आज विविध भारती के सेहतनामा प्रोग्राम में जीवनशैली से संबंधित बहुत सी बातें रिवाईज़ करने का अवसर मिला..
कार्यक्रम में विविध भारती ने बंबई के पोद्दार मैडीकल कालेज के प्रिंसीपल को बुलाया था...एक घंटे का प्रोग्राम था।
मुझे बहुत सी बातें फिर से याद आ गईं ...सुबह उठ कर पानी पीने की...दिन में ना सोने की..
जैसे हम लोग अपनी पसंद की फिल्म या गीत बार बार देखते सुनते हैं, उसी तरह से इन विद्वजनों को भी निरंतर सुनना बहुत ज़रूरी है, पता नहीं कौन सी बात कब मन में बस जाए।
ये विशेषज्ञ जब बोलते हैं तो अपने जीवन भर का ज्ञान बांट देते हैं...काश, हम लोग इन की बातों को अपने मन में बसा लिया करें।
मैं ऐसा बहुत बार सोचता हूं कि विविध भारती के इस तरह के प्रोग्रामों का एक आर्काईव होना चाहिए..आज की युवा पीढ़ी फास्ट है, कनेक्टेड है, ताकि वे लोग कभी भी इन से लाभ उठा सकें।
मैंने तो कुछ साल पहले विविध भारती को वॉयरलैस सुनने के लिए एल जी का फोन लिय़ा था, इसी काम के लिए...बाद में पता चला कि उस पर रेडियो के प्रोग्राम रिकार्ड भी हो जाया करते थे जिन्हें मैं अकसर अपने इसी ब्लॉग में शेयर भी कर चुका हूं.. अब वह मोबाइल खराब है...आज इच्छा हुई कि इस सेहतनामा प्रोग्राम को अपने मोबाइल से ही रिकार्ड कर लूं..यही किया ..पेशेखिदमत है एक छोटा सा प्रयास...
मेरे विचार में इन लोगों की बातें बार बार सुननी चाहिए...
आज कल बाज़ार में आम अभी कच्चे ही मिल रहे हैं..हम भी ले आये थे , दो दिन पहले..हापुस कह कर उस पट्ठे ने दे तो दिए..लेकिन उन्हें खाते ही दांत किटकिटाने लगते हैं...लेिकन अब पता चला कि कच्चे आमों को पकाने का एक सरल उपाय भी है ..आप भी जानेंगे?
मैं भी इस फार्मूले से पूर्णतः सहमत हूं और इस की सिफारिश करता हूं.. भाषण किसे काम तो आया!!
इस रेडियो प्रोग्राम को आप तक लाने में बड़ी मेहनत लगती है ..समय भी बहुत लगता है...आप भी रेडियो सुना करिए...कमाल का दोस्त है यह विविध भारती भी...हां, एक बात कहना तो भूल ही गया कि इस प्रोग्राम के दौरान आप डाक्टर साहब की पसंद के कुछ गीत भी सुनेंगे....डा साहब की पसंद तो बड़ी आधुनिक निकली ..जैसे वह अपनी बातचीत में वात्-पित्त-कफ को बेलेंस करने की बात दोहरा रहे थे, मैं भी सोच रहा हूं कि कार्यक्रम के दौरान आज कल के तेज़-तर्रार फिल्मी गानों की जो खुराक मिली है उसे भी बेलेंस कर लेते हैं....हमारे दिनों का एक सुपरहिट गीत सुन कर ... हाल क्या है दिलों का ना पूछो सनम!! दरअसल यह गीत मुझे अभी नज़र आ गया मेरी किसी पुरानी पोस्ट पर पड़ा हुआ... आप भी सुनिए...
जी हां, कईं बार जब पानी के बताशों का ज़िक्र होता है तो मुझे सामने वाली की बात बड़े ध्यान से सुनती होती है ...कारण अभी बताता हूं...
पानी के बताशे खाने से होने वाली जलन
कुछ लोग आ कर कहते हैं कि पानी के बताशे खाने से मुंह में बहुत जलन होती है ..कुछ लोगों में तो यह परेशानी दो चार दिन से होती है और अकसर यह मुंह के छालों की वजह से होती है ...लगाने वाली दवाई दे देते हैं..दो चार दिन में सामान्यतयः सब कुछ ठीक हो जाता है..
लेकिन कुछ लोगों में इस तरह की जलन लंबे अरसे से चल रही होती है ..इन में अकसर गुटखे-पान मसाले वाले घाव परेशानी का कारण होते हैं। उसे समझाने की पूरी कोशिश की जाती है कि इस के स्थायी इलाज के लिए तुम्हें गुटखे-पान मसाले को हमेशा से ही थूक देना पड़ेगा..वरना इन ज़ख्मों की वजह से कुछ का कुछ बन जायेगा...फिर बिगड़ी बात बन भी नहीं पाएगी।
अचानक मुंह जल गया किसी का
कुछ साल पहले की बात है एक महिला मेरे पास आई ..उस का तालू पूरी तरह से जला हुआ था...यह कोई पांच साल पहले की बात होगी..मैंने पूछा कि क्या कुछ गर्म खा लिया था..कहने लगी ...नहीं। थोड़ा और अच्छे से पूछने पर उसने बताया कि कल शाम को उस का बेटा पानी के बताशे लाया था..बस वही खाए थे...कुछ समय बाद ही यह सब हो गया...
समझ में आ गया...और उस के बाद भी ऐसे बहुत से केस आने लगे ..तालू के घाव ही नहीं, मुंह के अंदर अन्य ज़ख्म भी पानी के बताशों की वजह से दिख जाते हैं...रिसर्च करने पर यही पता चला कि आज कर ईमली-विमली महंगी है, लोग बताशे का पानी बताने के लिए भी सस्ता जुगाड़ इस्तेमाल करने लगे हैं..टार्टरिक एसिड...जैसे ही अनुमान गड़बड़ाया तो बस इस पानी से मुंह तो जलेगा ही।
अब पानी का बताशा ही नहीं खाया जाता
जब कोई गुटखा-पान मसाले खाने वाला आता है और उस के मुंह की हालत देख कर अगर उस से यह पूछा जाए कि पानी के बताशे खा लेते हो...तो बहुत बार यही जवाब मिलता है कि पहले तो खा लेते थे, अब मुंह इतना नहीं खुलता कि बताशा अंदर जा पाए...ऐसे मरीज़ों का मुंह देखने पर पता चलता है कि उन में अकसर सब-म्यूक्स-फाईब्रोसिस नाम की बीमारी हो चुकी होती है जो कि मुंह के कैंसर की पूर्वावस्था होती है .. (oral pre-cancerous lesion) ..इन्हें भी सब तरह के नुकसान दायक पदार्थों का सेवन बंद करने के लिए तो लंबा-चौड़ा सिर दुःखाने वाला लेक्चर तो देना ही होता है, साथ ही इस का पूरा इलाज भी किया जाना ज़रूरी होता है ..
पानी के बताशों के नाम पर मैंने भी आप को कितना बोर कर दिया...कोई बात नहीं...आज कल पानी के बताशे खाने का अंदाज़ भी कुछ कुछ बदला हुआ है ...बचपन में दो मटके होते थे रेहड़ी पर लाल कपड़ा बंधा होता था..एक में खट्टा पानी और दूसरे में मीठा...मुझे हमेशा से मीठा पानी अच्छा लगता है....और साथ में एक पतीले में चने और उबले आलू हुआ करते थे ...देश के विभिन्न भागों में इन का नाम भी अलग अलग... बंबई में पानी पूरी...पंजाब हरियाणा दिल्ली में गोल गप्पे ...बस मुझे इतने ही नाम पता हैं...
गोल गप्पे घर लाकर खाने में मजा नहीं आता...ऐसा लगता है कि बंदा कोई एक्सपेरीमेंट कर रहा है..पहले उसे फोड़ो, फिर उस में मटर भरो, फिर पानी...अब तो कुछ दुकानों पर प्लेट में ये गोल गप्पे परोसे जाते हैं...कटोरी या गिलास में खट्टा-मीठा पानी..
पिछले साल से कुछ दुकानों में देख रहा हूं .अब मटकों की जगह इस तरह के डिस्पेन्सरों ने ले ली है... और परोसने वाले ने इस तरह के पतले से दस्ताने पहने होते हैं...इस तरह के पतले तो ठीक लगते हैं..लेिकन एक जगह पर देखा कि उसने डाक्टरों वाले ग्लवज़ पहने हुए थे...अजीब सा लगा था उस दिन...कुछ दिन पहले मैंने इस लड़के की फोटो खींची तो कहने लगा ...व्हाट्सएप पर डालेंगे?...हंसने लगा। पता नहीं मेरे जैसे दिन में कितने लोग फोटो खींच के उसे परेशान कर देते होंगे!😊😊
ग्राहकों को बुलाने के लिए कुछ न कुछ नया करते रहना पड़ता है ...कुछ दुकाने अब बोर्ड लगाने लगी हैं कि यहां पर आर-ओ का पानी इस्तेमाल होता है ...
पानी के बताशों से याद आया ...कुछ िदन पहले मेरे पास पांच दस मिनट का फ्री टाईम था...मुझे और कुछ करने को दिखा नहीं... मैंने सामने पानी बताशे की दुकान में २० रूपये का टोकन लिया...खाने लगा ...मैंने सोचा था ..पांच छः होंगे..लेिकन उस दिन मैंने १०-१२ बताशे खाए बहुत दिनों बाद...तबीयत खराब रही अगली दिन भी ..अब इन सब की इतनी संख्या में खाने की आदत नहीं रही...
वैसे आलू की टिक्की भी अच्छी लगती है ..लेकिन जो पुदीने की चटनी, और पतला प्याज और मीठी चटनी आज से ४० साल पहले मेले में खाया करते थे ...उस का ज़ायका तो अब नाक में ही है ...एक बात अच्छी यह है कि अब बहुत सी जगहों पर कुल्फी की तरह आलू की टिक्की भी इस तरह की मिट्टी की प्लेटों में परोसी जाने लगी है ...
अब इस बात को यहीं विराम देते हैं... फिल्म की बात करते हैं...शाम से ज़ी-क्लासिक चैनल पर कर्मा फिल्म आ रही है ..तीस साल पहले शायद कहीं वी सी आर पर देखी होगी...पॉयरेटेड वीसीडी से ...उस के बाद शायद कभी कभी टीवी पर थोडी बहुत...आज फिर से इसे देख रहा हूं और हैरान हूं कि सभी कलाकारों ने इतना बढ़िया काम किया है ...
आज मैं इस पोस्ट में एक ५० वर्ष के पुरूष के मुंह की कुछ तस्वीरें लगा रहा हूं...यह मेरे पास कल आए थे..
ये सभी चार तस्वीरें इन के मुंह के अंदर की हैं...मैंने इन तस्वीरों को एक उदाहरण के तौर पर इसलिए लगाया है क्योंकि इस से कोई भी यह समझ पायेगा कि किस तरह के दांतों और मसूड़ों की गंभीर बीमारियां बिना किसी लक्षण के ही निरंतर पनपती रहती हैं।
इस पुरूष को भी अपने दांतों और मसूड़ों में कभी किसी तरह की कोई तकलीफ हुई नहीं...ये तो मेरे पास केवल इसलिए आये हैं क्योंकि इन्हें एक हिलते हुए दांत में कुछ दिनों से खाना खाते समय कुछ परेशानी होने लगी है।
इन के आने का बस इतना सा कारण है, और यह कल किसी डेंटिस्ट के पास पहली बार आए थे..
मैंने इन्हें पूछा कि कभी दांतों में ठंडा गर्म लगता है, कभी मसूड़ों से रक्त बहता है अपने आप या ब्रुश करते समय...इनका जवाब था ...नहीं।
यह तो हो गई बात जो इन्हें कही ..वास्तविकता यह है कि इन के मुंह में पायरिया रोग एक एड्वांस स्टेज में है ...सभी लक्षण दिख रहे हैं..दांतो के ऊपर इतने ज्यादा टारटर, मसूड़ों की सूजन और उन से होने वाला रिसाव और छः सात दांत तो पूरी तरह से हिल रहे थे...
यह पोस्ट सिर्फ यह संदेश पाठकों तक पहुंचाने के लिए है कि अगर आप को दांतों और मसूड़ों में कोई परेशानी नहीं भी है, और अगर आप यह समझते भी हैं कि सब कुछ ठीक ठाक है ...तो भी हर छः महीने के बाद किसी डेंटिस्ट से अपने मुहं का परीक्षण अवश्य करवा आया करिए...ऐसा करने से इस मरीज़ जैसी नौबत नहीं आयेगी...बीमारियां अगर हैं भी तो प्रारंभिक अवस्था में ही पकड़ में आ जायेंगी और आसानी से जल्द ही उन का पूर्ण इलाज भी हो जायेगा।
उम्मीद है कि आप को इस पोस्ट से कुछ सबक मिल गया होगा...अगर हां, तो अच्छा है, मेरी मेहनत सफ़ल हुई...
OK...All the best for your next oral health check-up!
जी हां, यह हमारी हाउसिंग सोसायटी पढ़े-लिखों लोगों की है ..लगभस सभी सर्विस में हैं या रिटायर्ड हैं...दरअसल नौकरी पेशा लोग जिस तरह से अपने जैसे लोगों के साथ इतने वर्षों से रहे होते हैं ..उन्हें रिटायर होने के बाद भी उसी तरह के पढ़े लिखे लोगों के साथ रहना अच्छा लगता है।
सब से बड़ी खूबी हमारी सोसायटी की यह है कि किसी बात के लिए भी चिक-चिक नहीं है...सभी कानून कायदे एकदम कड़क हैं...कोई नहीं मानेगा तो भी ये मनवा ही लेते हैं..ऐसा ही होना चाहिए।
इतना घाटों का पानी भी नहीं पिया हम लोगों ने लेकिन जितना भी पिया है हमारी वर्तमान सोसायटी लगभग एक आदर्श सोसायटी है, मुझे तो पिछले तीन वर्षों में कोई कमी नहीं लगी..हम लोग किराये पर हैं, किराया ज़्यादा तो है ..but it is okay!
कल शाम दरवाजे पर बेल हुई..कॉलोनी का गार्ड था...बेसमेंट पार्किंग एरिया में जो लाइटें जलती है उस के १५० रूपये लेने आया था..ये तीन महीने का बिल है ...बेसमेंट में अलग बिजली का मीटर है ..तीन महीने में जितनी खपत होती है, और एक बेसमेंट में जितनी गाड़ियां खड़ी रहती हैं ...उन में वह बिल बांट दिया जाता है ...कितना बढ़िया तरीका है...वरना अकसर देखते हैं कि बेसमेंट की लाइटें कुछ बिल्डिंगों में हमेशा खराब ही रहती हैं ...और इन को दुरूस्त करवाना कोई अपनी जिम्मेदारी भी नहीं समझता...लेकिन इस तरह की shared responsibility वाली बात बढ़िया है ..आप को कैसी लगी?
कल मैंने नोटिस बोर्ड पर देखा तो एक नोटिस लगा हुआ था..पेट चार्जेज के बारे में ...मैं पहली बार कुछ इस तरह के शुल्क के बारे में पढ़ रहा था कि प्रत्येक डॉगी के लिए ५० रूपये महीना लगेगा..
हर बंदे को पार्किंग अपनी निश्चित जगह ..चाहे वह कवर्ड है या खुले में..अपने निश्चित स्थान पर ही लगानी होती है ...पहले तो कालोनी के गार्ड्स एक स्टिकर चिपका जाते थे जिस पर लिखा रहता था कि आप अपनी गाड़ी निश्चित स्थान पर ही लगाया कीजिए...
अब कुछ समय से यह गाड़ी के पहिये पर एक कलैंप लगा जाते थे ..जिस से गाड़ी मूव नहीं कर पाती..पहले गार्ड कक्ष में जा कर ५० रूपये जुर्माना भरिए..फिर वह कलैंप खुलेगा...और सबक तो मिल ही जायेगा आगे के लिए।
हर बात कायदे से होती है ..साफ सफाई एक दम चकाचक ..कोई कूड़ा कर्कट बाहर फैंकता ही नहीं...ये जो कुछ तस्वीरें हैं मैंने आज सुबह ही खींची हैं...साफ़ सुथरी सड़कें...सुबह शाम लोगों के टहलने के बढ़िया जगह है।
और क्या लिखना रह गया.आज सुबह सुबह लंगूर दिख गये...ये भी कालोनी के मुलाजिम हैं पक्के ...सारा दिन कालोनी की बंदरों से हिफ़ाज़त करते हैं..
सिक्योरिटी पूरी तरह से कसी हुई है ...उस के बारे में ज़्यादा कुछ नहीं लिखना चाहता ..घर आने वाले वर्कर्ज़ की भी पूरी वेरीफिकेशन ...तभी कोई कालोनी के अंदर घुस सकता है ..
दैनिक ज़रूरत की सभी चीज़ें कालोनी के अंदर ही दुकानों पर मिल जाती हैं...कालोनी के गेट पर एटीएम भी लग गया है ...
सच में अपने जैसे पढ़े लिखे और अपनी वेवलेंथ वाले लोगों की कालोनी में ही रहना अच्छा लगता है ..वरना बेकार की किट-किट ...अनपढ़ या कम पढ़े लिखे लोगों से पढ़े लिखे लोग जीत नहीं सकते...किसी भी लिहाज से...यहां एक दम बढ़िया है ...सभी अकेले रहते हुए भी एक साथ हैं, और एक साथ रहते हुए भी अकेले हैं...No one intrudes into other person's space!
कालोनी की एक सड़क पर एक घर के बाहर रोज एक विचार लिखा होता है ..कभी कभी मैं इस से सहमत हो जाता हूं ..कभी कभी बिल्कुल नहीं..कभी कभी थोड़ा बहुत ...आज भी पेशेंस वाली बात लिखी है ..लेकिन यह जो अनप्लेसेंट अनुभव वाली बात है, यह मेरे पल्ले नहीं पड़ रही ...मुझे लगता है कि पेशेंस वाली बात तो केवल और केवल सत्संग में बैठ कर समझी जा सकती है या जीवन में पल पल हमें इस की ज़रूरत है ...अगर हम धैर्यवान हैं, सब्र रखते हैं ..तो ज़िंदगी बढ़िया बीतती चली जाती है ...वरना तो ...(आप जानते ही हैं!)
आज कल कालोनी में लिफ्ट लग रही है ..वैसे तो कुछ बिल्डिंगे तीन मंजिला ही हैं...ग्राउंड प्लस टू..लेकिन कुछ वरिष्ठ नागरिकों की सुविधा के लिए अब कुछ इमारतों में लिफ्टें लग रही हैं...
आज सुबह दिल्ली नंबर वाली एक गाड़ी का एक खुली सड़क पर इस तरह का एक्सीडेंट हुआ देखा तो बुरा लगा ...इतनी चौड़ी सड़क, इस पर ज्यादा भीड़-भडक्का भी नहीं होती..यह लखनऊ के बंगला बाज़ार पुल से तेलीबाग आने वाली सड़क पर दिखा ...जो रोड रायबरेली रोड में मिल जाती है ..कार के पिछली तरफ़ एक विवाह-शादी का स्टिकर भी लगा हुआ था ..ईश्वर सब को सुरक्षित रखे...सब लोग अपने अपने ठिकाने पर ठीक ठाक पहुंचे...ईश्वर सब की रक्षा करें...समय बहुत बलवान होता है...काश!हम लोग समय़ से डर कर रहें और हमेशा हम में ईश्वर का अहसास बना रहे।
किसी भी रास्ते पर या किसी बाग में कोई फूलों को तोड़ कर एक पन्नी में इक्ट्ठा करते दिख जाता है तो मुझे बहुत बुरा लगता है ..मन ही मन दुआ ज़रूर करता हूं कि ईश्वर इन्हें सद्बुद्धि दीजिए कि बागों में फूल तोड़ने के लिए नहीं होते..
एक एनजीओ द्वारा मुहिम चलाई गई थी..टीवी पर भी विज्ञापन आया करता था बहुत बार ..जिस घर से किसी तरह की भी डेमोस्टिक वॉयलेंस की आवाज़ आ रही हो तो बस आप एक काम कीजिए...चुपचाप जा कर उस घर की घंटी बजा दीजिए...बस, इतने से प्रयास का कमाल देखिए।
दिल्ली में भी कुछ मुहिम चली तो थी शायद कुछ इस तरह की गांधीगिरी कि जिस किसी को भी आप देखें कि वह ऑड-ईवन का उल्लंघन कर रहा है, स्कूली बच्चे उसे प्यार से एक फूल थमा दिया करें...
और अब तो घर से बाहर जा कर शोच करने वालों के लिए भी कुछ इसी तरह का काम हो रहा कईं जगहों पर ...जब ये लोग दिखें तो कुछ लोग ढोल बजाने लग जाते हैं ..और उन्हें एक फूल भेंट करते हैं..
मैंने भी सोचा कि इन फूल तोड़ने वालों का भी कुछ ऐसा ही समाधान होना चाहिए... आज भी एक औरत बहुत खूबसूरत से फूल एक के बाद एक तोड़े जा रही थी, मुझ से रहा नहीं गया...मैं बस चंद लम्हों के लिए रूक गया और उस तरफ़ देखने लग गया..कुछ कहा नहीं...चंद लम्हों में ही फूल टूटने बंद...यही होना चाहिए, आप को भी जब कभी इस तरह के लोग दिखें, मुंह से कुछ न कहिए, बस रूक कर उन की तरफ़ देख लीजिए....इतना ही काफ़ी है ...क्योंकि उन्हें पता है कि वे गलत कर रहे हैं, एक तरह की चोरी कर रहे हैं ....बस, अहसास ही करवाना होता है कि हम देख रहे हैं।
चोरी भी ऐसी कि किसी के हिस्से की खुशियों पर डाका डाल रहे हैं ...आप ने ज़रूर अनुभव किया होगा ...हम लोग कईं बार कितने भी निराश हों तो एक मुस्कुराता फूल हमें कैसे खुश कर देता है ...मेरे घर के सामने यह फूल है ..जब सुबह ड्यूटी पर जाने से पहले कभी मेरी नज़र इस पर पड़ जाती है तो मैं उत्साह से भर जाता है ..
सत्संग में हमें अकसर समझाते हैं...
गुजरों जब बाग से
बस दुआ मांगते चलो
जिस पर हैं ये फूल
वह डाल हमेशा हरी है ....
और बाग में फूलों की बात तो और भी निराली है ...लोग सुबह सुबह ऊर्जा लेने पहुंचते हैं...अपनी सब तरह की दुनियावी परेशानियों से निजात पाने हेतु...आते जाते जैसे ही इन्हें ये फूल दिखते हैं तो इन के चेहरों पर खुशियां कईं गुणा बढ़ जाती हैं... और हमें पता नहीं कि डाल पर लगे फूलों ने सैंकड़ों-हज़ारों को राजी कर देना है ...और हम हैं कि उन्हें दो टके की पन्नी में बटोरने की हिमाकत से बाज ही नहीं आते...
आज सुबह की खुशियों की डोज़
ईश्वर ने इन फूलों को बनाया ही इसलिए है ताकि हम इन से कईं तरह की सीख ले सकें....सहनशीलता, परोपकार, प्रेम एवं सौहार्द के पाठ पढ़ सकें..और इस से साथ साथ इन को बनाने वाले कलाकार का ध्यान हमेशा मन में बसा कर रखें।
आज मुझे इन फूलों ने खुश कर दिया... एक दम भरपूर खुशीयां मिलीं...
आज बाग में सुबह जल्दी जाने का अवसर मिल गया....देखा तो सैंकड़ों लोग टहल रहे थे...सभी आयुवर्ग के ... छोटे छोटे बच्चे भी पूरे मजे कर रहे थे...कुछ झूला झूल रहे थे ..एक तो मजे से स्केटिंग कर रहा था...स्केट्स भी कुछ तरह के ही थे इस के ...मुश्किल तरह के ..लेकिन बचपन तो बचपन होता है, बेपरवाह।
बहुत से लोग ग्रुप में और कुछ लोग अकेले ही अपने अपने योगाभ्यास में लगे दिखे..योगाभ्यास में मैने नोटिस किया है कि जो लोग ग्रुप में करते हैं उन में से कुछ लोग बातें बहुत कर रहे होते हैं...योग अपने साथ जुड़ने का जरिया है ...क्या इतने शोर शराबे में यह संभव हो पाता होगा!....पता नहीं, यार!!
एक दो लोग ७०-८० के दशक के फिल्मी गीत का लुत्फ उठाते दिखे ..टहलते हुए.... यू ही तुम मुझ से बात करती हो ...(फिल्म-सच्चा झूठा) ...खुश थे, मस्त थे, इस तरह के गीतों में ...बहुत अच्छे... एक भाई जी लंबे समय से शीर्षासन पर ही जमे दिखे ...उन की मर्जी।
यह सुबह की यात्रा का वर्णऩ बार बार क्यों, ताकि आप को बार बार प्रेरित किया जा सके कि उठिए आप भी, कुछ मिनटों के लिए घर से बाहर तो निकलिए .. जल्दी करिए, वरना तीखी धूप आ जायेगी.... सुप्रभात!
बाग से बाहर आते हुए एक युवक की टी-शर्ट पर एक स्लोगन दिखा ...Everything will be OK... अच्छा कूल संदेश है...लेकिन मुझे सिद्ध समाधि योग के गुरू रिषी प्रभाकर जी की बात याद आ जाती है...अपने बंबई प्रवास के दौरान उन्होंने हमें दो कैसेट रोज़ाना सुनने को कहा था... Everything is OK और दूसरी थी..Nothing Matters! उस कैसेट में यही था कि अगर हम इस चेतना के साथ जीते हैं कि Everything is OK... तो यह ईश्वर के प्रति हमारा सर्वश्रेष्ठ समर्पण है, जो भी यह ईश्वर कर रहा है, अच्छा ही कर रहा है, सब कुछ इस के आदेशानुसार हो रहा है तो बेशक अच्छा ही हो रहा है....अकर्ता भाव बना रहता है इस सोच से...जब कि Will be OK वाली बात भी सतही तौर पर ठीक तो लगती होगी लेकिन उस में ऐसा लगता है कि अभी कुछ तो गड़बड़ है जिस के लिए कुछ तो करना पड़ेगा ताकि सब कुछ ठीक हो जाए.......Let's start the day with simple thought...........Everything is OK!
Just chill! और जाते जाते ज़रा इन के पहले प्यार की खुशबू थोड़ी आप भी ले लीजिए...
बात कुछ गंभीर होने वाली है इस समय...पहले एक गीत सुन लीजिए....हल्का-फुल्का सा ...कांटा लगा...रिमिक्स नहीं, ओरिजिनल ...
आज शाम को मोबाइल चेक किया तो यह मैसेज आया हुआ था...
हम सब कभी न कभी जो हमारे पास आता है उसे आगे शेयर कर देते हैं...मुझे लगने लगा है कि व्हाट्सएप अन्य तरह के सोशल मीडिया की तुलना में बहुत शक्तिशाली माध्यम है ...किसी बात को बिजली की गति से आगे पहुंचाने के लिए...एक बात कही ...बस, हाथ से ऐसी निकली कि यह गई, वो गई...तुरंत...फटाफट, ताबड़तोड़...
जिस मैसेज की मैं बात कर रहा हूं उस की डिटेल्स यह रही...
अच्छे से पढ़ने के लिए इस ईमेज पर क्लिक करिए...
पहली बात जो ध्यान देने योग्य है वह यह कि संसार में ईश्वर ने हर इंसान को एक उद्देश्य की पूर्ति हेतु भेजा है ..ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति के अलावा भी कुछ सांसारिक जिम्मेदारियां भी लोगों को दे रखी हैं...कोई किसी विषय का विशेषज्ञ है, कोई अच्छा वक्ता है, कोई उमदा अध्यापक है, कोई बेहतरीन सेवादार, किसी को प्रचार करना बहुत अच्छा आता है ...
अब ये जो बातें हैं ऊपर लिखी पोस्ट में...इस पोस्ट की तो एक उदाहरण ले रहा हूं...आप भी जानते हैं कि इस तरह की पोस्टें दिन में हमें हर तरफ़ से आती रहती हैं..वैसे तो लोग अब सचेत हैं..लेकिन पता नहीं होता किसी समय किसी बंदे की मनोस्थिति कैसी रहती है , कहने का भाव यही है कि भ्रम में फंसने का अंदेशा तो रहता ही है...
अब इस व्हाट्सएप मैसेज में बताई गई बातें घुटने वाली और किसी मरीज़ के नाक में देसी घी उंडेलने वाली बात अगर कोई हड्डी रोग विशेषज्ञ या सामान्य चिकित्सक कहेगा तो उस की बात का मोल पड़ेगा, उस में वजन होगा...वरना कुछ भी कहीं भी कैसी भी नीमहकीमी नहीं चल सकती...
और ना ही इसे चलाने का कोई प्रयास ही करना चाहिए..इस तरह के मैसेज पब्लिक को गुमराह तो कर ही सकते हैं, उन की सेहत को खराब भी कर सकते हैं..
जो भी काम हम कर रहे हैं वर्षों से उस से संबंधित जानकारी शेयर कीजिए...आप में जो हुनर है उस की बातें कीजिए, ईश्वर की बातें करिए...ये सब कुछ मुबारक है ..जिस विषय का हमें कुछ ज्ञान ही नहीं है अगर हम उस के बारे में ऊट-पटांग बातें लिखने या आगे शेयर भी करने लगेंगे तो किसी न किसी का नुकसान हो जायेगा।
और जब बात सेहत की होती है तो सजगता और भी ज़रूरी है...मैं अकसर यह बात सब से शेयर करता हूं कि जो विशेषज्ञ ३०-४० सालों से कुछ भी काम कर रहे हैं, अगर उन से कुछ सीख लेनी हो या अगर उन्हें कहें कि कुछ उपयोगी बातें शेयर कीजिए तो वे एक घंटे से ज़्यादा कुछ नहीं कह पाएंगे या अपने विषय से संबंधित एक तीन-चार पन्ने के लेख में सब कुछ समेट देंगे...मैं भी इतना ही कह पाऊंगा..
लेिकन इन विशेषज्ञों की एक एक बात शिलालेख पर खुदवाने लायक होगी.. क्योंकि उन की बातों में उन का अनुभव, उन की विशिष्टता, उन का घिसना-पिसना सब कुछ ब्यां होता है...
बस, इस पोस्ट के माध्यम से तो इतना ही कहना है कि व्हाट्सएप पर कुछ भी ज्ञान की अमृत वर्षा करने से पहले आप स्वयं उस बात की सच्चाई से निश्चिंत हो जाया करिए ...यह तभी हो सकता है अगर आप उस विषय के विशेषज्ञ हैं या फिर वह आप की आपबीती है ....वरना शेयर करने के लिए इतना कुछ तो पहले ही से है, शेल्फीयां, चुटकुले, हास्य-व्यंग्य, कहानीयां-किस्से....बस, इस तरह की सेहत संबंधी जानकारी अगर आ भी पहुंची है कहीं से आप के पास तो उसे रोक दें....अगर लिखने वाले ने कहा कि २० लोगों को शेयर करना है, तो भी मत शेयर कीजिए उसे।
दुनिया पहले ही से बड़ी परेशान है ..हम जाने अनजाने कहीं किसी की परेशानियां न बढ़ा दें...
यह जो ऊपर नुस्खा लिखा है नाक में घी उंडेलने वाला उस से मुझे भी एक नुस्खा याद आ गया...उसे आप तक पहुंचाने के लिए मैं बड़ा व्याकुल हूं..इसे मैं अपने कुछ मरीज़ों से थोड़े दिन पहले शेयर कर रहा था...कुछ समझाने के लिए ...वे भी उसे सुन कर हंस पड़े थे ...कहने लगे कि नहीं, वे ऐसा नहीं करते...
हां तो दोस्तो सुनिए हमारा नुस्खा...बचपन में अकसर हम लोगों का जब कान दुःखता तो अंगीठी पर सरसों का तेल गर्म करते समय उस में लहसून के कुछ टुकड़े डाल दिये जाते ...जब तेल जल जाता तो उसे ठंडा करने के बाद, एक एक चम्मच हमारे दोनों कानों में ठूंस दिया जाता...पहले एक तरफ़ लेटना होता...जब तक सरसों का तेल पूरी तरह से अंदर धँस न जाता...अगर एक चम्मच कम लगता तो थोड़ा और भी उंडेल दिया जाता ....पूरी तरह से तेल के अंदर समा जाने के बाद, फिर पलटी मार के दूसरे कान का नंबर आता....कुछ कुछ अपनी भी बेवकूफियां लोगों से शेयर कर देनी चाहिएं...उन्हें भी तो हमारी गल्तियों से सीखने का मौका मिलना चाहिए...पता नहीं दर्द खत्म होता था कि नहीं, बाद में क्या हाल होता था...क्या नहीं.......लेिकन यह सच्चाई है सौ-फीसदी...
और ईएनटी विशेषज्ञ कानों में पानी तक न डालने की सख्त हिदायत देते हैं..
आप को भी उत्सुकता हो रही होगी कि अब यह कौन सा नया वर्गीकरण लेकर आ गया है लोगों का ...वैसे मैं किसी भी तरह के वर्गीकरण में विश्वास नहीं करता ...लेकिन एक वर्गीकरण मेरे विचार में हमेशा से है ..एक वे लोग जो पेड़-पौधों से प्यार करते हैं और दूसरे वे जो नहीं करते।
मैं कईं बार एक बात पहले भी शेयर कर चुका हूं कि कालेज में हमारी बॉटनी के प्रोफैसर साहब ...श्री एप सी कंवल साहब हमें बहुत अच्छे से बॉटनी पढ़ाते थे..मुझे इस में बहुत रूचि थी...मैं बॉटनी ही पढ़ना चाहता था...पेड़-पौधों की बातें करना, उन के रहस्यों के बारे में जानना अच्छा लगने लगा था...तभी डेंटल कालेज वालों ने बुला लिया...थ्री-ईडिट्एस फिल्म नाम की कोई चीज़ थी नहीं...क्योंकि बीडीएस करने के बाद नौकरी मिल जायेगी ...क्योंकि कालोनी के किसी दूसरे लड़के को मिल गई थी...इसलिए हम भी डैंटल कालेज के सुपुर्द कर दिये गये ..अगले आठ साल के लिए...न चाहते हुए भी ...लेकिन वहां भी दूसरे साल तक पहुंचते पहुंचते मन टिक गया...और टॉप-वॉप करना एक बार शुरू हो गया तो बस!
वनस्पति विज्ञान के प्रोफैसर साहब की बात करना चाहता हूं...हमें पेड़-पौधों के बारे में बहुत अच्छे से समझाया करते थे..पहली बात पता चला कि इन का भी अस्तित्व हमारी तरह ही है .. (living beings)...पू. सुंदर लाल बहुगुणा के चिपको मूवमेंट के बारे में बताते हुए वे अकसर इतने भाव-विभोर हो जाते थे कि हम सब भी इमोशनल हो जाया करते ..बाल मन वैसे भी कच्ची मिट्टी जैसा होता है ..वही मूवमेंट जिस में जब ठेकेदार के लोग गांवों में पेड़ काटने जाते तो चिपको मूवमेंट से जुड़े लोग पेड़ों के साथ चिपक जाते कि पहले हमें काटो, फिर पेड़ों को काटो...और इस तरह से पेड़ों की अंधाधुंध कटाई पर बहुत रोक लग पाई...
एक काम करिए..चिपको मूवमेंट जैसी महान मुहिम को पास से जानने के लिए गूगल करिए .. chipko movement... पूरा दिन कैसे निकल गया, पता ही नहीं चलेगा..
चलिए चिपको मूवमेंट के बारे में तो आपने जान लिया...अब मैं पोस्ट में थोड़ा सा ओपिनियन डालूंगा...ब्लॉग की सब से बड़ी मजबूरी कह लें या USP कि इस में ब्लॉगर का ओपिनियन भी शामिल होता है ...
पेड़ों के बारे में मेरे जो विचार हैं उन्हें शेयर करना चाह रहा था...ये जो मैं नीचे तस्वीरें लगा रहा हूं ये सब लखनऊ शहर की हैं...शहर के अंदर मैं अकसर देखता हूं कि लोगों की पेड़ों से बेइंतहा मोहब्बत है .. इन की पूजा-अर्चना होती है ...मैं जब किसी पेड़ के इर्द-गिर्द लाल धागे बंधे देखता हूं, उस के नीचे किसी मूर्ति पड़ी देखता हूं जिसके आस पास लाल रंग के कपड़े में लिपटे पानी के मटके और धूप-बत्ती जलती देखता हूं तो मैं बहुत खुश हो जाता हूं..यह खुशी बस इसलिए होती है कि चलिए, यह पेड़ तो कुल्हाड़ी से बच गया, इसे तो इस के आसपास के लोगों ने गोद ले ही रखा है..
जितना भी देश को देखा है यही अनुभव किया है कि जिन क्षेत्रों की पुरातन संस्कृति की धरोहर कायम हैं ..वे लोग किसी न किसी वजह से पेड़-पौधों का सम्मान करते हैं, वहां पर पेड़-पौधे बच जाते हैं ...या फिर जहां पर पेड़ बहुत कम हैं...बड़े महानगरों में जैसे ...वहां भी लोग इन के बारे में बड़े सजग हैं, इन पर कुल्हाडी आसानी से चलने नहीं देते...मैं तो इतना भी कहता हूं कि हमारा इन पेड़ों के प्रति क्या रवैया है, यह हमारी मानसिकता को भी दर्शाता है शायद..
ओपिनियन की बात करूं ...तो मैंने यह अनुभव किया कि पंजाब-हरियाणा में लोगों को पेड़-पौधों से ज़्यादा प्यार नहीं है, मैंने जैसा कि पहले कहा ...यह मेरा ओपिनियन है ..शायद आप को ठीक न लगे, लेकिन जो मैंने बचपन से अनुभव किया...अपने परिवेश में, आस पास ...यहां तक कि अपने परिवार में, उसी के आधार पर ही कुछ कहना चाहता हूं...प्रेम तो दूर, मैंने तो परिवार में भी घने, छायादार पेड़ों को मामूली कारणों की वजह से कटवाते ही देखा...इसे पेड़ों की बेअदबी ही तो कहेंगे!
हरियाणा में हाल ही के जाट अंदोलन के दौरान कितनी बड़ी संख्या में पेड़ काट दिये गये....संख्या मैं भूल गया..लेकिन वह संख्या किसी को भी रूलाने के लिए बहुत थी...काटे भी इसलिए केवल कि सड़कों पर उन्हें बिछा कर रास्ते को रोका जा सके.....जीत गये भाई, थम जीत गये....आरक्षण की बहुत बहुत मुबारकबाद।
कुछ कारण जो मैंने देखे अनुभव किए पेड़ों पर कुल्हाड़ी चलने के ...
धूप रोक रहे हैं, काटो इन पेड़ों को
एक अहम् कारण पंजाब हरियाणा में पेड़ों को काटने का यह है कि यहां पर जैसे ही सर्दी शुरू होती है ...लोगों को बहुत सी धूप चाहिए....कितनी?...हमारी धूप की भूख इस कद्र बढ़ जाती है कि हमें पेड़ों की हरियाली की वजह से रूक जाने वाली धूप से अचानक बहुत प्यार हो जाता है ...हम तुरंत किसी मजदूर को दिहाड़ी पर लगा कर सब से पहले पेड़ को अच्छे से कटवा दिया करते हैं, धूप तो खुल के आए...कंपकंपाते हाड़ खुले तों!
यह मैं बचपन से देख रहा हूं...निरंतर ... सोचने वाली बात यह है कि क्या धूप ज़रूर उतनी ही जगह में आयेगी...थोड़ा इधर उधर बैठ कर भी धूप श्नान लिया जा सकता है ...लेकिन नहीं, हम से सहन नहीं होता कि पेड़ हमारे हिस्से की धूप को रोक लें
जब हम लोग बिल्कुल छोटे थे तो अकसर सर्दी शुरू होते ही कश्मीर से हातो आ जाया करते थे यह काम करने ...वे ३०-४० रूपये लिया करते और पेड़ लगभग सारा काट दिया करते ...वे कुल्हाडी अपने साथ ही लेकर चला करते थे...
इन बंदरों ने नाक में दम कर रखा है
एक दूसरा कारण पेड़ों की अंधाधुंध कटाई का यह भी है जो पेड़ बड़े बड़े घरों में लगे हुये हैं उन पर अकसर बंदर आ जाते हैं...अब बंदर तो ठहरे बंदर ...उन्हें कौन शिष्टाचार सिखाए....कभी घर के किसी बाशिंदे की बनियान फाड़ दी या किसी बडे-बुज़ुर्ग को उसने आंखें दिखा दी तो उन की खैर नहीं....तेरी ऐसी की तैसी....तेरी इतनी हिम्मत ...कल सुबह ही तूरा बंदोबस्त करता हूं...सुबह सुबह किसी मजदूर को बुला कर गुस्से में पेड़ ही कटवा दिया जाता है ...न रहेगा बांस न रहेगी बांसुरी ...
पत्ते बहुत गिरने लगे हैं, पेड़ ही कटवा देते हैं
रोज़ रोज़ घर के आंगन में अगर पतझड़ के मौसम में बहुत से पत्ते गिरने लगे हैं ..तो पेड़ को ही अच्छे से कटवा दिया जाए...प्रूनिंग के नाम पर उसे उस की औकात बता दी जाती है ...बस, पत्ते गिरने बंद ..और सभी खुश...
बच्चों के पत्थरों से बचने के लिए
कभी घर की दीवार के बाहर या अंदर लगे फलदार पेड़ों से बेर, शहतूत या आम लेने के लिए बच्चे पत्थरों का इस्तेमाल करते हैं...आंगने में गिरने वाले इन पत्थरों के चक्कर में कब किसी का दिमाग सटक जाए, कोई भरोसा नहीं, बच्चे तो भाग लिए...कोई बात नहीं, पेड़ तो है, इसी को ही बुरी तरह से कटवा छंटवा कर ही दम लिया जाता है ...अब देखते हैं पत्थर कहां से आते हैं।
पीपल तो घर की नींव में घुस जायेगा
जितना भयभीत मैंने अपने आस पास के लोगों को पीपल जैसे पेड़ों से होते देखा है, शायद ही किसी और पेड़ से देखा हो ...इन्हें घर में पीपल का छोटा सा पौधा देख कर यही लगता है कि यह घर की नींव में घुस कर बहुत गड़बड़ कर देगा...लेकिन इसे अकसर लोग स्वयं नहीं उखाड़ते...किसी मजदूर को कहते हैं...क्योंकि अगर इसे काटने से अगर कोई पाप वाप लगने वाला इश्यू है तो वह मजदूर ही सुलटे...हम क्यों बेकार उस चक्कर में पड़ें...क्योंकि ऐसी आस्था तो है कि इस तरह के पेड़ पवित्र तो हैं लेिकन घर में नहीं, बाहर किसी जगह पर लगे हुए...जहां पर इन की परिक्रमा ली जाती है, इन पर लाल-पीले धागे बांधे जाते हैं...यह सब कुछ देख कर भी आदमी असमंजस में पड़ जाता है ..
वैसे मजदूर भी अच्छे समझदार हो चले हैं ..वे और कुछ भी काट-उखाड़ देंगे लेकिन पीपल जैसे पेड़ को काटने से मना कर देते हैं.. बहुत अच्छे!
कीड़े-मकौड़े बहुत हो गये है, कटवाओ इस शहतूत को
कीड़े-मकौड़े अगर घर आंगन में दिखने लगें ना...जिन के छिद्रों के आस पास हम लोग पास ही के खाली मैदान में जाकर आटा डाल कर आते हैं...लेिकन अगर ये घर में दिखने लगें और एक बार यह देख लिया कि यह शहतूत के पेड़ की वजह से आ रहे हैं ...बस, फिर न कोई बचा सके इस शहतूत को...वैसे भी शहतूत काटने वाला सारा पेड़ काट भी देगा और दो टोकरियां भी दे जायेगा...चलो निपटाओ इस को भी, बुलाओ उस काटने वाले को ...मकौड़ों ने नाक में दम कर रखा है!
क्यारी में फुल-गोभी नहीं बढ़ रही तो भी यह शीशम बलि चढ़ता है
अगर पड़ोस वाली आंटी की फुल-गोभी चंद दिन पहले तैयार हो गई और हमारी अभी बिल्कुल छोटी है तो इस पर मंथन होगा कि कहीं इस बड़े से शीशम की वजह से नीचे ज़मीन तक न धूप सही पहुंचने के चक्कर में तो सब्जी ठीक से बढ़ नहीं रही...ठीक है, कल इस कमबख्त शीशम की छुट्टी करते हैं.
शीशम को तो जड़ से निकलवा देते हैं..
एक घनी पढ़ी लिखी हमारी आंटी जी थी पड़ोस की ...वे पेड़ों की छंटाई नहीं करवाती थीं, सात आठ सौ रूपये में पूरे पेड़ को ही बेच दिया करती थीं...उन्हें हमेशा यही रहता था कि अगर जड़ रहेगी तो फिर से इन के उगने का "खतरा" रहता है। मैं कईं बार देखा करता कि आठ दस मजदूर लग जाते, सारा दिन लगा कर पेड़ काटते, फिर बड़ी मेहनत से उस की जड़ भी निकालते ...ट्राली पर डाल कर उसे सात सौ रूपये थमा कर भाग लेते...और हम जैसों के लिए बहुत से प्रश्न छोड़ जाते ...अजीब सा लगता था यह सब देखना....
पड़ोसी की शिकायत है कि पत्ते उस तरफ़ गिरते हैं, धूप रोक रखी है
कईं बार पड़ोसी की शिकायत हो जाती है कि आप के पेड़ के पत्ते हमारी तरफ़ गिर रहे हैं, इस ने तो धूप ही रोक ली है हमारे हिस्से की...इसी चक्कर में भी बड़े, छायादार पेड़ों को कोई भी कुल्हाडी से न बचा पाता...
और भी बहुत से अनुभव हैं ...क्या क्या लिखूं....छुट्टी का दिन है, ये चित्रहार के सुंदर गीत सुनिए और छुट्टी मनाईए..बहुत दिनों से इस विषय पर मन के भाव प्रकट करना चाह रहा था...
लखनऊ शहर में आम जन का पेड़ों के प्रति प्यार देख कर मन खुश होता है ...सर्विस में जैसे होता है ..अच्छा काम करने वालों से भी कोई न कोई तो नाखुश रहते ही हैं...एक बॉस था किसी ज़माने में ..एक बार उसने कहा कि लखनऊ भिजवा देंगे आपको ...हमें लखनऊ के बारे में बिल्कुल पता नहीं था, हमें लगा कि जैसे कि यह काला पानी भिजवाने की बात कह रहे हों, हमारे मुंह से अनायास निकल गया कि अगर लखनऊ तो नहीं जाएंगे, हम त्याग-पत्र दे देंगे...पांच छः साल तक यह सिलसिला चलता रहा ...एक बार शायद कोई हमारा त्याग-पत्र ही चाहता होगा कि चलो, इन के लखनऊ के आर्डर निकाल देते हैं...वहां तो क्या जाएंगे...नौकरी छोड़ देंगे.....लेिकन कहने की बातें और होती हैं....कौन छोड़ता है नौकरी इन छोटी छोटी बातों के लिए... हम लोग आ गये लखनऊ......इतना बढ़िया शहर, बढ़िया लोग .....अब मन में यही मलाल है कि पांच सात साल पहले ही उसने इधर भिजवा दिया होता, हम भी यहां की सभ्यता-संस्कृति को और पास से देख लेते...
बहरहाल, जो मैंने ऊपर पेड़ों की तस्वीरें लगाई हैं ये सब लखनऊ में मैंने दो दिन पहले खींची थी...मैं जहां भी घने, छायादार पेड़ देखता हूं, उन्हें निहारने लगता हूं ...कैमरे में बंद कर लेता हूं...आप अनुमान नहीं लगा सकते कि मुझे ऐसे पेड़ों को निहारने और इन के साथ समय बिताने की कितनी ज़्यादा भूख है ....
आज के इस विचार को यहीं समाप्त करते हैं....
ये कहां के आदिवासी हैं, दिखते तो किसी दूर-देश के हैं, लेकिन बोल-वाणी बिल्कुल बाराबंकी वाली ... 😄 😎 😄....but one of my fav. songs...इस की सी.डी मैं अनगिनत बार देख-सुन चुका हूं...my sons make fun of this!😉
लखनऊ की दो बदसूरत सड़कें जो मुझे लगती हैं वे हैं जेल रोड और व्हीआईपी रोड़...कहते हैं इस क्षेत्र में कुछ साल पहले घना जंगल था..बहुत पुराने छायादार पेड़ पौधे...अब तो इन रास्तों पर चलते हुए ऐसे लगता है जैसे आग बरस रही हो...एक भी पेड़ नहीं दिखता, बिल्कुल बदसूरत रास्ते....पता नहीं कौन प्लॉनिंग करता है, सड़क के बीचों बीच डिवाईजर पर भी पेड़ों के नाम पर कांटेदार झाड़ियां लगवा दी गई हैं...कमबख्त ये भी उमस भरी गर्मी में आने जाने वालों की आंखों में घमौड़ियों की तरह चुभती हैं।
परसों मेरे पास एक युवक आया था..उम्र २४-२५ साल की थी..मैं उसे चेक कर रहा था तो मेरा ध्यान उस के कुछ ज़्यादा ही काले बालों की तरफ़ चला गया...मैं ऐसे ही पूछ लिया ..क्या बात है बाल इतने ज़्यादा काले कैसे हैं?...मुझे उस का जवाब सुन कर बहुत ही हैरानगी हुई कि मैं बालों को कलर करता हूं...
इतनी कम उम्र के किसी नवयुवक से बालों को कलर करने वाली बात मैं पहली बार सुन रहा था...उसने बताया कि क्या करता डाक्साब, बहुत ज़्यादा बाल सफ़ेद हो गये थे...
मैंने कईं बार इस ब्लॉग पर शेयर किया है कि विविध भारती पर हर सोमवार के दिन बाद दोपहर ४ से ५ बजे तक एक प्रोग्राम आता है ..पिटारा...उस पिटारे से हर सोमवार के दिन सेहतनामा प्रोग्राम निकलता है ...इस में किसी विशेषज्ञ से वार्ता सुनाई जाती है..
कल विविध भारती में एक चमडी रोग विशेषज्ञ से बालों की सेहत के बारे में ही चर्चा चल रही थी..बीच बीच में आमंत्रित विशेषज्ञ की पसंद के हिंदी फिल्मी गीतों का तड़का भी लग रहा था..
मैं चंद मिनट तक ही इस प्रोग्राम को सुन सका...उसके बाद मेरे मरीज़ आने शुरू हो गए...लेकिन कुछ बातें इन्हीं बालों के बारे में आपसे शेयर करने की इच्छा हो रही है..
बातें हो रही थीं छोटी उम्र में युवावस्था में ही बाल झड़ने की और बाल सफ़ेद होने की ...एक बात जिस पर बहुत ज़ोर दिया जा रहा था वह यही थी कि जिस तरह से अाधुनिकता की दौड़ में जंक फूड़, फास्ट फूड और प्रोसेस्ड फूड ने हमारे पारंपरिक सीधे सादे हिंदोस्तानी को पीछे धकेल दिया है ..विशेषकर युवाओं में...उसी का परिणाम है कि बहुत ही कम उम्र में बाल गिरने लगते हैं...और बाल सफेद होने लगते हैं...डाक्साब बता रहे थे १८-२० साल के युवा आने लगे हैं जिन के बाल गिरने की वजह से उन्हें baldness परेशान करने लगी है..
अभी टीवी देख रहा हूं एक विज्ञापन आ रहा है जिस में एक २५-३० साल का एक युवक बालों के पतलेपन को दुरूस्त करने के लिए किसी हेयर-टॉनिक लगाने की सलाह दे रहा है...बिना किसी चमडी रोग विशेषज्ञ की सलाह के सब कुछ बकवास है ..बिल्कुल उसी तरह से जिस तरह से डेंटिस्ट की सलाह के बिना लोग तरह तरह के मंजन-लोशन मुंह और मसूड़ों पर लगाना शुरू कर देते हैं जिन से होता कुछ नहीं...बस रोग को बढ़ावा ही मिलता है।
दूसरी बात विविध भारती के प्रोग्राम में डाक्साब बता रहे थे ..वह यह थी कि कुछ लोग हेयर कलर करने के लिए कलर नहीं मेंहदी का इस्तेमाल करना शुरू कर देते हैं...डाक्साब ने साफ़ साफ़ कहा कि आजकल ऐसी मेंहदी मिलती ही नहीं जिस में कैमीकल न मिला हो...बिल्कुल सही फरमाया डाक्साब ने...
वे बता रहे थे कि किस तरह से आज कल मेंहदी कुछ ही मिनटों में किस तरह से हाथों और बालों को गहरे रंग में रंग देती है ....यह सब तरह तरह के कैमीकल का ही कमाल है...जो हमारी बालों की सेहत के लिए ही नहीं, सेहत के लिए भी बहुत खराब होता है...
आप-बीती भी ब्यां करनी होती है ब्लॉग में
इधर उधर की तो हांक ही लेते हैं हम कलम वाले लोग, लेकिन ब्लॉग में आपबीती बताना भी तो अहम् होता है...
मैंने भी आज से लगभग १५ वर्ष पहले अपनी मूंछों और कान के बिल्कुल पास पास काली मेंहदी लगानी शुरू की थी...बिल्कुल थोड़ी लगाता था...लेकिन अपने आप पर हंसी आती थी यह सब करते हुए...लगाता था मैं चार पांच मिनट के लिए ही ...लेकिन जलन शुरू हो जाती थी होंठों पर...फिर धो कर बर्फ लगा लेता था...
कुछ समय बाद समझ आ गई कि यह काली वाली मेंहदी प्योर नहीं है...कैमीकल तो है ही इसमें...किसी अच्छी कंपनी की मेंहदी लेंगे ..उन दिनों गोदरेज की नुपूर मेंहदी आने लगी थी..शायद दो तीन वर्ष तक लगाता रहा ...दस पंद्रह दिन में एक बार थोड़ी सी ..चंद मिनटों के लिए ...लेकिन इसी चक्कर में मूंछों और कानों के आस पास बहुत से बाल सफेद हो गये...और ऊपर वाले होंठ पर निरंतर एलर्जी जैसी लाली रहने लगी...बहुत बार खारिश भी हो जाती।
अब लगने लगा कि इस से आगे चलें....गार्नियर कंपनी का हेयर कलर लगाना शुरू कर दिया... मूंछों पर और कान के आस पास... कर तो लेता था यह सब कुछ लेकिन अजीब सा लगता था, बहुत बड़ा फेक होने की फीलिंग आती थी...अपने आप से झूठ बोलने जैसा लगता था...
शायद चार पांच साल हो गये हैं इस बात को ...एक दिन विचार आया कि अब सिर के बाल भी बीच बीच में सफ़ेद होने लगे हैं...अब यह गार्नियर कंपनी वाला कलर सिर के बालों पर भी लगाना शुरू किया जाए....उस दिन जब बड़े बेटे ने मेरे इस फितूर के बारे में सुना तो उसने आराम से इतना ही कहा .... "What is this, yaar? One must always grow old gracefully!"
बस, उस दिन मुझे ऐसा झटका लगा कि मैंने मूंछों, कान के पास के बालों पर भी सब तरह के कलर-वलर लगाने बंद कर दिये...अब मैं बहुत बार उस का शुक्रिया अदा करता हूं कि यार, अच्छा किया तुमने उस दिन मेरी खिंचाई की....After all, child is the father of man!
शैंपू के बारे में आपबीती
सब कलर वलर छोड़ने के बाद धीरे धीरे शैंपू भी ना अच्छा लगता...यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव था... इस में मैंने किसी चमडी रोग विशेषज्ञ से कुछ नहीं पूछा...मुझे यही लगने लगा कि पता नहीं इन शैंपू आदि में भी क्या क्या डाल रखा होगा... मुझे लगता है कि शायद यह सब सोचना कुछ ज्यादा ही था....लेकिन सच्चाई जो है सो है...मुझे पतंजलि का शैंपू भी अजीब सा लगता...यही लगता कि यह भी दूसरे अन्य शैंपुओं की तरह ही होगा.....और एक बात मैंने नोटिस की हमेशा कि बालों को शैंपू करने के बाद वे बड़े शुष्क से हो जाते थे...
रीठा, आंवला, शिकाकाई
इतने में पता चला कि बाज़ार में रीठा, आंवला, शिकाकाई का पावडर मिलता है....बस दो तीन साल से केवल इसे ही इस्तेमाल करता हूं ..कलर करने के लिए नहीं...बस, बालों की सफाई के लिए ...दो तीन दिन बाद एक चम्मच पानी में घोल कर नहाते समय सिर पर लगाता हूं ...पांच मिनट में धो लेता हूं...अच्छे से सफ़ाई हो जाती है ...इस मिश्रण के बारे में कहा जाता है कि इसे कुछ घंटे बालों पर लगा कर छोड़ देना चाहिए.........अब, इतने झंझट में नहीं पड़ा जाता....मुझे इसी बात की खुशी है कि हेयर कलर पीछे छूट गये हैं और बालों की सफ़ाई भी प्राकृतिक ढंग से रीठा-आंवले के मिश्रण से अच्छे से हो जाती है ...
अपने ब्लॉग पर हम लोग भी क्या क्या शेयर कर देते हैं....अपने साबुन-शैंपू तक की बातें...बस इसलिए कि अगर हम एक दूसरे के अनुभव से कुछ सीख सकें...वैसे इतना लिखते लिखते सिर की चंपी करवाने की इच्छा तो हो ही गई होगी...उस का भी जुगाड है यहां..
पिछले कुछ वर्षों में भी इस विषय पर मैं कुछ कुछ लिखता रहा हूं...अभी ध्यान आया तो ब्लॉग खंगालने पर ये कढ़ियां मिल गईं...
बचपन में सातवीं आठवीं कक्षा तक हम लोग पैदल ही स्कूल आते जाते थे...पंद्रह बीस मिनट का रास्ता था..कोई शाबाशी वाली बात भी नहीं और ना ही कोई शर्म महसूस करने वाली बात है..क्योंकि उस दौर में अधिकतर बच्चे ऐसे ही जाते थे...आज के कुछ बच्चे घर के सामने मोड़ से स्कूल की ए.सी बस पकड़ते हैं लेकिन उन का बस्ता उठाने के लिए घर का रामू साथ चलता है..किधर पानी पर कुछ लिखने लगा हूं और किधर चला जा रहा हूं..
हम लोग जब स्कूल से घर की तरफ़ लौट रहे होते थे तो हमें आधे रास्ते में एक प्याऊ का इंतज़ार रहता था...हमारे देखते देखते ही बना था..लेकिन वहां पर एक बहुत बुज़ुर्ग पानी िपलाया करता था...हर समय...एक बार और भी लिखने योग्य है कि बचपन में बच्चे तो खुद फकीर हुआ करते हैं...यही बीस, पच्चीस, पचास पैसे टोटल हुआ करते थे सुबह स्कूल जाते समय, लेकिन इतनी अकल तो ज़रूर थी कि अकसर उस प्याऊ पर पानी पीने के बाद गिलासों के पास अकसर पांच या दस पैसे अकसर चुपचाप रख दिया करते थे...यह बात आज भी बड़ा सुकून देती है...उसी प्याऊ के आसपास ही एक दो भुट्टा बेचने वाले और एक बैल को घुमा कर गन्ने का रस बेचने वाला हुआ करता था...जैसे पैसे जेब में होते वैसे ही कुछ न कुछ ले लिया करते थे...
हमारी तीन चार लड़कों की यही ब्रेक-जर्नी हुआ करती थी...उस के बाद हमारी अगली यात्रा शुरू हुआ करती थी..इत्मीनान से ...यहां तक सिर पर चढ़ाने के लिए हमारे पास टोपियां तक नहीं होती थीं...शायद बाज़ार में मिलती ही नहीं थीं...मां रोज़ाना कहती कि सिर पर गीला रूमाल या छोटा तोलिया रख कर चला करो...लेिकन इतने समझदार हम कब से होने लगे!...उस बात को एक कान से डाल कर दूसरे से निकाल दिया करते! वैसे तो एक काला चश्मा दिला दिया गया था लेिकन उसे लगाने में शर्म महसूस होती थी ....पता नहीं क्यों, लेकिन कभी इस काले चश्मे का शौक भी तबीयत से पूरा हो ही नहीं पाया...अब कसर निकाल रहा हूं शायद, काला चश्मा नज़र वाले नंबर का बनवा लिया है ...
अच्छा हो गई भूमिका...
हां, तो पीने वाले पानी की बात कर रहा था...यह लखनऊ की ही बात नहीं है, सब जगह ही लगभग एक जैसे हालात हैं...पिछले साल मैं एक दिन यहां के एक बाज़ार में टहल रहा था तो मैंने देखा कि एक दुकानदार ने सौ पचास पानी के छोटे छोटे पाउच भी रखे हुए थे..एक एक दो दो रूपये में बिक रहे थे..
कुछ दिन पहले एक चौराहे पर खस्ता कचौड़ी खाते हुए यह देखा कि अगर किसी ने पानी पीना है तो उसे पानी के पाउच के अलग से चुकाने होंगे...
पानी का पाउच कल्चर अब आम सी बात हो गई है ...आज शाम एक बिज़ी चौराहे पर इस पानी बेचने वाले को देखा..दो दो रूपये में ठंडे पानी की थैलियां बेच रहा था...कोई बात नहीं, मेहनत कर के थोड़ी बहुत कमाई कर रहा है बंदा, और वैसे भी सस्ते में आने जाने वालों को एक सुविधा मिली हुई है...ध्यान दीजिए कि पानी के पाउच वे वाले नहीं जो मैं और आप आज कल ब्याह शादियों में पीते हैं...वे सील होते हैं...लेकिन यह पानी एक साधारण सी पतली पन्नी में बिकता है, उसे रोकने के लिए ऊपर धागा लपेटा होता है ...पीने के लिए यहां एक प्रथा है, धागा कोई नहीं खोलता, पन्नी के निचले हिस्सो को थोड़ा फाड़ कर मुहं से लगा लिया जाता है.. 😎😎
यह भी इतिहास के पन्नों में दर्ज हो ही जाए कि देश में २०१६ में पानी का एक पाउच दो रूपये में बिकता था...
कुछ और ज्यादा िलखने को मन नहीं कर रहा ...सारी दुनिया सुबह से लेकर शाम तक ज्ञान बांटने की होड़ में लगी हुई है, मैं भी...अपने आप को दूसरे से श्रेष्ठ बताने, दिखने, कहने में कोई कोर-कसर नहीं रखी जाती ... है कि नहीं।
बचपन के उन सुखद दिनों का असर कहूं या कुछ कहूं....मुझे भी किसी प्याऊ पर बैठ कर पानी पिलाने का बहुत मन करता है ...अब सोचने वाली बात है कि मुझे रोक कौन रहा है!....बहुत बार लगता है कि ये सब काम करने हैं ज़रूर...किसी दिखावे के लिए नहीं, न ही किसी से वाहवाही लूटने के लिए....इसी बात से तो नफ़रत है, बस तन-मन-धन से इस के बारे में कुछ करने की तमन्ना है।
मुझे बहुत बार लगता है कि जितनी भे ये धार्मिक, अध्यात्मिक संगठन होते हैं किसी भी शहर में इन के पास पब्लिक की गाढ़ी कमाई का बहुत सा पैसा होता है ..और इन्होंने जगहें भी शहर के व्यस्त इलाकों में ले रखी होती हैं, क्या यें इस तरह के ठंड़े पानी के प्याऊ नियमित नहीं चला सकते...कुछ चलाते तो हैं, लेिकन बड़ी खस्ता हालत में दिखते हैं ये प्याऊ...
क्या लिखूं और इस के बारे में ....अचानक दो चार पहले सिंधी नववर्ष वाले दिन एक प्रोग्राम में गया हुआ था..राज्यपाल राम नाईक सिंधी समाज की प्रशंसा करते हुए यह कह रहे थे कि इस की यह खासियत है कि ये जहां जाते हैं वहीं के माहौल में घुल मिल जाते हैं ...उन्होंने कहा जिस तरह से पानी का कोई रंग नहीं होता...लेकिन जिस में मिला दो लगे उस जैसा...
वैसे यह शोर फिल्म का गीत भी उसी दौर का ही है ..जब हम लोग ९-१० की आयु के थे...१९७२ के जमाने में....
जाते जाते सोशल मीडिया की ताकत का अंदाजा लगा लें कि अाज मेरे कितने ही व्हाट्सएप ग्रुप पर कितने ही लोगों ने दिलीप कुमार को अल्ला को प्यारा हुआ बता दिया ...फिर कुछ लोगों ने तुरंत उन्हें जिंदा कर दिया..यह सिलसिला सारा दिन चलता रहा 😄.......ईश्वर, अल्लाह, गॉड इस महान हस्ती को उम्रदारज़ करे...आमीन!