रविवार, 4 सितंबर 2016

बैरंग ख़तों की दास्तां

आज मैं आप के साथ अपने बैरंग ख़तों की दास्तां शेयर करूंगा...मैंने लिखा था कल कि ख़तों के ज़माने की अपने पास बहुत सी यादें हैं...कल जब मेरी मां एक ऐसे ही लेख को बांच रही थीं तो मुझे अचानक हंसते हुए कहने लगी कि तुम तो सुवर्षा को भी कितने बैरंग ख़त लिखा करते थे...मुझे भी याद आ गया ...

एक दो बातें पहले स्पष्ट करने लायक हैं, एक तो सुलेख लिखना और दूसरा बैरंग ख़त...सुलेख लिखने से मतलब यह होता था कि हमें हिंदी, पंजाबी और इंगलिश पढ़ाने वाले टीचर ५५ दिन चलने वाली छुट्टियों के लिए एक काम होम-वर्क के अलावा यह भी थमा दिया करते थे कि हर रोज़ कापी में एक पेज़ सुलेख का लिखना है ...सुलेख का मतलब साफ़ साफ़ सुंदर लिखना अधिकतर हिंदी पंजाबी में इसे कलम से लिखना होता और इंगलिश वाले सुलेख के लिए निब लगे होल्डर का इस्तेमाल करना होता!

दूसरी बात, स्पष्ट यह करना चाहता हूं कि पंजाबी भाषी अधिकतर लोगों की हिंदी भाषा ठीक ठाक ही है ...बचपन से हम सुनते आ रहे हैं ..बरंग खत..लेकिन इस पोस्ट को लिखने से पहले मैंने सोचा कि कालिका प्रसाद के हिंदी कोष से देख तो लूं कि सही शब्द आखिर है क्या!.... बरंग तो कोई शब्द था ही नहीं, बेरंग भी देखा, वह भी नहीं दिखा ...फिर एक बार लगा कि यह उर्दू का शब्द ही होगा, उर्दू हिंदी शब्दकोष में देखता हूं...उस से पहले बैरंग शब्द मिल गया ...बैरंग का मतलब यह लिखा हुआ है ...चिट्ठी, पारसल आदि जिसका महसूल भेजनेवाले ने न चुकाया हो .. महसूल का मतलब यहां पर है जिस पर डाक-टिकट  विकट न लगाया गया हो...एक दूसरा अर्थ भी लिखा है इस में ...बिना काम हुए विफल लौटना....आपने भी सुना ही होगा कई ॆबार लोग बाग इस्तेमाल करते हैं इसे कि वह गया तो था फलां काम के लिए लेकिन उसे बैरंग लौटना पड़ा...

चलिए, हो गई व्याकरण की अच्छी अच्छी बातें ..लेकिन बोझिल सी ... अभी किस्से को हल्का किये देते हैं...तो जनाब हुआ यह कि हम उस समय पांचवी छठी कक्षा में रहे होंगे....सुलेख वुलेख ज़ोरों शोरों से चल रहा था ...खुराफ़़ात हुई कि अब इस से इंप्रेस किसे करें....सब से पहले शिकार के रूप में अपनी मौसी सुवर्षा का ध्यान आया ... खतो-किताबत का रिवाज़ बहुत बढ़िया था उन दिनों में ...लेकिन कौन जाए डाकखाने में पोस्टकार्ड लाए...फिर लौट कर पेटी में डालने जाए...मुझे पता नहीं किस ने मुझे यह रास्ता बताया या मेरी खुद की ही खुराफ़ात रही होगी कि मैंने कापी के एक पन्ने पर मौसी के नाम चिट्ठी लिखी .....जैसा कि आप इस तस्वीर में देख रहे हैं...



उसे इस तरह से फोल्ड किया ...
फिर से फोल्ड किया और तैयार हो गया पूरा खत...




अब कापी से एक पेज और फाड़ा और उस में इस खत को रख कर एक मुकम्मल लिफ़ाफा तैयार कर लिया...


सभी रिश्तेदारों के अते-पते-ठिकाने उस जमाने में घर के बच्चे बच्चे को याद हुआ करते थे...मुझे अभी भी बीसियों याद हैं...तो उस पर अपने मौसा जी का नाम पता लिखा और आते जाते गिरा दिया उस लाल डाकपेटी में ....


अरे यह क्या, कुछ ही दिनों में मौसी का जवाब आया कि प्रवीण का खत मिला .. बस, अपना हौंसला बुलंदी पर ....इतना आसान है यह सब, हम अपनी कापी के पन्ने पर कुछ भी लिखें, और वह मौसी के घर पहुंच जाता है ...बस, उस के बाद तो मैंने जैसे इन बैरंग ख़तों की झड़ी लगा दी...जब मन करना, मौसी को ऐसा ही बैरंग ख़त लिख कर पोस्ट-बॉक्स में फैंक आना....यह अच्छा खेल मिल गया था मुझे....

उस मौसी को ही टारगेट बनाया गया क्योंकि वह हमारी पढ़ाई लिखाई के बारे में अकसर पूछती रहती थीं, नंदन, चंदामामा आदि प्रतिकायें देखने के लिए भी कहा करती थीं...यही सोचा कि चलो इन्हें ही इंप्रेस करते हैं....वैसे एक आध बार नानी को भी कम टिकट जैसा कोई बैरंग खत चला गया होगा, लेकिन उन की परेशानियों का ध्यान आते ही कभी उन से इस तरह से तफरीह करने की इच्छा भी नहीं हुई।

हां, किस्सा अभी बाकी है ...इत्मीनान कीजिए...

उन दिनों डाक लिफाफा पच्चीस पैसे का होता था ...अब जिस तरह से मैं बैरंग ख़त भिजवाता था, उस पर मौसी को डाकटिकट का डबल भुगतान करना होता था ...याने के ५० पास...कुछ बार ऐसा ही चलता रहा, कुछ महीनों बाद जब मिले तो मौसी ने मज़ाक मज़ाक में समझाया .... तब तक मेरा शौक भी पूरा हो चुका था ....

लेकिन अब ध्यान यह ज़रूर आता है कि शायद उन दिनों डाकविभाग की कमाई के दो ही साधन थे ...एक तो इस तरह की बैरंग चिट्ठीयों से कमाई और दूसरा घर में रखे रेडियो की लाईसेंस फीस भी डाकखाने में हर साल कुछ पांच दस रूपये जमा करवानी पड़ती थी ...और उस की बाकायदा एक कापी भी बनी हुई थी ...

हां, बैरंग चिट्ठीयां सिर्फ इसी तरह से ही न जाया करतीं....दरअसल उन दिनों सत्तर अस्सी के दशक में इन ख़तों के दाम कभी कभी पांच दस पैसे बढ़ जाया करते थे ... फिर अगर पुराने लिफाफे पर बड़ी हुई दर के बराबर की पांच पैसे की टिकट नहीं लगाई और उसे ऐसे ही पोस्ट-बॉक्स में ठेल दिया तो भी उस चिट्ठी पाने वाले को उस का दोगुना भुगतान करना पड़ता था..थे कि नहीं कड़े कानून!

आज कल जिस तरह से डाकिये ने स्पीड-पोस्ट की चिट्ठीयों की डिलीवरी की लिस्ट पकड़ी होती है उन दिनों वह बैरंग चिट्ठीयों को एक अलग पैकेट और वसूली जाने वाली रकम (जो हमेशा एक रूपये से कम ही हुआ करती थी...) की लिस्ट थामे रहता था ...एक तरह से आप समझ लीजिए कि आपने बैरंग चिट्ठी न डाल दी बल्कि एक रजिस्टरी ही करवा दी हो ...क्योंकि डाकिये की जान तभी छूटती थी जब वह छुट्टे पैसे लेकर पोस्टआफिस में जमा करवा देता था...

बैरंग चिट्ठीयां आती थीं हमारे यहां भी ...हर घर में आती थीं कभी न कभी..लेकिन कमबख्त उस समय बिल्कलु मातम सा छा जाता  था ...हमारी एक पड़ोसन तो कईं बार बच्चों से कहलवा देती ... "असीं नहीं लैनी चिट्ठी, लै जा अपने नाल ही ...जा जा के कह दे डाकिये नूं." (हमें नहीं लेनी चिट्ठी, डाकिये को कह दो जा कर कि ले जाए अपने साथ ही वापिस उस बैरंग चिट्ठी को !)

 लेकिन इस तरह के दृश्य कम ही दिखते थे ..लोग मन ममोस कर, कोसते हुए कैेसे भी उस बैरंग चिट्ठी को डाकिये को भुगतान कर के ले ही लिया करते थे.......वरना डाकिया इस का बुरा मान जाता था और साफ़ धमकी भी दे जाया करता था कि आगे से भी चिट्ठीयां तो आप की और भी आयेंगी ही। संदेश साफ होता था ..अब कौन उस ज़माने के डाकिये से पंगा लेता!

 मुझे कईं बार यह भी ध्यान आता है कि घरों में चिट्ठीयो ंका स्टाक करने की भी कोई प्रथा भी थी नहीं...हर बार ज़रूरत पड़ने पर ही दो पोस्टकार्ड और एक अंतरदेशीय लिफाफा लाया जाता था, कईं बार उस के लिए भी दो चक्कर लग जाया करते थे ...कि खतों का स्टॉक खत्म हो गया है ....

पोस्ट-ऑफिस से खत लाना, लिखना और वापिस उसे लाल डिब्बे के हवाले कर के आना एक पूरी प्रक्रिया थी ...लेकिन फिर भी अच्छे दिन थे...आप का क्या ख्याल है?

अभी भी बहुत बार डाकखाने में कंप्यूटर चल नहीं रहे होते जब स्पीड-पोस्ट करवाने जाते हैं, कभी नेटवर्क नहीं होता, कभी किसी और काम में बाबू व्यस्त होता है तो झुंझला के मना कर देता है .....इसलिए अभी बैरंग ख़तों की इतनी पुरानी यादें ताज़ा करने के बाद मुझे एक आइडिया आया है जिसे मैं आप से शेयर नहीं करना चाहता....