मैं अकसर गुज़रे दौर की बातें करता रहता हूं ...इस विधा को हिंदी साहित्य में संस्मरण लेखन कहते हैं...हर कोई अपनी अपनी समझ से आप के लेखन को देखता है ...लेखन कोई इतनी बड़ी तोप भी नहीं ...बस, अपना दिल खोल के सब के सामने रख देने की एक कोशिश है ...धीरे धीरे जैसे जैसे दिल खुलता जाता है, यह काम ख़ासा आसां लगने लगता है...हां, मुझे एक बार मेरे एक कालेज के साथी ने लिखा कि चोपड़े, यार तुम पुरानी बातें याद करते रहते हो...। और बात आई गई हो गई...लेकिन मैं तो वैसे ही अपने दिल की बातें लिख कर हल्कापन महसूस करने का कायल हूं और इस में बहुत सहजता महसूस करता हूं...शायद आज से बीस साल पहले उतनी नहीं करता था जितनी आज करता हूं...
लेकिन कुछ दिन पहले मुझे पंजाबी की एक किताब मिली ...रंग बिरंगीयां...जिसे मेरे स्कूल-कालेज के एक साथी के पिता ने लिखा है ..वह साथी पंजाब का बहुत बड़ा नामचीन सर्जन है ...उस के पापा पंजाबी में लिखते हैं...93 बरस की उम्र में भी लिखते हैं, पेंटिंग करते हैं...वह साथी जब फेसबुक पर अपने पापा की लिखी पोस्टें डालता तो मुझे उन्हें पढ़ने में बड़ा लुत्फ़ आता ...हार कर उस के पापा ने मुझे अपनी लिखी दो किताबें ही भिजवा दीं...शुरू के पन्नों में लेखक ने लिखा है ....उस का हिंदी अनुवाद मैं यहां लिख रहा हूं...
"बेशक यादें मेरी निजी हैं और आप पढ़े-लिखे विद्वान और बुद्धिमान हो, फिर भी शायद कुछ अच्छी लगें, कुछ सिखा जाएं, कुछ ज्ञान में इज़ाफ़ा कर दें , सोचने पर मजबूर करें, हैरान ही कर दें और शायद होटों पर मुस्कान ही ले आएं, आप दूसरों को भी सुनाएं और आप को इन्हें पढ़ते पढ़ते आपकी अपनी पुरानी यादें हरी हो जाएं शायद..."
जब से मैंने उन बुज़ुर्गों की यह बात पढ़ी है, मुझे यह लगने लगा है कि यादों को सहेज कर रखना भी कोई इतनी बुरी बात नहीं है...
उसी सिलसिले में मैं आज कुछ और सहेजने की फ़िराक़ में हूं ...किस तरह से एक छत के नीचे रहते हुए उस दौर के भाई बहन आपस में किस क़द्र जुड़े हुए थे ...उस दौर में भाई बहन आपस में बातें करते थे ...बहुत सी कभी खत्म न होने वाली बातें ...भाई बहन की ज़िंदगी में जो भी चल रहा होता, वे आपस में बात कर लेते ...और मज़े की बात यह है कि भाई बहन की उम्र में काफ़ी फ़र्क होेते हुए भी यह मुमकिन था ...मैं घर में सब से छोटा था, बहन 10 साल बड़ी, भाई 8 साल बड़ा...
यह टीवी मोबाइल न होने की वजह से घर मे सब के पास सब के लिए वक्त ही वक्त था ... और भी कोई मनोरंजन का साधन खास न था...एक दो मैगज़ीन रहतीं जिस के पन्ने उलट लीजिए...और रेडियो जो किसी कमरे के किसी मेज़ पर सजा कर रखा होता...उस की मेहरबानी होती तो हम कोई फिल्मी गीत सुन लेते ...लेकिन अगर उस का मूड ही खराब है, गले में उसे भी खिचखिच होती तो हम परेशान होकर उसे भी आराम करने देते ...यह सोच कर कि सुबह उठ कर छत पर ईंट के नीचे दबी ऐंटीना की तार को हिला-ढुला के देखेंगे ...शायद चल पड़े ..लेकिन अगली दिन वही स्टोरी फिर से दोहराई जाती ...जिन लोगों ने वे सब दिन देखे हुए हैं, उन के लिए लेखक, शायर ...कुछ भी बनना कहां मुश्किल है ...लेख, आलेख खुद ही दिल से बाहर निकलते हैं...
हां, तो घर में भाई-बहनों की बात हो रही थी ...घर में आकर वे अपने स्कूल-कालेज की बातें करते ..बड़े आदर से अपने प्रोफैसरों के बारे में बताते कि वह कितना अच्छा पढ़ाते हैं...कईं बार अपने लिखे हुए नोट्स भी दिखाते कि देखो, आज सर ने कितना पढ़ा दिया...लिखते लिखते हाथ थक गए...मैं छठी-सातवीं में था और बड़ी बहन एम ए में थीं...यह 1973-74 की बातें हैं ...वह बहुत ज़्यादा मेहनत करती थीं...रोज़ का रोज़ पढ़ना और मेरे लिखे इंगलिश के निबंध भी चेक करना ...और मेरी खबर लेते रहना ...खबर लेने का मतलब पिटाई करना नहीं ...वह तो हमें पता भी नहीं था किसे कहते हैं ...हमें घर में किसी ने कभी गुस्से से छुआ तक नहीं.. ...पिटाई तो दूर की बात है ..मां को हम लोग आखिर तक छेड़ते थे कि बीजी, आप भी कैसी मां हो, किसी बच्चे को मारना नहीं, कभी डांटा नहीं, कभी आंखें नहीं दिखाई ...बस, वह हंस देती ...अब जिन बच्चों का बचपन ऐसा बीता हो, उन्हें बड़े होने पर कैसे सब लोग अपने न लगेंगे...
हमें अपने भाई-बहन के कालेज के प्रोफैसरों तक के नाम याद हो जाते थे ...इतनी बार उन के बारे में सुन रखा होता था...ये सब छठी सातवीं कक्षा की बाते हैं...घर के हर बाशिंदे को यह पता होता था कि कौन सा बंदा कहां गया है, कैसे गया है, कब तक आ जाएगा...और सब का इतना सकारात्मक रवैया कि जो भी घर से बाहर गया है वह लौट कर घर ही आ ही जाएगा...आज की तरह नहीं, मिनट मिनट की खबर देना-लेना कमबख्त इतना सिर दुखा देता है कि क्या कहें...
याद नहीं कभी भाई-बहनों ने आपस में कहा हो किसी को कि साईकिल ध्यान से चलाना, संभल कर जाना, वक्त पर आ जाना, स्कूल से सीधा घर ही आना, फ़िज़ूल की चीज़ें न खाना......कोई कुछ नहीं कहता था किसी को, सब अपना ख्याल खुद ही रखते थे ...सातवीं आठवीं कक्षा की बात होगी ..मैंने साईकिल पर नया नया जाना शुरू किया था ..अमृतसर गोल बाग के पास मुझे एक ट्रक आता दिखा तो मैंने अपनी साईकिल वहीं सड़क के बीच ही फैंक दी और खुद पीछे हट गया....साईकिल किसी स्कूटर वूटर के नीचे आ गई ...टेढ़ी सी हो गई ...मैं रिक्शे पर उसे रख कर घर लौट आया...मुझे अडो़स पड़ोस की सभी औरतें ऐसे देखने आईं जैसे मैं कोई जंग फतेह कर के आया हूं ...लेकिन कोई बात नहीं, शाम तक साईकिल को ठीक करवा लिया गया...और अगले दिन से फिर वही साईकिल यात्रा शुरु ---शायद किसी ने बिल्कुल नरमी से घर में यह कह दिया हो कि ट्रक, ट्राली का ख्याल रखा करो....
भाई-बहनों को एक दूसरे के एग्ज़ाम की डेटशीट, उन के सब्जैक्टस के नाम...कौन सा पेपर कैसा हुआ है, कौन सा खराब हुआ है...सब की जानकारी आपस में बांटते थे ...किस ने कहां नौकरी के लिए अप्लाई किया है, किस के रिश्ते की बात कहां चल रही है, बहन ने आज मां के साथ फोटो खिंचवाने जाने से पहले अच्छी सी साड़ी क्यों पहनी है...क्योंकि अब बहन की शादी की बातें घर में होने लगी हैं...मुझे यह बात बहुत उदास कर जाती थी ...अकसर ..कि बहनें बडी़ हो कर ऐसे कैसे दूर चली जाती हैं.......बाल मन की बातें थीं, फिर धीरे धीरे समझ आने लगी ...दिलोदिमाग में ठूंस ठूंस कर भर दिया गया हो जैसे कि बहनें, बेटियां तो पराया धन होता है .......ओह मॉय गॉड...
हां, अब मुद्दे की बात ...क्योंकि मैं भी अमृतसर के उसी कालेज में पढ़ा हूं जिस में बड़े बहन-भाई पढ़ते थे ...कुछ दिन पहले मैंने एक प्रोफैसर साहब का नाम देखा...याद आया कि यह तो बहन को पढ़ाते थे ...उन्हें प्रिंसीपल हो कर रिटायर हुए अरसा हो गया...मैं कल रात फेसबुक पर उन्हें फ्रेंड-रिक्वेस्ट भेज दी ...उन्होंने तुंरत स्वीकार कर ली.....अब सोच रहा हूं आगे की प्लानिंग ...उन का नंबर लेकर बहन को दूंगा ...उन्हें अच्छा लगेगा कि उन की पढ़ाई हुई एक छात्रा भी यूनिवर्सिटी से प्रोफैसर हो कर रिटायर हो गई है..लेकिन यूनिवर्सिटी वाले अभी भी उन्हें छोड़ने को राज़ी नहीं हैं....बहन है, इसलिए नहीं कह रहा हूं ...वह एक बहुत अच्छी टीचर हैं, हमेशा क्लास में जाने से पहले पढ़ कर जाती हैं, यूनिवर्सिटी से जो कापियां जांचने के लिए आती हैं, उन्हें पूरा पढ़ कर जांचती हैं सुबह उठ कर ....जैसे इबादत कर रही हों..कहती हैं हर एक का सही मूल्यांकन ज़रूरी है...
और हां, मेरी मां के जाने के बाद मेरे ब्लॉग की नियमित पाठक हैं, मेरी हौंसलाफ़जाई करती रहती हैं कि नियमित लिखते रहा करो, तुम बहुत अच्छा लिखते हो ...ख़ुदा करे उन की यह गलतफ़हमी बरकरार रहे और मुझे शाबाशी मिलती रहे ...😃
लेकिन ये सब उन दिनों की बात है जब मोबाइल, टीवी, वीसीआर....कोई झंझट नहीं था, हम सब लोग आपस में खूब बातें करते थे ...अंगीठी के दौर में उस के आसपास बैठ कर मूंगफली-रेवड़ी खाते खाते खूब हंसते थे ...खूब ठहाके लगाते थे..फिर भी हम सब 9 बजे तक सो ही जाते थे ...आज की तरह नहीं जैसे हम उल्लू बने होते हैं ..रात 12-1 बजे तक ..बिल्कुल दीवानों की तरह पर वाट्सएप पर टंगे रहते हैं...फिर वही पकाने वाली बातें की पता नहीं नींद नहीं आती, नींद पूरी नहीं होती, नींद गहरी नहीं होती.....काश, नींद की भी कोेई एप ही आ जाए उसे स्विच करते ही नींद भी आ जाए .....
परसों देर शाम मैं कफ-परेड प्रेज़ीडेंट हाटेल के पास एक बाग की तरफ़ से निकल रहा था ..मैंने देखा बहुत से बेंचों पर चार चार लड़के बैठे हैं..पेड़-पौधों को निहार नहीं रहे, खेल-कूद नहीं कर रहे ...भाग-दौड़ नहीं रहे .....लेकिन अपने मोबाइल पर सब के साथ खेल रहे हैं......बड़ा अजीबोगरीब नज़ारा लगा मुझे वह उस दिन ....
यह कहां आ गए हम!! |
मोबाइल पर खेलते बच्चों को कई बार देखा है ग्राउंड में, बहुत ही बढ़िया लिखा आपने, धीरे धीरे बहुत कुछ बदल गया।
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