इस तरह के उद्घोष हम जैसे लोगों के लिए तो उचित हैं जिन्हें नींद से जगाना पड़ता है, लेकिन कुछ लोगों को मजबूरी से सुबह सुबह जागना ही पड़ता है....आज मेरी साईकिल जिस तरफ़ मुड़ गया उस तरफ़ यह श्रमिक सुबह ७ बजे अपने काम में पूर्णतयः तल्लीन दिखा...पास ही कुछ महिलाएं एक नल से घर के सभी बर्तनों में पानी भरते भरते नोंकझोंक कर रही थीं लेकिन उसे किसी तरफ भी देखने की फुर्सत नहीं थी। उस गीत का मुझे ध्यान आ गया...जिसने डांस नहीं करना वो जा कर अपनी भैंस चराए। समझ गए!!
यह लखनऊ की मानसरोवर योजना है इस में खूब भव्य इमारतें बन रही हैं लेकिन इन्हीं निर्माणाधीन कंकरीटके जंगलों के ठीक सामने ठंडक और सुकून देने एक पुरातन पेड़ और उस की छत्रछाया में रहने वालों का बसेरा भी उतना ही कूल!
आगे चलने पर यह भी पता चल गया कि जितना भी पालीथीन हम लोग इस्तेमाल करते हैं वह सारे का सारा बेचारे पशुओं के पेट ही में नहीं जाता, इसे इस तरह से सलीके से इक्ट्ठा कर के वापिस फैक्टरियों में भेजा जाता है जहां फिर से इन की थैलियां, प्लास्टिक के कप गिलास बनते हैं...अगर हम ने अभी भी प्लास्टिक को नहीं छोड़ा तो अंजाम आप सब जानते ही हैं !
यह मानसरोवर स्कीम की वह जगह है जहां पर रेलवे हाउसिंग कल्याण संगठन और नेवी-एयरफोर्स हाउसिंग वालों ने अपने सेवारत और रिटायर्ड कर्मचारियों एवं अधिकारियों के लिए मकान तैयार कर रखे हैं...आज पता चला कि रेलवे के इन घरों के ठीक पीछे ट्रांसपोर्ट योजना का रेलवे स्टेशन भी है.
और यह भी देखा कि सुबह सुबह लोग अपने खाने पीने का जुगाड़ करने लगे हैं....इस तरह के कच्चे शैड वाली दुकानें सुबह सुबह चाय-पकौड़ी बनाना शुरू कर देती हैं। आगे चल के देखा तो यहां पर सैंकड़ों ट्रक आदि खड़े थे...इस का नाम ही ट्रांसपोर्ट नगर है ..आगे चल कर यह सड़क कानपुर रोड से मिल जाती है। और यह ट्रांसपोर्ट नगर लखनऊ के अमौसी एयरपोर्ट से ज़्यादा दूर नहीं है...यही कोई ५-७ मिनट की दूरी पर होगा एयरपोर्ट।
लौटते हुए थोड़ा सा रास्ता बदल लिया.....लेकिन यह क्या ..हज़ारों नहीं तो सैंकड़ों घरों पर ताला। और ऐसा लगा कि यहां पर कभी कोई रहा ही नहीं। उत्सुकतावश किसी राही से पूछ ही लिया कि सब घरों पर ताला क्यों ?...उस बंदे ने बताया कि ये घर आर्थिक तौर पर कमज़ोर लोगों के लिए (EWS) के अंसल द्वारा बनाए गये थे..पैसा वैसा सब जमा हो चुका है...लेिकन मामला कोर्ट-कचहरी में चल रहा है.......पता नहीं कब तक चलेगा। दुःख हुआ कि गरीब मार हर जगह हो ही जाती है...कोई सरकारी स्कीम हो तो उसे चूना और इस तरह की स्कीमों की तो बात ही क्या करें! यही ध्यान में आया कि घर वही जिस में आदमी रहना शुरू कर दे। यहां भी आसपास भैंसे बंधी हुई थीं...और कुछ घरों में गोबर के उपले सूख रहे थे।
बस इन्हीं मिश्रित सी भावनाओं के साथ आज का भ्रमण समाप्त हुआ....लेकिन इस फूल के अद्भुत सौंदर्य पर मैं विस्मृत हुए बिना न रह पाया....
यह लखनऊ की मानसरोवर योजना है इस में खूब भव्य इमारतें बन रही हैं लेकिन इन्हीं निर्माणाधीन कंकरीटके जंगलों के ठीक सामने ठंडक और सुकून देने एक पुरातन पेड़ और उस की छत्रछाया में रहने वालों का बसेरा भी उतना ही कूल!
आगे चलने पर यह भी पता चल गया कि जितना भी पालीथीन हम लोग इस्तेमाल करते हैं वह सारे का सारा बेचारे पशुओं के पेट ही में नहीं जाता, इसे इस तरह से सलीके से इक्ट्ठा कर के वापिस फैक्टरियों में भेजा जाता है जहां फिर से इन की थैलियां, प्लास्टिक के कप गिलास बनते हैं...अगर हम ने अभी भी प्लास्टिक को नहीं छोड़ा तो अंजाम आप सब जानते ही हैं !
यह मानसरोवर स्कीम की वह जगह है जहां पर रेलवे हाउसिंग कल्याण संगठन और नेवी-एयरफोर्स हाउसिंग वालों ने अपने सेवारत और रिटायर्ड कर्मचारियों एवं अधिकारियों के लिए मकान तैयार कर रखे हैं...आज पता चला कि रेलवे के इन घरों के ठीक पीछे ट्रांसपोर्ट योजना का रेलवे स्टेशन भी है.
और यह भी देखा कि सुबह सुबह लोग अपने खाने पीने का जुगाड़ करने लगे हैं....इस तरह के कच्चे शैड वाली दुकानें सुबह सुबह चाय-पकौड़ी बनाना शुरू कर देती हैं। आगे चल के देखा तो यहां पर सैंकड़ों ट्रक आदि खड़े थे...इस का नाम ही ट्रांसपोर्ट नगर है ..आगे चल कर यह सड़क कानपुर रोड से मिल जाती है। और यह ट्रांसपोर्ट नगर लखनऊ के अमौसी एयरपोर्ट से ज़्यादा दूर नहीं है...यही कोई ५-७ मिनट की दूरी पर होगा एयरपोर्ट।
लौटते हुए थोड़ा सा रास्ता बदल लिया.....लेकिन यह क्या ..हज़ारों नहीं तो सैंकड़ों घरों पर ताला। और ऐसा लगा कि यहां पर कभी कोई रहा ही नहीं। उत्सुकतावश किसी राही से पूछ ही लिया कि सब घरों पर ताला क्यों ?...उस बंदे ने बताया कि ये घर आर्थिक तौर पर कमज़ोर लोगों के लिए (EWS) के अंसल द्वारा बनाए गये थे..पैसा वैसा सब जमा हो चुका है...लेिकन मामला कोर्ट-कचहरी में चल रहा है.......पता नहीं कब तक चलेगा। दुःख हुआ कि गरीब मार हर जगह हो ही जाती है...कोई सरकारी स्कीम हो तो उसे चूना और इस तरह की स्कीमों की तो बात ही क्या करें! यही ध्यान में आया कि घर वही जिस में आदमी रहना शुरू कर दे। यहां भी आसपास भैंसे बंधी हुई थीं...और कुछ घरों में गोबर के उपले सूख रहे थे।
बस इन्हीं मिश्रित सी भावनाओं के साथ आज का भ्रमण समाप्त हुआ....लेकिन इस फूल के अद्भुत सौंदर्य पर मैं विस्मृत हुए बिना न रह पाया....
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