गुरुवार, 10 अप्रैल 2008

राजू अजीब सी मुसीबत में है !!


राजू इस समय बहुत मुसीबत में है...किसी मित्र के रेफरेंस के साथ मेरे से बातचीत कर के मार्ग-दर्शन के लिये कुछ दिन पहले आया था। वह 30-35 साल का एक स्वस्थ नौजवान है....शादीशुदा है, बाल-बच्चे हैं। उसे चार वर्ष से एक ही समस्या है कि पेशाब करने के बाद भी कुछ कुछ पेशाब की बूंदे टपकने की वजह से उस की पैंट गीली हो जाती है। चार वर्ष पहले उस ने इस के लिये किसी डाक्टर के कहने पर एक अल्ट्रा-साऊंड करवाया था.....उस में बाकी सब कुछ तो नार्मल था, लेकिन प्रोस्टेट ग्लैंड ( इस एरिया में तो इसे गदूद ही कहते हैं) में सूजन आई थी। तब, उसे इस के लिये कुछ दवाईयां किसी डाक्टर ने दे दी। उस डाक्टर ने उसे यह भी समझा दिया कि ज़्यादा मिर्च-मसाले मत खाया करो, सादा आहार लिया करो........खैर, इन चार सालों में वह कईं तरह तरह के डाक्टरों के पास चक्कर काट काट कर परेशान हो चुका है.....इन सब पर खूब खर्चा कर चुका है। जिस दिन वह मेरे से बात करने आया था तो उस से पहले भी वह किसी डाक्टर से मिल कर ही आ रहा था, सो उस के हाथ में केवल एक दवाईयों का नुस्खा और वही चार साल पुरानी अल्ट्रा-साउंड की रिपोर्ट थी।

मैंने उस की पूरी पर्सनल हिस्ट्री लेने के बाद जब यह जानना चाहा कि तकलीफ़ जो चार साल से चल रही है, उस में इन दिनों क्या कुछ बदला-बदला सा लग रहा है। तब उस ने मन खोल कर बात की कि उसे शायद पेशाब करने के बाद भी बूंद-बूंद टपकने से कोई परेशानी नहीं है। लेकिन पिछले चार-महीनों से उसे सैक्स में थोड़ी कठिनाई होने लगी है। उस समय मेरा उस से यह पूछना ज़रूरी था कि किस किस्म की कठिनाई.....मैं जानना चाह रहा था कि किसी तरह का डिस्चार्ज तो नहीं होता, कहीं से कोई रक्त तो नहीं बहता...........लेकिन उस ने झट से बतला ही दिया कि मुझे यह सब कुछ नहीं है ....लेकिन उसे अपनी पत्नी के पास जाने में हिचकिचाहट सी होने लगी है.....और वह भी इरैक्शन में तकलीफ़ की वजह से !....मैंने उस से यह पूछा कि तुम अभी जिस डाक्टर से दवा लेकर आ रहे हो,उसे इस के बारे में बताया था.....तो उसने कहा कि उन के पास उस समय बहुत से मरीज़ खड़े थे और उन्होंने उस बूंद-बूंद वाली शिकायत सुनने के बाद आगे कोई सवाल पूछा ही नहीं था।

राजू नाम के शख्स को मिलने के बाद मैं काफी समय यही सोचता रहा कि जिन मरीज़ों को सही समय पर सही विशेषज्ञ के पास रैफर कर दिया जाता है ...वे बहुत भाग्यवान होते हैं....नहीं तो अकसर देखते हैं कि छोटे छोटे रोग यूं ही विकराल रूप धारण कर लेते हैं जिन की वजह से सेहत की , रूपये-पैसे की बर्बादी तो होती ही है और साथ ही साथ जो परेशानी होती है उस का तो कोई हिसाब ही नहीं । राजू यह भी बता रहा था कि जिस डाक्टर को भी मिला है उन सब ने यही कहा है कि कुछ नहीं है....बस, तुम खाना-पीना हल्का खाया करो। लेकिन राजू की आदतें जानने से नहीं लगता कि इस तरह की बातों में कोई गड़बड़ है...उसे न तो कोई व्यसन है और न ही वह दूसरी औरतों वगैरा के चक्कर में है। मैं भी यही सोच रहा था कि जिन जिन चिकित्सकों को यह बंदा मिला है उन्होंने बस दवाईयां देकर ही उसका इलाज करना चाहा....अभी जो उसकी मौजूदा शिकायत है( इरैक्टाइल डिस्फंक्शन वाली ) उस के लिये भी उसे यही कहा गया कि देखो, ऐसा कुछ नहीं हो सकता, यह तो तुम्हारे मन की ही उपज है। लेकिन मरीज कितना इंटैलीजैंट है ...उस से बात कर के पता चल जाता है.....राजू को अपनी नौकरी के सिलसिले में दो-तीन महीने किसी दूर जगह पर तैनात रहना पड़ता है....उसे इस दौरान कभी कभार स्वपन-दोष( night-fall) भी होता है जिसकी उसे कोई टैंशन नहीं है क्योंकि किसी चिकित्सक ने उसे यह बतला दिया हुया है कि वह सब नार्मल है। जागरूकता के इतने स्तर के बारे में जान कर तसल्ली भी हुई ।

बात सोचने की है कि एक 30-35 साल का स्वस्थ नौजवान दिन में कईं बार रैज़िडूयल यूरीन की वजह से पैंट गीली होने की बात कर रहा है और अब चार महीने से उस की सैक्सुयल लाइफ भी डिस्टर्ब हो रही है............ऐसे में क्या कुछ कैप्सूल-गोलियां थमा देने से सब कुछ ठीक ठाक हो जायेगा। बिना किसी तरह की प्रोस्टैट की ढंग से जांच किये बगैर कैसे आप किसी को यह कह सकते हो कि सब कुछ तुम्हारे मन में ही है....हां, अगर किसी विशेषज्ञ ने सारे टैस्ट कर लिये होते, सब कुछ दुरूस्त मिलता तो बहुत माइल्डली समझाया जा सकता है कि सब कुछ ठीक हो जायेगा.....तुम इस की बिल्कुल भी चिंता न किया करो।

तो, मैंने तो उसे यही सलाह दी कि उसे किसी अच्छे यूरोलॉजिस्ट से मिल लेना चाहिये.......वह प्रोस्ट्रेट-ग्लैंड को क्लीनिकली चैक करेगा, उस का नया अल्ट्रा-साउंड करवायेगा, शायद कुछ ब्लड-यूरिन टैस्ट वगैरा भी होंगे........यह सब कुछ करने के बाद वह इस निष्कर्ष पर पहुंचेगा कि आखिर प्रोस्ट्रेट ग्लैंड इतने सालों से क्यों प्राबल्म कर रहा है, क्यों हो रही है इस तरह की सैक्सुयल समस्या ....क्या इस का प्रोस्ट्रेट की सूजन से कोई संबंध है, इस पुरानी प्रोस्ट्रेट की तकलीफ के कारण किसी तरह की इंफैक्शन किसी दूसरी तरफ तो नहीं फैल चुकी, क्या इस तकलीफ का समाधान आप्रेशन से होगा.....क्या वह लैपरोस्कोपी(दूरबीन) से संभव है......इसी तरह के ढ़ेरों सवालों के जवाब उस विशेषज्ञ के पास ही हैं......बाकी लोग तो तुक्के मारते रहेंगे, टोटके बताते रहेंगे।

उम्मीद है कि मेरी इस पोस्ट के पीछे छिपी स्पिरिट को आप समझ गये होंगे कि आज कल हमें अगर सही समय पर सही सलाह मिल जाती है तो वह अनमोल है.........इसलिये कभी भी सैकेंड ओपिनियन लेने में भी नहीं झिझकना चाहिये। मानव की शरीर, उस की फिज़ियॉलॉजी, साईकॉलॉजी .....बहुत ही कंप्लैक्स बात है..........इसे हम लोग विशेषकर जब कोई किसी अंग की ऑरगैनिक व्याधि ( organic disease) से ग्रस्त हो तो ऐसे ही नीम-हकीमों के चक्कर में न पड़ते हुये किसी विशेषज्ञ चिकित्सक का रूख करने में ही बेहतरी है।

मैंने तो पूरी कोशिश की है कि अपनी बात प्रभावपूर्ण तरीके से आप के सामने रख सकूं,.....वैसे जाते जाते यह ज़रूर बतलाना चाहूंगा कि यह राजू वाला किस्सा शत-प्रतिशत सच्चाई पर आधारित है लेकिन उस का नाम मैंने ज़रूर बदला है-- Simply because of the fact there can never ever be any compromise with the confidentiality clause of doctor-patient relationship.


बुधवार, 9 अप्रैल 2008

एक सौ आठ हैं चैनल, पर दिल बहलते क्यों नहीं !





लिखने वाले ने भी क्या जबरदस्त लिख दिया है !...लेकिन इस बात का ध्यान मुझे बहुत समय बाद कल तब आया जब मेरी पहली कलम चिट्ठाकारी पोस्ट के बारे में एक मित्र ने कहा कि दोस्त, दुनिया तो बहुत आगे निकली जा रही है.....आज कल तो कंप्यूटर, इंटरनेट, ब्लागिंग का दौर है......तब अचानक मुझे मुन्नाभाई लगे रहो से यह मेरा बेहद पसंदीदा डायलाग याद आ गया और सोचा कि इसे कलम के द्वारा ही आप के सामने प्रस्तुत करूंगा.......प्रस्तुत तो ज़रूर कर रहा हूं...लेकिन यह सब मेरे लिये ही है, किसी और की तो मैं जानता नहीं, लेकिन अपने आप से ही इतने सारे सवाल ज़रूर पूछ रहा हूं.........इसलिये फिर से कलम उठाने पर मज़बूर हो गया।

कितने हिस्सों में बंटेगी हमारी सेहत ?



मुझे शुरू से ही सेहत के विषय को छिन्न-छिन्न कर के देखने से बड़ी आपत्ति रही है। एक मजाक सा भी तो आपने सुना ही होगा कि एक आंख के लिये एक चिकित्सक और दूसरी के लिये दूसरा।
बात शुरू करते हैं इस हैल्थ-कैप्सूल में जिस में छपा है कि कोलेस्ट्रोल के स्तर को दवाईयों से कम करने की बजाय बहुत से प्राकृतिक विकल्प हैं –इन में से एक बहुत ही उत्तम है नायॉसिन। साथ में यह भी लिखा है कि यह नायॉसिन हानिकारक कोलेस्ट्रोल को घटाता है और फायदेमंद कोलेस्ट्रोल को बढ़ाता है।
यह पढ़ कर मेरे मन में यही विचार आया कि यह नायॉसिन किस बला का नाम है यह इस अंग्रेज़ी अखबार के कितने पाठक जानते होंगे। यह सोच कर कि अकसर स्वास्थ्य से संबंधित इतनी अहम् जानकारी पढ़ कर कोई भी इंसान डिक्शनरी की तरफ़ लपकेगा.....मैंने भी अपनी टेबल पर पड़ी Longman Dictionary of Contemporary English को खोल कर इस का अर्थ आप के लिये ढूंढना चाहा (क्योंकि मुझे तो मालूम था ही !)..an important chemical ( a type of Vitamin B) found in foods like milk and eggs)……तो शब्दकोष में इसके बारे में यह लिखा हुया है कि यह एक महत्त्वपूर्ण रसायन है जो कि विटामिन बी की एक किस्म है जो दूध एवं अंड़ों जैसे खाद्य पदार्थों में पाया जाता है।
अब किसी पाठक का यह सोच कर थोड़ा दुविधा में पड़ जाना कि यार, मेरे डाक्टर ने तो मुझे मेरे बड़े हुये कोलेस्ट्रोल के कारण अंडे के सेवन से मना किया हुया है लेकिन यहां तो बात ही कुछ और है। तो, इस आधा-अधूरी जानकारी से पाठक को सिर दुःखना स्वाभाविक है कि नहीं !!
तो, क्या स्वास्थ्य की तरफ़ इस तरह की फ्रैग्मैंटिड अप्रोच के लिये क्या हम सारा दोष मीडिया के ऊपर ही मढ़ कर बेपरवाही की चादर ओढ़ लें......अफसोस ऐसा संभव न होगा। क्योंकि स्वास्थ्य को ज़्यादा ही छिन्न-छिन्न कर देखने की प्रवृत्ति मैडीकल प्रोफैशल की भी बनती जा रही है....इस के कारणों के पीछे न ही जायें तो बेहतर होगा। कल मिसिज़ भी कह रही थीं कि इस स्पैशलाइज़ेशन, सुपर स्पैशलाइज़ेशन ने बहुत कुछ आसान कर दिया है लेकिन यह भी मानना पड़ेगा कि हर विशेषज्ञ ने अपना ध्यान अपने ही एरिया में इतना ज़्यादा केंद्रित कर दिया है कि इन हालात में कुछ बीमारियों के कई बार मिस हो जाने के किस्से नोटिस में आते रहते हैं। तो, ऐसे में मेरा केवल एक प्रश्न है कि हम किसी भी मरीज़ को टोटैलिटी में---होलिस्टिक अप्रोच से— देखना कब शुरू करेंगे !! ..लेकिन यह ब्यूटी हमें अपनी पुरातन चिकित्सा पद्धतियों में खूब देखने को मिलती है.....अकसर सोच कर अचंभित होता हूं कि वे पुराने वैद्य भी इस शरीर विज्ञान के कितने मंजे खिलाड़ी रहे होंगे जिन का काम ही केवल नाड़ी टटोल कर और मुंह के अंदर झांक कर बीमारी का निदान करना होता था !!
अब तो इतने इतने महंगे महंगे टैस्ट करवा लेने के बाद भी कईं बार किसी निष्कर्ष पर पहुंचना दुर्गम सा हो जाता है। और अकसर ये टैस्ट आम आदमी की पहुंच से दूर ही नहीं – बहुत दूर होते हैं। ऐसे में यह विचार आना स्वाभाविक ही है कि पुरानी चिकित्सा प्रणाली ज्यादा विकसित थी ( या है?????.....अब इस पर भी मार्केट शक्तियां हावी होती दिख रही हैं!!)…..या हमारी यह आधुनिक चिकित्सा प्रणाली। लेकिन लगता है कि यह बहस तो लंबी चल पड़ेगी, इसलिये फिर कभी !!
अकसर मीडिया में ही देखने, पढ़ने और सुनने को मिलता है कि बालों की सेहत के लिये यह सप्लीमेंट्स लें, प्रोस्ट्रेट के कैंसर से बचने के लिये यह खाया करें, स्वस्थ बच्चे को जन्म देने के लिये गर्भवती महिलायें ये खायें...वो खायें, दिल के दौरे से बचने के लिये यह लिया करें..वो ना लिया करें....इस समय तो मेरे ध्यान में ही नहीं आ रहे ये सब.....लेकिन उन की भाषा कुछ इस तरह की रहती है कि गर्भाशय के कैंसर से बचने के लिये फलां फलां वस्तु का प्रयोग करें और एक अध्ययन में पाया गया कि इस का सेवन इतने वर्षों तक करने से इस कैंसर के रोगियों की संख्या में इतने फीसदी की कमी हो गई।
मुझे तो भई यह किसी मज़ाक से ज़्यादा नहीं लगता....कारण ??......विशेषकर इस देश में जहां अधिकांश लोगों की खाने पीने की असलियत केवल उस मिट्टी के चूल्हे पर पक रही खिचड़ी तक ही सीमित है .....और कुछ नहीं....ऐसे में उसे तरह तरह के संप्लीमैंट्स की सलाह देना भी क्या किसी मजाक से कम है। वैसे तो जिसे खिचड़ी/ दाल-भात भी नसीब हो रहा है वह खुशकिस्मत है.....उसे इस तरह की फ्रैग्मैंटिड अप्रोच के क्या लेना देना.......पता नहीं हम लोग कब होलिस्टिक हैल्थ के बारे में सोचेंगे.....खुद नहीं सोच सकते तो बाबा रामदेव जी की बातों का अनुसरण करने में ही आखिर दिक्कत क्या है ?....समझ में नहीं आता।
हमें लोगों को एक संतुलित आहार लेने के लिये( सस्ते ढंग से) प्रेरित करना ही होगा.......यह देखना होगा कि कैसे कोई परिवार खिचड़ी के साथ थोड़ी साग-सब्जी-फल का सेवन कर सकता है.................ना कि उसे बीसियों तरह के सप्लीमेंट्स गिना गिना कर परेशान करने के साथ साथ हीन-भावना का शिकार करते रहें।
सीधी सी बात है जब हम लोग मौसम के अनुसार संतुलित आहार लेते हैं तो हमें वह सब कुछ मिल जाता है जिस की हमारे शरीर को ज़रूरत होती है.......चाहे हमें उन तत्त्वों के भारी-भरकम अंग्रेज़ी नाम पता हों या नहीं, इन से कोई फर्क नहीं पड़ेगा !!!..............और हां, साथ ही साथ एक बहुत ही ज़रूरी शर्त है कि हमें हर तरह के व्यसनों के दूर तो रहना ही होगा....इस के इलावा कोई चारा है ही नहीं !!!.....No excuses, please!!

मंगलवार, 8 अप्रैल 2008

कलम चिट्ठाकारी का असली रूप---हिंदी ब्लोगिंग में पहली बार !





आज सुबह से घर में ही बैठा हुया हूं....पता नहीं क्रियएटिव ज्यूस कुछ ज़्यादा बह रहे हैं...पहले तो इस ब्लाग का यह टेंपलेट बनाने के लिये एक स्लेट पर इस का शीर्षक लिखा....लेकिन फिर ध्यान आया कि इंक-ब्लागिंग की तो बात हो गई...तो चलिये आज मूल रूप से कलम चिट्ठाकारी का ध्यान कर के कुछ लिखा जाये। बस, यह तुच्छ सा प्रयास है। अपने उन महान मास्टरों के नाम जिन्होंने ऐसा लिखने की ट्रेनिंग दी....सब कुछ उन्हीं महान आत्माओं की ही देन है, दोस्तो। अपना तो बस यही है कि अब बड़े होने की वजह से दिमाग चलाना आ गया है, और कुछ नहीं, फ्रैंकली स्पीकिंग !!

जब मैं यह एजवेंचर कर रहा था तो मेरा छठी कक्षा में पढ़ रहा बेटा बहुत रोमांचित हो रहा था....उस ने यह रोशनाई, यह दवात, यह कलम आज पहली बार देखी थी। उस ने भी लिखने की थोड़ी ट्राई की तो है। बस, और क्या लिखूं....कुछ खास नहीं है। बस, उन दिनों की तरफ ही ध्यान जा रहा है जब तख्ती के ऊपर तो इस कलम से लिखना ही पड़ता था...और रोज़ाना नोटबुक पर सुलेख का एक पन्ना भी इसी कलम से ही लिखना होता था...लेकिन समस्या तब एक ही लगती थी कि झटपट लिख कर भी निजात कहां मिलती थी.....जब तक सूखे नहीं कापी को बंद भी कहां कर सकते थे।
बच्चों को अकसर कहता हूं कि उन दिनों की हुई मेहनत रूपी फसल के ही फल आज तक चख रहे हैं। वैसे आप का इस कलम चिट्ठाकारी के बारे में क्या ख्याल है, लिखियेगा। अच्छा लगेगा।

अगर सुबह सुबह कुछ इस तरह का सुन लिया जाये............दिन की शुरूआत अच्छी होती है !

अच्छा तो , ब्लॉगर बंधुओ, अपने चिंतन को दो-तीन मिनट विश्राम देकर इन बेहद खूबसूरत पंक्तियों को सुनिये और लौट जाइये तीस साल पहले दिनों की तरफ.....जब छःदिन पहले यह पता चलने पर कि अगले रविवार को टीवी पर गुड्डी फिल्म आ रही है .....यह सब जानना कितना थ्रीलिंग लगता था........लेकिन आज जब ये सब कुछ हम से अदद एक क्लिक की दूरी पर ही है, लेकिन अफसोस अब हम लोगों के पास अपने ही झमेलों से फुर्सत ही नहीं है।

पंजाब में कैंसर से ज़्यादा औरतें मरती हैं.....और सुईं अटक गई !!



एक अंग्रेज़ी अखबार में दो-अढ़ाई सौ कॉलम सैंटीमी.को घेरे हुये किसी स्पैशल कारसपोंडैंट की यह रिपोर्ट केवल इतना कह रही है कि पंजाब में कैंसर से ज़्यादा महिलायें मरती हैं। बस इतना कह कर ही सुईं अटक गई लगती है। कईं बार कुछ इस तरह की रिपोर्टज़ देख कर ही पत्रकारों के होम-वर्क की तरफ़ जाता है ....जिसे अगर नहीं किया या ढंग से नहीं किया तो वह ऐसी रिपोर्टों के रूप में सामने आता है, ऐसा मेरा व्यक्तिगत विचार है।
इस रिपोर्ट को देख कर रह रह कर मन में बहुत से प्रश्न उठ रहे हैं जैसे कि
- पंजाब के तीस गांवों से जो सैंपल इस अध्ययन के लिये लिया गया,क्या वह ट्रयूली रिप्रसैंटेटिव सैंपल रहा होगा और क्या इस से होने वाले परिणाम स्टैटीक्ली सिग्नीफिकेंट भी हैं क्या ?
- इतनी लंबी रिपोर्ट पढ़ कर यह कुछ पता नहीं चलता कि आखिर ऐसे कौन से कैंसर हैं जो कि पंजाबी महिलाओं में ही ज़्यादा होते हैं.....क्या ये उन के फीमेल बॉडी पार्ट्स से संबंधित कैंसर हैं या अन्य अंगों से संबंधित......इस महत्त्वपूर्ण रिपोर्ट में इस बात का खुलासा किया जाना भी लाज़मी था।
- Age profile की बात नहीं की गई है.....जिन महिलाओं के ऊपर यह अध्ययन किया गया वह किस उम्र से संबंध रखती थीं......इस के बारे में भी यह रिपोर्ट चुप है।
- इस संबंध में अगर किसी मैडीकल कालेज के प्रोफैसर इत्यादि से कोई बातचीत भी इस में साथ दी गई होती तो बेहतर होता।
- देश में कैंसर रजिस्टरी नाम की एक संस्था है....वह क्या कहती है पंजाब के बारे में ....इस का भी अगर उल्लेख होता तो पाठक की सोच को एक दिशा मिलती ।
मैं तो बस इतना ही कहूंगा कि मुझे यह रिपोर्ट पढ़ कर कुछ ज़्यादा जानकारी हासिल नहीं हुई। कारण आप के सामने हैं...अगर इन बातों का भी ध्यान रखा जाता है तो शायद इस रिपोर्ट से हम कुछ महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष निकाल लेते। लेकिन जो भी हो, इतना आज एक बार फिर से समझ में आ गया कि होम-वर्क लगन के साथ करना स्कूली बच्चों के लिये ही नहीं, पत्रकारों के लिये भी बेहद लाज़मी है। आप का इस न्यूज़-रिपोर्ट के बारे में क्या ख्याल है ?

रविवार, 6 अप्रैल 2008

अब मछली-भात को भी लगी नज़र !



आप की तरह मैं भी यह नहीं सोचता कि यह खबर पढ़ने के बाद रातों-रात उन सब लोगों के खाने की आदतें बदल जायेंगी जो युगों-युगों से इस का सेवन करते आ रहे हैं। लेकिन मैं इस समय वैसे भी बात इस खबर की प्रामाणिकता की कर रहा हूं....कितनी बढ़िया तरह से सब कुछ कवर किया है। सोचता हूं कि जिस न्यूज़-रिपोर्ट से प्रामाणिकता की महक आती है वो तो अपने काम में सफल ही है। लोग चाहे दाल-भात आज से खाना बंद नहीं कर देंगे.....लेकिन एक पत्रकार ने एक मंजे हुये शोधकर्त्ता के अनुभव पब्लिक के समक्ष रख कर एक बीज रोप दिया .....जो धीरे धीरे पनपता रहेगा.....और जब भी वह बंदा दाल-भात खा रहा होगा, दिल के किसी ना किसी कौने में कहीं तो इस खबर की याद बनी रहेगी।

इन ढाबे वालों से ऐसी उम्मीद न थी !



वैसे तो इस समय सुबह के पांच भी नहीं बजे और किसी भी लिहाज से खाने का समय नहीं है। लेकिन यह ढाबे वाली खबर देख कर मुझे पूरा विश्वास है कि आप की तो भूख ही छू-मंतर हो जायेगी। ले-देकर इन देश की जनता जनार्दन के पास पेट में दो-रोटी डालने के लिये एक ही तो ताज़ा, सस्ता और साफ़-सुथरा विकल्प था.....ढाबे का खाना।


अकसर हम लोग जब भी कहीं बाहर हुया करते हैं तो कहते ही हैं ना कि चलो, ढाबे में ही चलते हैं क्योंकि यह बात हम लोगों के मन में विश्वास कर चुकी है कि इन ढाबों पर तो सब कुछ विशेषकर वहां मिलने वाली बढ़िया सी दाल( तड़का मार के !)….तो ताज़ी मिल ही जायेगी............लेकिन इस रिपोर्ट ने तो उस दाल का ज़ायका ही खराब कर दिया है ...........आप ने भी कभी सोचा न होगा कि इस तरह के रासायन ढाबों में भी इस्तेमाल होते हैं ताकि शोरबा स्वादिष्ट बन जाये।


वो अलग बात है कि मुझे यह पढ़ कर बेहद दुःख हुया क्योंकि मेरे विश्वास को ठेस लगी है.....मुझे ही क्या, सोच रहा हूं कि इस देश की आम जनता की पीठ में किसी ने छुरा घोंपा है.......लेकिन इस हैल्थ-रिपोर्ट को देख कर खुशी इसलिये हुई कि इस में सब कुछ बहुत बैलेंस्ड तरीके से कवर किया गया है। बात सीधे सादे ढंग से कहने के कारण सीधी दिल में उतरती है। शायद इसीलिये मैंने भी आज से एक फैसला किया है....आज से ढाबे से लाई गई सब्जी/भाजी जहां तक हो सके नहीं खाऊंगा....हां, कहीं बाहर गये हुये एमरजैंसी हुई तो बात और है, लेकिन वो ढाबे के खाने का शौकिया लुत्फ लूटना आज से बंद, वैसे मैं तो पहले ही से इन की मैदे की बनी कच्ची-कच्ची रोटियां खा-खा कर अपनी तबीयत खराब होने से परेशान रहता था, लेकिन इन के द्वारा तैयार इस दाल-सब्जी के बारे में छपी खबर ने तो मुंह का सारा स्वाद ही खराब कर दिया है.....सोचता हूं कि उठ कर ब्रुश कर ही लूं !

इन ढाबे वालों से ऐसी उम्मीद न थी !




वैसे तो इस समय सुबह के पांच भी नहीं बजे और किसी भी लिहाज से खाने का समय नहीं है। लेकिन यह ढाबे वाली खबर देख कर मुझे पूरा विश्वास है कि आप की तो भूख ही छू-मंतर हो जायेगी। ले-देकर इन देश की जनता जनार्दन के पास पेट में दो-रोटी डालने के लिये एक ही तो ताज़ा, सस्ता और साफ़-सुथरा विकल्प था.....ढाबे का खाना।


अकसर हम लोग जब भी कहीं बाहर हुया करते हैं तो कहते ही हैं ना कि चलो, ढाबे में ही चलते हैं क्योंकि यह बात हम लोगों के मन में विश्वास कर चुकी है कि इन ढाबों पर तो सब कुछ विशेषकर वहां मिलने वाली बढ़िया सी दाल( तड़का मार के !)….तो ताज़ी मिल ही जायेगी............लेकिन इस रिपोर्ट ने तो उस दाल का ज़ायका ही खराब कर दिया है ...........आप ने भी कभी सोचा न होगा कि इस तरह के रासायन ढाबों में भी इस्तेमाल होते हैं ताकि शोरबा स्वादिष्ट बन जाये।


वो अलग बात है कि मुझे यह पढ़ कर बेहद दुःख हुया क्योंकि मेरे विश्वास को ठेस लगी है.....मुझे ही क्या, सोच रहा हूं कि इस देश की आम जनता की पीठ में किसी ने छुरा घोंपा है.......लेकिन इस हैल्थ-रिपोर्ट को देख कर खुशी इसलिये हुई कि इस में सब कुछ बहुत बैलेंस्ड तरीके से कवर किया गया है। बात सीधे सादे ढंग से कहने के कारण सीधी दिल में उतरती है। शायद इसीलिये मैंने भी आज से एक फैसला किया है....आज से ढाबे से लाई गई सब्जी/भाजी जहां तक हो सके नहीं खाऊंगा....हां, कहीं बाहर गये हुये एमरजैंसी हुई तो बात और है, लेकिन वो ढाबे के खाने का शौकिया लुत्फ लूटना आज से बंद, वैसे मैं तो पहले ही से इन की मैदे की बनी कच्ची-कच्ची रोटियां खा-खा कर अपनी तबीयत खराब होने से परेशान रहता था, लेकिन इन के द्वारा तैयार इस दाल-सब्जी के बारे में छपी खबर ने तो मुंह का सारा स्वाद ही खराब कर दिया है.....सोचता हूं कि उठ कर ब्रुश कर ही लूं !

6 comments:

Gyandutt Pandey said...

खाना तो घर का ही अच्छा जी। सूडान पढ़ कर लगता है - कहां जा रहे या क्या खा रहे हैं।

दिनेशराय द्विवेदी said...

जब जब भी बाहर खाया पछताया, लौट कर बुद्धू घर को आया।

DR.ANURAG ARYA said...

डाक्टर साहेब ,आपके यमुनानगर तक पहुँचते पहुँचते G. T रोड पे इतने ढाबे है ...पर आपकी बात पढ़के यकीनन उस तड़का दाल को भूलना पड़ेगा.......

अमिताभ फौजदार said...

ghar ke kahne se behatar kuch nahi hota ....yahi param satya hai !!

राज भाटिय़ा said...

चोपडा जी हम तो वेसे ही नही खाते बाहर का खाना मां ओर पिता जी ने शुरु से ऎसी आदते डाल रखी हे,वही आदते मेने बच्चो मे भी डाली हे,जी कभी छुट्टियो पर हो तो मज्बुरी मे जाना पडता हे, बाकी तो घर की दाल ही मुर्गी बराबर हे,

Dr Prabhat Tandon said...

घर का खाना सबसे अच्छा , जब-२ बाहर खाये तब झेले ।


शनिवार, 5 अप्रैल 2008

जब पटना यूनिवर्सिटी में कोई सवाल ऑउट-ऑफ सिलेबस पूछा जाता है !


अरे, यार, यह क्या कर रहे हो !! -- सिलेबस से बाहर सवाल पूछने पर इतना आक्रोश ठीक नहीं लगता। सब्र रखो..क्या पता सब को ग्रेस-मार्क्स ही मिल जायें। लेकिन ऐसा ना हो कि यह तस्वीर देख कर पेपर-सैटर सिलेबस के बाहर से तो क्या सिलेबस के अंदर से भी प्रश्न पूछना भूल जाये। वैसे, एक बात तो बताओ......कहीं हल्लाबोल फिल्म कल ही तो नहीं देखी ?......जोश ही दिखाना है तो कलम से दिखाओ....आ जाओ हिंदी बलागिंग में.......बीएससी के छात्र हो तो क्या है, वह कहावत तो पढ़ी ही होगी.....Pen is mightier than the sword !!

अंग्रेज़ी अखबार के इस कैप्सूल ने मुझे तो ठीक ना किया !!



संयोग की बात देखिये की जिस समय मेरी इस कैप्सूल पर निगाह पड़ी तो मुझे बहुत छींके आ रही थीं –सो, परेशान तो मैं था ही, आव देखा न ताव, उस कैप्सूल में बताये गये फार्मूले को टैस्ट करने की सोच ली। मैं तुरंत शुरू हो गया और दोपहर होते होते विटामिन-सी की दस-बारह गोलियां खा लेने के बावजूद भी जब जुकाम में कुछ भी राहत महसूस न हुई तो मैं परेशान हो गया।(लेकिन इतना विटामिन सी खा लेने के बाद भी मुझे तो दस्त नहीं लगे....देखिये ऊपर वह कैप्सूल कुछ कह रहा है !)…. फिजिशियन श्रीमति जी ने एक जुकाम की टेबलेट जबरदस्ती खिला ही दी....और मां ने अदरक वाली चाय नमक डाल कर दो-तीन बार पिला दी और साथ में मुलैठी के टुकड़े चूसने को दे दिये---जी हां, बचपन से ही मेरा अजमाया हुया जुकाम से छुटकारा पाने का सुपरहिट- फार्मूला।
इस जुकाम की तकलीफ़ से जूझते जूझते इस विटामिन सी खाने के फरमान के बारे में यही ध्यान आया कि अगर नैचुरल तरीके से ( संतरा, कीनू, नींबू और आंवला इत्यादि)...ही इस विटामिन सी को रोज़ प्राप्त कर लिया जाये तो बंदे की इम्यूनिटी (रोग-प्रतिरोधक क्षमता) वैसे ही इतनी बढ़िया हो जाये कि वह इस मौसमी खांसी-जुकाम के चक्कर से वैसे ही बचा रहे।
एक ध्यान और भी आ रहा है कि मैंने तो यह विटामिन सी की गोलियां धड़ाधड़ खाने का प्रयोग केवल एक प्रयोग के खातिर कर ही लिया.....लेकिन सोच रहा हूं कि अगर कोई मरीज़ किसी डाक्टर के पास जाकर अपना यही दुःखड़ा रोये कि उस ने विटामिन-सी की दस-पंद्रह गोलियां खा ली हैं लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ा तो शायद हम लोग ही उसे कुछ इस तरह का जवाब देंगे......देखो, विटामिन सी किसी अच्छी कंपनी का था कि नहीं, कंपनी ठीक ठाक थी –जब यह पता चल जायेगा तो हम कहेंगे कि भाई, तुम ने ज़रूर इस विटामिन सी को देर से ही लेना शुरू किया होगा। और शायद इतना कहने में भी नहीं गुरेज़ नहीं करेंगे कि तुम्हारी इम्यूनिटी में ही कुछ गड़बड़ लगती है....शायद कुछ भी कह देते जैसे कि तुम्हारी तो प्राबल्म ही कुछ और है !!......शायद यह सब इसलिये की उस अंग्रेजी अखबार में छपा कैप्सूल कैसे गलत हो सकता है, कहीं हम लोग यह तो नहीं सोच लेते कि उस कैप्सूल में जो भी लिखा है वह तो पत्थर पर लकीर है !!............बात सोचने की है या नहीं ?

शुक्रवार, 4 अप्रैल 2008

प्री-मैरिज काउंसिलिंग......खोदा पहाड़, निकला चूहा !



आज सुबह सुबह यह प्री-मैरिज काउंसिलिंग वाली न्यूज़-रिपोर्ट पढ़ कर तो कुछ ऐसी ही फीलिंग हुई कि खोदा पहाड़-निकला चूहा। मैं तो बस संक्षेप में इतना ही कहना चाह रहा हूं कि जितनी परमिसिवनैस हम लोग आज अपने समाज में भी देख रहे हैं.....ऐसे वातावरण में तो यह अपने आप में एक सुलगता मुद्दा है ही !!....आज आप स्कूली बच्चों को यौन-शिक्षा देने की बात करें तो झट से कईं फ्रंट बन जायेंगे। ऐसे में अब हमें शादी के कुछ दिन पहले ही यह प्री-मैरिज काउंसिलिंग करने की बातें याद आने लगी हैं। क्या इतने क्विक-फिक्स सल्यूशन चल पायेंगे.....आप को क्या लगता है...........वो मैं आप की बात से पूर्णतयः सहमत हूं ...Something is better than nothing !!

वैसे मैं तो अपने यहां के युवक-युवतियों को तभी परिपक्व मानूंगा जब वे शादी से पहले एक दूसरे से मैडीकल-रिपोर्टज़ ( विशेषकर एचआईव्ही स्टेटस) की मांग करेंगे। हम लोग बाज़ार में दो सौ रूपये का सामान लेने जाते हैं तो इतनी नुक्ता-चीनी करते हैं और जब हमारे बेटी-बेटों को ब्याहने की बारी आती है तो हम इन के स्वास्थ्य के बारे में कुछ भी बात करने में इतना झिझकते हैं मानो कि ......!! मुझे पता है कि आज की तारीख में तो इस तरह की बात उठाना भी उपहास का कारण बनने के बराबर है...........लेकिन मार्क मॉय वर्ड्स ....देर-सवेर यह झिझक हमें खुद ही दूर करनी होगी !!.....बाकी फिर कभी !!

खत के लिये शुक्रिया........इंक ब्लॉगिंग स्टाइल !!



अभी अभी सोचा कि क्यों न पिछली पोस्ट पर टिप्पणीयां करने वाले ब्लागर बंधुओं को एक खत के माध्यम से ही धन्यवाद कह दूं। इसलिये इन बंधुओं के नाम लिखे खत को इस इंक-ब्लागिंग स्टाइल में प्रस्तुत कर रहा हूं।

पानी साफ ही तो है.......क्या फर्क पड़ता है !


केवल इतना कह देने से ही नहीं चल पायेगा कि हमारे शहर में तो सीधा फलां-फलां नदी का ही पानी आता है, साफ़-स्वच्छ दिखता है ....इसलिये पानी के बारे में कभी इतना सोचा नहीं, अब कौन इस पानी-वानी की शुद्धता के चक्कर में पड़े। लेकिन यह सरासर एक गलत-फहमी ही है। क्योंकि जो पानी हमें साफ़-स्वच्छ दिखता है....उस में तरह तरह की कैमीकल एवं बैक्टीरीयोलॉजिकल अशुद्दियां हो सकती हैं जो हमें तरह तरह के रोग दे सकती हैं। आज जिस तरह से हवा-पानी-वातावरण प्रदूषित हैं, ऐसे में हमें पीने वाले पानी के बारे में भी अपना यह मांइड-सैट बदलना ही होगा।


पानी का क्वालिटी के साथ कोई समझौता नहीं होना चाहिये। तो क्या बोतल वाली पानी ही घर में भी शुरू कर दिया जाये ?.....ना तो इस की शायद इतनी ज़रूरत है और ना ही यह 99 प्रतिशत लोगों( कहने की इच्छा तो 99.9 प्रतिशत लोगों की हो रही है) के वश की बात है।


अकसर एक बात मुझे बहुत सुनने में मिलती है कि लोग एक्वागार्ड का पानी इसलिये नहीं पीते ....क्योंकि उन्हें लगता है कि अब पानी भी इतना शुद्ध पीना शुरू कर देंगे तो शरीर की इम्यूनिटी क्या करेगी ...........उसे भी तो कोई काम दे कर रखना है.....ऐसा ना हो कि ऐसा पानी पीने से हमारे शरीर की रोग-प्रतिरोधक क्षमता ही खत्म हो जाये।


वैसे एक बात बता दूं कि आज के दौर में ऐसी सोच बिल्कुल बेबुनियाद ही नहीं...बल्कि खतरनाक भी है। चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े लोगों के इलावा दूसरे लोगों को तो यह पता ही नहीं कि आज कल पानी का प्रदूषण किस स्तर पर पहुंचा हुया है। और रही बात शरीर की इम्यूनिटी खत्म होने का डर............इस देश में रहते हुये उस की तो आप चिंता ना करें क्योंकि उस इम्यूनिटी को पूरी लिमिट पर काम करने के बहुत मौके मिलते रहते हैं। और जहां तक पानी की बात है....ठीक है, आप घर में शुद्ध पानी पी लेंगे, ऑफिस में एक्वागार्ड का पानी पी लेंगे...लेकिन फिर भी हम लोग कितनी ऐसी जगह में जाते हैं जैसे किसी के घर, किसी के ऑफिस में....वहां पर जाकर ऐसे वैसे पानी को पीने से मना करना शिष्टाचार के नियमों का हनन लगता है ....सो, ऐसे मौकों पर हम जो कुछ भी मिलता है...चाहे वह कैसा भी हो और किस ढंग से परोसा जा रहा है....हम बहुत कुछ अनदेखा कर के दो-घूंट भर लेने में ही बेहतरी समझते हैं। तो, अपनी इम्यूनिटी को थोड़ा काम सौंपने के लिये बस कुछेक ऐसे ही मौके ठीक हैं.....इस से ज्यादा हम उस से काम लेना चाहेंगे तो अकसर वह भी हाथ खड़े कर के कह देती है..कि यह पड़ा तेरा सिस्टम, अब तूने जो लापरवाहियां की हैं, उन्हें तू ही निपट.....मैं तो आज से 15-20 दिन के लिये छुट्टी पर जा रही हूं क्योंकि जब टायफायड और हैपेटाइटिस ए (पीलिया ) जैसे रोग तूने बुला ही लिये हैं तो मुझे थोड़े दिनों की छुट्टी दे, थोड़े दिन तू भुगत ले....मैं फिर आती हूं, ऐसा कह के इम्यूनिटी अकसर अपने घुटने टेक देती है।


यह जो मैं शिष्टाचार की बात ऊपर कह चुका हूं...इस का भी जितना कम से कम उपयोग हो वही बेहतर है। चलिये, मैं ऐसी कुछ परिस्थितियों में क्या करता हूं बता देता हूं ....शायद किसी का फायदा हो जाये.....बिना किसी लाग-लपेट के अपने अनुभव बांटना अब मेरी तो आदत सी ही हो गई है....


-मैं जब भी किसी भी दुकान पर जाता हूं वहां पानी नहीं पीता हूं( जब तक कि कोई घोर एमरजैंसी ही ना हो)....बस ऐसे ही कुछ भी कह कर टाल जाता हूं कि बस पांच मिनट पहले ही चाय पी है.....( लेकिन ऐसे झूठ बोलने पर कभी अफसोस भी नहीं हुया)।

रैस्टरां वगैरा में भी पानी जितना अवाय्ड हो सके करता हूं , ऐसे ही दो-तीन घूंट पी लेने तक ही सीमित रहता हूं। वैसे अकसर हम लोग कहीं भी ऐसी जगह जायें पानी अपना ही साथ ले कर चलते हैं।

अपने आफिस में भी मैंने पानी कभी नहीं पिया...हां, गर्मी के मौसम में एक बोतल अपने साथ ज़रूर रखता हूं।


बस, बात केवल इतनी ही है कि हमें इस के बारे में थोडा अवेयर रहना होगा............मैं तो अपने मरीज़ों से भी यही कहता हूं कि अब इन एक्वागार्डों वगैरा का इस्तेमाल कोई लग्ज़री नहीं रह गया, ये बिजली की तरह ही ज़रूरी हो गये हैं ....इसलिये जो भी लोग इन को अफोर्ड कर सकते हैं वे इन्हें ज़रूर लगवा लें।


माफ कीजियेगा....मैंने इस पोस्ट दो बार इस एक्वागार्ड का नाम ले लिया है.....ऐसे प्रोड्क्टस के नाम लेना मेरे प्रिंसीपल्स के खिलाफ है.......मेरा इस कंपनी से कुछ लेना-देना नहीं है....मैं तो बस इसे पानी शुद्ध करने के इलैक्ट्रोनिक संयंत्र की जगह ही इस्तेमाल कर रहा हूं क्योंकि अकसर लोग इतनी शुद्ध भाषा समझते नहीं है..तो आप लोग अपनी इच्छा अनुसार किसी भी अच्छी कंपनी का यह संयंत्र तो अपने यहां लगवा ही लें। और जहां तक संभव हो ऐसे पानी को ही अपने वर्क-प्लेस पर ले जायें....अब पता नहीं जितना यह सब कुछ लिख देना आसान है उतना आप लोगों के लिये यह प्रैक्टीकल भी है कि नहीं......पर यह है बहुत ही महत्वपूर्ण !!


एक बात मैंने और बहुत नोटिस की है कि बहुत सारी जगह पर ये एक्वागार्ड तो लगे होते हैं लेकिन उन की मेनटेनैंस पर लोग ध्यान नहीं देते, उन का एएमसी नहीं करवाते जिसके तहत कंपनी सालाना आठ-नौ रूपये में इस की मुरम्मत का सारा जिम्मा लेती है और दो-एक बार कार्बन वगैरा भी चेंज करवाती है......इन संयंत्रों का फायदा ही तभी है जब ये परफैक्ट वर्किंग आर्डर में काम कर रहे होते हैं....नहीं तो क्या फायदा !! इसलिये इस सालाना 800-900 रूपये के खर्च को भी हमें सहर्ष सहन कर लेना चाहिये....अपने सारे परिवार की सेहत की खातिर.....यकीन मानिये, शायद उतने से ज़्यादा तो तरह तरह की पानी से पैदा होने वाली मौसमी बीमारियों की वजह से डाक्टर के भरने वाले बिल में कटौती आ जायेगी।


लेकिन हां, अगर कोई किसी भी कारणवश यह मशीन नहीं लगवा रहा, तो उसे कम से कम पानी उबाल कर ही पीना चाहिये। यह बहुत ज़रूरी है।


और रही बात पानी के साफ दिखने वाली....जब जब भी इस बात पर भरोसा किया है धोखा ही खाया है। कुछ महीने पहले हम लोग कुल्लू-मनाली गये.....रास्ते में जहां भी रूके वहां पर खूब पानी पिया....वहां मनाली पहुंच कर भी अपने रेस्ट-हाउस का ही पानी पीते रहे.....क्योंकि सब ने यही कहा कि यहां तो पानी सब से शुद्ध है....सीधा पहाड़ों से ही आ रहा है.......लेकिन पता तब चला जब वहां से वापिस आते ही सारे का सारा परिवार पेट दर्द, ग्रैस्ट्रोएँटराइटिस और बुखार से एक हफ्ता पड़ा रहा.....तब मन ही मन निश्चय किया कि अगर बाहर घूमने में तीस हज़ार रूपये खर्च कर आते हैं तो आखिर तीन सौ रूपये में पानी की बोतलें खरीद कर पीने में क्या हर्ज़ है.........बस, क्या कहूं.......कि यह मिडिल क्लास मांइड-सैट भी कभी कभी penny- wise but pound-foolish वाली सिचुयेशन में जा फैंकता है।


जाते जाते , एक ही बात कि पानी की शुद्धता से कोई समझौता नहीं ......चाहे दिखने में साफ दिखे, फिर भी उस में हज़ारों जीवाणु आप के शरीर में जाकर उत्पाद मचाने की तैयारी में हो सकते हैं।


अगर कुछ बच गया होगा तो आप की फीडबैक के बाद लिख देंगे।



पानी साफ ही तो है.......क्या फर्क पड़ता है !



केवल इतना कह देने से ही नहीं चल पायेगा कि हमारे शहर में तो सीधा फलां-फलां नदी का ही पानी आता है, साफ़-स्वच्छ दिखता है ....इसलिये पानी के बारे में कभी इतना सोचा नहीं, अब कौन इस पानी-वानी की शुद्धता के चक्कर में पड़े। लेकिन यह सरासर एक गलत-फहमी ही है। क्योंकि जो पानी हमें साफ़-स्वच्छ दिखता है....उस में तरह तरह की कैमीकल एवं बैक्टीरीयोलॉजिकल अशुद्दियां हो सकती हैं जो हमें तरह तरह के रोग दे सकती हैं। आज जिस तरह से हवा-पानी-वातावरण प्रदूषित हैं, ऐसे में हमें पीने वाले पानी के बारे में भी अपना यह मांइड-सैट बदलना ही होगा।


पानी का क्वालिटी के साथ कोई समझौता नहीं होना चाहिये। तो क्या बोतल वाली पानी ही घर में भी शुरू कर दिया जाये ?.....ना तो इस की शायद इतनी ज़रूरत है और ना ही यह 99 प्रतिशत लोगों( कहने की इच्छा तो 99.9 प्रतिशत लोगों की हो रही है) के वश की बात है।


अकसर एक बात मुझे बहुत सुनने में मिलती है कि लोग एक्वागार्ड का पानी इसलिये नहीं पीते ....क्योंकि उन्हें लगता है कि अब पानी भी इतना शुद्ध पीना शुरू कर देंगे तो शरीर की इम्यूनिटी क्या करेगी ...........उसे भी तो कोई काम दे कर रखना है.....ऐसा ना हो कि ऐसा पानी पीने से हमारे शरीर की रोग-प्रतिरोधक क्षमता ही खत्म हो जाये।


वैसे एक बात बता दूं कि आज के दौर में ऐसी सोच बिल्कुल बेबुनियाद ही नहीं...बल्कि खतरनाक भी है। चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े लोगों के इलावा दूसरे लोगों को तो यह पता ही नहीं कि आज कल पानी का प्रदूषण किस स्तर पर पहुंचा हुया है। और रही बात शरीर की इम्यूनिटी खत्म होने का डर............इस देश में रहते हुये उस की तो आप चिंता ना करें क्योंकि उस इम्यूनिटी को पूरी लिमिट पर काम करने के बहुत मौके मिलते रहते हैं। और जहां तक पानी की बात है....ठीक है, आप घर में शुद्ध पानी पी लेंगे, ऑफिस में एक्वागार्ड का पानी पी लेंगे...लेकिन फिर भी हम लोग कितनी ऐसी जगह में जाते हैं जैसे किसी के घर, किसी के ऑफिस में....वहां पर जाकर ऐसे वैसे पानी को पीने से मना करना शिष्टाचार के नियमों का हनन लगता है ....सो, ऐसे मौकों पर हम जो कुछ भी मिलता है...चाहे वह कैसा भी हो और किस ढंग से परोसा जा रहा है....हम बहुत कुछ अनदेखा कर के दो-घूंट भर लेने में ही बेहतरी समझते हैं। तो, अपनी इम्यूनिटी को थोड़ा काम सौंपने के लिये बस कुछेक ऐसे ही मौके ठीक हैं.....इस से ज्यादा हम उस से काम लेना चाहेंगे तो अकसर वह भी हाथ खड़े कर के कह देती है..कि यह पड़ा तेरा सिस्टम, अब तूने जो लापरवाहियां की हैं, उन्हें तू ही निपट.....मैं तो आज से 15-20 दिन के लिये छुट्टी पर जा रही हूं क्योंकि जब टायफायड और हैपेटाइटिस ए (पीलिया ) जैसे रोग तूने बुला ही लिये हैं तो मुझे थोड़े दिनों की छुट्टी दे, थोड़े दिन तू भुगत ले....मैं फिर आती हूं, ऐसा कह के इम्यूनिटी अकसर अपने घुटने टेक देती है।


यह जो मैं शिष्टाचार की बात ऊपर कह चुका हूं...इस का भी जितना कम से कम उपयोग हो वही बेहतर है। चलिये, मैं ऐसी कुछ परिस्थितियों में क्या करता हूं बता देता हूं ....शायद किसी का फायदा हो जाये.....बिना किसी लाग-लपेट के अपने अनुभव बांटना अब मेरी तो आदत सी ही हो गई है....


-मैं जब भी किसी भी दुकान पर जाता हूं वहां पानी नहीं पीता हूं( जब तक कि कोई घोर एमरजैंसी ही ना हो)....बस ऐसे ही कुछ भी कह कर टाल जाता हूं कि बस पांच मिनट पहले ही चाय पी है.....( लेकिन ऐसे झूठ बोलने पर कभी अफसोस भी नहीं हुया)।

रैस्टरां वगैरा में भी पानी जितना अवाय्ड हो सके करता हूं , ऐसे ही दो-तीन घूंट पी लेने तक ही सीमित रहता हूं। वैसे अकसर हम लोग कहीं भी ऐसी जगह जायें पानी अपना ही साथ ले कर चलते हैं।

अपने आफिस में भी मैंने पानी कभी नहीं पिया...हां, गर्मी के मौसम में एक बोतल अपने साथ ज़रूर रखता हूं।


बस, बात केवल इतनी ही है कि हमें इस के बारे में थोडा अवेयर रहना होगा............मैं तो अपने मरीज़ों से भी यही कहता हूं कि अब इन एक्वागार्डों वगैरा का इस्तेमाल कोई लग्ज़री नहीं रह गया, ये बिजली की तरह ही ज़रूरी हो गये हैं ....इसलिये जो भी लोग इन को अफोर्ड कर सकते हैं वे इन्हें ज़रूर लगवा लें।


माफ कीजियेगा....मैंने इस पोस्ट दो बार इस एक्वागार्ड का नाम ले लिया है.....ऐसे प्रोड्क्टस के नाम लेना मेरे प्रिंसीपल्स के खिलाफ है.......मेरा इस कंपनी से कुछ लेना-देना नहीं है....मैं तो बस इसे पानी शुद्ध करने के इलैक्ट्रोनिक संयंत्र की जगह ही इस्तेमाल कर रहा हूं क्योंकि अकसर लोग इतनी शुद्ध भाषा समझते नहीं है..तो आप लोग अपनी इच्छा अनुसार किसी भी अच्छी कंपनी का यह संयंत्र तो अपने यहां लगवा ही लें। और जहां तक संभव हो ऐसे पानी को ही अपने वर्क-प्लेस पर ले जायें....अब पता नहीं जितना यह सब कुछ लिख देना आसान है उतना आप लोगों के लिये यह प्रैक्टीकल भी है कि नहीं......पर यह है बहुत ही महत्वपूर्ण !!


एक बात मैंने और बहुत नोटिस की है कि बहुत सारी जगह पर ये एक्वागार्ड तो लगे होते हैं लेकिन उन की मेनटेनैंस पर लोग ध्यान नहीं देते, उन का एएमसी नहीं करवाते जिसके तहत कंपनी सालाना आठ-नौ रूपये में इस की मुरम्मत का सारा जिम्मा लेती है और दो-एक बार कार्बन वगैरा भी चेंज करवाती है......इन संयंत्रों का फायदा ही तभी है जब ये परफैक्ट वर्किंग आर्डर में काम कर रहे होते हैं....नहीं तो क्या फायदा !! इसलिये इस सालाना 800-900 रूपये के खर्च को भी हमें सहर्ष सहन कर लेना चाहिये....अपने सारे परिवार की सेहत की खातिर.....यकीन मानिये, शायद उतने से ज़्यादा तो तरह तरह की पानी से पैदा होने वाली मौसमी बीमारियों की वजह से डाक्टर के भरने वाले बिल में कटौती आ जायेगी।


लेकिन हां, अगर कोई किसी भी कारणवश यह मशीन नहीं लगवा रहा, तो उसे कम से कम पानी उबाल कर ही पीना चाहिये। यह बहुत ज़रूरी है।


और रही बात पानी के साफ दिखने वाली....जब जब भी इस बात पर भरोसा किया है धोखा ही खाया है। कुछ महीने पहले हम लोग कुल्लू-मनाली गये.....रास्ते में जहां भी रूके वहां पर खूब पानी पिया....वहां मनाली पहुंच कर भी अपने रेस्ट-हाउस का ही पानी पीते रहे.....क्योंकि सब ने यही कहा कि यहां तो पानी सब से शुद्ध है....सीधा पहाड़ों से ही आ रहा है.......लेकिन पता तब चला जब वहां से वापिस आते ही सारे का सारा परिवार पेट दर्द, ग्रैस्ट्रोएँटराइटिस और बुखार से एक हफ्ता पड़ा रहा.....तब मन ही मन निश्चय किया कि अगर बाहर घूमने में तीस हज़ार रूपये खर्च कर आते हैं तो आखिर तीन सौ रूपये में पानी की बोतलें खरीद कर पीने में क्या हर्ज़ है.........बस, क्या कहूं.......कि यह मिडिल क्लास मांइड-सैट भी कभी कभी penny- wise but pound-foolish वाली सिचुयेशन में जा फैंकता है।


जाते जाते , एक ही बात कि पानी की शुद्धता से कोई समझौता नहीं ......चाहे दिखने में साफ दिखे, फिर भी उस में हज़ारों जीवाणु आप के शरीर में जाकर उत्पाद मचाने की तैयारी में हो सकते हैं।


अगर कुछ बच गया होगा तो आप की फीडबैक के बाद लिख देंगे।



5 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

डॉ. साहब, आप की सब बातों से सहमति है। मूल बात तो यह कि पानी जो आप पिएं वह स्वच्छ और जीवाणु रहित होना चाहिए। अगर आप के पाइप में पानी पीने योग्य आ रहा है तो अतिरिक्त साधन की आवश्यकता नहीं है। फिर भी हम चाहेंगे कि मानव शरीर जो प्रत्येक समस्या का हल स्वयं खोजने की क्षमता रखता है। उस क्षमता का ह्रास नहीं हो। मानव शरीर की इस क्षमता के बारे में अवश्य ही लिखें। यह मेरा अनुरोध है।

भुवनेश शर्मा said...

आपने जो कुछ भी लिखा है मैं उस सब का पालन करता हूं....फिर भी बीमारियां घेर ही लेती हैं.

Gyandutt Pandey said...

लगता है उबाला और फिर छाना पानी बेस्ट है।

राज भाटिय़ा said...

चोपडा जी , मे कई बार हेरान होता हु जब कभी टी बी पर देखता हु की हमारे देश मे नदियो मे सीधा फ़ेकट्रीयो, कारखानो, ओर शहर के नाले का पानी आता हे, ओर रही सही कसर लोग गन्दगी डाल कर पुरी कर देते हे, जब की यही पानी सभी ने पीना हे,लेकिन फ़िर भी जानबुझ कर करते हे, नेता भी यही पानी पीते हे फ़िर भी नदियो को गन्दा करने वालो को कुछ नही कहते, पेसा ले कर चुप हो जाते हे,जब मोत सामने खडी हो गी तो यह पेसा भी काम नही आये गा,कया सच मे हम तरक्की कर रहे हे ???

Zololkis said...

SECURITY CENTER: See Please Here

गुरुवार, 3 अप्रैल 2008

हिंदी ब्लोगिंग में अनूठा प्रयोग.......कलम और की -पैड का संगम !


ज़रा आप भी सोचिये कि अगर हिंदी ब्लोगिंग में अगर कुछ इस तरह के प्रयोग होने लगें कि कलम और की-पैड का संगम हो जाये तो कैसा लगेगा ! वैसे एक छोटा सा प्रयत्न तो मैंने आज कर के गेंद को आप के पाले में फैंका है......

मैडीकल खबरों की खबर...1.



अब यह खबर लोगों को इतना क्यों डरा रही है कि आइसक्रीम खाने से हड्डीयां कमज़ोर हो सकती हैं। यह खबर जो आप यहां देख रहे हैं यह आज के ही पेपर में छपी है। जब सुबह सुबह मैं इस तरह की खबरों के दर्शन कर लेता हूं ना तो परेशान हो उठता हूं....क्योंकि मैं जानता हूं कि इन हिंदी अखबारों का दायरा बहुत बड़ा है और एक औसत पाठक इन में लिखी एक-एक लाइन को बहुत बारीकी से पढ़ता तो है ही उस पर अमल करने की भी कोशिश करता है।

इस तरह की त्रुटियां जहां भी मुझे हिंदी या पंजाबी के पेपरों में दिखती रही हैं मैं इन को संबंधित सम्पादकों के नोटिस में ई-मेल, फैक्स के ज़रिये पिछले चार-पांच वर्षों से लाता रहा हूं, लेकिन सिवाय एक-दो बार के जब कि अगले ही दिन संपादक ने संपादक के नाम पत्रों वाले कॉलम में इन्हें वैसे का वैसे छाप दिया.....ज़्यादातर मौकों पर इस पर कोई ध्यान ना दिया गया । अब यही काम अपनी इस ब्लोग पर कर लेता हूं क्योंकि मैंने देखा है कि इस हिंदी-ब्लोगोस्फीयर में भी बहुत से पत्रकार हैं जिन को इस विषय के बारे में अवेयर/सैंसेटाइज़ किया जा सकता है।

खैर, आज की यह खबर तो आप पढ़ें। मुझे तो यह बड़ी ही अजीब सी खबर लगी ....केवल इस की बढ़िया सी तस्वीरें और हैडिंग्ज़ ही न देखे जायें, कुछ बातें इस में लिखी बातों की भी हो जायें तो बेहतर होगा।

इस में और बातें तो की गई हैं कि बर्फ की सिल्लीयों में धूल-मिट्टी और मक्खियां लगती रहती हैं, लेकिन जिस पानी से यह बर्फ बनती है उस के बारे में भी बात होनी लाज़मी थी कि नहीं ....सारा दोष तो उस पानी का ही है।
अब अगले पैराग्राफ में यह भी बहुत ठोक-पीट कर कह तो दिया गया कि पानी में फ्लोराइड की मात्रा अधिक नहीं होनी चाहिये। अब कितना आसान है इस तरह की स्टेटमैंट जारी कर देना कि यह होना चाहिये वो होना चाहिये........अब ऐसा तो हो नहीं सकता कि आइसक्रीम की फैक्टरी वाला इस काम के लिये कोई अलग पानी इस्तेमाल करता है जिस में फ्लोराइड की मात्रा अधिक होती है और वह ऐसा भी नहीं करता होगा कि इस फ्लोराइड को बाहर से इस पानी में मिला देता हो.....उस के लिये ना तो ऐसा करना मुनासिब ही है और ना ही उस के द्वारा ऐसा करना संभव ही है। वैसे भी उसे ज्यादा फ्लोराइड वाले पानी को इस्तेमाल करने से कोई विशेष लाभ तो मिलने से रहा। तो, बात सीधी सी इतनी है कि जो भी पानी उस के पास उपलब्ध है वह वही तो इस्तेमाल करेगा............लेकिन जो भी हो , इस का शुद्धिकरण किया जाना बेहद लाजमी है, सिवाय उस फ्लोराइड के ज़्यादा-कम के चक्कर में पड़े हुये क्योंकि पानी में फ्लोराइड की मात्रा को नियंत्रित करने के लिये अमीर देशों में तो बहुत महंगे प्लांट लगे हुये हैं लेकिन हम लोग तो अभी इस मुद्दे पर बात न ही करें तो बेहतर होगा...............क्योंकि अभी मच्छरों से छुटकारा पाने जैसे और भी तो बहुत से बेसिक मुद्दे हैं। वैसे पेय जल में ज़्यादा फ्लोराइड वाला मुद्धा एक अच्छा खासा विषय है जिस के हडि्डयों एवं दांतों पर बुरे प्रभावों के बारे में फिर कभी चर्चा करेंगे।

बात केवल इतनी है कि जिस एरिये की जनता जो पानी पी रही है उसी पानी से ही तो ये बर्फ, बर्फ के गोले बन रहे हैं........ऐसे में सारा दिन मजबूरी वश यही पानी पीने से जो असर इन बशिंदों की हड्डियों पर पड़ेगा, यकीन मानिये एक बर्फ का गोला खाने से उस में आखिर क्या अंतर पड़ने वाला है, इसी समय यही सोच रहा हूं!!

एक विचार यह भी आ रहा है कि अपने ही प्रोफैशन से जुड़े व्यक्तियों की बातें काटते हुये अच्छा तो नहीं लगता, बहुत समय तक मैं यह सब कुछ पढ़ कर चुप रहता था, अपने आप में कुढ़ता रहता है ....अब मैं इन बातों को उजागर करता हूं...क्योंकि मैं यह अच्छी तरह से यह समझ गया हूं कि अगर मेरे जैसे लोग इस काम का बीड़ा नहीं उठायेंगे तो और कौन यह काम करने आयेगा!!

अब इस खबर की एक अजीबो-गरीब बात यह देखिये कि कहीं भी इस आइस-क्रीम बनाने के लिये इस्तेमाल किये जाने वाले दूध के ऊपर इस ने बिल्कुल भी सवालिया निशान नहीं उठाया....सवालिया निशान की तो छोड़िये, इस का जिक्र तक करने की ज़रूरत नहीं समझी !!....वैसे मेरी तरह आप को भी पांच-सात रूपये में बिकने वाली आइसक्रीम की सोफ्टी देख कर हैरानगी तो बहुत होती होगी कि पांच-सात रूपये में इतना ज़्यादा........हो न हो, जरूर कुछ तो गड़बड़ होती है, वरना पांच-सात रूपये में यह सब कैसे मिल सकता है। मुझे भी नहीं पता ये लोग क्या मिलाते हैं क्या नहीं !!..

इस खबर में एक दंत-चिकित्सक यह कह रहे हैं कि अगर आइस-क्रीम खाई है तो ब्रुश कर के सोना चाहिये.....नहीं तो दांतों मे ठंडा-गर्म लगने लगता है। अब इस के बारे में तो इतना ही कहना चाहूंगा कि आइसक्रीम खाने के दिन ही नहीं ...रोजाना रात को सोने से पहले ब्रुश करना निहायत ज़रूरी है। और, ऐसा न करना दांतों की हर प्रकार की तकलीफों को जन्म देता है............सिर्फ दांतो में ठंडा-गर्म लगना ही नहीं, हां उन तकलीफों में से एक यह हो सकता है।

चलते चलते यही कहना चाहूंगा कि बाज़ार में बिकने वाली इन आइसक्रीम और गोलों में सब कुछ गड़बड़ ही है..........जैसा कि आप इस खबर में भी पढ़ रहे हैं कि तरह तरह के नुकसानदायक रंग इस्तेमाल किये जाते हैं, बर्फ खराब, बर्फ को बनाने के लिये इस्तेमाल किया जाने वाला पानी गड़बड़, सैकरीन का प्रयोग, अजीबोगरीब फ्लेवरर्ज़....क्योंकि अकसर इन आइसक्रीम वालों को , गोलों को किसी तरह से नियंत्रित नहीं किया जा सकता .....( या, कोई करना नहीं चाहता !!....क्या आप यह सोच रहे हैं ?)…..ऐसे हालात में आखिर इस तरह की आइसक्रीम, बर्फ के गोलों वगैरा के चक्कर में आखिर पड़े तो क्यों पड़ें ?........वैसे बात सोचने की है कि नहीं !

बुधवार, 2 अप्रैल 2008

अच्छा तो अब तस्वीरें ही करेंगी अपना काम !!



यह जो न्यूज़-रिपोर्ट आप देख रहे हैं यह 20 मार्च के समाचार-पत्र में छपी थी। इस में यह खबर सुन कर बहुत खुशी हुई थी कि अब तो जून 24,2008 से सिगरेट, बीड़ी एवं तंबाकू के पैकटों पर तसवीर के रूप में भी चेतावनी हुया करेगी और इस चेतावनी के द्वारा पैकेट का 40प्रतिशत हिस्सा कवर किया जायेगा।
बाकी की न्यूज़-रिपोर्ट या तो आप पहले ही पढ़ चुके होंगे , नहीं तो अब पढ़ ही लेंगे। कुछ ज़्यादा डिटेल्स तो अभी इस कानून की मुझे पता नहीं हैं.......लेकिन फिर भी मैं तो बस इस न्यूज़ रिपोर्ट की उस एक बात की तरफ आप सब का ध्यान खींचना चाह रहा हूं जिस में यह कहा गया है कि हर स्वास्थ्य संबंधी चेतावनी को अंग्रज़ी एवं क्षेत्रीय भाषाओं में स्पैसीफाई कर लिया गया है ......और दो से ज्यादा भाषायें एक पैकेट के ऊपर नहीं लिखी जायेंगी।
अब मैं यही सोच रहा हूं कि क्या इन दोनों भाषाओं में देश की राष्ट्रभाषा भी कहीं शामिल है या नहीं !.....क्योंकि मेरे विचार में अगर च्वाइस एक क्षेत्रीय भाषा की हो और एक दूसरी भाषा की , तो केवल और केवल हिंदी को ही तरजीह मिलनी चाहिये। इस का कारण केवल इतना ही है कि हिंदी ही एक ऐसी भाषा है जो सारे देशवासियों को एक सुंदर माला में पिरो कर रखती है। अगर इन पैकेटों पर कम से कम एक चेतावनी हिंदी में लिखी होगी तो इस देश का बशिंदा चाहे वह कहीं का भी वासी हो रोज़ी-रोटी के लिये कहीं भी बसा हुया हो तो भी एक चेतावनी हिंदी में होने की वजह से उसे सारी बात सही तरह से समझ में आ जायेगी।
नहीं तो आप एक कल्पना कीजिये कि पंजाब में बिक रही बीड़ी के पैकेटों पर अगर एक चेतावनी तो अंग्रेज़ी में होगी और दूसरी पंजाबी (गुरमुखी लिपि) में लिखी होगी तो उन हज़ारों लाखों लोगों पर इस का कितना प्रभाव पड़ पायेगा जो दूसरे प्रांतों से आकर यहां बसे हुये हैं। सीधी बात यह है कि हिंदी को हमें याद रखना ही होगा....अगर कहीं हिंदी भूल गये तो बस हो गया इस चेतावनी का सारा काम चौपट ! जो भी हो, अभी तो इस के बारे में विस्त्तृत जानकारी हमें भी पता नहीं है। आशा है कि इन बातों का़ ध्यान रखा जायेगा।
पता नहीं, यह तंबाकू भी क्या बला है कि जिस के ऊपर इतने सारे संसाधन खप जाते हैं लेकिन फिर भी जब तक लोग इस तंबाकू के सभी रूपों को अपनी ज़िंदगी से बाहर नहीं करेंगे तब तक कुछ भी होने वाला नहीं है....चाहे जितने भी बड़े बड़े हास्पीटल खुल जायें, जितने भी बड़े बड़े कैंसर हास्पीटल खुल जायें, तंबाकू की वजह से होने वाली सांस की तकलीफ़ों से जूझने के लिये चाहे दुनिया के जितने बड़े से बड़े डाक्टर इक्ट्ठे कर लिये जायें....इन से कुछ नहीं होगा.......रोज़ाना हास्पीटलों में तंबाकू से हुई बर्बादी की मुंह बोलती तस्वीरें देख देख कर अब तो मैं भी थक सा गया हूं। सोच रहा हूं कि पंजाब में अकसर यह कहावत बड़ी मशहूर है कि अगर किसी का घर तबाह करना हो तो उस के बेटे को शराब की लत लगा दो,.....मैं तो सोचता हूं कि इतनी भी मेहनत करने की क्या ज़रूरत है.......शौक शौक में उसे सिगरेट-बीड़ी के ही चंगुल में फंसा दो, समझो काम हो गया !
अकसर सोचता हूं कि बाहर के देशों में तो सैकेंड-हैंड स्मोक का रोना इतना रोया जा रहा है लेकिन हम पहले फर्स्ट हैंड स्मोक का रोना रोने से तो फारिग हो लें, सैकेंड-हैंड स्मोक के बारे में सोचने की अभी किसे फुर्सत है !!!

ये एन.सी.ई.आर.टी एवं राज्य शिक्षा बोर्डों की किताबें !

आप को पता है कि साल के इन दिनों में चांदी कूटने की बारी किस की होती है......साल के इन दिनों में अधिकतर गैर-सरकारी स्कूलों ने अच्छी-खासी लूटमार मचा रखी होती है। वो, हर साल नये नये फंडों के नाम पर पैसा ऐंठने की बात तो है ही, यह अब तो इन स्कूलों ने पाठ्य पुस्तकों के एरिया में भी मुंह मारना शुरू कर दिया है ना....जब पिछले 10-12 वर्षों से यह सब देख रहा हूं तो यही लगने लगा है कि लालच की भी कोई सीमा नहीं होती, बस एक बार इस का खून मुंह में लगने की ही देर होती है !

इस के बारे में मैं इतने स्कूल के प्रशासनों को कह चुका हूं..और मीडिया में इस के बारे में इतना लिख चुका हूं....लेकिन कुछ भी ना तो हुया है और ना ही होगा। सब कुछ यूं ही चलता रहेगा...ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है। अकसर मैं देखता हूं कि जिस दिन छोटी छोटी कक्षाओं की किताबें स्कूल में लेने लोग जाते हैं तो दो-अढ़ाई हज़ार रूपये मां-बाप की जेब से उड़ा लिये जाते हैं। घर आकर जब अकसर टोटल मारा जाता है तो यकीनन यही खुलासा होता है कि इन सब का योग तो इस रकम का आधा ही बनता है।

बात यह नहीं है कि कौन इन स्कूलों के ये नखरे बर्दाश्त कर सकता है और कौन नहीं ! सीधी सी बात यही है कि हम लोगों की इस तरह की छोटी-छोटी समस्यायें ही विकराल रूप धारण ही इसलिये कर लेती हैं क्योंकि हमारी सोच कुछ इस तरह की हो गई है कि यार, छोड़ो क्या फर्क पड़ता है, यह भी कोई रकम है जिस के लिये किसी से बात की जाये !!!..........यही हम लोगों की भूल है....फर्क पड़ता है, बहुत पड़ता है ...बहुत से लोगों को पड़ता है लेकिन उन की कोई आवाज़ ही नहीं है और न ही वे अपनी आवाज़ उठाना चाहते हैं और हम लोग जो अपनी आवाज़ दूसरों तक पहुंचाना जानते हैं, हमारा क्या है..........हमें क्या फर्क पड़ता है !! और खेद की बात तो यही है कि जिन पब्लिशर्ज़ की किताबें इन स्कूलों में लगवा दी जाती हैं कईं बार तो उन का नाम तक भी हम लोगों ने सुना नहीं होता, और कईं बार तो इन में इतनी गलतियां होती हैं कि क्या कहें !

पिछले वर्षों में जब भी मैंने यह बात स्कूल प्रशासनों के साथ उठाई है तो मुझे बेहद ओछे से जवाब मिले हैं.....जैसे कि हां, हां, अगले साल से हम कुछ करेंगे, हम तो टीचर्ज़ की एक कमेटी बना देते हैं जो ये सब किताबें रिक्मैंड करती है, या कईं बार तो मुझे यह कह कर भी समझाने की कोशिश की गई कि ये जो सरकारी किताबें हैं ना ये होती हैं....औसत छात्रों के लिये....चूंकि हमारा लक्ष्य होता है बच्चों के शैक्षिक स्तर को बहुत ज्यादा बढ़ाना, इसलिये हमें ये प्राइवेट किताबें तो लगवानी ही पड़ती हैं। मैं इस से रती भर भी सहमत नहीं हूं.....पहले एनसीईआरटी द्वारा इतनी मेहनत से और इतने कम दाम में उपलब्ध करवाई जाने वाली किताबें तो बच्चे पढ़ लें....बाद में जितनी मरजी ये बच्चे प्राईवेट प्रकाशकों की किताबें पढ़ सकते हैं।

विभिन्न विषयों की किताबे तैयार करवाने के लिये एनसीईआरटी को कितनी मेहनत करनी पड़ती है...यह हम में से अधिकांश लोग जानते नहीं । इतने सारे बुद्धिजीवी इस प्रोसैस में इन्वाल्व होते हैं कि यकीन ही नहीं होता कि एक किताब तैयार करने के लिये इतने सारे सिज़न्ड लोगों को शामिल किया जाता है। मैंने भी एनसीईआरटी के निमंत्रण पर कुछ सप्लीमैंटरी बुक्स की तैयारी के वक्त इस तरह की मीटिंग्स अटैंड की हुई हैं, इसलिये मैं यह सब इतने विश्वास से कह पा रहा हूं।

एक तरफ तो गैर-सरकारी स्कूलों ने किताबों से संबंधित लूट सी मचा रखी है....माफ़ कीजियेगा, मुझे कोई माइल्ड शब्द मिल नहीं रहा, क्या करूं !

ऐसे घुटन भरे माहौल में कल बड़ी मुश्किल से कल की अखबार के रूप में शिक्षा विभाग, चंडीगढ़ प्रशासन की तरफ से ठंडी हवा का एक झोंका सा आया तो है......कल की अखबार में छपे इस विज्ञापन को आप भी देखिये....लंबा था, इस लिये दो हिस्सों में है............आप देख रहे हैं ना कि सब कुछ कितना पारदर्शी और साफ़-सुथरा लग रहा है...किसी को कोई शक नहीं और न ही संदेह करने का लेश-मात्र भी स्कोप है ! शिक्षा विभाग द्वारा इस साल राजकीय स्कूलों में लागू कक्षा 1 से 10 तक की पाठ्य पुस्तकों की पूरी सूची जारी कर दी है और यहां तक कि पुस्तक विक्रेता इन के दाम पर कितनी छूट देने को बाध्य है, इस का भी सही खुलासा कर दिया गया है। और बुक-विक्रेता के द्वारा उक्त छूट देने से मना करने पर जो फोन नंबर घुमाना है, वह भी तो दे दिया गया है....अब सरकार इस से ज़्यादा और करे भी तो क्या करे!!...कुछ काम पब्लिक का भी तो है ना, दोस्तो !!

मेरे मन में तो बस यही विचार आ रहा है कि सभी राजकीय स्कूलों में तो ठीक है यह लिस्ट लागू हो जायेगी , माडल स्कूलों में भी ये किताबें ही लगवाई जायेंगी, लेकिन जो बच्चे गैर-सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं, वे क्या करें ! …..आखिर इस तरह के आदेशों में गैर-सरकारी स्कूलों (लेकिन सरकार ही से मान्यता प्राप्त) को क्यों छोड़ दिया जाता है ?......शायद इसलिये ताकि वे मनमानी कर सकें। शायद आप भी मेरे इस विचार से सहमत होंगे कि इस तरह के आदेश तो सारे ही स्कूलों के लिये ही लागू होने चाहिये।