लैपरोस्कोपी का नाम तो आप सब ने बहुत बार सुन रखा होगा। लैपरोस्कोपी- सर्जरी की एक ऐसी विधि है जिस के द्वारा डाक्टर मरीज के पैल्विस एवं एबडॉमन( pelvis and abdomen) के अंदर वाले अंगों को बिलकुल छोटे से कट्स के माध्यम से देख पाते हैं और उन का आप्रेशन कर पाते हैं । बहुत प्रकार की अबडॉमीनल सर्जरी लैपरोस्कोपी के द्वारा की जा सकती है जैसे कि बांझपन अथवा पैल्विक एरिया में दर्द की डायग्नोसिस एवं इलाज, गाल-ब्लैडर अथवा अपैंडिक्स को निकालना( gall bladder or appendix removal), और गर्भवस्था से बचाव के लिये ट्यूबल लाईगेशन( जिसे आम तौर पर कह देते हैं महिलाओं में बच्चे बंद करने वाला दूरबीनी आप्रेशन)।
लैपरोस्कोपी किसी सर्जन अथवा स्त्री-रोग विशेषज्ञ द्वारा की जाती है। अगर आप नियमित तौर पर एस्पिरिन अथवा इस श्रेणी ( non-steroidal anti-inflammatory drugs) की अन्य दवाईयां लेते हैं जिस से रक्त के जमने में कुछ दिक्कत हो सकती है ( medicines that affect blood clotting) तो आप को डाक्टर से बात करनी होगी। हो सकता है कि कुछ समय के लिये आप की वह दवा बंद कर दी जाये अथवा लैपरोस्कोपी से पहले आप की डोज़ को एडजस्ट किया जाये।
सर्जरी से कम से कम आठ घंटे पहले आप को कुछ भी न खाने की हिदायत दी जाती है। चूंकि निश्चेतन ( anaesthesia) करने के लिये जो दवाईयां इस्तेमाल की जाती हैं मितली होना( nausea) उन का साइड-इफैक्ट हो सकता है – इसलिये अगर पेट खाली होगा तो इस तरह की परेशानी से बचा जा सकता है।
कैसे होती है यह लैपरोस्कोपी ? – लैपरोस्कोपी को आप्रेशन थियेटर में किया जाता है। मरीज को जर्नल एनसथीसिया दिया जाता है जिस के प्रभाव से वह सोया रहता है और उसे कुछ भी पता नहीं चलता कि क्या चल रहा है। जर्नल एनसथीसिया के लिये मरीज को गैसों का एक मिक्सचर एक मास्क के माध्यम से सुंघाया जाता है। जब एनसथीसिया का प्रभाव शुरू हो जाता है तो मरीज के गले में एक टयूब डाल दी जाती है जिसके द्वारा वह सांस लेता रहता है।
वैसे बातें लिखने में ही बहुत बड़ी बड़ी डराने वाली लगती हैं---लेकिन जिन हाथों ने रोज़ काम ही यही करने हैं, उन के हाथों में आप पूरी तरह से सुरक्षित होते हैं ---उन के लिये यह सब की-बोर्ड पर काम करने के बराबर ही होता है।
लैपरोस्कोपी के दौरान एक बिलकुल छोटा सा कैमरा एक बिल्कुल छोटे से कट ( एक इंच से भी कम) की मदद से अंदर डाला जाता है और इस यह कट नेवल (धुन्नी) के एरिये में या इस के ज़रा सा नीचे लगाया जाता है। इस के बाद कार्बन-डाईआक्साईड या नाइट्रस-आक्साईड जैसी गैस को मरीज के एबडॉमन में पंप किया जाता है ताकि एबडॉमिनल वाल ( abdominal wall) एबडॉमिनल अंगों से ऊपर उठ जाये और एबडॉमन के अंदर गया हुआ बिलकुल छोटा सा कैमरा उन अंगों को सही तरीके से देख सके।
अगर लैपरोस्कोपी के द्वारा केवल एबडॉमन अथवा पैल्विस को देखने के इलावा कोई जटिल सा प्रोसिजर भी करना होता है तो सर्जन एक या उस से अधिक कट्स (incisions)भी लगा सकता है जिस से कि अन्य औज़ार भी अबडॉमन के अंदर पहुंच सकें। पैल्विक सर्जरी के लिये तो ये एडिशनल कट्स आम तौर पर पयूबिक हेयर के थोड़ा नीचे लगाये जाते हैं।
लैपरोस्कोपी के लिये विभिन्न प्रकार के औज़ार इस्तेमाल किये जाते हैं। इन में से कुछ तो ऐसे होते हैं जिन में कुछ तो काटने के लिये और अंदरूनी अंगों को क्लिप करने के लिये इस्तेमाल होते हैं, कुछ औज़ार पैल्विस के स्कार टिश्यू अथवा दर्दनाक एरिया को जलाने के लिये इस्तेमाल किये जाते हैं, अथवा कुछ ऐसे औज़ार होते हैं जिन को बायोप्सी का सैंपल लेने के लिये और यहां तक कि अंदरूनी अंगों को पूरा बाहर निकालने के लिये भी औज़ार उपलब्ध होते हैं---( आम तौर पर छोटे छोटे टुकड़ों के ज़रिये ताकि एबडॉमन पर बड़े कट्स न लगाने पड़ें) और डाक्टर अपना काम करते हुये यह सारी प्रक्रिया को एक टैलीवीज़न की स्क्रीन पर देखता रहता है।
सर्जरी पूरी होने पर सभी औज़ार बाहर निकाल लिये जाते हैं, एबडॉमन में भरी गैस को निकाल दिया जाता है और कट्स को सिल दिया जाता है। तुरंत एनसथीसिया रोक दिया जाता है ताकि मरीज़ लैपरोस्कोपी होने के कुछ ही मिनटों के बाद “नींद” से जाग जाता है।
लैपरोस्कोपिक सर्जरी के बाद मरीज रैगुलर एबडॉमिलन सर्जरी की तुलना में ( जिसे अकसर ओपन सर्जरी भी कह दिया जाता है) बहुत जल्दी ठीक ठाक हो जाते हैं क्योंकि कट्स के जख्म इतने छोटे छोटे होते हैं। जिस भी कट्स के अंदर से औज़ार अंदर गये हैं वहां पर छोटा सा सीधा स्कार (small straight scar) – एक इंच से भी कम – होता है।
यह तो बस थोड़ी सी इंट्रोडक्शन थी लैपोस्कोपी के बारे में ताकि कभी अगर आप के कान में कहीं पड़ जाये कि यह शब्द पड़ जाये तो आप समझ सकें कि आखिर यह माजरा है क्या । उदाहरण के तौर पर अगर किसी से सुनें कि उस ने लैप-कोली करवाई है तो उस का मतलब है कि उस का पित्ता (gall bladder) लैपरोस्कोपी के द्वारा निकाल दिया गया है --- लैपरोस्कोपी को ब्रीफ में कह देते हैं...लैप और कोली का पूरा फार्म है कोलीसिस्टैक्टमी ( अर्थात् पित्ते को आप्रेशन से निकाल देना) !!
शायद, आप को लैपरोस्कोपी का कंसैप्ट थोड़ा क्लियर हो गया होगा लेकिन लिखते लिखते मुझे नानी याद आ गई कि मैडीकल बातों को हिंदी में लिखना अच्छा खासा मुश्किल काम है। लेकिन अब अगर इसे भी एक चैलेंज के रूप में नहीं लिया जायेगा तो कैसे चलेगा !!
शुक्रवार, 31 अक्तूबर 2008
आप ने पिछली बार कब अपनी आंखों का चैक-अप करवाया था ?
एक अनुमान के अनुसार अमेरिका में 81 फीसदी लोग किसी न किसी तरह से विज़न-करैक्शन ( चश्मा, कंटैक्ट लैंस इत्यादि) का इस्तेमाल करते हैं लेकिन इस के बावजूद 26 फीसदी लोग ऐसे हैं जिन्होंने पिछले दो वर्षों में अपनी आंखों का चैक-अप नहीं करवाया है। एक स्टडी में पाया गया है कि बहुत से लोग अपनी आंखों की सेहत के प्रति ज़्यादा सजग नहीं हैं।
हर व्यस्क व्यक्ति को कम से कम दो साल में एक बार अपनी आंखों का मुकम्मल चैक-अप करवाना चाहिये – लेकिन उन लोगों के लिये तो यह और भी ज़रूरी हो जाता है जिन्हें चश्मा लगा हुआ है या जो लोग कंटैक्ट लैंस इस्तेमाल करते हैं। और साठ साल की आयु के बाद तो हर साल आंखों का पूर्ण चैक-अप करवाया जाना चाहिये।
18 साल व उस से ऊपर के 1001 अमेरिकी लोगों को लेकर जब एक सर्वे किया गया तो उस से यह पता चला –
ज़्यादातर अमेरिकी लोगों ( 72फीसदी) जिन की उम्र 55 के आसपास थी – इन्होंने अपनी आंखों की दृष्टि ( vision changes) में बदलाव 40 से 45 साल की उम्र में नोटिस करने शुरू कर दिये थे।
अपनी दृष्टि के बारे में चिंतित होते हुये भी 15प्रतिशत लोग ऐसे थे जो न तो चश्मा ही पहनते हैं और न ही कभी नेत्र-रोग विशेषज्ञ के पास ही गये हैं।
62फीसदी लोग ऐसे थे जिन्हें यह पता नहीं था कि कईं बार डायबिटीज़ का पता ही नेत्र-रोग विशेषज्ञ को आपकी आंखों की जांच से पता चलता है। और 71 फीसदी लोगों का इस बात का आभास नहीं था कि आंखों के पूरे चैक-अप से हाई-ब्लड-प्रैशर, ब्रेन-ट्यूमर, कैंसर, दिल की बीमारी तथा मल्टीपल-स्क्लिरोसिस( multiple sclerosis) जैसी बीमारियों का पता चल सकता है।
कुछ भ्रांतियां पाई गईं कि कुछ तरह से आंखें खराब हो जाती हैं। उदाहरण के तौर पर 71फीसदी लोग यह समझते हैं कि मंद रोशमी के तले पढ़ने से, टीवी को बहुत नज़दीक को देखने से, अथवा आंखों को मलने से आंखें खराब हो जाती हैं। इन सब बातों से आंखों पर स्ट्रेन तो पड़ता है लेकिन इन से आंखें या आंखों की रोशनी वास्तव में खराब नहीं होती है।
इसलिये टीवी से सुरक्षित दूरी बनाये रखने वाली और अच्छी रोशनी में पढ़ने जैसी बातें तो अपनी जगह पर कायम है ही हैं।
There were many misconceptions about behaviours that can damage eyes. For example, many incorrectly believe that eye damage can be caused by reading under dim light (71 percent), sitting too close to the television ( 66 percent), or by rubbing the eyes. These behaviours can cause eye strain but don’t cause actual damage to the eye or eyesight.
हर व्यस्क व्यक्ति को कम से कम दो साल में एक बार अपनी आंखों का मुकम्मल चैक-अप करवाना चाहिये – लेकिन उन लोगों के लिये तो यह और भी ज़रूरी हो जाता है जिन्हें चश्मा लगा हुआ है या जो लोग कंटैक्ट लैंस इस्तेमाल करते हैं। और साठ साल की आयु के बाद तो हर साल आंखों का पूर्ण चैक-अप करवाया जाना चाहिये।
18 साल व उस से ऊपर के 1001 अमेरिकी लोगों को लेकर जब एक सर्वे किया गया तो उस से यह पता चला –
ज़्यादातर अमेरिकी लोगों ( 72फीसदी) जिन की उम्र 55 के आसपास थी – इन्होंने अपनी आंखों की दृष्टि ( vision changes) में बदलाव 40 से 45 साल की उम्र में नोटिस करने शुरू कर दिये थे।
अपनी दृष्टि के बारे में चिंतित होते हुये भी 15प्रतिशत लोग ऐसे थे जो न तो चश्मा ही पहनते हैं और न ही कभी नेत्र-रोग विशेषज्ञ के पास ही गये हैं।
62फीसदी लोग ऐसे थे जिन्हें यह पता नहीं था कि कईं बार डायबिटीज़ का पता ही नेत्र-रोग विशेषज्ञ को आपकी आंखों की जांच से पता चलता है। और 71 फीसदी लोगों का इस बात का आभास नहीं था कि आंखों के पूरे चैक-अप से हाई-ब्लड-प्रैशर, ब्रेन-ट्यूमर, कैंसर, दिल की बीमारी तथा मल्टीपल-स्क्लिरोसिस( multiple sclerosis) जैसी बीमारियों का पता चल सकता है।
कुछ भ्रांतियां पाई गईं कि कुछ तरह से आंखें खराब हो जाती हैं। उदाहरण के तौर पर 71फीसदी लोग यह समझते हैं कि मंद रोशमी के तले पढ़ने से, टीवी को बहुत नज़दीक को देखने से, अथवा आंखों को मलने से आंखें खराब हो जाती हैं। इन सब बातों से आंखों पर स्ट्रेन तो पड़ता है लेकिन इन से आंखें या आंखों की रोशनी वास्तव में खराब नहीं होती है।
इसलिये टीवी से सुरक्षित दूरी बनाये रखने वाली और अच्छी रोशनी में पढ़ने जैसी बातें तो अपनी जगह पर कायम है ही हैं।
There were many misconceptions about behaviours that can damage eyes. For example, many incorrectly believe that eye damage can be caused by reading under dim light (71 percent), sitting too close to the television ( 66 percent), or by rubbing the eyes. These behaviours can cause eye strain but don’t cause actual damage to the eye or eyesight.
मंगलवार, 28 अक्तूबर 2008
संदेशे आते हैं.....सैक्स पार्टनर्स को यौन-जनित रोगों के !!
अपने किसी सैक्स पार्टनर को यह बताने के लिये कि उसे भूल से कोई यौन-संबंध से फैलने वाली बीमारी परोस दी गई है कंप्यूटर माउस की एक क्लिक की मदद ली जा रही है।
एक रिपोर्ट के अनुसार तीस हज़ार लोगों ने एक ऐसी इंटरनेट सेवा का इस्तेमाल किया है जिस के द्वारा अपने सैक्स पार्टनर्ज़ को सचेत किया जा सकता है कि हो सकता है कि उन को सिफिलिस, गनोरिया, एच.आई.व्ही अथवा अन्य रोगों से संक्रमित किया जा चुका है।
इन्स्पाट सर्विस ( inSPOT service) के नाम से जानी जाने वाली इस सर्विस को सॉन-फ्रांसिस्को में 2004 में शुरू किया गया था और अब यह इदाहो, लूईसियाना, न्यू-यार्क, ओरेगन, पैनिसिलवेनिया, एवं वाशिंगटन जैसे अन्य राज्यों में भी चालू है।
2004 में सैन-फ्रांसिस्को के पब्लिक-हैल्थ विभाग एवं एक स्वयं-सेवी संगठन ने समलैंगिक पुरूषों का सर्वे करने पर यह पाया कि अधिकांश पुरूष अपने कैजुअल सैक्स पार्टनर्ज़ को इस बारे में नहीं बताते कि उन में sexually-transmitted disease- STD रोग डॉयग्नोज़ हुआ है। लेकिन रिपोर्ट ने इस बार का बहुत ज़ोर से दावा कि इन पुरूषों ने कहा कि अगर कोई आसान सी, अनॉनीमस सर्विस हो जिस के माध्यम से वे अपने पार्टनर्ज़ को उनमें भविष्य में होने वाले रोग की संभावना से आगाह कर सकें--- तो वे इस सर्विस को ज़रूर इस्तेमाल करेंगे।
इस के परिणाम स्वरूप ही इन्स्पाट (inSPOT) सर्विस का जन्म हुआ----पहले पहल तो समलैंगिक पुरूषों के लिये ही लेकिन बाद में किसी के भी द्वारा इस का इस्तेमाल किया जाने लगा। इस सर्विस को इस्तेमाल करने वाले एक वैब-साइट पर जाते हैं, एक फार्म की विभिन्न जगहों पर क्लिक करते हैं जो उन्हें अपने सैक्स-पार्टनर का ई-मेल एड्रैस लिखने को कहा जाता है और साथ में यह बात भी विशेष रूप से लिखने को कहा जाता है कि उस पार्टनर को आप के द्वारा किस बीमारी या बीमारियों से संभवतः एक्सपोज़ किया जा चुका है।
जिस पार्टनर को संभवतः किसी यौन-संक्रमित बीमारी से एक्सपोज़ किया जा चुका है उसे एक ई-मेल प्राप्त होता है जिस की सबजैक्ट लाइन में लिखा होता है ----“ इ-कार्ड ---एक शुभचिंतक दोस्त की तरफ़ से .....आप की सेहत से संबंधित... मार्फ़त इन्स्पाट ”।
The person potentially exposed to an STD will then get an e-mail with the subject line, “ E-card from a concerned friend re: your health via in SPOT.”
जो लोग संदेश भेजते हैं वे चाहे तो अपना नाम साथ भेजें ---वरना वे अनॉनीमस ढंग से भी ये संदेश भेज सकते हैं। वे इ-कार्ड पर भेजे जाने वाली तस्वीरों का भी चयन कर सकते हैं और “I am sorry” लिख कर भी भेज सकते हैं।
2004 से तीस हज़ार लोगों ने इस तरह के लगभग पचास हज़ार ई-कार्डों को भेजा है। लेकिन एक बात तो है कि कुछ शरारती किस्म के लोग इन कार्डों को किसी को परेशान करने के लिये भी इस्तेमाल कर रहे हैं।
और यह भी अभी स्पष्ट नहीं है कि इस सर्विस से यौन-जनित रोगों में कमी आई भी है कि नहीं । वैसे मामला कुछ ज़्यादा ही कंप्लीकेटेड सा नहीं लग रहा क्या -----ठीक है कुछ तो फायदे होंगे ही इस सर्विस के लेकिन इस तरह की बीमारियों से बच निकलने का केवल एक ही अचूक फार्मूला है और वह है .... आग से खेलने से बचा जाये ......कोयलों की दलाली होगी तो मुंह काला तो होगा ही, बाद में चाहे कितनी भी चौंचलेबाजी कर ली जाये।
एक रिपोर्ट के अनुसार तीस हज़ार लोगों ने एक ऐसी इंटरनेट सेवा का इस्तेमाल किया है जिस के द्वारा अपने सैक्स पार्टनर्ज़ को सचेत किया जा सकता है कि हो सकता है कि उन को सिफिलिस, गनोरिया, एच.आई.व्ही अथवा अन्य रोगों से संक्रमित किया जा चुका है।
इन्स्पाट सर्विस ( inSPOT service) के नाम से जानी जाने वाली इस सर्विस को सॉन-फ्रांसिस्को में 2004 में शुरू किया गया था और अब यह इदाहो, लूईसियाना, न्यू-यार्क, ओरेगन, पैनिसिलवेनिया, एवं वाशिंगटन जैसे अन्य राज्यों में भी चालू है।
2004 में सैन-फ्रांसिस्को के पब्लिक-हैल्थ विभाग एवं एक स्वयं-सेवी संगठन ने समलैंगिक पुरूषों का सर्वे करने पर यह पाया कि अधिकांश पुरूष अपने कैजुअल सैक्स पार्टनर्ज़ को इस बारे में नहीं बताते कि उन में sexually-transmitted disease- STD रोग डॉयग्नोज़ हुआ है। लेकिन रिपोर्ट ने इस बार का बहुत ज़ोर से दावा कि इन पुरूषों ने कहा कि अगर कोई आसान सी, अनॉनीमस सर्विस हो जिस के माध्यम से वे अपने पार्टनर्ज़ को उनमें भविष्य में होने वाले रोग की संभावना से आगाह कर सकें--- तो वे इस सर्विस को ज़रूर इस्तेमाल करेंगे।
इस के परिणाम स्वरूप ही इन्स्पाट (inSPOT) सर्विस का जन्म हुआ----पहले पहल तो समलैंगिक पुरूषों के लिये ही लेकिन बाद में किसी के भी द्वारा इस का इस्तेमाल किया जाने लगा। इस सर्विस को इस्तेमाल करने वाले एक वैब-साइट पर जाते हैं, एक फार्म की विभिन्न जगहों पर क्लिक करते हैं जो उन्हें अपने सैक्स-पार्टनर का ई-मेल एड्रैस लिखने को कहा जाता है और साथ में यह बात भी विशेष रूप से लिखने को कहा जाता है कि उस पार्टनर को आप के द्वारा किस बीमारी या बीमारियों से संभवतः एक्सपोज़ किया जा चुका है।
जिस पार्टनर को संभवतः किसी यौन-संक्रमित बीमारी से एक्सपोज़ किया जा चुका है उसे एक ई-मेल प्राप्त होता है जिस की सबजैक्ट लाइन में लिखा होता है ----“ इ-कार्ड ---एक शुभचिंतक दोस्त की तरफ़ से .....आप की सेहत से संबंधित... मार्फ़त इन्स्पाट ”।
The person potentially exposed to an STD will then get an e-mail with the subject line, “ E-card from a concerned friend re: your health via in SPOT.”
जो लोग संदेश भेजते हैं वे चाहे तो अपना नाम साथ भेजें ---वरना वे अनॉनीमस ढंग से भी ये संदेश भेज सकते हैं। वे इ-कार्ड पर भेजे जाने वाली तस्वीरों का भी चयन कर सकते हैं और “I am sorry” लिख कर भी भेज सकते हैं।
2004 से तीस हज़ार लोगों ने इस तरह के लगभग पचास हज़ार ई-कार्डों को भेजा है। लेकिन एक बात तो है कि कुछ शरारती किस्म के लोग इन कार्डों को किसी को परेशान करने के लिये भी इस्तेमाल कर रहे हैं।
और यह भी अभी स्पष्ट नहीं है कि इस सर्विस से यौन-जनित रोगों में कमी आई भी है कि नहीं । वैसे मामला कुछ ज़्यादा ही कंप्लीकेटेड सा नहीं लग रहा क्या -----ठीक है कुछ तो फायदे होंगे ही इस सर्विस के लेकिन इस तरह की बीमारियों से बच निकलने का केवल एक ही अचूक फार्मूला है और वह है .... आग से खेलने से बचा जाये ......कोयलों की दलाली होगी तो मुंह काला तो होगा ही, बाद में चाहे कितनी भी चौंचलेबाजी कर ली जाये।
रविवार, 26 अक्तूबर 2008
कितना उचित है बार बार टैटनस का टीका लगवाना !
कोई भी छोटी-मोटी चोट लगने पर बाज़ार से टैटनेस का टीका खरीदकर लगवा लेना लोगों के लिये एक आम सी बात हो सकती है, लेकिन ऐसा करना ठीक नहीं है। बार-बार टीके लगवाने से कुछ साइड-इफैक्ट्स भी हो सकते हैं और प्रतिरोधक क्षमता में कमी आने की संभावना रहती है।
टैटनस से बचाव के टीके दो प्रकार के आते हैं- टेटनेस टाक्साइड (टी टी) का टीका लगवाने पर हमारा शरीर टेटनस से बचाव की प्रतिरोधक क्षमता स्वयं उत्पन्न करता है जिसमें थोड़ा समय लगता है जबकि टेटनस इम्यूनोग्लोबुलिन (टीआई जी) द्वारा यह प्रतिरोधक क्षमता हम रेडीमेड रूप से ही मरीज़ के शरीर में पहुंचाते हैं। सामान्यतः हम टेटनेस के जिस टीके की बात करते हैं, वह टी टी की ही बात है।
जिस किसी भी व्यक्ति को सामान्य टीकाकरण के दौरान टेटनेस की सभी खुराकें दी जा चुकी हैं, उसे पांच से दस साल तक टेटनेस से सुरक्षा मिल जाती है। इसलिये आमतौर पर दस साल से पहले टेटनेस का टीका लेने की ज़रूरत नहीं रह जाती है। अगर किसी व्यक्ति का घाव गहरा हो, जलने या सड़क दुर्घटना में चोट लगने से घाव हुआ हो, तो उसे टी टी का टीका लगवा ही लेना चाहिये। अगर किसी को यह न मालूम हो कि उसे कब टेटनेस का टीका लगा था , तो उसे गहरा घाव होने पर भी टीका लगवा लेना चाहिये।
टी आई जी का टीका चिकित्सक के परामर्श के बाद ही लगवाना चाहिये।
टैटनस से बचाव के टीके दो प्रकार के आते हैं- टेटनेस टाक्साइड (टी टी) का टीका लगवाने पर हमारा शरीर टेटनस से बचाव की प्रतिरोधक क्षमता स्वयं उत्पन्न करता है जिसमें थोड़ा समय लगता है जबकि टेटनस इम्यूनोग्लोबुलिन (टीआई जी) द्वारा यह प्रतिरोधक क्षमता हम रेडीमेड रूप से ही मरीज़ के शरीर में पहुंचाते हैं। सामान्यतः हम टेटनेस के जिस टीके की बात करते हैं, वह टी टी की ही बात है।
जिस किसी भी व्यक्ति को सामान्य टीकाकरण के दौरान टेटनेस की सभी खुराकें दी जा चुकी हैं, उसे पांच से दस साल तक टेटनेस से सुरक्षा मिल जाती है। इसलिये आमतौर पर दस साल से पहले टेटनेस का टीका लेने की ज़रूरत नहीं रह जाती है। अगर किसी व्यक्ति का घाव गहरा हो, जलने या सड़क दुर्घटना में चोट लगने से घाव हुआ हो, तो उसे टी टी का टीका लगवा ही लेना चाहिये। अगर किसी को यह न मालूम हो कि उसे कब टेटनेस का टीका लगा था , तो उसे गहरा घाव होने पर भी टीका लगवा लेना चाहिये।
टी आई जी का टीका चिकित्सक के परामर्श के बाद ही लगवाना चाहिये।
शनिवार, 18 अक्तूबर 2008
आईये...मैडीकल टैस्टों के बारे में जानें ..2. एक्सरसाईज़ स्ट्रैस टैस्ट
एक्सरसाईज़ स्ट्रैस टैस्ट जिसे ट्रैडमिल टैस्ट अथवा एक्सरसाईज़ टॉलरैंस टैस्ट भी कह दिया जाता है---इस से यह पता चलता है कि जब आप का हार्ट सख्त काम कर रहा होता है ( जैसे कि एक्सरसाईज़ के दौरान) उस समय क्या उसे पर्याप्त रक्त की सप्लाई एवं ऑक्सीजन मिलती है।
सामान्यतयः स्ट्रैस टैस्ट उन लोगों का किया जाता है जो छाती में दर्द होने की शिकायत करते हैं अथवा जिन का मैडीकल परीक्षण अथवा ई.सी.जी करने के बाद यह लगता है कि उन्हें कॉरोनरी आर्टरी डिसीज़ हो सकती है।
वैसे कईं बार तो स्ट्रैस टैस्ट को हार्ट डिसीज़ के इलाज का असर देखने से लेकर किसी व्यक्ति को बताई गई एक्सरसाईज़ की सेफ्टी की जांच के लिये भी किया जाता है।
दिल की बीमारी को डॉयग्नोज़ करने के लिये यह स्ट्रैस टैस्ट अति श्रेष्ट है और रिसर्च के अनुसार तो कईं बार इस टैस्ट को ऐसे किसी व्यक्ति में हार्ट डिसीज़ का रिस्क जानने के लिये भी किया जा सकता है जिस में हार्ट-डिसीज़ तो नहीं है लेकिन हाई-कोलैस्ट्रोल जैसे रिस्क फैक्टर्ज़ मौजूद हैं। अगर आप चालीस साल से ऊपर हैं और आप को कॉरोनरी आर्टरी डिसीज़ होने का रिस्क है क्योंकि आप धूम्रपान करते हैं या आप को हाई-ब्लडप्रैशर है या कोई अन्य रिस्क फैक्टर्ज़ हैं, तो आप अपने डाक्टर से बात कीजिये कि क्या आप अपना यह टैस्ट करवा सकते हैं।
यह टैस्ट करवाने के लिये आपको ढीले-ढाले कपड़े एवं अथलैटिक शूज़ पहनने चाहिये। अगर आप सोचते हैं कि आप किसी भी हैल्थ से संबंधित कारण( जैसे आर्थराईटिस) के कारण ट्रैडमिल पर नहीं चल पायेंगे तो डाक्टर को यह बता दें। अगर आप को डॉयबिटीज़ है तो इस की जानकारी भी डाक्टर को होनी चाहिये क्योंकि एक्सरसाईज़ के दौरान ब्लड-शूगर का स्तर गिर सकता है ....हो सकता है कि डाक्टर टैस्ट करने से पूर्व आप के ब्लड-शूगर के स्तर की जांच कर के यह सुनिश्चित करना चाहे कि यह स्तर इतना कम नहीं है।
अगर टैस्टिंग वाले दिन आपने छाती में दर्द या भारीपन महसूस किया है तो टैस्टिंग रूम में डाक्टर अथवा किसी अन्य स्वास्थ्य-कर्मी को इस बारे में सूचित करें। ठीक टैस्ट से पहले कुछ भी लंबा-चौडा खाने से परहेज़ ही करें क्योंकि इस से एक्सरसाईज़ करने में असुविधा होती है।
कैसे होता है यह स्ट्रैस टैस्ट ? – सब से पहले लेटे हुये और खड़ी हुई अवस्था में आप की ई.सी.जी की जाती है। ब्लड-प्रैशर देखा जाता है। आप की बाजुओं एवं एक टांग के साथ एक टेप का इस्तेमाल करते हुये कुछ प्लासटिक कोटेड तारें अथवा लीड्स लगा दी जाती हैं जिन के द्वारा एक्सरसाईज़ के दौरान आप के हार्ट का इलैक्ट्रिक-पैटर्न रिकार्ड होता है। टैस्ट के दौरान आप का ब्लड-प्रैशर एवं हार्ट-रेट भी मॉनीटर किया जाता है। ट्रैडमिल पर आप को तकरीबन 10 मिनट तक चलना होता है।
लेकिन अगर टैस्ट के दौरान आप को छाती में दर्द या भारीपन सा लगे, सांस फूले, टांग में दर्द अथवा कमज़ोरी सी अनुभव हो, और इस के इलावा कुछ भी अजीब सा लगे और अगर टैस्ट के दौरान किसी भी स्टेज पर यह भी लगे कि आप और एक्सरसाईज़ नहीं कर पायेंगे तो इस के बारे में आप टैस्ट करने वाले व्यक्ति को बता दें। सामान्यतयः टैस्ट की अवधि समाप्त होने के पश्चात् आप का ब्लड-प्रैशर दोबारा देखा जायेगा।
अगर ट्रैडमिल पर चलते समय आप को छाती में डिस्कम्फर्ट महसूस हो, सांस फूले, अथवा सिर घूमने सा लगे ( chest discomfort, shortness of breath, or dizziness) और इन लक्षणों के साथ साथ ई.सी.जी में भी कुछ ऐसे बदलाव दिखें जिन से यह पता चले कि हार्ट के कुछ हिस्सों में रक्त की सप्लाई अपर्याप्त है तो इस से कॉरोनरी आर्टरी डिसीज़ होने का मजबूत संकेत मिलता है।
अगर आप बिनी किसी तरह के लक्षण के अथवा बिना किसी तरह के ई.सी.जी चेंजेज़ के यह टैस्ट कर पाते हैं तो इस की रिपोर्ट को नार्मल माना जाता है।
बहुत से लोगों को छाती में असुविधा तो होती है लेकिन ई.सी.जी चेंजेज़ नहीं होते अथवा कुछ लोगों में ईसीजी में बदलाव होने के बावजूद छाती में किसी प्रकार की असुविधा नहीं होती। इन केसों में इस एक्सरसाईज़ टैस्ट से कोई खास मदद नहीं मिलती और टैस्ट के रिजल्ट से यही मान कर चला जाता है कि कॉरोनरी आर्टरी डिसीज़ है तो लेकिन पक्का नहीं है। इसलिये ऐसे केसों में और भी कुछ टेस्ट किये जाते हैं ताकि किसी तरह का कोई संदेह न रहे।
कुछ हार्ट-डिसीज़ के मरीजों को इस टैस्ट के बारे में यह चिंता होती है कि यह करवाना कोई जोखिम मोल लेने के बराबर है, लेकिन यह ध्यान रहे कि अगर टैस्ट से पहले डाक्टर आप की जांच कर के यह देख लेता है कि आप यह टैस्ट करवाने के लिये सक्षम हैं तो यह बेहद सुरक्षित टैस्ट है।
टैस्ट समाप्त होने के बाद अगर आप की ब्लड-प्रैशर में बहुत ज़्यादा उछाल आता है अथवा एक्सरसाईज़ के दौरान यह अचानक नीचे गिर जाता है तो टैस्ट के कुछ मिनट के बाद एक नर्स आपका ब्लड-प्रैशर देखेगी। अगर आप को छाती में दर्द सा महसूस होने लगे, तो आप को डाक्टर द्वारा नाइट्रोग्लैसरिन की टेबलेट दी जा सकती है जिस से कि आप की खून की नाड़ियों को दवाई से थोड़ा खोल कर आप के हार्ट के ऊपर पड़ने वाले दबाव को कम किया जा सके ( If you develop chest pain, you might be given some nitroglycerin tablets to relieve the pain and lower the demand on your heart by dilating your blood vessels)..
सामान्यतयः स्ट्रैस टैस्ट उन लोगों का किया जाता है जो छाती में दर्द होने की शिकायत करते हैं अथवा जिन का मैडीकल परीक्षण अथवा ई.सी.जी करने के बाद यह लगता है कि उन्हें कॉरोनरी आर्टरी डिसीज़ हो सकती है।
वैसे कईं बार तो स्ट्रैस टैस्ट को हार्ट डिसीज़ के इलाज का असर देखने से लेकर किसी व्यक्ति को बताई गई एक्सरसाईज़ की सेफ्टी की जांच के लिये भी किया जाता है।
दिल की बीमारी को डॉयग्नोज़ करने के लिये यह स्ट्रैस टैस्ट अति श्रेष्ट है और रिसर्च के अनुसार तो कईं बार इस टैस्ट को ऐसे किसी व्यक्ति में हार्ट डिसीज़ का रिस्क जानने के लिये भी किया जा सकता है जिस में हार्ट-डिसीज़ तो नहीं है लेकिन हाई-कोलैस्ट्रोल जैसे रिस्क फैक्टर्ज़ मौजूद हैं। अगर आप चालीस साल से ऊपर हैं और आप को कॉरोनरी आर्टरी डिसीज़ होने का रिस्क है क्योंकि आप धूम्रपान करते हैं या आप को हाई-ब्लडप्रैशर है या कोई अन्य रिस्क फैक्टर्ज़ हैं, तो आप अपने डाक्टर से बात कीजिये कि क्या आप अपना यह टैस्ट करवा सकते हैं।
यह टैस्ट करवाने के लिये आपको ढीले-ढाले कपड़े एवं अथलैटिक शूज़ पहनने चाहिये। अगर आप सोचते हैं कि आप किसी भी हैल्थ से संबंधित कारण( जैसे आर्थराईटिस) के कारण ट्रैडमिल पर नहीं चल पायेंगे तो डाक्टर को यह बता दें। अगर आप को डॉयबिटीज़ है तो इस की जानकारी भी डाक्टर को होनी चाहिये क्योंकि एक्सरसाईज़ के दौरान ब्लड-शूगर का स्तर गिर सकता है ....हो सकता है कि डाक्टर टैस्ट करने से पूर्व आप के ब्लड-शूगर के स्तर की जांच कर के यह सुनिश्चित करना चाहे कि यह स्तर इतना कम नहीं है।
अगर टैस्टिंग वाले दिन आपने छाती में दर्द या भारीपन महसूस किया है तो टैस्टिंग रूम में डाक्टर अथवा किसी अन्य स्वास्थ्य-कर्मी को इस बारे में सूचित करें। ठीक टैस्ट से पहले कुछ भी लंबा-चौडा खाने से परहेज़ ही करें क्योंकि इस से एक्सरसाईज़ करने में असुविधा होती है।
कैसे होता है यह स्ट्रैस टैस्ट ? – सब से पहले लेटे हुये और खड़ी हुई अवस्था में आप की ई.सी.जी की जाती है। ब्लड-प्रैशर देखा जाता है। आप की बाजुओं एवं एक टांग के साथ एक टेप का इस्तेमाल करते हुये कुछ प्लासटिक कोटेड तारें अथवा लीड्स लगा दी जाती हैं जिन के द्वारा एक्सरसाईज़ के दौरान आप के हार्ट का इलैक्ट्रिक-पैटर्न रिकार्ड होता है। टैस्ट के दौरान आप का ब्लड-प्रैशर एवं हार्ट-रेट भी मॉनीटर किया जाता है। ट्रैडमिल पर आप को तकरीबन 10 मिनट तक चलना होता है।
लेकिन अगर टैस्ट के दौरान आप को छाती में दर्द या भारीपन सा लगे, सांस फूले, टांग में दर्द अथवा कमज़ोरी सी अनुभव हो, और इस के इलावा कुछ भी अजीब सा लगे और अगर टैस्ट के दौरान किसी भी स्टेज पर यह भी लगे कि आप और एक्सरसाईज़ नहीं कर पायेंगे तो इस के बारे में आप टैस्ट करने वाले व्यक्ति को बता दें। सामान्यतयः टैस्ट की अवधि समाप्त होने के पश्चात् आप का ब्लड-प्रैशर दोबारा देखा जायेगा।
अगर ट्रैडमिल पर चलते समय आप को छाती में डिस्कम्फर्ट महसूस हो, सांस फूले, अथवा सिर घूमने सा लगे ( chest discomfort, shortness of breath, or dizziness) और इन लक्षणों के साथ साथ ई.सी.जी में भी कुछ ऐसे बदलाव दिखें जिन से यह पता चले कि हार्ट के कुछ हिस्सों में रक्त की सप्लाई अपर्याप्त है तो इस से कॉरोनरी आर्टरी डिसीज़ होने का मजबूत संकेत मिलता है।
अगर आप बिनी किसी तरह के लक्षण के अथवा बिना किसी तरह के ई.सी.जी चेंजेज़ के यह टैस्ट कर पाते हैं तो इस की रिपोर्ट को नार्मल माना जाता है।
बहुत से लोगों को छाती में असुविधा तो होती है लेकिन ई.सी.जी चेंजेज़ नहीं होते अथवा कुछ लोगों में ईसीजी में बदलाव होने के बावजूद छाती में किसी प्रकार की असुविधा नहीं होती। इन केसों में इस एक्सरसाईज़ टैस्ट से कोई खास मदद नहीं मिलती और टैस्ट के रिजल्ट से यही मान कर चला जाता है कि कॉरोनरी आर्टरी डिसीज़ है तो लेकिन पक्का नहीं है। इसलिये ऐसे केसों में और भी कुछ टेस्ट किये जाते हैं ताकि किसी तरह का कोई संदेह न रहे।
कुछ हार्ट-डिसीज़ के मरीजों को इस टैस्ट के बारे में यह चिंता होती है कि यह करवाना कोई जोखिम मोल लेने के बराबर है, लेकिन यह ध्यान रहे कि अगर टैस्ट से पहले डाक्टर आप की जांच कर के यह देख लेता है कि आप यह टैस्ट करवाने के लिये सक्षम हैं तो यह बेहद सुरक्षित टैस्ट है।
टैस्ट समाप्त होने के बाद अगर आप की ब्लड-प्रैशर में बहुत ज़्यादा उछाल आता है अथवा एक्सरसाईज़ के दौरान यह अचानक नीचे गिर जाता है तो टैस्ट के कुछ मिनट के बाद एक नर्स आपका ब्लड-प्रैशर देखेगी। अगर आप को छाती में दर्द सा महसूस होने लगे, तो आप को डाक्टर द्वारा नाइट्रोग्लैसरिन की टेबलेट दी जा सकती है जिस से कि आप की खून की नाड़ियों को दवाई से थोड़ा खोल कर आप के हार्ट के ऊपर पड़ने वाले दबाव को कम किया जा सके ( If you develop chest pain, you might be given some nitroglycerin tablets to relieve the pain and lower the demand on your heart by dilating your blood vessels)..
बुधवार, 15 अक्तूबर 2008
आखिर कितनी ज़रूरी है यह ऐंजियोप्लास्टी ?
अमेरिका में जिन लोगों की बिना किसी एमरजैंसी के ( अर्थात् इलैक्टिव आप्रेशन की तरह से ) ऐंजियोप्लास्टी- Angioplasty - की गई , उन में से आधे से भी ज़्यादा मरीज ऐसे हैं जिन में रूकावट से ग्रस्त हार्ट की रक्त-नाड़ी ( artery) को खोलने के लिये जो आप्रेशन किया गया उस से पहले आप्रेशन का निर्णय लेने के लिये रिक्मैंडेड स्ट्रैस टैस्ट (Cardiac stress test) किया ही नहीं गया।
इस का खुलासा मेडिकेयर के रिकार्ड से पता चला है और इस बारे में एक रिपोर्ट जर्नल ऑफ अमेरिकन मैडीकल एसोसिएशन के अक्टूबर अंक में छपी है। जिस स्ट्रैस टैस्ट की यहां बात की जा रही है उस टैस्ट से पता चलता है कि किन मरीज़ों की हालत में ऐंजियोप्लास्टी अथवा स्टैंटिंग ( stenting) से सुधार होगा और किन में इस से लाभ नहीं होगा।
कैलीफोर्निया यूनिवर्सिटी की मैडीसन विभाग की प्रोफैसर एवं उन की टीम ने 24000 ऐसे मरीज़ों के रिकार्ड की जांच की जिन में जिन में इलैक्टिव परकूटेनियस कॉरोनरी इंटरवैंशन ( Elective Percutaneous Coronary Intervention ---PCI) की गई। इलैक्टिव शब्द का अर्थ यहां पर यह है कि इन मरीज़ों में PCI किसी तरह की एमरजैंसी से निपटने के लिये नहीं किया गया था। यहां यह बताना ज़रूरी है कि इसी PCI को ही आम भाषा में ऐंजियोप्लास्टी कह दिया जाता है।
सामान्यतः निर्दश कहते हैं कि ऐंजियोप्लास्टी का निर्णय लेने से पहले इन नान-एमरजैंसी केसों में ट्रैडमिल के ऊपर चलवा कर एक Stress-test किया जाए लेकिन रिपोर्ट में कहा गया है कि केवल 44.5 फीसदी लोगों का ही यह टैस्ट “ऐंजियोप्लास्टी” से पहले किया गया।
मैडीकल स्टडी करने वाले चिकित्सकों ने माना है कि ऐंजियोप्लास्टी से पहले Cardiac Stress test करने के लिये उपलब्ध दिशा-निर्देश उतने स्पष्ट हैं नहीं जितने कि ये होने चाहिये। अमेरिकन कालेज ऑफ कार्डियोलॉजी के द्वारा शीघ्र ही क्राईटीरिया जारी किया जायेगा कि किन केसों में ऐंजियोप्लास्टी करना मुनासिब है।
रिपोर्ट में 1994 में हुई एक स्टडी का भी उल्लेख है जिस ने यह निष्कर्ष निकाला था कि कार्डियक स्ट्रैस टैस्ट को पूरी तरह से यूटिलाइज़ नहीं किया जा रहा है।
इस तरह की काफी रिपोर्ट हैं जिन में यह निष्कर्ष सामने आया है कि जिन मरीज़ो में कारोनरी आर्टरी डिसीज़ ( coronary artery disease) – हार्ट ट्रबल- स्टेबल है, उन में इलाज के कुछ अहम् नतीजों ( मृत्यु एवं भविष्य में होने वाले हार्ट अटैक का खतरा) की तुलना करने पर यह पाया गया है कि जिन मरीज़ों का इलाज ऐंजियोग्राफी के साथ साथ उचित दवाईयों से किया गया और जिन मरीज़ों का इलाज केवल दवाईयों से किया गया ----दोनों ही श्रेणियों में उपरलिखित अहम् नतीजों में कोई अंतर नहीं पाया गया।
बहुत से प्रौफैशनल संगठनों ने एक जुट हो कर कहा है कि अगर stable coronary artery disease के केसों में ऐंजियोग्राफी करने से पहेल हार्ट में खून की सप्लाई की कमी ( ischemia) का डाक्यूमैंटरी प्रमाण मिल जाता है तो परिणाम बेहतर निकलते हैं। और इस का प्रमाण स्ट्रैस-टैस्ट से ही मिलता है।
ऐंजियोप्लास्टी के लिये गाइड-लाईन्ज़ पूरी तरह से स्पष्ट होनी चाहिये ----लेकिन जैसे कि मार्क ट्वेन ने कहा है --- To a man with a hammer, everything looks like a nail ---जिस आदमी के हाथ में हथौड़ी होती है उसे हर जगह कील ही दिखाई देते हैं, कार्डियोलॉजिस्ट को भी आत्म-नियंत्रण रखने की ज़रूरत है। With due respect to all colleagues, ये शब्द मैंने इस विषय़ से ही संबंधित किसी दूसरी रिपोर्ट में पड़े देखे हैं।
रिपोर्ट में कहा गया है कि स्ट्रैस-टैस्ट को नियमित रूप से किया जाना चाहिये –न कि केवल तब जब कि ऐंजियोप्लास्टी करने या न करने के बारे में निर्णय लेने की घड़ी ही आ जाए। ऐसा करने से मरीज़ का लंबे समय तक उचित मूल्यांकन किया जा सकेगा। यहां तक कि इस स्ट्रैस-टैस्ट को एक साल में एक बार किया जा सकता है...ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि सब कुछ ठीक ठाक है। लेकिन अफसोस यही है कि इसी बात को अकसर इगनोर किया जाता है।
The report says that there is no financial incentive to reduce the number of unnecessary angioplasties. To reward doctors and hospitals who stick to guidelines would improve safety and delivery of health care while decreasing medicare expenditure.
रिपोर्ट तो मैंने पहले भी कुछ देखी थीं जो बता रही थीं कि ऐंजियोप्लास्टी ज़रूरत से ज़्यादा हो रही हैं। मैं तो यही सोच रहा हूं कि अगर अमेरिका जैसे विकसित देश में यह सब कुछ हो रहा है तो हमारे लोगों का ……..!!! यहां तो लोग डाक्टर से प्रश्न पूछते हुये भी डरते हैं, एवीडैंस-बेसड मैडीकल प्रैक्टिस ( evidence-based medicine) के मायने तक वो जानते नहीं, और ऊपर से इस तरह के बड़े आप्रेशन के लिये भारी ब्याज दर पर उधार लेते हैं, इधर-उधर से पैसा पकड़ते हैं ....और उस के बावजूद भी अगर बाद में किसी से पता चले कि आप्रेशन की तो अभी ज़रूरत ही नहीं थी....अभी तो दवाईयों से ही काम चल सकता था-----ऊपर रिपोर्ट में आपने सब कुछ पढ़ ही लिया है।
अच्छा, अगली एक-दो पोस्टों में इस स्ट्रैस-टैस्ट के बारे में और ऐँजियोग्राफी के बारे में कुछ बातें करेंगे।
डिस्क्लेमर ---- मैडीकल राइटर होने के नाते मीडिया डाक्टर का प्रयास है कि पाठकों को चिकित्सा क्षेत्र की ताज़ा-तरीन सरगर्मियों से वाकिफ़ करवाया जा सके ----केवल मैडीकल फील्ड की सही तसवीर जो मुझे दिख रही है , उसी को आप तक पहुंचाना ही मेरा काम है और ये सभी लेख आप की जागरूकता बढ़ाने के लिये ही हैं। लेकिन अपनी सेहत के बारे में कोई भी निर्णय केवल इन लेखों के आधार पर न लें, बल्कि अपने फिजिशियन से परामर्श कर के ही कोई भी निर्णय लें। हां, यह हो सकता है कि अगर आप की जानकारी अपटुडेट है तो आप अगली बार अपने फिजिशियन से दो-तीन बहुत ही रैलेवेंट से प्रश्न पूछ सकते हैं जिन से आपकी ट्रीटमैंट-प्रणाली प्रभावित होती हो।
इस का खुलासा मेडिकेयर के रिकार्ड से पता चला है और इस बारे में एक रिपोर्ट जर्नल ऑफ अमेरिकन मैडीकल एसोसिएशन के अक्टूबर अंक में छपी है। जिस स्ट्रैस टैस्ट की यहां बात की जा रही है उस टैस्ट से पता चलता है कि किन मरीज़ों की हालत में ऐंजियोप्लास्टी अथवा स्टैंटिंग ( stenting) से सुधार होगा और किन में इस से लाभ नहीं होगा।
कैलीफोर्निया यूनिवर्सिटी की मैडीसन विभाग की प्रोफैसर एवं उन की टीम ने 24000 ऐसे मरीज़ों के रिकार्ड की जांच की जिन में जिन में इलैक्टिव परकूटेनियस कॉरोनरी इंटरवैंशन ( Elective Percutaneous Coronary Intervention ---PCI) की गई। इलैक्टिव शब्द का अर्थ यहां पर यह है कि इन मरीज़ों में PCI किसी तरह की एमरजैंसी से निपटने के लिये नहीं किया गया था। यहां यह बताना ज़रूरी है कि इसी PCI को ही आम भाषा में ऐंजियोप्लास्टी कह दिया जाता है।
सामान्यतः निर्दश कहते हैं कि ऐंजियोप्लास्टी का निर्णय लेने से पहले इन नान-एमरजैंसी केसों में ट्रैडमिल के ऊपर चलवा कर एक Stress-test किया जाए लेकिन रिपोर्ट में कहा गया है कि केवल 44.5 फीसदी लोगों का ही यह टैस्ट “ऐंजियोप्लास्टी” से पहले किया गया।
मैडीकल स्टडी करने वाले चिकित्सकों ने माना है कि ऐंजियोप्लास्टी से पहले Cardiac Stress test करने के लिये उपलब्ध दिशा-निर्देश उतने स्पष्ट हैं नहीं जितने कि ये होने चाहिये। अमेरिकन कालेज ऑफ कार्डियोलॉजी के द्वारा शीघ्र ही क्राईटीरिया जारी किया जायेगा कि किन केसों में ऐंजियोप्लास्टी करना मुनासिब है।
रिपोर्ट में 1994 में हुई एक स्टडी का भी उल्लेख है जिस ने यह निष्कर्ष निकाला था कि कार्डियक स्ट्रैस टैस्ट को पूरी तरह से यूटिलाइज़ नहीं किया जा रहा है।
इस तरह की काफी रिपोर्ट हैं जिन में यह निष्कर्ष सामने आया है कि जिन मरीज़ो में कारोनरी आर्टरी डिसीज़ ( coronary artery disease) – हार्ट ट्रबल- स्टेबल है, उन में इलाज के कुछ अहम् नतीजों ( मृत्यु एवं भविष्य में होने वाले हार्ट अटैक का खतरा) की तुलना करने पर यह पाया गया है कि जिन मरीज़ों का इलाज ऐंजियोग्राफी के साथ साथ उचित दवाईयों से किया गया और जिन मरीज़ों का इलाज केवल दवाईयों से किया गया ----दोनों ही श्रेणियों में उपरलिखित अहम् नतीजों में कोई अंतर नहीं पाया गया।
बहुत से प्रौफैशनल संगठनों ने एक जुट हो कर कहा है कि अगर stable coronary artery disease के केसों में ऐंजियोग्राफी करने से पहेल हार्ट में खून की सप्लाई की कमी ( ischemia) का डाक्यूमैंटरी प्रमाण मिल जाता है तो परिणाम बेहतर निकलते हैं। और इस का प्रमाण स्ट्रैस-टैस्ट से ही मिलता है।
ऐंजियोप्लास्टी के लिये गाइड-लाईन्ज़ पूरी तरह से स्पष्ट होनी चाहिये ----लेकिन जैसे कि मार्क ट्वेन ने कहा है --- To a man with a hammer, everything looks like a nail ---जिस आदमी के हाथ में हथौड़ी होती है उसे हर जगह कील ही दिखाई देते हैं, कार्डियोलॉजिस्ट को भी आत्म-नियंत्रण रखने की ज़रूरत है। With due respect to all colleagues, ये शब्द मैंने इस विषय़ से ही संबंधित किसी दूसरी रिपोर्ट में पड़े देखे हैं।
रिपोर्ट में कहा गया है कि स्ट्रैस-टैस्ट को नियमित रूप से किया जाना चाहिये –न कि केवल तब जब कि ऐंजियोप्लास्टी करने या न करने के बारे में निर्णय लेने की घड़ी ही आ जाए। ऐसा करने से मरीज़ का लंबे समय तक उचित मूल्यांकन किया जा सकेगा। यहां तक कि इस स्ट्रैस-टैस्ट को एक साल में एक बार किया जा सकता है...ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि सब कुछ ठीक ठाक है। लेकिन अफसोस यही है कि इसी बात को अकसर इगनोर किया जाता है।
The report says that there is no financial incentive to reduce the number of unnecessary angioplasties. To reward doctors and hospitals who stick to guidelines would improve safety and delivery of health care while decreasing medicare expenditure.
रिपोर्ट तो मैंने पहले भी कुछ देखी थीं जो बता रही थीं कि ऐंजियोप्लास्टी ज़रूरत से ज़्यादा हो रही हैं। मैं तो यही सोच रहा हूं कि अगर अमेरिका जैसे विकसित देश में यह सब कुछ हो रहा है तो हमारे लोगों का ……..!!! यहां तो लोग डाक्टर से प्रश्न पूछते हुये भी डरते हैं, एवीडैंस-बेसड मैडीकल प्रैक्टिस ( evidence-based medicine) के मायने तक वो जानते नहीं, और ऊपर से इस तरह के बड़े आप्रेशन के लिये भारी ब्याज दर पर उधार लेते हैं, इधर-उधर से पैसा पकड़ते हैं ....और उस के बावजूद भी अगर बाद में किसी से पता चले कि आप्रेशन की तो अभी ज़रूरत ही नहीं थी....अभी तो दवाईयों से ही काम चल सकता था-----ऊपर रिपोर्ट में आपने सब कुछ पढ़ ही लिया है।
अच्छा, अगली एक-दो पोस्टों में इस स्ट्रैस-टैस्ट के बारे में और ऐँजियोग्राफी के बारे में कुछ बातें करेंगे।
डिस्क्लेमर ---- मैडीकल राइटर होने के नाते मीडिया डाक्टर का प्रयास है कि पाठकों को चिकित्सा क्षेत्र की ताज़ा-तरीन सरगर्मियों से वाकिफ़ करवाया जा सके ----केवल मैडीकल फील्ड की सही तसवीर जो मुझे दिख रही है , उसी को आप तक पहुंचाना ही मेरा काम है और ये सभी लेख आप की जागरूकता बढ़ाने के लिये ही हैं। लेकिन अपनी सेहत के बारे में कोई भी निर्णय केवल इन लेखों के आधार पर न लें, बल्कि अपने फिजिशियन से परामर्श कर के ही कोई भी निर्णय लें। हां, यह हो सकता है कि अगर आप की जानकारी अपटुडेट है तो आप अगली बार अपने फिजिशियन से दो-तीन बहुत ही रैलेवेंट से प्रश्न पूछ सकते हैं जिन से आपकी ट्रीटमैंट-प्रणाली प्रभावित होती हो।
मंगलवार, 14 अक्तूबर 2008
कब्ज़ के इलाज के लिये क्यों न लें जुलाब !!
कब्ज़ का इलाज जानने से पहले यह समझना आवश्यक है कि कब्ज़ है क्या। यदि मल बहुत सख्त आए तो उसे कब्ज़ समझना चाहिए। यदि मल रोज न आए, परन्तु जब आए तो बहुत सख्त न हो तो उसे कब्ज़ नहीं कहेंगे। सख्त स्टूल यदि रोज आए तो फिर भी कब्ज़ समझकर उसका इलाज करना चाहिए।
सख्त मल को बाहर करने के लिये जोर लगाना पड़ता है, और उससे कई प्रकार की हानि हो सकती है। मल को नर्म करने के लिये आवश्यक है कि उस में पानी अधिक हो। मल में पानी अधिक तभी बचेगा यदि पानी का चूस लेने के लिये कुछ तत्व मल में हों। ऐसे तत्व भोजन के अपाच्य तत्व हैं, जो साबुत अनाज तथा दालों, और फल व सब्जियों में पाए जाते हैं। अपाच्य का अर्थ है कि वे छोटी आंत में पचते नहीं, और बिना हज़म हुए बिना बड़ी आंत में पहुंच जाते हैं। पानी चूस लेने के कारण वे बड़ी आंत में मल का आयतन बढ़ा देते हैं, और उसे नर्म कर देते हैं।
इसलिए यदि कब्ज़ हो तो
- हमें साबुत अनाज का प्रयोग करना चाहिए। यदि ऐसा न हो सके तो कम से कम छिलका हटाना चाहिए। अर्थात् हमारा आटा मोटा होना चाहिए, और उसे जाली में छानकर चोकर को फैंकना नहीं चाहिए। मैदे का प्रयोग कम से कम करना चाहिए।
-साबुत दालों का प्रयोग करना चाहिए। धुली हुई दालों में छिलका निकल जाने के कारण अपाच्य तत्व कम होते हैं।
हरी सब्जियों और फलों का अधिक प्रयोग करना चाहिए।
-जल अधिक पीना चाहिए ताकि अपाच्य तत्व काफी जल चूस सकें।
यदि फिर भी कब्ज ठीक न हो तो दिन में एक बार, एक या दो चम्मच ईसबगोल की भूसी को दूध या पानी में भिगो कर लेना चाहिए। ईसबगोल की भूसी एक बीज का ही छिलका है जिसमें पानी चूसने वाले अपाच्य तत्व बहुत मात्रा में होते हैं। इसलिए यह उतना ही प्राकृतिक तरीका है जितना साबुत दालें या फल व सब्जियां लेना है। इसे जुलाब नहीं समझना चाहिए। आहार में परिवर्तन के साथ साथ यदि थोड़ा व्यायाम भी कर लिया जाए तो कब्ज़ को लाभ होता है।
यह तो हुई करने वाली बातें। एक महत्वपूर्ण बात जो नहीं करनी चाहिए, वह यह है कि कब्ज़ के इलाज के लिए जुलाब नहीं लेने चाहिए।इसका कारण यह है कि जुलाब हमारी बड़ी आंत को इतना खाली कर देते हैं कि उसे भरने के लिए 2-3 दिन की आवश्यकता होती है। यदि कोई इतना समय धैर्य से प्रतीक्षा नहीं कर सकेगा तो वह फिर से जुलाब ले लेगा। जुलाब लेने से आंत फिर से खाली हो जाएगी, और इस प्रकार जुलाब लेने का सिलसिला चलता ही रहेगा।
तो आइए, बाईं तरफ दी गई चार तस्वीरों को देखते हैं और इस जुलाब न लेने के फंडे को समझने की कोशिश करते हैं। जब हम शौचालय जाते हैं तो बड़ी आंत का केवल थोड़ा सा ही भाग खाली होता है (1) खाली भाग को भरने के लिए प्रायः एक-दो दिन लग जाते हैं।
जुलाब से बड़ी आंत बहुत अधिक खाली हो जाती है (2)
फलस्वरूप अगले दिन (3) या उस से भी अगले दिन (4) बड़ी आंत इतनी भरी नहीं होती कि शौचालय जाने की इच्छा हो। ऐसी अवस्था में आवश्यकता है धैर्य की। यदि एक दिन और ठहर जायेंगे तो अपने आप ही बड़ी आंत इतनी भर जाएगी कि शौचालय जाने की इच्छा होगी।
रविवार, 12 अक्तूबर 2008
आइये, मैडीकल टैस्टों के बारे में जानें... 1. कार्डियक इको टैस्ट ( Cardiac Echo test)
इस टैस्ट का पूरा नाम है – ईकोकार्डियोग्राम – और यह दिल का अल्ट्रासाउंड है। एक ईकोकार्डियोग्राम के द्वारा डाक्टर किसी मरीज के हार्ट वाल्वस ( heart valves) चैक कर पाता है, उस के हार्ट के साइज़ का अनुमान लगा पाता है और इस बात का भी पता लगा पाता है कि मरीज का हार्ट अपनी काम कितना कुशलता से कर रहा है !
इस टैस्ट को करने के लिये किसी मरीज़ को एक टेबल पर लिटा देने के बाद एक क्लियर जैली को मरीज़ की छाती पर लगाया जाता है ताकि अल्ट्रासाउंड का सैंसर ( जो कि माइक्रोफोन की तरह दिखता है) मरीज़ की चमड़ी पर आसानी से मूव कर सके।
टैस्ट के दौरान मरीज के दिल की एक तस्वीर सामने पड़ी वीडियो-स्क्रीन पर आ जाती है। मरीज की छाती पर रखे अल्ट्रासाउंड सैंसर को आगे पीछे सरका कर डाक्टर हार्ट के विभिन्न व्यूज़ देख पाता है। कईं बार मशीन से आने वाली आवाज़ को भी ऑन ही रखा जाता है ताकि दिल की धड़कन एवं रक्त के बहाव की आवाज़ को सुना जा सके।
अगर डाक्टर मरीज के हार्ट को एक्शन में देखना चाहता है ( जब यह सख्त काम कर रहा होता है) ....तो मरीज़ की एक्ससाईज़ ईको ( Exercise Echo) की जाती है। इस एक्सरसाईज़ ईको में मरीज एक खड़ी हुई साईकिल पर पैडल मारता जाता है और इस के साथ साथ उस का ईकोकार्डियोग्राम होता जाता है।
एक दूसरी तरह का ईकोकार्डियोग्राम होता है –स्ट्रैस ईकोकार्डियोग्राम – इस टैस्ट को करने से पहले मरीज को एक इंजैक्शन दिया जाता है जिस से उस के हार्ट में रक्त का बहाव बढ़ जाता है।
ईकोकार्डियोग्राम करने से पहले मरीज को किसी तरह की तैयारी की ज़रूरत नहीं होती, इस टैस्ट में कोई भी रिस्क इंवाल्व नहीं है, और टैस्ट के बाद भी किसी भी विशेष बात का ध्यान रखने वाली कोई बात नहीं होती।
अगर यह टैस्ट एक डाक्टर करता है तो कुछ परिणाम मरीज़ को तुरंत ही पता चल जाते हैं। लेकिन अगर टैक्नीशियन यह टैस्ट करता है तो वह ईकोकार्डियोग्राम को एक वीडियो टेप पर रिकार्ड करता है जिसे बाद में कार्डियोलॉजिस्ट के द्वारा देखने पर रिपोर्ट तैयार की जाती है।
मुझे पूरी उम्मीद है कि आप इस टैस्ट को किसी भी तरह से इलैक्ट्रोकार्डिग्राम से कंफ्यूज़ नहीं कर रहे हैं--- Electrocardiogram यानि की ECG जिस से आप भली-भांति परिचित हैं।
इस टैस्ट को करने के लिये किसी मरीज़ को एक टेबल पर लिटा देने के बाद एक क्लियर जैली को मरीज़ की छाती पर लगाया जाता है ताकि अल्ट्रासाउंड का सैंसर ( जो कि माइक्रोफोन की तरह दिखता है) मरीज़ की चमड़ी पर आसानी से मूव कर सके।
टैस्ट के दौरान मरीज के दिल की एक तस्वीर सामने पड़ी वीडियो-स्क्रीन पर आ जाती है। मरीज की छाती पर रखे अल्ट्रासाउंड सैंसर को आगे पीछे सरका कर डाक्टर हार्ट के विभिन्न व्यूज़ देख पाता है। कईं बार मशीन से आने वाली आवाज़ को भी ऑन ही रखा जाता है ताकि दिल की धड़कन एवं रक्त के बहाव की आवाज़ को सुना जा सके।
अगर डाक्टर मरीज के हार्ट को एक्शन में देखना चाहता है ( जब यह सख्त काम कर रहा होता है) ....तो मरीज़ की एक्ससाईज़ ईको ( Exercise Echo) की जाती है। इस एक्सरसाईज़ ईको में मरीज एक खड़ी हुई साईकिल पर पैडल मारता जाता है और इस के साथ साथ उस का ईकोकार्डियोग्राम होता जाता है।
एक दूसरी तरह का ईकोकार्डियोग्राम होता है –स्ट्रैस ईकोकार्डियोग्राम – इस टैस्ट को करने से पहले मरीज को एक इंजैक्शन दिया जाता है जिस से उस के हार्ट में रक्त का बहाव बढ़ जाता है।
ईकोकार्डियोग्राम करने से पहले मरीज को किसी तरह की तैयारी की ज़रूरत नहीं होती, इस टैस्ट में कोई भी रिस्क इंवाल्व नहीं है, और टैस्ट के बाद भी किसी भी विशेष बात का ध्यान रखने वाली कोई बात नहीं होती।
अगर यह टैस्ट एक डाक्टर करता है तो कुछ परिणाम मरीज़ को तुरंत ही पता चल जाते हैं। लेकिन अगर टैक्नीशियन यह टैस्ट करता है तो वह ईकोकार्डियोग्राम को एक वीडियो टेप पर रिकार्ड करता है जिसे बाद में कार्डियोलॉजिस्ट के द्वारा देखने पर रिपोर्ट तैयार की जाती है।
मुझे पूरी उम्मीद है कि आप इस टैस्ट को किसी भी तरह से इलैक्ट्रोकार्डिग्राम से कंफ्यूज़ नहीं कर रहे हैं--- Electrocardiogram यानि की ECG जिस से आप भली-भांति परिचित हैं।
शनिवार, 11 अक्तूबर 2008
चिकन का लैग पीस या रैड-वाइन का एक अदद पैग !
चिकन की टांग को लैग पीस ही कहते हैं न, तो जापान में हुई एक रिसर्च का रिजल्ट निकला है कि लैग-पीस से ब्लड-प्रैशर कंट्रोल होता है – चूहों पर हुई रिसर्च से पता चला है। यह स्टडी किसी मीट-पैकर्स संगठन द्वारा की गई थी।
अमेरिका में हुई एक और स्टडी बता रही है कि जो लोग रैड वाइन पीते हैं उन में फेफड़े के कैंसर होने का खतरा कम हो जाता है। और साथ में यह भी बताया गया है कि यह फेफड़े कम होने का रिस्क उन लोगों में भी कम होता है जो स्मोकिंग कर रहे हैं और उन में भी जो पहले स्मोकिंग किया करते थे।
तो क्या अब समय आने वाला है कि डाक्टर लोग मरीजों को ब्लड-प्रैशर को काबू करने के लिये लैग-पीस के साथ साथ फेफड़ों के कैंसर के लिये रैड-वाइन पीने की हिदायत देने लगेंगे।
मुझे अफसोस है कि मुझे इस वाइन के बारे में कुछ भी पता वता नहीं है, यह रैड क्या है और व्हाइट वाइन क्या है, मुझे इस का बिल्कुल भी पता नहीं है।
लेकिन इन दोनों न्यूज़ को आप के साथ शेयर करने का केवल एक ही कारण था कि हम लोग इस बात का आभास कर सकें कि मैडीकल-राइटर का काम भी कितना चुनौतीपूर्ण है। अब इस तरह के चिकन के लैग-पीस या रैड-वाइन जैसी रिसर्चेज़ के रिजल्ट रोज़ाना एक मैडीकल-राइटर को दिखते रहते हैं। लेकिन किस तरह की रिसर्च के बारे में लिखा जाये और किस के बारे में चुप्पी साधी जाये, यह किसी मैडीकल-राइटर के सामने कोई बड़ा काम नहीं होता --- पहली बात तो यह है कि स्टडी किस स्टेज पर है , इस का ध्यान रखना भी ज़रूरी है। अब अगर चिकन के लैग-पीस ने चूहों का ब्लड-प्रैशर कम कर भी दिया है तो क्या हुआ। जब ह्यूमन-ट्रायल्स होंगे तो देखा जायेगा.....वैसे भी ब्लड-प्रैशर जैसी लाइफ-स्टाइल बीमारी के लिये केवल यह लैग-पीस वाली बात गले से नीचे नहीं उतरती ।
अब फेफड़े के कैंसर से बचने के लिये कैसे लोग रैड-वाइन रोजाना पीनी शुरू कर दें......और वह भी बीड़ी-सिगरटे छोड़े बिना -----हमारा मसला तो है कि हम लोग इस देश में कैसे तंबाकू से अपना पीछा छुड़ा सकें।
इन उदाहरणों से यह तो हमने देख ही लिया कि इंटरनैशनल मीडिया में मैडीकल रिसर्च का क्या रूख है ----हमारे अपने देश में हमारे लोगों की स्वास्थ्य समस्यायें अलग हैं, हमारी परिस्थितियां, हमारा परिवेश तो बिल्कुल अलग है.....हमारी ही क्यों, सभी देशों की अपनी समस्यायें हैं, संसाधन सीमित हैं, सामाजिक एवं आर्थिक परिस्थितियां बेहद जटिल हैं जिन्हें दो जमा दो चार के साधारण जोड़ के जैसे सुलटाया नहीं जा सकता।
कुछ इस तरह की मैडीकल रिसर्च हमारे सामने आती है जिस से किसी स्पोंसरशिप अथवा किसी घिनौने संकीण स्वार्थ की सड़ी बास आती है। तो मैडीकल राइटर को इस से भी बच कर रहना होता है।
विश्वसनीयता --- credibility – एक बहुत बड़ी बात है, इसलिये मैडीकल राइटर को इस के बारे में बेहद अलर्ट रहना होता है क्योंकि बहुत से लोग आप के लिखे अनुसार चलना भी शुरू कर देते हैं।
देश में हिंदी में मैडीकल-राइटिंग करने के लिये ज्यादा से ज़्यादा डाक्टरों को आगे आना चाहिये ताकि हम लोगों तक उन की ही भाषा में ही बिल्कुल सादे, सटीक ढंग से जानकारी उपलब्ध करवा सकें। और लिखते समय हमें बस इतना ध्यान रखना होगा कि कैसे हम लोग कुछ इस तरह के जमीन से जुड़े विषयों पर लिखें जिसे पढ़ कर लोगों में प्रचलित भ्रांतियों का भांडा फूटे, लोग बस थोड़ा सा अपनी जीवन-शैली के बारे में सोचने लगें, कुछ भी खाने से पहले उस के बारे में सोच लें, व्यसनों से होने वाले खतरनाक परिणामों से लोगों को कुछ इस तरह से रू-ब-रू करवायें कि हमारे लोग तरह तरह के व्यसनों से डरने लगें।
बस और क्या है, इस लिये इस देश में मैडीकल-राइटर्ज़ का अपना एक एजैंडा है जैसा कि बच्चों के बारे में लिखें तो उन की आम तकलीफों के बारे में ज़्यादा से ज़्यादा लिखें-----औरतों की आम शारीरिक समस्याओं के बारे में लिखे, कैंसर से रोकथाम की बातें करें.....लेकिन बातें सीधी-सीधी करें......ताकि लोग आसानी से हमारी कही हुई बात को अपने जीवन में उतारने का प्रयास तो कर सकें। लोगों की आम समस्याओं के बारे में लिखने को इतना कुछ है कि लगने लगा है कि यह काम तो पहाड़ जैसा है और हिंदी में मैडीकल-राइटिंग तो अभी शुरू ही नहीं हुई है। शायद उस चीनी कहावत का ध्यान कर ही मन को सांत्वना देनी होगी----तीन हज़ार किलोमीटर के सफर के शुरूआत पहले कदम से ही होती है।
अमेरिका में हुई एक और स्टडी बता रही है कि जो लोग रैड वाइन पीते हैं उन में फेफड़े के कैंसर होने का खतरा कम हो जाता है। और साथ में यह भी बताया गया है कि यह फेफड़े कम होने का रिस्क उन लोगों में भी कम होता है जो स्मोकिंग कर रहे हैं और उन में भी जो पहले स्मोकिंग किया करते थे।
तो क्या अब समय आने वाला है कि डाक्टर लोग मरीजों को ब्लड-प्रैशर को काबू करने के लिये लैग-पीस के साथ साथ फेफड़ों के कैंसर के लिये रैड-वाइन पीने की हिदायत देने लगेंगे।
मुझे अफसोस है कि मुझे इस वाइन के बारे में कुछ भी पता वता नहीं है, यह रैड क्या है और व्हाइट वाइन क्या है, मुझे इस का बिल्कुल भी पता नहीं है।
लेकिन इन दोनों न्यूज़ को आप के साथ शेयर करने का केवल एक ही कारण था कि हम लोग इस बात का आभास कर सकें कि मैडीकल-राइटर का काम भी कितना चुनौतीपूर्ण है। अब इस तरह के चिकन के लैग-पीस या रैड-वाइन जैसी रिसर्चेज़ के रिजल्ट रोज़ाना एक मैडीकल-राइटर को दिखते रहते हैं। लेकिन किस तरह की रिसर्च के बारे में लिखा जाये और किस के बारे में चुप्पी साधी जाये, यह किसी मैडीकल-राइटर के सामने कोई बड़ा काम नहीं होता --- पहली बात तो यह है कि स्टडी किस स्टेज पर है , इस का ध्यान रखना भी ज़रूरी है। अब अगर चिकन के लैग-पीस ने चूहों का ब्लड-प्रैशर कम कर भी दिया है तो क्या हुआ। जब ह्यूमन-ट्रायल्स होंगे तो देखा जायेगा.....वैसे भी ब्लड-प्रैशर जैसी लाइफ-स्टाइल बीमारी के लिये केवल यह लैग-पीस वाली बात गले से नीचे नहीं उतरती ।
अब फेफड़े के कैंसर से बचने के लिये कैसे लोग रैड-वाइन रोजाना पीनी शुरू कर दें......और वह भी बीड़ी-सिगरटे छोड़े बिना -----हमारा मसला तो है कि हम लोग इस देश में कैसे तंबाकू से अपना पीछा छुड़ा सकें।
इन उदाहरणों से यह तो हमने देख ही लिया कि इंटरनैशनल मीडिया में मैडीकल रिसर्च का क्या रूख है ----हमारे अपने देश में हमारे लोगों की स्वास्थ्य समस्यायें अलग हैं, हमारी परिस्थितियां, हमारा परिवेश तो बिल्कुल अलग है.....हमारी ही क्यों, सभी देशों की अपनी समस्यायें हैं, संसाधन सीमित हैं, सामाजिक एवं आर्थिक परिस्थितियां बेहद जटिल हैं जिन्हें दो जमा दो चार के साधारण जोड़ के जैसे सुलटाया नहीं जा सकता।
कुछ इस तरह की मैडीकल रिसर्च हमारे सामने आती है जिस से किसी स्पोंसरशिप अथवा किसी घिनौने संकीण स्वार्थ की सड़ी बास आती है। तो मैडीकल राइटर को इस से भी बच कर रहना होता है।
विश्वसनीयता --- credibility – एक बहुत बड़ी बात है, इसलिये मैडीकल राइटर को इस के बारे में बेहद अलर्ट रहना होता है क्योंकि बहुत से लोग आप के लिखे अनुसार चलना भी शुरू कर देते हैं।
देश में हिंदी में मैडीकल-राइटिंग करने के लिये ज्यादा से ज़्यादा डाक्टरों को आगे आना चाहिये ताकि हम लोगों तक उन की ही भाषा में ही बिल्कुल सादे, सटीक ढंग से जानकारी उपलब्ध करवा सकें। और लिखते समय हमें बस इतना ध्यान रखना होगा कि कैसे हम लोग कुछ इस तरह के जमीन से जुड़े विषयों पर लिखें जिसे पढ़ कर लोगों में प्रचलित भ्रांतियों का भांडा फूटे, लोग बस थोड़ा सा अपनी जीवन-शैली के बारे में सोचने लगें, कुछ भी खाने से पहले उस के बारे में सोच लें, व्यसनों से होने वाले खतरनाक परिणामों से लोगों को कुछ इस तरह से रू-ब-रू करवायें कि हमारे लोग तरह तरह के व्यसनों से डरने लगें।
बस और क्या है, इस लिये इस देश में मैडीकल-राइटर्ज़ का अपना एक एजैंडा है जैसा कि बच्चों के बारे में लिखें तो उन की आम तकलीफों के बारे में ज़्यादा से ज़्यादा लिखें-----औरतों की आम शारीरिक समस्याओं के बारे में लिखे, कैंसर से रोकथाम की बातें करें.....लेकिन बातें सीधी-सीधी करें......ताकि लोग आसानी से हमारी कही हुई बात को अपने जीवन में उतारने का प्रयास तो कर सकें। लोगों की आम समस्याओं के बारे में लिखने को इतना कुछ है कि लगने लगा है कि यह काम तो पहाड़ जैसा है और हिंदी में मैडीकल-राइटिंग तो अभी शुरू ही नहीं हुई है। शायद उस चीनी कहावत का ध्यान कर ही मन को सांत्वना देनी होगी----तीन हज़ार किलोमीटर के सफर के शुरूआत पहले कदम से ही होती है।
शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2008
कुछ बातें सेहत की ..
मुझे आज ही पता चला कि अमेरिका में लोग जितना पैसा अपने खाने पर खर्च करते हैं, उस का 95फीसदी हिस्सा वे प्रोसैसड फूड पर खर्च करते हैं। यह जानना मेरे लिये एक शॉक से कम न था। साथ ही में यह लिखा हुआ देख कर यह हैरत न हुई कि इसी की वजह से वहां पर आज की पीढ़ी पिछली पीढ़ी से कम जीती है।
परसों अमेरिका की सरकार की शारीरिक कसरत करने के बारे में सिफारिशें देखने का मौका मिला। उन की सिफारिश है कि हर व्यक्ति को हफ्ते में अढ़ाई घंटे शारीरिक परिश्रम करना चाहिये - रोजाना आधा घंटे, हफ्ते में पांच दिन और बच्चों के लिये कहा गया है कि उन का रोज़ाना एक घंटे अच्छी तरह से खेलना-कूदना निहायत ही ज़रूरी है। इसलिये अब बच्चों को भी टीवी या कंप्यूटर से जबरदस्ती उठा कर बाहर खेलने के लिये कहना होगा।
आपने सुना है न कि कईं बार बिलकुल छोटे बच्चे की सोते सोते ही मौत हो जाती है --इसे Sudden Infant Death Syndrome कहते हैं । वैज्ञानिकों ने इस की स्टडी करने के बाद पाया है कि अगर बच्चा किसी हवादार कमरे में सोया हुया है और जिस में मौसम के अनुसार पंखा चल रहा है तो इन छोटे नन्हे-मुन्नों को काफी हद तक अकाल मृत्यु का ग्रास बनने से बचाया जा सकता है। और साथ में यह भी बताया गया है कि बिल्कुल छोटे बच्चों को पेट के बल या साइड पोज़ में नहीं सुलाना चाहिये ----उन्हें पीठ के बल सुलाना चाहिये अर्थात् उन का मुंह छत की तऱफ़ होना चाहिये ( supine position) ---और न ही उन के मुंह को ढांप कर रखना चाहिये। होता क्या है कि इस Sudden Infant Death syndrome में बच्चा पेट के बल सोया पड़ा है, कमरे में हवा पूरी है नहीं, वैटीलेशन है नहीं तो ऐसे में उस के मुंह के पास बहुत मात्रा में कार्बन-डाई-आक्साईड गैसे जमा हो जाती है और जिसे बच्चे द्वारा इस्तेमाल किया जाने लगता है जो ऐसे अनहोनी का सबब बन जाती है जिस से बचा जा सकता था।
बच्चों के अनीमिया के बारे में पिछली पोस्ट मैंने लिखी थी। लेकिन क्या केवल आयरन फोलिक एसिड की गोलियां खा कर ही ठीक हो जायेगा अनीमिया ---- बच्चों में अनीमिया ठीक करने के लिये हमें उस की डि-वर्मिंग ( de-worming) भी करनी होगी ---अर्थात् उसे डाक्टरी सलाह के अनुसार पेट के कीड़े मारने की दवा भी देनी होगी। चिकित्सा वैज्ञानिकों ने देखा है कि जिन बच्चों में कीड़े नहीं होते उन में वैक्टीनेशन के परिणाम दूसरे बच्चों की बजाए बेहतर होते हैं ।और यह तो हम जानते ही हैं कि पेट में कीड़े बच्चे के अनीमिया को कैसे ठीक होने देंगे !!
डि-वर्मिंग के साथ-साथ हमें बच्चे को विटामिन-ए सप्लीमैंटेशन देना भी बेहद ज़रूरी है ....बच्चों को विटामिन -ए सप्लीमैंटेशन देने का भी अपना एक शैड्यूल है । ठीक है, अगर आपने नहीं दिया तो आज ही बाल-रोग विशेषज्ञ से बात करें और उसे विटामिन-ए सप्लीमैंट्स दें। यह उस के शरीर में विटामिन ए का रिज़र्व स्टाक तैयार करने के लिये एवं उस के नार्मल विकास के लिये बेहद ज़रूरी है। देश में तो कुछ बच्चों में रतौंधी रोग ( रात में दिखाई न देना) होने का कारण ही यह विटामिन ए की घोर कमी होती है। वैसे भी बच्चे आज कल जो खा-पी रहे हैं और जो खा भी रहे हैं वह कितना शुद्ध है, कितना मिलावटी -----तो इस हालात में तो बच्चों को ये सप्लीमैंट्स देने बहुत ही ज़रूरी हैं।
अभी मैं जब कीडे़ मारने के दवा का ज़िक्र कर रहा था तो मुझे आज सुबह के पेपर में पढ़ी एक बेहद दुःखद घटना का ध्यान आ गया ....चूहे मारने की दवा तो आप को पता ही है कि कितनी आसानी से मिल जाती है । तो बंबई की एक इमारत में एक परिवार जो कि ग्राउंड फ्लोर पर रहता था वह चूहों से बेहद परेशान था। इसलिये ब्रेड पर अकसर चूहे मारने वाली दवाई लगा कर किचन में रख देते थे। एक दो पहले भी यही हुआ । लेकिन अचानक उन का प्लस दो कक्षा में पढ़ रहा बेटा बाहर से आया जिसे बहुत भूख लगी हुई थी और जिस ने तुरंत वह ब्रेड-पीस खा लिया। उसे तुरंत उल्टियां शुरू हो गईं और हस्पताल पहुंचने तक बेचारे की मौत हो गई। बेहद दुःखद समाचार।
मैंने देखा है कि अकसर लोग ऐसे काम रात को सोने से पहले करते हैं ---और घर में सब को थोड़ा पहले से बता कर रखते हैं। लेकिन लगता है कि वो जो पहले रैट-ट्रैप हुया करते थे ....वे भी ठीक ही थे ....वो बात अलग है कि चूहा अब आप की रसोई में ना रह कर चार बिल्डिंग दूर किसी दूसरे के सिर का दर्द बनेगा। लेकिन मुझे याद है कि जब हम छोटे थे तो किसी रैट-ट्रैप में पकड़े चूहे को साईकिल पर सवार हो कर किसी दूर जगह छोड़ने जाने का काम भी अच्छा खासा रोमांचक हुआ करता था। साथ में कुछ यार-दोस्त मिल कर इस काम को और भी रोमांचक बना दिया करते थे। और उस रैट-ट्रैप की यही खासियत हुआ करती थी कि उस में चूहा मरता नहीं था, केवल उस के अंदर बंद हो जाया करता था जिसे इस मौह्लले वाले उस मौहल्ले में और उस मौह्लले वाले इस मौह्लले की नाली या थोडी़ खाली पड़ी जगह में छोड़ कर बिना वजह निश्चिंत से हो लिया करते थे ....चाहे आज सोचूं तो इस निश्चिंता की कोई खास वजह तो जान पड़ती नहीं ...क्यों कि चूहों की गिनती तो उतनी की उतनी ही रही। वैसे एक बात है कि अगर गल्ती से (?) या जान-बूझ कर चूहा उस रैट-ट्रैप से रिहा कर अपने ही गली-मोह्लले के किसी घर में घुस जाता था तो लड़ने-लड़ाने की नौबत आती भी देखी है।
उस के बाद आये ऐसे रैट-ट्रैप जिस जो देखने में तो छोटे थे ....लेकिन थे बहुत नृशंस ....यानि कि चूहा उन के अंदर कैद तो हो ही जाता था और साथ में एक कील उस के शरीर में घुस जाया करता था जिस की वजह से उस की मौत हो जाया करती थी और लोग किसी तरह का चांस न लेने की मंशा से आटे की गोली के साथ रैट-प्वाईज़न तो लगा ही देते थे । और फिर उस मृत प्राणी को घर के बाहर की नाली में फैंक दिया जाता था। सोच रहा हूं कि समय के साथ साथ हम लोग भी कितने क्रूर हो गये हैं।
लेकिन जो भी हो, जब बंबई जैसा हादसा ,जैसा उस 17 साल के लड़के के साथ हुआ, कभी कभार हो जाता है तो इतना दुःख होता है कि ब्यां नहीं किया जा सकता। लेकिन ये हादसे ........पंजाब में तीन-चार पहले हुये एक हादसे की याद हरी हो गई। एक मजदूर के पांच-छः छोटे छोटे बच्चे अपनी मां के साथ मस्ती करने में मशगूल थे और वह खाना बना रही थी। इतने में उसे चंद लम्हों के लिये कमरे से बाहर जाना पड़ा ---बच्चों को मस्ती सूझी, बड़ा ट्रंक साथ ही खुला पड़ा हुया था...वे सारे के सारे --एक को छोड़ कर जो इतना छोटा था कि अंदर नहीं जा सकता था ...उस ट्रंक के अंदर घुस गये और तभी अचानक ट्रंक का दरवाजा हो गया बंद और उन के वह खुल नहीं पाया। मां अंदर आई..बच्चों को ढूंढने लगी ...लेकिन जब तक वह कुछ समझ पाई बहुत देर हो चुकी थी और सभी बच्चों का दम घुट चुका था ।
ऐसे दर्दनाक हादसे हमें चीख-चीख कर, छाती पीट पीट कर कुछ सोचने के लिये मजबूर करते हैं ।
परसों अमेरिका की सरकार की शारीरिक कसरत करने के बारे में सिफारिशें देखने का मौका मिला। उन की सिफारिश है कि हर व्यक्ति को हफ्ते में अढ़ाई घंटे शारीरिक परिश्रम करना चाहिये - रोजाना आधा घंटे, हफ्ते में पांच दिन और बच्चों के लिये कहा गया है कि उन का रोज़ाना एक घंटे अच्छी तरह से खेलना-कूदना निहायत ही ज़रूरी है। इसलिये अब बच्चों को भी टीवी या कंप्यूटर से जबरदस्ती उठा कर बाहर खेलने के लिये कहना होगा।
आपने सुना है न कि कईं बार बिलकुल छोटे बच्चे की सोते सोते ही मौत हो जाती है --इसे Sudden Infant Death Syndrome कहते हैं । वैज्ञानिकों ने इस की स्टडी करने के बाद पाया है कि अगर बच्चा किसी हवादार कमरे में सोया हुया है और जिस में मौसम के अनुसार पंखा चल रहा है तो इन छोटे नन्हे-मुन्नों को काफी हद तक अकाल मृत्यु का ग्रास बनने से बचाया जा सकता है। और साथ में यह भी बताया गया है कि बिल्कुल छोटे बच्चों को पेट के बल या साइड पोज़ में नहीं सुलाना चाहिये ----उन्हें पीठ के बल सुलाना चाहिये अर्थात् उन का मुंह छत की तऱफ़ होना चाहिये ( supine position) ---और न ही उन के मुंह को ढांप कर रखना चाहिये। होता क्या है कि इस Sudden Infant Death syndrome में बच्चा पेट के बल सोया पड़ा है, कमरे में हवा पूरी है नहीं, वैटीलेशन है नहीं तो ऐसे में उस के मुंह के पास बहुत मात्रा में कार्बन-डाई-आक्साईड गैसे जमा हो जाती है और जिसे बच्चे द्वारा इस्तेमाल किया जाने लगता है जो ऐसे अनहोनी का सबब बन जाती है जिस से बचा जा सकता था।
बच्चों के अनीमिया के बारे में पिछली पोस्ट मैंने लिखी थी। लेकिन क्या केवल आयरन फोलिक एसिड की गोलियां खा कर ही ठीक हो जायेगा अनीमिया ---- बच्चों में अनीमिया ठीक करने के लिये हमें उस की डि-वर्मिंग ( de-worming) भी करनी होगी ---अर्थात् उसे डाक्टरी सलाह के अनुसार पेट के कीड़े मारने की दवा भी देनी होगी। चिकित्सा वैज्ञानिकों ने देखा है कि जिन बच्चों में कीड़े नहीं होते उन में वैक्टीनेशन के परिणाम दूसरे बच्चों की बजाए बेहतर होते हैं ।और यह तो हम जानते ही हैं कि पेट में कीड़े बच्चे के अनीमिया को कैसे ठीक होने देंगे !!
डि-वर्मिंग के साथ-साथ हमें बच्चे को विटामिन-ए सप्लीमैंटेशन देना भी बेहद ज़रूरी है ....बच्चों को विटामिन -ए सप्लीमैंटेशन देने का भी अपना एक शैड्यूल है । ठीक है, अगर आपने नहीं दिया तो आज ही बाल-रोग विशेषज्ञ से बात करें और उसे विटामिन-ए सप्लीमैंट्स दें। यह उस के शरीर में विटामिन ए का रिज़र्व स्टाक तैयार करने के लिये एवं उस के नार्मल विकास के लिये बेहद ज़रूरी है। देश में तो कुछ बच्चों में रतौंधी रोग ( रात में दिखाई न देना) होने का कारण ही यह विटामिन ए की घोर कमी होती है। वैसे भी बच्चे आज कल जो खा-पी रहे हैं और जो खा भी रहे हैं वह कितना शुद्ध है, कितना मिलावटी -----तो इस हालात में तो बच्चों को ये सप्लीमैंट्स देने बहुत ही ज़रूरी हैं।
अभी मैं जब कीडे़ मारने के दवा का ज़िक्र कर रहा था तो मुझे आज सुबह के पेपर में पढ़ी एक बेहद दुःखद घटना का ध्यान आ गया ....चूहे मारने की दवा तो आप को पता ही है कि कितनी आसानी से मिल जाती है । तो बंबई की एक इमारत में एक परिवार जो कि ग्राउंड फ्लोर पर रहता था वह चूहों से बेहद परेशान था। इसलिये ब्रेड पर अकसर चूहे मारने वाली दवाई लगा कर किचन में रख देते थे। एक दो पहले भी यही हुआ । लेकिन अचानक उन का प्लस दो कक्षा में पढ़ रहा बेटा बाहर से आया जिसे बहुत भूख लगी हुई थी और जिस ने तुरंत वह ब्रेड-पीस खा लिया। उसे तुरंत उल्टियां शुरू हो गईं और हस्पताल पहुंचने तक बेचारे की मौत हो गई। बेहद दुःखद समाचार।
मैंने देखा है कि अकसर लोग ऐसे काम रात को सोने से पहले करते हैं ---और घर में सब को थोड़ा पहले से बता कर रखते हैं। लेकिन लगता है कि वो जो पहले रैट-ट्रैप हुया करते थे ....वे भी ठीक ही थे ....वो बात अलग है कि चूहा अब आप की रसोई में ना रह कर चार बिल्डिंग दूर किसी दूसरे के सिर का दर्द बनेगा। लेकिन मुझे याद है कि जब हम छोटे थे तो किसी रैट-ट्रैप में पकड़े चूहे को साईकिल पर सवार हो कर किसी दूर जगह छोड़ने जाने का काम भी अच्छा खासा रोमांचक हुआ करता था। साथ में कुछ यार-दोस्त मिल कर इस काम को और भी रोमांचक बना दिया करते थे। और उस रैट-ट्रैप की यही खासियत हुआ करती थी कि उस में चूहा मरता नहीं था, केवल उस के अंदर बंद हो जाया करता था जिसे इस मौह्लले वाले उस मौहल्ले में और उस मौह्लले वाले इस मौह्लले की नाली या थोडी़ खाली पड़ी जगह में छोड़ कर बिना वजह निश्चिंत से हो लिया करते थे ....चाहे आज सोचूं तो इस निश्चिंता की कोई खास वजह तो जान पड़ती नहीं ...क्यों कि चूहों की गिनती तो उतनी की उतनी ही रही। वैसे एक बात है कि अगर गल्ती से (?) या जान-बूझ कर चूहा उस रैट-ट्रैप से रिहा कर अपने ही गली-मोह्लले के किसी घर में घुस जाता था तो लड़ने-लड़ाने की नौबत आती भी देखी है।
उस के बाद आये ऐसे रैट-ट्रैप जिस जो देखने में तो छोटे थे ....लेकिन थे बहुत नृशंस ....यानि कि चूहा उन के अंदर कैद तो हो ही जाता था और साथ में एक कील उस के शरीर में घुस जाया करता था जिस की वजह से उस की मौत हो जाया करती थी और लोग किसी तरह का चांस न लेने की मंशा से आटे की गोली के साथ रैट-प्वाईज़न तो लगा ही देते थे । और फिर उस मृत प्राणी को घर के बाहर की नाली में फैंक दिया जाता था। सोच रहा हूं कि समय के साथ साथ हम लोग भी कितने क्रूर हो गये हैं।
लेकिन जो भी हो, जब बंबई जैसा हादसा ,जैसा उस 17 साल के लड़के के साथ हुआ, कभी कभार हो जाता है तो इतना दुःख होता है कि ब्यां नहीं किया जा सकता। लेकिन ये हादसे ........पंजाब में तीन-चार पहले हुये एक हादसे की याद हरी हो गई। एक मजदूर के पांच-छः छोटे छोटे बच्चे अपनी मां के साथ मस्ती करने में मशगूल थे और वह खाना बना रही थी। इतने में उसे चंद लम्हों के लिये कमरे से बाहर जाना पड़ा ---बच्चों को मस्ती सूझी, बड़ा ट्रंक साथ ही खुला पड़ा हुया था...वे सारे के सारे --एक को छोड़ कर जो इतना छोटा था कि अंदर नहीं जा सकता था ...उस ट्रंक के अंदर घुस गये और तभी अचानक ट्रंक का दरवाजा हो गया बंद और उन के वह खुल नहीं पाया। मां अंदर आई..बच्चों को ढूंढने लगी ...लेकिन जब तक वह कुछ समझ पाई बहुत देर हो चुकी थी और सभी बच्चों का दम घुट चुका था ।
ऐसे दर्दनाक हादसे हमें चीख-चीख कर, छाती पीट पीट कर कुछ सोचने के लिये मजबूर करते हैं ।
रविवार, 5 अक्तूबर 2008
बच्चों में खून की कमी की तरफ़ ध्यान देना होगा ..
आज सुबह इंडियन कांउसिल ऑफ मैडीकल रिसर्च द्वारा फरवरी 2008 में बच्चों में खून की कमी ( Workshop on Child Anaemia) के विषय पर रखी एक वर्कशाप की सिफारिशें पढ़ रहा था जो मुझे बेहद महत्त्वपूर्ण लगीं औरजिन का सार प्रस्तुत कर रहा हूं।
2005-06 में जो नैशनल फैमली हैल्थ सर्वे हुआ है उस से पता चला है कि तीन साल से कम उम्र के चार में से तीनबच्चों में खून की कमी है। और जो एक बच्चा बचा है उस में भी ऑयरन की कमी हो सकती है अलबत्ता यह होसकता है कि वह एनीमिया( खून की कमी) के रूप में प्रकट न हुई हो। और जिन बच्चों में एनीमिया की समस्या हैउन तीन बच्चों में से दो बच्चों की एनीमिया की समस्या काफी विकट है। इन आंकड़ों से पता चलता है कि बच्चों मेंखून की कमी कितनी विकट एवं आम समस्या है और इस कमी की वजह से उन के शारीरिक एवं मानसिकविकास पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। यही वजह है कि बच्चों में एनीमिया की रोकथाम एवं उपचार को इतनामहत्त्व दिया जा रहा है।
वर्कशाप के शुरूआत में इस समस्या के लिये आज कल चल रही स्ट्रैट्जी पर टिप्पणी करते हुये बताया गया किआज तक सिस्टम यह है कि हर बच्चे की एनीमिया के लिये क्लीनिक जांच की जाये और जिस में खून की कमीलगे उन को 100 दिनों तक ऑयरन एवं फोलिक एसिड (IFA) की टेबलेट खिलाई जायें – ऐसी एक टेबलेट में 20 मि.ग्राम एलीमैंटल ऑयरन और 100 माइक्रोग्राम फोलिक एसिड होता है। विभिन्न कारणों की वजह से इसस्ट्रैट्जी को फिर से विशेषज्ञों द्वारा जांचने की ज़रूरत महसूस हो रही थी । इस वर्कशाप में जिन विशेषज्ञों ने भागलिया उन में से न्यूट्रीशन, चाइल्ड-हैल्थ, मैटरनल हैल्थ एवं पब्लिक हैल्थ की बैक-ग्राऊंड वाले लोग शामिल थे।
तो आइये इस वर्कशाप की बेहद महत्त्वपूर्ण सिफारिशों पर एक नज़र डालते हैं –
ऑयरन एवं फोलिक एसिड सप्लीमैंटेशन एहतियात के तौर पर पांच साल से कम उम्र के सभी बच्चों को दी जानी चाहियें – ना कि केवल उन बच्चों को जिनमें क्लीनिक्ली अनिमिया पाया गया हो।
वर्कशाप में इस बात की भी सिफारिश की गई कि पांच साल तक के बच्चों को आयरन एवं फोलिक एसिड को एक सिरिप के रूप में दिया जाना चाहिये – जिसे 100मिलीलिटर की प्लास्टिक की बोतलों में सप्लाई किया जा सकताहै जिस के साथ एक ऐसा डिस्पैंसर हो जिस से एक बार में 1 मिलीलिटर सिरिप ही निकाला जा सके।
यह सिफारिश की गई कि जैसे ही बच्चे के छःमहीने का हो जाने के बाद जब बच्चे की माता का किसी स्वास्थ्य-कार्यकर्त्ता से संपर्क हो उस समय यह आयरन एवं फोलिक एसिड सप्लीमैंटेशन शुरू हो जानी चाहिये। खसरे केइंजैक्शन के समय ( measles) अकसर मातायें स्वास्थ्य कर्मीयों के संपर्क में आती हैं और यही समय इससप्लीमैंटेशन को शुरू करने के लिये बहुत उपयुक्त है। लेकिन एक बात का ध्यान रहे कि जिन बच्चों का जन्म केसमय वजन कम था उन में यह सप्लीमैंटेशन तो उन के दो महीने के होने पर ही शुरू कर देनी चाहिये – वर्ल्ड हैल्थआर्गेनाइज़ेशन की भी यही सिफारिश है।
वर्कशाप में यह भी सिफारिश की गई कि यह जानने के लिये कि किसी बच्चे को एनीमिया है कि नहीं ताकि उस को यह सिरिप दिया जाना शुरू किया जा सके ---इस के लिये उस की स्क्रीनिंग करने की ज़रूरत नहीं है। लेकिन अगर हैल्थ-वर्कर को लगता है कि किसी बच्चे को अनीमिया कुछ ज़्यादा ही है तो उसे आयरन फोलिक एसिड सिरिप देने के साथ साथ मैडीकल एडवाईज़ एवं इलाज के लिये प्राइमरी हैल्थ सैंटर भी भेजा जाये।
आयरन एवं फोलिक एसिड की सप्लीमैंटेशन छः महीने से लेकर 60 महीने के बच्चों तक सभी को दी जानी चीहिये – और यह सप्लीमैंटेशन हर वर्ष 100 दिनों तक दी जानी चाहिये।
इस के इलावा वर्कशाप की कुछ ऐसी सिफारिशें हैं जो थोड़ी ज़्यादा ही टैक्नीकल होने की वजह से इस लेख में डालनेयोग्य नहीं हैं....ये ज्यादातर पालिसी-मेकर्स के लिये हैं जैसे कि ICDS सप्लीमैंटरी न्यूट्रीशन को ऑयरन एवं अन्यमाइक्रोन्यूट्रीएंटस से फार्टीफाई करने की बात की गई है, हमारे स्टैपल खाने ( staple foods) की भी ऑयरनफार्टीफिकेशन करने की तरफ़ इशारा किया गया है।
जब बच्चे को कोई बुखार वगैरह हो या कोई और बीमारी हो तो उन चंद दिनों के लिये इस सिरिप को उसे न दियाजाये और बच्चे के तंदरूस्त होते ही उसे दोबारा शुरू कर दिया जाना चाहिये।
जिन बच्चों के पेट में कीड़े हैं, उन को उपयुक्त दवाई देने की भी बात कही गई है।
अंत में एक प्वाईंट यह भी कहा गया कि चाहे किशोरावस्था में आने वाले बड़े बच्चे चाइल्ड-एनीमिया के अंतर्गतनहीं आते, लेकिन उन का भी अनीमिया से बचाव ज़रूरी है। किशोर युवकों को भी एहतियात के तौर पर ऑयरनसप्लीमैंटेशन दी जानी चाहिये।
शनिवार, 4 अक्तूबर 2008
श्रृंखला ---कैसे रहेंगे गुर्दे एक दम फिट !! ....भाग दो
हां, तो पिछली कड़ी को मैंने यह सवाल पूछ कर बंद किया था कि आप के घर में कितने मैंबर हैं और महीने में नमक की खपत कितनी है !!
दो जवाब मिले हैं....एक बंधु ने बताया है कि परिवार में छः सदस्य हैं और महीने में लगभग डेढ़ किलो नमक इस्तेमाल हो जाता है। दूसरे मित्र ने लिखा है कि घर में चार लोगों के लिये आधे किलो नमक की थैली तीन महीने चलती है।
मैं जब से भी स्कूल-कालेज में पढ़ने लगा तो मुझे यह सब आंकड़े सुन सुन कर बहुत ही ज़्यादा चिड़ सी हुआ करती थी कि यार, यह फलां विटामिन इतने मिलिग्राम----फलां एलीमैंट इतने माइक्रोग्राम और फलां इतने इंटरनैशनल यूनिट्स। मुझे हमेशा से यही लगता रहा है और अभी भी लगता है कि यार, यह तो एक ले-मैन के साथ एक अच्छा खासा मजाक ही हो गया.....अब कौन बंदा है जो अपने काम-धंधे छोड़ कर अपने संतुलित आहार के चक्कर में तरह तरह के तत्वों की नाप-तौल करता फिरे...........यह बिलकुल भी व्यावहारिक है ही नहीं !! हम लोग डाक्टर हैं ---जब हम लोग खुद कभी इस तरह के माप-तोल के चक्कर में पड़े नहीं तो किसी नान-मैडीकल बंदे से हम यह अपेक्षा भी आखिर कैसे कर सकते हैं।
आप किसी को अगर कहें कि देखो तुम केवल रोज़ाना केवल चार ग्राम नमक का सेवन ही कर सकते हो, तो उस का सिरदर्द होना लाज़मी है कि आखिर अब कैसे हिसाब रखें कि मैं चार ग्राम खा रहा हूं या दस ग्राम।
तो मैं अपनी इस श्रृंखला में गुर्दै के रोगों से बचने की बातें कर रहा हूं। गुर्दे के रोगों से बचने के लिये हमें नमक पर पूरा कंट्रोल करना ही होगा। उसी ट्रेनिंग प्रोग्राम के दौरान जब नमक की बात चल रही थी तो एक सुझाव आया कि हमें लोगों को सीधे सरल तरीके से संदेश पहुंचाना चाहिये जैसे कि चार जनों के परिवार में महीने भर की नमक की खपत केवल आधा किलोग्राम( 500ग्राम) होनी चाहिये।
अब इस मापदंड से देखा जाये तो जो दो जवाब मुझे मिले हैं उन में से पहले केस में छः जनों के परिवार में नमक की खपत 750 ग्राम से ज़्यादा होनी ही नहीं चाहिये। और दूसरे केस में नमक की खपत काफी कम है----चलिये, उस के बारे में तो हम लोग ज़्यादा कमैंट नहीं कर सकते।
मद्रास में हुई ट्रेनिंग प्रोग्राम के दौरान मैं एक महिला नैफ्रोलाजिस्ट के मुंह से यह सुन कर हैरान रह गया कि तमिलनाडू में लोग अकसर रिक्मैंडिड अलाऊंस से दस गुणा ज़्यादा तक नमक खपा जाते हैं। वैसे तमिलनाडू ही क्यों, मुझे तो लगता है कि देश के विभिन्न भागों में नमक का बहुत ज़्यादा इस्तेमाल होता है।
अब नमक के ज़्यादा इस्तेमाल से हमारे उच्च ब्लड-प्रैशर का बिलकुल सीधा संबंध है। और उसी को कम करने के लिये हमें डाक्टरों के चक्कर में पड़ना पड़ता है, तरह तरह के दूसरे “साल्ट” ( दवाईयां) खाने पड़ते हैं और अगर उन से भी यह ब्लड-प्रैशर कंट्रोल में न आये तो अपने गुर्दै, हृदय आदि के स्वास्थय को जोखिम में डालना पड़ता है।
एक बात का ध्यान रखियेगा कि जब यह चार लोगों के लिये आधा किलो नमक की रिक्मैंडेशन दी गई है तो इस में उस नमक को तो कंसिडर ही नहीं किया गया है जो हम घर के बाहर तरह तरह के ऊल-जलूल स्नैक्स, फास्ट-फूड्स के चक्कर में खाते रहते हैं। तो, कहने से अभिप्रायः यही है कि उस आधा किलो वाली बात को मानने में बहुत दम है।
वहां बात आचार की भी हुई कि आचार में तो नमक ठूंसा हुया होता है । लोग चाहे जितना भी कह लें कि हम तो भई इस नमक को कम करने के लिये आचार को खाने से पहले धो लेते हैं लेकिन सच्चाई यह है कि इस से कुछ खास फर्क पड़ता नहीं है क्योंकि नमक तो आचार में पूरी तरह से रच-बस गया होता है।
जाते जाते एक बात करनी है......अकसर हम लोग यह तो सुन लेते हैं कि इतने कार्बौ खायें, इतने प्रोटीन खायें ...इतने फलां-2 तत्व लें....लेकिन आखिर इस के बारे में बिल्कुल सही पता कहां से लगे। तो, इस के लिये इंडियन कांउस्लिंग आफ मैडीकल रिसर्च ने एक बहुत ही बढ़िया पुस्तक छापी हुई है .....Nutritive value of Indian foods….इस में सभी तरह के भारतीय खाद्य पदार्थों की पौष्टिकता के बारे में चर्चा की गई है। मैंने शायद 15 साल पहले इसे ICMR, New Delhi से 30-40रूपये में खरीदा था .....इस में इडली, चपाती, वड़ा, सभी इंडियन फ्रूट्स, सभी इंडियन सब्जियों की पौष्टिकता का पूरा विश्लेषण किया गया है कि किस खाद्य में कितने प्रोटीन, कितने कार्बौहाइड्रेट्स , कितनी वसा है, कितना सोडियम है , कितना पोटाशियम है, कितना कैल्शीयम है.....वगैरह वगैरह ...........सब कुछ बहुत ही विस्तार से लिखा गया है।
वैसे एक इडली में एक सौ कैलरीज़ होती हैं। सोच रहा हूं कि किसी दिन बहुत ही प्रचलित खाद्य पदार्थों का एक टेबल उस ICMR वाली किताब से चुराकर आप तक पहुंचाऊंगा।
दो जवाब मिले हैं....एक बंधु ने बताया है कि परिवार में छः सदस्य हैं और महीने में लगभग डेढ़ किलो नमक इस्तेमाल हो जाता है। दूसरे मित्र ने लिखा है कि घर में चार लोगों के लिये आधे किलो नमक की थैली तीन महीने चलती है।
मैं जब से भी स्कूल-कालेज में पढ़ने लगा तो मुझे यह सब आंकड़े सुन सुन कर बहुत ही ज़्यादा चिड़ सी हुआ करती थी कि यार, यह फलां विटामिन इतने मिलिग्राम----फलां एलीमैंट इतने माइक्रोग्राम और फलां इतने इंटरनैशनल यूनिट्स। मुझे हमेशा से यही लगता रहा है और अभी भी लगता है कि यार, यह तो एक ले-मैन के साथ एक अच्छा खासा मजाक ही हो गया.....अब कौन बंदा है जो अपने काम-धंधे छोड़ कर अपने संतुलित आहार के चक्कर में तरह तरह के तत्वों की नाप-तौल करता फिरे...........यह बिलकुल भी व्यावहारिक है ही नहीं !! हम लोग डाक्टर हैं ---जब हम लोग खुद कभी इस तरह के माप-तोल के चक्कर में पड़े नहीं तो किसी नान-मैडीकल बंदे से हम यह अपेक्षा भी आखिर कैसे कर सकते हैं।
आप किसी को अगर कहें कि देखो तुम केवल रोज़ाना केवल चार ग्राम नमक का सेवन ही कर सकते हो, तो उस का सिरदर्द होना लाज़मी है कि आखिर अब कैसे हिसाब रखें कि मैं चार ग्राम खा रहा हूं या दस ग्राम।
तो मैं अपनी इस श्रृंखला में गुर्दै के रोगों से बचने की बातें कर रहा हूं। गुर्दे के रोगों से बचने के लिये हमें नमक पर पूरा कंट्रोल करना ही होगा। उसी ट्रेनिंग प्रोग्राम के दौरान जब नमक की बात चल रही थी तो एक सुझाव आया कि हमें लोगों को सीधे सरल तरीके से संदेश पहुंचाना चाहिये जैसे कि चार जनों के परिवार में महीने भर की नमक की खपत केवल आधा किलोग्राम( 500ग्राम) होनी चाहिये।
अब इस मापदंड से देखा जाये तो जो दो जवाब मुझे मिले हैं उन में से पहले केस में छः जनों के परिवार में नमक की खपत 750 ग्राम से ज़्यादा होनी ही नहीं चाहिये। और दूसरे केस में नमक की खपत काफी कम है----चलिये, उस के बारे में तो हम लोग ज़्यादा कमैंट नहीं कर सकते।
मद्रास में हुई ट्रेनिंग प्रोग्राम के दौरान मैं एक महिला नैफ्रोलाजिस्ट के मुंह से यह सुन कर हैरान रह गया कि तमिलनाडू में लोग अकसर रिक्मैंडिड अलाऊंस से दस गुणा ज़्यादा तक नमक खपा जाते हैं। वैसे तमिलनाडू ही क्यों, मुझे तो लगता है कि देश के विभिन्न भागों में नमक का बहुत ज़्यादा इस्तेमाल होता है।
अब नमक के ज़्यादा इस्तेमाल से हमारे उच्च ब्लड-प्रैशर का बिलकुल सीधा संबंध है। और उसी को कम करने के लिये हमें डाक्टरों के चक्कर में पड़ना पड़ता है, तरह तरह के दूसरे “साल्ट” ( दवाईयां) खाने पड़ते हैं और अगर उन से भी यह ब्लड-प्रैशर कंट्रोल में न आये तो अपने गुर्दै, हृदय आदि के स्वास्थय को जोखिम में डालना पड़ता है।
एक बात का ध्यान रखियेगा कि जब यह चार लोगों के लिये आधा किलो नमक की रिक्मैंडेशन दी गई है तो इस में उस नमक को तो कंसिडर ही नहीं किया गया है जो हम घर के बाहर तरह तरह के ऊल-जलूल स्नैक्स, फास्ट-फूड्स के चक्कर में खाते रहते हैं। तो, कहने से अभिप्रायः यही है कि उस आधा किलो वाली बात को मानने में बहुत दम है।
वहां बात आचार की भी हुई कि आचार में तो नमक ठूंसा हुया होता है । लोग चाहे जितना भी कह लें कि हम तो भई इस नमक को कम करने के लिये आचार को खाने से पहले धो लेते हैं लेकिन सच्चाई यह है कि इस से कुछ खास फर्क पड़ता नहीं है क्योंकि नमक तो आचार में पूरी तरह से रच-बस गया होता है।
जाते जाते एक बात करनी है......अकसर हम लोग यह तो सुन लेते हैं कि इतने कार्बौ खायें, इतने प्रोटीन खायें ...इतने फलां-2 तत्व लें....लेकिन आखिर इस के बारे में बिल्कुल सही पता कहां से लगे। तो, इस के लिये इंडियन कांउस्लिंग आफ मैडीकल रिसर्च ने एक बहुत ही बढ़िया पुस्तक छापी हुई है .....Nutritive value of Indian foods….इस में सभी तरह के भारतीय खाद्य पदार्थों की पौष्टिकता के बारे में चर्चा की गई है। मैंने शायद 15 साल पहले इसे ICMR, New Delhi से 30-40रूपये में खरीदा था .....इस में इडली, चपाती, वड़ा, सभी इंडियन फ्रूट्स, सभी इंडियन सब्जियों की पौष्टिकता का पूरा विश्लेषण किया गया है कि किस खाद्य में कितने प्रोटीन, कितने कार्बौहाइड्रेट्स , कितनी वसा है, कितना सोडियम है , कितना पोटाशियम है, कितना कैल्शीयम है.....वगैरह वगैरह ...........सब कुछ बहुत ही विस्तार से लिखा गया है।
वैसे एक इडली में एक सौ कैलरीज़ होती हैं। सोच रहा हूं कि किसी दिन बहुत ही प्रचलित खाद्य पदार्थों का एक टेबल उस ICMR वाली किताब से चुराकर आप तक पहुंचाऊंगा।
शुक्रवार, 3 अक्तूबर 2008
चाय में फ्लोराइड का मुद्दा भी कोई मुद्दा है !!
How much fluoride do U.S. water supplies contain ?
The majority of U.S. municipalities add fluoride ( which is toxic at high levels) to their drinking water, at rates between 0.7 and 1.2 ppm. The U.S. Centres for disease control states that this is a safe level. But what if you drink a lot of tea, which is very high in fluoride ? Do you want a double dose of fluoride ?
Food for thought.
आज का एक इंगलिश न्यूज़-पेपर अपने हैल्थ-कैप्सूल के माध्यम से अपने पाठकों को कुछ सोचने के लिये कह रहा है।
कैप्सूल का प्रश्न है – अमेरिका में सप्लाई किये जाने वाले पानी में फ्लोराइड की कितनी मात्रा रहती है ?
अमेरिका में अधिकांश म्यूनिसिपैलेटीज़ पीने वाले पानी में 0.7 से 1.2 ppm ( पार्ट्स पर मिलियन) की मात्रा में फ्लोराइड मिलाते हैं। अमेरिकी सेंटर फॉर डिसीज़ कंट्रोल के अनुसार पानी में इतने फ्लोराइड की मात्रा एक सुरक्षित स्तर है। चूंकि फ्लोराइड का स्तर चाय में बहुत ज़्यादा होता है और अगर आप बहुत ज़्यादा चाय पीते हैं तो .......? क्या आप फ्लोराइड की डबल-डोज़ चाहते हैं?
यह तो थी इंगलिश अखबार में छपे हैल्थ-कैप्सूल की। अब हम अपनी सीधी सादी देहाती बात करते हैं। वो, क्या है कि लावारिस फिल्म का वह गाना तो आपने मेरी तरह सैंकड़ों बार सुन ही रखा होगा कि जिस का कोई नहीं उस का तो खुदा है यारो, मैं नहीं कहता किताबों में लिखा है यारो !! तो, इस फ्लोराइड के मामले में भी उस नीली छतड़ी वाले ने लगता है हम पर रहम ही किया है। क्योंकि देश के अधिकांश भागों में हमारे यहां पानी में फ्लोराइड की यह मात्रा प्राकृतिक तौर पर ही मौजूद है। लेकिन कुछ कुछ इलाकों में यह फ्लोराइड की मात्रा बहुत ज़्यादा है जिस की वजह से वहां पर डैंटल फ्लोरोसिस एवं हड्डियों से संबंधित कुछ जटिलतायें उत्पन्न हो जाती हैं। रहमो-करम की बात मैं इसलिये कह रहा हूं कि कुदरत ने अपने आप ही हमारी हैल्प कर दी है क्योंकि पानी में फ्लोराइड को संयंत्रों के माध्यम से डालना एक बहुत ही महंगा काम है। यह तो भई अमीर देशों के वश की बात है........क्या कहा आपने, हम किसी से कम हैं क्या ?- ठीक है , अगर किसी रेलवे-स्टेशन अथवा बस-अड्डे पर जिस तादाद में 10रूपये वाली पानी की बोतलें लोगों को थामते देखते हैं केवल उसी समय ध्यान आने लगता है कि यार, हम तो अमीर देश वाले हैं !!
आज कल तो नहीं, लेकिन आज से बीस साल पहले देश में ऐंटी-फ्लोराइड लॉबी बड़ी स्ट्रांग थी। इसलिये टुथपेस्ट में फ्लोराइड के मुद्दे को भी बहुत उछाला जा रहा था। लेकिन अब वह सब बीते समय की बातें लगती हैं। और जहां तक टुथपेस्ट में फ्लोराइड मिलाये जाने की बात है.....यह तो अब सारे विश्व भर में यह सिद्ध हो चुका है कि दांतों की सड़न से बचने का एक बहुत ही कारगर उपाय है ---फ्लोराइडयुक्त टुथपेस्ट । मुझे याद है कि 1989 में मैं पीजीआई चंडीगढ़ में दांतों की बीमारियों की रोकथाम से संबंधित एक ट्रेनिंग प्रोग्राम अटैंड कर रहा था जिस दौरान हमें पता चला कि देश में उपलब्ध कॉलगेट का ही एक ऐसा ब्रांड है ( शायद उस का नाम था ..कालगेट कैल्सीगार्ड) जिस में फ्लोराइड मिला हुआ है। अब तो हमारे यहां टुथपेस्ट के अधिकांश ब्रांड ही ऐसे हैं जिन में फ्लोराईड मिला हुआ है।
लेकिन हमारी समस्या है कि जिन इलाकों में पानी की फ्लोराइड की मात्रा बहुत ज़्यादा है, उन क्षेत्रों में भी हम पानी में फ्लोराइड की मात्रा कम करने के लिये कुछ ज़्यादा कर नहीं पा रहे हैं।
लेकिन एक बात नोट करने वाली है कि देश के सभी इलाकों के लिये फ्लोराइड-युक्त टुथपेस्ट तो चाहिये ही- क्योंकि जिन इलाकों में फ्लोराइड की मात्रा पानी में अधिक होती है, वहां के लोगों के दांतों की संरचना ही कुछ इस तरह की होती है कि उन के दांतों में सड़न पैदा होने की ज़्यादा संभावना रहती है.....इसलिये उन के लिये भी फ्लोराइड-युक्त टुथपेस्ट का नियमित प्रयोग बहुत ज़रूरी है ताकि दांत सड़न से बचे रह सकें।
अब थोड़ी बात करते हैं कि अमेरिका वाले पानी में आखिर फ्लोराइड डालते क्यों हैं....उस का कारण यह है कि फ्लोराइड एक ऐसा trace element है जो हमारे स्वास्थ्य के लिये ज़रूरी होता है। विशेषकर जब दांत जबड़े के अंदर बन रहे होते हैं तो उन की मजबूत संरचना के लिये पानी में फ्लोराइड की उपर्युक्त मात्रा होनी बहुत आवश्यक होती है। इसी प्रकार हड़्डियों के स्वास्थ्य के लिये भी फ्लोराइड का उचित मात्रा में पीने वाले पानी में मौज़ूद रहना ज़रूरी होता है।
वैसे पानी के इलावा फ्लोराइड अलग अलग लैवल में हमारे खाने में भी मौजूद रहता है...जैसे कि मछली एवं चाय। और जहां तक चाय की बात है कि चाय में फ्लोराइड की मात्रा काफी होती है, मुझे नहीं लगता कि इसे कभी भी हमारे यहां एक इश्यू के रूप में देखा जाता है और वास्तव में यह कोई इतना बड़ा इश्यू है भी नहीं जितना कि इस इंगलिश अखबार के कैप्सूल ने बताया है।
हमारे यहां तो चाय इश्यू है मेनली चीनी के लिये-----क्योंकि हम लोग जितनी मीठी चाय पीते है, उस रास्ते से हम लोग कितनी चीनी अपने शरीर में धकेल देते हैं, असल इश्यू तो यही है ।
The majority of U.S. municipalities add fluoride ( which is toxic at high levels) to their drinking water, at rates between 0.7 and 1.2 ppm. The U.S. Centres for disease control states that this is a safe level. But what if you drink a lot of tea, which is very high in fluoride ? Do you want a double dose of fluoride ?
Food for thought.
आज का एक इंगलिश न्यूज़-पेपर अपने हैल्थ-कैप्सूल के माध्यम से अपने पाठकों को कुछ सोचने के लिये कह रहा है।
कैप्सूल का प्रश्न है – अमेरिका में सप्लाई किये जाने वाले पानी में फ्लोराइड की कितनी मात्रा रहती है ?
अमेरिका में अधिकांश म्यूनिसिपैलेटीज़ पीने वाले पानी में 0.7 से 1.2 ppm ( पार्ट्स पर मिलियन) की मात्रा में फ्लोराइड मिलाते हैं। अमेरिकी सेंटर फॉर डिसीज़ कंट्रोल के अनुसार पानी में इतने फ्लोराइड की मात्रा एक सुरक्षित स्तर है। चूंकि फ्लोराइड का स्तर चाय में बहुत ज़्यादा होता है और अगर आप बहुत ज़्यादा चाय पीते हैं तो .......? क्या आप फ्लोराइड की डबल-डोज़ चाहते हैं?
यह तो थी इंगलिश अखबार में छपे हैल्थ-कैप्सूल की। अब हम अपनी सीधी सादी देहाती बात करते हैं। वो, क्या है कि लावारिस फिल्म का वह गाना तो आपने मेरी तरह सैंकड़ों बार सुन ही रखा होगा कि जिस का कोई नहीं उस का तो खुदा है यारो, मैं नहीं कहता किताबों में लिखा है यारो !! तो, इस फ्लोराइड के मामले में भी उस नीली छतड़ी वाले ने लगता है हम पर रहम ही किया है। क्योंकि देश के अधिकांश भागों में हमारे यहां पानी में फ्लोराइड की यह मात्रा प्राकृतिक तौर पर ही मौजूद है। लेकिन कुछ कुछ इलाकों में यह फ्लोराइड की मात्रा बहुत ज़्यादा है जिस की वजह से वहां पर डैंटल फ्लोरोसिस एवं हड्डियों से संबंधित कुछ जटिलतायें उत्पन्न हो जाती हैं। रहमो-करम की बात मैं इसलिये कह रहा हूं कि कुदरत ने अपने आप ही हमारी हैल्प कर दी है क्योंकि पानी में फ्लोराइड को संयंत्रों के माध्यम से डालना एक बहुत ही महंगा काम है। यह तो भई अमीर देशों के वश की बात है........क्या कहा आपने, हम किसी से कम हैं क्या ?- ठीक है , अगर किसी रेलवे-स्टेशन अथवा बस-अड्डे पर जिस तादाद में 10रूपये वाली पानी की बोतलें लोगों को थामते देखते हैं केवल उसी समय ध्यान आने लगता है कि यार, हम तो अमीर देश वाले हैं !!
आज कल तो नहीं, लेकिन आज से बीस साल पहले देश में ऐंटी-फ्लोराइड लॉबी बड़ी स्ट्रांग थी। इसलिये टुथपेस्ट में फ्लोराइड के मुद्दे को भी बहुत उछाला जा रहा था। लेकिन अब वह सब बीते समय की बातें लगती हैं। और जहां तक टुथपेस्ट में फ्लोराइड मिलाये जाने की बात है.....यह तो अब सारे विश्व भर में यह सिद्ध हो चुका है कि दांतों की सड़न से बचने का एक बहुत ही कारगर उपाय है ---फ्लोराइडयुक्त टुथपेस्ट । मुझे याद है कि 1989 में मैं पीजीआई चंडीगढ़ में दांतों की बीमारियों की रोकथाम से संबंधित एक ट्रेनिंग प्रोग्राम अटैंड कर रहा था जिस दौरान हमें पता चला कि देश में उपलब्ध कॉलगेट का ही एक ऐसा ब्रांड है ( शायद उस का नाम था ..कालगेट कैल्सीगार्ड) जिस में फ्लोराइड मिला हुआ है। अब तो हमारे यहां टुथपेस्ट के अधिकांश ब्रांड ही ऐसे हैं जिन में फ्लोराईड मिला हुआ है।
लेकिन हमारी समस्या है कि जिन इलाकों में पानी की फ्लोराइड की मात्रा बहुत ज़्यादा है, उन क्षेत्रों में भी हम पानी में फ्लोराइड की मात्रा कम करने के लिये कुछ ज़्यादा कर नहीं पा रहे हैं।
लेकिन एक बात नोट करने वाली है कि देश के सभी इलाकों के लिये फ्लोराइड-युक्त टुथपेस्ट तो चाहिये ही- क्योंकि जिन इलाकों में फ्लोराइड की मात्रा पानी में अधिक होती है, वहां के लोगों के दांतों की संरचना ही कुछ इस तरह की होती है कि उन के दांतों में सड़न पैदा होने की ज़्यादा संभावना रहती है.....इसलिये उन के लिये भी फ्लोराइड-युक्त टुथपेस्ट का नियमित प्रयोग बहुत ज़रूरी है ताकि दांत सड़न से बचे रह सकें।
अब थोड़ी बात करते हैं कि अमेरिका वाले पानी में आखिर फ्लोराइड डालते क्यों हैं....उस का कारण यह है कि फ्लोराइड एक ऐसा trace element है जो हमारे स्वास्थ्य के लिये ज़रूरी होता है। विशेषकर जब दांत जबड़े के अंदर बन रहे होते हैं तो उन की मजबूत संरचना के लिये पानी में फ्लोराइड की उपर्युक्त मात्रा होनी बहुत आवश्यक होती है। इसी प्रकार हड़्डियों के स्वास्थ्य के लिये भी फ्लोराइड का उचित मात्रा में पीने वाले पानी में मौज़ूद रहना ज़रूरी होता है।
वैसे पानी के इलावा फ्लोराइड अलग अलग लैवल में हमारे खाने में भी मौजूद रहता है...जैसे कि मछली एवं चाय। और जहां तक चाय की बात है कि चाय में फ्लोराइड की मात्रा काफी होती है, मुझे नहीं लगता कि इसे कभी भी हमारे यहां एक इश्यू के रूप में देखा जाता है और वास्तव में यह कोई इतना बड़ा इश्यू है भी नहीं जितना कि इस इंगलिश अखबार के कैप्सूल ने बताया है।
हमारे यहां तो चाय इश्यू है मेनली चीनी के लिये-----क्योंकि हम लोग जितनी मीठी चाय पीते है, उस रास्ते से हम लोग कितनी चीनी अपने शरीर में धकेल देते हैं, असल इश्यू तो यही है ।
बुधवार, 1 अक्तूबर 2008
श्रृंखला ---कैसे रहेंगे गुर्दे एक दम फिट !! ....भाग एक
पिछले वीकऐंड पर मैं दो दिन के लिये चैन्नई में था....वहां पर किडनी हैल्प ट्रस्ट नाम की एक संस्था पिछले लगभग 12 वर्षों से आसपास के हज़ारों लोगों पर एक अध्ययन कर रही है, कि क्या बिल्कुल साधारण से उपायों द्वारा लोगों को गुर्दे की क्रॉनिक बीमारियों से बचाया जा सकता है। मुझे वहां एक मैडीकल- राइटर के तौर पर आमंत्रित किया गया था।
इस संस्था के संचालक हैं – डा एम के मणि जो कि देश के सुप्रसिद्ध नैफ्रोलॉजिस्ट ( गुर्दा रोग विशेषज्ञ) हैं ..डा मणि मद्रास के अपोलो हास्पीटल के नैफ्रोलॉजी विभागाध्यक्ष भी हैं.....लगभग बीस लोगों को इस ट्रेनिंग वर्कशाप में बुलाया गया था। इस अध्ययन एवं ट्रेनिंग प्रोग्राम के बारे में विस्तार से तो मैं अपनी अगली पोस्टों में लिखता रहूंगा। इस अध्ययन में इन के साथ हैं जानी-मानी ऐपियोडेमियोलॉजिस्ट, डा मंजूला दत्ता एवं श्री रवि दत्ता जो इस ट्रस्ट का प्रबंधन कार्य देखते हैं।
दो-चार बहुत ही महत्त्वपूर्ण सी बातें लिख कर यह पोस्ट तो समाप्त करूंगा।
सब से पहली बात तो यह है कि गुर्दे की क्रॉनिक बीमारियों की वजह से गुर्दे काम करना बंद कर देते हैं। और एक बात है कि एक बार गुर्दे किसी क्रॉनिक बीमारी से ग्रस्त हो जायें तो या तो डॉयलैसिस रैगुलर करवाना पड़ता है ....और कुछ वर्षों के बाद तो गुर्दे के प्रत्यारोपण की ज़रूरत तो पड़ती ही है.......और हमारे देश में गुर्दे की तकलीफ़ों से जूझ रहे मरीज़ लाखों की संख्या में हैं और चंद मुट्ठी भर मरीज़ों के इलावा इतना महंगा इलाज करवाना इस देश की जनता के वश की बात है ही नहीं। यह तो एकदम तय है।
इसलिये केवल एक ही उपाय जान पड़ता है कि कैसे भी हो गुर्दे के रोगों से बच कर रहा जाये। क्या ऐसा संभव है ? – जी हां, देश के मशहूर किडनी विशेषज्ञों के अनुसार गुर्दे की क्रानिक बीमारी से बच कर रहना काफी हद तक संभव है।
गुर्दे की क्रानिक बीमारी के लगभग दस हज़ार मरीज़ों की एक स्टडी से पाया गया है कि लगभग इन में से 30 प्रतिशत केसों में डायबीटीज़ इस गुर्दे रोग का कारण होती है, अन्य 10 प्रतिशत केसों में हाई-ब्लड-प्रैशर की वजह से गुर्दे की बीमारी को देखा गया। इसी तरह से किडनी में पत्थरी की वजह से भी गुर्दे की बीमारी देखी गई है........सार के रूप में हमें वहां यही बताया गया कि गुर्दे की क्रॉनिक बीमारी के जितने भी कारण हैं उन में से लगभग 75प्रतिशत कारण ऐसे हैं जिन के बारे में हम कुछ न कुछ अवश्य कर सकते हैं ताकि गुर्दे की इस बीमारी से बचा जा सके।
कहने का भाव यह है कि अगर हम लोग मरीज के हाई-ब्लड-प्रैशर एवं उस की डायबीटीज़ को कंट्रोल में रखें तो हम गुर्दे की सेहत को काफ़ी हद तक बरकरार रख सकते हैं।
और विशेषज्ञों ने उस ट्रेनिंग प्रोग्राम ने एक बार पर बहुत ही ज़्यादा ज़ोर दिया कि चाहे कैसे भी जिस किसी भी दवा से यह संभव हो पाये- बीपी और डायबीटीज़ तो काबू में रहनी ही चाहिये। ऐसा नियंत्रण गुर्दे की सेहत के लिये बहुत ज़रूरी है।
लाइफ-स्टाईल की बात हो रही थी – बार बार उन्होंने ने यह भी कहा कि वज़न को तो कंट्रोल करना बेहद लाज़मी है ही ....इस के साथ ही साथ नमक एंव शूगर की खपत पर भी कंट्रोल करना होगा।
नमक के बारे में मुझे कुछ बातें जो वहां पर डिस्कस हुईं ध्यान में आ रही हैं। लेकिन तब तक आप एक होम-वर्क तो करिये- आप अपनी श्रीमति जी से या जो भी आप के घर में खाना बनाता है, उस से ज़रा यह पूछिये की आप के घर में एक महीने में नमक की लगभग कितनी खपत होती है। अच्छा आप यह सूचना मेरे को टिप्पणी में या ई-मेल में भेजियेगा., साथ में यह ज़रूर लिखियेगा कि परिवार में कुल सदस्य कितने हैं ....आगे की बात फिर करते हैं। वैसे ध्यान आ रहा है कि किसी ज़माने में मैंने कुछ लिखा था ...केवल नमक ही तो नहीं है नमकीन!....कभी फुर्सत हो तो उसे थोड़ा देख लीजियेगा- यह रहा उस का लिंक ।
इस संस्था के संचालक हैं – डा एम के मणि जो कि देश के सुप्रसिद्ध नैफ्रोलॉजिस्ट ( गुर्दा रोग विशेषज्ञ) हैं ..डा मणि मद्रास के अपोलो हास्पीटल के नैफ्रोलॉजी विभागाध्यक्ष भी हैं.....लगभग बीस लोगों को इस ट्रेनिंग वर्कशाप में बुलाया गया था। इस अध्ययन एवं ट्रेनिंग प्रोग्राम के बारे में विस्तार से तो मैं अपनी अगली पोस्टों में लिखता रहूंगा। इस अध्ययन में इन के साथ हैं जानी-मानी ऐपियोडेमियोलॉजिस्ट, डा मंजूला दत्ता एवं श्री रवि दत्ता जो इस ट्रस्ट का प्रबंधन कार्य देखते हैं।
दो-चार बहुत ही महत्त्वपूर्ण सी बातें लिख कर यह पोस्ट तो समाप्त करूंगा।
सब से पहली बात तो यह है कि गुर्दे की क्रॉनिक बीमारियों की वजह से गुर्दे काम करना बंद कर देते हैं। और एक बात है कि एक बार गुर्दे किसी क्रॉनिक बीमारी से ग्रस्त हो जायें तो या तो डॉयलैसिस रैगुलर करवाना पड़ता है ....और कुछ वर्षों के बाद तो गुर्दे के प्रत्यारोपण की ज़रूरत तो पड़ती ही है.......और हमारे देश में गुर्दे की तकलीफ़ों से जूझ रहे मरीज़ लाखों की संख्या में हैं और चंद मुट्ठी भर मरीज़ों के इलावा इतना महंगा इलाज करवाना इस देश की जनता के वश की बात है ही नहीं। यह तो एकदम तय है।
इसलिये केवल एक ही उपाय जान पड़ता है कि कैसे भी हो गुर्दे के रोगों से बच कर रहा जाये। क्या ऐसा संभव है ? – जी हां, देश के मशहूर किडनी विशेषज्ञों के अनुसार गुर्दे की क्रानिक बीमारी से बच कर रहना काफी हद तक संभव है।
गुर्दे की क्रानिक बीमारी के लगभग दस हज़ार मरीज़ों की एक स्टडी से पाया गया है कि लगभग इन में से 30 प्रतिशत केसों में डायबीटीज़ इस गुर्दे रोग का कारण होती है, अन्य 10 प्रतिशत केसों में हाई-ब्लड-प्रैशर की वजह से गुर्दे की बीमारी को देखा गया। इसी तरह से किडनी में पत्थरी की वजह से भी गुर्दे की बीमारी देखी गई है........सार के रूप में हमें वहां यही बताया गया कि गुर्दे की क्रॉनिक बीमारी के जितने भी कारण हैं उन में से लगभग 75प्रतिशत कारण ऐसे हैं जिन के बारे में हम कुछ न कुछ अवश्य कर सकते हैं ताकि गुर्दे की इस बीमारी से बचा जा सके।
कहने का भाव यह है कि अगर हम लोग मरीज के हाई-ब्लड-प्रैशर एवं उस की डायबीटीज़ को कंट्रोल में रखें तो हम गुर्दे की सेहत को काफ़ी हद तक बरकरार रख सकते हैं।
और विशेषज्ञों ने उस ट्रेनिंग प्रोग्राम ने एक बार पर बहुत ही ज़्यादा ज़ोर दिया कि चाहे कैसे भी जिस किसी भी दवा से यह संभव हो पाये- बीपी और डायबीटीज़ तो काबू में रहनी ही चाहिये। ऐसा नियंत्रण गुर्दे की सेहत के लिये बहुत ज़रूरी है।
लाइफ-स्टाईल की बात हो रही थी – बार बार उन्होंने ने यह भी कहा कि वज़न को तो कंट्रोल करना बेहद लाज़मी है ही ....इस के साथ ही साथ नमक एंव शूगर की खपत पर भी कंट्रोल करना होगा।
नमक के बारे में मुझे कुछ बातें जो वहां पर डिस्कस हुईं ध्यान में आ रही हैं। लेकिन तब तक आप एक होम-वर्क तो करिये- आप अपनी श्रीमति जी से या जो भी आप के घर में खाना बनाता है, उस से ज़रा यह पूछिये की आप के घर में एक महीने में नमक की लगभग कितनी खपत होती है। अच्छा आप यह सूचना मेरे को टिप्पणी में या ई-मेल में भेजियेगा., साथ में यह ज़रूर लिखियेगा कि परिवार में कुल सदस्य कितने हैं ....आगे की बात फिर करते हैं। वैसे ध्यान आ रहा है कि किसी ज़माने में मैंने कुछ लिखा था ...केवल नमक ही तो नहीं है नमकीन!....कभी फुर्सत हो तो उसे थोड़ा देख लीजियेगा- यह रहा उस का लिंक ।
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