बोतल जब चढ़ाई जाती है).. मिलने ज़रूरी थे उतने इंतज़ाम हो नहीं पा रहे थे।

इस महान डाक्टर ने बड़ी सावधानी से रिसर्च करनी शुरू की .....कईं बार साथी डाक्टरों ने विरोध भी किया लेकिन फिर फिर भी इन्होंने फूंक फूंक कर पैर रखा इस रिसर्च में और आखिर एक ऐसा आविष्कार कर के ही दम लिया जिस ने अब तक ५ करोड़ लोगों की जान तो बचा ही ली है, और अभी भी यह गिनती निरंतर बढ़ रही है।

समझने वाली बात केवल यही है कि अगर दस्त के मरीज को ऐसा घोल दिया जाए जिस में मौजूद घटकों की मात्रा और रक्त में मौजूद उन घटकों की मात्रा एक जैसी हो तो समझो बात बन गई........ यही आविष्कार सब से अहम् था और इसे बीसवीं सदी का सब से बड़ा मैडीकल आविष्कार भी कहा जा रहा है।

अगर ये घटक अधिक या कम मात्रा में होंगे तो इस का फायदा तो क्या होना है, बल्कि विपरीत असर ही होगा।
जीवन रक्षक घोल को घर बनाने की विधि......एक लिटर उबाला हुआ पानी जिसे ठंडा कर दिया गया हो, उस में एक टी-््स्पून नमक (लेवल किया हो, ऊपर तक न भरा हो), और ८ टी-स्पून शक्कर के डाल (लेवल किया हो).. इन्हें मिला कर घोल बना लें और फिर नींबू के रस की कुछ बूंदे स्वाद अनुसार मिला दें। बना कर फ्रिज में रख दें और थोड़े थोड़े समय बाद दस्त के मरीज को दें और स्वयं देखिए की किस तरह से संजीवनी बूटी जैसे यह सस्ता सा, बिल्कुल घर ही में तैयार किया हुआ घोल सब को ठीक ठाक कर देता है.........जैसा कि आप उस बीबीसी रिपोर्ट में (जिस का लिंक मैं नीचे लगा दूंगा) एक स्लाईड शो में भी देखेंगे कि किस तरह के एक छोटा दस्त की वजह से बिल्कुल निढाल सा हुआ आता है.. लेिकन जीवन रक्षक घोल लेने के आधे एक घंटें में किस तरह से चुस्ती लौटने लगती है और तुरंत स्तनपान करने लगता है, जब वह आया तो उस में स्तनपान करने की भी शक्ति न थी।

वैसे तो एमरजैंसी में तो ऐसा भी कहा गया है कि अगह पानी उबालने वालने का कोई जुगाड़ न हो, तो भी एक गिलास पानी में एक चम्मच चीनी और एक चुटकी नमक मिला कर हिलाएं, चंद बूंदें नींबू के पानी की डाल दें और दस्त से ग्रस्त बच्चे या बड़े व्यक्ति को यह देना शुरू करें.......... रिजल्ट तुरंत मिल जायेगा।

सोचने वाली बात यह तो है कि क्या इस तरह के डाक्टर किसी फरिश्ते से कम हैं जिन्हें ईश्वर किसी खास मकसद के लिए धरती पर भेजता है.........इन की इंटरव्यू भी ज़रूर देखिए, नीचे दिए गये लिंक पर ही मिलेगी.......कितनी सहजता, कितना साधारण व्यक्तित्व और कितना ठहराव। इन को हमारा सब का कोटि कोटि नमन।

लिखना तो और भी चाहता हूं ---मां की नसीहत याद आ गई फिर से.......छोटे लेख लिखा कर।
Inspiration........ The man who helped saved 50 million lives (BBC Report) 

One of the outstanding useful videos i ever came across.........

रविवार, 3 अगस्त 2014

बेबी फेक्ट्री जहां मिलती है किराए की कोख

किराए की कोख के बारे में आप सब देखते सुनते रहते ही हैं। अभी मैंने भी बीबीसी हिंदी की साइट पर एक रिपोर्ट देखी है...... गुज़रात की बेबी फेक्ट्री जहां मिलती है किराए की कोख।

रिपोर्ट बनाने में खासी मेहनत की गई लगती है।

मेरा तो ध्यान नियम कायदों की जगह अटक गया......
  • सरोगेट माताओं को डॉर्मेट्री में रहना अनिवार्य है.
  • गर्भावस्था के दौरान सेक्स की इजाजत नहीं.
  • दंपति, अस्पताल या डॉक्टर किसी भी दुर्घटना के लिए जिम्मेदार नहीं.
  • सप्ताह में सिर्फ रविवार को ही पति एवं बच्चों को ही माताओं से मिलने की इजाजत
  • एक महिला अधिकतम तीन बार बन सकती है सरोगेट.
  • जन्म देने के बाद कुछ महिलाओं को दंपति इस बच्चे की देखरेख की नौकरी दे देते हैं.

एक बात पढ़ कर और भी अजीब सा लगा ...अगर सरोगेट माता जुड़वां बच्चों को जन्म देती है तो उसे करीब सवा छह लाख रुपए मिलता है और यदि पहले ही गर्भ गिर गया तो उसे करीब 38,000 रुपए देकर विदा कर दिया जाता है.

सोचने की बात है कि उस मां के लिए कितना मुश्किल होता होगा यह सब कर पाना, यह सब सहना, अपने परिवार से दूर रहना, बिल्कुल जेल जैसी बात ही हो गई.. पैसा के लिए यह सब सह जाती हैं भारतीय नारी.

बीबीसी की रिपोर्ट का लिकं यह है..... गुज़रात की बेबी फेक्ट्री जहां मिलती है किराए की कोख...और उस रिपोर्ट के नीचे भी इस से संबंधित उपयोगी जानकारी हेतु लिंक्स दिए गये हैं। 

फल-फ्रूट व सब्जियों को नमकीन पानी से धोना क्यों जरूरी

अभी अभी टाइम्स ऑफ इंडिया में एक रिपोर्ट दिखी है कि फल-फ्रूट एवं सब्जियों को टेप-वार्म से निजात दिलाने के लिए इन्हें नमकीन पानी से धोना बहुत ज़रूरी है। यह बात लखनऊ में संजय गांधी पोस्ट-ग्रेजुएट इंस्टीच्यूट आफ मैडीकल साईंस में न्यूरोलॉजीकल सोसाइटी के एक अधिवेशन में बताई गई है।

अगर यह छोटी सी बात मान ली जाए तो यू पी के जनता को भी इस का बड़ा फायदा होगा क्योंकि इस क्षेत्र में टेप-वार्म से होने वाली बीमारी न्यूरोसिस्टीसरकोसिस व्याप्त है।

यू पी में न्यूरोसिस्टीसरकोसिस ४ प्रतिशत जनता में पाई जाती है जब कि इस बीमारी का राष्ट्रीय औसत ३ प्रतिशत है।

रिपोर्ट में लिखा है कि लखनऊ के पास एक जगह मोहनलालगंज क्षेत्र में एक सूअर पालने वाले समुदाय में इस बीमारी -टेपवर्म इंफैक्शन- को १८ प्रतिशत लोगों में पाया गया जब कि इन में से ५.८प्रतिशत लोगों में सक्रिय मिर्गी रोग भी पाया गया। और जिन लोगों में मिर्गी रोग मिला उन में से ४८ प्रतिशत लोगों में न्यूरोसिस्टीसरकोसिस संक्रमण पाए जाने के पुख्ता सबूत भी मिले।

रिपोर्ट में डा सुनील प्रधान ने लिखा है........ "In cities, raw vegetables in junk food were the main source of the disease. Salads were the next big cause. We have gathered inputs that even the best of restaurants do not take adequate measures to get vegetables rid of tapeworm."


अब इतना सारा जंक फूड देश में सडकों के किनारे बिकता है, वे कहां धोते फिरते होंगे ये सब्जियां नमकीन पानी से, इसीलिए डा प्रधान ने यह बात कही है कि जंक फूड में इस्तेमाल की जाने वाली सब्जियां इस बीमारी का बहुत बड़ा कारण है, और जो सलाद सार्वजनिक स्थानों में दिया जाता है.....शादी ब्याह की दावतों में या फिर भंडारों आदि में--उन के बारे में सोचने की भी बहुत ज़रूरत है।

ये डाक्टर लोग जब कोई बात कहते हैं तो सारे जीवन की पढ़ाई लिखाई का अपने पेशे का अनुभव मुफ्त में बांट रहे होते हैं, इन की बात बिना किसी किंतु-परतु के मान लेनी चाहिए, और वैसे भी नमकीन पानी में फल-सब्जियां धोना या जंक-फूड को त्यागना इतनी बड़ी बात भी नहीं है...क्योंकि टेपवर्म जो दिमाग में पहुंच कर उत्पात मचाता है, यह एक विकट समस्या बन जाती है।

शायद लोगों को यही पता होगा कि सूअर का आधा कच्चा-आधा पक्का मीट खाने से ही यह टेपवर्म की बीमारी हो सकती है, लेकिन इन विशेषज्ञों ने इस की गहराई पर भी प्रकाश डाला है।

Source:   Wash veggies in salt water to get rid of tapeworm 

शनिवार, 2 अगस्त 2014

सौ साल से बड़ी उम्र की महिलाओं को मिली सिलाई मशीनें?

बीबीसी न्यूज़ को दिन में एक बार देख लेना चाहिए.. पता चलता रहता है कि देश में चल क्या रहा है।
ऐसी ही एक खबर पर अभी अभी नज़र पड़ी है जिस में बताया गया है कि छत्तीसगढ़ के रायपुर में १०० से ज्यादा वाली सैंकड़ों महिलाओं को सिलाई मशीनें बांटी गई हैं।

रिपोर्ट में बताया गया है कि ६हज़ार से भी ज्यादा महिलाएं ऐसी हैं जिन्हें इस स्कीम के अंतर्गत लाभ प्राप्त हुआ है और जिन की उम्र ११४ वर्ष से भी ज़्यादा है।

क्या करें, यकीन कर लें, इस बात पर भी या पहले छानबीन चलने दें। इस स्कीम में करोड़ों रूपये खर्च हुये हैं और आजकल इस की भी छानबीन चल रही है।

भारत में कभी चारे की खरीद में लफड़ेबाजी, फिर जवानों के कफ़न के साथ, फिर पुलिस वालों की जेकेटों के साथ.....दवाईयों की तो बात ही क्या करें, दवाईयों से खाने-खिलाने की बातें तो बहुत पुरानी हो गई हैं, लोग नाम तक भी नहीं लेते।

India: Sewing machines given to '100-year-old' woman

1957 से पहले जन्मे लोगों को क्या खसरे का टीका फिर से लगवा लेना चाहिए?

 आज एक न्यूयार्क-टाइम्स के एक पेज पर नज़र पड़ी जिस में एक व्यक्ति ने विशेषज्ञ ने यह पूछा था कि क्या बड़ी उम्र के लोगों को खसरे से बचाव का टीका फिर से लगवाना चाहिए।

उत्तर में विशेषज्ञ ने साफ साफ बता दिया कि अगर तो आप का जन्म १९५७ के पहले हुआ है तो कोई आवश्यकता नहीं है लेकिन अगर आप का जन्म १९५७ के बाद का है तो आप को इसे लगवा लेना चाहिए।

Do i need a measles shot?

खसरा अर्थात् मीसल्ज़ का टीका अन्य दो बीमारियों से बचाव के टीके के साथ ही लगता है जिसे एमएमआर वैक्सीन कहते हैं।

१९५७ वाली बात मेरे को कुछ अजीब सी लगी, जिज्ञासा हुई कि यह १९५७ का क्या चक्कर है? लेकिन सीडीसी की साइट पर इस का सटीक जवाब भी मिल गया... जिन लोगों का जन्म १९५७ से पहले हुआ, उन लोगों का जीवनकाल उस समय के दौरान गुज़रा जब मीसल्ज़ का पहला टीका नहीं आया था ...इसलिए इस बात की पूरी संभावना है कि उन लोगों में मीसल्ज़ की बीमारी हो चुकी होगी। सर्वे से भी यही पता चला है कि ९५ से ९८ प्रतिशत लोग जिन का जन्म १९५७ से पहले का है, उन में से ९५ से ९८ प्रतिशत लोगों में इस बीमारी की इम्यूनिटी है --अर्था्त् उन में इस के लिए रोग प्रतिरोधक क्षमता उपलब्ध है। साथ में यह भी लिखा था कि यह १९५७ का नियम केवल मीसल्ज़ और मम्स दो
बीमारियों के लिए लागू है, यह रूबैला पर लागू नहीं है।

अब अगला प्रश्न था कि क्या जिन लोगों को १९६० के दशक में एमएमआर जैसे टीके लगे हों, क्या उन को फिर से ये टीके लगवाने होंगे?.... यह कोई इतना ज़रूरी नहीं है। जिन लोगों के पास तो इस तरह का कोई रिकार्ड उपलब्ध है कि १९६० में उन्हें लाइव मीसल्ज वैक्सीन लग चुका है, उन्हें तो इसे फिर से लगवाने की ज़रूरत नहीं है।

जिन लोगों का यह टीकाकरण १९६८ से पहले हुआ है और उन में निष्क्रिय (मृत) मीसल्ज वैक्सीन का या ऐसे वैक्सीन का इस्तेमाल किया गया हो जिन का उन्हें अब पता नहीं---ऐसे लोगों को इस नये लाइव एटैन्यूएटेड वैक्सीन की एक खुराक हासिल कर लेनी चाहिए। यह सिफारिश केवल उन लोगों के लिए है जिन को ऐसे मीसल्ज़ टीके से वैक्सीनेट किया गया जो कि १९६३-१९६७ के बीच उपलब्ध तो था लेकिन वह इस रोग की रोकथाम के लिए प्रभावी नहीं था।
बहुत भारी हो गया ना आप सब के लिए यह समझना ...१९५७ की लक्ष्मण-रेखा, मृत टीका, लाइव टीका...यह सब कुछ ज्यादा ही डाक्टरी झाड़ने जैसा लग रहो होगा आपको। कोई बात नहीं कुछ खबरें बस केवल ध्यान में रखने के लिए ही काफी होती हैं। इस बात को भी ध्यान में रखिए। 
अमेरिका में तो वैसे यह समस्या इतनी नहीं है लेकिन फिर भी देशवासियों के स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता बढ़ाने का उन का संक्लप प्रशंसनीय है। सोचने वाली बात यही है कि भारत में इस तरह की जानकारी लोगों पर विश्वसनीय सोत्रों से विशेषकर सरकारी वेबसाइटों पर क्यों उपलब्ध नहीं है, और वह भी हिंदी में ....वैसे तो इंगलिश में ही कुछ खास उपलब्ध नहीं है तो हिंदी में कब आयेगा, कौन बता सकता है!
 लेकिन इस तरह की सेहत से संबंधित जानकारी हिंदी में ही उपलब्ध होनी चाहिए। इंगलिश को हम चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े लोग तो पढ़-समझ भी लें, एक गैर-चिकित्सक के लिए यह सब समझना इतना आसान नहीं है। 
सब कोई आवाज़े लगा रहा है कि हिंदी मे कंटैंट बढ़ना चाहिए, हर कोई कह रहा है... हर तरफ़ से ज़ोर ज़ोर से आवाज़ें आ तो रही हैं, लेिकन जो लोग हिंदी में कंटैंंट तैयार कर रहे हैं, उन की भी कोई सोचेगा या उन के हाथ में कटोरा ही ठीक है। ऐसे नहीं बढ़ता कंटैंट-वैंट, दुनिया में काफ़ी काम हैं ठीक है शौक से किए जा रहे हैं, और लोग कर रहे हैं, मिशन समझ कर लोग अपनी धुन में लगे हुए हैं, लेकिन जो बंदा सारा दिन हिंदी का कंटैंट ही तैयार करता रहेगा, उस की और उस के परिवार की भी तो ज़रूरते होंगी, वह कौन पूरी करेगा? इसलिए मुझे यह सब आडंबर लगता है कि हम किसी को भी इमोशनल ब्लैकमेल करते रहें कि हिंदी भाषा अपनी है, इस में लिखो, ऑनलाइन कंटैंट तैयार करो, लेकिन तैयार करने वाले का ध्यान कौन करेगा? 
चलिए इस बात पर अभी मिट्टी डालते हैं और आप को कुछ अच्छे से लिंक दे रहा हूं जहां से आपको ऊपर दिए गये प्रश्नों के जवाब तलाशने में सुविधा रहेगी। पाठकों से अनुरोध है कि अपने बारे में फिर से टीका लगवाने के बारे में निर्णय लेने से पहले अपने फ़िजिशियन से इस की चर्चा कर लें। यहां तो वैसे ही यह बीमारी इतनी व्यापक स्तर पर है कि शायद आप को भी वैसे ही प्राकृतिक इम्यूनिटी प्राप्त हो चुकी हो। फिर भी ज़्यादा जानकारी नीचे दिए गये लिंक्स पर जा कर पाई जा सकती है........ 

खाद्य पदार्थों में मिलावट की जांच के लिए

भारतीय खाद्य संरक्षा एवं मानक प्राधिकरण- जिसे इंगलिश में फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्डज़ अथॉरिटी ऑफ इंडिया कहते हैं जो एक सरकारी साइट है और जिस के बारे में आप इस लिंक पर क्लिक कर के और भी जान सकते हैं।

जब से यह साइट तैयार हुई है या यूं कह लें कि जब से यह प्राधिकरण बना है मैं इस साइट पर अकसर जाता रहता हूं कि शायद कुछ बढ़िया सा उपभोक्ता के दृष्टिकोण से मिल जाए।

एक बात पहले ही नोटिस कर लें कि इस साइट पर ऊपर एक बटन मिलेगा --भाषा के लिए.. उस पर क्लिक करने पर एक मेन्यू खुलता है जिस में शायद बीस से भी ज़्यादा भाषाओं के विक्लप बताये जाते हैं.......अर्था्त् जिस भी भाषा में --भारतीय हो या विदेशी, आप उस पर क्लिक करें तो सारी जानकारी उस भाषा में उपलब्ध हो जायेगी। लेकिन ध्यान रहे कि ऐसा कुछ है नहीं, बस केवल होम पेज पर सारे शीर्षक ज़रूर हिंदी या आप के द्वारा चुनी भाषा में आ जाएंगे ...बाकी फिर उस के आगे सब कुछ इंगलिश ही इंगलिश।

इन का ब्लॉग क्या ब्लॉग कहा जा सकता है, इस का फैसला मैं आप पर छोड़ता हूं। मैंने देखा कि इन्होंने अखबारों में से कुछ लेख जैसे के तैसे उस ब्लॉग पर टिकाए होते हैं......मैंने उस पर टिप्पणी भी दी कि ऐसा मत किया करो, पाठक आप की साइट पर कुछ नया ढूंडने के चक्कर में आता है। अब पिछले लगभग सवा साल से इन्होंने ब्लॉग को अपडेट ही नहीं किया। चलिए, इन से जान पहचान तो मैंने करवा दी.......बाकी आप स्वयं इन की साइट पर जा कर कर लीजिएगा। अगर मुझे भूल में सुधार करना हो तो कृपया इस पोस्ट की टिप्पणी में लिखिएगा।

हां, जिस काम के लिए मैं यह पोस्ट लिख रहा हूं --वह यह है कि इस प्राधिकरण की साइट पर खाद्य पदार्थों की मिलावट की घरेलू जांच हेतु कुछ अच्छी जानकारी भी उपलब्ध है, इस की पीडीएफ फाइल का लिकं यहां लगा रहा हूं....  Quick Test for some adulterants in food.

यह सारी जानकारी इंगलिश में है , पहले तो इन को यह सारी जानकारी हिंदी में ही नहीं, सभी भारतीय भाषाओं में उपलब्ध करवानी चाहिए ताकि जनता जनार्दन को पता तो चले कि उन की सेहत के साथ खिलवाड़ किन किन वस्तुओं की मिलावट से हो रहा है। शायद यह पहला स्टेप होगा जागरूकता का।

मैंने पढ़ा है वह सारा डाक्यूमैंट। चाहे मैं इस तरह के विषय को बहुत बार ढूंढ चुका था, इस तरह की प्रामाणिक जानकारी......लेकिन इतने सारे कैमीकल्स, उपकरण.......इक्ट्ठे करने....ऐसे तो पहले घर को लैबोरेटरी बनाने वाली बात हो गई।

लेकिन बात वह भी है कि अगर किसी भी मिलावट के पुख्ता सबूत चाहिए तो कुछ तो मेहनत करनी ही होगी। मैं कल से सोच रहा हूं कि इस मैन्युल में बताए गये टैस्टों का  क्या कोई वैकल्पिक जुगाड़ नहीं हो सकता ...कुछ भी...जैसे बड़े बड़े शहरों की हाउसिंग सोसाइटी की तरफ़ से, गांवों में पंचायतों, शहरों में मोहल्ला कमेटियों की तरफ़ से ...इस तरह का उपकरण मंगवा कर ..फिर टैस्टिंग शुरू की जा सकती है।

यह सब महंगा बिल्कुल भी नहीं है...लेकिन घर घर में इस तरह के सामान कहां कोई इक्ट्ठे करता फिरेगा और फिर उन्हें संभाल कर रखेगा। इसलिए टैस्टिंग की कोई वैकल्पिक व्यवस्था हो पाए तो बात बने। वरना तो हम जैसे साईंस पढ़े लोग ही इन सब को खरीदने की सिरदर्दी से दूर भागते हैं।

जो भी हो, जानकारी तो बहुत बढ़िया दी गई है। अब बारी है यह सोचने कि आखिर हो क्या जाएगा इस तरह की टैस्टिंग करने से ........घर, मोहल्ले में टैस्टिंग से क्या हासिल, किसी को फांसी को दिलवाने से रहे, लेकिन फिर भी एक बात तो पक्की है कि जन जागरूकता तो बढ़ेगी, लोगों में -व्यापारियों में भी बात तो फैलेगी कि लोग अब टैस्टिंग करने लगे हैं, इसलिए ये जो परचून के व्यापारी हैं ..सब से पहले तो शायद यही लोग मिलावट से तौबा करने लगें।

जब घर, मोहल्ले में इन चीज़ों की टैस्टिंग की जाए और मिलावट पाई जाए तो उस को विभिन्न माध्यमों से शेयर किया जाए, लोकल केबल चैनल से, अखबार के स्थानीय संस्करण के द्वारा या बड़े शहरों में ग्रुप हाउसिंग सोसाइटी के नोटिस बोर्ड पर, सोशल मीडिया पर...  इस के बारे में लिख कर ........ऐसे जागरूकता फैलती जाएगी, छोटे मोटे व्यापारी मिलावट करने से डरने लगेंगे।

थोड़ा लिखिएगा इस पोस्ट की टिप्पणी में अगर आप के पास भी कोई आइडिया है कि खाद्य प्राधिकरण के इस मैन्युल को कैसे प्रैक्टिस में उतारा जा सकता है, जब काम की जानकारी उपलब्ध हुई है तो उस का फायदा भी लिया जाए।

कम से कम इस मैन्युल को डाउनलोड कर के, प्रिंट आउट ले कर रखा जाए ... कुल २२ पेज ही तो हैं......ताकि यदा कदा उस पर नज़र पड़ती रहे, विशेषकर बच्चों की .......जो हम से कहीं ज्यादा सचेत रहना चाहते हैं, उद्यमी होते हैं .......देखिए उन के पास ही कितने आइडिया होते हैं .......सभी को इस मिलावट रूपी जहर के प्रति जागरूक करने के िलए। ज़रूरत है बस इस बात की इस जागरूकता रूपी मशाल को हमेशा जलाए रखने की।

चोरों के लिए कईं बार बस इतना ही काफ़ी होता है कि कहीं पर कोई न कोई नज़र रखे है। तिनका तो होता ही है उन की दाढ़ी में...

शुक्रवार, 1 अगस्त 2014

सूंघने वाली इंसुलिन

कुछ साल पहले की बात है कि हमारी एक आंटी जी हमारे पास कुछ दिनों के लिए आईं थीं.. वह मधुमेह से पीड़ित थीं, स्वभाव की बहुत अच्छी, हंसमुख तबीयत की. अपनी बीमारी के बारे में कुछ ज़्यादा सोचती नहीं थीं। मस्त रहती थीं, उन के गुज़रे भी बहुत वर्ष बीत गये हैं।

मुझे याद है जब उन्हें दिन में कईं कईं बार इंसुलिन के टीके अपनी जांघ के पट्ठों पर लगाने पड़ते थे, सुन कर ही बहुत कठिनाई होती थी। जांघ पर ही नहीं, शरीर की अन्य जगहों पर भी बाजु, पेट (एबडॉमन)आदि पर वह टीके लगा लेती थीं इंसुलिन के। वैसे तो वह स्वयं भी लगा लिया करती थीं लेकिन बहुत बार उन की बहू उन की इस काम में मदद किया करती थीं।

मुझे अभी भी याद है वह २०-२५ वर्ष पुरानी बात जब एक बार वह टीका लगा रही थीं तो किस बेबसी के भाव से उन्होंने कहा कि क्या करूं, जिधर चमड़ी थोड़ी ठीक लगती है, उधर ही लगा लेती हूं इंजैक्शन....सारे शरीर को तो टीके लगा लगा छील दिया है !!

आज जब इस खबर पर ध्यान गया कि अब सूंघने वाली इंसुलिन को भी अमेरिकी एफडीआई की एप्रूवल मिल गई है .. तो यह जान कर प्रसन्नता हुई। चाहे बाद में लिखा गया है कि यह सूंघने वाली इंसुलिन लॉंग-एक्टिंग इंसुलिन का विकल्प नहीं है। इसे तो उस लॉंग-एक्टिंग इंसुलिन के साथ (ज़ाहिर सी बात है टीके से लगने वाली इंसुलिन).. ही लेना पड़ेगा।

इतना पढ़ कर भी ठीक ही लगा कि चलो, बीमारी से पहले से ही परेशान मधुमेह रोगी कम से कम कुछ टीकों से तो बच ही जाएंगे।

जाते जाते एक बात लिखने को मन हो रहा है ..जितनी बुरी मैनेजमैंट मैंने मधुमेह के रोगियों की देखी है, शायद ही कोई ऐसी बीमारी हो जिस का यह हाल हो। मरीज़ नियमति ब्लड-शुगर की जांच करवाते नहीं या करवा नहीं पाते, और भी आंख की या अन्य रक्त की जांच न होने की वजह से अन्य अंगों में जटिलताएं उत्पन्न तो होती ही हैं, साथ ही साथ, मधुमेह में ली जाने वाली दवाईयों को भी ठीक से एडजस्ट नहीं करवा पाते..... सही तरह से फॉलो-अप का अभाव, विशेषज्ञ चिकित्सकों तक न पहुंच पाना, नीम हकीमों के झांसे, देसी दवाईयां, पुडियां....एक ही समय में कईं कईं इलाज एक ही तकलीफ़ के करने की कोशिश.............. देश में हर बंदे  -- ९९ प्रतिशत लोगों की बड़ी जटिल समस्याएं हैं। इन के सब्र से डर लगता है--- रात को बत्ती नहीं, पानी की समस्या, सूखा, महंगाई और ऊपर से बीमारी।

ईश्वर सब को सेहतमंद रखे। खुश रखे। काश, सब के अच्छे दिन एक नारा ही न जाए, सब के दिन पलट जाएं।

Authority.. Inhaled insulin approved by FDA 

जापानी बुखार के बारे में लिखने की ज़रूरत ही क्या है!

जैसे हम लोग हर वर्ष कुछ दिन मनाते हैं ना, मुझे बेहद अफ़सोस से कहना पड़ रहा है कि यह जापानी बुखार के प्रकोप के दिनों में भी कुछ ऐसा माहौल सा बनता दिखता है बस कुछ दिन।

मीडिया विशेषकर इलैक्ट्रोनिक मीडिया कुछेक बार इस समस्या को दिखाते हैं। यू.पी, बिहार या पश्चिमी बंगाल के बच्चों के दिमागी बुखार या जापानी बुखार के ग्रस्त होने की खबरें आती हैं। हम सब के लिए वे खबरें ही होती हैं, है कि नहीं ? अब तो जापानी बुखार के केस देश के अन्य भागों से भी नियमित होने लगे हैं। 

लेिकन जिस घर से ये सैंकड़ों बच्चों के जनाजे उठते हैं उन पर जो बीतती है वे वही जानते हैं। ईश्वर से यही प्रार्थना है कि सब लोग तंदरूस्त रहें और बड़े बड़े अस्पताल खूब घाटे में चलने लगें। आमीन...
दो चार दिन पहले मैंने रिटर्ज़ पर यह खबर देखी..... India battles to contain 'brain fever' as deaths reach almost 570
 It is most often caused by eating or drinking contaminated food or water, from mosquito or other insect bites, or through breathing in respiratory droplets from an infected person.
इस खबर में यह लिखा पाया कि यह बीमारी आम तौर पर दूषित खाना या पानी खाने-पीने से, मच्छरों एवं अन्य कीड़ों के काटने से या फिर संक्रमित व्यक्ति के पास बैठे इंसान को उस की सांस से बाहर निकले ड्रापलैट्स के द्वारा होती है।
मुझे पढ़ कर अजीब सा इसलिए लगा कि जहां तक मेरी जानकारी है, यह जापानी बुखार मच्छरों के काटने से ही होता है।

फिर मैंने हिंदोस्तान की सेहत से संबंधित सरकारी साइटों की मदद लेनी चाहिए.......लेिकन वे भी मुझे किसी बाबू की टेबल की तरह वैसे तो खूब भारी भरकम लगीं लेकिन आम जन के लिए किसी भी तरह की जनोपयोगी सेहत संबंधी सामग्री नहीं मिली.......हिंदी को तो भूल ही जाइए, अंग्रेजी में भी नहीं मिलीं। जिन साइटों को मैंने खंगाला वे केन्द्रीय सेहत मंत्रालय की साइट, एम्स दिल्ली की साइट और इंडियन काउंसिल ऑफ मैडीकल रिसर्च जैसी साइटों की पूरी तलाशी ले ली, कुछ भी नहीं मिला। इस जापानी बुखार के बारे में ही नहीं, बल्कि किसी भी आम शारीरिक समस्या के बारे में भी कुछ भी नहीं। शायद मेरे ढूंढने में कोई कमी रह गई होगी, इसलिए आप भी चैक कर लीजिएगा और अगर कुछ मिले तो बतलाईए, मैं अपनी गलती को सुधार लूंगा।

जिस संस्था के लिए काम करता हूं , उस के ७००-८०० डाक्टरों ने फेसबुक पर एक ग्रुप बना रखा है, एक्टिव उस में १०-२० ही रहते हैं, बाकी तो बस स्वाद लेने वाले हैं, चुपचाप सब कुछ पढ़ कर बिना कुछ कहे, दबे पांव खिसक लेते हैं। मैंने उस फोरम में भी यह समस्या रखी कि क्या यह जो रिटर्ज़ की साइट पर लिखा है, यह सही है ?  लेकिन हैरानी की बात उन में से किसी ने भी इस बात का जवाब नहीं दिया।

बहरहाल, फिर वही ढूंढते ढांढते विश्व स्वास्थ्य संगठन की साइट पर इस से संबंधित सटीक जानकारी मिल गई ....वहां पर भी यही लिखा हुआ था कि यह जापानी बुखार मच्छरों के काटने से ही होता है...और कुछ खाने पीने से यह बीमारी होने की बात नहीं कही गई। इस बीमारी से प्रभावित क्षेत्रों में लोगों को मच्छरदानी लगा कर सोने की सलाह दी गई है और सूअर पालने के लिए मना किया गया है।
 इस बीमारी के बारे में ठीक से जानने के लिए मेरे कहने पर WHO के इस पेज को अवश्य देखिएगा....... Japanese Encephalitis 

बस सोच रहा था कि मुझे इस तरह की जानकारी तक पहुंचाने में इतनी मशक्कत करनी पड़ी, ऐसे में कहां हर कोई इतनी मगजमारी करना चाहेगा। दावे चाहे कितने भी हों, लेकिन सच्चाई यह है कि नेट पर हिंदी की तो छोड़िए, अंग्रेज़ी में भी भारत में पाई जाने वाली बीमारियों के बारे में सरकारी साइटों पर कुछ खास नहीं है ("कुछ भी" लिखते डर सा लगता है, बस इसलिए "कुछ खास" लिख दिया....) ...हर कोई बड़ी बड़ी हस्तियों के साथ फोटू वोटू निकलवा कर साइटों में डालने में ज़्यादा रूचि लेता दिखता है।

हां, तो जापानी बुखार की बात कुछ तो कर लें......यह होता उन क्षेत्रों में ही है जहां धान के खेतों में बाढ़ का पानी इक्ट्ठआ होता है, मच्छऱ पनपते हैं, फिर सूअर के शरीर में यह वॉयरस इक्ट्ठा होती है, फिर ये मच्छर तक पहुंच जाती है और आगे फिर मच्छर जब लोगों को काटता है तो यह बीमारी पैदा हो जाती है। छोटे बच्चों में यह बीमारी बहुत बार तो उन की जान ही ले लेती है। इस के टीके भी उपलब्ध हैं, और सुना है कि कोशिश की जा रही है कि कम से कम इस रोग से प्रभावित क्षेत्रों के लोगों का टीकाकरण ही कर दिया जाए। महंगा तो काफ़ी है टीका, लेकिन किसी भी बच्चे की जान की कीमत से तो उस के दाम की तुलना नहीं की जा सकती।

जब टीके के दाम का ध्यान आ गया तो यही विचार आया कि उन लोगों को चुल्लू भर पानी में डूब मरने की ज़रूरत है जिन्होंने राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन में करोड़ों रूपयों से घर भर लिए और फिर वे सब किस तरह से निकले, यह सारा संसार जानता है। जो भी पैसा किसी भी कर्मचारी या अधिकारी के घर में पड़ा पड़ा सडने लगा वह किसी न किसी स्कीम के लिए ही तो आवंटित होगा, शायद इन्हीं बच्चों को जापानी बुखार से बचाने वाले टीकों के लिए भी सुरक्षित पैसा इन के पलंगों के बक्सों के अंदर पहुंच गया। लेकिन क्या फायदा?..  कुछ भी तो नहीं, लेकिन फिर भी कुछ लोगों ने ना समझने की कसम खा रखी होती है।