गुरुवार, 19 दिसंबर 2013

बात आस्था की..


मुझे आज एक बार फिर से यह अहसास हुआ कि हमारी उम्र इतनी बड़ी हो गई लेकिन हम लोग अपने देश के बारे में कितना कम जानते हैं, कुछ खास नहीं जानते।  चलिए आप से पूरी बात साझी कर लेता हूं।
मैं आज शाम को साईकिल पर टहल रहा था, साईकिल की एक दुकान पर रूक गया.. उस की ब्रेक ठीक से नहीं लग रही थी। यह साईकिल की दुकान एक मस्जिद के दरवाजे के बिल्कुल बाहर है।
शाम की अज़ान का समय होने वाला था, तो मस्जिद के गेट पर कुछ महिलाएं इक्ट्ठी होनी शुरू हो गईं.. दो-तीन-चार..पांच..इन की गिनती बढ़ती जा रही थी। और लगभग हर महिला की गोद में एक छोटा सा बच्चा दिखाई दिया।

lko1जैसा कि अकसर होता है ..मेरे जैसे लोग आज कल कुछ ज़्यादा ही टैक-सेवी होने का ढोंग करते दिखते हैं ..है कि नहीं? …इसलिए मैं उस साईकिल की दुकान के जिस बैंच पर बैठा हुआ था, वहां से एक तस्वीर खींच ली, जिसे आप यहां ऊपर देख रहे हैं।
और तुरंत इसे फेसबुक पर अपलोड कर दिया। और उस फोटो के साथ अपनी बेवकूफ़ी से भरी बात भी कह डाली.. अंग्रेज़ी में …लखनऊ के किसी धार्मिक स्थल के बाहर दानवीरों की इंतज़ार में।
इतने में क्या हुआ … नमाज़ अदा करने के बाद बंधु बाहर निकलने शुरू हो गये.. मैं देखना चाह रहा था कि क्या ये लोग इन महिलाओं को कुछ दान-वान देंगें क्या ! किसी को देखा नहीं किसी को दान देते लेकिन अचानक मैंने देखा कि ज़्यादातर मुस्लिम भाई-बुज़ुर्ग जो बाहर निकल रहे थे ..वे हर महिला के बच्चे के मुंह पर फूंक मार कर आगे निकल रहे थे। दो-तीन-चार — मेरी उत्सुकता बढ़ती गई… यार, यह क्या चल रहा है, मेरे से रहा नहीं गया। सब से पहले तो इस तस्वीर को मैंने फेसबुक पेज़ से तुरंत डिलीट किया क्योंकि यह बात वह नहीं थी जो मैं सोच रहा था।
उस साईकिल रिपेयर दुकानवाला भी मुस्लिम भाई था। मैंने उस से पूछा कि ज़रा यह तो बताओ कि ये लोग हर बच्चे के मुंह के ऊपर फूंक क्यों मार रहे हैं। उस ने तुरंत जवाब दिया… जिन बच्चों को नज़र जल्दी लग जाती है, उन की  माताएं अपने बच्चों की नज़र उतरवाने के लिए शाम की नमाज़ के समय इन्हें ले कर यहां आती हैं… और इस से इन के बच्चों को नज़र नहीं लगती।
दुकानदार ने आगे बताया कि यह फूंक मारने तक तो ठीक है, लेकिन कुछ माताएं पानी या दूध के गिलास भी साथ लेकर आती हैं, और फिर उन में भी फूंक मरवाने की ख्वाहिश रखती हैं। लेकिन उस ने बताया कि वह उन को ऐसा दूध या पानी में फूंक मरवाने से मना करता रहता है। मेरे प्रश्न को भांप लिया शायद उसने…अपने आप ही कहने लगा कि आप स्वयं ही देखो कि मेरे जैसा ५० का आदमी दूध-पानी में फूंक मारेगा तो ज़रासीम (कीटाणु) भी १-२ साल के बच्चों के शरीर में जाने के इमकाईनात रहते हैं। मैं उस की बात ध्यान से सुन रहा था……कहने लगा कि हमें तो अपने बच्चों का भी मुंह नहीं चूमना चाहिए….कहने लगा मुंह से मतलब कि ऐसे नहीं चूमना चाहिए कि हमारी लार बच्चे के मुंह में चली जाए……..मैं उस की बात से पूरी तरह इत्तफाक रखता हूं।
मैं यही सोचने लगा कि बातें तो यह सारी बड़े पते की कर रहा है… अभी मैं इतनी बात कर ही रहा था कि देखते ही देखते जो १०-१२ बच्चों वाली महिलाएं तुरंत अपने अपने घर लौट रही थीं।
एक बात ध्यान से मैंने नोटिस की ये सभी मुस्लिम वर्ग की महिलाएं ही न थीं, जो मैंने समझा। इस देश में आम आदमी तो बिल्कुल प्रेम, भाईचारे और तखल्लुस से रहते हैं, मैं देख रहा था जिस शिद्दत से वे नमाज़ी बंधु इन बच्चों के चेहरों पर फूंक मार रहे थे ..ऐसे लग रहा था कि इन के अपने ही बच्चे हैं ये सब। अच्छा लगा यह सब देख कर।
मैं सोच रहा था कि हमें स्वयं भी और अपने बच्चों को भी सभी धर्म के धार्मिक स्थलों पर लेकर जाना चाहिए….इस से हमें एक दूसरे को अच्छे से समझने में मदद मिलेगी, प्यार बढ़ेगा। लेकिन जो अकसर देखने में आता है कि एक धर्म का बंदा दूसरे धर्म के धार्मिक स्थान से इस तरह से थोड़ा झिझक कर, शायद थोड़ा कहीं न कहीं डर कर निकलता है जैसे कर्फ्यू लगा हुआ है। नहीं, यह झिझक हमें दूर करनी होगी…….मैं जितना मंदिर में जाना पसंद करता हूं, उतना ही गुरूद्वारे और चर्च में जाना भी मुझे अच्छा लगता है, पीरों की जगह पर, दिल्ली की जामा मस्जिद (बाहर बाहर से), हज़रत निजामुद्दीन ओलिया,  बंबई के हाली अली दरगाह पर जा चुका हूं, इधर लखनऊ में बड़े इमामबाड़े में स्थित मस्जिद में ही हो कर आया हूं. लेकिन सोचता हूं मस्जिदों में और भी जाना चाहता हूं……..
लेकिन आप को अपना अनाड़ीपन  बता दूं …मुझे यही नहीं पता कि क्या गैर मुस्लिम समुदाय के लोग मस्जिद में जा कर प्रार्थना कर सकते  हैं, शायद मेरी यही झिझक है, मुझे यह भी नहीं पता कि वहां पर किस तरह से सजदा करते हैं, बस यही बातें रोक लेती हैं…और हिमाकत से भरी यह बात कि आज लिखते हुए इस बात का ध्यान आ गया ..कभी किसी से इस के बारे में चर्चा करने की शायद ज़रूरत ही नहीं समझी…… बड़े इमामबाड़े में भी जिस समय गया वहां पर मस्जिद बिल्कुल खाली पड़ी थी। लेकिन मुझे पता है कि किसी भी धार्मिक जगह पर कोई कोड-ऑफ-कंडक्ट नाम की चीज़ नहीं होती, हम अपने मन में ही ख्यालों का पुलाव बना कर पकाते रहते हैं।
चलिए अब सोचता हूं कि अपने मित्र ज़ाकिर अली के साथ मस्जिदों में खूब जाऊंगा।
और एक बात, यह पोस्ट आस्था की थी, मैंने साईंस के बारे में कोई बात नहीं की…..इस की साईंस पर किसी दूसरे दिन बात कर लेंगे, क्या जल्दी है। बस, अभी तो इतना ध्यान आ रहा है कि नज़र तो हमारी भी उतरती रही है, कभी मां ने तो कभी उम्र में १० वर्ष बड़ी बहन बचपन में मुझे अच्छे से तैयार-वैयार कर के, केश सज्जा कर के और पावडर इत्यादि लगा कर मेरे मुंह पर सुरमचू (सुरमे दानी का वह हिस्सा जिस से हम सुरमा डाला करते थे) से नज़र बट्टू कभी कभी लगा दिया करती थीं….. बुरी नज़र से बचाने के लिए।

बुधवार, 11 दिसंबर 2013

बदल गईं दवाईयां भी आज

कल मेरी एक महिला मरीज़ ने मुझ से पूछा कि क्या उसे अस्पताल से खुला माउथवॉश मिल जायेगा। मेरे जवाब देने से पहले ही उसे याद आ गया कि वह तो शीशी लाई ही नहीं।

अचानक मुझे भी ४० वर्ष पहले का ज़माना याद आ गया जब कुछ सरकारी अस्पतालों में जाते वक्त लोग कांच की एक दो बोतलें साथ लेकर जाते थे ..पता नहीं डाक्टर कोई पीने वाली दवाई लिख दे तो!

हमारे मोहल्ले में एक आंटी जी रहती थीं..जिन का प्रतिदिन यह नियम था कि सुबह नाश्ते के बाद उन्होंने हमारे पास ही के एक अस्पताल में जाना ही होता था, मुझे अच्छे से याद है कि उन के पास एक खाकी रंग का थैला (पुरानी पैंट से निकाला गया) हुआ करता था जिस में वह एक दो कांच की शीशीयां अवश्य लेकर चलती थीं।

वैसे तो हम लोग उस अस्पताल में कम ही जाते थे क्योंकि न तो वहां पर डाक्टर ढंग से बात ही करते थे ...मरीज़ की तरफ़ देखे बिना उस की तकलीफ़ पूरी सुने बिना...वे नुस्खा लिखना शुरू कर देते थे। हां, कभी कभी आते थे ऐसे भी डाक्टर जो ढंग से पेश आते थे लेकिन अच्छे लोगों की हर जगह ज़रूरत रहती है, जल्द ही उन की बदली हो जाया करती थी। और दूसरी बात यह भी उस अस्पताल में कि वहां पर गिनती की दो-तीन दवाईयां ही आती थीं...एपीसी, सल्फाडायाजीन, टैट्रासाईक्लिन, खाकी गोलियां-- खांसी की और दस्तों को दुरूस्त करने वालीं, खांसी का मीठा शर्बत, बुखार की पीने वाली दवाई...बस, .......नहीं नहीं मच्छी के तेल वाली छोटी छोटी गोलियां ...ये हर एक के नसीब में न हुआ करती थीं। लेकिन हम लोग पट्टी करवाने और टीका लगवाने वही जाते थे।

हम लोग जब भी कभी उस अस्पताल में जाते थे तो वह आंटी हमें ज़रूरत मिलती ... जब वह दवाई ले भी चुकी होतीं तो भी वहां पर किसी न किसी लकड़ी के बैंच पर किसी औरत से बतियाती ही मिलती। अब मुझे उस आंटी का नाम तो याद न था, लेकिन एक बात अच्छे से याद थी उस के बारे में कि सारे मोहल्ले में वह लाल-ब्लाउज वाली महिला के नाम से जानी जाती थीं, क्योंकि वह हमेशा लाल-सुर्ख ब्लाउज़ ही पहने दिखती थीं, ऐसा क्यों करती थी, यह मेरा विषय नहीं है। कल रात ही में मुझे वर्षों बाद जब उस आंटी का ध्यान आया तो मैंने अपनी मां से इतना ही कहा, बीजी, आप को याद है वह लाल-ब्लाउज वाली आंटी.......मेरी मां हंसने लगीं और कह उठीं...हां हां, जो रोज़ अस्पताल ज़रूर जाया करती थीं...वह बड़ी हंसमुख स्वभाव की थीं।

न तो डाक्टर ढंग से बात ही करते, न ही ढंग की दवाईयां, और ऊपर से दवाईयां बिना पैकिंग वाली। किसी कागज़ में लपेटी हुई दवाई दी जातीं। जल्द ही कागज़ से इस कद्र चिपक जातीं कि उन्हें बाहर नाली में ही फैंक दिया जाता। मछली के तेल वाली गोलियों के साथ भी कुछ कुछ ऐसा ही होता था। लेकिन वह खांसी की और बुखार की पीने वाली रंग-बिरंगी दवाई खूब पापुलर थीं, महीने में कुछ दिन ही वे मिलती थीं लेकिन जबरदस्त क्रेज़ था। खांसी और बुखार तो तब तक ठीक ही न होते थे जब तक इन दवाईयों को पी नहीं लिया जाता था। वैसे इन दवाईयों को अधिकतर लोग दारू की खाली कांच की बोतले में ही लेकर आते थे...सभी के कपड़ों के थैलों में एक खाली दारू का पौवा या अधिया होना ज़रूरी होता था, वैसे लोग अधिया उस फार्मासिस्ट के आगे सरकाते कुछ झिझक सी महसूस किया करते थे। लेकिन जो व्यवस्था थी सो थी, वह मैंने ज्यों की त्यों आपके सामने रख दी है।

खाने या पीने वाली दवाई लेने के बाद अगर उस कंपांउडर से पूछ लिया कि यह खानी कैसे है तो वे इस तरह से भड़क जाते थे जैसे किसी ने उन्हें गालियां दे डाली हों.. लोग भी सहमे सहमे से उन को भड़काते न थे, जैसे समझ में आया खा लेते थे वरना खुली नालियां तो हर घर के सामने हुआ ही करती थीं।

एक बात जिसे मैं हमेशा याद करता हूं ..उस अस्पताल की एक लेडी हैल्थ-विज़ीटर ...मुझे याद है वह किस तरह से हम सब के घर जा जा कर मलेरिये की गोलियां दे कर जाती थीं। मेरी मां को एक बार मलेरिया हो गया, सत्तर के दशक की बात है, और घर ही आकर पहले तो वह एक स्लाईड तैयार करतीं और फिर अगले तीन-चार दिन तक रोज़ाना आकर अपने सामने मलेरिया की दवाई खिला कर जाया करतीं.......वह यह सब काम अपने लेडी-साईकिल पर किया करती थीं। उस महिला की डेडीकेशन भी कहीं न कहीं मेरे लिए इंस्पिरेशन रही होगी। हम लोग अकसर उसे याद करते हैं....

हर एक के साथ अच्छे से बात करना, उसे हौंसला देना और मरीज़ को चाहिए क्या होता है, दवाई तो जब अपना काम करेगी तब करेगी। मैं जिस अस्पताल की बात कर रहा हूं वहां पर एक एमबीबीएस लेडी डाक्टर भी हुआ करती थीं, मुझे एक बार बुखार हो गया, १०-१२ साल की अवस्था होगी, मुझे याद है वह मुझे घर देखने आई........आते ही ...उसने यह कहा.....ओ हो, इतना ज़्यादा बुखार........अब डाक्टर के मुंह से ऐसे शब्द मेरे बाल मन इन का मतलब न समझ पाए हों, लेकिन मैं अपने पिता जी के मुंह पर हवाईयां उड़ती ज़रूर देखी थीं कि कहीं यह मरने वाला तो नहीं.....वे मुझे तुरंत एक प्राईव्हेट डाक्टर कपूर के पास ले गये ....उन का मरीज़ों को ठीक करने का अपना अनूठा ढंग था.... सब से ज़्यादा अच्छे से बात सुनने, समझाने और हौंसला देने का अनूठा ढंग.......मैं अगले ही दिन ठीक हो गया।

कांच की दवाई वाली शीशीयों से ध्यान आया कि अमृतसर के पुतलीघर चौक में एक बहुत जैंटलमेन डाक्टर कपूर हुआ करते थे जो दिखने में भी अपने ढील-ढौल से, अपनी बातचीत से भी डाक्टर दिखते थे। वे बहुत काबिल डाक्टर थे, हरफनमौला थे, हर बीमारी का इलाज करते थे.....फैमली डाक्टर की एक परफैक्ट उदाहरण। मुझे याद है ..एक बार मेरी आंख में कुछ चला गया, लाली आ गई, पानी से धोने के बाद भी वह नहीं निकला, शायद कुछ लोहे का कण सा था..रिक्शा लेकर मेरी मां मुझे वहां तुरंत ले गईं.....उन्होंने तुरंत ऊपर की पुतली को पकड़ा और शायद कुछ चुंबक-वुंबक हाथ में लिया ...मुझे नहीं पता क्या था, लेकिन अगल ही क्षण मैं ठीक हो गया।

डाक्टर कपूर पुरानी डिग्री वाले डाक्टर थे, होता था ना कुछ लाइसैंशियट-वियट वाली डिग्री.......हां, जो सब से अहम् बात मैंने उन के क्लिनिक के बारे में बतानी है वह यह कि वे नुस्खा लिखते जिसे हम एक खिड़की पर जाकर उन के कंपांउडर के हाथ थमाते......वह चंद मिनटों में हमें खाने की गोलियां और पीने वाली दवाई की एक -दो शीशीयां थमा देता। कांच की शीशियां जिन पर कागज़ का एक स्टिकर भी लगा रहता कि एक बार में दवाई की कितनी खुराक पीनी है। यह जो मैंने कांच की शीशी की तस्वीर ऊपर लगाई है ...ये डाक्टर कपूर के द्वारा हमें दी जाने वाली शीशीयां भी कुछ इसी तरह की ही हुआ करती थीं जैसी कि आप पहली तस्वीर में देख रहे हैं....बहुत बार तो इन के ऊपर निशान पहले ही से लगा रहता था जैसा कि आप उस तस्वीर में भी देख सकते हैं....कभी कभी उस पर उन का कंपांउडर कागज़ का एक स्टिकर सा लगा देता था जिस तरह का मैंने इस दूसरी तस्वीर में दिखाया है।

दवाईयों का रूप फिर धीरे धीरे बिल्कुल बदलना शुरू हो गया.....कांच की बोतलों की जगह सस्ते से पलास्टिक ने ले ली, खुली दवाईयां भी उन दिनों ऐसा लगता है कि शुद्ध हुआ करती होंगी ..क्योंकि आज कल की फैशनेबुल पैकिंग वाली कुछ दवाईयों को किस तरह से लालच की फंगस लग चुकी है, यह हम नित्य प्रतिदिन मीडिया में देखते हैं। और तो और, कुछ तो दवाईयां ऐसीं कि ऊपर लिखा है ६०रूपये और चलता-पुर्ज़ा मरीज़ उसे १० रूपये में ले उड़ता है, ये काल्पनिक बातें नहीं है, सब कुछ हो रहा है.....। लेकिन अनपढ़, गरीब आदमी को उसे ६० में ही बेचा जाएगा। चलिए, इसे यही छोड़ते हैं, इस पर किसी दूसरे दिन मगजमारी कर लेंगे।

लिखते लिखते और भी इतनी बातें याद आ रही हैं कि इतना सब कुछ तो एक नावल में ही समा पाएगा। इसलिए इस पोस्ट को यहीं विराम देता हूं। इस विषय पर बाकी बातें फिर कभी कर लेंगे।

गुरुवार, 21 नवंबर 2013

वो कचरेवाली....

मैं उसे बहुत दिन तक देखता रहा.. जब भी देखा उसे अपने काम में तल्लीन ही देखा...सुबह दोपहर शाम हर समय बस हर समय कचरे को बीनते ही देखा।

आज कल जगह जगह पर म्यूनिसिपैलिटि के बड़े बड़े से कूड़ेदान पड़े रहते हैं ना, जिसे हर रोज़ एक गाड़ी उठा कर ले जाती है और उसी जगह पर एक नया कूड़ादान रख जाती है।

बस वह उसी कूड़ेदान के पास ही सारा दिन कूड़ा बीनते दिखती थी। साथ में कभी कभी उस की लगभग एक साल की छोटी बच्ची भी दिखती थी... मां कूड़े में हाथ मार रही है और बच्ची साथ में कूड़ेदान से सटी खड़ी है, एक साल की अबोध बच्ची ...यह सब देख कर मन बेहद दुःखी होता था।

मैं उसे वह सब करते देखा करता था जो कूड़े प्रबंधन के बारे में किताबों में लिखा गया है, प्लास्टिक को अलग कर रही होती, पन्नियों को अलग, कांच को अलग.. फिर यह सब बेचती होगी।

उस की बच्ची उस कूड़ेदान के पास ही एक चटाई पर अकसर सोई दिखती, साथ में एक कुत्ता ...एक दो बार मैंने उसे एक टूटे खिलौने से खेलते देखा ..शायद उस की मां ने उस कचरे से ही ढूंढ निकाला होगा।

उस औरत को ---उम्र उस की कुछ ज़्यादा न होगी...शायद १८-२० की ही रही होगी लेकिन अकसर इस तरह की महिलाओं को समाज जल्द ही उन की उम्र से ज़्यादा परिपक्व कर देता है.... बदकिस्मती....

सुबह ११-१२ बजे के करीब मैं देखता कि उस का पति चटाई पर सोया रहता ... यह भी मेरा एक पूर्वाग्रह ही हो सकता है कि मुझे लगता कि इस ने नशा किया होगा, दारू पी होगी........लेकिन यह निष्कर्ष भी अपने आप में कितना खतरनाक है, मैंने कभी उस बंदे का हाल नहीं पूछा, कोई बात की नहीं, कोई मदद का हाथ नहीं बढ़ाया लेकिन उस के बारे में एक राय तैयार कर ली। अजीब सा लगता था जब इस तरह के विचार आते थे। क्या पता वह बीमार हो या कोई और परेशानी हो...वैसे भी हम जैसों को बहुत ही गरीब किस्म के लोग पागल ही क्यों लगते हैं, यह मैं समझ नहीं पाता हूं.......गरीबी, लाचारी, पैसे की कमी, भूख........बीमार कर ही देती है।

मैंने यह भी देखा कि पास की बिल्डिंगों से जो भी कूड़ा फैंकने आता उस महिला से ज़रूर बतियाता............उन के हाव भाव से ही वह पुरानी कहावत याद आ जाती ....गरीब की जोरू जने खने की भाभी। कुछ निठल्ले दो चार लोगों को बिना वजह उस की बच्ची के साथ खेलते भी देखा। उन का उस की बच्ची की खेल में ध्यान कम और उस महिला की तरफ़ ज़्यादा होता। आगे क्या कहूं........साथ में पड़ी चटाई पर उस का आदमी सोया रहता।

आते जाते जितनी तन्मयता से मेहनत मैंने उस औरत को करते देखा उतना मैंने किसी सरकारी कर्मचारी को नहीं देखा, मैं सोच रहा था क्या आरक्षण के सही पात्र ऐसे लोग नहीं हैं ...इतनी मेहनत, इतनी संघर्ष, इतनी बदहाली ..इतना शोषण...कईं प्रश्न उधर से गुजरते ही मेरे मन में कौंध जाया करते थे।

सरकारी सफाई कर्मीयों को तो कचरे बीनने के लिए तरह तरह के सुरक्षा उपकरण मिलते हैं, बूट, दस्ताने आदि ...लेकिन वह सब कुछ नंगे हाथों से ही कर रही होती थी, बेहद दुःख होता था............ छोटी उम्र, पति की सेहत ठीक नहीं लगती थी और ऊपर से बिल्कुल अबोध बच्ची ... मैं अकसर सोच कर डर जाता कि अगर यह महिला बीमार हो गई तो उस की बच्ची का क्या।

हां, एक बात तो मैं बताना भूल ही गया.... उस की बच्ची बड़ी प्यारी थी, गोल मटोल सी........मैंने उसे कभी रोते नहीं देखा, चुपचाप चटाई पर खेलते या सोते ही देखा या फिर मैं के साथ कचरेदान के साथ खड़े पाया ... दो एक बार मां उस को चटाई पर बैठा कर स्तनपान करवाती भी दिखी।

एक बार मैं शाम को छः सात बजे के करीब जब उधर से गुजरा तो मैंने देखा कि वह एक ट्रांजिस्टर पर रेडियो का कोई प्रोग्राम सुन रही है। अच्छा लगा।

सरकार की इतनी सामाजिक सुरक्षा स्कीमें हैं, अन्य कईं प्रकार के रोज़गार हैं, लेकिन फिर भी बहुत से लोग अभी भी अमानवीय ढंग से जीवनयापन कर रहे हैं............लिखते लिखते ध्यान आया कि कुछ दिन पहले एक मित्र ने किसी महिला की फेसबुक पर एक तस्वीर लगाई ...बेचारी फटेहाल सी लग रही थी, उस की पीठ थी कैमरे की तरफ़.... और वह गंदे नाले जैसी किसी जगह  से अपने हाथों में चुल्लु भर पानी भर कर पी रही थी। उसी फोटो के नीचे एक कमैंट था ...कोई पगली होगी।

नहीं, ऐसा नहीं होता ...हम ओपिनियन बनाने के मामले में हमेशा बहुत आतुर रहते हैं, गरीबी और पागलपन पर्यायवाची शब्द नहीं हैं ना।

बहुत दिनों तक मेरा रास्ता उधर से हो कर गुज़रता था, मुझे दो बातें सब से ज्यादा कचोटती रहीं ....जितने जोखिम भरी परिस्थितियों में वह काम कर रही है, ऐसे में वह क्या सेहतमंद रह पाएगी और दूसरी बात यह कि उस नन्हीं जान की परवरिश का क्या, कहीं पंद्रह वर्ष बाद वह तो इस रोल को न निभाती मिलेगी...

मंगलवार, 29 अक्तूबर 2013

सुपर मार्कीट की दही से याद आया...


किसी भी सुपर मार्कीट में तरह तरह के ब्रांडों की दही, लस्सी, श्रीखंड आदि को देख कर यही लगने लगता है कि आखिर ये देश को परोस क्या रहे हैं, बड़े दिनों से मैं इस के बारे में सोच रहा था…
चलिए आप के साथ बीते दिनों की कुछ यादें ताज़ा कर लेते हैं… १९७० के दशक में यही १९७३-७४ के साल रहे होंगे..डीएवी स्कूल हाथी गेट, अमृतसर, हम लोग यही पांचवीं छठी कक्षा में पढ़ते होंगे…हमारे स्वर्गीय अजीज उस्ताद ..मास्टर हरीश चंद्र जी …आधी छुट्टी से दो चार मिनट पहले हम में से किसी को एक पोली थमाते (२५ पैसे के सिक्के को पंजाबी में पोली ही कहते हैं..अब तो बंद हो चुका है वह सिक्का ही) –मधुर, सतनाम, राकेश, भट्ट या फिर किसी की भी — ड्यूटी लगा देते कि जाओ दही लाओ… हमेशा उन के स्टील के रोटी के डिब्बे में एक डिब्बा खाली रहता था ..जिस में वह ताज़ा दही मंगवाते थे। और मेरे नाना जी भी मास्टर ही तो थे, वे भी अकसर आते वक्त अपने साथ बाज़ार से ताज़ा दही लाते थे… उन का खाना भी एक दम फिक्स..दो गर्मागर्म ताज़ा चपाती, एक कटोरी ताज़ी दाल-सब्जी, एक कटोरी दही ………बस।

पुराने दिनों की याद दिलाता यह दही का बर्तन
वैसे भी हम लोग दही अकसर बाज़ार में मिट्टी के बड़े बड़े बर्तनों में ही बिकता देखा करते थे…ज़माना बहुत ही बढ़िया था, अन्य बीमारियों की तरह यह लालच रूपी कोढ़ का भी नामोनिशान न था, लोग इतने शातिर न थे, बेईमानी के तरीके शायद न जानते होंगे… इसलिए उस बाज़ार की दही को भी कभी कभी खाना मन को भाता था।
होस्टल में रहते हुए तो कईं बार नाश्ते में आधा किलो दही में बर्फ़ चीनी डलवा के खाने का आनंद आ जाता था, सब कुछ बढ़िया तरीके से पचा भी लेते थे।
फिर कुछ साल बाद ये बातें सुनने में आने लगीं कि दूध में मिलावट होने लगी है, बाज़ार में बिकने वाली दही में  ब्लाटिंग पेपर मिला रहता है, लेकिन पता नहीं मुझे इस का कभी यकीं न हुआ… फिर भी बाज़ार में बिकने वाले दही से दूरी बढ़ने सी  लगी। और अभी कुछ साल पहले से जब से इस सिंथेटिक दूध और इस से बनने वाले विभिन्न उत्पादों के बारे में सुना तो बाज़ार में बिकने वाले दही-पनीर से नफ़रत हो गई।
ब्लिक की इस ऩफ़रत को भुनाने के लिए सुपर मार्कीट शक्तियां पहले ही से तैयार बैठी थीं…. इतनी तरह के दही के ब्रांड, पनीर आदि देख कर हैरानगी होती है। मान लेते हैं कि शायद सुपर मार्कीट से उठा कर अपने शापिंग कार्ट में इन्हें डालने वालों के लिए इन की कीमत कुछ खास मतलब न रखती होगी, लेकिन मिल तो यह सब कुछ बहुत मंहगे दामों में ही रहा है।
मैं अकसर सोचता हूं कि घर में तो अकसर हम लोग एक दिन का दही अगले दिन नहीं खाते …नहीं खाते ना.. फ्रिज़ में रखने के बावजूद वह खट्टी सी लगने लगती है। लेकिन ये सुपर मार्कीट में बिकने वाली दही में ऐसा क्या सुपर रहता होगा कि यह पंद्रह दिन तक खराब न होती होगी। ज़ाहिर सी बात है कि इन उत्पादों की इस तरह की प्रोसैसिंग होती होगी, इन में कुछ इस तरह के प्रिज़र्वेटिव डले रहते होंगे जो इन्हें १५ दिन तक ठीक ऱख सकते हों। लिखते लिखते ध्यान आ गया कि यह विषय शोध के लिए ठीक है, करते हैं इस पर कुछ। और जितना जितना ज़्यादा प्रोसैसेड फूड हमारे जीवन में आ रहा है, उस के सेहत पर प्रभाव हम देख ही रहे हैं। 
पहले तो सुपर मार्कीट में यह देख कर ही सिर चकराने लगता है कि यार दही की भी क्या एक्सपॉयरी डेट होती है क्या। दही तो बस वही है जो जमे और सभी उस का उसी दिन आनंद ले लें। लिखते लिखते ध्यान आ गया, एक रिश्तेदार का जो दही का इतना शौकीन कि दही जमने की इंतज़ार में कईं बार ऑफिस से लेट हो जाया करता था।  और हां, ये सुपर मार्कीट वाले एक्सपॉयरी डेट वाले दिन से दो तीन दिन पहले उसे आधी कीमत पर बेचने लगते हैं। इस के बारे में मैं क्या कहूं, आप समझ सकते हैं ऐसा दही किस श्रेणी में आता होगा।
अभी उस दिन की ही बात है…मैंने देखा कि मेरे साथ खड़े एक अजनबी ने जब सुपर मार्कीट से दही का डिब्बा उठाया तो मेरे से रहा नहीं गया, मैंने कह ही दिया, आप थोड़ा फ्रेश डेट का लें… मेरी बात सुन कर वह कहने लगा ….अभी तो एक्सपॉयरी को दो दिन हैं, वैसे भी आधा रेट में मिल रहा है।

इस पीढ़ी ने तो कभी जिम ने जाकर कॉर्डियो न किए………
मेरे विचार में अगर आप के पास कोई घरेलू विक्लप नहीं है तो ही आप को इस तरह के प्राड्क्ट्स इन सुपर मार्कीट में जा कर खरीदने चाहिए….जैसा कि मेरे साथ हुआ, घर से बाहर था कुछ दिन, दही वही खा नहीं पाया, पेट  कुछ ठीक सा न था, इसलिए वहां से लेकर दही कुछ दिन खाया तो ….लेकिन कमबख्त दही ऐसा जैसा कि कोई लेसदार दवाई खा रहा हूं… फिर भी पेट तो ठीक हो ही गया…….मेरा कहने का भाव यही है कि कभी कभी एमरजैंसी के लिए इस तरह का दही-पनीर लेना तो ठीक है, लेकिन निरंतर लगातार इस तरह के प्रोडक्ट्स खरीदने में और विशेषकर अगर आप के पास घरेलू विकल्प हैं तो बात मेरे तो समझ में नहीं आती…….सोचते सोचते दिमाग की ही दही होने लगती है। पंद्रह पंद्रह दिन ठीक रहने वाले दही…………यह क्या बात है, इस पर शोध होना चाहिए। मेरी समझ तो मुझे कहती है कि इसे तो बस एक दवाई की ही तरह से ले सकते हैं.
और हां ध्यान आ गया, इन सुपर मार्कीट शेल्फों पर आजकल प्रो-बॉयोटिक की छोटी छोटी शीशियां भी तो बिकने लगी हैं, दस दस रूपये की …जस्ट शार्ट-कट–जो दही खाने की तकलीफ़ न उठाना चाहते हों बस एक अदद शीशी पी लें तो हो गया उन का लैक्टोबैसीलाई का कोटा पूरा…………जिस तरह से बंबई में टाइम्स ऑफ इंडिया के साथ साथ उस का एक शार्टकट संस्करण भी बिकता है ..जिस पर बीस मिनट लिखा रहता है… उन के लिए जो बेवजह के विज्ञापन को पढ़ कर सिर को दुखाना न चाहते हों..
दुनिया बहुत बदल रही है, शायद इतनी तेज़ी की तो ज़रूरत ही नहीं है, सोचने वाली बात है कि इतनी तेज़ तर्रारी में मुनाफ़ा किस का और नुकसान किसका……….मुनाफ़ा केवल सुपरमार्कीट वालों का……और नुकसान हम सब उपभोक्ताओं का —पैसे का भी, सेहत का भी……..आप क्या सोचते हैं इस के बारे में?

बुधवार, 7 अगस्त 2013

सत्तर की उम्र में रोज़ाना सत्तर किलोमीटर साईक्लिंग

हां तो बात करते हैं आज सुबह की एक फेसबुक पोस्ट की ...हमारे एक मित्र ने एक बहुत ही सुंदर बात शेयर की थी कि गरीब तो पैदल चलते हैं रोज़ी रोटी कमाने के लिए लेकिन अमीर पैदल चलते हैं अपनी रोटी पचाने के लिए........बहुत ही सुंदर पोस्ट थी, साथ में एक मेरे जैसे तोंदू की फोटू भी लगी हुई थी, हां, हां, मैं भी नहाने के बाद बिल्कुल ऐसा ही दिखता हूं, कब मीठे पर कंट्रोल करूंगा और कब नियमित टहला करूंगा, देखते हैं।

हां तो यह पोस्ट मैंने देखी थी सुबह ...और सुबह जब मैं अपने हास्पीटल गया तो कुछ समय बाद मेरे पास एक व्यक्ति आया --बाद में उस से बातचीत करने पर पता चला कि वह ७० वर्ष के युवा हैं, जी हां, वे युवा ही थे, जिस तरह से उन का उत्साह, उन का ढील-ढौल था, उस से उम्र कम ही लग रही थी।

वे मेरे पास एक दांत उखड़वाने आए थे, आप भी सोच रहे होंगे कि ठीक है ७० की उम्र में तुम्हारे पास एक बंदा दांत उखड़वाने आ गया तो इस में कौन सी बड़ी बात है, बात बड़ी है दोस्तो, सच में बड़ी बात है।

वे बुज़ुर्ग दुविधा में थे कि आज दांत उखड़वाऊं या आज केवल दवाई लेकर ही चला जाऊं ...मैंने कहा जैसा आप चाहें, लेकिन जब उन्होंने कहा कि मैं दूर से आता हूं तो मैंने पूछ लिया कि कहां से ...उन्होंने रायबरेली राजमार्ग पर किसी गांव का नाम लिया ... कहने लगा यहां से ३४-३५ किलोमीटर है।

मैंने ऐसे ही अनायास ही पूछ लिया कि बस में आए होंगे, लेकिन उन का जवाब सुन कर मैं दंग रह गया ---नहीं, नहीं, बस में कहां, हम तो साईकिल पर ही आते जाते हैं। मुझे जैसे अपने कानों पर यकीन सा नहीं हुआ ... मैंने फिर पूछा कि आप साईकिल पर आए हैं, तो फिर उन्होंने उसी गर्मजोशी से कहा कि हां, साईकिल पर आया हूं .. और जाऊंगा भी साईकिल पर ही।
उस ७० वर्ष के युवा की ज़िदादिली देख कर यही लग रहा था कि इसे कहां होगा हाई ब्लड-प्रैशर-वैशर ---लेकिन फिर भी चेक किया और पाया ११४ सिस्टोलिक और ७०डॉयस्टोलिक। जिस तरह की दिनचर्या उन की सुनी ...ऐसे में कोई हैरानी न हुई।

हां, मैंने तुरंत उन का दांत उखाड़ दिया....वह बहुत ज़रूरी था, पहले तो दो तीन दांत उन्होंने स्वयं ही उखाड़ िदये थे, लेकिन यह बहुत हिल रहा था और अटका हुआ था जिस की वजह से खाने पीने में बहुत दिक्कत हो रही थी। । दांत उखाड़ने से पहले उन्होंने बताया कि उन्हें ३४-३५ किलोमीटर साईकिल पर आने में २ घंटे लगते हैं ...कोई तकलीफ़ नहीं है, जब लखनऊ सर्विस करने आते थे तब भी साईकिल पर ही आते थे, इसलिए एक सहज आदत सी बन चुकी है।
हां, अब बीच में थोड़ा पानी वानी पीने के लिए थोड़ा रूक जाता हूं।

मैंने उन्हें जाते समय इतना ज़रूर कहा कि आपसे मिल कर मुझे बहुत अच्छा लगा, मुझे भी बहुत प्रेरणा मिली है..... सच भी है कि कई बार ऐसा लगता है कि कुछ मरीज़ हमारे पास कुछ सीखने नहीं बल्कि हमें कुछ याद दिलाने आते हैं। सोच रहा हूं एक दो दिन में मैं भी साईक्लिंग फिर से शुरू करूं ................कैसा लगा आपको इस ७० साल के युवा का ७० किलोमीटर रोज़ाना साईकिल चलाने का जज्बा.............वंडरफुल, है कि नहीं ?


गुरुवार, 1 अगस्त 2013

चिल्लर पार्टी का आरटीआई-आरटीआई खेल

कुछ दिन पहले मेरे स्कूल में पढ़ते बेटे ने बताया तो था कि उन के स्कूल में लखनऊ की ही प्रसिद्द लॉ यूनिवर्सिटी से कुछ छात्र आये थे और उन को आर टी आई के बारे में अच्छे से बताया था।


इसलिए आज की दैनिक हिन्दुस्तान अखबार में इस के बारे में खबर भी दिखी तो अच्छा लगा, अच्छा काम कर रहे हैं ये युवा लोग जिस तरह से स्कूल स्कूल में जा कर बच्चों को इस के बारे में बता रहे हैं, समझा रहे हैं और उन की झिझक दूर करने का उमदा काम अंजाम दे रहे हैं।

यहां तो ठीक है, लेकिन .........लेकिन मुद्दे पर आने से पहले चलिए आप पाठकों से एक प्रश्न ही हो जाए। आप मुझे यह बताईए कि क्या कोई बच्चा या यूं कह लें कि नाबालिग बच्चा आर टी आई कानून के अंतर्गत किसी जन सूचना अधिकारी को आवेदन कर सकता है, आप का क्या जवाब है?

..........जी नहीं, आप गलत सोच रहे हैं, आर टी आई कानून ने कोई आयु सीमा की बंदिशें नहीं लगाई हैं। कोई भी किसी भी उम्र में अपना आवेदन भेज सकता है। मुझे भी इस बात का पता न था, लेकिन जब मैंने नियमित उस बेहतरीन वेबसाइट पर जाना शुरू किया तो मुझे रोज़ाना नई नई बातें पता चलने लगीं। वही साइट जिस का मैं उल्लेख अपनी पिछली कुछ पोस्टों में कर चुका हूं... www.rtiindia.org

हां तो बात चिल्लर पार्टी की चल रही थी ... आज के अखबार  में जो खबर दिखी कि किस तरह के कुछ कार्यकर्ता इस मशाल को जलाए ऱख रहे हैं तो साथ ही एक छोटी सी खबर भी दिखी जैसा कि आप इस तस्वीर में भी देख सकते हैं जिस का शीर्षक ही यही था.... बच्चे तो निकले सब से आगे।

इस में यह लिखा गया था िक एक स्कूल के बच्चों ने १००० आर टी आई आवेदन लगा दिये ---इस बात को बड़ा ग्लोरीफाई सा किया गया दिखा कि बच्चों ने सरकार से पूछा कि पिछले इतने इतने वर्षों से जो पैसा भलाई के कामों के लिए आया, उसे किस तरह से खर्च किया गया।

मानता हूं, सवाल पूछने में बुराई नहीं है। लेकिन यह बात विचारणीय है कि क्या यह ज़रूरी था कि स्कूल के १००० बच्चे ऐसे प्रश्न पूछ डालें।

मुझे ध्यान आ रहा है बड़े शहरों में कुछ बढ़िया स्कूल बिल्कुल छोटे छोटे बच्चों को जब पोस्ट आफिस, पुलिस स्टेशन आदि के बारे में पढ़ाते हैं तो वे उन्हें वहां टीचर के साथ टूर पर भी एक दिन ले जाते हैं ... अच्छा आइडिया है ना, लेकिन यह मतलब तो नहीं कि पुिलस स्टेशन में जाने वाला हर बंदा एफआईआर भी लिखवाए।

ठीक उसी तरह अब स्कूली बच्चों ने अगर १००० आवेदन आर टी आई के लगा दिये तो विभिन्न दफ्तरों की तो सिरदर्दी बढ़ ही गई ...उन्होंने तो हर एक आवेदन का जवाब देना ही है, यह नहीं कि ये बच्चे हैं।

लेकिन एक बात और भी है कि अगर बच्चों ने जैन्यूनली कुछ पूछना है तो उन्हें कौन रोक सकता है, आर टी आई अधिनियम सब का अभिनंदन करता है। मेरा सुझाव है कि इस तरह की जो आरटीआई एवेयरनैस वर्कशाप होती हैं उन के दौरान बच्चों को मिल जुल कर आरटीआई आवेदन लिखवाने का अभ्यास करवाया जा सकता है और अगर दो-चार आवेदन बच्चों की ज़रूरत या एवेयरनैस के अनुसार विभिन्न जन सूचना अधिकारियों को बच्चों की तरफ़ से भिजवा भी दिए जाएं तो मुनासिब सा लगता है लेकिन अगर हज़ारों बच्चे इस तरह के आवेदन इन वर्कशापों के दौरान भिजवाने लगेंगे तो बड़ी मुसीबत हो जायेगी। 

चिल्लर पार्टी फिल्म का ध्यान आ गया था पोस्ट लिखते समय ..इसलिए वही शीर्षक उचित लगा ..बच्चों के लिए एक अच्छा संदेश ले कर आई एक बेहतरीन फिल्म....


आरटीआई ऑनलाईन और ऑनलाईन आरटीआई वेबसाइटें बिल्कुल अलग

यह बात मुझे भी इत्तेफाक से ही पता चली कि ये दोनों बिल्कुल अलग वेबसाइट्स हैं।
एक के बारे में आरटीआई आनलाइन के बारे में तो मैंने कल एक लेख भी लिखा था जिसे अगर आपने पढ़ा हो तो ... आर टी आई आवेदन ऑनलाइन भी होता है। 

कुछ दिन पहले की बात है कि मैंने एड्रेस बार में यूआरएल लिखना चाहा तो मेरे से जल्दी जल्दी में आरटीआई आनलाईन की जगह आनलाइन आरटीआई टाइप हो गया। और मैं पहुंच गया एक गैर-सरकारी साइट पर।

आप भी इस लिंक पर जा कर इस साइट का अवलोकन कर सकते हैं ..यह रहा इस का यू आर एल....www.onlinerti.com

हां इस साइट पर जा कर आप देखेंगे कि ये लोग आप की सारी सिरदर्दी मात्र ९९ रूपये में खरीद लेते हैं ---आपने केवल इन्हें यह बताना कि आप को किस दफ्तर से कौन सी सूचना चाहिए। आप इस साइट के विभिन्न लिंक्स पर जाकर इस के बारे में पूरी जानकारी हासिल कर सकते हैं। 

नहीं मैंने कभी इस साइट के माध्यम से सूचना प्राप्त नहीं की है, कारण कुछ नहीं, यह साइट तो अभी दिखी ...पता नहीं कब से शुरू है और मुझे तो सूचना के अधिकार कानून का इस्तेमाल करते पांच वर्ष होने को हैं।

अगर आप को लगता है कि आप को अपने प्रश्न लिखने में झिझक है ... डाक-वाक के झंझट में पड़ने का टाइम नहीं है तो इस तरह की साइटें काफ़ी मददगार साबित हो सकती हैं।

लेकिन अगर लगता है कि टाइप करवाना कोई झंझट है तो आप हाथ से साधारण कागज़ पर लिख कर भी अपना आवेदन जन सूचना अधिकारी को भेज सकते हैं। कोई इश्यू नहीं है यह....और हां, मैंने कल जिस साइट का लिंक अपनी पोस्ट में बताया था  www.rtiindia.org  वहां से भी मुफ्त मदद ली जा सकती है। उन्होंने फार्म आदि तैयार किए हुए हैं जिन्हें आप डाउनलोड कर सकते हैं ...उन्हें कापी कर सकते हैं, वे लोग भी समाज सेवा ही कर रहे हैं...और बड़े ही हेल्पफुल नेचर के बंदे हैं ....लेकिन हां सब के सब धुरंधर, मंजे हुए लोग आरटीआई के मामले में ....आप एक बार इस साइट को ट्राई तो कर के देखें, वे तो आप की सहायता करने को तैयार बैठे हैं।

और एक बहुत बड़ी खुशखबरी ...यह जो सरकारी साइट है आरटीआई आनलाईन इस पर अभी तक कुल ३७ मंत्रालयों एवं सरकारी विभागों के बारे में सूचना पाई जा सकती है लेकिन मुझे आज ही सूचना मिली है कि इस महीने के मध्य तक सभी मंत्रालयों एवं विभागों से संबंधित सूचना इस साइट के माध्यम से आप आनलाइन पा सकते हैं।

बुधवार, 31 जुलाई 2013

आर टी आई में किसी उस्ताद की ज़रूरत हो तो क्या करें ...

होता है, बहुत बार ऐसा होता है और आप के साथ भी होगा कि किसी सूचना की इंतज़ार आप कितनी डेसपिरेटली कर रहे हैं लेकिन जन सूचना अधिकारी का बेतुका का जवाब आप की उम्मीदों पर पानी फेर देता है।

ऐसे में क्या करें, किस से डिस्कस करें, मैं अपने व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि हमारे प्रश्न हो सकता है कि कुछ इस तरह के हों कि हम अपने कार्य-स्थल पर उन की चर्चा ही न करना चाहते हों, मेरे साथ तो बहुत बार ऐसा होता है।

और मैंने आरटीआई के पांच वर्ष तक धक्के खाने के बाद यही सीखा है कि कोई आरटीआई विषय को डील कर रहा है इस का यह मतलब नहीं कि उस का ज्ञान भी श्रेष्ठ ही होगा। मुझे कभी भी यह नहीं लगा, कारण यही है कि हम लोग विषय का अध्ययन करने से कतराते रहते हैं, हम यही सोचते हैं कि बाबू है ना, लिख देगा कुछ भी जवाब, नहीं....अगर हम में ही कुछ नया जानने की इच्छा-शक्ति नहीं है, बाबू बेचारे से क्यों इतनी अपेक्षा कर लेते हैं लोग, मुझे कभी समझ में नहीं आया।

हां तो बात चल रही थी कि आर टी आई में कहीं अटक जाने पर बाहर निकलने के उपायों की ... मैंने काफ़ी वकीलों से भी बात की , वे अपने काम में धुरंधर हो सकते हैं, लेकिन आरटीआई के मामले में वे कुछ ज़्यादा मदद कर नहीं पाते। क्या है ना, किसी से बात करने पर एक-दो मिनट में ही आप को पता चल जाता है कि यह मेरी समस्या का समाधान बता पायेगा कि नहीं...

हां तो फिर क्या करें.................इस के लिए मैंने एक तरीके का आविष्कार किया कि जब भी मुझे किसी विषय पर बहुत ज़रूरी सूचना चाहिए होती थी लेकिन जन सूचना अधिकारी द्वारा दो टूक जवाब मिल जाता तो मैं एक साइट ढूंढ ली जिस का यू आर एल यह है ...........   http://www.rtiindia.org

इस साइट की तारीफ़ करने के लिए मेरे पास शब्द ही नहीं हैं, जिस तरह का मार्गदर्शन वे कर देते हैं ऐसा तो कोई मोटी फीस लेकर भी न कर पाए.......मैं अपना प्रश्न वहां पर जा कर करता और मेरे पास कुछ ही घंटों में जवाब मिल जाते ... मैं उन का अध्ययन करने पर प्रथम अपील या सैकेंड अपील करता और लगभग हमेशा ही मुझे मेरी मांगी गई सूचना पाने में सफलता ही मिली ।

हां, एक बात और पाठकों से शेयर करना चाहूंगा कि प्रथम अपील में केवल इतना ही कह न चुप हो जाएं --एक सुझाव है---कि जन सूचना अधिकारी ने सूचना नहीं भेजी, उस में कुछ और भी डालें, क्या? -- मैं सीआईसी (मुख्य सूचना आयोग) की साइट पर जा कर थोड़ा सा होमवर्क कर लिया करता ... उस का भी एक आसान सा तरीका है, आप जिस विषय के बारे में सूचना पाना चाहते हैं, आप सीआईसी साइट पर सर्च-बाक्स में उन की-वर्ड्स को डाल दें, तुरंत आप के पास वे तमाम रिज़ल्ट्स आ जाते हैं जिस पर केंद्र सूचना आयोग ने आरटीआई आवेदन करने वालों के हक में निर्णय लिये होते हैं। बस थोड़ी सी और मेहनत कि आप को उन में से दो चार निर्णयों का अध्ययन करना होगा, उन का केस नंबर नोट करें और पहली अपील करते वक्त इन केसों के नंबर डाल दें ...मैं तो कईं बार उन के कुछ अंश भी डाल देता था कि जब केंद्र सूचना आयोग ने इस तरह के केसों में सूचना देने की सिफारिश की है तो यह जन सूचना अधिकारी क्यों इस की राह में रोड़े अटका रहा है, बस इतना ही लिखना काफ़ी होता था, कुछ ही दिनों या हफ्तों में सारी सूचना पहुंच जाती थी।

मेरे विचार में जो ट्रेड-सीक्रेट्स मैं शेयर कर रहा हूं उन्हें धीरे धीरे शेयर करना चाहिए, इसलिए आज इतना ही .....हां तो बात आरटीआई गुरू की हो रही थी, कोई गुरू वुरू नहीं है इस मामले में किसी है, हम लोग आपस में एक दूसरे के अनुभवों से ही सीखते हैं, नेट है ना, बस वहां से हेल्प ले ली। और एक बात सूचना के अधिकार अधिनियम का एक बार अच्छे से अध्ययन ज़रूर कर लेना चाहिए, नेट पर तो जगह जगह पडा़ ही है, बाज़ार में भी आसानी से मिल जाता है।

मैं भी आरटीआई आदि की तरफ़ नहीं जाता है लेकिन दो एक इंसान ऐसे मिल गये जिन की वजह से ज़िंदगी के बेहतरीन चार वर्ष खराब हो गए, क्या करें, ज़िंदगी का सफ़र है, हर तरह के इंसान हैं और मिलेंगे भी ....लेकिन मैं बहुत बेबाकी से यह स्वीकार करता हूं कि मुझे जितनी मदद आरटीआई कानून से मिली इतनी तो शायद कोई परम मित्र भी न कर पाता, परेशान तो मैं हुआ, इस चक्कर में बहुत सी व्यक्तिगत प्रायरटीज़ को तो नज़र अंदाज़ किया ही, लेकिन कईं बार जब पानी आप के नाक तक पहुंच जाए तो केवल सूचना रूपी लाइफ-गार्ड ही आप की रक्षा कर सकता है और मेरे साथ भी यही हुआ। इसलिए करने वाले ने तो मेरा बुरा करना चाहा लेकिन देखिए मैं पिछले चार वर्षों में इतना कुछ सीख गया कि आरटीआई पर किताब लिखने के लिए बिल्कुल तैयार हो गया.....................हां, फिर से ज़िंदगी के सफर की बात याद आ गई ......dedicated to those cherished moments of life which i missed out just searching for vital information -- i got the information but those golden four years of life can't be brought back. Thanks to all those SADISTIC SOULS !


मंगलवार, 30 जुलाई 2013

आर टी आई का ऑनलाईन आवेदन भी होता है


मैं लगभग पिछले पांच वर्षों से आर टी आई का इस्तेमाल कर रहा हूं ... लेिकन एक बार बड़ी अजीब सी लगती थी कि वैसे तो सरकार ने इसे अपनी तरफ़ से अच्छा खासा सिंपल बनाया है लेकिन पहले आवेदन लिखो, फिर पोस्टल-आर्डर के लिए डाकखाने के कुछ चक्कर काटो, ऐसा नहीं होता कि आप को हर बार दस रूपये का पोस्टल आर्डर तुरंत मिल जाए---काफी बार तो वह खत्म हुआ ही बताते हैं। चलिए, उस के बाद फिर से स्पीड-पोस्ट या रजिस्ट्री करवाओ....फिर सूचना देने वाला कार्यालय लिखेगा कि इतने रूपये और भेजो अगर आप को सूचना के रूप में इतनी फोटोकापियां चाहिए। फिर से वही सारी प्रक्रिया शुरू। इसलिए मुझे यह सब बहुत पकाने वाला काम लगता था। बहरहाल, वह मेरी व्यक्तिगत राय है ..लेकिन जिसे जिस समय जो सूचना चाहिए होती है उस के लिए इस तरह की छोटी मोटी परेशानी कोई बात नहीं होती।

मुझे हमेशा ऐसा लगता था कि हर काम तो आज ऑन-लाइन हो रहा है, ऐसे में सूचना के अधिकार के अंतर्गत भी सूचना पाने की सुविधा भी तो लोगों को ऑन-लाइन किस्म की मिलनी चाहिए।

बहरहाल मैं यह सोचता ही रहा कितने लंबे समय तक....लेकिन केवल सोचने ही से थोड़ा न सब कुछ मिल जाता है।


कुछ हफ्ते पहले की ही बात है कि द हिंदु में एक बिल्कुल छोटी सी खबर दिखी कि अब सूचना के अधिकार अधिनियम के अधीन आवेदन आॉन-लाइन भी किये जा सकते हैं। कुछ ज़्यादा डिटेल दिये नहीं दिये थे, उस खबर में ....इसलिए थोड़ी मेहनत करनी पड़ी और मैं पहुंच गया इस की साइट पर जिस का लिंक नीचे दे रहा हूं .....   www.rtionline.gov.in

आप भी इस साइट का टूर कीजिए -- मैंने भी इस के माध्यम से एक आरटीआवेदन किया था ऑनलाइन --फीस भी दस रूपये क्रेडिट-कार्ड से ही जमा हो गई थी, तुरंत आप के आवेदन का पंजीकरण कर लेते हैं और आप की ई-मेल में पंजीकरण संबधी सूचना भी आ जाती है.

कुछ ही दिनों में मुझे सूचना भी मेरी ई-मेल के माध्यम से ही प्राप्त भी हो गई थी।

अच्छा लगा यह सिस्टम... कोई झंझट नहीं डाकखाना, लिफ़ाफे, रजिस्टरियां, स्पीड-पोस्ट, पोस्टल आर्डर ---बिल्कुल आज के ज़माने जैसी क्विक फिक्स प्रणाली।

इस में अभी थोड़ी सी दिक्कत बस यही है कि अभी केंद्रीय सरकार के सभी मंत्रालय इस प्रणाली में शामिल नहीं किए जा सके हैं, काम चल रहा है, क्योंकि इस के लिए पहले तो उस मंत्रालय के कुछ लोगों को इस सिस्टम के बारे में ट्रेन किया जाता है। वैसे इन का लक्ष्य है कि इन्होंने सभी मंत्रालयों एवं सरकारी विभागों को इस ऑनलाइन प्रणाली से ही कवर करना है। बहुत अच्छा सिस्टम लगा मुझे तो ... वैसे तो अभी भी आप देखेंगे कि काफ़ी मंत्रालय हैं जो इस सिस्टम से जुड़ चुके हैं। हां, आवेदन फीस वही दस रूपये ही है, आगे कोई फोटोकापी आदि के चार्जेज चाहिए होंगे तो वे स्वयं आप से संपर्क करेंगे।

दरअसल मैं अभी श्योर नहीं हूं कि जो जवाब उन्होंने मेरे को ई-मेल से भेजा है क्या वे उसे डाक से भी भेजेंगे ....ठीक है मुझे तो वह जवाब डाक से नहीं चाहिए था, मेरा काम ई-मेल से चल गया था, लेकिन यह बात का ध्यान रखना ज़रूरी है.

अब आधुनिक तकनीक कोई भी हो हम कितनी भी बातें कर लें, इस तरह की बातों का असल फायदा तो साधन संपन्न लोग उठा पाते हैं --देखिए न इंटरनेट भी चाहिए, क्रेडिट कार्ड भी चाहिए ---शायद नेट बैंकिंग या डेबिट कार्ड से भी आप दस रूपये के आवेदन का भुगतान कर सकते हैं, अभी मुझे ठीक से याद नहीं, लेकिन आप मेरे द्वारा ऊपर दिये गये लिंक पर जाएंगे तो सब ठीक से समझ जाएंगे।

कैसी लगी आप को यह जानकारी, लिखियेगा। बहुत दिनों से इसे पाठकों से शेयर करना चाह रहा था लेकिन मेरे इस सूचना के अधिकार ब्लॉग का पासवर्ड ही मुझे नहीं मिल रहा था। आज मिल गया और मैं बैठ गया अपना ज्ञान झाड़ने।
पता नहीं क्या कारण है -- मुझे लगता है कि इस ऑनलाइन आरटीआई सिस्टम की ज़्यादा पब्लिसिटी नहीं की गई है, कारण कुछ कुछ तो मैं अनुमान लगा सकता हूं , बाकी क्या कहें, चलिए इस तरह की प्रणाली शुरू हो गई यही अपने आप में एक उपलब्धि है।

न तो मैंने बस उस दिन द हिंदु के अलावा इस के बारे में कोई खबर ही देखी, न ही टीवी ...पता नहीं पिछले दो-तीन महीनों से न तो अखबार ही ढंग से पढ़ पाता हूं और न ही टीवी मन को ज़्यादा भाता है ......अब भाई बलम पिकचारी और रांझना के वही दो-तीन गीत कितनी बार सुनें ......लेकिन एफएम मैं जब भी मौका मिलता है सुन लेता हूं ....वहां भी तो इस आनलाइन आरटीआई के बारे में कुछ नहीं सुना।

चलिए भविष्य के लिए ही सही लेकिन ऊपर दिये गये लिंक को नोट कर लीजिए।

मैं एक कप चाय का लिंक लगाने लगा तो मुझे हिंदी वाला कोई लिंक नहीं मिला --इस फिल्म के बारे में मैंने इसी ब्लाग पर एक पोस्ट भी लिखी थी...कहते हैं ना जब कोई दिल से बोलता है तो बात दूसरे तक पहुंच ही जाती है ..इसलिए आप इस वीडियो को देखिए --काम की बात आप तक पहुंच ही जाएगी। और कहीं से इस फिल्म देखने का जुगाड़ हो जाए तो बात ही क्या है, मैंने इसे दूरदर्शन पर देखा था .........




शनिवार, 20 जुलाई 2013

तेज़ाब से मौत नहीं होती, तेज़ाब हर पल मारता है .. भाग २

हां तो मैं पिछली पोस्ट में ९जुलाई २०१३ की दैनिक भास्कर के संपादकीय लेख की बात कर रहा था, यह मुझे इतना छू गया कि मैंने इस की क्लिपिंग संजो कर रखने की बजाए इसे नोटबुक में लिख लिया।
वाक्या ईरान की अमीना का है। इलैक्ट्रोनिक्स की ग्रेजुएट अमीना बहरामी ऑफिस से लौट रही थी कि माजिद मोवाहदी नामक युवक ने उस पर तेजाब फैंका। माजिद उसके पीछे पड़ा था। जबकि अमीना उसे साफ इंकार कर चुकी थी। चेहरा, गला झुलस गया। आंखे जल कर खाक हो गईं। बर्बाद अमीना ने लंबी लड़ाई लडी। ईरान में आंख के बदले आंख का कानून है। उसने वही इंसाफ मांगा। अदालत ने आखिर मान लिया।
लेकिन जब माजिद की आंखों में तेजाब की पांच बूंदें डालकर डॉक्टर उसे अंधा बनाने जा ही रहे थे, ऐन मौके पर अमीना ने उसे माफ कर दिया। दुनिया के मानवाधिकार संगठनों की अपील पर। लेकिन सब सकते में आ गए , जब माजिद ने माफ़ी को कानूनी ढाल बनाकर उसके इलाज का खर्च उठाने से बाद में साफ़ इंकार कर दिया।
दिमाग, दिल और नीयत सब कुछ भ्रष्ट कर देता है तेजाब।
......

पिछले दो दिन से टीवी -अखबार में देख कर अच्छा लगा कि सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि बृहस्पतिवार से तेजाब बिना किसी सरकारी पहचान पत्र के नहीं बिकेगा। और दुकानदार को तेजाब की सारी बिक्री का लेखा जोखा रखना होगा। और भी एक बहुत अच्छी बात कि दुकानदार को बिक्री की सूचना संबंधित पुलिस स्टेशन को भी देनी होगी।
अच्छा है, जितने सख्त नियम हो सकें, बनने चाहिए। एक बात और मैंने सुनी कि जिन लैबोरेट्रीयों में एसिड का इस्तेमाल होता है, उन के लिए भी सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि सुनिश्चित किया जाए कि वे लैब से बाहर एसिड न ले पाएं।
मैं सोच रहा था कि दुकानदार के ऊपर जब इस तरह की बंदिश होगी कि उसे रिकार्ड रखना होगा, पुलिस को सूचित करना होगा, सुप्रीम कोर्ट का निर्णय है , ऐसे में वह क्यों चंद रूपयों के चक्कर में इतनी लफड़ेबाजी में पड़ेगा, लगता है ... such restrictions would definitely act as a deterrant for unscrupulous sale of this killer liquid.

वैसे मैं यह सोच रहा था कि आज से लगभग तीस वर्ष पहले की बात है कि मैं रोहतक की एक दुकान से एसिड लेने गया था ... मुझे याद है उस ने मेरा नाम-पता आदि एक रजिस्टर में लिखवाया था.....मैं उस समय यही सोच रहा था कि इस का क्या फायदा, अगर कोई गलत नाम गलत पता लिखवा कर एसिड का मिसयूज़ कर ले तो उसे कैसे ढूंढोगे।
जो भी हो, एसिड को टॉयलेट की सफ़ाई के लिए इस्तेमाल करने के बहाने मार्कीट में खुले बिकने देना जोखिम से खाली नहीं है, घर के बाहर चल रही युवतियां की सुरक्षा करना हम सब का साझा दायित्व भी है, आप क्या कहते हैं?

शुक्रवार, 19 जुलाई 2013

तेज़ाब से मौत नहीं होती, तेज़ाब हर पल मारता है...भाग १

कितने हादसे हो गये, छोटी छोटी बच्चियों की ज़िंदगीयां खराब कर डालीं इन तेज़ाब फैंकने वाले हैवानों ने।
दस दिन पहले की बात है मुझे अजमेर स्टेशन पर कुछ काम था, मैं बाहर निकला तो मुझे कुछ किताबें खरीदनी थीं, किसी ने बताया कि सामने ही चूड़ी बाज़ार है, बस वहां से बाएं मुड़ेंगे तो किताबों की दुकानें आ जाएंगी।
मैं जिस रास्ते से जा रहा था तो मैं एक दो दुकानों को देख कर हैरान रह गया कि वहां पर एसिड दुकान के बाहर रखा पड़ा था, बोतलों में --पीले रंग का तेज़ाब...वैसे तो कोई खास बात नहीं, एसिड खरीदना वैसे कौन सा इतना मुश्किल काम रहा है, कोई भी जा कर ले आए। लेकिन जिस तरह से बोतलें तैयार कर उसे दुकान के बाहर रख छोड़ा गया था, उसे देख कर मुझे किसी शरारत, दुर्घटना के अंदेशे का ध्यान आ गया।
कितना घिनौना और पाशविक काम है किसी ठीक ठाक बंदे पर तेज़ाब फैंक कर उस की ज़िंदगी को नर्क बना देना।
९जुलाई २०१३ का दैनिक भास्कर (जयपुर) देख कर आस बंधी ....
बगैर कानून िबक रहा है तेज़ाब, सुप्रीम कोर्ट में अहम् सुनवाई आज..... सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र सरकार को चेतावनी दी है कि वह एसिड बेचने के कायदे तय करे। वरना कोर्ट इसकी बिक्री पर ही रोक लगा देगी। 
भास्कर में संपादकीय भी उस दिन था -- तबाही रोकने के लिए तेज़ाब पर ही रोक लगानी चाहिए......
जब पूर्व प्रधानमंत्री एच डी दैवेगोड़ा की पत्नी चेन्नमा पर तेज़ाब फेंका गया तो सारा राष्ट्र भौंचक रह गया था। बारह वर्ष हुए उस वारदात को। उन की पुत्रवधु भी इस हमले का शिकार हुई थी। मामला पारिवारिक कलह का था। हमलावर उन का भतीजा लोकेश था। पूजा कर हरदनहल्ली के शिव मंदिर से बाहर निकली थीं चेन्नमा। लोकेश के हाथ में एक बाल्टी थी। ऊपर पूजा के फूल सजे थे। नीचे तेज़ाब भरा था। वही फैंका। पुलिस को कोई शक न हो सका।
कोई हथियार इतना सस्ता, इतनी आसानी से मिलने वाला और इतनी सरलता से हमले में काम आने वाला हो ही नहीं सकता जितना कि तेजाब। और कोई दूसरा हथियार जिस्म और इंसानियत की ऐसी तबाही नहीं ला सकता, जितना कि तेज़ाब। क्योंकि इसे सुरक्षाकर्मी, स्कैनर, मैटल डिटेक्टर पकड़ ही नही ंसकता, सीसीटीवी भी नहीं।
तेज़ाब से मौत नहीं होती, तेज़ाब हर पल मारता है। 
तेज़ाब फैंकने वाले किस कदर हैवान होते हैं, इसका सबसे हैरान कर देने वाला वाक्या ईरान का अमीना केस है। चलिए इस के बारे में अगली पोस्ट में बात करते हैं।

मंगलवार, 5 फ़रवरी 2013

और आर टी आई यूज़र कैसे बन गया एक्टिविस्ट

अमृतसर जाने का मौका मिला -- स्कूल का दोस्त रमेश -- लंबे समय तक हम लोग गप्पबाजी करते रहे। उसे सूचना के अधिकार कानून के बारे में काफी जानकारी है .. अकसर वह मेरे  साथ अपने अनुभव शेयर करता रहता है।
एक बहुत ही अजीब सी बात उस से पता चली कि उस के बहुत से काम रूकने लगे हैं...अपने विभाग में भी उस के काम नहीं हो रहे -- कारण वही चूतिया सा एक संकीर्णता मानसिकता को दर्शाता हुआ कारण कि वह बहुत आरटीआई लगाता है।
और बताने लगा कि उसी के विभाग के बॉस ही उस के बारे में यह बात फैलाने लगे हैं -- कह रहा था कि सारे एक जैसे नहीं है लेकिन हर विभाग में एक दो तो होते हैं जो ......गुलामी (समझ गये कि नहीं) में एक दम फिट होते हैं ..बताने लगा कि वही लोग उस के बारे में कुछ लोगों को हर वक्त कहते रहते हैं कि यह आर टी आई करता है।
जब उस ने अचानक यह कहा कि क्या आरटीआई लगाना किसी को गाली देना है  तो मुझे एक बार तो उस की बात सुन कर झटका सा लगा कि यह ऐसा क्यों कह रहा है। लेकिन वह भी अपनी धुन का पक्का है ...बताने लगा कि ये लोग तरह तरह की च..चालाकी( अभी भी नहीं समझे, धत्त तेरे की..) करके उस के इरादों से उसे डगमगा नहीं सकते।
मैं भी टकटकी लगा कर उस  की बातें सुन रहा था ...बड़ा अजीब सा लग रहा था कि अगर कोई आरटीआई पूछ रहा है तो यह भी उस का एक अधिकार है जो वह इस्तेमाल कर रहा है, इस से जो डर रहा है वह क्यों डर रहा है, वह कईं किस्से बताने लगा।
उस ने मुझे कईं किस्से सुनाए जहां पर उस के बहुत से काम बनते बनते बिगड़ गए, केवल इसलिए कि उस से पहले उस की आरटीआई के चर्चे उस काम करने वाले बंदे तक पहुंचा दिए गये ---और वह उस चश्मे वाले बंदे का नाम भी मुझे बताने लगा .. दोस्त मिले थे बहुत दिनों बाद और बाद में उस ने उस के बारे में क्या क्या बताया, वह मैं यहां नहीं लिख सकता।
अच्छा एक और बात, रमेश ने जितने भी आरटीआई आवेदन लगाए अपने लिए ही लगाए .... अपनी सर्विस के बारे में कुछ पूछना क्या कोई ज़ुर्म करने जैसा है, नहीं ना तो फिर वह यही प्रश्न मेरे से पूछने लगा कि फिर आरटीआई के नाम से ही कुछ लोगों की ....ने क्यों लगती है, इस का सीधा मतलब है कि यह अपने आप में एक सक्षम हथियार है।
बहरहाल, हमारी डिस्कशन तो लंबी चलती है जिस में मैंने भी अपने आरटीआई अनुभव सांझे किये ... कुछ सुना बहुत कुछ सुनाया ...लेकिन अंत में एक बात अच्छे से समझ में आ गई ---जिन कार्यकर्ताओं के अथक प्रयासों के कारण ऐसा बढ़िया कानून बन गया उन को कोटि कोटि नमन....
पूरन के ढाबे पर खाने का लुत्फ़ उठाते उठाते उस ने मुझे एक बात ज़रूर कह दी .... कहने लगा कि यार आज की तारीख नोट कर लेना .. मैं पूछा क्या मतलब .... बताने लगा कि पहले तो वह था आरटीआई यूज़र लेकिन आज से एक आरटीआई एक्टिविस्ट तैयार हो गया.........शायद मैं उस की बात समझ नहीं पाता .. उस ने खुलासा किया कि वह अब दूसरों के लिए अर्थात् समाज की भलाई के लिए इस कानून का उपयोग करेगा।
मैं उस की बातें सुना जा रहा था ..सुने जा रहा था ...... और बहुत कुछ अपने आप से भी पूछ रहा था ....बाकी फिर ...
संगति का असर देखिए -- मैंने भी वापिस आते ही अपने इस आरटीआई  ब्लॉग को खोला और इसे संवारने में लग गया हूं ...कोशिश करूंगा कि इस पर निरंतर लिखूं ... और पूरी इमानदारी से लिखूं ..अभी समझ नहीं पा रहा हूं कि इसे हिंदी में ही रहने दूं या फिर इंगलिश में आरटीआई पर लिखना शुरू करूं ...........लेकिन मैं उस दोस्त की बातों से इतना प्रभावित हुआ हूं कि मुझे भी लगता है कि मैं भी आर टी आई यूज़र से पदोन्नत हो कर ..................     कुछ नहीं यार, कुछ नहीं ... यह गीत सुनिए  जिस का ध्यान आ गया .... समझने वाले तो समझ ही जाएंगे ...............

बुधवार, 12 सितंबर 2012

राइटर ब्लॉक से निजात मिल ही गई

आज से दस बारह वर्ष पहले का समय था जब अखबार में यह सोच सोच कर लेख भेजा करते थे कि हम गिनती के 40-45 लेख ही तो लिख पाएंगे ...इसलिए लेखों को इस तरह संभाल कर रखते थे मानो....। 

लेकिन एक बार अच्छी यह हुई कि 2-3 नवलेखक शिविरों में शिरकत करने का अवसर मिल गया --जोरहाट में, अमृतसर में -------बस तब से समझ आ गया कि लेखों की कमी तो कोई है ही नहीं, कमी हम में है जो इस विधा को समय दे नहीं पाते। 

अब मेरी ही देखिए कि यह मेरा सबसे पहले ब्लॉग -मीडिया डाक्टर --इस को ही मैं कितने लंबे अरसे के लिए नज़रअंदाज़ करता रहा। पिछले सात महीने से कुछ नहीं लिख इस पर --बस आज लिखूंगा-कल लिखूंगा के चक्कर में सर्दी से गर्मी हो गई और अब फिर से लगभग सर्द ऋतु की कगार पर ही तो खड़े हैं। 

अब समस्या यह है कि सुबह से लेकर शाम तक बीसियों लेख आंखों के सामने तैरते रहते हैं ...लेकिन बस यह आलस बुरी बला है.....दुआ करें कि मैं इसे त्याग पाऊं ... 

हां, तो एक बात तो बतानी भूल ही गया जो कि मैं सभी पाठकों से सांझा करना चाहता हूं ---जब मैं जोरहाट --यह शहर गुवाहाटी से ट्रेन के एक रात के सफर जितना दूर है --सुबह शायद चार पांच बजे ही सूर्योदय और शाम को पांच साढ़े पांच बजे सू्र्यास्त ...हां, तो जो गुरू जी हमारे लेखक शिविर के प्रभारी थे, उन्होंने हमें एक बात कही .. क्या तुम लोग समझते हो कि बहुत बड़ी बड़ी बातें लिख कर ही साहित्यकार बना जा सकता है? --उन्हें हमें अपने नाना जी के बारे में बताया -- बहुत पुरानी बात बता रहे होंगे क्योंकि वे स्वयं भी वयोवृद्ध थे -- हां, तो उन्होंने एक दिन हमें मूड में आकर सुनाया कि उन के नाना जी नित प्रतिदिन एक पोथी पर रोज़ाना होने वाला खर्च लिखा करते थे ---लेकिन कोई आलस नहीं ---बिना नागा ...........हुआ क्या कि जब इतने दशकों बात उसे खोल कर देखते हैं तो पता चलता है कि तब आटे-नमक का क्या भाव था, यह भी साहित्य ही है .........और हम अच्छे से समझ गये कि वे कितनी बड़ी बात कितनी सहजता से कह गये।

अपने सभी पाठकों से एक बात और भी कहना चाहूंगा कि आप भी लिखने की आदत डालें --- चाहें तो ब्लॉग ही शुरू कर डालें --- देश-समाज को बदलने का मंसूबा बनाने की कोई ज़रूरत नहीं ---सब कुछ ऐसे ही चलता रहेगा -- डोंट वरी -- बस रोज़ाना एक पन्ना लिखने से शुरू तो कर के देखिए -- अगर नियमित लिखेंगे साल में 365 पन्ने तैयार हो जाएंगे और उन में से हमारे लेखन के गुरूजी ने बताया कि 50-60 तो कम से कम प्रकाशित होने के क़ाबिल तो होंगे ही.... 

शायद मैं पूरी तरह से राइटर ब्लॉक का शिकार नहीं था -- क्योंकि मैं अपने दूसरे ब्लॉगों पर .... सेहतनामा और Health baba पर लगभग नियमित लिख ही रहा था, इन पर क्लिक कर के क्या आप देखना चाहेंगे कि मैं पिछले लगभग छः सात महीने आखिर कर क्या रहा था।

आज के लिए इतनी बातें काफ़ी हैं, कल फिर से करेंगे ...................चलते चलते एक गीत ही सुन लिया जाए, मेरी पसंद का ..... 
आंखे भी होती हैं दिल की जुबा, बिन बोले कर देती हैं हालत ये पल में ब्यां .......

शनिवार, 4 फ़रवरी 2012

तुम बेसहारा हो तो ...

कल बाद दोपहर मैं अंबाला छावनी में एक टी-स्टाल पर चाय की चुस्कियां ले रहा था .... उसी स्टाल पर किसी मोबाइल पर यह सुंदर सा गीत भी बज रहा था, बहुत दिनों बाद सुन रहा था, अच्छा लग रहा था। मुझे नहीं पता था यह उस महान कलाकार नुसरत फतेह अली खान के महान् भतीजे राहत अली खान ने गाया है ...... गुमसुम गुमसुम प्यार दा मौसम....अज न दर्द जगावीं.......


अभी मैं उस टी स्टाल से बाहर निकला ही था कि मैंने देखा कि एक बहुत ही बुज़ुर्ग महिला अपने बेटे का हाथ थाम कर पास की ही एक ऊन की दुकान के बाहर खड़ी थी..... महिला इतनी वृद्ध थीं कि शायद अकेले चल पाने में असमर्थ थी, बिना किसी सहारे के ............और यह देख कर और भी महसूस हुआ कि उस का बेटा भी मानसिक रूप से चैलेंजड था, लग नहीं रहा था कि वह अकेला कोई खरीददारी कर सकता होगा। उन दोनों को देख कर ऐसा लग रहा था कि शरीर उस के बेटे का चल रहा था और दिमाग उस मां का चल रहा था।

वैसे भी हम लोग कितनी बात देखते हैं कि दो बुज़ुर्ग एक दूसरे का हाथ थाम कर सड़क क्रास कर रहे होते हैं, बाज़ार में खरीददारी कर रहे होते हैं.....मैं उन बुज़ुर्गों की बात कर रहा हूं जिन के लिये अपनी बढ़ती उम्र की वजह से बाहर निकलना इतना दूभर हो जाता है कि उन्हें किसी दूसरे पर निर्भर होना पड़ता है....वे एक दूसरे का सहारे बनते दिखते हैं।

अकसर ऐसे मंजर देख कर मुझे उस महान् अभिनेता अशोक कुमार का मेरा बेहद पसंदीदा गीत याद आ जाता है, आप भी सुन लें, लंबे अरसे से सुना नहीं होगा।


बाज़ार में घूमते हुये बहुत से मंज़र हमारी ढोंगी सामाजिक व्यवस्था की पोल खोलते दिख जाते हैं, है कि नहीं ?

सोमवार, 1 अगस्त 2011

कागज़ के पैकेट में भी आ रहा है गुटखा ..

आज अभी अभी मैंने आज की पंजाब केसरी अखबार में देखा कि यमुनानगर (हरियाणा) में एक नशीला पदार्थ खुलेआम बिक रहा है... शीर्षक भी यही था ...खुले में बिक रहा है ज़हर... जब उस समाचार को आगे पढ़ा तो पता चला कि कोई मुनक्का वटी नाम से पुड़िया या पाउच (ध्यान नहीं है क्या लिखा था) .. पान-बीड़ी-सिगरेट की दुकानों में बिक रहा है और स्कूल-कॉलेजों के आस पास जो दुकाने हैं वहां तो इन की बिक्री बहुत ज़्यादा हो रही है।

किसी को कोई पता नहीं कि इस में आखिर है क्या, लेकिन रिपोर्ट में इतना लिखा था कि इसे खाने के बाद एक अजीब सा नशा हो जाता है। पढ़ कर बेहद चिंता हुई .. यही लगा कि बस ऐसे नशों की ही खुलेआम बिकने की कमी थी, बाकी सब कुछ तो पहले ही से मिल रहा है।

यह पढ़ने के बाद मेरे से रहा नहीं गया...मैंने सोचा कि अपने पास ही के एक पनवाड़ी से पता करूं कि आखिर यह है क्या। लेकिन मेरे पूछने पर उस ने बताया कि ऐसा कुछ हमारे यहां तो बिकता नहीं। अभी मैं वहां से हटने ही लगा था कि मेरी नज़र गुटखे के बड़े बडे पैकेटों पर पड़ गई। बड़ा अजीब सा लगा।

मेरे साथ समस्या यह है कि अपने लेख लिख कर स्वयं ही भूल जाता हूं कि लिखा क्या था... कुछ दिन पहले मैंने एक लेख लिखा था कि अब गुटखे आदि प्लास्टिक के पाउच की बजाए कागज़ की पैकिंग में बिका करेंगे.. अच्छा लगा था यह पढ़ कर कि कम से कम लाखों-करोड़ों प्लास्टिक पाउचों की वजह से जो पर्यावरण को नुकसान हो रहा है वह तो कम होगा। और दूसरा यह कि अब शायद गुटखा-यूज़र इसे अपनी पैंट-शर्ट की जेब में रखने से झिझकेंगे .....जब आए दिन दाग़ वाग बीवी घिसने बैठेगी तो कलेश तो होगा ही!!

तो मैंने पनवाड़ी से पूछा कि क्या अब ये गुटखे-वुटखे कागज़ की पैकिंग में आने लगे हैं ...तो उस ने कहा ...हां, हां, अब तो लगभग सभी ब्रांड कागज़ की पैकिंग में ही आने लगे हैं, एक गुटखे का नाम उसने लिया जिस के प्रोडक्ट अभी भी प्लास्टिक पाउच में ही बिकते हैं।

हां, तो मैंने उसे एक पाउच देने के लिये कहा ...उस ने दिया तो आज पहली बार एक गुटखे को कागज़ के पाउच में देख कर बहुत खुशी हुई ... इसलिए इस ऐतिहासिक क्षण की तस्वीर भी यहां टिका रहा हूं।

लेकिन एक बात अजीब सी लगी ... जब उस ने मुझे गुटखे का यह बड़ा सा पैक दिया तो मैंने उसे कहा कि एक रूपये वाला दो ... कहने लगा कि अब एक रूपये वाला नहीं आता ...दो और पांच रूपये वाले पैकेट ही आते हैं। गुटखे का पांच रूपये वाला पैकेट जो आप यहां देख रहे हैं काफ़ी बड़ा है .. लगभग 10 सैंटीमीटर X 8सैंटीमीटर के आकार के पाउच में यह गुटखा रूपी शैतान बंद है.... बस समझने के लिये इतना ही काफी है कि जो छोटे पाउच मिलते हैं, उन चार पाउचों के बराबर की पैकिंग है इन बड़े पैकेटों की।

सोच रहा हूं कि यह बड़ी पैकिंग का कैसे ध्यान आ गया इन निर्माताओं को --- फिर लगा कि कागज की पैकिंग है, और ऊपर लिखा बी है कि Multiple use pack… अर्थात् एक ही पाउच के कंटैंट्स को बार बार खाया जा सकता है। इसी वजह से ....ताकि उन के चहेते ग्राहक को पाउच को फोल्ड कर के जेब में सहेज कर रखने में कोई असुविधा न हो, कोई आलस्य न आए।...

लेकिन फिर ध्यान आ रहा है कि जिस तरह से मैं बहुत से मोटरसाईकिल सवार युवकों को दो दो पाउच पनवाड़ी की दुकान के सामने मुंह में उंडेलते देखता हूं उन्हें तो और भी सुविधा हो जाएगी .....जैसे मोटरसाईकिल की टंकी फुल कर के चलने का अपनी ही मज़ा है, ऐसे में गुटखे को मुंह में अच्छी तरह से ठूंस कर ड्राइविंग का शायद क्रेज़ ही अलग हो। लेकिन जो भी हो, यह बड़े पाउच पहले ही से गंभीर समस्या को और भी क्रिटिकल बना सकते हैं।

यह भी समझ में नहीं आ रहा कि यह बड़े पाउच में यह गुटखा आदि चीज़े बेचना शायद उस नियम को ताक पर रखने की तैयारी हो जिस में कुछ ही महीनों में ऐसे प्रोडक्ट्स पर डरावनी तस्वीरें देखने की सारा देश बाट जोह रहा है................(कहीं हम बाट ही जोहते न रह जाएं!!).

लेकिन वो मुनक्का वटी बात तो पीछे छूट गई ... पीछे नहीं छूटी ... अब अगर पनवाड़ी कह रहा है कि हम ये नहीं बेचते ... तो मैं उस की दुकान की तालाशी लेने से तो रहा ... लेकिन लगाता हूं कि किसी की ड्यूटी उस मुनक्का वटी की एक पुड़िया मेरे सामने पेश करने की। हां, तो उस लेख में यह भी लिखा था कि उस पर यह तो लिखा है कि इस का इस्तेमाल करने से पहले आप किसी वैध की सलाह ले लें ....लेकिन यह लिखा ऐसी जगह है और इतने बारीक अक्षरों में लिखा है कि इसे कोई पढ़ ही न पाता होगा।

वैसे, इस पनवाड़ी ने मेरे से इतनी बातें कर कैसे लीं.... इस का एक राज़ है!!.....मेरा छोटा बेटा इस का पक्का ग्राहक है ...वह अपना सारा जंक फूड –क्रीम बिस्कुट, चाकलेट, चिप्स इसी पनवाड़ी से ही खरीदताLink है......थैंक गॉड, उस ने यह सब अब बहुत ही कम कर दिया है।

अच्छा सोमवार की इस आलस्य भरी सुबह में कलम को यहीं विराम देता हूं।
संबंधित लेखों का पिटारी ........ तंबाकू का कोहराम

रविवार, 31 जुलाई 2011

गुमराह करने वाली हैल्थ किताबों पर रोक लगाने से होगा क्या !

अभी अभी एक खबर दिख गई कि चीन ने सेहत से संबंधित 104 ऐसी किताबों पर प्रतिबंध लगा दिया है जिन में बेबुनियाद, झूठे दायवे किये गये हैं, गलत एवं गुमराह करने वाली जानकारी लोगों को मुहैया करवाई जा रही है। वैसे काम तो चीन ने अच्छा किया है।

लेकिन यह खबर का पहला पैरा पढ़ते ही मुझे एक बात का ध्यान आ गया ---कहीं पढ़ी थी... दुनिया में कांटों से बचना चाहते हैं? –तो फिर आप सारी दुनिया की ज़मीन पर कॉलीन बिछा दें ......लेकिन इस से कहीं बेहतर है कि आप स्वयं ही जूते पहन लें।

बात कितनी सही है!!

व्यक्तिगत तौर पर मुझे लग रहा है कि इस तरह के प्रतिबंध लगाने से शायद सरकारी आंकड़ों का पेट तो भर जाता हो ...उन का पेट भी तो भरा रहना ज़रूरी है ताकि सब को समय पर पदोन्नति मिलती रहे, कुछ तो प्रोजैक्ट करने के लिये चाहिए।

कुछ कुछ किताबों के बारे में सोच रहा हूं जिन पर प्रतिबंध लगाया गया ... लेकिन मुझे लगता है कि इस तरह से तो शायद इन को ज़्यादा पब्लिसिटि मिलती होगी... आज के दौर में किताबों की कापियां खरीदना कौन सा मुश्किल काम है। फिर भी, जो भी हो, चीन को इस बात की बधाई कि उस ने इस के बारे में सोच कर पहल तो की।

दूसरी बात यह भी है कि इंटरनेट के दौर में इस तरह के कदम कितने समुचित हैं, पता नहीं। सब कुछ नेट पर बिखरा-सिमटा पड़ा है, बस एक क्लिक की दूरी पऱ। ठीक है, आम आदमी इस से अभी दूर ही है लेकिन उसे भ्रमों में उलझाए रखने के और भी बहुत से साधन हैं।

भारत की ही बात करें तो टीवी पर तरह तरह के बाबाओं का जमावड़ा लगा रहता है जिनमें से बहुत से इतनी अंधश्रद्धा को बढ़ावा दिये जा रहे हैं कि क्या कहें ....अभी चंद मिनट पहले ही देख रहा था कि एक बाबा अपने सिंहासन पर बैठा बैठा अजीबोगरीब समाधान बताए जा रहा था ...और आज ध्यान से देखा कि पब्लिक में उस के बाउंसर भी खड़े हुये थे।

आज के ही हिंदी अखबार से एक हैंड-बिल निकला है .......जिस का शीर्षक है ...दवा से मुक्ति..इस में एक डाक्टर का नाम बताया गया है कि उस ने एक ऐसी चिकित्सा पद्धति का आविष्कार किया है जिसमें दवा खाने या लगाने की आवश्यकता बिल्कुल ही नहीं होती है। अच्छा, इस में लिखी बातें हु-ब-हू यहां लिख रहा हूं ...

इस पद्धति के माध्यम से किसी भी प्रकार के असाध्य एवं साध्य कहे जाने वाले रोग जैसे सांस की बीमारी, हृदय रोग, मूत्र रोग, लकवा, गुर्दे फेल, मानसिक रोग, गुप्त रोग, कैंसर, गठिया, वात्, एड्स, मिरगी, चर्म रोग, डायबिटिज, उच्च रक्तचाप, बांझपन, हार्मोन संबंधित विकारों का निदान सफलता पूर्वक किया जा रहा है। इस पद्धति में मरीज़ के शरीर से एक बाल लिया जाता है, और रोगी के बाल के माध्यम से दवा का प्रसारण किया जाता है।.....

बस, यार, अब और नहीं मेरे से इस के बारे में लिखा जायेगा।

हां, तो बात चल रही थी बेबुनियाद दावों की, झूठी उम्मीद दिलाने की .... कुछ ऐसे रोग हैं जिन के उपचार से संबंधित कुछ चिकित्सकों ने अपनी साइट बनाई हुई है ... बस, फलां फलां असाध्य रोग का इलाज तो बस उन के ही पास है, बहुत बहुत आकर्षक वेबसाइटें ....और एक मित्र बता रहा था कि एक एक विज़िट के लिये इन के यहां डेढ़ हज़ार के करीब खर्च आ जाता है।

एक वैज्ञानिक सोच यह कहती है कि आज की तारीख में अगर हम सोचें कि कुछ असाध्य बीमारियों का उपचार केवल गिने चुने चंद हकीमों-चिकित्सकों के पास ही है, तो हम बहुत बड़ी गलती कर रहे हैं। हर तरफ़ भोली भाली जनता को - - या बनाने की होड़ सी लगी दिखती है। बेचारा किसी न किसी कांटे में तो फंस ही जाता है, कोफ़त होती है ऐसे लोगों से जो चंद सिक्कों के लिये बीमारी से पहले ही से परेशान पब्लिक को सब्ज-बाग दिखाते हैं....पैसे ऐंठते हैं... विदेशी गाड़ियों में घूमते हैं, विदेश यात्राएं करते हैं... there is just one word to describe them ….Dubious souls!

अगर किसी बीमारी के लिये कोई इलाज आता है तो विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं उस की जांच करती हैं.....बहुत बड़ी व्यवस्था है यह सब.....इसलिये किसी को यूं ही - - या बनाने से ये हाई-फाई ड्रामेबाज गुरेज ही करें तो ठीक होगा ... वरना अगर कल मैं भी यह घोषणा कर दूं कि मैंने दांतों की सड़न से बचने के लिए एक चोपड़ा मंजन तैयार कर लिया है, जब ऐसी कोई बात है ही नहीं, अगर कुछ किया होता तो मेरे कुछ कहने से पहले पूरा विश्व इस के बारे में कहने लगेगा ....लेकिन सब तरह के परीक्षण होने के बाद, ऐसे दायवों की पूरी सुरक्षा जांच होने के बाद ................फिलहाल, वैसे मेरा कोई ऐसा अभिलाषा है भी नहीं... न ही इतनी समझ है, न ही टाइम है, बहुत सा समय तो आप के साथ बातें करने में ही निकल जाता है, मंजन कब तैयार करूंगा, रिटायर होने के बाद जब कहीं खोखा-वोखा खोलूंगा तो देखूंगा .......

बहरहाल, बात को यही कह कर विराम दे रहा हूं कि कितने भी झूठे क्लेम आने लगें, कितनी भी भ्रामक सामग्री प्रिंट होने लगे, कितने भी लोग मीडिया में लोगों को - - या बनाने में लगे रहें, बस अगर हम एक आम आदमी को थोड़ा सा सचेत कर सकें उस की सेहत के बारे में ...उस के सरोकारों के बारे में ....तो बस हो गया अपना काम.................इतना ही काफ़ी है, बाकी सब तो ईश्वर कर ही रहा है।

पोलियो की दो बूंदों से चूकना खिला सकता है जेल की हवा

नाईजीरिया में विभिन्न भ्रांतियों के चलते कुछ गरीब इलाकों में रहने वाले मुस्लिम समाज से संबंध रखने वाले लोग पोलियो कीLinkLink दो बूंदें अपने बच्चों को पिलाने के हक में नहीं है। इस के लिये वे अजीबोगरीब बहाने बनाते हैं... जो लोग पोलियो की खुराक पिलाने उन के घर में आते हैं, उन्हें कह देते हैं कि यहां कोई छोटा बच्चा रहता ही नहीं, और कुछ जगहों पर तो इन चिकित्सा कर्मियों को घर में घुसने ही नहीं देते..... कईं बार कह देते हैं कि वे रिश्तेदार के यहां किसी दूसरे शहर में गये हुये हैं। सोचने वाली बात यह है कि क्या यह सब केवल नाईज़ीरिया में ही हो रहा है ?

लेकिन दक्षिणी अफ्रीका ने भी इस का समाधान लगता है निकाल ही लिया है... अब जो मां-बाप अपने बच्चों को ज़िंदगी की ये दो बूंदे पिलाने से आना कानी करेंगे उन्हें हवालात की हवा भी खानी पड़ सकती है।

यह रिपोर्ट पढ़ते ध्यान आ रहा था कि देशों की सरकारें इस तरह के अभियानों पर करोडो-अरबों रूपये-डालर-पाउंड खर्च करती हैं लेकिन इतने वर्ष बीतने के बाद भी अभी तक लोगों के दिलों-दिमाग पर भ्रांतियां इतनी ज़्यादा हावी हैं जिन के चलते इस तरह के अभियानों को झटका तो लगता ही है।

अचानक ध्यान आ गया 1990 के दशक का ही ... जिन दिनों यह अभियान शुरू हुआ ... उन दिनों अखबारों में यह भी छपता था कि कुछ लोगों ने यह वहम पाल लिया था कि कहीं ये बूंदे बिना वजह बार बार पिला कर उन के बच्चों को खस्सी करने की तो साजिश नहीं चल रही ... खस्सी करने का मतलब तो समझते ही होंगे ... बस, इतना ही समझना काफ़ी है कि पंजाबी में खस्सी उसे कहते हैं जो अपनी प्रजनन-क्षमता खो दे ....और इसे अनेकों बार मजाक के दौरान इस्तेमाल भी किया जाता है। तो, इस मुहिम को शुरू शुरू में अपने यहां भी कुछ लोगों द्वारा एक तरह की नसबंदी के तौर पर ही देखा जाता था। सच में भ्रांतियों का कुचक्र तोड़ना कितना मुश्किल है!!


Full marks for this compaign

पल्स-पोलियो का यह अभियान 1990 के दशक में शुरू होने के बाद लगातार जारी है .... कितने वर्षों से रविवार के दिन कुछ कुछ महीनों बाद यह मुहिम चलाई जा रही है .....वर्ष 2002 के आसपास मेरे कुछ लेख इस समस्या पर समाचार पत्रों में छपे थे।

पोलियो को जड़ से खत्म करने के लिये यह हम सब का साझा दायित्व बनता है कि हम अपने स्तर पर इस अभियान को कामयाब बनाने हेतु बढ़ चढ़ कर सहयोग दें....यह सारे विश्व की भलाई के लिये है।

रोबोटिक सर्जरी से आप्रेशन किए जाना कितना फायदेमंद है?

एक वेबसाइट है .. www.healthnewsreview.org ...यहां पर प्रिंट,इलैक्ट्रोनिक एवं न्यू मीडिया पर अंग्रेज़ी में छपी मैडीकल न्यूज़-रिपोर्ट की खबर ली जाती है....इनके कुछ बढ़िया से मापदंड हैं जिन के द्वारा यह तय करते हैं कि जो मैडीकल न्यूज़ छपी है ...यह कहीं गुमराह करने वाली तो नहीं है....हां, ये मैडीकल विषय पर छपी ख़बरों को उन की श्रेष्ठता के अनुसार स्टार दिये जाते हैं ..जिस स्टोरी की कवरेज बिल्कुल संतुलित एवं इमानदारी से की गई होती है उसे पांच स्टार दिये जाते हैं ..इस वेबसाइट पर अभी तक की सभी पांच सितारा स्टोरियों के लिंक भी पड़े हुये हैं।

अभी देख रहा था कि इन्होंने एक बहुत अनुभवी सर्जन के ब्लॉग के ऊपर टिप्पणी की थी ... ब्लॉग में उस सर्जन ने रोबोटिक सर्जरी के बारे में अपना दिल खोला था ... उस ने लिखा है कि यह किसी भी तरह से पारंपरिक लैपरोस्कोपिक सर्जरी से उत्तम विकल्प नहीं है.... ब्लॉग का नाम ही बहुत बढ़िया लगा ... Skeptical scalpel.

यह जानकारी बहुत ज्ञानवर्धक है ... इसे आप को भी देखना चाहिए ....पहले तो आप हैल्थ-न्यूज़ रिव्यू के प्रकाशक का लेख देखें और फिर उस में दिये एक लिंक पर जा कर उस सर्जन के तथ्यों पर आधारित अनुभव पढ़िए --- केवल यह जानने के लिये कि ज़रूरी नहीं कि कोई तकनीक अति आधुनिक है तो उस के उतने फायदे भी होंगे।

आज वैसे भी चिकित्सा अनुसंधान मार्कीट शक्तियों के हाथों की कठपुतली सा बनता जा रहा है ..ऐसे में किसी की सच्ची एवं इमानदार बातें इस तपिश में हवा के ठंडे झोंके सा काम करती हैं।

शनिवार, 30 जुलाई 2011

एक्सपॉयर दवाईयों को आप कैसे फैंकते हैं?

कुछ दिन पहले की बात है मेरे बेटे ने मेरे से अचानक पूछा कि पापा, आप इस्तेमाल किये हुये ब्लेडों का क्या करते हो, उस का कारण का मतलब था कि उन को आप फैंकते कहां हो? …मैं समझ गया... मैं उस को कोई सटीक सा जवाब दे नहीं पाया....लेकिन मुझे इतना पता है कि वह भी इन्हें घर के कचरेदान में कभी फैकना नहीं चाहेगा।

एक कारण तो यही है कि उस ने कभी मेरे को ऐसा करते देखा नहीं... क्यो? आप को भी उत्सुकता हो रही होगी कि आखिर मैं इस्तेमाल किये गये ब्लेडों का करता क्या हूं। वैसे आजकल तो मैं इलैक्ट्रिक शेवर ही इस्तेमाल करता हूं ... लेकिन आजकल ह्यूमिडिटि बढ़ जाने से यह ढंग से काम नहीं करता ... इसलिये वही ट्विन ब्लेड इस्तेमाल कर लेता हूं ...जिसे कहीं भी फैंकने में सोचना नहीं पड़ता।

लेकिन बहुत वर्षों तक आम ब्लेड़ों से ही दाढ़ी बनाता रहा हूं लेकिन कभी भी याद नहीं पुराने ब्लेडों को कूडेदान में फैंका हो ... कारण? कारण तो लंबा चौड़ा नहीं... बस इतना सा ही है कि यार, हमारी वजह से किसी को कोई चोट क्यों पहुंचे...पहले तो जो घर में जो आप के डोमैस्टिक हैल्प है उसे चोट लगने का डर, फिर घर के बाहर कचरेदान से किसी जानवर आदि के चोट लगने का अंदेशा, फिर उन वर्करों को चोट लगने का चांस जो आज भी बिल्कुल थोड़े थोड़े पैसों में ट्राली में कूडा भरने का काम करते हैं, और आगे से आगे वे रैग-पिकर उन गार्बेज ग्राउंड से कूड़ा बीनेंगे....................कमबख्त इतने लोगों को घायल करने से अच्छा है दाढ़ी से न बनाई जाए।

मैं इस्तेमाल किये ब्लेड़ों को ऐसे ही कहीं अपनी स्टडी रूम की खिड़की आदि में रख दिया करता था .. जहां पर उसे पड़े पड़े इतना जंग लग जाया करता था ..... पता नहीं, ऐसी वस्तुओं ..ब्लेड, सूईंयों, कांच के टुकड़ों को कचरेदान में फैंकते डर लगता है । मुझे याद है एक बार मैं इन सब ब्लेडों को इक्ट्ठे कर के अस्पताल ले गया था क्योंकि वहां पर sharp objects को डिस्पोज ऑफ करना का अपना सलीका होता है क्योंकि Pollution Control Board की आजकल निगाहें अस्पतालों पर तो खासकर टिकी रहती हैं....अच्छा भी है, इस में सब की भलाई निहित है।

हां, तो इस बात का ध्यान आज ऐसे आया कि नेट पर एक शीर्षक दिख गया कि इस्तेमाल करने के बाद बची हुई दवाईयों (इस का मतलब एक्सपॉयर लें) को कैसे फैंकें? मैं जिस लेख की बात कर रहा हूं उस में लिखा था कि बची हुई दवाईयों को सिंक में या टायलेट में न गिराएं ...इस से जल प्रदूषण तो होता ही है जिस की वजह से साथ में जानवर एवं अन्य लोग बीमार पड़ सकते हैं। और साथ में यह सिफारिश की गई थी ...

Remove the label from the bottle, then place the bottle inside a sealed plastic bag.
Throw the sealed bag in the garbage, and keep pets and children away from this trash.
If you need to dispose of pills, grind them up first. Mix the crushed pills into used coffee grounds, sand or cat litter.

हां, बोतल से लेबल हटाने की बात ठीक है, लेकिन फिर उसे किसी प्लास्टिक बैग में सील कर के कूड़ेदान में फैंकने के लिये कहा गया है और साथ में कहा गया है कि पालतू जानवरों को और बच्चों को इस क्लेश से दूर रखिए .....चलिए, इतनी ज़हमत उठा भी ली, लेकिन क्या बाहर घूमने वाले पशु इस प्लास्टिक को नहीं खा जाएंगे, आए दिन अखबारों में देखते हैं किस तरह से इन जानवरों की प्लास्टिक खाने से मौत हो जाती है। अगर ये पालतू नहीं हैं तो फालतू भी नहीं हैं .... इसलिये हम लोग इस तरह की दवाईयों से कैसे निजात पाया करें, इस के लिये आप भी कुछ सोचें और सुझाव लिखिए ...

और गोलियों (टैबलेट) को फैंकने से पहले कहा गया है कि पहले उन्हें पीस लें, फिर उन्हें इस्तेमाल की गई कॉफ़ी से या रेत आदि से मिला कर फैंक दें ...................थोड़ा मुश्किल सा नहीं लगा काम, या मुझे ही ऐसा लगा ...लेकिन हम लोग एक्सपॉयरी आदि वाली टैबलेट्स को उन की स्ट्रिप से निकाल कर ---बहुत बार हाथ ही से तोड़ कर कचरेदान में फैक देते हैं ... आप के क्या सुझाव हैं ? ..मैं आप के सुझावों का इंतज़ार कर रहा हूं।

सुझाव देना मत भूलिये ....