बचपन में सातवीं आठवीं कक्षा तक हम लोग पैदल ही स्कूल आते जाते थे...पंद्रह बीस मिनट का रास्ता था..कोई शाबाशी वाली बात भी नहीं और ना ही कोई शर्म महसूस करने वाली बात है..क्योंकि उस दौर में अधिकतर बच्चे ऐसे ही जाते थे...आज के कुछ बच्चे घर के सामने मोड़ से स्कूल की ए.सी बस पकड़ते हैं लेकिन उन का बस्ता उठाने के लिए घर का रामू साथ चलता है..किधर पानी पर कुछ लिखने लगा हूं और किधर चला जा रहा हूं..
हम लोग जब स्कूल से घर की तरफ़ लौट रहे होते थे तो हमें आधे रास्ते में एक प्याऊ का इंतज़ार रहता था...हमारे देखते देखते ही बना था..लेकिन वहां पर एक बहुत बुज़ुर्ग पानी िपलाया करता था...हर समय...एक बार और भी लिखने योग्य है कि बचपन में बच्चे तो खुद फकीर हुआ करते हैं...यही बीस, पच्चीस, पचास पैसे टोटल हुआ करते थे सुबह स्कूल जाते समय, लेकिन इतनी अकल तो ज़रूर थी कि अकसर उस प्याऊ पर पानी पीने के बाद गिलासों के पास अकसर पांच या दस पैसे अकसर चुपचाप रख दिया करते थे...यह बात आज भी बड़ा सुकून देती है...उसी प्याऊ के आसपास ही एक दो भुट्टा बेचने वाले और एक बैल को घुमा कर गन्ने का रस बेचने वाला हुआ करता था...जैसे पैसे जेब में होते वैसे ही कुछ न कुछ ले लिया करते थे...
हमारी तीन चार लड़कों की यही ब्रेक-जर्नी हुआ करती थी...उस के बाद हमारी अगली यात्रा शुरू हुआ करती थी..इत्मीनान से ...यहां तक सिर पर चढ़ाने के लिए हमारे पास टोपियां तक नहीं होती थीं...शायद बाज़ार में मिलती ही नहीं थीं...मां रोज़ाना कहती कि सिर पर गीला रूमाल या छोटा तोलिया रख कर चला करो...लेिकन इतने समझदार हम कब से होने लगे!...उस बात को एक कान से डाल कर दूसरे से निकाल दिया करते! वैसे तो एक काला चश्मा दिला दिया गया था लेिकन उसे लगाने में शर्म महसूस होती थी ....पता नहीं क्यों, लेकिन कभी इस काले चश्मे का शौक भी तबीयत से पूरा हो ही नहीं पाया...अब कसर निकाल रहा हूं शायद, काला चश्मा नज़र वाले नंबर का बनवा लिया है ...
अच्छा हो गई भूमिका...
हां, तो पीने वाले पानी की बात कर रहा था...यह लखनऊ की ही बात नहीं है, सब जगह ही लगभग एक जैसे हालात हैं...पिछले साल मैं एक दिन यहां के एक बाज़ार में टहल रहा था तो मैंने देखा कि एक दुकानदार ने सौ पचास पानी के छोटे छोटे पाउच भी रखे हुए थे..एक एक दो दो रूपये में बिक रहे थे..
कुछ दिन पहले एक चौराहे पर खस्ता कचौड़ी खाते हुए यह देखा कि अगर किसी ने पानी पीना है तो उसे पानी के पाउच के अलग से चुकाने होंगे...
पानी का पाउच कल्चर अब आम सी बात हो गई है ...आज शाम एक बिज़ी चौराहे पर इस पानी बेचने वाले को देखा..दो दो रूपये में ठंडे पानी की थैलियां बेच रहा था...कोई बात नहीं, मेहनत कर के थोड़ी बहुत कमाई कर रहा है बंदा, और वैसे भी सस्ते में आने जाने वालों को एक सुविधा मिली हुई है...ध्यान दीजिए कि पानी के पाउच वे वाले नहीं जो मैं और आप आज कल ब्याह शादियों में पीते हैं...वे सील होते हैं...लेकिन यह पानी एक साधारण सी पतली पन्नी में बिकता है, उसे रोकने के लिए ऊपर धागा लपेटा होता है ...पीने के लिए यहां एक प्रथा है, धागा कोई नहीं खोलता, पन्नी के निचले हिस्सो को थोड़ा फाड़ कर मुहं से लगा लिया जाता है.. 😎😎
कुछ और ज्यादा िलखने को मन नहीं कर रहा ...सारी दुनिया सुबह से लेकर शाम तक ज्ञान बांटने की होड़ में लगी हुई है, मैं भी...अपने आप को दूसरे से श्रेष्ठ बताने, दिखने, कहने में कोई कोर-कसर नहीं रखी जाती ... है कि नहीं।
बचपन के उन सुखद दिनों का असर कहूं या कुछ कहूं....मुझे भी किसी प्याऊ पर बैठ कर पानी पिलाने का बहुत मन करता है ...अब सोचने वाली बात है कि मुझे रोक कौन रहा है!....बहुत बार लगता है कि ये सब काम करने हैं ज़रूर...किसी दिखावे के लिए नहीं, न ही किसी से वाहवाही लूटने के लिए....इसी बात से तो नफ़रत है, बस तन-मन-धन से इस के बारे में कुछ करने की तमन्ना है।
मुझे बहुत बार लगता है कि जितनी भे ये धार्मिक, अध्यात्मिक संगठन होते हैं किसी भी शहर में इन के पास पब्लिक की गाढ़ी कमाई का बहुत सा पैसा होता है ..और इन्होंने जगहें भी शहर के व्यस्त इलाकों में ले रखी होती हैं, क्या यें इस तरह के ठंड़े पानी के प्याऊ नियमित नहीं चला सकते...कुछ चलाते तो हैं, लेिकन बड़ी खस्ता हालत में दिखते हैं ये प्याऊ...
क्या लिखूं और इस के बारे में ....अचानक दो चार पहले सिंधी नववर्ष वाले दिन एक प्रोग्राम में गया हुआ था..राज्यपाल राम नाईक सिंधी समाज की प्रशंसा करते हुए यह कह रहे थे कि इस की यह खासियत है कि ये जहां जाते हैं वहीं के माहौल में घुल मिल जाते हैं ...उन्होंने कहा जिस तरह से पानी का कोई रंग नहीं होता...लेकिन जिस में मिला दो लगे उस जैसा...
वैसे यह शोर फिल्म का गीत भी उसी दौर का ही है ..जब हम लोग ९-१० की आयु के थे...१९७२ के जमाने में....
हम लोग जब स्कूल से घर की तरफ़ लौट रहे होते थे तो हमें आधे रास्ते में एक प्याऊ का इंतज़ार रहता था...हमारे देखते देखते ही बना था..लेकिन वहां पर एक बहुत बुज़ुर्ग पानी िपलाया करता था...हर समय...एक बार और भी लिखने योग्य है कि बचपन में बच्चे तो खुद फकीर हुआ करते हैं...यही बीस, पच्चीस, पचास पैसे टोटल हुआ करते थे सुबह स्कूल जाते समय, लेकिन इतनी अकल तो ज़रूर थी कि अकसर उस प्याऊ पर पानी पीने के बाद गिलासों के पास अकसर पांच या दस पैसे अकसर चुपचाप रख दिया करते थे...यह बात आज भी बड़ा सुकून देती है...उसी प्याऊ के आसपास ही एक दो भुट्टा बेचने वाले और एक बैल को घुमा कर गन्ने का रस बेचने वाला हुआ करता था...जैसे पैसे जेब में होते वैसे ही कुछ न कुछ ले लिया करते थे...
हमारी तीन चार लड़कों की यही ब्रेक-जर्नी हुआ करती थी...उस के बाद हमारी अगली यात्रा शुरू हुआ करती थी..इत्मीनान से ...यहां तक सिर पर चढ़ाने के लिए हमारे पास टोपियां तक नहीं होती थीं...शायद बाज़ार में मिलती ही नहीं थीं...मां रोज़ाना कहती कि सिर पर गीला रूमाल या छोटा तोलिया रख कर चला करो...लेिकन इतने समझदार हम कब से होने लगे!...उस बात को एक कान से डाल कर दूसरे से निकाल दिया करते! वैसे तो एक काला चश्मा दिला दिया गया था लेिकन उसे लगाने में शर्म महसूस होती थी ....पता नहीं क्यों, लेकिन कभी इस काले चश्मे का शौक भी तबीयत से पूरा हो ही नहीं पाया...अब कसर निकाल रहा हूं शायद, काला चश्मा नज़र वाले नंबर का बनवा लिया है ...
अच्छा हो गई भूमिका...
हां, तो पीने वाले पानी की बात कर रहा था...यह लखनऊ की ही बात नहीं है, सब जगह ही लगभग एक जैसे हालात हैं...पिछले साल मैं एक दिन यहां के एक बाज़ार में टहल रहा था तो मैंने देखा कि एक दुकानदार ने सौ पचास पानी के छोटे छोटे पाउच भी रखे हुए थे..एक एक दो दो रूपये में बिक रहे थे..
कुछ दिन पहले एक चौराहे पर खस्ता कचौड़ी खाते हुए यह देखा कि अगर किसी ने पानी पीना है तो उसे पानी के पाउच के अलग से चुकाने होंगे...
पानी का पाउच कल्चर अब आम सी बात हो गई है ...आज शाम एक बिज़ी चौराहे पर इस पानी बेचने वाले को देखा..दो दो रूपये में ठंडे पानी की थैलियां बेच रहा था...कोई बात नहीं, मेहनत कर के थोड़ी बहुत कमाई कर रहा है बंदा, और वैसे भी सस्ते में आने जाने वालों को एक सुविधा मिली हुई है...ध्यान दीजिए कि पानी के पाउच वे वाले नहीं जो मैं और आप आज कल ब्याह शादियों में पीते हैं...वे सील होते हैं...लेकिन यह पानी एक साधारण सी पतली पन्नी में बिकता है, उसे रोकने के लिए ऊपर धागा लपेटा होता है ...पीने के लिए यहां एक प्रथा है, धागा कोई नहीं खोलता, पन्नी के निचले हिस्सो को थोड़ा फाड़ कर मुहं से लगा लिया जाता है.. 😎😎
यह भी इतिहास के पन्नों में दर्ज हो ही जाए कि देश में २०१६ में पानी का एक पाउच दो रूपये में बिकता था... |
बचपन के उन सुखद दिनों का असर कहूं या कुछ कहूं....मुझे भी किसी प्याऊ पर बैठ कर पानी पिलाने का बहुत मन करता है ...अब सोचने वाली बात है कि मुझे रोक कौन रहा है!....बहुत बार लगता है कि ये सब काम करने हैं ज़रूर...किसी दिखावे के लिए नहीं, न ही किसी से वाहवाही लूटने के लिए....इसी बात से तो नफ़रत है, बस तन-मन-धन से इस के बारे में कुछ करने की तमन्ना है।
मुझे बहुत बार लगता है कि जितनी भे ये धार्मिक, अध्यात्मिक संगठन होते हैं किसी भी शहर में इन के पास पब्लिक की गाढ़ी कमाई का बहुत सा पैसा होता है ..और इन्होंने जगहें भी शहर के व्यस्त इलाकों में ले रखी होती हैं, क्या यें इस तरह के ठंड़े पानी के प्याऊ नियमित नहीं चला सकते...कुछ चलाते तो हैं, लेिकन बड़ी खस्ता हालत में दिखते हैं ये प्याऊ...
क्या लिखूं और इस के बारे में ....अचानक दो चार पहले सिंधी नववर्ष वाले दिन एक प्रोग्राम में गया हुआ था..राज्यपाल राम नाईक सिंधी समाज की प्रशंसा करते हुए यह कह रहे थे कि इस की यह खासियत है कि ये जहां जाते हैं वहीं के माहौल में घुल मिल जाते हैं ...उन्होंने कहा जिस तरह से पानी का कोई रंग नहीं होता...लेकिन जिस में मिला दो लगे उस जैसा...
वैसे यह शोर फिल्म का गीत भी उसी दौर का ही है ..जब हम लोग ९-१० की आयु के थे...१९७२ के जमाने में....
जाते जाते सोशल मीडिया की ताकत का अंदाजा लगा लें कि अाज मेरे कितने ही व्हाट्सएप ग्रुप पर कितने ही लोगों ने दिलीप कुमार को अल्ला को प्यारा हुआ बता दिया ...फिर कुछ लोगों ने तुरंत उन्हें जिंदा कर दिया..यह सिलसिला सारा दिन चलता रहा 😄.......ईश्वर, अल्लाह, गॉड इस महान हस्ती को उम्रदारज़ करे...आमीन!
अभी अभी मां की टिप्पणी मिली...उसे यहां लिख रहा हूं...
जवाब देंहटाएं"लेख सुंदर...अतीत की यादें, प्रेरणादायक नसीहत...सम्पन्न लोगों को इशारा करती है कि गर्मी के मौसम में कुछ ऐसा नेक काम करें।"
मां ने यह भी मशविरा दिया है कि "इन अतीत की यादों को संजो कर एक किताब लिख"...
हटाएंठीक है, इस पर जल्दी ही काम शुरू हो जायेगा।..आमीन!!