इस दिन अखबारों में इस के बारे में खूब चिल्ला-चिल्ली होती है। वैसे मैंने भी हिंदी के एक अखबार में इस से संबंधित एक विज्ञापन देख कर सुबह सुबह ही एक रस्म-अदायगी कर छोड़ी थी। लेकिन अब लेटे लेटे कुछ विचार आ रहे हैं जिन्हें अपनी स्लेट पर बेफिक्र हो कर लिख रहा हूं।
विचार आ रहा है कि तरह तरह के बहुत कुछ दावे हम लोग विभिन्न फोरमों पर सुनते रहते हैं कि पानी के क्षेत्र में हम लोग कुछ समय पहले कहां थे और अब देखो कहां के कहां आ गये हैं। सोच रहा हूं कि सचमुच ही कहां से कहां आ गये हैं.....विचार आया कि बचपन से शुरू कर के देख तो लूं कि आखिर हम ने इस दिशा में आखिर कितने परचम लहरा दिये हैं.....
स्कूल में पानी ...... सोच रहा हूं हम लोगों को कहां स्कूल में पानी ले कर जाने की ज़रूरत पड़ती थी !...बस, स्कूल में लगे हैंड-पंप से पानी भी पी लिया करते थे और एक दूसरे के ऊपर थोड़ा बहुत छिड़क कर रोज़ाना होली का आनंद भी लूट लिया करते थे ...जब फिर बड़े स्कूल में गये तो एक बहुत बड़ी पानी की टैंकी से अपनी ज़रूरत पूरी कर लिया करते थे जिस के नीचे 10-12 टूटियां लगी रहती थीं। और अब देखो, हमारे बच्चों को भारी भरकम बस्ते (हम तो भई इन्हें बस्ते ही कहते थे !) के साथ ही साथ इस पानी की बोतल का बोझ उठाने की भी चिंता सताये रहती है। और गर्मी के दिनों में तो अकसर यह बोतल भी कम पड़ जाती है। तो, अपने मन से पूछ रहा हूं कि क्या इस को विकास मान लूं कि छोटे बच्चों को अपनी सेहत के लिये पानी भी उठा कर ले जाने को विवश होना पड़ रहा है। लेकिन बच्चे भी क्या करें और इन के मां-बाप भी क्या करें.......हम ने तो प्राकृतिक संसाधनों का शोषण ही इतना कर दिया है कि क्या कहूं !
हाटेल में पानी .......जब भी बचपन में हम कभी होटल वगैरह या शादी-पार्टी (कहो तो उंगलियों के पोरों पर गिन कर रख दूं !!)..में जाते थे तो पानी पीने से पहले किसी तरह का सोचना थोड़े ही पड़ता था। लेकिन अब जब होटल में जाते हैं तो अकसर पानी की बोतल घर से उठा कर ले जाते हैं। और जब यह बोतल नहीं होती और छोटे बेटे की पानी पीने की इच्छा होती है तो वह झिझकते हुये पूछता है कि पापा, यह वाला पानी पी लूं..............तो हमें भी उतनी ही झिझक के साथ कहना ही पड़ता है कि बेटा, देखना एक-दो घूंट ही पीना, बस अब घर चल ही रहे हैं। तो क्या बच्चों को इस तरह से पानी पीने से भी जब डराया जा रहा है , ऐसे में इसे विकास मान लूं !
विवाह-शादियों का नज़ारा तो देखिये....बारातियों की सेवा के लिये अब तो प्लास्टिक के गिलास भी आते हैं....चाहे पहले बार चखी ( फ्री-फंड में !).....महंगी अंग्रेज़ी शराब के नशे में धुत अस्त-व्यस्त सी गुलाबी पगड़ी डाल कर झूमता हुया, तंदूरी चिकन की एक टंगड़ी को अपने गुटखे से रंगे हुये दांतों से छीलते हुये दुल्हे का मौसा उस पानी के गिलास का एक ही घूंट भरेगा , लेकिन सुबह तो इस तरह के सैंकड़ों प्लास्टिक के गिलास उस बैंकेट हाल के साथ लगते नाले को ब्लाक नहीं करेंगे तो और क्या करेंगे.................समझ में नहीं आ रहा कि पानी परोसने के इस नये अंदाज़ को क्या विकास मान लूं !
वो दस रूपये वाली पानी की बोतल खरीदने को विकास मान लूं ?...........ट्रेन में दूध के लिये बिलखता किसी का नन्हा मुन्ना बच्चा रो-रो कर जब हार जाता है लेकिन उसे दूध नसीब नहीं होता, तो वह आखिर हार कर अपनी बिल्कुल कमज़ोर सी मां की सूखी छाती पर जब टूट पड़ता है और पास ही में मेरे जैसा कोई बाबू जैंटलमैन उस दस रूपये की पानी की बोतल को ज़रूरत न होने पर भी इसलिये बड़े ठाठ से पी रहा होता है कि यार, स्टेशन आ रहा है और इसे पिये बिना कैसे फैक दूं...... तो क्या इसे विकास मान लूं......................नहीं, नहीं , धिक्कार है ऐसी पानी की बोतल पर जिस पर खर्च किये पैसे से एक बच्चे का पेट भर सकता था।
वैसे तो जब देश में पेय-जल की समस्या पर हो रहे सैमीनारों के दौरान स्टेज पर इस तरह के पानी की दर्जनों बोतलें नज़र आने पर जो विचार मेरे मन को उद्वेलित करते हैं उन का मैं यहां पर जिक्र नहीं करना चाहूंगा..........फिर कभी देखूंगा....अभी इतनी हिम्मत नहीं जुटा पा रहा हूँ।
पीछे कितना आ रहा था कि इन पानी की बोतलों में यह है ,वो है, कीटनाशकों के अवशेष हैं.....लेकिन क्या इन की बिक्री में कोई कमी दिख रही है, मुझे तो नहीं लगता। यही तो वास्तविक विकास है , और क्या !!
पानी शुद्धिकरण ...एक अच्छा-खासा उद्योग.................बचपन में नानी के यहां जाते थे तो हैंड-पंप का मीठा पानी पी कर मजा करते थे। थोड़े बड़े हुये तो देखा कि मां पानी की टूटी के ऊपर मल-मल के कपड़े की एक लीर बांध देती है ताकि मिट्टी रूक जाये और सांप वगैरह न आ जाये........थोड़े और बड़े हुये तो देखा कि एक फिल्टर सा पानी को स्टोर करने के लिये इस्तेमाल किया जाने लगा है......कुछ समय बाद शायद उस में लगी कैंडल्स के साथ भी प्राबलम होने लगी तो एक छोटा सा फिल्टर पानी की टूटी पर लगाने वाला ही 100-150 रूपये का चल निकला। बचपन में तो पानी के शुद्धिकरण के बारे में कभी सुना ही न था...बस एक बार याद है कि बड़े भाई को दस्त लगे थे तो, हमारे सामने रह रहे एक झोला-छाप नकली डाक्टर (तब पता नहीं था कि कौन असली और कौन नकली होता है, हमारा बचपन गांव जैसे माहौल में ही बीता है !)…..ने एक टीका लगा कर यह निर्देश दे दिया था कि पप्पू (मेरा बड़ा भाई ) को दो-तीन दिन पानी उबाल कर ही देना होगा।
वैसे सोचता हूं कि कितना आसान है मरीज़ों को इस तरह की सलाह दे देना कि पानी उबाल कर पी लेना.....लेकिन क्या यह इतना प्रैक्टीकल आइडिया है?......चूंकि मैं अपनी ही स्लेट पर लिख रहा हूं और ठीक-गलत की किसी तरह की परवाह किये बिना सब कुछ लिख रहा हूं कि मुझे कभी भी यह आइडिया प्रैक्टीकल लगा ही नहीं। हां, जब तक घर में कोई बीमार है तो समझ में आता है कि घर की गृहिणी यह एक्स्ट्रा काम खुशी खुशी कर लेगी...........लेकिन जिस तरह के ज़्यादातर लोगों के हालात हैं , परिस्थितयां हैं , ऐसे में मुझे इस तरह की किसी को सलाह हमेशा के लिये दे देना भी एक धकौंसलेबाजी ज़्यादा लगती है। लेकिन जो लोग यह पानी उबाल कर पीने की अपनी आदत निभा पा रहे हैं , वे बधाई के पात्र हैं............और उन्हें हमेशा यह आदत कायम रखनी चाहिये क्योंकि पानी को उबाल कर पीना बहुत फायदेमंद है।
वैसे तो मुझे इन क्लोरीन की गोलियों की भी एक आपबीती याद है। हमारे शहर में 1995 में बाढ़ आ गई.....मैं और मेरी मां हम जब एक-डेढ़ महीने बाद वापिस अपने घर पहुंचे तो वहां पर यह बात की बहुत चर्चा थी कि पानी में क्लोरीन की गोलियां डाल कर पीना होगा ताकि कीटाणुरहित जल का ही सेवन किया जाये। लेकिन सारा शहर छान लेने पर भी जब वे नहीं मिलीं तो हम ने उस मटमैले पानी को उबाल कर ही कितने दिनों तक इस्तेमाल किया ।
लेकिन अब मैं अपने मरीज़ों को इतना ज़रूर कहता हूं कि आप में से जो लोग भी अफोर्ड कर सकते हैं वे कोई भी इलैक्ट्रोनिक संयंत्र रसोई-घर में ज़रूर लगवा लें...क्योंकि यह अब किसी तरह की भौतिक सम्पन्नता का प्रतीक न रह कर एक ज़रूरत ही बन चुका है। चूंकि ये अभी भी आम आदमी की पहुंच से बाहर हैं.....लगभग पांच हज़ार की मशीन और लगभग एक हज़ार रूपये की सालाना एएमसी.......इसलिये जब रतन टाटा ने नैनो कार के दर्शन करवाये तो उन्होंने आम आदमी के लिये एक जल-शुद्धिकरण यंत्र बाज़ार में उतारने की बात कही तो मुझे बहुत अच्छा लगा। मुझे नैनो से भी ज़्यादा खुशी इस यंत्र की होगी..।
अब छोड़े इन बातों को इधर ही, इन बातों को खींचने की तो कोई लिमिट है ही नहीं, जितना खींचेंगे खिंचती चली जायेंगी। तो , मैंने भी अपने अंदाज़ में विश्व जल दिवस मना लिया है। मैंने आज सुबह सुबह घऱ में कल ही लाये गये नये मटके से पानी ग्रहण कर लिया है। मेरी प्यास तो उस लंबी सी डंडी वाले स्टील के बर्तन से मटके से निकला पानी ही बिना मुंह लगाये पी कर ही बुझती है। एक साल में लगभग 8-9 महीने जब तक कि मटके के ठंडे पानी से दांत में सिहरन नहीं उठने लग जाती , तब तक तो मैं तो भई इसी तरह से ही पानी पीने का आदि हूं। हां, वो बात अलग है कि मटके में पानी उस इलैक्ट्रोनिक संयंत्र द्वारा शुद्ध किया ही डाला जाता है। सोचता हूं कि इस जालिम मटके के पानी की महक में भी क्या गज़ब की बात है कि बंदे को मिट्टी की सौंधी सौंधी खुशबू भी साथ में हर बार उस की माटी की याद दिलाती है जिससे उस के शरीर की प्यास ही नहीं रूह की प्यास भी मिटती दिखती है। अब मुझे लगता है कि फिलासफी झाड़ने पर उतरने लगा हूं..............इसलिये पोस्ट को तुरंत पब्लिश करने में ही समझदारी है।