आप को पता है कि साल के इन दिनों में चांदी कूटने की बारी किस की होती है......साल के इन दिनों में अधिकतर गैर-सरकारी स्कूलों ने अच्छी-खासी लूटमार मचा रखी होती है। वो, हर साल नये नये फंडों के नाम पर पैसा ऐंठने की बात तो है ही, यह अब तो इन स्कूलों ने पाठ्य पुस्तकों के एरिया में भी मुंह मारना शुरू कर दिया है ना....जब पिछले 10-12 वर्षों से यह सब देख रहा हूं तो यही लगने लगा है कि लालच की भी कोई सीमा नहीं होती, बस एक बार इस का खून मुंह में लगने की ही देर होती है !
इस के बारे में मैं इतने स्कूल के प्रशासनों को कह चुका हूं..और मीडिया में इस के बारे में इतना लिख चुका हूं....लेकिन कुछ भी ना तो हुया है और ना ही होगा। सब कुछ यूं ही चलता रहेगा...ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है। अकसर मैं देखता हूं कि जिस दिन छोटी छोटी कक्षाओं की किताबें स्कूल में लेने लोग जाते हैं तो दो-अढ़ाई हज़ार रूपये मां-बाप की जेब से उड़ा लिये जाते हैं। घर आकर जब अकसर टोटल मारा जाता है तो यकीनन यही खुलासा होता है कि इन सब का योग तो इस रकम का आधा ही बनता है।
बात यह नहीं है कि कौन इन स्कूलों के ये नखरे बर्दाश्त कर सकता है और कौन नहीं ! सीधी सी बात यही है कि हम लोगों की इस तरह की छोटी-छोटी समस्यायें ही विकराल रूप धारण ही इसलिये कर लेती हैं क्योंकि हमारी सोच कुछ इस तरह की हो गई है कि यार, छोड़ो क्या फर्क पड़ता है, यह भी कोई रकम है जिस के लिये किसी से बात की जाये !!!..........यही हम लोगों की भूल है....फर्क पड़ता है, बहुत पड़ता है ...बहुत से लोगों को पड़ता है लेकिन उन की कोई आवाज़ ही नहीं है और न ही वे अपनी आवाज़ उठाना चाहते हैं और हम लोग जो अपनी आवाज़ दूसरों तक पहुंचाना जानते हैं, हमारा क्या है..........हमें क्या फर्क पड़ता है !! और खेद की बात तो यही है कि जिन पब्लिशर्ज़ की किताबें इन स्कूलों में लगवा दी जाती हैं कईं बार तो उन का नाम तक भी हम लोगों ने सुना नहीं होता, और कईं बार तो इन में इतनी गलतियां होती हैं कि क्या कहें !
पिछले वर्षों में जब भी मैंने यह बात स्कूल प्रशासनों के साथ उठाई है तो मुझे बेहद ओछे से जवाब मिले हैं.....जैसे कि हां, हां, अगले साल से हम कुछ करेंगे, हम तो टीचर्ज़ की एक कमेटी बना देते हैं जो ये सब किताबें रिक्मैंड करती है, या कईं बार तो मुझे यह कह कर भी समझाने की कोशिश की गई कि ये जो सरकारी किताबें हैं ना ये होती हैं....औसत छात्रों के लिये....चूंकि हमारा लक्ष्य होता है बच्चों के शैक्षिक स्तर को बहुत ज्यादा बढ़ाना, इसलिये हमें ये प्राइवेट किताबें तो लगवानी ही पड़ती हैं। मैं इस से रती भर भी सहमत नहीं हूं.....पहले एनसीईआरटी द्वारा इतनी मेहनत से और इतने कम दाम में उपलब्ध करवाई जाने वाली किताबें तो बच्चे पढ़ लें....बाद में जितनी मरजी ये बच्चे प्राईवेट प्रकाशकों की किताबें पढ़ सकते हैं।
विभिन्न विषयों की किताबे तैयार करवाने के लिये एनसीईआरटी को कितनी मेहनत करनी पड़ती है...यह हम में से अधिकांश लोग जानते नहीं । इतने सारे बुद्धिजीवी इस प्रोसैस में इन्वाल्व होते हैं कि यकीन ही नहीं होता कि एक किताब तैयार करने के लिये इतने सारे सिज़न्ड लोगों को शामिल किया जाता है। मैंने भी एनसीईआरटी के निमंत्रण पर कुछ सप्लीमैंटरी बुक्स की तैयारी के वक्त इस तरह की मीटिंग्स अटैंड की हुई हैं, इसलिये मैं यह सब इतने विश्वास से कह पा रहा हूं।
एक तरफ तो गैर-सरकारी स्कूलों ने किताबों से संबंधित लूट सी मचा रखी है....माफ़ कीजियेगा, मुझे कोई माइल्ड शब्द मिल नहीं रहा, क्या करूं !
ऐसे घुटन भरे माहौल में कल बड़ी मुश्किल से कल की अखबार के रूप में शिक्षा विभाग, चंडीगढ़ प्रशासन की तरफ से ठंडी हवा का एक झोंका सा आया तो है......कल की अखबार में छपे इस विज्ञापन को आप भी देखिये....लंबा था, इस लिये दो हिस्सों में है............आप देख रहे हैं ना कि सब कुछ कितना पारदर्शी और साफ़-सुथरा लग रहा है...किसी को कोई शक नहीं और न ही संदेह करने का लेश-मात्र भी स्कोप है ! शिक्षा विभाग द्वारा इस साल राजकीय स्कूलों में लागू कक्षा 1 से 10 तक की पाठ्य पुस्तकों की पूरी सूची जारी कर दी है और यहां तक कि पुस्तक विक्रेता इन के दाम पर कितनी छूट देने को बाध्य है, इस का भी सही खुलासा कर दिया गया है। और बुक-विक्रेता के द्वारा उक्त छूट देने से मना करने पर जो फोन नंबर घुमाना है, वह भी तो दे दिया गया है....अब सरकार इस से ज़्यादा और करे भी तो क्या करे!!...कुछ काम पब्लिक का भी तो है ना, दोस्तो !!
मेरे मन में तो बस यही विचार आ रहा है कि सभी राजकीय स्कूलों में तो ठीक है यह लिस्ट लागू हो जायेगी , माडल स्कूलों में भी ये किताबें ही लगवाई जायेंगी, लेकिन जो बच्चे गैर-सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं, वे क्या करें ! …..आखिर इस तरह के आदेशों में गैर-सरकारी स्कूलों (लेकिन सरकार ही से मान्यता प्राप्त) को क्यों छोड़ दिया जाता है ?......शायद इसलिये ताकि वे मनमानी कर सकें। शायद आप भी मेरे इस विचार से सहमत होंगे कि इस तरह के आदेश तो सारे ही स्कूलों के लिये ही लागू होने चाहिये।
इस के बारे में मैं इतने स्कूल के प्रशासनों को कह चुका हूं..और मीडिया में इस के बारे में इतना लिख चुका हूं....लेकिन कुछ भी ना तो हुया है और ना ही होगा। सब कुछ यूं ही चलता रहेगा...ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है। अकसर मैं देखता हूं कि जिस दिन छोटी छोटी कक्षाओं की किताबें स्कूल में लेने लोग जाते हैं तो दो-अढ़ाई हज़ार रूपये मां-बाप की जेब से उड़ा लिये जाते हैं। घर आकर जब अकसर टोटल मारा जाता है तो यकीनन यही खुलासा होता है कि इन सब का योग तो इस रकम का आधा ही बनता है।
बात यह नहीं है कि कौन इन स्कूलों के ये नखरे बर्दाश्त कर सकता है और कौन नहीं ! सीधी सी बात यही है कि हम लोगों की इस तरह की छोटी-छोटी समस्यायें ही विकराल रूप धारण ही इसलिये कर लेती हैं क्योंकि हमारी सोच कुछ इस तरह की हो गई है कि यार, छोड़ो क्या फर्क पड़ता है, यह भी कोई रकम है जिस के लिये किसी से बात की जाये !!!..........यही हम लोगों की भूल है....फर्क पड़ता है, बहुत पड़ता है ...बहुत से लोगों को पड़ता है लेकिन उन की कोई आवाज़ ही नहीं है और न ही वे अपनी आवाज़ उठाना चाहते हैं और हम लोग जो अपनी आवाज़ दूसरों तक पहुंचाना जानते हैं, हमारा क्या है..........हमें क्या फर्क पड़ता है !! और खेद की बात तो यही है कि जिन पब्लिशर्ज़ की किताबें इन स्कूलों में लगवा दी जाती हैं कईं बार तो उन का नाम तक भी हम लोगों ने सुना नहीं होता, और कईं बार तो इन में इतनी गलतियां होती हैं कि क्या कहें !
पिछले वर्षों में जब भी मैंने यह बात स्कूल प्रशासनों के साथ उठाई है तो मुझे बेहद ओछे से जवाब मिले हैं.....जैसे कि हां, हां, अगले साल से हम कुछ करेंगे, हम तो टीचर्ज़ की एक कमेटी बना देते हैं जो ये सब किताबें रिक्मैंड करती है, या कईं बार तो मुझे यह कह कर भी समझाने की कोशिश की गई कि ये जो सरकारी किताबें हैं ना ये होती हैं....औसत छात्रों के लिये....चूंकि हमारा लक्ष्य होता है बच्चों के शैक्षिक स्तर को बहुत ज्यादा बढ़ाना, इसलिये हमें ये प्राइवेट किताबें तो लगवानी ही पड़ती हैं। मैं इस से रती भर भी सहमत नहीं हूं.....पहले एनसीईआरटी द्वारा इतनी मेहनत से और इतने कम दाम में उपलब्ध करवाई जाने वाली किताबें तो बच्चे पढ़ लें....बाद में जितनी मरजी ये बच्चे प्राईवेट प्रकाशकों की किताबें पढ़ सकते हैं।
विभिन्न विषयों की किताबे तैयार करवाने के लिये एनसीईआरटी को कितनी मेहनत करनी पड़ती है...यह हम में से अधिकांश लोग जानते नहीं । इतने सारे बुद्धिजीवी इस प्रोसैस में इन्वाल्व होते हैं कि यकीन ही नहीं होता कि एक किताब तैयार करने के लिये इतने सारे सिज़न्ड लोगों को शामिल किया जाता है। मैंने भी एनसीईआरटी के निमंत्रण पर कुछ सप्लीमैंटरी बुक्स की तैयारी के वक्त इस तरह की मीटिंग्स अटैंड की हुई हैं, इसलिये मैं यह सब इतने विश्वास से कह पा रहा हूं।
एक तरफ तो गैर-सरकारी स्कूलों ने किताबों से संबंधित लूट सी मचा रखी है....माफ़ कीजियेगा, मुझे कोई माइल्ड शब्द मिल नहीं रहा, क्या करूं !
ऐसे घुटन भरे माहौल में कल बड़ी मुश्किल से कल की अखबार के रूप में शिक्षा विभाग, चंडीगढ़ प्रशासन की तरफ से ठंडी हवा का एक झोंका सा आया तो है......कल की अखबार में छपे इस विज्ञापन को आप भी देखिये....लंबा था, इस लिये दो हिस्सों में है............आप देख रहे हैं ना कि सब कुछ कितना पारदर्शी और साफ़-सुथरा लग रहा है...किसी को कोई शक नहीं और न ही संदेह करने का लेश-मात्र भी स्कोप है ! शिक्षा विभाग द्वारा इस साल राजकीय स्कूलों में लागू कक्षा 1 से 10 तक की पाठ्य पुस्तकों की पूरी सूची जारी कर दी है और यहां तक कि पुस्तक विक्रेता इन के दाम पर कितनी छूट देने को बाध्य है, इस का भी सही खुलासा कर दिया गया है। और बुक-विक्रेता के द्वारा उक्त छूट देने से मना करने पर जो फोन नंबर घुमाना है, वह भी तो दे दिया गया है....अब सरकार इस से ज़्यादा और करे भी तो क्या करे!!...कुछ काम पब्लिक का भी तो है ना, दोस्तो !!
मेरे मन में तो बस यही विचार आ रहा है कि सभी राजकीय स्कूलों में तो ठीक है यह लिस्ट लागू हो जायेगी , माडल स्कूलों में भी ये किताबें ही लगवाई जायेंगी, लेकिन जो बच्चे गैर-सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं, वे क्या करें ! …..आखिर इस तरह के आदेशों में गैर-सरकारी स्कूलों (लेकिन सरकार ही से मान्यता प्राप्त) को क्यों छोड़ दिया जाता है ?......शायद इसलिये ताकि वे मनमानी कर सकें। शायद आप भी मेरे इस विचार से सहमत होंगे कि इस तरह के आदेश तो सारे ही स्कूलों के लिये ही लागू होने चाहिये।
प्रवीन जी, मैंने भी एन.सी.ई.आर.टी. की कुछ पुस्तकें देखां हैं। वे वास्तव में बहुत शोध व मेहनत का परिणाम मालूम होती हैं व मैंने भी उनका स्तर अनेक प्रचलित पुस्तकों से कहीँ अच्छा पाया है।
जवाब देंहटाएं