शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2016

आई झूम के बसंत ...झूमो संग संग में

आज ऐसे ही ध्यान आ रहा था कि अब तो त्योहारों का पता-ठिकाना भी बहुत बार मीडिया वालों से ही चलता है...वैसे तो सरकारी छुट्टी से भी बहुत से त्योहारों का पता चल जाता है.. आज भी बसंत पंचमी थी...ऐसे ही पता चल तो गया था..लेकिन हमारी छुट्टी नहीं थी....बसंत कैसे मनाई?....बस, आज सुबह पीली कमीज़ पहन ली..

बचपन में बसंत पंचमी के दिन हम सब के लिए पीले कपड़े पहनना बिल्कुल ज़रूरी हुआ करता था...छुट्टी तो पक्का रहती ही थी...पता नहीं पिछले कुछ बरसों से देख रहा हूं छु्टटी नहीं हो रही ..लेकिन जहां तक मुझे ध्यान है पंजाब में हमेशा इस दिन छुट्टी रहती ही है.. शायद अलग अलग जगहों पर त्योहारों का महत्व भी कम-ज़्यादा होता होगा... यह बात तो है।

हां, बसंत पर्व की बात चल रही थी..उस दिन हम पीले रंग के मीठे चावल और कुछ खास व्यंजन खाते थे, सारा आकाश पतंगों से भरा हुआ होता था...और अपनी अपनी छतों पर सब चढ़ जाते थे...और हां, लाउडस्पीकर पर ऊंची ऊची आवाज़ में फिल्मी गीत चला करते थे..यह तो थी हमारी बसंत।


और इन पर जोर जोर से बजते वे गीत...मैं जट्ट यमला पगला दीवाना ....

 मैं इसी फोटो को ही तो ढूंढ रहा था... 
सुबह मां कुछ कह रही थीं बसंत के बारे में ...अपने जमाने की बसंत के बारे में...मां मीरपुर (जम्मू कश्मीर..POK) की रहने वाली हैं..वहीं पर जन्म हुआ, वहीं पढ़ाई हुई...१९४७ में जम्मू आ गये...बता रही थीं कि हमारे समय में तो बसंत के दिन बहुत बड़ा मेला लगता था.. पीर नाभन मेला...पहाड़ पर लगने वाला यह मेला था.. सब लड़कियां मिल कर वहां जातीं...बड़ा अच्छा लगता...बसंत पंचमी के कईं दिन पहले मां बताती हैं कि लड़कियां दुपट्टों पर गुलाबी और पीला रंग करना शुरू कर देती थीं....और एक मजेदार बात, खरबूज और तरबूज के बीज को पीला रंग कर उसे माला में पिरो कर पहना करते थे...मेले से वापिस आते समय हम मालटे खूब खाया करते थे जो अंदर से बिल्कुल लाल हुआ करते थे...मालटे का नाम सुनते मुझे भी याद आया...यह तो हम भी खाते ही थे बचपन में, अब कहां गये मालटे?....अब तो कीनू ही दिखता है हर जगह .. मां के लिए बसंत पंचमी का विशेष महत्व इसलिए भी है क्योंकि इस दिन इन की सगाई हुई थी।

मीरपुर का रघुनाथ मंदिर 
अपनी अपनी यादें ...अपना अपना सरमाया....मीरपुर को याद करके वह भावुक हो जाती हैं..मीरपुर के रघुनाथ मंदिर को बहुत याद करती हैं...गूगल बाबा से देखा तो यह मंदिर दिख गया..

आज भी जब दोपहर में मैंने किसी रेडियो चैनल पर यह गीत सुना ...आई झूम के बसंत ..झूमो संग संग में... तो बहुत अच्छा लगा..ध्यान आया कि बहुत से राष्ट्रीय पर्व एवं त्योहार ऐसे हैं जिन के लिए हिंदी फिल्मी गीत सेट हैं...याद करिए रक्षा बंधन के दिन सुबह सुबह बजने वाला ...बहना ने भाई की कलाई पे प्यार बांधा है... और इसी तरह के गीत हर पर्व के लिए...हर जश्न के लिए...हम इन फिल्मी गीतकारों के हमेशा कर्ज़दार रहेंगे...

मैंने जब यह गीत सुना तो मुझे नहीं पता था कि यह उपकार फिल्म का है... मैं इसे भूल चुका था शायद....अब साल मेें एक बार ही अगर इस तरह के गीत सुनने को मिल गया तो मिल गया....मिस हो गया....तो गया... ऐसे में इन गीतों की याद कहीं धीरे धीरे धुंधली न हो जाए......वैसे ऐसा हो नहीं सकता...क्योंकि ये गीत हमारी संवेदनाएं परदे पर उकेर रहे हैं...ये केवल गीत ही नहीं है...



यह गीत सुनने के बाद मुझे ऐसा ध्यान आया कि क्या बसंत पंचमी के थीम पर केवल यही गीत है ..तभी एक और सुपरहिट गीत लगभग २० साल पुराना याद आ गया...रुत आ गई रे..रुत आ गई रे....यहां पतंगबाजी के साथ साथ इसे सिखाने की भी क्लास लगी हुई है, check this out! Another master piece from the great, versatile actor, Nandita Das.



बस, आज इस पोस्ट के लिए इतना ही....जल्दी फिर मिलते हैं... Happy Basant Panchmi...

2 टिप्‍पणियां:

  1. बचपन के वसंत पंचमी की याद दिला दी। हम स्कूल में पीले कपडे पहन कर जाते थे और सरस्वती पूजा का उत्सव होता था।

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  2. मुझे याद है कक्षा दूसरी तक हम अंबिकापुर के पास एक छोटे से कस्बे मनेंद्रगढ़ में सरस्वती शिशु मंदिर में पढ़ते थे. वहां देवी की बहुत बड़ी प्रतिमा स्थापित की जाती थी और सांस्कृतिक कार्यक्रम होते थे. प्रसाद में मीठा केसरिया भात मिलता था जिसका जायका अद्वितीय था. वैसा भात खाए 30 साल से भी ज्यादा समय हो गया.

    आपने बैकग्राउंड फिर से सफेद कर दिया. धन्यवाद.

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