कल मैं लखनऊ की एक कॉलोनी से निकल रहा था तो मैंने एक बंदे को देखा कि वह टुथब्रुश को दातुन के अंदाज़ में कर रहा था...बस आप इतना समझ लीजिए कि वह उस ब्रुश से दातुन का काम ले रहा था...इस से मेरे मतलब यही है कि इतने ज़ोर से वह दांतों पर तो उस ब्रुश को घिस ही रहा था ..एक बात...दूसरी बात यह कि जैसे दातुन-धारी सुबह सुबह करते हैं ना कि उसे गले की सफाई के लिए इस्तेमाल कर लिया करते हैं....हां, वह यह भी कर रहा था ...जितने उस्ताह से वह अपने ब्रुश को चला रहा था, और जैसी जैसी आवाज़ें गले की सफ़ाई की निकाल रहा था, यह सुन कर यही लग रहा था कि यह तो आज कुछ न कुछ पाड़ के ही दम लेगा।
बहरहाल, मैंने कुछ कहा नहीं ...चुपचाप आगे निकल आया...कहने को मन तो बस इतना हो रहा था कि इसे फैंक कर कहीं से दातुन उठा ले भाई।
हल्की फुल्की लगी होगी बात आपको....एक बात और भी शेयर करनी है चार पांच रोज़ पहले मैंने पहली बार एक झोंपडे के बाहर लखनऊ में देखा कि यह बच्चा ब्रुश कर रहा था और जो सब से अच्छी बात लगी कि साथ ही उसने जीब-छिलनी भी बांध रखी थी.....पहले तो मैं अपने साईकिल पर आगे निकल आया...फिर लगा कि पता नहीं फिर कभी यह मंज़र दिखे कि न दिखे.....मैं मुड़ा और उस की फोटो खींच ली.....आप देख ही रहे हैं कि वह मुझे किस तरह से घूर रहा है। कोई बात नहीं .....आप तक फोटो तो पहुंच गई।
दोस्तो, जब अस्सी के दशक में मैं डैंटिस्ट्री पढ़ रहा था तो यही लगता था कि जैसे सारी दुनिया के दांत ठीक कर देंगे....फिर एमडीएस किया तो ऐसे लगा कि जैसे लोगों के दांतों की सभी तकलीफ़े दूर कर देंगे।
लेकिन हुआ कुछ भी नहीं....पिछले २५ वर्षों से निरंतर सामान्य डेंटिस्ट्री ही कर रहा हूं ...कोई बड़ा बड़ा काम नहीं किया..कोई इंप्लांट नहीं लगाया...और कोई ऐसा काबिले तारीफ़ काम नहीं किया...बस एक सरकारी नौकरी में सामान्य डेंटिस्ट्री ठीक ठाक करता रहा....लोगों को जागरूक करता रहा ...बस यही करते करते पूरे २५ साल हो गये।
पहले किसी को ब्रुश गल्त ढंग से इस्तेमाल करते देख कर दुःख होता था...अब शायद उतना नहीं होता, पहले लोगों के कुछ दांत सड़े देख कर परेशानी होती थी, अब शायद उतनी नहीं होती, पहले पायरिया लगे मसूड़े देख कर मन विचलित होता था, अब शायद नहीं होता।
और यह मैं बिल्कुल सच कह रहा हूं....आप को भी लग रहा होगा कि अब ऐसा क्या हो गया कि अब लोगों की ये परेशानियों से मैं परेशान नहीं होता। अभी मैं उस का कारण बताऊंगा।
दो दिन पहले मैं चांदनी चौंक के एक शो-रूम से बाहर निकला...रिक्शा वाले को चलने को कहा ..कहने लगा ..आप आटो कर लो....चलिए वो तो अलग बात है, लेकिन मेरा ध्यान उस के हाथ में रखी डिब्बी की तरफ़ चला गया।
मैंने पूछा कि यह क्या कर रहे हो भाई। मुझे अंदेशा तो हो गया कि यह क्या है, दोस्तो, वह अपने दांतों पर मूसा का गुल मंजन घिस रहा था.....इस मंजन में पिसा हुआ तंबाकू ठूंसा होता है...मुंह के कैंसर का एक अचूक नुस्खा।
मैंने उसे ऐसा करने से मना किया.....लेिकन मैं उस की बात सुन कर दंग रह गया....दंग क्या रह गया, मुझे शर्म महसूस हुई कि अभी तक जागरूकता की इतनी कमी है ...उसने बताया कि उस का मुंह जाम हो गया था, खुलता नहीं था, और जब से उसने गुल मंजन (तंबाकू मंजन) लगाना शुरू किया है, उसे अच्छा लगने लगा है....मुंह खुलने लगा है। मुझे यह सब सुन कर इतना दुःख हुआ कि मैं बता नहीं सकता....तब तक मैं वहां खड़े खड़े ही उस के मुंह के अंदर झांक चुका था।
उसे तंबाकू और गुटखे की वजह से मुंह मे ओरल-सबम्यूक्सफाईब्रोसिस नामक बीमारी हो चुकी थी....जिसे कैंसर की पूर्वावस्था भी कहते हैं...बहुत अफसोस हुआ ...मैंने उसे दो चार मिनट में समझाया कि इस का पूरा इलाज करवाओ और ये सब तंबाकू-वाकू के लफड़े छोड़ दो...लगता तो था कि बात मान गया है कम से कम तंबाकू न घिसने के लिए राजी हो गया लगा।
पूछने लगा कि इस का इलाज कहां से होगा....मैंने कहा कि पास ही में मोलाना आज़ाद डैंटल कालेज अस्पताल है, वहां जाकर इस का इलाज करवा लेना....मुझे पता है कितना आसान है और कितना मुश्किल है इस तरह की बीमारी का इालज करवाना....लेकिन मैंने उसे तो बताना ही था....कम से कम कहीं से शुरूआत तो हो।
कहने लगा कि वहां तो इलाज के लिए खर्च करना होगा....मैंने कहा कि नहीं, वह फ्री अस्पताल है....लेकिन मुझे पता है कि इस तरह के इलाज के लिए बार बार इसे वहां जाना होगा, दवाईयां बाहर से भी खरीदनी होंगी, वहां पर सरकारी फीस भी भरनी होगी, बार बार अपनी दिहाड़ी खराब भी करनी होगी...क्या अभी भी आप को लगता है कि वह इलाज करवाएगा...दुआ करें कि वह करवा ले, लेकिन वह चाहते हुए भी नहीं करवा पायेगा।
हम लोगों के लिए किसी को सलाह देनी बहुत आसान होती है......बहुत आसान.....बस हमने थोड़ा सा मुंह ही तो हिलाना होता है।
जिस सरकारी अस्पताल में मैं काम करता हूं वहां पर भी मेरे पास इस तरह के बहुत से मरीज़ आते हैं.....सारा खर्च उन का सरकार उठाती है, लेकिन वे फिर भी इलाज पूरा नहीं करवाते, तंबाकू-गुटखा पता नहीं छोड़ते हैं या नहीं, मेरे पास आना छोड़ देते हेैं।
यही कारण है अब खराब दांतों और मसूड़ों की बीमारियां देख कर मेरा मन नहीं पसीजता, मुझे लगता है कि हो जाएंगे ये भी ठीक हो जाएंगे, कम से कम ज़िंदा तो रहेंगे...दांत निकल भी गए तो नकली लग जाएंगे लेकिन एक बार मुंह में कैंसर का रोग हो गया तो यह ज़िंदगी में ज़हर घोल देगा.....हम अपने मरीज़ों को टाटा अस्पताल मुंबई रेफर करते हैं, आने जाने का ...वहां पर होने वाला सारा खर्च सरकार उठाती है....लेकिन अगर इस तरह के दिहाड़ी करने वालों को इस तरह का रोग घेर लेता है तो पूरा घर ही तबाह हो जाता है.......याद आ रहा कुछ महीने पहले किसी जगह पर एक सफाईकर्मी मिला था...मुंह का कैंसर था...मैंने कहा कि इलाज क्यों नहीं करवाया, कहने लगा कि दस हज़ार रूपये का खर्चा है, चलिए, वह भी कर लेते जैसे-तैसे ....लेकिन वहां डाक्टरों ने मेरे को इतना डरा दिया कि तुम्हारे मुंह को कांटना छांटना पड़ेगा तो मैं डर गया.....कि मेरा तो प्राईव्हेट काम है, लोग मेरे को देख कर मेरे से ऩफ़रत करने लगेंगे ...काम धंधे का क्या होगा.......यह उस की आपबीती थी.
अब और क्या लिखूं........अगर अभी भी लोग पान-मसाला-गुटखा, तंबाकू, ज़र्दा, खैनी, सुरती, पान का सेवन बंद करने का मन नहीं बना रहे हैं तो कोई बात नहीं, अभी हम ने भी हार नहीं मानी है।
बहरहाल, मैंने कुछ कहा नहीं ...चुपचाप आगे निकल आया...कहने को मन तो बस इतना हो रहा था कि इसे फैंक कर कहीं से दातुन उठा ले भाई।
हल्की फुल्की लगी होगी बात आपको....एक बात और भी शेयर करनी है चार पांच रोज़ पहले मैंने पहली बार एक झोंपडे के बाहर लखनऊ में देखा कि यह बच्चा ब्रुश कर रहा था और जो सब से अच्छी बात लगी कि साथ ही उसने जीब-छिलनी भी बांध रखी थी.....पहले तो मैं अपने साईकिल पर आगे निकल आया...फिर लगा कि पता नहीं फिर कभी यह मंज़र दिखे कि न दिखे.....मैं मुड़ा और उस की फोटो खींच ली.....आप देख ही रहे हैं कि वह मुझे किस तरह से घूर रहा है। कोई बात नहीं .....आप तक फोटो तो पहुंच गई।
दोस्तो, जब अस्सी के दशक में मैं डैंटिस्ट्री पढ़ रहा था तो यही लगता था कि जैसे सारी दुनिया के दांत ठीक कर देंगे....फिर एमडीएस किया तो ऐसे लगा कि जैसे लोगों के दांतों की सभी तकलीफ़े दूर कर देंगे।
लेकिन हुआ कुछ भी नहीं....पिछले २५ वर्षों से निरंतर सामान्य डेंटिस्ट्री ही कर रहा हूं ...कोई बड़ा बड़ा काम नहीं किया..कोई इंप्लांट नहीं लगाया...और कोई ऐसा काबिले तारीफ़ काम नहीं किया...बस एक सरकारी नौकरी में सामान्य डेंटिस्ट्री ठीक ठाक करता रहा....लोगों को जागरूक करता रहा ...बस यही करते करते पूरे २५ साल हो गये।
पहले किसी को ब्रुश गल्त ढंग से इस्तेमाल करते देख कर दुःख होता था...अब शायद उतना नहीं होता, पहले लोगों के कुछ दांत सड़े देख कर परेशानी होती थी, अब शायद उतनी नहीं होती, पहले पायरिया लगे मसूड़े देख कर मन विचलित होता था, अब शायद नहीं होता।
और यह मैं बिल्कुल सच कह रहा हूं....आप को भी लग रहा होगा कि अब ऐसा क्या हो गया कि अब लोगों की ये परेशानियों से मैं परेशान नहीं होता। अभी मैं उस का कारण बताऊंगा।
दो दिन पहले मैं चांदनी चौंक के एक शो-रूम से बाहर निकला...रिक्शा वाले को चलने को कहा ..कहने लगा ..आप आटो कर लो....चलिए वो तो अलग बात है, लेकिन मेरा ध्यान उस के हाथ में रखी डिब्बी की तरफ़ चला गया।
मैंने पूछा कि यह क्या कर रहे हो भाई। मुझे अंदेशा तो हो गया कि यह क्या है, दोस्तो, वह अपने दांतों पर मूसा का गुल मंजन घिस रहा था.....इस मंजन में पिसा हुआ तंबाकू ठूंसा होता है...मुंह के कैंसर का एक अचूक नुस्खा।
मैंने उसे ऐसा करने से मना किया.....लेिकन मैं उस की बात सुन कर दंग रह गया....दंग क्या रह गया, मुझे शर्म महसूस हुई कि अभी तक जागरूकता की इतनी कमी है ...उसने बताया कि उस का मुंह जाम हो गया था, खुलता नहीं था, और जब से उसने गुल मंजन (तंबाकू मंजन) लगाना शुरू किया है, उसे अच्छा लगने लगा है....मुंह खुलने लगा है। मुझे यह सब सुन कर इतना दुःख हुआ कि मैं बता नहीं सकता....तब तक मैं वहां खड़े खड़े ही उस के मुंह के अंदर झांक चुका था।
उसे तंबाकू और गुटखे की वजह से मुंह मे ओरल-सबम्यूक्सफाईब्रोसिस नामक बीमारी हो चुकी थी....जिसे कैंसर की पूर्वावस्था भी कहते हैं...बहुत अफसोस हुआ ...मैंने उसे दो चार मिनट में समझाया कि इस का पूरा इलाज करवाओ और ये सब तंबाकू-वाकू के लफड़े छोड़ दो...लगता तो था कि बात मान गया है कम से कम तंबाकू न घिसने के लिए राजी हो गया लगा।
पूछने लगा कि इस का इलाज कहां से होगा....मैंने कहा कि पास ही में मोलाना आज़ाद डैंटल कालेज अस्पताल है, वहां जाकर इस का इलाज करवा लेना....मुझे पता है कितना आसान है और कितना मुश्किल है इस तरह की बीमारी का इालज करवाना....लेकिन मैंने उसे तो बताना ही था....कम से कम कहीं से शुरूआत तो हो।
कहने लगा कि वहां तो इलाज के लिए खर्च करना होगा....मैंने कहा कि नहीं, वह फ्री अस्पताल है....लेकिन मुझे पता है कि इस तरह के इलाज के लिए बार बार इसे वहां जाना होगा, दवाईयां बाहर से भी खरीदनी होंगी, वहां पर सरकारी फीस भी भरनी होगी, बार बार अपनी दिहाड़ी खराब भी करनी होगी...क्या अभी भी आप को लगता है कि वह इलाज करवाएगा...दुआ करें कि वह करवा ले, लेकिन वह चाहते हुए भी नहीं करवा पायेगा।
हम लोगों के लिए किसी को सलाह देनी बहुत आसान होती है......बहुत आसान.....बस हमने थोड़ा सा मुंह ही तो हिलाना होता है।
जिस सरकारी अस्पताल में मैं काम करता हूं वहां पर भी मेरे पास इस तरह के बहुत से मरीज़ आते हैं.....सारा खर्च उन का सरकार उठाती है, लेकिन वे फिर भी इलाज पूरा नहीं करवाते, तंबाकू-गुटखा पता नहीं छोड़ते हैं या नहीं, मेरे पास आना छोड़ देते हेैं।
यही कारण है अब खराब दांतों और मसूड़ों की बीमारियां देख कर मेरा मन नहीं पसीजता, मुझे लगता है कि हो जाएंगे ये भी ठीक हो जाएंगे, कम से कम ज़िंदा तो रहेंगे...दांत निकल भी गए तो नकली लग जाएंगे लेकिन एक बार मुंह में कैंसर का रोग हो गया तो यह ज़िंदगी में ज़हर घोल देगा.....हम अपने मरीज़ों को टाटा अस्पताल मुंबई रेफर करते हैं, आने जाने का ...वहां पर होने वाला सारा खर्च सरकार उठाती है....लेकिन अगर इस तरह के दिहाड़ी करने वालों को इस तरह का रोग घेर लेता है तो पूरा घर ही तबाह हो जाता है.......याद आ रहा कुछ महीने पहले किसी जगह पर एक सफाईकर्मी मिला था...मुंह का कैंसर था...मैंने कहा कि इलाज क्यों नहीं करवाया, कहने लगा कि दस हज़ार रूपये का खर्चा है, चलिए, वह भी कर लेते जैसे-तैसे ....लेकिन वहां डाक्टरों ने मेरे को इतना डरा दिया कि तुम्हारे मुंह को कांटना छांटना पड़ेगा तो मैं डर गया.....कि मेरा तो प्राईव्हेट काम है, लोग मेरे को देख कर मेरे से ऩफ़रत करने लगेंगे ...काम धंधे का क्या होगा.......यह उस की आपबीती थी.
अब और क्या लिखूं........अगर अभी भी लोग पान-मसाला-गुटखा, तंबाकू, ज़र्दा, खैनी, सुरती, पान का सेवन बंद करने का मन नहीं बना रहे हैं तो कोई बात नहीं, अभी हम ने भी हार नहीं मानी है।
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, संत वाणी - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंअभी हम ने भी हार नहीं मानी है। :) सार्थक लेख !
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