शुक्रवार, 25 जुलाई 2014

बॉडी-शॉडी बनाना भी एक खतरनाक जुनून हो सकता है..

कितनी बार बातें चलती रहती हैं कि किस तरह से जिम जाने वाले लड़के तरह तरह के पावडर लेकर अपने डोले शोले बना कर अपनी बॉडी शॉडी से लोगों को इंप्रेस करने लगते हैं। जानते लगभग सब हैं कि इस तरह के प्रोडक्टस का क्या नुकसान है, लेकिन फिर भी जिस से पूछो उस का यही जवाब होता है कि बस एक या दो डिब्बे ही खाए थे, वे भी जिम से ही खरीद कर। लेकिन एक दो डिब्बे खा लेना भी किसी खतरे से कम नहीं है।

यह जो आजकल हम लोग छः पैक (सिक्स पैक) और बिल्कुल मकैनिकल सी बॉडी देखने लगे हैं, ऐसा पहले क्यों नहीं होता था...बचपन से ही हम देखते आ रहे हैं कि पहलवान कुश्तियां लड़ते थे, दंगलों में हिस्सा लेते थे, वज़न भी उठाते थे....लेकिन फिर भी उन के शरीर इस तरह के नज़र नहीं आते थे जितना आज के किसी युवा की बॉडी एक-दो महीने ही जिम जा कर दिखने लगती है।

यह सब उन हारमोन्ज़ और स्टीरॉयड आदि का प्रभाव है जो कि इतनी जल्दी मांसपेशियां इतनी फूल सी जाती हैं...
पहले भी इस विषय पर कईं बार लिख चुका हूं लेकिन आज फिर अचानक ध्यान आ गया कि किस तरह से अमेरिकी युवा इस तरह के हारमोन्ज़ एवं स्टीरायड के चक्कर में पड़ कर अपनी सेहत से खिलवाड़ कर रहे हैं।

और इस रिपोर्ट में इसी बात की परेशानी ब्यां की गई है कि इस तरह के प्रोडक्ट्स की बिक्री पर कोई रोक ही नहीं है,  लोग ये सब चीज़ें ऑनलाईन भी खरीदने लगे हैं।

 Dangerous use of Growth Hormone Surges Among U.S Teens

अगर अमेरिका जैसे देश में इतनी बेबसी है कि इन सब चीज़ों की बिक्री पर अंकुश रखने के लिए तो आप यह तो कल्पना भलीभांति कर ही सकते हैं कि यहां भारत जैसे देश में कैसी विकट समस्या होगी। यहां तो वैसे ही कुछ भी बिकने लगता है।

दरअसल ये दवाईयां हैं जो कि एक विशेषज्ञ डाक्टर ही लिखते हैं ..किन्हें लिखते हैं ..डाक्टर साहब ये दवाईयां.......ये दवाईयां दी जाती हैं एड्स के रोगियों को जिन की मांसपेशियां कमज़ोर पड़नी शुरू हो जाती हैं,  दिमागी के कुछ ट्यूमर ऐसे हैं..पिचूटरी ट्यूमर जिन में इन दवाईयों को देना पड़ता है और हां, कुछ बच्चे जो बचपन से ही कम विकास का शिकार होते हैं उन्हें भी ये दवाईयां एक विशेषज्ञ पूरी छानबीन कर के देता है.........ये वो बच्चे हरगिज़ नहीं होते जिन की ग्रोथ जंक-फूड खाने से प्रभावित होती है ...ऐसे बच्चों को भी ये दवाईयां नहीं दी जातीं, यह एक बहुत गहरा वैज्ञानिक मुद्दा है जिसे विशेषज्ञ डाक्टर ही जानते हैं. और यही बात जानने के लिए वे बीस वर्ष की डाक्टरी पढ़ाई करते हैं....... एमबीबीएस फिर एम डी ..फिर कुछ आगे डी एम ..ऐंडोक्राईनॉलॉजी में......फिर अपने अनुभव के आधार पर ये निर्णय लेते हैं अपनी निगरानी में किसे ये दवाईयां देनी हैं, किसे नहीं।

यह कैसे हो सकता है कि आपके जिम का मालिक जो कुछ हफ़्ते में एक दो फैशनेबुल कोर्स कर के आ जाए और लगे बांटने यह ज्ञान......... नहीं, ऐसा नहीं हो सकता, अपने जिम की शानोशौकत पर, दिखावे पर और जिम मालिक की स्लैंग या ट्रेंडी इंगलिश पर मत जाइए........बस, कसरत करिए और अपने आप को तंदरूस्त रखिए........क्योंकि आज रात ही रात में लखपति नहीं, करोड़पति बनने की एक दौड़ सी लगी हुई है।

कुछ डाक्टर भी स्पोर्ट्स मैडीसिन के विशेषज्ञ होते हैं, हो सके तो मैडीकल कालेज या अन्य सरकारी संस्थानों से इस तरह के प्रोडक्ट्स के बारे में चर्चा की जा सकती है। 

एच पी वी (HPV) टीकाकरण के बारे में बात स्पष्ट होनी चाहिए

आज भी एक न्यूज़-रिपोर्ट में दिखा कि अमेरिका में किस तरह से तरूणावस्था में एचपीवी वैक्सीन कम लोगों को लगाये जाने पर चिंता प्रकट हो रही है। इस न्यूज़-रिपोर्ट का लिंक यहां दिए दे रहा हूं..

Safe and effective vaccine that prevents cancer continues to be underutilized

इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि केवल ५७ प्रतिशत युवतियां जो तरूणावस्था में हैं और ३५ प्रतिशत तरूण युवक ही ऐसे हैं जिन्होंने एक या अधिक खुराकें इस वैक्सीन की ली हैं।

मुझे भी बड़ी हैरानी हुई ये आंकड़े देख के.....पहली बात तो वहां के आंकड़ों में कुछ संदेह नहीं है..... लेकिन इतने युवकों युवतियां को यह इंजैक्शन लगना शुरू हो चुका है, यह एक सुखद सूचना थी।

अभी भी हमारे देश में इस इंजैक्शन के बारे में स्थिति कोई साफ़ है नहीं। इतने वर्ष हो गये इस पर चर्चा ही हो रही है। मुझे याद है मैंने ३-४ वर्ष पहले एक महिला रोग विशेषज्ञ से पूछा था कि  इस वैक्सीन के बारे में क्या रिस्पांस है...ह्यूमन पैपीलोमा वॉयरस संक्रमण के संदर्भ में--- तो उस ने झट से कह तो दिया था......यह समस्या बाहर देशों की ही है।

लेकिन मैं उस के जवाब से संतुष्ट नहीं हुआ। कईं बार मीडिया में इतने वर्षों से दिखता रहता है कि युवतियों पर इस वैक्सीन के क्लीनिकल ट्रायल चल रहे हैं। फिर कुछ आने लगा कि क्लीनिक ट्रायल इस तरह से नहीं किये जाने चाहिए। जो भी है, अभी तक स्थिति कुछ भी स्पष्ट है नहीं।

अभी कुछ ही सप्ताह पहले एक मंत्रालय ने कुछ महिला रोग विशेषज्ञों की एक कमेटी गठित की ताकि वे इस तरह के इंजैक्शन के बारे में मैडीकल लिटरेचर का गहन अध्ययन कर के इस तरह के टीकाकरण के बारे में अपनी राय कायम कर सकें। पता नहीं क्या हुआ उस कमेटी का।

मुझे ऐसा लगता है कि इस तरह की अलग अलग कमेटियां बनाने से कहीं ज़्यादा बेहतर होगा कि इंडियल काउंसिल ऑफ मैडीकल रिसर्च संस्था जैसा शीर्ष संस्थान देश के चुन हुए संस्थानों से एवं देश के जाने माने विशेषज्ञों की एक समिति का गठन करे ताकि वे अपनी ठोस सिफारिशें तैयार कर सकें जिन्हें बिना किसी संदेह के लागू किया जा सके।

बहुत बार कईं टीकों के बारे में आता रहता है कि कुछ टीके ऐसे हैं जो लोग अफोर्ड कर सकते हैं वे अपने खर्च पर लगवा लें, लेकिन इस तरह की टीके के बारे में मेरा विचार यही है कि अगर विशेषज्ञों का समूह यह तय करे कि इस तरह का टीकाकरण देश के युवकों-युवतियों का भी होना चाहिए तो फिर इसे कैसे भी राष्ट्रीय टीकाकरण पालिसी में ही शामिल कर लिया जाए ताकि सारे युवा वर्ग को इस का लाभ मिल सके।

सब से पहले तो यही ज़रूरी है कि इस टीके के बारे में स्थिति पूरी तरह से स्पष्ट होनी चाहिए.....पता नहीं इतना समय क्यों लग रहा है। और इस में इंडियन काउंसिल ऑफ मैडीकल रिसर्च, एम्स, पीजीआई जैसे संस्थानों के विशेषज्ञों की विशेष भूमिका रहेगी। 

गल्तियां करने से नहीं, दोहराने से परहेज़ करें...

एक बार एक इंगलिश की कहावत कहीं पढ़ी थी कि गल्तियां करने से नहीं डरें, जितनी मरजी करते जाएं, होता है जब हम काम करते हैं तो गल्तियां तो होती ही हैं, लेकिन बस ध्यान यही होना चाहिए की एक ही गलती फिर से रिपीट न होने पाए। बस एक कोशिश रहनी चाहिए, ऐसी है।

हम लोग भी आए दिन गल्तियां करते ही हैं, जैसे कि सफ़र के दौरान खाना खा के बीमार होने की गलती, लेकिन फिर भी कुछ गल्तियां करने से शायद हम अपने आप को रोक नहीं पाते। हमें पता है कि बाज़ार का खाना मेरे सेहत के लिए ठीक नहीं है, लेकिन फिर भी मजबूरी वश (मरता क्या न करता वाली बात) कभी कभी खाना पड़ता है, न चाहते हुए भी, और फिर बीमार होने के लिए तैयार रहना ही पड़ता है।

हर गलती से हम लोग कुछ न कुछ सीखते जाते हैं। कुछ दिन पहले हमने बंबई से लखनऊ रेलगाड़ी से वापिस लौटना था, वैसे तो बढ़िया गाड़ीयां हैं इस रूट पर... पुष्पक एक्सप्रैस जैसी.. जो २३-२४ घंटे लेती हैं। वहां से चलने का और यहां लखनऊ में पहुंचने का टाइम भी सुविधाजनक है।

जब मैं रिज़र्वेशन करवाने गया.. तो देखा कि बाकी गाड़ीयों में तो वेटिंग लिस्ट थी, और एक होलीडे स्पेशल गाड़ी थी जिसमें समय ज़्यादा लगता है, लंबे रूट से, मथुरा से होती हुई, भारत दर्शन करवाती हुई लखनऊ पहुंचती है और ३२-३३ घंटे लगते हैं...यानि कि सामान्य गाड़ी से १० घंटे ज्यादा.......चूंकि रिज़र्वेशन मिल रही थी, ले तो ली....लेकिन उस गाड़ी से इतना लंबा सफ़र करना बहुत कठिन लगा।

इस सफ़र से यही सीखा कि आगे से सफ़र न करना मंजूर है, लेकिन इस तरह के इतने बड़े लंबे रूट से यात्रा करना बड़ा टेढ़ा काम लगा। यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव है .....मैं तो शायद इस से एक सबक ले चुका हूं......लेकिन अनुभव तो तभी सफल होगा जब इस तरह की गल्ती को कभी दोहराया न जाए।

एक गलती और.....कल मुझे दिल्ली जाना था। चार बजे बाद दोपहर किसी के साथ मीटिंग थी। सोचा सुबह एक गाड़ी पकड़ कर चलूंगा और दोपहर २ बजे के करीब वहां पहुंच जाऊंगा। लेकिन पुष्पक एक्सप्रैस सुबह ५.२५ पकड़ने के लिए घर से सुबह पौने पांच बजे चला ...और गाड़ी दिल्ली पहुंचते पहुंचते २ घंटे लेट हो गई और मैं चार बजे नई दिल्ली स्टेशन से पहले शिवाजी ब्रिज पर ही उतर गया और वहां से आटो पकड़ कर अपनी मीटिंग वाली जगह पर पहुंच गया।

तो दूसरी गलती जो मैंने व्यक्तिगत तौर पर की कि दिल्ली जाने के लिए सुबह की गाड़ी पकड़ी.......इस तरह की गाड़ी की यात्रा सुबह के समय इतनी बोरिंग होती है, इस का अंदाज़ा कोई भी लगा सकता है। इसलिए कल ही यह निर्णय लिया कि सामान्तयः सुबह की गाड़ी में इतना लंबा सफ़र नहीं करूंगा चाहे उस के लिए कितना भी नुकसान हो जाए।
देखता हूं इन दोनों गलतियों को दोहराने में कितना समय बच पाता हूं।

वैसे एक गलती जो मैंने पिछले कितने ही वर्षों से नहीं दोहराई ...वह यह है कि मैं सफ़र के दौरान चाय नहीं पीता, वह चाय मेरे हलक से नीचे ही नहीं उतरती। शायद पिछले कुछ सालों में एक दो घूंट भर लिये हों, वह भी सिरदर्द से बचने के लिए ...वरना इस तरह की चाय से तो मेरी तो तौबा। 

17 साल के लड़के के 232 दांत

आज अभी बीबीसी की साइट पर इस खबर पर नज़र पड़ी कि बंबई में डाक्टरों ने एक १७ साल के लड़के के मुंह से २३२ दांत निकाले।

मैंने भी इस तरह की खबर पहली बार ही देखी है। यह लड़का किसी गांव में रहता था, एक महीने पहले उसे जबड़े में बहुत ज़्यादा दर्द हुआ। उस के पिता उसे इस डर से बंबई लेकर आ गये कि कहीं कैंसर ही न हो।

इस खबर के बारे में आप अधिक जानकारी इस लिंक पर क्लिक कर के बीबीसी की साइट पर देख सकते हैं। अभी भी लड़के के मुंह में २८ दांत बचे हैं।

India Doctors remove 232 teeth from boy's mouth

यहां यह बताना ज़रूरी होगा कि यह सब एक ट्यूमर की वजह से हुआ.....लेकिन यह ट्यूमर बिनाईन होता है, अब बिनाईन को कैसे बताऊं.....बस आप यही जान लें कि इस तरह की ट्यूमर खतरनाक नहीं होता, यह शरीर के दूसरे अंगों में फैलता नहीं है, और इस से सामान्यतः जान भी नहीं जाती। लेकिन लड़के की तो २३२ दांत उखड़वाने के बाद जान में जान आई होगी।

ईश्वर सब को सेहतमंद रखे।


शनिवार, 12 जुलाई 2014

आप की पर्सनल एमरजैंसी किट..

अकसर हम लोग यात्रा पर जाने से पहले अपनी दवाईयों की एमरजैंसी किट को इतना महत्व नहीं देते। लेकिन फिर जब अचानक इन में से कुछ की ज़रूरत पड़ती है तो अपनी गलती का अहसास होता है।
हर व्यक्ति को पता होता है कि उसे एमरजैंसी में किन किन दवाईयों आदि की ज़रूरत पड़ सकती है।
चलिए अपनी उदाहरण लेता हूं. मैं कुछ दिनों के लिए बंबई आया हुआ था, आज लौट रहा हूं। परसों रात को अचानक रात एक-दो बजे मेरे पेट में बहुत ज़ोर का दर्द होने लगा और साथ में शरीर दुःखने लगा और बुखार जैसा लग रहा था। दो बार बिल्कुल वॉटरी स्टूल्स भी हुए।

समझ में नहीं आया कि ऐसा तो कुछ खाया भी नहीं..अकसर खाने में अपनी तरफ़ से थोड़ी एहतियात ही बरतते हैं। बहरहाल, मेरे पास उस समय Norflox 400 mg की एक टेबलेट पड़ी थी, मैंने तुरंत ले ली और साथ में Tab Zupar (Ibuprofen and Paracetamol combination) ली, उस के बाद कोई मोशन नहीं आई ..लेकिन अगले दिन सारा दिन बदन दुखता रहा और बुखार जैसा लगता रहा। इसलिए मैंने Norflox-TZ का तीन दिन का कोर्स करना ही ठीक समझा।वैसे मैं यहां अपने ब्लॉग में दवाईयों के ट्रेड नेम नहीं लिखता लेकिन कुछेक का नाम तो लिखना ही पड़ता है जिन्हें अपने ऊपर अाजमाया हो।

आज अच्छा लग रहा है।

अकसर हम लोग इस तरफ़ कभी ध्यान नहीं देते कि सफ़र में जाते समय या बाहर कहीं जाते वक्त दो चार दवाईयां लेकर चलना चाहिए।

सफर के दौरान सिर दुःखना या फिर एसिडिटी जैसे लक्षण मुझे अकसर हो जाते हैं। मुझे याद है कि एक बार हम लोग दिल्ली से फिरोज़पुर जा रहे थे.. रास्ते में सिर दर्द शुरू हो गया ..भटिंडा पहुंचने पर मुझे इतना सिर दर्द हुआ कि मेरे में चलने की बिल्कुल भी हिम्मत नहीं थी लेकिन फिर भी मैं अपनी मां और तीन-चार साल के बेटे को प्लेटफार्म पर छोड़ कर बाहर एक डिस्परिन की टेबलेट लेने गया।

मैं लगभग पिछले कईं वर्षों से बाहर चाय नहीं पीता.....जब से यह मिलावटी दूध वूध के किस्से सुनने में आने लगे हैं, इसलिए कईं बार थोड़ा विदड्रायल सा होने की वजह से सिर दुःखता है सफर के दौरान या फिर एसिडिटी हो जाती है, इसलिए एसिडिटी के लिए भी ओमीप्राज़ोल कैप्सूल जैसी दवाईयां अपने साथ रखता हूं।

बस यही लिखना चाह रहा था आज इस पोस्ट में कि अपने साथ दो-चार दवाईयां जिन की हमें अकसर ज़रूरत पड़ती है लेकर ही चलना चाहिए। आप का क्या ख्याल है। रात के समय अकसर कैमिस्ट की दुकानें बंद होती हैं, दिक्कत होती है। 

मंगलवार, 24 जून 2014

बस हिंदी के नाम ही से डर गए...

पिछले दिनों हिंदी बहुत ज़्यादा खबरों में रही। सोशल वोशल मीडिया पर हिंदी के इस्तेमाल पर या हिंदी इंगलिश दोनों के इस्तेमाल पर खूब चर्चा भी हुई..कईं जगह बवाल भी मचा।

लेकिन क्या किसी ने यह देखने का कष्ट भी किया कि आखिर ब्लागिंग, ट्विटिंग एवं फेसबुक पर सरकारी विभागों के बंदों द्वारा कितनी हिंदी इस्तेमाल हो रही है....और यह सब जो इंगलिश में हो रहा है , उस की आखिर फ्रिक्वेंसी है क्या।

आप कभी इस बात की रिसर्च करेंगे तो पाएंगे कि हिंदी की तो बात क्या करें, इंगलिश के माध्यम से भी सोशल मीडिया और ब्लॉग्स पर कुछ विशेष कहा ही नहीं जा रहा। और यह उतना आसान भी नहीं है जितना दिखाई जान पड़ता है।

इस का एक महत्वपूर्ण कारण यह है कि एक फरमान के आते ही किसी को इंटरनेट पर हिंदी का इस्तेमाल करना नहीं आ जाता। जैसे हर काम सीखने से आता है, इस के लिए भी एक अनुशासित ट्रेनिंग दरकार होती है। और यह भी एक तपस्या ही है।

लोग बाग आठ-आठ दस-दस वर्ष से हिंदी में ब्लॉगिंग कर रहे हैं, और अभी भी सीखने वालों की ही श्रेणी में आते हैं। मैं भी इस विधा का एक प्रारंभिक छात्र हूं।

मेरा बस इतना कहना है कि बस फरमान से ही एक ओपिनियन न कायम कर लिया करें......कभी रिसर्च भी किया करें कि ज़मीनी वास्तविकता क्या है, अब इस से ज़्यादा मैं यहां कह नहीं सकता, आप स्वयं देखें कि चल क्या रहा है !! आप भी सब समझ जाएंगे। 

गुरुवार, 12 जून 2014

ऐपल पर ठीक तरह से हिंदी न लिख पाने की व्यथा..

शायद मैं पिछले एक वर्ष से ऐपल पर काम कर रहा हूं और देख रहा हूं कि इस पर हिंदी ढंग से लिखी नहीं जा रही थी, बड़ी दिक्कत थी।

लेकिन एक बात तो थी कि जब जी-मेल या फेसबुक पर कुछ टिपियाना हो तो सब कुछ ठीक से लिखा जाता था।
लेकिन वर्ल्ड डाक्यूमैंट पर कुछ लिखना सिर दर्द के बराबर था।

बहुत महीने ऐसे ही चलता रहा, लेकिन परेशान होकर दो दिन पहले मैंने आलोक जी से ई-मेल के द्वारा संपर्क किया और उन के मार्ग-दर्शन के अनुसार ओपन ऑफिस का इस्तेमाल शुरू कर दिया है , अब ठीक से लिखा जाता है।

इस लिखे को भी अभी अपने ब्लॉग पर पोस्ट के रूप में डाल कर देखता हूं कि यह प्रयोग कितना सफल रहा है।

देखते हैं.........

आज कल जून की भयंकर गर्मी चल रही है......पता नहीं कैसे इस गीत का दो दिन से ध्यान बार बार आ रहा है कि किस तरह से भयंकर गर्मी के दिनों में ही अमृतसर के एक थियेटर में साईकिल पर जा कर यह फिल्म डिस्को-डांसर देखी थी......कितना क्रेज़ सा मिथुन की फिल्मों का, उस के गीतों का, उस के डांस का............. OMG..... लीजिए, आप भी मेरे साथ सुनिए.........राजेश खन्ना तो आउटस्टैंडिंग है ही, इस लिटिल मास्टर को भी इस की धांसू पर्फाममैंस के लिए १०में से १० अंक.......

रविवार, 4 मई 2014

स्वपनदोष का उपचार?

स्वपनदोष एवं वीर्य पतन से संबंधित पिछली पोस्ट से आगे पढ़िए....

क्या स्वपनदोष के लिए किसी उपचार की आवश्यकता होती है ?
स्वपनदोष पूर्णरूप से नैसर्गिक है। इसके लिए किसी भी उपचार या दवाईयों की जरूरत नहीं है। वयस्क अवस्था में स्वपनदोष बार-बार हो सकता है, क्योंकि इस आयु में शरीर में विभिन्न शारीरिक व मनोवैज्ञानिक परिवर्तन होते हैं। कभी-कभी उत्तेजित करने वाले स्वपनों के दौरान किसी से लैंगिक संबंध रखने की कल्पना पुरूषों में आती है, जिसके परिणामस्वरूप स्वपनदोष होता है। स्वपनदोष से मन में अपराधभाव निर्मित होता है। यदि यह बार-बार हुआ तो अपराधभावना बढ़ती जाती है और मानसिक दुर्बलता की अवस्था आ जाती है। इस स्थिति से बचने के लिए योग्य मार्गदर्शन लेना आवश्यक होता है। किसी भी दवाई या इलाज की आवश्यकता नहीं होती है और ऐसी कोई दवा उपलब्ध भी नहीं है। 

स्वपनदोष को रोकने के लिए क्या कोई दवाईयां हैं ?
स्वपनदोष, कामभावना पूर्ण करने की एक नैसर्गिक क्रिया है। स्वपनदोष रोकने के लिए किसी भी तरह के इलाज या दवा की आवश्यकता नहीं है, और ये उपलब्ध भी नहीं हैं। 

क्या नियमित व्यायाम का स्वपनदोष पर कुछ प्रभाव पड़ता है ?
व्यायाम का स्वपनदोष से कोई सीधा संबंध नहीं है। ये दोनों भिन्न क्रियाएं हैं। व्यायाम के कारण स्वपनदोष अधिक होता है या कम होता है, ये सब गलतफहमी फैलाने वाली धारणाएं हैं। इस के विपरीत नियमित व्यायाम करने से युवकों में स्वपनदोष से ध्यान हटाने में मदद ही मिलती है और उनका आत्मविश्वास बढ़ता है, साथ ही मानसिक तनाव भी कम होता है। अतः कभी-कभी, इन दो क्रियाओं के मध्य परस्पर सम्बंध प्रतीत होता है।

क्या स्वपनदोष का बौद्धिक क्षमता पर कोई असर होता है ?
स्वपनदोष एक नैसर्गिक क्रिया है। स्वपनदोष का बौद्धिक क्षमता पर कोई असर नहीं होता है। यद्यपि अपराध भाव के कारण, मानसिक एकाग्रता कम हो जाती है। बुद्धि कम हो गई है, ऐसा लगता है। यह मानसिक दुर्बलता भी योग्य मार्गदर्शन से ठीक की जा सकती है।

बार-बार स्वपनदोष होने से गुप्तरोग या एड्स हो सकता है क्या ?
नहीं। गुप्तरोग और एड्स, संभोग के द्वारा, एक ग्रसित व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति मैं फैलने वाले रोग हैं, इनका स्वपनदोष से कोई संबंध नहीं है। बार-बार स्वपनदोष होने से, गुप्तरोग या एड्स जैसा कोई रोग नहीं होता है।

क्या बार-बार स्वपनदोष होने का प्रजनन क्षमता पर या नवजात शिशु पर कुछ बुरा असर पड़ता है?
नहीं। बार-बार स्वपनदोष होने से भविष्य में संतान पर या संतान उत्पन्न करने की क्षमता पर, किसी भी प्रकार का विपरीत परिणाम नहीं होता है। जहां तक शरीर से वीर्य के निकलने का प्रश्न है, बार-बार स्वपनदोष और बार-बार संभोग, इन दोनों ही क्रियाओं में वीर्यपतन होता है। अतः इस भ्रम के पीछे कोई तथ्य नहीं है।

स्वपनदोष होना अच्छा है या बुरा ?  
स्वपनदोष पूर्णतया एक नैसर्गिक प्रक्रिया है। मन में उठने वाली लैंगिक भावनाओं को तृप्त करके मानसिक शान्ति देने का यह एक प्राकृतिक तरीका है। इसका शरीर पर कोई बुरा परिणाम नहीं होता है। स्वपनदोष होने पर किसी को अपराध भाव होने का कोई कारण नहीं है। स्वपनदोष अच्छा है या बुरा, यह नहीं सोचना चाहिए।

Source: पुस्तक "यौवन की दहलीज पर" .. unicef publication ...लेखक डा प्रकाश भातलवंडे डा रमण गंगाखेडकर 

स्वपनदोष एवं वीर्यपतन (Nightfall)....कुछ भ्रांतियां

लगभग छः वर्ष पहले एक लेख लिखा था.....जब स्वपनदोष कोई दोष ही नहीं  है तो ....

इस लेख को पढ़ने के बाद जब कोई परेशान युवक मुझे धन्यवाद के दो शब्द भेजता है तो अच्छा लगता है कि चलो, अपना लिखा किसी के काम तो आया, किसी की परेशानी तो कम हुई।

कुछ दिन पहले एक बुक प्रदर्शनी में मैंने एक किताब खरीदी .....यौवन की दहलीज़ पर....... इसे क्वालीफाईड डाक्टरों द्वारा लिखा गया है और यूनिसेफ (Unicef) द्वारा प्रकाशित किया गया है। इस किताब के शीर्षक के साथ यह भी लिखा गया है.. मनुष्य के सेक्स जीवन, सेक्स के माध्यम से फैलने वाले गुप्तरोगों (एस.टी.डी) और एड्स के बारे में जो आप हमेशा से जानना चाहते थे, लेकिन यह नहीं जानते थे कि किससे पूछें...

उस किताब में एक भाग स्वपनदोष और वीर्यपतन विषय से संबंधित है......उस के कुछ अंश यहां लिख रहा हूं......

स्वपनदोष का अर्थ क्या है?
कुछ लोगों में नींद के समय वीर्यपतन हो जाता है, इसे स्वपनदोष कहते हैं। नींद में वासना संबंधी स्वपन आने से मस्तिष्क में कामेंन्द्रियां उत्तेजित होकर कालचक्र पूरा कर लेती हैं, इसी वजह से वीर्यपतन होता है। इस प्रक्रिया को स्वपनदोष कहते हैं। 

स्वपनदोष, आयु के कौन से वर्ष से शुरू होकर कब तक हो सकता है?
यह क्रिया युवावस्था में शुरू होती है और आमतौर पर शादी होने पर बंद हो जाती है। शादी के बाद मनुष्य की शारीरिक जरूरतों की पूर्ति संभोग से हो जाती है , इसलिए सामान्यतया स्वपनदोष नहीं होता है। स्वपनदोष वैसे तो किसी भी उम्र में हो सकता है, विशेषतौर पर जब जीवनसाथी दूर गया हो और बहुत दिनों से संभोग सुख नहीं मिला हो। स्वपनदोष से किसी प्रकार का कोई शारीरिक नुकसान नहीं होता है। 

बार-बार वीर्यपतन हो जाने से क्या वीर्य खत्म हो जाता है ?
नहीं, यह सिर्फ एक भ्रांति है। वयस्क होने के उपरान्त वीर्य तैयार होने की प्रक्रिया नियमित रूप से जारी रहती है। वीर्यपतन में, वीर्यकोष में एकत्रित वीर्य शरीर से बाहर निकल जाता है। लेकिन बार-बार वीर्यपतन होने से वीर्य खत्म नहीं होता है। वीर्यपतन, संभोग से, हस्तमैथुन से या फिर स्वपनदोष से हो सकता है। थोड़े समय अन्तराल में वीर्यपतन से यदि बार बार हुआ, तो वीर्य की घनता कम होकर, वह पतला हो जाता है। इसका कारण सिर्फ इतना है कि वीर्यपतन की शुरूआत के समय कभी-कभी वीर्यकोष से पहले से इकट्ठा वीर्य बाहर निकल जाता है और उसके बाद, बार-बार वीर्यपतन के समय, वीर्य में शुक्राणुओं की संख्या और लसदार पदार्थ की मात्रा कम हो जाती है, जिससे वह पतला दिखता है। वीर्य पतला दिखने के कारण, लोगों को वीर्य समाप्त होने का डर लगता है, लेकिन यह सिर्फ गलतफहमी है। यदि दो वीर्यपतन के बीच अंतर ज्यादा होता है, तब ऐसी स्थिति में बाहर निकलने वाले वीर्य की घनता अधिक होती है। 
इस किताब में स्वपनदोष से संबंधित कुछ ज़रूरी जानकारी और भी हैं, बाद में लिखता हूं। 

इस तरह की जानकारी मुझे तब मिली थी किसी किताब से जब मैं २० वर्ष का था और मैं जानता हूं उस किताब को पढ़ कर मुझे कितना सुकून मिला था। मुझे नहीं पता कि आप उम्र की किस अवस्था में इस लेख को पढ़ रहे हैं, लेकिन अच्छा यही होगा कि इस लेख में लिखी जानकारी को अपने दोस्तों के साथ शेयर अवश्य करें......अनगिनत भ्रंातियों के चलते कुछ युवा अपने इन बेशकीमती ज़िंदगी के वर्षों में अपनी पढ़ाई आदि की तरफ़ उतना ध्यान नहीं दे पाते....हर समय बस बीमारी की कल्पना करते रहते हैं। उन्हें इस लेख का लिंक भेज कर उन की भी चिंता को दूर करिए। 

२००८ में दिल से लिखा वह लेख......... जब स्वपनदोष कोई दोष है ही नहीं तो..
  इस के उपचार के बारे में कुछ जानने के लिए इस पोस्ट पर क्लिक करिए। 



बुधवार, 26 मार्च 2014

रहम आता है यार ....

कुछ महीने पहले की तो बात है ..मैं वाल्वो बस में दिल्ली से जयपुर जा रहा था...पिछली सीट पर शायद किसी सरकारी अस्पताल में सर्विस करने वाला डाक्टर बैठा हुआ था अपने किसी मित्र के साथ...मुझे उन की बातों से ऐसा प्रतीत हुआ।

उस डाक्टर की बातें जो मेरे कानों में पड़ीं..मैं वे सुन कर दंग रह गया। बता रहा था अपने मित्र को अभी दो महीने पहले ही वह तबादला हो कर राजस्थान के इस अस्पताल में आया है। अस्पताल के हालात सुना रहा था ...सुन कर मेरा मन बहुत खराब हुआ।

लेकिन एक बात सुन कर मैं भी सोचने पर मजबूर हो गया.. वह अपनी साथ वाली सीट पर बैठे बंदे से कह रहा था कि यार, जिस अस्पताल में वह सर्विस कर रहा है उस के हालात इतने खराब हैं कि अगर मरीज़ से अच्छे से बात करो, उसे ध्यान से सुनो और उस का अच्छे से इलाज कर दो.....तो भी इस का गलत मतलब निकाला जाता है।

मुझे भी यह सुन कर बड़ा अटपटा सा लगा लेकिन तुरंत उस की बात जो मेरे कान में पड़ी उस से वह अटपटापन चिंता में  तबदील हो गया। उस ने बताया कि दो-तीन दिन में एक बार हो ही जाता है कि मरीज़ उसे पचास-सौ रूपया देने के लिए अपना पर्स खोल लेता है। उस के द्वारा पैसे लेने का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता... पर्स खोलने वाला थोड़ा झेंप सा जाता है जब वह उन्हें बताता है कि वह जो भी काम कर रहा है, उसे सरकार उस के लिए उसे सेलरी देती है।

यह तो हो गई उस बस में वार्तालाप की बात जो मेरी कानों तक पहुंची।

अब सुनिए मेरी बात.....मैं कहीं भी जाता हूं तो बहुत कुछ अब्जर्व करता हूं।

..किसी भी दफ्तर में जाता हूं और देखता हूं कि जहां पर कोई भी नागरिक चाहे बिल भी जमा करवाने आया है, उस के चेहरे पर मैं एक अजीब सी शिकन देखता हूं......जैसे वह सोच रहा हो कि कैसे भी मेरा बिल जमा हो जाए, बस बाबू कोई गलती न निकाल दे। इस विषय के बारे में कितना लिखूं......जो इसे पढ़ रहे हैं और जो इस तरह के अनुभवों से गुज़र चुके हैं उन के लिए मेरे यह सब लिखने का कोई मतलब नहीं है क्योंकि वे सब कुछ जानते हैं.......मुझे टीवी सीरियल ऑफिस ऑफिस के मुसद्दी लाल के किरदार का ध्यान आ रहा है।

एक बात जो मेरे मन को बहुत ही ज़्यादा उद्वेलित करती है कि सरकारी तंत्र के पास नियमों की किताब तो है ही....होनी भी चाहिए.....लेकिन इस के बावजूद भी चपरासी से लेकर बड़े से बड़े अफसर के पास इतनी ऐच्छिक शक्तियां (discretionary powers) हैं कि मैं उन के बारे में सोचता हूं तो मेरा सिर दुःखने लगता है। चपरासी चाहे तो किसी से मिलने दे , वरना कुछ भी कह के टरका दे। बाबू एक बार कह दे कि फाईल नहीं मिल रही ..तो क्या आप कह सकते हैं कि आप ढूंढने में मदद कर सकते हैं। कहने का यही मतलब कि आदमी सरकारी दफ्तर में काम कर रहे हर व्यक्ति के मुंह की तरफ़ ही देखता रह जाता है।

अकसर सुनते हैं कि तुम मुझे आदमी दिखाओ, मैं तुम्हें कानून बताऊंगा। जी हां, हैं इतनी व्यापक ऐच्छिक शक्तियां हैं अफ़सरों के पास......नहीं मानो तो न सही,लेकिन जो बात सच है वह तो यही है कि अगर किसी का काम करना हो तो १०० कारण बता कर उस का काम किया जा सकता है और अगर नहीं करना तो १०१ कारण बताए जा सकते हैं। यह सब कुछ देख सुन कर डर लगता है ...........तरस आता है .......बताने की ज़रूरत तो नहीं कि किस पर यह तरस आता है।

ठीक है आ गया है सूचना का अधिकार........काफ़ी कुछ पता लगाया जा सकता है, लेकिन अब उस का जवाब देने वाले भी कुछ मंजे खिलाड़ी बनते जा रहे हैं. पूरी कोशिश करते हैं कि किसी तरह से सटीक जानकारी न बाहर निकलने पाए.... और इतनी माथापच्ची अाम बंदा कर नहीं पाता।

इसलिए रहम आता है मेरे भाइयो...........सच में तरस आता है........कईं बार तो दयनीय हालात देख कर आंखें भीग जाती हैं.......कोई पालिटिकल स्पीच नहीं है यह मेरी...........बिल्कुल जो महसूस किया और जो देखा वही ब्यां कर दिया है।


गुरुवार, 20 मार्च 2014

ट्रांसपेरेंसी का दौर....

आज के दौर में अगर किसी दफ्तर में किसी कागज़ के लिए इंकार करे तो वह बड़ा बेवक़ूफ़ सा लगता है। सभी सूचना सिर्फ दस रुपया की दूरी पर ही तो है। फिर कोई सूचना के हक़ से पूछे तो इन्हें बुरा लगता है।
आज मैं पहली बार अपने फ़ोन से लिख कर इस पोस्ट को पब्लिश कर रहा हूँ। थोडा मुश्किल तो लग ही रहा है।
आज मैं अपने बेटे के साथ उस के स्कूल गया था। उस का रिजल्ट कार्ड तो दो दिन बाद मिलेगा लेकिन आज स्कूल ने बच्चों को और उनके माँ बाप को उनके पेपर देखने के लिए बुलाया था।
मुझे यह सब देख कर बहुत अच्छा लगा। कितना खुलापन....किसी को कोई मलाल नहीं कि पता नहीं पेपर ठीक से किसी ने देखे या नहीं। पता नहीं टोटल ठीक हुआ होगा या नहीं। होते थे हमारे मन में भी ऐसे सवाल उठा करते थे।
मुझे ऐसा लगता है ...यह सब सी बी एस ई की पहल से ही हुआ होगा। सभी बच्चे अपने साथ प्रश्न पत्र भी लाये हुए थे। उनके टीचर वहीँ मौजूद थे। कोई भी संदेह दूर करो। पेरेंट्स ने भी बच्चों की परफॉरमेंस को टीचर्स के साथ डिस्कस किया।
यह बहुत अच्छा सिस्टम है।।। सूचना के हक का ही विस्तार लगा मुझे तो। जब कोर्ट कचेरी ने कह दिया क़ि अब बच्चे अपने पर्चों की कॉपी आर टी ई के द्वारा भी ले सकते हैं तो लगता है बोर्ड ने सोचा सब कुछ वैसे ही खोल दो।।।।।। बहुत अच्छा।
आज जब मैं यह नज़ारा देख रहा था तो सत्तर के दशक में अपने डी ऐ वी स्कूल अमृतसर के दिन याद आ रहे थे। एक पोस्टकार्ड नुमा प्रिंटेड कार्ड हर त्रॆमसिक पर्चे के बाद घर जाता था डाक से। उसमे नंबर कोई मॉनिटर नुमा लड़का भरता था। घर से बापू से हस्ताक्षर करवाने के बाद अपने क्लास के मास्टर को वापस ला के देना होता था। इस मैं भी बच्चे कोई न कोई जुगाड़ निकाल ही लिया करते थे।।।
Thanks dear Raghav for pushing to put Nexus4 to proper use......god bless....i dedicate this first post to you.!!   (raghav is my younger and naughty son!)......god bless him always!

बुधवार, 19 मार्च 2014

कुकिंग ऑयल और टमाटर सॉस में मिलावट

जब भी कोई त्योहार आता है तो इस तरह की खबरें-वबरें बहुत आनी शुरू हो जाती हैं.....अभी दो दिन पहले ही देखा कि कुकिंग ऑयल में किस हद तक मिलावट की खबरें आ रही हैं।

मुझे याद है कि कुछ वर्ष पहले तक और वैसे तो आज भी इस देश के घरों में सरसों का तेल किसी कोल्हू से लाने का बड़ा रिवाज सा था.....मुझे अभी एक कहावत भी याद आ गई..कोल्हू का बैल...शायद मैंने कभी देखा नहीं कोल्हू में बैल को तेल निकालते हुए या फिर ४० वर्ष पहले कभी देखा होगा ऐसा कुछ अमृतसर में जिस की धुंधली सी याद अभी कायम है। या फिर पता नहीं मैं जिस बैल की बात कर रहा हूं उसे हम लोग गन्ने का रस निकालते ही देखा करते थे.....यह तो बहुत बार देखा अमृतसर में हमारे स्कूल के रास्ते में एक बैल गोल-गोल घूमा करता था और गन्ने का रस निकालने में मालिक की मदद किया करता था।

हां, तो बात चल रही थी, सरसों के तेल की...पंजाबी में एक शब्द है ..कच्ची घानी का तेल.....मतलब मुझे भी नहीं पता लेकिन अकसर जिन दुकानों पर खुला सरसों का तेल बिकता है, वे इसे अपनी यूएसपी बताते हैं कि उन के यहां कच्ची घानी का तेल बिकता है।

कुछ महीने पहले मुझे सरसों का तेल लाने के लिए कहा गया.......मैं एक मशहूर दुकान पर गया...और उस से पूछा कि किस ब्रांड का तेल उस के पास है। उस ने दो -तीन नाम गिना दिए और साथ में अपने यहां निकाले गये तेल (खुले में बिकने वाले) की तारीफ़ करने लगा.....दाम उस के यहां खुले बिकने वाले तेल का ब्रांडेड बिकने वाले तेल से ज़्यादा ही थी, इसलिए मुझे लगा कि यही सब से बढ़िया विक्लप है।

मैं उस के यहां बिकने वाले खुले तेल की बोतल ले आया। लेकिन घर आने पर मेरी श्रीमति ने बताया कि खुला तेल कभी नहीं लाना चाहिए......बात मेरी समझ में तुरंत आ गई। आजकल किस की बात का भरोसा करें किस का न करें, समझ नहीं आता। मिलावट का बाज़ार इतना गर्म है कि लोग अपना मुनाफ़ा बढ़ाने के लिए कुछ भी कर सकते हैं।

ब्रांडेड क्वालिटी में तो इतने तरह के नियम-कायदे मानने पड़ते हैं, फिर भी उन में भी कभी कभी मिलावट की खबरें आ ही जाती हैं। ऐसे में खुले में बिकने वाली किसी चीज़ पर कैसे भरोसा किया जा सकता है। ब्रांडेड सील बंद बोतल में कम से कम कंपनी की साख तो दाव पर लगी होती है।

चार छः वर्ष पहले की बात है जब से ये देसी घी के मिलावटी होने की खबरें आम हो गई थीं तो मैं सोचता था कि कुछ मिठाईयां तो हमें रिफाईंड घी आदि की तैयार हुई ही खरीद लेनी चाहिए ...कभी कभी अगर खाने की इच्छा हो तो...लेकिन अब वह रिफाईंड की तैयार मिठाईयों, भुजिया-वुजिया से भी डर ही लगता है......पता नहीं खुले में बिकने वाली इन खाध्य पदार्थों में लोभी लोगों ने क्या क्या धकेला होता है। एक बार की बात है हरियाणा की एक मिठाई की दुकान की....हम ने बेसन के लड्डू खरीदे ..लेकिन यकीन मानिए जब उन्हें हाथ लगाया तो वे इतने पिलपिले की मैं बता नहीं सकता.....उन्हें खाना तो क्या था, छूते ही सिर दुखने लगा....पता नहीं उन में कौन सा तेल डाला गया था। कहते ये सारे एक ही बात हैं.....हम तो रिफाईन्ड के अलावा कुछ भी इस्तेमाल नहीं करते।

दो दिन पहले ही की खबर है कि ये जो सॉस---  जी हां, सॉस, एकता कपूर के नाटकों वाली सास नहीं, जगह जगह बाज़ार में बिकती है ..इन में प्रिज़र्वेटिव की मात्रा इतनी ज़्यादा होती है कि इन्हें खाना कैंसर को निमंत्रण देने के बराबर है। और ये सब पदार्थ वे इतनी ज़्यादा मात्रा में इसलिए डाल देते हैं ताकि उन का सामान बहुत दिनों तक खराब न हो।  दोनों खबरें टाइम्स ऑफ इंडिया में आई थीं........बाहर बाल्कनी में अखबार पड़ी है, मैं लिंक यहां दे देता लेकिन आज कल हमारे घर में इतने ज़्यादा मच्छर हैं कि हम लोग शाम के वक्त बाल्कनी का दरवाज़ा नहीं खोलते, बाहर से ढ़ेरों मच्छर आ जाते हैं।

इस टमाटर सॉस एवं चिल्ली सॉस वाली खबर में तो यहां तक लिखा था कि इन में से कुछ की तो टैस्टिंग की गई और टमाटर सॉस में टमाटर गायब था और चिल्ली सॉस से चिल्ली नदारद थी.......सब तरह के सस्ते सब्स्टिच्यूट उन में पाए गये थे। इस तरह के प्रमाण एक प्रसिद्ध फूड एंड टॉक्सीकॉलोजी रिसर्च इंस्टीच्यूट के द्वारा दिए गये थे। ये सॉस वो हैं जो बिना किसी ब्रांड के ऐसे ही समोसे-कचौरी, नूडल के खोमचों, चाईनीज़ फूड के आउटलैट्स पर पड़ी रहती हैं।
इतनी मिलावट....इतना लोभ, पब्लिक की सेहत से इतना खिलवाड़..........इन सब के बारे में पढ़ कर सिर तो दुःखता ही है, उलटी होने लगती है।

समाधान क्या है, यही है कि हम लोग इन चीज़ों से दूरी बनाए रखें.......सरकारी तंत्र किन किन चीज़ों की टैस्टिंग करेगा, कब कब करेगा, क्या क्या रिपोर्ट आयेगी.... कब कब किसी को सजा होगी.......इन चक्करों में ना ही पड़ें तो बेहतर होगा............ऐसी सब सस्ती किस्म की बाजार में खुले में बिकने वाली चीज़ों का बहिष्कार तो हम आज ही से कर ही सकते हैं..........यह हमारी आपकी सेहत का मामला है। 

मंगलवार, 18 मार्च 2014

कहानी कहने और दिखाने का फ़न

मुझे याद है कि कुछ वर्ष पहले की बात है कि दूरदर्शन के राष्ट्रीय चैनल पर कईं हफ़्तों तक मुंशी प्रेम चंद की कहानियां दिखाई जाती थीं। मैंने भी उन में से बहुत सी देखी थीं।

पिछली सदी के महान लेखक मुंशी प्रेम चंद के लेखन से मैं रू-ब-रू स्कूल के दिनों से हुआ था। शायद ९ या १०वीं कक्षा में उन का एक नावेल गोदान हमारे सिलेबस में था। और वैसे भी उन की कुछ कहानियां नमक का दारोगा जैसी भी हम ने स्कूल के दिनों में ही पढ़ी थीं।

कुछ दिन पहले मैंने यू-ट्यूब खोला हुआ था.. वहां पर मैंने डी डी नैशनल का ऑफिशियल चैनल खोला तो नज़र पड़ गई ..मुंशी प्रेम चंद की तहरीर पर....उन की विभिन्न कहानियों का फिल्मांकन देखने लायक है, हो भी क्यों नहीं, इन्हें प्रस्तुत वाले भी तो गुलज़ार साब हैं।

तो उस दिन मैंने कफ़न कहानी को देखा.......और आज दोपहर ईदगाह कहानी देखी।

इन कहानियों को देखते हुए मैं यही सोच रहा था कि कहानी कहने की तहज़ीब सीखनी हो तो सदी के महान लेखक प्रेमचंद को पढ़ लिया जाए...अगर हम कहानी लिखना ना भी सीख पाए तो भी और बहुत कुछ तो सीख ही जाएंगे और यह देखने के लिए कि किसी कहानी के फिल्मांकन के दौरान कैसे इंसाफ़ किया जाता है, इस के लिए गुलज़ार साब की कृत्तियों से रू-ब-रू तो होना ही पड़ेगा।

दूरदर्शन के विभिन्न चैनल इतने अच्छे कार्यक्रम दिखाते हैं कि मेरी तो इच्छा होती है कि काश मैं केवल दूरदर्शन के कार्यक्रम ही देखा करूं (समाचारों को छोड़ कर...कारण आप जानते ही होंगे)... राज्यसभा टीवी, लोकसभी टीवी, डीडीभारती, राष्ट्रीय चैनल, डीडीन्यूज़ पर सेहत संबंधी कार्यक्रम ...इन की जितनी प्रशंसा की जाए कम है। यह मेरा व्यक्तिगत विचार है।

आज जो मैंने कहानी देखी ईदगाह उस के वीडियो का लिंक यहां दे रहा हूं...आप भी देख सकते हैं और इन कलाकारों की महानता आप को भी अचंभित कर देगी....... इस लिंक पर क्लिक करिए...

शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2014

कहीं आप के पेस्ट मंजन में भी तंबाकू तो नहीं...


देश के कुछ हिस्सों में लोग तंबाकू को जला कर दांतों एवं मसूड़ों पर घिसते हैं ...जिसे मिशरी कहते हैं.
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पता नहीं यह दुल्हन कहां से आ गई इस पाउच पर...
चलिए, इन लोगों को पता तो है कि ये तंबाकू घिस रहे हैं । कुछ दंत मंजन भी तंबाकू से ही तैयार होते हैं यह भी लोग जानते हैं जैसे कि गुल मंजन आदि। लेकिन लोग फिर भी करते हैं। कुछ मंजन इस तरह के हैं जो लोगों में काफ़ी पापुलर हैं और उन में भी तंबाकू की मात्रा मौजूद रहती है। अब ऐसे मंजनों का कोई क्या करे, चिंता का विषय यह भी है कि छोटे छोटे पांच-छः वर्ष के बच्चे भी इन्हें इस्तेमाल करते हैं और जल्द ही इस के आदि -- एडिक्शन हो जाती है।
दो दिन पहले मैं ऐसे ही इधर एक बाज़ार में खड़ा था, सामने एक पनवाड़ी की दुकान थी, वहां पर बहुत ही रंग बिरंगे गुटखे के पैकेट टंगे दिखे। मैंने सुना था कुछ दिन पहले कि अब लखनऊ में नेपाल में तैयार गुटखा बिकने लगा है। मैंने उस पनवाड़ी से पूछा तो उस ने बताया कि नहीं, ऐसा कुछ भी तो नहीं। अचानक देखा कि गुल का पाउच टंगा है, मैंने एक खरीद लिया।
यह पैकेट एक रूपये में बिक रहा है। दुकानदार इस की दांत चमकाने की क्षमता और दांत एक दम फिट रखने की क्षमता पर प्रवचन करने लगा कि आप भी इसे एक बार अजमा कर के तो देखिए।
यह गुल मंजन लोगों में बड़ा पापुलर है। लेकिन मुझे इतना पता था कि यह बड़े से डिब्बे में ही आता है, मेरे कहने पर मेरे मरीज़ अकसर इसे मुझे कईं बार दिखाने के लिए घर से लाये थे। वह तो चिंता की बात है ही--शायद उस से और भी चिंता की बात यह है कि यह पाउच में भी दिखने लगा है।
gul3जब तक मैं अपनी बात रखनी शुरू नहीं करता मेरे मरीज़ तंबाकू वाले मंजनों के तारीफ़ों के कसीदे पढ़ते नहीं थकते...पहले दांतों में दर्द था, पहले मसूड़ों को पायरिया था, पहले दुर्गध आती थी ...लेकिन जब से यह तंबाकू वाले मंजन का इ्स्तेमाल शुरू किया है सब ठीक लगने लगा है। लेकिन नहीं, उन को सोचना गलत है, तंबाकू वाले मंजन केवल तबाही ला सकते हैं और वे यह काम में सफल हो भी रहे हैं।
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इस तस्वीर को अच्छे से देखने के लिए इस पर आप को क्लिक करना होगा.
और इस आर्टीकल को पूरा देखने के लिए यहां पर क्लिक करिए...
मेरे एक मित्र जो डैंटल कालेज में प्रोफैसर हैं --कल वह भी इस तरह के मंजनों के बारे में बहुत चिंतित नज़र आए। एक सब से खौफ़नाक बात जो देखने में आ रही है कि छोटे छोटे बच्चे जब इन का इस्तेमाल करने लगे हैं तो वे सहज ही तंबाकू के व्यसनी बन जाते हैं।
जब मैंने इस तंबाकू वाले गुल को खोला तो इतनी गंदी बास आई कि मुझे उन लोगों के चेहरे याद आ गये जो मुझे यह कह कर चले गये कि इस से मुंह की दुर्गंध आनी बंद हो गई। काश कभी वे फिर से दिखें .....
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इस टैक्सट को अच्छे से पढने के लिए आप को इस पर क्लिक करना होगा....
कहीं आप के पेस्ट मंजन में भी तो तंबाकू नहीं....(इसी लेख का एक अंश)
अगर आप इन तंबाकू वाले मंजनों आदि के बारे में कुछ विस्तार से पढ़ना चाहें कि वे किस तरह से हमें खोखला किए जा रहे हैं तो ऊपर या नीचे दिए गये लिंक पर क्लिक कर के देखिएगा।
मुझे सब से खौफनाक बात यह लगती है कि कुछ मंजन ऐसे हैं जिन्हें लोग इस्तेमाल तो कर रहे हैं लेकिन उन्हें पता नहीं है उन में तंबाकू मिला हुआ है. मैं इसी स्टडी की चंद पंक्तियों का एक स्क्रीन-शॉट चिपका रहा हूं, इसे ज़रूर देखें.........ताकि अगर आप भी इस तरह का कोई ब्रेंडेड मंजन वंजन घिस रहे हैं तो आप का भी मोहभंग हो जाए।
वैसे लिंक यहां भी लगा दिया है ....

यादाश्त ऐसी बढ़ने लगी तो हो गया...


आज सुबह जब नवभारत टाइम्स पेपर देखा तो उस में किंग जार्ज मैडीकल यूनिवर्सिटी के डाक्टरों द्वारा किया गया एक शोध पढ़ने को मिला. पढ़ कर अच्छा लगा कि किस तरह से ये चिकित्सा संस्थान जनमानस में व्याप्त विभिन्न भ्रांतियों का भंडा-फोड़ करने में लगे हैं......
ऐसा है ना जब बिना रिसर्च किए कोई इस तरह की दवाईयों के बारे में लिखेगा, तो उस पर ही उंगलियां उठनी शुरू हो जाती हैं लेकिन केजीएमयू जैसी संस्था में अगर इस तरह की रिसर्च हुई और उस का नतीजा यही निकाल की इस तरह की दवाईयां सब बकवास हैं, कुछ होता वोता नहीं इन से.......अगर इस तरह की स्टडीज़ को हम लोग जनमानस तक पहुंचा दें तो बात बनती दिखती है।
आशीष तिवारी की यह रिपोर्ट देख कर अच्छा इसलिए भी लगा क्योंकि बड़ी सरल सटीक भाषा में इन्होंने रिपोर्ट को लिखा है।
वैसे मुझे इस खबर को देखते ही ध्यान आया कि मैंने भी इस विषय पर एक लेख लगभग एक-डेढ़ वर्ष पहले लिखा तो था....सेहतनामा को खंगाला तो दिख ही गया, इसका लिंक यहां चसपा कर रहा हूं। देखिएगा, इस लिंक पर क्लिक करिए................. अच्छे ग्रेड पाने के लिए इस्तेमाल हो रही दवाईयां
और अगर इतना सब कुछ पढ़ने पर भी बात बनती न दिखे तो हाथ कंगन को आरसी क्या, गूगल कर लें...  लिखिए .. memory plus
मैं यह सोच रहा हूं कि इस तरह की खबरें, इस तरह के लेख हम लोगों को अपनी ओपीडी में डिस्पले कर देने चाहिए...अगर कुछ लोग भी इन्हें पढ़ कर इन बेकार के टोटकों से बच पाएं तो हो गई अपनी मेहनत सफल।
ध्यान तो यह भी आया कि यार अगर याददाश्त इस तरह से बढ़ती तो फिर ये भी देश के चुनिंदा लोगों की ही बढ़ पाती ---वही लोग इन चीज़ों का स्टॉक भी कर लेते और पानी की जगह शायद इन्हें ही पी लेते. लेकिन दोस्त, ऐसे नहीं होता......................थैंक गॉड सभी अत्यावश्यक वस्तुएं प्रकृति ने अपने सीधे कंट्रोल में ही रखी हुई हैं.............
memory 001                                                                        (आप को इस रिपोर्ट को अच्छे से पढ़ने के लिए इस पर क्लिक करना होगा)

हिस्ट्रैक्टमी पर चर्चा गर्म है...


हिस्ट्रैक्टमी के बारे में तो आप सब जानते ही हैं ..महिलाओं में किया जाने वाला आप्रेशन जिस में उन का युटर्स (uterus) –आम बोलचाल की भाषा में जिसे बच्चेदानी कहते हैं—पूरी तरह या कुछ भाग निकाल दिया जाता है और कईं बार इस के साथ महिला के अन्य प्रजनन अंग जैसे कि ओवरी, सर्विक्स, एवं फैलोपियन ट्यूब्स भी निकाल दी जाती हैं।
मैंने बहुत बार इस तरह की चर्चाएं होती सुनी हैं जिस में इस बात का उल्लेख आता है कि फलां फलां महिला चिकित्सक तो किसी अस्पताल में सर्जरी में हाथ साफ़ करने आती है—कहने का मतलब यही होता है कि सिज़ेरियन आप्रेशन (डिलीवरी हेतु किया जाने वाला बड़ा आप्रेशन) और हिस्ट्रैक्टमी आदि के लिए। कोई माने या ना माने सरकारी अस्पतालों में यह सब करने की एक तरह से खुली छूट सी होती है। कोई पूछ के देखे तो इस मरीज़ में फलां फलां आप्रेशन करने की इंडिकेशन क्या थीं? …..तेरी यह मजाल कि अब तूने डाक्टरों के निर्णय को चुनौती देनी शुरू कर दी।
जो भी हो, पब्लिक भी बेवकूफ़ नहीं है, वह भी अखबार पढ़ती है, इलैक्ट्रोनिक मीडिया से जुड़ी रहती है, सब समझती है लेकिन फिर भी जब कोई बीमारी आ घेरती है तो कमबख्त उस की कहां चलती है। ना कुछ समझ, ना कुछ निर्णय लेने की ताकत, ना ही ऐसा सामाजिक वातावरण, विशेषकर महिलाओं के मामले में तो स्थिति और भी चिंताजनक है।
महिलाओं में कुछ आप्रेशन होने हैं तो इस का निर्णय ‘दूसरे’ करेंगे, अगर कुछ नहीं करवाने हैं तो भी वह स्वयं नहीं लेती यह निर्णय, यहां तक किसी महिला तकलीफ़ के लिए डाक्टर के परामर्श लेना है कि नहीं, यह फैसला भी उस के हाथ में नहीं।
इन सब बातों का ध्यान मुझे दो चार दिन पहले तब भी आया जब मैंने एक खबर देखी कि नैशनल फैमली हैल्थ सर्वे में हिस्ट्रैक्टमी से संबंधित डैटा इक्ट्ठा करने की मांग की जा रही है। पाठक स्वयं इस बात का अनुमान लगा सकते हैं कि स्थिति कितनी विकट होगी कि सेहत से जुड़े सक्रिय कार्यकर्ताओं को इस तरह की मांग उठानी पड़ी।
हैल्थ एक्टिविस्टों की मांग इसलिए है कि एक बार आंकड़े पता तो लगें ताकि इस सूचना को इस आप्रेशन के लिए तैयार किए जाने वाले दिशा-निर्देशों (guidelines) के लिए इस्तेमाल किया जा सके।
“The demand comes following concern over rising cases of hysterectomies reported from across the country, particularly among younger women, and by some unscrupulous doctors for monetary gains”
अधिकतर फैमली प्लानिंग आप्रेशन तो होते हैं सरकारी संस्थाओं में लेकिन 89प्रतिशत के लगभग हिस्ट्रेक्टमी आप्रेशन प्राईव्हेट अस्पतालों में होते हैं… इस का मतलब तो यही हुआ कि सरकारी सेहत तंत्र केवल राष्ट्रीय सेहत कार्यक्रमों तक ही सीमित है और अन्य सेहत से संबंधित मुद्दे में इस की रूचि नहीं है……………यह मैं नहीं कह रहा हूं, पेपर में ऐसा साफ़ लिखा है..
Majority of tubectomies are performed in public health system, where as 89 per cent of hysterectomies were conducted in private.  This indicates that public health system is meant only for national programme and less interested in other health programme. This also raises questions whether hysterectomies are justified and whether the higher percentage of hysterectomies in the private sector reflect economic and commercial interest of some groups.”
आंध्रप्रदेश में एक स्टडी की गई थी जिस के अनुसार जिन महिलाओं का हिस्ट्रेक्टमी आप्रेशन किया गया उन में से 31.2 प्रतिशत महिलाएं ऐसी थीं जिन की उम्र 30 साल से कम थी, 52 प्रतिशत महिलाएं 30-39 वर्ष की ब्रेकेट में थीं, जब कि 83प्रतिशत महिलाओं में यह आप्रेशन रजोनिवृति से पहले (pre-menopausal) ..उन की चालीस वर्ष की अवस्था से पहले किया जा चुका था।
यह खबर जिस दिन देखी, उस के अगले ही दिन –20 अगस्त 2013 की अखबार में यह खबर दिख गई कि अब हिस्ट्रेक्टमी आप्रेशन से संबंधित जानकारी को नेशनल फैमली हैल्थ सर्वे में शामलि कर लिया गया है. अच्छा है, इस से संबंधित आंकड़े मिलेंगे तो इस से संबंधित गाईड-लाइन तैयार करने में मदद मिलेगी। इस रिपोर्ट में यह भी लिखा है..
“ It was pointed out that unscrupulous doctors were performing hysterectomies on pre-menopausal and even women younger than 30 years for monetary gains”.
महिलाओं के प्रजनन अंगों से जुड़ी समस्याओं का केवल बच्चेदानी निकाल देना ही समाधान नहीं है, इस के लिए विभिन्न मैडीकल उपचार भी उपलब्ध हैं, और हैल्थ ग्रुप्स द्वारा यह मांग भी अब आने लगी है कि इस तरह के आप्रेशन का मशविरा महिलाओं को तभी दिया जाए जब इलाज के बाकी सभी विकल्प कामयाब नहीं हो सके।
औरतें की सेहत के बारे में सोचे तो भी यह एक छोटा मोटा फैसला नहीं है, कम उम्र की महिलाओं में बिना ज़रूरत के केवल कमर्शियल इंटरेस्ट के लिए हिस्ट्रैक्टमी आप्रेशन करने से उन महिलाओं में अन्य शारीरिक बीमारियां जैसे की दिल से संबंधित रोग आदि होने का रिस्क बढ़ जाता है।
लिखते लिखते दो किताबों का ध्यान आ गया …
Whose health is it anyway?
Taking health in your hands
एक्टिविस्ट कर रहे हैं अपना काम लेकिन क्या ही अच्छा हो कि देश में महिलाओं की साक्षरता दर भी खूब बढ़े – साक्षरता रियल वाली …जो नरेगा के लिए अपना नाम लिखने तक ही सीमित न हो, ताकि महिलाओं अपने फैसले स्वयं लेने में सक्षम हो पाएं और प्रश्न पूछने की ज़ुर्रत तो कर सकें…. आमीन!!
Source ..

डाक्टरों का वेतन काटे जाने का फरमान...



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आज सुबह नवभारत टाइम्स खोला तो दूसरे ही पन्ने पर इस फरमान के दर्शन हो गए।
सोच में पड़ गया मैं कि जितनी मैं हास्पीटल एडमीनिस्ट्रेशन समझ पाया, उस में मुझे तो कभी डाक्टरों की गुणवत्ता के आंकलन का इस तरह का कोई मापदंड दिखा नहीं, और पिछले तीन दशकों में इस तरह के मापदंड के बारे में सुना भी नहीं।
यहां तक कि मैडीकल ऑडिट में भी कभी यह नहीं देखा कि पढ़ाया जाता हो कि डाक्टरों द्वारा कितने मरीज़ देखे गये, यह भी कोई क्वालिटी मैनेजमेंट का इंडीकेटर हो सकते हैं…….सीधी सी बात है, कितने मरीज़ देखे हैं, कितने का इलाज हुआ है, कितना को डिस्पोज़ ऑफ किया गया है, यानि कि कुछ भी……….अगर कोई इस तरह की बात की खबर ले सकता है तो केवल मैडीकल ऑडिट…
ओह हो, मैं भी किन चक्करों में पड़ गया, आज कल तो वैसे ही कुछ डाक्टर ८०- १०० -११० मरीज़ एक दिन में देखते हैं (यह भी एक रहस्य से कम नहीं  है) , ऐसे में अगर इन लोगों ने आने वाले समय में तीन गुणा सेलरी की मांग शुरु कर दी तो … या इतना ही कहना शुरू कर दिया कि जिस की सेलरी काट रहे हो, उस के मरीज़ जिस ने देखे, उस डाक्टर की सेलरी में वो रकम भी जोड़ी जाए…
और क्या लिखूं … सरकारी आदेश है तो इस का पालन भी होगा ही। मुझे कुछ विशेष टिप्पणी सूझ नहीं रही है या मैं वैसे ही चुपचाप बैठ कर यह गीत सुनना चाह रहा हूं, आप भी सुनेंगे?

बलात्कार केस में पोटैंसी टेस्ट बोलें तो...


अभी न्यूज़ देख रहा था …खबर आ रही है कि बलात्कार के कथित दोषी का पोटैंसी टेस्ट किया जायेगा। इस तरह के टेस्ट के बारे में जनता के बारे में कईं प्रश्न होंगे। डीएनए टैस्ट आदि के बारे में तो आपने एक वयोवृद्ध राजनीतिज्ञ के केस में खूब सुना.. एक युवक ने जब यह क्लेम किया कि वह राजनीतिज्ञ उस का पिता है… खूब ड्रामेबाजी हुई … बहुत बार .. शायद कितने वर्ष तो उस नेता का ब्लड-सैंपल लेने में ही लग गये थे, कितनी बार कोर्ट ने आदेश दिया तब कहीं जा कर उस का सैंपल लिया जा सका। आगे की कहानी आप जानते ही हैं…….
आज जब टीवी पर देखा कि एक अन्य वयोवृद्ध जिस के ऊपर बलात्कार का आरोप लग रहा है, इस का पुलिस के द्वारा पोटैंसी टेस्ट करवाया जायेगा।
इस संक्षेप सी पोस्ट के माध्यम से मैं इस पोटैंसी टेस्ट के बारे में बताना चाहूंगा क्योंकि इस केस में शायद गूगल अंकल भी कम ही मदद कर पाएगा। आप स्वयं सर्च कर के देखिए ..अगर आप इंगलिश में मेल पोटैंसी टेस्ट लिखेंगे तो आप भी उस में दिये गए लिंक्स पर जा कर शायद यही समझने लगेंगे कि पोटैंसी का मतलब है कि उस व्यक्ति में कितने शुक्राणु हैं या फिर उन की गुणवत्ता कैसी है, लेकिन यह पोटैंसी टेस्ट नहीं है, इसे फरटिलिटी टैस्ट कहते हैं जिस के द्वारा यह पता चल पाता है कि टैस्ट करवाने वाले व्यक्ति के स्पर्मस् की संख्या और गुणवत्ता आदि कैसी है ..क्या इस के वीर्य से किसी शिशु का जन्म हो सकता है?
लेकिन पोटैंसी टेस्ट यह नहीं है, वह अलग है.. इम्पोटैंट शब्द तो आपने बहुत बार सुना ही होगा अर्थात् कोई बंदा जो संभोग न कर सके …देसी शब्दों में कहें तो जिस व्यक्ति को इरैक्शन होने में या इरैक्शन को सस्टेन करने में दिक्कत हो एवं इस से संबंधित अन्य कुछ बातें…. इसलिए पोटैंसी टेस्ट के माध्यम से इस बात का पता लगाया जाता है कि क्या यह व्यक्ति किसी के साथ संभोग करने के योग्य भी है या नहीं?
मैं विकिपीडिया का एक लिंक यहां दे रहा हूं (इस पर क्लिक करें) जिस में आप को पत चल जायेगा कि यह पोटैंसी टेस्ट किस तरह से होता है ….. विभिन्न प्रकार के टैस्ट हैं और जब केस किसी हाई-प्रोफाइल का हो तो पुलिस भी कोई चांस लेना नहीं चाहती।
Screen Shot 2013-09-01 at 8.08.03 PMहां, ध्यान आया अभी कुछ हफ्ते पहले ही की तो बात है जब मध्य प्रदेश के एक मंत्री द्वारा उस के नौकर के यौन उत्पीड़न के मामले में भी इस पोटैंसी टेस्ट करवाने की बात मीडिया में खूब चर्चा में रही थी।
ठीक है, with profound regards and sympathies to the person who have some problem with their erection, with all humility … मैं यही कहना चाहता हूं कि कईं बार ऐसे केस मीडिया में दिखते ही हैं जिन के बारे में एक प्रश्न सा मन में उठ ही जाता है कि क्या यह बंदा संभोग करने के काबिल होगा………लेकिन एक बात तो है कि अगर कोई  भी व्यक्ति संभोग के काबिल नहीं भी है, आरोप लगाने वाली किसी महिला से इंटरकोर्स न भी कर पाया तो फिर अगर कोई युवती इस तरह का आरोप लगाती है ….मैं यही सोच कर स्तब्ध हूं कि अगर कल को किसी आरोपी का पोटैंसी टैस्ट निगेटिव आ जाए (मान लीजिए) लेकिन अगर वह बंदा किसी नाबालिग बच्ची के साथ एक डेढ़-घंटा अपने ही ढंग से हवस ठंडी करता रहा हो तो क्या यह रेप नहीं है, यह एक बड़ा प्रश्न तो है ही………..जब उस निर्भया कांड के बारे एक सख्त कानून की ज़रूरत की बात चली थी तो इस तरह की चर्चा भी चली तो थी …क्या मेल पैनीट्रेशन को ही बलात्कार माना जाना चाहिए.  पता नहीं फिर फाईनली क्या निर्णय लिया गया होगा, लेकिन यह सब कुछ कितना अजीब लगता है ना … कुछ तो नॉन-पैनीट्रेशन की आड़ में बच जाएं और कुछ इस चक्कर में कि अभी वे तो बच्चे हैं, वे तो १८साल के कम हैं, इसलिए उन के साथ नर्मा बरती जाए…………..धत तेरे की, बच्चे काहे के बच्चे, कमबख्त शैतान की औलाद किसी युवती का शील भंग कर दें लेकिन फिर भी बच्चे … तो इन सालों को घर में ही जंज़ीर से बांध कर रखो……….
कानूनी मामले बहुत ही पेचीदा हैं ना.. हम शायद ही कल्पना भी कर पाते होंगे कि जो युवतियां एवं महिलाएं किसी की भी दरिंदगी का शिकार होती हैं, उन पर सारी उम्र क्या बीतती होगी।.

एक भयानक किस्म की दलाली...


आज सुबह मैंने कुछ समय पहले मेल खोली तो एक मेल दिखी किसी पापुलर पोर्टल से कि आप बच्चों की इम्यूनिटी के बारे में लिखो और बहुत से इनाम आप का इंतज़ार कर रहे हैं।
मैंने आज तक कभी इस तरह के आमंत्रण पर कुछ भी नहीं लिखा, क्योंकि ऐसे हरेक केस में एक लोचा तो होता ही है…और सब से बड़ी बात यह कि इस तरह से कोई कहे कि इस पर लिखो …इस पर यह कहो….यह मुझ से बिल्कुल भी नहीं होता और एक तरह से अच्छा ही है। सिरदर्द होता है कि कोई कमर्शियल इंटरेस्ट वाली साइट तरह तरह के इनामों का प्रलोभन देकर कहे कि यह लिखो, वो लिखो………सब बेकार की बातें हैं।
अपने लेखन में पूरी इमानदारी बरती है इसलिए अपने बच्चों को भी उन्हें पढ़ने को कह देता हूं… वे भी ज़रूरत पढ़ने पर मेरे लेखों को खंगालने लगते हैं, ऐसे में कैसे इस तरह के प्रायोजित लेखन के लिए हामी भर दूं।
अच्छा तो जब पढ़ा कि यह लेख बच्चों की इम्यूनिटी के बारे में है कि उन की इम्यूनिटी कैसे बढ़ाई जाए….तो ध्यान आया कि चलो यार इस पर लेख ज़रूर लिखेंगे, इनामों की तो वैसे ही कौन परवाह करता है, मैकबुक प्रो पर काम कर रहा हूं …और वहां तो मैकबुक एयर ही पहला ईनाम है।
मेरी मेल पर एक लिंक था कि लेख लिख कर इस लिंक पर जा कर सब्मिट करें। जिज्ञासा वश मैंने उस लिंक पर क्लिक किया … तो सारा माजरा समझ में आ गया.. जो वेबपेज खुला उस पर इस प्रतियोगिता से संबंधित कुछ नियम लिखे थे …लेकिन एक सब से अहम् नियम यह था कि जो भी लेख भेजा जाये उस में फलां फलां टॉनिक का लिंक होना ज़रूरी है।
बात समझते देर न लगी कि यह भी पब्लिक को गुमराह करने का एक गौरखधंधा ही है, जो भी बच्चों की इम्यूनिटी पर लेख पढ़ेगा और उस के अंदर ही एक विशेष किस्म के टॉनिक का लिंक देखेगा तो वह कैसे उसे खरीदे बिना रह पायेगा।
हो सकता है कि साइट चलाने वालों की अपनी अलग तरह की मजबूरी हो, हो तो हो, मुझे क्या, लेकिन अगर हम लोग किसी भी विषय के जानकार इस तरह की दल्लागिरी में पड़ने लगें तो आम आदमी का क्या होगा, यह सोच कर डर लगता है। इस तरह का प्रायोजित लेखन भी एक भयानक दल्लागिरी से क्या कम है………. जब मैंने अपने बच्चों को ही वह टॉनिक कभी नहीं दिया, उस को अफोर्ड भी कर सकते थे, मैं इस तरह के सप्लीमैंट्स का हिमायती ही नहीं हूं ….तो फिर औरों को क्यों इन चक्करों में डाला जाए। वैसे भी देश के बच्चों को टॉनिक नहीं, रोटी चाहिए…….!
यह तो नेट था, लेकिन आज कल कोई भी मीडिया देख लें, हर तरफ़ बाज़ार से ही सजे दिख रहे हैं, समाचार पत्रों में चिकित्सा से जुड़े रोज़ाना बीसियों विज्ञापन यही दुआ मांग रहे दिखते हैं कि कब कोई खाता-पीता बंदा बीमार पड़े और कब हम उन्हें अस्पताल के बिस्तर पर धर दबोचें……….सब तरह के कमबख्त गोरखधंधे चल रहे हैं, बच के रहना भाई….
दुआ करता हूं कि आप हमेशा सेहतमंद रहें। इम्यूनिटी की चिंता न करें, अगर पेट ठीक ठाक खाने से भरने लगेगा….जंक फूड को निकाल कर…तो इम्यूनिटी भी अपने आप आ ही जायेगी। मस्त रहो,खुश रहो…