पंजाबी में हम नवरात्रि को नवरात्रे या कई बार जल्दबाजी में नराते भी कह देते हैं ...कल दोपहर में पता चला कि हमारे एक साथी ने यहां मुंबई में अपने घर में घट की स्थापना की है ...यह पता लगने पर हमने भी सोचा कि अपने यादों की पिटारी को हम भी खोल लें...
जी हां, यह पचास साल पुरानी यादें हैं....अब आप सोच रहे होंगे कि यह सब लिखने की क्या ज़रूरत ...यह भी कोई लिखने वाली बात हुई...लेकिन ये सब बातें अगली पीढ़ीयों तक पहुंचाने के लिए दर्ज करनी ज़रूरी हैं...जैसे हम लोग पुराने लेखकों का 100 साल पुराना लिखा पढ़ते हैं तो मस्त हो जाते हैं.. उस ज़माने की बातें पता चलती हैं...ये सिर्फ लेख ही नहीं, उस ज़माने के दस्तावेज़ हैं। अगर हम नहीं लिखेंगे अपनी आपबीती तो अगली पीढ़ीयां कहां से हमारे ज़माने की बातें जान पाएगी...कैसे वह अतीत के झरोखे में झांक पाएगी।
रही बात फ़ुर्सत की ...कोई इतना भी ज़्यादा खाली नहीं होता कि वह लिखने लग जाए....बस एक जज़्बा होता है कुछ संजो कर रख लेने का ....और हां, जब कोई नया नया ब्लॉगिंग में कदम रखता है तो उसे यह बात बड़ी अजीब सी लगती है कि उसे अपने बारे में इतनी सारी बातें लिखनी पड़ती हैं ..कुछ पर्सनल भी ...लेकिन लिखते लिखते फिर एक स्टेज ऐसी आती है कि ब्लॉग के ज़रिए हमारी ज़िंदगी एक खुली किताब जैसी ही लगने लगती है ...लेकिन इसमें भी कुछ मेरे जैसे लोग उस किताब को चाहते हुए भी पूरी तरह से नहीं खोल पाते, हर आदमी की खास कर के नौकरी पेशा लोगों की कुछ मजबूरियां होती हैंं ...खैर, कोई बात नहीं ...किताब जितनी खुल पाए, उतनी ही ठीक है । वैसे लिखने को तो ऐसी ऐसी बातें हैं कि सुनामी आ जाए...लेकिन हंगामा खड़ा करना अपना मक़सद भी तो नहीं।
बहरहाल, अमृतसर के नरातों की जो बचपन की यादें मेरे ज़ेहन में करीने से पड़ी हुई हैं इस वक्त उन्हें साझा कर रहा हूं...इस वक्त सुबह के साढ़े पांच बज रहे हैं ...आज नवरात्रि का दूसरा दिन है ...मैं सीधा 50-52 बरस पहले आप को अमृतसर शहर में लेकर जा रहा हूं...नवरात्रि के इन दिनों में मां और उन की चार पांच सहेलीयां सुबह घर से नंगे पांव चल कर घर से दो एक किलोमीटर दूर अमृतसर के प्रसिद्ध दुर्ग्याना मंदिर जातीं...जाते जाते रास्ते में माता की भेंटें गुनगुनाती जातीं महिलाओं की यह टोली ...और एक टोली नहीं, सडक पर महिलाओं की टोलियां ही टोलियां दिखतीं...यह वह दौर था जब महिलाओं बेधड़क इतनी सुबह भी कहीं आने जाने का बिना किसी डर के सोच सकती थीं...
मुझे कैसे पता है यह सब ...क्योंकि जहां तक मेरी यादाश्त मेरा साथ दे रही है इस वक्त दो एक बार मैं भी इतनी सुबह उठ बैठा था और मां और उन की सहेलीयों की टोली के साथ हो लिया था...मैंने उस दिन देखा कि वहां दुर्ग्याना मंदिर में ये सब महिलाएं माथा टेकती हैं, और वहां से पुजारी इन्हें छोटी गड़वी (लोटे) में कच्चा दूध देते हैं ...(कच्चा दूध मतलब पानी और दूध का मिश्रण)....लिखते वक्त कुछ बातें अपने आप ही याद आने लगती हैं...कल तक मुझे यही याद था कि वहां से महिलाएं पानी ले कर आती थीं...अभी लिखते लिखते ख्याल आया कि नहीं, वह तो कच्चा दूध होता था ...
फिर वहां से लौटते वक्त मैं किसी न किसी मिट्टी के खिलौने के लिए मचलने लगता था ...मुझे यह तो बड़ा अच्छा से याद है कि एक दिन मैं नींद से उठा और मैंने देखा मां मेरे लिए मिट्टी का खिलौना लाई हैं...एक हरे रंग का तोता- और मैं बहुत खुश हुआ था... ऐसे ही मैं कभी साथ जाता तो मिट्टी की गोलक या कोई भी और खिलौना मां ज़रूर दिलवा देती ....(एक बात जो बार बार लिखने को दिल करता है कि हमारी मां ने कभी पिटाई करना तो दूर, कभी गुस्से से देखा तक नहीं...किसी काम के लिए मना नहीं किया ..मां जब 80-85 बरस की हो गईं तो हम भाई बहन जब मिलते तो उन को यह कह कर छेड़ा करते कि आप भी कैसी मां हैं, बीजी, आपने किसी भी बच्चे को कभी पीटा ही नहीं...)
ख़ैर, आगे चलें.... लो जी ्अमृतसर के मंदिर से कच्चा दूध ले आई मां ...और हां, एक बात तो लिखनी भूल ही गया कि सुबह मंदिर जाने से पहले नहाना भी ज़ूरूरी होता था...और फिर वहां से लौट कर उस कच्चे दूध को खेतरी में डाला जाता था ...हर जगह पर अलग अलग नाम हैं...बहुत सी जगहों पर जिसे घट स्थापना (कलश स्थापना) कहते हैं...उसे अमृतसर में खेतरी बीजना कहते थे ... नवरात्रि शुरू होने के एक दिन पहले ही एक मिट्टी का बर्तन ले आते थे ..और साथ में जौं भी मिलते थे ..आजकल की तरह मिट्टी भी बाज़ार से नहीं लानी पड़ती थी ...क्योंकि हम लोग हर मिट्टी ही से जुड़े रहते थे...आस पास मिट्टी की कोई कमी न थी, इसलिए उस मिट्टी के खुले से कटोरे में जौ बीज दिए जाते थे ...और रोज़ाना बड़ी श्रद्धा भाव से उस में कच्चा दूध डाला जाता था...
दो तीन दिन पहले मुंबई के भायखला इलाके में भी घट बिकते दिखे- मिट्टी समेत! |
बात एक और याद आ रही है कि नवरात्रि के दिनों में मां पूरी रामायण ज़रूर पढ़तीं ...वैसे भी मां को रामायण पढ़ते हम अकसर देखा करते थे ..लेकिन नवरात्रि में तो पूरी पढ़ती थीं...सभी श्लोकों को पूरी लय के साथ पढ़ती और दुर्गा स्तुति का पाठ भी ज़रूर करतीं ... एक दो दिन नवरात्रि के व्रत भी रखतीं ...और उन दिनों संघाडे के आटे, कुट्टू के आटे के जो तरह तरह के पकवान बनते और विशेष तरह का फलाहार जो हम सब लोग खाते, वह हमें बहुत अच्छा लगता...तब हम ने यह कुट्टू के आटे के मिलावट के बारे में कुछ नहीं सुना था...यह तो बीस साल से ही हम देख सुन रहे हैं कि मिलावटी या पुराने कुट्टू के आटे की वजह से इतने लोग बीमार हो गए और इतने लोग परेशान हो गए।.
लीजिए, एक सप्ताह बीत गया... खेतरी में जौ की शाखाएं लहलहाने लगीं... लोग इतने सीधे कि अगर किसी की खेतरी में जौ कम अंकुरित होती तो गृहणियां उदास सी हो जाती और अगर शाखाएं बड़ी बड़ी होती तो उल्लास का माहौल होता कि भगवती मां की कृपा अपार हो गई। दुर्गाष्टमी के दिन सुबह कन्या-पूजन किया जाता ... सात कन्याएं एवं एक बालक (जिसे वीर लौंकड़ा कहा जाता था) को सादर बुलाया जाता ...मैं या मेरा भाई, कईं बार मां भी पानी से उन के पैर धोते, फिर बहन उन सब के हाथों पर मौली बांधती, मां उन्हें तिलक लगातीं...और फिर बड़े प्रेम से उन्हें पूरी-छोले-हलवा का प्रसाद खिलाया जाता और जाते समय बडे़ प्रेम से कुछ पैसे भी दिए जाते ....कितने ...अच्छे से याद है 50 साल पहले तो ये 25 या 50 पैसे का सिक्का होता, फिर एक रूपया का सिक्का ... कुछ सालों बाद हर कन्या को दस रूपये के नोट की भेंट दी जाने लगी ...कईं बार मां उन के लिए कोई स्टील का बर्तन जैसे प्लेट ले कर आतीं ...हर एक को वह दी जाती ...कईं बार रबड़ का गेंद, लकड़ी के गीटे (अब गीटे अगर आप नहीं जानते तो मैं आप को यह हिंदी में समझा नहीं पाऊंगा) या मां उन के लिए लाल रंग की चुन्नियां पहले से खरीद कर रखतीं उन्हें भेंट देने के लिए।
कन्या पूजन को पंजाबी में कंजक बिठाना ही कहते हैं ...कंजकों के जाने के बाद ही हम लोग पूरी-छोले और हलवे पर टूट पाते ...और तब तक खाते रहते जब तक खाते खाते थक ही न जाते ..और अकसर उस दिन दोपहर में भी हलवा-पूरी ही चलता ...
अब सुनिए...दुर्गाष्टमी के दिन शाम को मोहल्ले की औरतें इक्ट्ठा हो कर बच्चों को साथ लेकर उस खेतरी को प्रवाह करने जातीं...अभी मैं अपनी बहन के साथ बैठा उन दिनों को याद कर रहा था तो वह भी झट से बोलीं...बिल्ले, हमें उस मेले में जाकर कितना मज़ा आता था। जी हां, उस खेतरी को हम लोग दुर्ग्याणा मंदिर में रख आते थे ...वहां पर हम हज़ारों खेतरियों का पहाड़ लगा हुआ देख कर हैरान हो जाया करते ...फिर वहां से मंदिर के प्रबंधक उन्हें किसी ट्रक-ट्राली में डाल कर सामूहित तौर पर बहते पानी में प्रवाह कर देते थे ...और उस शाम मंदिर के बाहर एक मेला लगा होता था ...आलू की टिक्की, तीले वाली कुल्फी, चाट-पापड़ी, गोलगप्पे, बर्फी-जलेबी ..क्या था जो उस दिन हमें वहां दिखता न था....सब लोग जितना दिल चाहे खाते थे ...मैंने उन मेलों में 60 पैसे की आलू की टिक्की जो खाई हैं कुछ बरसों तक वैसी मैंने कभी 60 रूपये में भी नहीं खाई...वह हरी चटनी, और प्याज़...कुछ अलग ही जादू है अमृतसर के खाने-पीने में ....मैं कहीं पर भी इस की गवाही देने के लिए तैयार हूं...
फिर जैसे जैसे हम बड़े हो गए...हम झिझकने लगे...उस मेले में जाना बंद हो गया...मां ही सहेलीयों साथ चली जातीं....
नवरात्रि के दिनों के बारे में एक बात और भी तो दर्ज करनी है कि वैसे भी हमारे घर में मंगलवार के दिन मीट-अंडा नहीं बनता था ..लेकिन नवरात्रि के दिनों में तो बिल्कुल नहीं ..लोग लहसून-प्याज़ तक का इस्तेमाल नहीं करते थे...अब मुझे याद नहीं कि इतने सब पतिबंध हमारे यहां भी लगते थे या नहीं, लेकिन मेरे ख्याल में नहीं.... बस, मीट-अंडे से उस हफ्ते दूर रहते थे...अब तो 25 साल से सब कुछ छोड़ रखा है ..कभी यह सब खाने की इच्छा ही नहीं होती ...अंडा तो मैंने कभी भी नहीं खाया, बताते हैं कि बचपन में अगर देने की कोशिश की जाती थी तो मैं थूक देता था ...बस, इसीलिए आज तक अंडा खाया ही नहीं।
अरे यार, मैं पोस्ट बंद करने लगा हूं और अमृतसर के नवरात्रों की एक विशेष बात तो शेयर करनी भूल ही गया ....वह यह है कि जो नवरात्रे इन दिनों में आते हैं वहां पर छोटे बच्चों और बड़ों को लंगूर बनाने का चलन है ...यह क्या है, सुनिए....लोगों ने जैसे कोई मन्नत मांगी ...और जब उन की मनोकामना पूर्ण होती है तो वे उस बच्चे या बड़े को सात-आठ दिनों के लिए अमृतसर के हनुमान मंदिर में लंगूर बना कर ले जाते थे...
घर ही से बच्चे को लंगूर के कपडे़ पहना कर ढोल बाजे के साथ मंदिर तक जाना होता था ...वहां जा कर माथा टेक कर फिर ढोल-बाजे की रौनक के साथ घर वापिस लौटना होता था ...मुझे अच्छे से याद है कि लंगूर की ड्रेस कुछ लोग तो सिलवा लेते थे, और कुछ मंदिर के पास ही बनी दुकानों से किराये पर भी ले लेते थे ...हमें लंगूर देख कर बहुत मज़ा आता था..हम घर के अंदर कुछ भी कर रहे होते, जैसे ही हमें ढोल की आवाज़ सुनती हम सब काम छोड़ कर लंगूर के नाच का आनंद लेने बाहर आ जाते और तब तक वहीं खडे़ रहते जब तक वह आंखों से ओझिल न हो जाता ....और हां, जो परिवार अपने किसी बच्चे या बड़े को लंगूर बनाता तो आस पास रहने वाले अपने सगे-संबंधियों और मित्रों को भी निमंत्रण देता कि आप भी हमारे साथ चला करिए ...और लोग जाते भी थे....
अभी मैं अपनी बात पूरी कह नहीं पाया...लेकिन उसे पूरी ज़रूर करूंगा. ..अमृतस के इन नवरात्रों के बारे में और भी लिखूंगा....महान गायक नरेंद्र चंचल से जुड़ी यादें भी अभी साझा करनी हैं...मधुरतम यादें बचपन की।
अब बहुत हो गया....कुछ और याद आएगा तो फिर से लिख दूंगा ...अभी के लिेए इतना ही काफी है...यही सोच रहा हूं कि हम लोगो का बचपन भी कितना ख़ुशग़वार गुज़रा है ...सुनहरी यादों का ख़ज़ाना है अपने पास ....आज के दौर का गाना भी है न एक सुंदर सा ...यह दिल है मेरा यारा इक यादों की अल्मारी, जिस में रखी है मैंने यह दुनिया सारी...यह रहा इस गीत का लिंक (अगर नीचे दिया लिंक न चले तो।...