कुछ नहीं, रुक जाते हैं, तो क्या, कोई बात नहीं...लिखना, पढ़ना भी कोई मशीनी काम तो है नहीं कि आरा मशीन की तरह बस लगातार चलते ही रहना है ...कभी कभी छुट्टी लेने का मन भी तो सब का करता ही है ....
इस बार भी मेरे साथ ऐसा ही हुआ..आज दो महीने बाद कोई पोस्ट लिख रहा हूं ...बस ऐसे ही मन ही नहीं किया...बीच में दो एक बार लिखा भी ...अभी देखा वह ड्रॉफ्ट भी पड़ा हुआ है ..लेकिन उसे मुकम्मल करने की इच्छा ही नहीं हुई...इन दिनों बीच बीच में कभी कुछ दोस्त बराबर पूछते रहते हैं कि क्यों भई, लिखना क्यों बंद है ....लिखते रहा करो, जो काम दिल को अच्छा लगे, करते रहना चाहिए...उन की इस तरह की बातें सही रास्ता दिखाने का काम करती हैं...
दरअसल बात यह है कि लिखने वालों के पास लिखने के लिए इतना कुछ रहता है कि कईं बार उकता से जाते हैं ..क्या लिखें और क्या छोड़ें...सब कुछ तो दर्ज कर देना ज़रूरी है ..हकीकत में देखा जाए तो सब कुछ हम दर्ज ही कहां कर पाते हैं...वह बहुत हिम्मत वालों का काम है ..हम तो बस समंदर के किनारे पर बैठ कर उस की मौजों का आनंद लेने वालों में हैं....उस की लहरों के साथ जा कर खेलना हम कहां कर पाते हैं, उस की गहराई को टोह लेना तो बहुत दूर की बात है ...इसलिए अपना लेखन भी सतही ही रहता है ....
इन दो महीनों में मैंने बहुत सी किताबों के पन्ने पलटे...सच में पटले ...क्योंकि मुझ में इतना सब्र नहीं है कि मैं किसी किताब को पूरा पढ़ सकूं...कुछ न कुछ नया ज़रूर पढ़ता हूं ...जो अच्छा लगता है उसे थोड़ा ज़्यादा पढ़ता हूं ...और जो ठीक ठाक लगता है उसे सोते वक्त नींद की गोली की तरह उठा कर जैसे ही पांच दस मिनट पढ़ता हूं, नींद घेर लेती है .. हा हा हा हा हा..सच में ऐसा ही होता है ..
लेकिन इन किताबों की दुनिया भी है बड़ी अजीबोगरीब...एक से बढ़ कर एक लोग हैं लिखने वाले ...आज सुबह जब मैं उठा तो सुस्ती सी छाई हुई थी...मैंने कल खरीदी कुलदीप नैयर साहब की आत्मकथा बिआउंड लाईन्स (Beyond the Lines- in English) जैसे ही उठाई तो एक आधा घंटा कैसे बीत गया पता ही नहीं चला...जो लोग दिल से लिखते हैं, सच लिखते हैं...उन्हें कोई दावा नहीं करना पड़ता, एक आधा पन्ना पढ़ते ही पता चल जाता है ...पढ़ने वाला उन का दुःख-सुख भी महसूस कर लेता है ....
दिन भर में हम इतना कुछ देखते हैं, महसूस करते हैं....हमारे अंदर तरह तरह के अहसास पैदा होते हैं ...नए नए नज़ारे दिखते हैं...कितनी तस्वीरें हम खींचते हैं ...नई जगह से गुज़रते हैं तो कुछ नया दिखता है ...असमंजस में पड़ जाते हैं कि यह क्या हम इसे देखने से कैसे चूक गए...दो तीन दिन पहले मुझे यही ख्याल आ रहा था कि देखा जाए तो ज़िंदगी है ही क्या...बस सुबह उठना, खाना, पीना, कमाई करना, लंबी तान कर सो जाना ....लेकिन इस के साथ हर रोज़ कुछ तो ऐसा हो कि ज़िंदगी में ज़िंदादिली बनी रहे ...अपनी पसंद का कोई गीत ही सुनने का मौका मिल जाए...कोई अच्छी किताब मिल जाए, अपनी किसी पुराने शौक को ज़िंदा रखने का बहाना ही मिल जाए....कोई नया फूल, कोई नया पौधा...कोई नदी, झरना, समंदर ...कुछ तो हर दिन नया हो ....शायद तभी ज़िंदगी सार्थक है ...कोई काम छोटा नहीं है, कोई काम बड़ा नहीं है ...जो भी काम कर रहे हैं उस में फ़ख़्र महसूस करें ...
हां, दो दिन पहले मैं एक पुल के ऊपर से गुज़र रहा था, बादल छाए हुए थे ...मैंने वहीं खड़ा हो कर शेल्फी लेने लग गया....बहुत अच्छा लगा ...एक छोटा सा आठ-दस का बच्चा साईकिल चलाता हुआ उधर से गुज़रा ...मैंने उसे हंसते हुए कहा ...शेल्फी शेल्फी....वह भी हंसने लगा ....जब भी आप किसी को देख कर हंसते हैं न तो आप को हंसी वापिस मिलती ही है ..बस, इस के लिए इस बात की परवाह छोड़नी पडेगी कि यार, हम पहले कैसे हंस दें, कोई कहीं यह तो न समझ लेगा कि यह तो सरका हुआ है ...या अगर किसी के साथ हंस कर बात कर लेंगे तो कोई पता नहीं क्या फायदा उठा लेगा मेरा......निश्चिंत रहिए...कुछ नहीं होगा....बस, हंसते-मुस्कुराते ज़िंदगी अच्छी कट जाती है ...जिसे भी मिलें उस के लिए दुआ किया करें कि ईश्वर, अल्ला, गॉड अपने हर बंदे को ऐसे खुशनुमा हालात दे कि उन की ज़िंदगी मुस्कुराहटों से भरी रहे ...
और एक बात यह भी है कि जो लिखने वाले हैं न यह जो ब्लॉग-व्लॉग या कुछ भी उन के लिए लिखते रहना इसलिए भी ज़रूरी है कि अगर वे कुछ दिन हफ्ते, महीने नहीं लिखते तो फिर लिखने का मन ही नहीं करता ...सच बात है बिल्कुल ...अगर ब्लॉग नहीं लिखते तो सारा दिन बिन बुलाए दर्जनों वॉट्सएप ग्रुपों में तांक-झांक करते रहेंगे ....बिन मांगा ज्ञान बांटते रहेंगे ....कोई जवाब दे न दे, पोस्टें दनादन डालते रहेंगे ....अपनी इज़्ज़त का कुछ ख्याल नहीं ...हम लोग बचपन में देखा करते थे कि जिस रिश्तेदार को एक दो बार चिट्ठी लिखी जाती थी और वह किसी भी कारण से जवाब नहीं देता था तो फिर उस से खतोकिताबत बंद ही हो जाती थी ...इसलिए जिस ग्रुप में कोई सुने न और अपनी सुनाई न तो उस से भी किनारा कर लेना ही मुनासिब है ..मुझे तो यही लगता है ...स्कूल-कॉलेज वाले ग्रुपों का भी कुछ कुछ यही हाल है ...
पिछले दिनों एक ख्याल यह भी आ रहा था जब मैं एक बहुत पुराने बरगद के पेड़ के नीचे फोटो खिंचवा रहा था कि अगर हमें अपने कद का सही जायज़ा लेना हो तो इसी तरह के दरख्त के नीचे खडे़ होकर ही यह संभव हो सकता है, अपनी तुच्छता का अहसास करना हो तो किसी पहाड़ के पास जाना चाहिए और अपने अंदर-बाहर के शोर शराबे से निजात हासिल करनी हो तो समंदर की खामोशी से ही कुछ सीख लेना चाहिए...क़ुदरत का हर क़ायदा कुछ सिखा रहा है लेकिन अगर हमें फ़ुर्सत तो हो कुछ सीखने की ...यह जो बातें मैंने पिछली तीन चार पंक्तियों में लिखी हैं, मैं वैसा लिख नहीं पाया हूं जैसा सोच रहा था ...जैसे विचार आ रहे थे ...खैर, कोई बात नहीं ..जितना लिखा गया, उतना ही मुबारक है ...दो महीने बाद 😬......लेकिन फिर भी रूकावट के लिए खेद तो है ही ....
बहुत ही उत्साहवर्धक लेख....
जवाब देंहटाएंरूकावट के लिए हमें भी बहुत दुख रहा. बस अब नहीं, इसे हम "राइटर्स ब्लॉक" समझ कर भूल जाएंगे. चलते रहिये और यादों के झरोखों से लिखते रहिये. धन्यवाद.
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