मेरा अपना अनुभव है कि आज से चालीस साल पहले हर तरफ़ एक तरह का सन्नाटा पसरा रहता था..शायद हम लोग इस सन्नाटे के भंग होने की इंतज़ार किया करते थे.....अधिकतर ये भंग होता था..पेढ़ों के पत्तों की आवाज़ों से, पंक्षियों के गीतों से....भंग शब्द कुछ ज़्यादा जंच नहीं रहा, लेकिन कोई अच्छा शब्द इस के लिए मिल भी तो नहीं रहा.....हां, एक बात और, यह सन्नाटा बहुत बार बचपन में लाउड-स्पीकर की आवाज़ से भी भंग हुआ करता था।
लाउड-स्पीकर की आवाज़---बचपन में ये आवाजें अकसर किसी धार्मिक प्रोग्राम के दौरान या फिर शादी ब्याह के समय आती थीं.....टीवी आने से पहले वाले दिनों की बातें हैं.....रेडियो तो बस अपने टाइम पर फिल्मी गीत बजाता था....लेकिन जब यह शादी-ब्याह के मौसम में घर के आसपास कहीं लाउड-स्पीकर फिट होता दिखता तो हमारी बांछें खिल जातीं.......क्योंकि फिर बार बार हमें अपने पसंदीदा फिल्मी गीत सुनने को मिला करते......मैं जट पगला दीवाना, तेरे हुस्न का मुझ पे हुआ यह असर है, गोरे रंग पे न इतना गुमान कर, ड्रीम-गर्ल, दस-नंबरी, डॉन, लैला-मजनू.....इस रेशमी की पाजेब की झंकार के सदके....क्या क्या गिनवाएं...लिस्ट बहुत लंबी है, यादों की रेल जितनी।
अब वैसे लोगों में सहनशीलता नहीं रही...किसी दूसरे के बारे में हम लोगों ने सोचना ही बंद दिया है....और दूसरा लाउड-स्पीकर बजाने वाले भी संवेदन-विहीन होते दिख रहे हैं। सरकारें कितने प्रतिबंध लगाए हुए है कि इतने से इतने बजे के दरमियान लाउड-स्पीकर नहीं बजेंगे लेकिन कोई सुने तो।
आज तो वैसे ही हर तरफ़ इतना शोर-शराबा है कि हर बंदा चाहता है कि कम से कम सुबह, शाम और रात की चंद घड़ियां तो कोई उसे सुकून से काटने दे।
कल की हिन्दुस्तान में एक खबर छपी कि पुराने लखनऊ के वजीरगंज इलाके में मंगलवार रात एक घर में मजलिस के दौरान लाउडस्पीकर बजाने के विवाद में दो पक्ष भिड़ गए। इस दौरान करीब आधे घंटे तक पथराव हुआ जिसमें एक महिला समेत चार लोग चोटिल हो गए।
इसी अखबार के संपादकीय पन्ने पर एक कॉलम छपता है ..नजरिया.......कल यहां पर पंकज चतुर्वेदी का एक लेख दिखा.......आफत बनते भोंपू और चुप्पी साधते लोग जिस में कितनी सही लिखा गया है कि तमाम नियम-कायदों के वावजूद दिन-रात बजने वाले लाउड-स्पीकरों से मुक्ति का कोई तरीका नहीं।
यह लेख अच्छा लगा...हम सब की ही बात करता दिखा......सच में हम लोग इन मुद्दों पर अपने आप को कितना असहाय पाते हैं। इस का शीर्षक लिख कर गूगल किया तो यह लेख ऑनलाइन भी मिल गया.....यह रहा इस का लिंक ... आफते बनते भोंपू और चुप्पी साधते लोग।
अभी कुछ दशक पहले तक सुबह आंखे खुलने पर पक्षियों का कलरव हमारे कानों में मधु घोलता था, आज देश की बड़ी आबादी अनमने मन से धार्मिक स्थलों के बेतरतीब शोर के साथ अपना दिन शुरू करता है। यह शोर पक्षियों, प्रकृति प्रेमी कीट-पतंगों, पालतू जीवों के लिए भी खतरा है। बुजुर्गों, बीमार लोगों व बच्चों के लिए यह असहनीय शोर बड़ा संकट बन कर उभरा है। पूरी रात जागरण या शादी, जन्मदिन के लिए डीजे की तेज आवाज़ कईं के लिए जानलेवा बन चुकी है।
(इसी लेख से)लो जी, अभी अभी मेरे कानों में भी बाहर से आ रहा शोर पड़ना शुरू हो गया.....अभी तक कितनी शांति थी, लगता है अब फिर से एक घंटे के लिए रजाई में ही घुस जाया जाए। अगर आप का कुछ धार्मिक सुनने का मूड है तो इस लिंक पर क्लिक करिए........राम चंदर कह गये सिया से.....ऐसा कलयुग आएगा।