गुरुवार, 3 जून 2010

दुर्बलता(?) के शिकार पुरूषों की सेहत से खिलवाड़

आज मैं एक रिपोर्ट देख रहा था जिस में इस बात का खुलासा किया गया था कि इंपोटैंस (दुर्बलता, नपुंसकता) के लिये लोग डाक्टर से बात करने की बजाए अपने आप ही नैट से इस तकलीफ़ को दुरूस्त करने के लिये दवाईयां खरीदने लगते हैं।
और नेट पर इस तरह से खरीदी दवाईयों की हानि यह है कि कईं बार तो इन में टॉक्सिंस(toxins) मिले रहते हैं, बहुत बार इन में साल्ट की बहुत ज़्यादा खुराक होती है और कईं बार बिल्कुल कम होती है। और तो और इस तरह की दवाईयां जो नेट पर आर्डर कर के खरीदी जाती हैं उन में नकली माल भी धडल्ले से ठेला जाता है क्योंकि ऐसे नकली माल का रैकेट चलाने वाले जानते हैं कि लोग अकसर इन केसों में नकली-वकली का मुद्दा नहीं उठाते। तो, बस इन की चांदी ही चांदी।
अपनी ही मरजी से अपनी ही च्वाईस अनुसार मार्केट से इस तरह की दवाईयां उठा के खाना खतरनाक तो है ही लेकिन उच्च रक्त चाप वाले पुरूषों एवं हृदय रोग से जूझ रहे लोगों के लिये तो ये और भी खतरनाक हैं।
आप यह रिपोर्ट - Dangers lurk in impotence drugs sold on web..देख कर इस बात का अंदाजा लगा सकते हैं कि इस तरह की दवाईयों में भी नकलीपन का जबरदस्त कीड़ा लग चुका है।
शायद अपने यहां यह नेट पर इस तरह की दवाईयां लेने जैसा कोई बड़ा मुद्दा है नहीं, हो भी तो कह नहीं सकते क्योंकि यह तो flipkart से शॉपिंग करने जैसा हो गया। लेकिन आप को भी इस समय यही लग रहा होगा कि अगर विकसित देशों में यह सब गोलमाल चल रहा है तो अपने यहां तो हालात कितने खौफ़नाक होंगे।
मुझे तो आपत्ति है जिस तरह से रोज़ाना सुबह अखबारों में तरह तरह के विज्ञापन लोगों को ये "ताकत वाले कैप्सल" आदि लेने के लिये उकसाते हैं----बादशाही, खानदानी कोर्स करने के लिये भ्रमित करते हैं ----गोल्ड-सिल्वर पैकेज़, और भी पता नहीं क्या क्या इस्तेमाल करने के लिये अपने झांसे में लेने की कोशिश करते हैं।
और इन विज्ञापनों में इन के बारे में कुछ भी तो नहीं लिखा रहता कि इन में क्या है, और कितनी मात्रा में है। मुझे इतना विश्वास है कि इन में सब तरह के अनाप-शनाप कैमीकल्स तो होते ही होंगे.....और ये कुछ समय बाद किस तरह से शरीर को कितनी बीमारियां लगा देंगे, यह तो समय ही बताता है।
तो फिर कोई करे तो क्या करे ? ---सब से पहले तो इतना समझ के चलने के ज़रूरत है कि अधिकांश केसों में लिंग में पूरे तनाव का न हो पाना ....यह दिमाग की समस्या है...भ्रम है, और इसे भ्रम को ही ये नीम-हकीम भुना भूना कर बहुमंजिली इमारतें खड़ी कर लेते हैं। युवा वर्ग में तो अधिकांश तौर पर किसी तरह के इलाज की ज़रूरत होती नहीं ---केवल खाना पीना ठीक रखा जाए, नशों से दूर रहा जाए....और बस अपने आप में मस्त रहा जाए तो कैसे यह तकलीफ़ जवानी में किसी के पास भी फटक सकती है।
लेकिन अगर किसी व्यक्ति को यह तकलीफ़ है भी तो उसे तुरंत अपने फ़िज़िशियन से मिलना चाहिए ---वे इस बात का पता लगाते हैं कि शरीर में ऐसी कोई व्याधि तो नहीं है जिस की वजह से यह हो रहा है, या किसी शारीरिक तकलीफ़ में दी जाने वाली दवाईयों के प्रभाव के कारण तनाव पूरा नहीं हो पा रहा या फिर कोई ऐसी बात है जिस के लिये किसी छोटे से आप्रेशन की ज़रूरत पड़ सकती है। लेकिन यह आप्रेशन वाली बात तो बहुत ही कम केसों में होती है। और कईं बार तो डाक्टर से केवल बात कर लेने से ही मन में कोने में दुबका चोर भाग जाता है।
अब फि़जिशियन क्या करते हैं ? -सारी बात की गहराई में जा कर मरीज़ की हैल्प करते हैं और शायद कुछ केसों में इस तकलीफ़ के समाधान के लिये बाज़ार में उपलब्ध कुछ दवाई भी दे सकते हैं। और अगर फिजिशियन को लगता है कि सर्जन से भी चैक-अप करवाना ज़रूरी है तो वह मरीज़ को सर्जन से मिलने की सलाह देता है।
कहने का अभिप्रायः है कि बात छोटी सी होती है लेकिन अज्ञानता वश या फिर इन नीमहकीमों के लालच के कारण बड़ी हो जाती है। लेकिन जो है सो है, लकीर पीटने से क्या हासिल ---कोई चाहे कितने समय से ही इन चमत्कारी बाबाओं की भस्मों, जड़ी बूटियों के चक्कर में पड़ा हुआ हो लेकिन ठीक काम की शुरूआत तो आज से की ही जा सकती है। क्या है, अगर लिंग में तनाव नहीं हो रहा, तो नहीं हो रहा, यह भी एक शारीरिक समस्या है जिस का पूर्ण समाधान क्वालीफाईड डाक्टरों के पास है। और अगर वह इस के लिये कोई दवाई लेने का नुस्खा भी देता है तो कौन सी बड़ी बात है ----यह मैडीकल फील्ड की अच्छी खासी उपलब्धि है। लेकिन अपने आप ही अपनी मरजी से किसी के भी कहने पर कुछ भी खा लेना, कुछ भी पी लेना, कुछ भी स्प्रे कर लेना, किसी भी ऐरी-गैरी वस्तु से मालिश कर लेना तो भई खतरे से खाली नहीं है।
एक अंग्रेज़ी का बहुत बढ़िया कहावत है --- There is never a wrong time to do the right thing. इसलिये अगर किसी को इस तरह की तकलीफ़ है भी तो यह कौन सी इतनी बड़ी आफ़त है -----डाक्टर हैं, उन से दिल खोल कर बात करने की देर है---- उन के पास समाधानों का पिटारा है। शायद मरीज़ को लगे कि यार, यह सब डाक्टर को पता लगेगा तो वह क्या सोचेगा? ---उन के पास रोज़ाना ऐसे मरीज़ आते हैं और उन्हें कहां इतनी फुर्सत है कि मरीज़ के जाने के बाद भी ये सब सोच कर परेशान होते रहें। अच्छे डाक्टर का केवल एक लक्ष्य होता है कि कैसे उसे के चेहरे पर मुस्कान लौटाई जाए -----अब इतना पढ़ने के बाद भी कोई इधर उधर चक्करों में पड़ना चाहे तो कोई उसे क्या कहे।
इस विषय से संबंधित ये लेख भी उपयोगी हैं .....

अवसाद (डिप्रेशन) के लिये ली जाने वाली टैबलेट क्या संजीवनी है ?

अकसर मैं सोचता हूं कि यह कैसे संभव है कि डिप्रेशन के लिये ली जाने वाली गोली संजीवनी बूटी जैसा काम कर देगी और मूड को लिफ्ट करा देगी। वैसे तो मैं कहने को एलोपैथी से ही संबंधित हूं लेकिन पता नहीं क्यों कुछ तकलीफ़ों के लिये मुझे सीधा दवाईयों का रूख करना कभी भी मुनासिब नहीं लगता।
जिस तरह से मैंने एक बार प्रश्न उठाया था कि यह कैसे हो सकता है कि केवल ब्लड-प्रैशर की टेबलेट लेने मात्र से ही सब दुरूस्त हो जाए ----यार सीधी सी बात है कि अगर दवाईयों से ही सेहत मिलती होती तो बात ही क्या थी !!
कोई मनोरोग विज्ञानी इस लेख को पढ़ेगा तो इस से कोई दूसरा मतलब भी निकाल सकता है। लेकिन मुझे डिप्रेशन जैसे रोग के लिये लंबे लंबे समय तक दवाईयां लेने पर बहुत एतराज़ है। डिप्रेशन तो आप सब समझते ही हैं ---बस उदासी सी छाई रहना, कुछ भी काम में मन न लगना, हर समय सुस्ती सी, हर समय कुछ अनिष्ट होने के ख्याल....बस और भी इस तरह की बहुत से भाव। हर समय़ थका थका सा रहना और जीने की तमन्ना का ही खत्म सा हो जाना।
एक बात का ध्यान आ रहा है कि क्या आपने कभी सुना है कि आप के घर में जो बाई काम कर रही है, उसे डिप्रेशन हो गई है या कपड़े प्रैस करने वाला चार डिप्रेशन में आ गया है या कुछ मज़दूरों को अवसाद हो गया है। नहीं सुना ना ----शायद इन में भी होता तो होगा ही, लेकिन ये सब प्राणी अपनी दाल-रोटी के जुगाड़ में इतने घुसे रहते हैं कि इन की बला से यह अवसाद, वाद............शायद ये झट से हर परिस्थिति के साथ समझौता करने में कुछ ज़्यादा सक्षम होते हैं ---शायद मुझे ही कुछ ऐसा लगता हो।
लेकिन यह डिप्रेशन रोग तो लगता है पढ़े लिखे संभ्रांत लोगों के हिस्से में ही आया है। आदमी आदमी से दूर होता जा रहा है, किसी को बिना मतलब किसी से बात करने तक की फुर्सत है नहीं, ऊपर से उपभोक्तावाद का दबाव, पारिवारिेक मसले, कामकाज के दबाव, बच्चे के साथ जैनरेशन गैप का मुद्दा..............खाने पीने में बदपरहेजी, मिलावटी सामान, लेट-नाइट पार्टीयां......इन सब के प्रभाव से जब कोई डिप्रेशन में चला जाता है तो क्यों हम लोग समझ लेते हैं कि बस रोज़ाना एक टेबलेट लेने से ही सब कुछ फिट हो जायेगा।
मुझे याद है जब हम बंबई में था तो बेकार बेकार बातों की कुछ ज़्यादा ही फिक्र किया करता था ---और इसी चक्कर में मैंने दो-तीन दिन के लिये चिंता कम करने वाली दवाई ली थी -----भगवान जानता है कि उन दिनों मेरे साथ क्या बीती। और मैंने तौबा कर ली थी इन दवाईयों के चक्कर में नहीं पड़ना।
वैसे आज बैठे बैठे मुझे इस डिप्रेशन का ध्यान कैसे आया ? ---आदत से मजबूर जब मैडीकल खबरों की खबर ले रहा था तो इस खबर पर नज़र अटक गई ---Americans prefer drugs for depression : survey. इस में लिखा है कि अमेरिका में जिन लोगों को डिप्रेशन है उन में से अस्सी फीसदी तो इस के लिये कोई न कोई दवाई लेते हैं और वे इस के लिये किसी मनोवैज्ञानिक अथवा सोशल-वर्कर से बात करने से भी ज़्यादा कारगर इस टेबलेट को ही मानते हैं।वे लोग इस के लिये नईं नईं दवाईयों को आजमाना नहीं चाहते क्योंकि उन से साइड-इफैक्ट ज़्यादा होने की संभावना होती है। इस सर्वेक्षण में पाया गया है कि इन दवाईयों के साइड-इफैक्ट्स तो हैं ही लेकिन फिर भी इन्हें --विशेषकर इस तरह की दवाईयां लेने वालों में यौन-इच्छा एवं क्षमता का कम होना--- पिछले सर्वेक्षणों की तुलना में कम ही पाया गया है।
आप को भी शायद लगता होगा कि आज कल लोगों का support system खत्म सा हो गया है---- लोगों को ऐसा कोई कंधा नहीं दिखता जिस पर वे अपना सिर रख कर मन की बात खोल कर हल्का महसूस कर लें। और जितना जितना हम लोग दुनियावी बुलंदियों को छूने लगते हैं यह कमी और भी ज़्यादा खलने लगती है।
अच्छा, बहुत हो गई बातें ----आप मेरे से यही प्रश्न पूछना चाहते हैं ना कि अगर डिप्रेशन में मनोवैज्ञानिक या मनोरोग चिकित्सक के पास भी न जाएं तो फिर करें क्या ---इस में क्या है, सारा जग जिन बातों को जानता है उन पर पहले चलने की कोशिस करें ----लिस्ट दे दें ?
  1. सुबह सवेरे जल्दी उठने की आदत डालें---रोज़ाना टहलने का अभ्यास करें--थोड़ी बहुत शारीरिक कसरत, थोड़ा बहुत प्राणायाम् और योगाभ्यास करना सीखें। साईकिल चलाना क्यों छोड़ रखा है ? ....हौंसला बढ़ाने के लिये देखिये मैंने हरेक क्रिया के साथ थोड़ा जोड़ दिया है लेकिन जैसे ही मन टिकने लगे इन की अवधि बढ़ा दें --- और किसी योगाचार्य से अगर समाधि ध्यान (meditation) सीख कर उस का नियमित अभ्यास करें तो क्या कहने !!
  2. ऐसी वस्तुओं से हमेशा दूरी बना के रखें जिन की नैगेटिव प्राणिक ऊर्जा है जैसे कि सभी तरह के नशे---तंबाकू, शराब, बार बार चाय की आदत।
  3. अपने खाने में कच्चा खाना जैसे कि सलाद, अंकुरित दालें एवं अनाज की मात्रा बढ़ाते चले जाएं --- ये तो पॉवर-डायनैमो हैं, एक बार आजमा कर तो देख लें।
  4. रात के समय बिल्कुल कम खाना खाएं-- अगर तीन चपाती लेते हैं और आज से एक कर दें ---खूब सारा सलाद लें और फिर देखिये नींद कितनी सुखद होती है और सुबह आप कितना फ्रैश उठते हैं।
  5. वैसे तो यह देश हज़ारों सालों से जानता है कि जब लोग सत्संग आदि में जुड़ते हैं तो वे मस्त रहते हैं, खुशी खुशी बातें एक दूसरे के साथ साझी करते हैं, और क्या चाहिए ? ---क्या कहा मोक्ष --भई, वह तो मुझे पता नहीं, और न ही वह मेरा विषय है। मैं तो बात कर रहा था बाहर के देशों में होने वाली रिसर्च की जिन्होंने इस बात की प्रामाणिक तौर पर पुष्टि की है कि जो महिलायें सत्संग जैसे आयोजनों के साथ नियमित तौर पर जुड़ी रहती हैं वे अवसाद का बहुत ही कम शिकार होती हैं। और जहां तक मोक्ष की बात है, वह तो परलोक की बात है, चलिये पहले यह लोक तो सुहेला करें.......इस लिस्ट को देखते समय यह मन में मत रखिये कि जो ज्यादा महत्वपूर्ण बातें हैं वे ऊपर रखी हैं और कम महत्व की बातें नीचे हैं---------इसलिये इस सत्संग वाली बात को आप पहले नंबर से भी ऊपर जानिये।
  6. क्या लग रहा है कि यह डाक्टर भी अब इन सत्संगों की बातें करने लगा है? लगता है कि इस पर भी चैनलों का जादू चल गया है। ऐसा नहीं है, मैं बिल्कुल वैज्ञानिक सच्चाई ही ब्यां कर रहा हूं.। और किस सत्संग में जाएं ? ---जहां जाकर आप के मन को खुशी मिले,,आप कुछ हंसे, अपने दुःख-सुख बांटे, अपने हम उम्र लोगों का संग करें ------ बस यही सत्संग है जहां से कुछ भी ऐसा ग्रहण करने को मिले ----बाकी मोक्ष के पीछे अभी मत भागिये ---वह लक्ष्य तो अभी इंतज़ार भी कर सकता है।
(इस लिस्ट में आप सब लोग भी कुछ जोड़ने का सुझाव देंगे तो बहुत अच्छा लगेगा.....सोचिये और लिखें टिप्पणी में)

अब आते हैं, एक अहम् बात पर कि अगर लिस्ट के मुताबिक ही जीवन चल रहा है लेकिन फिर भी अवसाद है, डिप्रेशन है तो भाई आप किसी मनोवैज्ञानिक अथवा मनोरोग विशेषज्ञ से ज़रूर मिलें जो फिर बातचीत (काउंसलिंग) के ज़रिये आप को समझा बुझा कर ...नहीं तो दवाईयां देकर आप के उदास मन को लिफ्ट करवाने की कोशिश करेगा।

दरअसल हमारी समस्या यही है कि हम लोग इस लिस्ट को तो देखते नहीं, सीधा पहुंच जाते हैं डाक्टर के पास जो पर्चे पर डिप्रेशन लिख कर दवा लिख कर छुट्टी करता है, लैब अनेकों टैस्ट करवा के छुटट्टी कर लेती है, कैमिस्ट दवा बेच के छुट्टी करता है, मरीज़ दवा खा के छुट्टी कर लेता है.........सब की छुट्टी हो जाती है सिवाय अवसाद के-----वह कमबख्त ढीठ बन कर वहीं का वहीं खड़ा रहता है।
लगता है मैं भी अपने दिमाग को विराम दूं ----कहीं यह भी अवसाद में सरक गया तो ......!!

बुधवार, 2 जून 2010

बड़ी आंत की सफाई वाला बिजनैस ?

एक वेबसाइट है जिस पर प्रिंटमीडिया एवं इलैक्ट्रोनिक मीडिया पर चल रही सेहत संबंधी समाचारों की खिंचाई भी होती और जो बिल्कुल सुथरा और बिना किसी लाग-लपेट के सेहत के बारे में बढ़िया संदेश देते हैं उन की प्रशंसा भी की जाती है --इस साइट का नाम है healthnewsreview.org. मैं अकसर एक दो दिन में इस साइट को ज़रूर विज़िट करता हूं ---हो सके तो कभी कभी आप भी देख लिया करें।
मैं इस पर एक रिपोट---क्या अपने आप आंत साफ करने वाली दवाईयां सेहत में सुधार करती हैं?--- देख रहा था जिस में बड़ी आंत को साफ़ करने संबंधी एक न्यूज़-रिपोर्ट को इस साइट पर पांच सितारे मिले थे क्योंकि उस में बड़ी साफगोई से आंत की सफाई के लिये मार्कीट में आने वाले प्रोडक्टस् की पोल खोली गई है।
बड़ी आंत की सफ़ाई की बात करते हैं तो मुझे अपने योग में बहुत सक्रिय होने वाले दिन याद आ जाते हैं--यह बात आठ सल पहले की है जब हम लोग योग के एक रैज़ीडैंशियल कार्यक्रम के लिये जाया करते थे तो वहां पर एक क्रिया करते थे --शंख-प्रक्षालन। इस क्रिया के दौरान हमें एक दिन सुबह सुबह गुनगुना नमकीन पानी पीने को कहते थे ---जितना हम आसानी से पी सकें ---होता यूं था कि कुछ गिलास पीने के बाद हम लोग टायलेट की तरफ़ भागना शुरू कर देते थे --- और शायद एक घंटे में आठ दस बार हमें टायलेट जाना पड़ता था ---कुछ ही मिनटों में बिल्कुल पानी जैसे मल होने लगते थे और देखते ही देखते बिल्कुल हल्कापन --- और उस के बाद हमें चावल का पानी (क्या बोलते हैं उसे मांड) दिया जाता था।
और हमें यह सचेत भी किया जाता था कि हम लोग इस प्रक्रिया को अपने आप घर में ना आजमाएं ---केवल योग गुरू की निगरानी में ही यह प्रक्रिया दो महीने के बाद की जा सकती है। मुझे भी इस तरह की क्रिया को एक योग आश्रम में तीन-चार बार करने का अवसर मिला।
अच्छा हम लोग तो उस रिपोर्ट की चर्चा कर रहे थे जिस में कुछ विज्ञापनों का विश्लेषण किया गया है जो अपने प्रोड्क्टस के द्वारा बड़ी आंत को साफ़ करने का ढिंढोरा पीट रहे हैं। दरअसल अमीर दूर-देशों में आंत की बहुत ज़्यादा तकलीफ़े हैं --अन्य कारणों के साथ साथ वहां पर यह जो नॉन-वैजीटेरियन खाना बहुत चलता है और वह भी अत्यंत प्रोसैस्ड----इस सब से यह तकलीफ़ें जैसे कि बड़ी आंत का कैंसर जैसे रोग काफी आम हैं।
मैं जब इस रिपोर्ट को देख रहा था तो मैं भी यह सोच कर दंग था कि ऐसे कैसे किसी स्वस्थ बंदे की आंत में 10पाउंड, बीस पाउंड और यहां तक कि चालीस पाउंड तक मल फंसा रहता है जिस के परिणामस्वरूप उसे हमेशा यह बोझा ढोने के लिये मजबूर होना पड़ता है।
इस में कोई शक नहीं कि अगर पेट ठीक तरह से साफ़ नहीं होता तो तबीयत नासाज़ सी ही रहती है । लेकिन अब अगर तीस चालीस पाउंड मल आंतों में फंसे होने की बात कोई कहे तो कोई उसे क्या कहे?
इस बढ़िया सा रिपोर्ट की पारदर्शिता देखिये कि उस में एक पेट के रोगों के माहिर डाक्टर की टिप्पणी भी दी गई थी। उसे भी यह बीस-तीस-चालीस पाउंड वाली बात बड़ी रोचक दिखी--उस ने मज़ाक में यह भी कह दिया कि गिनिज़ बुक आफ वर्ल्ड रिकार्ड को खंगालना पड़ सकता है।
और उस ने इस तरह के प्रोड्कट्स के बारे में लोगों को यह कहते हुये भी सचेत किया कि इस में मैग्नीशयम की मात्रा इतनी ज़्यादा होती है कि यह गुर्दे के रोगों से जूझ रहे लोगों के लिये खतरनाक हो सकती है। और जाते जाते उन्होंने यह भी कह दिया अगर कोई स्लिम-ट्रिम होने के लिये इन आंत की सफाई के लिये आने वाले पावडरों का सहारा ले रहा है तो उसे भी इन से दूर ही रहने की ज़रूरत है।
वैसे आप को भी लगता होगा कि अखबार में,मीडिया में छपने वाली सेहत की खबरों की अगर रोज़ाना इतनी खिंचाई होगी तो यह सब लिख कर लोगों को भ्रमित करने वाले लोग कैसे अपने आप लाइन पर न आएंगे।
मुझे यह लिखते लिखते ध्यान आ रहा है कि रिपोर्ट का पोस्ट-मार्टम तो हो गया लेकिन क्या इस में लिखी बातों ने क्या हमें कुछ सोचने पर मजबूर भी किया ? -- बात सोचने वाली यह भी है कि आंते भी क्या करें ----ऐसी कौन सी मशीनरी है जो 365दिन चौबीस घंटे चलती रहे --कोई विश्राम नहीं ----आखिर वह कब थोड़ी सुस्ताए --- वह तो तभी हो सकता है जब हम अपने मुंह को थोड़ा विराम दें ----उपवास रखने की आदत डालें ----दिन, विधि और अवधि आप स्वयं तय करें। मैं भी सोच रहा हूं कि उपवास रखना शूरू करूं।

दाल-रोटी खाओ......प्रभु के गुण गाओ

आज कल लोग देशी टॉनिकों की बात नहीं करते--वे उन टॉनिकों की बात करते हैं जिन की मार्केटिंग में ये कंपनियां हाथ धो कर पीछे पड़ी हुई हैं। और पता नहीं लोग इन कंपनियों की बात सुनते भी हैं, हम सारा दिन दाल-रोटी-सब्जी खाने की बात करते हैं और हमारे बच्चे भी हमारी सुन कर राजी नहीं हैं--- वे भी कुछ कुछ दालों एवं ज़्यादातर सब्जियों की कटोरी को यूं पीछे सरकाते हैं जैसे उन में दवाई मिली हो।
वैसे कभी आपने यह सोचा है कि कुछ विदेशी कंपनियां जो इस तरह के टॉनिक-वॉनिक सप्लाई करती हैं वे तो कितने कितने जबरदस्त हथकंडे अपनाती हैं, अपने कर्मचारियों को आकर्षक इंसैंटिव भी देती हैं। लेकिन इन के द्वारा किये जा रहे प्रचार को काउंटर करने के लिये ----लोगों को जागरूक करने का ढांचा देखिये कितना ढीला ढाला है --- सभी अच्छे चिकित्सकों को सम्मान देते हुये मैं भी अकसर देखता हूं कि अधिकांश सरकारी हस्पतालों में डाक्टर लोग सुबह से शाम तक बीमारों की तीमारदारी में ही इतने मसरूफ़ रहते हैं कि आप को लगता है कि उन में से अधिकांश को इस तरह के जागरूकता अभियान का हिस्सा बनने का समय भी मिलता होगा।
तो फिर ऐसे में होता क्या है ? --लोगों को लगता है कि जो बाहर की कंपनियां फरमा रही हैं, वह एकदम दुरूस्त है, इन टॉनिकों को लेकर ही फिट रहा जा सकता है।
लेकिन मैं इस बात से बिल्कुल भी इत्तफाक नहीं रखता --क्या पहले लोग जीते नहीं थे --- देखा जाए तो जीते वही थे, आज तो लोग बस टाइम को धक्का मार रहे हैं।
एक बात और भी है कि सीधी सादी सी बातें भी तो लोगों को समझ में नहीं आती ---जो बातें कहने सुनने में कठिन लगें, लच्छेदार हों, मीठी चासनी में घुली हों, उन्हें वही भाती हैं।
यकीन मानिये जिस मां का बच्चा रोटी नहीं खाता, दाल सब्जी नहीं खाता ---यह लगभग एक राष्ट्रीय समस्या सी हो गई है-- वह जब डाक्टर से किसी टॉनिक के लिये पूछती है और अगर कोई भला डाक्टर अपना समय निकाल कर उस के चिप्स, बिस्कुट, भुजिया, बर्गर बंद करने की सलाह देता है और रोटी दाल सब्जी खाने की सलाह देता है तो उस मां को शायद यह सलाह सब से बेकार लगती होगी और जाते समय वह कैमिस्ट से कोई न कोई टॉनिक की शीशी तो ले ही लेती होगी।
क्या कहें, क्या न कहें---सब कुछ गोरखधंधा है --किसी कैमिस्ट की दुकान पर देखो तो उस के काउंटर पर और आसपास ढ़ेरों अनाप शनाप टॉनिक-ज्यूस बिखरे पड़े होते हैं ----रैसिपी तो सेहत की एक ही है ---सादा संतुलित आहार --जो सदियों से देश खाता आ रहा है --- दाल-रोटी-सब्जी-चावल, सलाद और मौसमी फल ---इस के अलावा कैमिस्टों की दुकान से फिटनैस ढूढना बेकार है।
मैं कईं बार बैठा बैठा सोचता हूं कि बचपन में जो बच्चे बहुत सी सब्जियों-दालों से दूर रहते हैं ----शायद छोटेपन में तो चल जाता है ---क्योंकि यह सब भी कमबख्त लाड-प्यारा की परिभाषा में आ जाता है कि अगर लल्लन नहीं खा रहा यह सब कुछ तो चलो उसे दो-तीन परांठे सेंक दें ----और यह दौर चलता ही रहता है। नतीजा यह हो जाता है कि लल्लन 10-12 साल तक फूल के कुप्पा हो जाता है ----और फिर फिटनैस ढूंढी जाती है देशी-विदेशी टॉनिकों में।
तो आज की इस पोस्ट से केवल इस बात को उठायें कि बच्चों को छोटी उम्र से ही सभी सब्जियां, दालें और अनाज खाने की आदत डालें और अगर किसी कारणवश यह सब आप से नहीं हो रहा तो एक बहुत ही ज़्यादा गंभीर मुद्दा है ----क्योंकि मेरा अनुभव तो यही कहता है कि जो बच्चे बचपन में इन कुदरती वरदानों से दूर रहते हैं वे फिर बड़े होकर भी पिज़्जा, बर्गर, हाट-डाग, चाइनीज़, हाका, कोल्ड-ड्रिंक्स, और इसी तरह की अनेकों वस्तुओँ से भूख मिटाते फिरते हैं --------सब कुछ होता है इन के पास बड़ी बड़ी डिग्रीयां, बढ़िया अंग्रेज़ी, बढ़िया पे-पैकेट, ब्रैंडेड कपडे, अतिआधुनिक मोबाइल फोन..............और भी सब कुछ जिस की कोई भी कल्पना कर सकता है लेकिन अच्छी सेहत, फिटनैस के बिना यह सब किसी काम का। अच्छी सेहत तो साधी सादे हिंदोस्तानी खाने से ही आयेगी ---- यकीन मान लें कि और कोई भी रास्ता नहीं है फिट रहने के लिये।
और अब बात कि अगर ये सब इतने टॉनिक बन रहे हैं तो ये किस के लिये ? ---ये बीमार लोगों के लिये हैं, सेहतमंद लोगों के लिये , न ही ये अच्छे खाने का विकल्प हो सकते हैं----ये जो टॉनिक-वॉनिक हैं, इन्हें अकसर क्वालीफाईड चिकित्सक बीमार लोगों को देते हैं ताकि उन को जल्दी से सेहतलाभ हो।
मेरे को जब भी कोई इस तरह के टॉनिकों आदि के बारे में बताता है, इन की तारीफ़ों के पुल बांधता है, मैं शिष्टाचार वश उस की बात तो सन लेता हूं ----लेकिन किसी भी सेहतमंद आदमी को इन की सिफारिश करना तो दूर---मैं कभी इन का नाम तक लोगों के सामने नहीं लेता और न ही अपनी ओपीडी में इन का कोई विज्ञापन ही चिपकने देता हूं -----क्या है, कईं बार लोग इस तरह के इश्तिहार से भी इन के चक्कर में आ जाते हैं। बहुत बार सोचता हूं कि हम लोगों को काम भी ढिढोरची जैसा ही है ------हर समय किसी न किसी बात का ढिंढोरा पीटते रहना --------ताकि अज्ञानता वश कोई चक्कर में न पड़े।
जाते जाते एक बात का ध्यान आ गया ---क्या आपने कभी सुना है कि फलां फलां बच्चा बचपन में तो दाल-सब्जी नहीं खाता था लेकिन बड़ा होकर वह सब खाने लग गया है ----अगर सुना है तो टिप्पणी में ज़रूर लिखना -----क्योंकि मैंने तो ऐसा कभी नहीं सुना।

सोमवार, 31 मई 2010

तंबाकू दिवस पर तंबाकू को पैरों तले रोंदा नहीं?

आज विश्व तंबाकू निषेध दिवस है और मैं कुछ बातें दिल से करना चाहता हूं। मुझे व्यस्कों को बीड़ी-सिगरेट-तंबाकू का इस्तेमाल करते हुये देख कर कुछ दुःख होता है लेकिन ऐसे छोटे छोटे बच्चों को देख कर तो बहुत ही दुःख होता है जिन के मां-बाप तंबाकू का किसी भी रूप में इस्तेमाल करते हैं। और दुःख स्कूली बच्चों को बीड़ी-सिगरेट पीते देख कर भी बहुत होता है।

वैसे मुझे हार तो नहीं माननी चाहिये लेकिन पता नहीं मुझे क्यों लगता है कि जो व्यस्क हैं, कुछ वर्षों से तंबाकू का इस्तेमाल कर रहे हैं, डाक्टर लोग उन के लिये ज़्यादा से ज़्यादा क्या कर लेंगे? मेरा अनुभव कहता है कि बहुत कम ही इन लोगों के लिये कुछ किया जा सकता है। इस का कारण यह है कि ये लोग पक चुके हैं, तंबाकू के आदि हो चुक हैं, किसी की सुन के राजी नहीं हैं, और अकसर ये लोग तंबाकू को त्यागने का नाटक तो करते हैं---लेकिन पता नहीं कितने सीरियस होते हैं, मैं आज तक समझ नहीं पाया।
जो व्यस्क लोग तंबाकू के आदि हो चुके हैं, मैं समझता हूं कि वे अपनी च्वाइस से ऐसा कर रहे हैं। वैसे हम लोग तंबाकू की चेतावनियों के बारे में अकसर टिप्पणी तो करते हैं लेकिन समझ में नहीं आता कि क्यों ये लोग डरावनी चेतावनियों का इंतज़ार करते रहते हैं।
सब से ज़्यादा दुःख मुझे छोटे छोटे स्कूली एवं कॉलेज के छात्रों को तंबाकू का किसी भी रूप में सेवन करते हुये होता है। क्योंकि मुझे लगता है कि यह एक राष्ट्रीय त्रासदी है—ये लोग एक बार इस ज़हर के, इस शैतान के भंवर में फंस गये तो समझो गये। बस, एक बार कुछ ही वर्षों में आदि हुये नहीं कि ढ़ेरों बीमारियां शरीर में घर कर लेती हैं। इसलिये कुछ भी कर के इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि किसी भी तरह से बच्चे इस राक्षस से दूर रहें। और इस के लिये शुरूआत पहले मां बाप को करनी होगी ----तंबाकू के सभी उत्पादों को हमेशा के लिये त्याग कर।
और फिर मुझे यह भी बहुत बुरा लगता है कि जब कोई परिवार कहीं बैठा है या यात्रा कर रहा है तो आदमी बीड़ी पर बीड़ी फूंके जा रहा है और इस से उठने वाले धुयें से उस का बच्चा जिसे उस की बीवी ने गोद में उठाया होता है, वह परेशान होता रहता है। हो सकता है कि उस आदमी को इस का आभास न हो, लेकिन अगर सारा संसार चीख चीख कर कह रहा है कि पैसिव स्मोकिंग के भी बहुत नुकसान हैं तो हैं। इसी तरह से गर्भवती महिलायें भी अपने पतियों के तंबाकू के धुयें का शिकार होती रहती हैं।
मेरा चिट्ठा है, दिल की बात इधर न लिखूंगा तो कहां लिखूंगा----सच में लिख रहा हूं कि मुझे उम्र में बड़े लोगों के तंबाकू की लत में फंसे होने का बहुत कम दुःख होता है ---अब पॉलिटिकली करैक्ट तो लिखना ही है कि दुःख तो होता ही है..... क्योंकि मुझे लगता है कि अकसर इस तरह के लोग किसी की सुनते नहीं, इन्हें बाकी सभी नफ़े-नुकसान तो अच्छे से पता है लेकिन तंबाकू के लिये क्यों ये चाहते हैं कि आसमान से फरिश्ता उतर कर इन की मदद करे। ऐसा कैसा हो सकता है ---सभी अस्पतालों के डाक्टर सारा दिन तंबाकू से होने वाले नुकसान को ठीक करने की हारी हुई जंग लड़ने में व्यस्त रहते हैं। जंग तो उस्ताद हारी हराई ही होती है
हम तो पैसिव स्मोकिंग की बात कर के छुट्टी कर लेते हैं – बस यही सोचते हैं कि कैसे किसी दूसरे को टोकें कि यार, तुम्हारी सिगरेट,बीड़ी से मुझे दिक्कत हो रही है। मैं कल कही पढ़ रहा था कि पैसिव स्मोकिंग से लाखों-करोड़ों लोग मारे जाते हैं ---अर्थात् उन्होंने स्वयं तो कभी तंबाकू का इस्तेमाल किया नही लेकिन उन के आस पास के लोगों की तंबाकू की आदत ने उन की जान ले ली।
सार्वजनिक स्थानों पर सिगरेट-बीड़ी पीना सख्त मना है---शायद कानूनी अपराध है या शायद केवल ज़ुर्माने का ही प्रावधान है ---क्या बसों में, गाड़ियों में , बस अड़्डों पर, रेलवे स्टेशनों पर लोग अब बीड़ी सिगरेट नहीं पीते? मैंने तो बहुत से लोगों को पब्लिक जगहों पर फेफड़े सेंकते देखता हूं। लेकिन मैं कहता किसी से कुछ नहीं हूं ---क्योंकि मैं बिना वजह किसी झगड़े से बचना चाहता हूं। यहां तक कि कॉलेज के बच्चों को भी तंबाकू का इस्तेमाल करते देखते हुये भी इन्हें कुछ कहने से डरता हूं कि कहीं बीच सड़क में पिट गया तो किसी को बता भी नहीं पाऊंगा।
और तंबाकू छुड़वाने के लिये तरह तरह के च्यूईंग गम आदि के मार्केटिंग के लोग मेरे तक भी पहुंचते तो हैं लेकिन मैंने आज तक किसी एक भी मरीज़ को इसे लेने की सलाह नहीं दी। कारण ? –मुझे लगता है कि जिस बंदे को तंबाकू छोड़ने के लिये निकोटिन-च्यूईंग गम आदि का पता है वह मेरी हरी झंडी की तो इंतज़ार कर नहीं रहा। खरीद कर खा ही लेगा अगर इतना व्याकुल होगा तंबाकू को लात मारने के लिये। और मैं ऐसे कैसे अढ़ाई रूपये की बीड़ी मारने वाले को पचास रूपये की निकोटिन च्यूईंग गम चबाने के लिये कह दूं-----यह अपने से नहीं होता।
और एक बात --- कुछ क्लीनिक व्यसन-मुक्ति के लिये भी चल रहे हैं --- जहां पर ड्रग्स एवं दारू आदि से मुक्ति दिलाई जाती है। लेकिन मुझे कभी भी नहीं लगा कि मैं किसी मरीज़ को इन जगहों पर जाने की सलाह दूं ---अगर किसी ने जाना होगा तो चला जायेगा। पिछले 25 सालों में तो मैंने अपने व्यक्तिगत अनुभव में किसी को इस तरह के स्थान पर जा कर तंबाकू को त्याग कर आते तो देखा नहीं ----शायद यह मेरा अल्प अनुभव होगा, शायद यह सब मुमकिन होता होगा।
तो मैंने कैसे केस देखे हैं जहां पर लोग तंबाकू को गाली निकाल कर लात मार देते हैं। जब किसी नज़दीकी सगे-संबंधी को तंबाकू के उपयोग से जुड़ी कोई जटिलता उत्पन्न हो जाती है या फिर तंबाकू का इस्तेमाल करने वाले के सीने में दर्द उठता है और डाक्टर ऐंजियोग्राफी करवाने की सलाह देता है तब मैंने लोगों को तुरंत इस ज़हर को हमेशा के लिये थूकते देखा है। और मैंने यह भी देखा है कि जो समर्पित डाक्टर हैं वे मरीज़ों के मुंह में झांक कर उन्हें तंबाकू से होने वाली तरह तरह की बीमारियों के बारे में आगाह भी करते रहते हैं------------बात तो उस्ताद वही है, कि मरीज़ चाहे खुद छोड़े या कोई छुड़वाये, ये सब दिल से करने वाली बातें है।
मैं जिस हस्पताल में काम करता हूं वहां पर हज़ारों कर्मचारी इलाज के लिये पंजीकृत हैं ---इसलिये मैं उन के मन में पैसिव स्मोकिंग के प्रति ज़हर भरता ही रहता हूं ----बस बातों बातों में उन्हें उकसाता रहता हूं कि अगर साथी सिगरेट-बीड़ी पीता है तो वह तुम्हारी सेहत की भी ऐसी तैसी फेर रहा है, उसे प्यार से रोक दिया करो। वर्क प्लेस पर ही नहीं, मुझे लगता है कि अब वे दिन भी दूर नहीं जब बीवी तंबाकू पीने वाले पति से दूर रहने की फिराक में रहेगी ---उसे बार बार ताने मारेगी, अपने छोटे छोटे बच्चों की सेहत का वास्ता देकर, अपने पेट में बढ़ रहे बच्चे की जान की खातिर इस शैतान का साथ छोड़ने की बात कहेगी और कितना अच्छा हो कि बच्चे ही घर में हड़ताल कर दें कि वे खाना तभी खाएंगे जब बाप बीड़ी पीना बंद करेगा या तो फिर अगर उसे तंबाकू पीना ही है तो घऱ के बाहर ही पी कर आया करे ----क्योंकि उस का मुंह बास मारता है और पैसिव स्मोकिंग से उन के फेफड़े भी जलते हैं। वैसे इस तरह की पैसिव स्मोकिंग के खतरों के बारे में जागरूक करने वाले कुछ पाठ अगर स्कूल-कॉलेज की किताबों में रहेंगे तो कैसा रहेगा ?
चलो यार, बहुत बातें हो गईं –अब खत्म करते हैं लेकिन इसी ताकीद के साथ कि अगर तंबाकू का इस्तेमाल आप कर रहे हैं तो तुरंत छोड़ दें -----इस में कोई आप की मदद नहीं करेगा ---यह काम आप को ही करना होगा—कैसे भी ...किसी भी तरह से ......लेकिन एक बात का विशेष ध्यान रखें कि अगर आप को पता लगे कि आप का बच्चा छुप छुप कर बाथरूम में कभी कभी कश मारने लगा है तो भी इसे एक एमरजैंसी समझ कर इस से निपट लें। वैसे तो मैं बच्चों के साथ किसी तरह की ज़ोर-जबरदस्ती का घोर विरोधी हूं लेकिन इस तंबाकू, सिगरेट, बीड़ी, गुटखा, दारू, बीयर के बारे में आप कोई भी साधन अपनायें ---क्या कहते हैं -----वह मुझे ठीक से याद भी तो नहीं ---साम, ढंड,भेद ... .........।
क्या आप को नहीं लगता कि 31 मई का दिवस तंबाकू निषेध दिवस तो है ही ---लेकिन जिन परिवारों में लोग इस तरह के व्यसन के आदि हैं क्या उन के लिये यह शोक दिवस नहीं है? ----हर साल यह दिन उन में और एक अंधी खाई के दरमियान के फासले कम करता जा रहा है।
भारत वैसे है ग्रेट देश -----मेरे जैसे लोग बीस-तीस सालों तक माथा पीटते रहते हैं और चंद लोगों को तंबाकू छुड़ाने में शायद सफल हो पाते हैं लेकिन यहां पर जो संत लोग हैं, मैं बहुत हैरान होता हूं कि सतसंग में उन के संपर्क में आने पर हज़ारों लोग तंबाकू, दारू, जुआ छोड़े देते हैं -----क्या कहा? यह अंधविश्वास है, अंध श्रद्धा है, आप इसे नहीं मानते ----------कोई बात नहीं, आप की मर्जी, लेकिन मैं इस तरह के लोग रोज़ देखता हूं जो सतसंग में जाने के बाद (अगर और जानकारी चाहिये तो मुझे ई-मेल करियेगा drparveenchopra@gmail.com ) पूरी तरह से बदल जाते हैं, व्यसन से दूर भागते हैं................बस, इसीलिये भारत तो बस भारत ही है। यहां पर बहुत सी ऐसी बातें हैं जिन्हें दिमाग से नहीं बल्कि दिल से समझा जा सकता है।
इसलिये बेहतर होगा कि तंबाकू की लत की ऐसी की तैसी करने के लिये न तो किसी कानून की इंतज़ार ही की जाए कि कोई कानून आ कर आप के हाथ से बीड़ी छीन लेगा और न ही सिगरेट के पैकटों पर भयानक चेतावनियों की बाट जोहते रहें ----सियासत करने वालों को जम कर सियासत करने दें ----आप अपना काम करिये -- जलती सिगरेट, सुलगती बीड़ी को अपने जूते के तले हमेशा के लिये रोंध दे और तंबाकू थूक दें...............शाबाश!! यह हुई न बात !!
PS......आज यह पोस्ट लिखते समय इतना ज़्यादा गाली गलौज़ करने की इच्छा हो रही थी कि पता नहीं कैसे काबू कर पाया हूं ---मन ही मन मैंने इस कमबख्त तंबाकू को पंजाबी भाषी में उपलब्ध बीसियों मोटी मोटी गालियां बक दी हैं ----आप मेरे बिना लिखे ही समझ लेना कि वे क्या क्या हो सकती हैं। सच में इस ने सारे संसार की सेहत की ऐसी की तैसी की हुई है और लोग हैं कि इस पर भी सियासत से बाझ नहीं आते। केवल जागरूकता ही इस से बचने का अस्त्र है।

गुरुवार, 27 मई 2010

छाती की जलन के लिये ली जाने वाली दवाई बढ़ा देती है फ्रैक्चर रिस्क

आज की आधुनिकता की अंधी दौड़ की एक देन तो है कि हर दूसरा आदमी छाती की जलन से परेशान है और इस के लिये बहुत बार बिना किसी डाक्टरी नुस्खे के ही अपने आप ही पेट में एसि़ड कम करने वाली दवाईयां लेना शुरू कर देते हैं।
और इस तरह की दवाईयों की हाई डोज़ अथवा लंबे समय तक सामान्य डोज़ लेना रिस्क से खाली नहीं है, वैज्ञानिकों की खोज से पता चला है कि हाई डोज़ अथवा लंबे समय तक इन दवाईयों को लेने से हिप (कुल्हा), कलाई एवं स्पाईन (रीढ़ की हड्डी) का फ्रैक्चर होने का रिस्क बढ़ जाता है।
पता नहीं आज कल इन दवाईयों का चलन बहुत ही ज़्यादा बढ़ गया है ---जिन हस्पतालों में दवाईयां मुफ्त वितरित की जाती हैं वहां भी मरीज इन दवाईयों का नाम ले कर इस तरह से मांगते हैं जैसे पिपरमिंट की गोलियों हों। और खाने पीने संबंधी बदलाव की सलाह देने पर वही जवाब होता है कि हम तो पहले ही से सावधानी बरतते हैं।
क्या आप को नहीं लगता कि हमारे शरीर में जो कुछ भी पदार्थ (सिक्रेशन्ज़-- secretions) आदि बन रहे हैं उन का अपना बहुत महत्व है--वे कईं शारीरिक क्रियाओं में अहम् भूमिका निभाते हैं। इस लिये अपनी मरजी से इस तरह की बिल्कुल हानिरहित सी दिखने वाली दवाईयां ले लेने से हम लोग कईं रिस्क मोल ले लेते हैं।
लेकिन अगर क्वालीफाईड डाक्टर कुछ समय के लिये इस तरह की दवाईयां खाने का नुख्सा दे तो अवश्य लें---वैसे तो इस रिपोर्ट में डाक्टरों को भी इन दवाईयों को लंबे समय तक मरीज़ों को देने के बारे में अच्छा खासा चेताया गया है।
बिल्कुल छोटे छोटे से तो देखते थे कि नानी-दादी इस काम के लिये थोड़ा सा मीठा सोड़ा पानी में घोल कर पी लिया करती थीं--- घर में बात करते हैं कि मेरी दादी पकौड़ों की बहुत शौकीन थीं --- और इन्हें खाने के बाद मीठे सोडा तो उन्हें चाहिये ही था। फिर समय आया जब हम लोग 15-20 साल के हुये तो टीवी पर हाजमा दुरूस्त करने के लिये एक पावडर का विज्ञापना बहुत आता था जिस की शीशी को लोगों ने घर में रखना एक स्टेट्स सिंबल समझना शुरु कर दिया था।
फिर हम लोग मैडीकल की पढ़ाई पढ़ने लगे तो देखा कि एंटासि़ड की गोलियां और पीने वाली दवाईयां खूब पापुलर हो गई हैं। और पिछले कुछ सालों से तो लोगों का इन एंटासिड की गोलियों एवं सिरिपों से भी कुछ नहीं बनता ---अब तो वे चाहते हैं कि किसी तरह से पेट में पैदा होने वाले एसिड् को समाप्त ही कर दिया जाये, लेकिन इस तरह की दवाईयां मनमर्जी से एवं लंबे समय तक लेने से होने वाले रिस्क आप जान ही गये हैं।
दवाई तो दवाई है ---- साल्ट है, ऐसे कैसे हो सकता है कि किसी भी साल्ट का कोई भी दुष्परिणाम न हो। और हां, जिन एंटासिड की गोलियों एवं सिरिपों की बात हो रही थी उन के अंधाधुंध इस्तेमाल से होने वाले दुष्परिणामों ( जैसे कि फ्रैक्चर रिस्क बढ़ना) के बारे में भी कुछ समय पहले खूब रिपोर्ट दिखीं थीं।
और तो और कुछ समय से यह भी सुनने में आ रहा है कि ये जो कोलेस्ट्रोल कम करने के लिये इस्तेमाल की जाने वाली दवाईयां है इन के भी लिवर पर, किडनी पर बुरे प्रभाव हो सकते हैं और इन के उपयोग से सफेद मोतिया भी हो सकता है ---अब बात यह है कि अगर कोई पहले से ऐसी दवाईयां ले रहा है तो क्या वह इसे बंद कर दे। नहीं, ऐसा करना उचित नहीं है, फ़िज़िशियन ने आप के लिये वे दवाईयां लिखी हैं तो लेनी ही होंगी ताकि आप के हृदय की सेहत की रक्षा की जा सके।
लेकिन यह ध्यान भी रखा जाना ज़रूरी है कि इस तरह की दवाईयां लेते समय अगर कोई भी ऐसे वैसे अजीब से लक्षण दिखें तो डाक्टर से संपर्क अवश्य करें और मैं कुछ दिन पहले कहीं पढ़ रहा था कि ऐसे ज़्यादातर दुष्परिणाम इस तरह की दवाईयां शुरू करने के एक साल के भीतर होने की संभावना ज़्यादा होती है।
वैसे आप को भी लगता होगा कि इस तरह की कोलैस्ट्रोल कम करने वाली दवाईयों को अगर एक बैशाखी के रूप में इस्तेमाल किया जाए तो ही बेहतर है ---ठीक है, डाक्टर कहते हैं तो लेनी ही पड़ती हैं लेकिन क्यों न अपने खाने-पीने के तौर-तरीके और जीवन शैली इस कद्र बदल दिये जाएं कि डाक्टर लोग जब लिपिड प्रोफाईल जैसा टैस्ट करवायें और वे इतने आश्वस्त हो जाएं कि इन्हें बंद करने की सलाह ही दे डालें।
हां, बात शूरू हुई थी छाती में जलन से इसलिये बात खत्म भी वही होनी चाहिये ----मेरे को भी महीने में एक-आध बार इस तरह की समस्या तो होती ही है ---कईं बार तंग आ कर मैं भी इस तरह के कैप्सूल ले तो लेता हूं लेकिन बहुत बार मैं इस काम के लिये आंवले के पावडर का एक चम्मच ले कर सैट हो जाता हूं ----आप भी इसे आजमा सकते हैं।

शनिवार, 22 मई 2010

हार्ट-अटैक के बाद संभोग से इतना खौफ़ज़दा क्यों ?

हार्ट-अटैक के इलाज के बाद जब मरीज़ को हस्पताल से छुट्टी मिलती है तो डाक्टर लोग उससे उस की सैक्स लाइफ के बारे में कुछ भी चर्चा नहीं करते। ना तो मरीज़ ही खुल कर इस तरह की बात पूछने की "हिम्मत" ही जुटा पाते हैं... और इसी चक्कर में होता यह है कि हार्ट-अटैक से बचने पर लोग सैक्स से यह सोच कर दूर भागना शुरू कर देते हैं कि संभोग करना उन के लिये जानलेवा सिद्ध हो सकता है।

अब आप बीबीसी आनलाइन पर प्रकाशित इस रिपोर्ट --- Heart attack survivors 'fear sex' ---को देखेंगे तो आप भी यह सोचने पर मजबूर हो जाएंगे कि अगर अमेरिका जैसे देश में जहां इस तरह के मुद्दों पर बात करने में इतना खुलापन है ---अगर वहां यह समस्या है तो अपने यहां यह समस्या का कितना विकराल रूप होगा।

इस तरह का अध्ययन अमेरिका में 1700 लोगों पर किया गया --और फिर इन वैज्ञानिकों नें अमेरिकन हार्ट एसोसिएशन की एक मीटिंग में अपनी रिपोर्ट पेश करते हुये साफ शब्दों में यह कहा है कि हार्ट-अटैक से ठीक हो चुके जिन मरीज़ों के डाक्टर उन के साथ उन की सैक्स लाइफ के बारे में बात नहीं करते, वही लोग हैं जो सैक्स के नाम से भागने लगते हैं।

और देखिये विशेषज्ञों ने कितना देसी फार्मूला बता दिया है कि वे लोग जिन्हें कुछ समय पहले हार्ट अटैक हुआ है और वे अब ठीक महसूस कर रहे हैं तो अगर वे कुछ सीढियां आसानी से चढ़ लेते हैं तो वे पूर्ण आत्मविश्वास के साथ संभोग करना भी शुरू कर सकते हैं।

और यह जो फार्मूला बताया गया है यह बहुत ही सटीक है। यह नहीं कि कोई ऐसा मरीज़ अपने डाक्टर से पूछ बैठे कि वह कितने समय तक सैक्सुयली सक्रिय हो सकता है तो एक डाक्टर कहे दो महीने बाद, कोई कहे छः महीने बाद ---और कोई मरीज़ को आंखे फाड़ फाड़ कर देखते हुये उसे यह आभास करवा दे कि कहीं उस ने ऐसा प्रश्न पूछ कर कोई गुनाह तो नहीं कर दिया------तो सब से बढ़िया जवाब या सुझाव जो आप भी अपने किसी मित्र को देने में ज़रा भी हिचक महसूस नहीं करेंगे ---- अगर सीढ़ियां ठीक ठाक बिना किसी दिक्कत के चढ़ लेते हो तो फिर समझ लो तुम अपने वैवाहिक जीवन को भी खुशी खुशी निबाह पाने में सक्षम है --------और वैसे भी हिंदोस्तानी को तो बस इशारा ही काफी है।

लेकिन कहीं आप यह तो नहीं समझ रहे कि यह मार्गदर्शन केवल पुरूषों के लिये ही है ---ऐसा नहीं है, महिलाओं के लिये भी यही सलाह है। इस बात का ध्यान रखे कि महिलायें भी हार्ट अटैक जैसे आघात से उभरने के बाद तभी सैक्सुयली सक्रिय हो पाने में सक्षम होती हैं जब वे सीढ़ियां आराम से चढ़ना शुरू कर देती हैं। और इस अवस्था तक पहुंचने में हर बंदे को अलग अलग समय लग सकता है।

मुझे इस रिपोर्ट द्वारा यह जान कर बहुत हैरानगी हुई कि वहां पर भी लोग इस तरह के अहम् मामले में बात करते वक्त इतने संकोची हैं और दूसरी बात यह महसूस हुई कि हमारे यहां तो फिर हालात एकदम फटेहाल होंगे ----शायद कुछ लोग एक बार हार्ट अटैक होने पर इसी तरह के डर से अपना आत्मविश्वास डगमगाने की वजह से लंबे समय तक संभोग से दूर ही भागते रहते होंगे। और बात केवल इतनी सी कि न तो उन के चिकित्सक ने उन से इस मुद्दे पर बात करना उचित समझा और दूसरी तरफ़ बेचारा मरीज --- हम हिंदोस्तानी लोग खुले में इस तरह की "गंदी बातें" कैसे पूछें, हम तो अच्छे बच्चे है.........अंदर ही अंदर कुढ़ते रहें, कुठित होते रहे लेकिन .......।

दरअसल जैसा कि इस रिपोर्ट में भी कहा गया है कि सैक्स भी मरीज़ों की ज़िंदगी का एक अहम् भाग है और इसलिये शायद वे यह अपेक्षा भी करते हैं कि डाक्टरों को इस के बारे में भी थोड़ी बात करनी चाहिये। क्या आप को नहीं लगता कि मरीज़ों का ऐसा सोचना एकदम दुरूस्त है।

इस तरह के कुछ मरीज़ों को यह भी डर लगता है कि संभोग में लगने वाली परिश्रम की वजह से कहीं से दूसरे हार्ट अटैक को आमंत्रित न कर बैठें, लेकिन ऐसा बहुत ही बहुत ही कम बार होता है ---आप यही समझें कि यह रिस्क न के ही बराबर है -----क्योंकि रिपोर्ट में शब्द लिखा गया है ---extremely unlikely. अब इस से ज़्यादा गारंटी क्या होगी ?

एक बात और भी है कि हार्ट के किसी रोगी में जैसे कोई भी शारिरिक परिश्रम कईं बार छाती में थोड़ा बहुत भारीपन ला सकता है वैसे ही अगर संभोग के दौरान भी अगर ऐसा महसूस हो तो वह व्यक्ति ऐसी किसी भी अवस्था के समाधान के लिये स्प्रे (यह "वो वाला स्प्रे" नहीं है..... जिस के कईं विज्ञापन रोजाना अखबारों में दिखते हैं) का या जुबान के नीचे रखी जाने वाली उपर्युक्त टेबलैट का इस्तेमाल कर सकता है, जिस से तुरंत राहत मिल जाती है।
और इस रिपोर्ट के अंत में लिखा है ---

"Caressing and being intimate is a good way to start resuming sexual relationships and increase your confidence." अब इस का अनुवाद मैं कैसे करूं, हैरान हूं ---मेरी हिंदी इतनी रिफाइन्ड है नहीं, अच्छी भली संभ्रांत भाषा को कहीं अश्लील न बना दूं -----इसलिये समझने वाले समझ लो।

मुद्दा बहुत गंभीर है--- लेकिन इसे हल्के-फुल्के ढंग से इसलिये पेश किया है ताकि बात सब के मन में बैठ जाये। आप इस पोस्ट में लिखी बातों के प्रचार-प्रसार के लिये या इस में चर्चित न्यूज़-रिपोर्ट के लिंक को बहुत से दूसरे लोगों पर पहुंचाने में क्या मेरा सहयोग कर सकते हैं ?

क्या आप को नहीं लगता कि कईं बार हम लोग कुछ ऐसा पढ़ लेते हैं, देख लेते हैं जिस को आगे शेयर करने से हम अनेकों लोगों की सुस्त पड़ी ज़िंदगी में बहार लाने के लिये अपनी तुच्छ भूमिका निभा सकते हैं ? मैं तो बड़ी शिद्दत से इस बात को महसूस करता हूं।

शुक्रवार, 21 मई 2010

चलिये ज़रा देखते हैं हमारे गुर्दे कैसे काम करते हैं ?

इस वीडियों में आप देख सकते हैं कि हमारे गुर्दे काम कैसे करते हैं --- मैंने हिंदी भाषा का सहारा लेकर इसे थोड़ा आसान सा करना चाहा है।

यूरिनरी ट्रैक्ट में हमारे गुर्दे, यूरेटर्ज़, ब्लैडर एवं यूरैथरा शामिल हैं। हरेक गुर्दे में मूत्र बाहरी कोरटैक्स से अंदरूनी मैडुला की तरफ़ आता है। और रिनल पैल्विस(renal pelvis) एक फनल का काम करती है जिस से होकर मूत्र गुर्दे से निकल कर यूरेटर में बह जाता है।

गुर्दे से गुज़रते गुज़रते यूरिन अच्छा खासा कंसैनट्रेट्ड हो जाता है। और जब यह कुछ ज़्यादा ही कंसैनट्रेटैड हो जाता है तो कैल्शीयम, यूरिक एसिड साल्ट और अन्य कैमीकल जो कि मूत्र में मिले रहते हैं वे क्रिस्टैलाइज़ होना शुरू कर देते हैं जिस से गुर्दे में पत्थरी बन जाती है --- kidney stone(renal calculus).

आम तौर पर यह पत्थरी एक छोटे से कंकर के आकार की होती है लेकिन यूरेटर्ज़ की बनावट ऐसी होती है कि जब पत्थरी के कारण इन में खिंचाव आता है तो बहुत ज़्यादा दर्द होने लगता हैआम तौर पर लोगों को तब तक पता ही नहीं होता कि उन के गुर्दे में पत्थरी है जब तक कि उन्हें इस तरह का दर्द नहीं सताता। खुशकिस्मती यह है कि चोटे पत्थर गुर्दे से और आगे यूरेटर्ज़ से होकर अपने आप बिना किसी तकलीफ़ के बाहर निकल जाते हैं।

लेकिन यह बात तो है कि कईं बार इस पत्थरी की वजह से तब बहुत दिक्कत हो जाती है जब ये मूत्र के बहने में ही रूकावट पैदा कर देते हैं।

PS....कभी कभी जब मुझे इस तरह से थोड़ी अंग्रेज़ी को सरल अनुवाद कर के हिंदी में लिखना होता है तो मेरी खाट खड़ी हो जाती है और फिर मुझे लगने लगता है कि बेपरवाह हो कर लिखना बिलकुल बेपरवाह बहती जलधारा के समान है और इस तरह से अनुवाद कितना कठिन, दुर्गम, उबाऊ और थकाने वाला काम है, बहरहाल आज तो कर दिया है, फुर्सत हो तो ऊपर जिस वीडियो का लिंक मैंने दिया है उसे ज़रूर देखें। शायद इस के लिये आप को प्लग-इन इंस्टाल करने की ज़रूरत होगी जो उसी पेज़ पर दिये गये लिंक से आसानी से हो सकती है। और मैडलाइन-न्यूज़ की साइट ऐसी बीसियों वीडियो पड़ी हैं जिन के द्वारा आप अपने शरीर की कार्य-प्रणाली के बारे मे जानकारी हासिल कर सकते हैं।

गुरुवार, 20 मई 2010

विवाह-शादियों में शिरकत तो करें लेकिन आखिर खाएं क्या?

कल ऐसे ही हम कुछ दोस्त लोग बैठे हुये थे तो चर्चा चली कि आखिर क्यों किसी विवाह-शादी या पार्टी-वार्टी में खाकर तबीयत क्यों बिगड़ सी जाती है, हम लोग ऐसे ही मज़ाक कर रहे थे कि पहले तो हम डाक्टर लोग ही कह दिया करते थे कि इन पार्टियों आदि में तो बस थोड़ा दही-चावल लेकर छुट्टी करनी चाहिए। लेकिन अब तो वह दही भी उस लिस्ट में गायब होने लगा है।

चलिये थोड़ा विस्तार से देखें तो सही कि आखिर हम किस स्टॉल पर जाएं और किस पर ना जाएं---

आप में से कुछ लोगों को लग सकता है कि इतने भ्रम किये जाएंगे तो फिर कैसे चलेगा, लेकिन अगर हम यह सोचते हैं तो फिर पेट की तकलीफ़ों के लिये भी तैयार ही रहना चाहिये। अच्छा तो हम यहां चर्चा उन वस्तुओं की ही करेंगे जिन से बच के रहना चाहिये।

जहां तक हो सके इन समारोहों में पानी पीने से बचना चाहिये -----यह कैसे संभव है, मुझे भी नहीं मालूम---क्योंकि अकसर पानी प्रदूषित न भी हो तो भी उस की हैंडलिंग गलत ढंग से होने से बीमारीयां फैलती ही हैं। और यह जो आजकल गिलास की पैकिंग का ज़माना आ गया है अब इन में भी कितनी शुद्धता है कितनी नहीं, कौन जाने। और इस पानी को पी लेने से शायद उतनी प्यास नहीं बुझती जितना अपराधबोध हो जाता है कि यार, इस तरह के प्लास्टिक के गिलास में पानी पीना कहां से पर्यावरण की सेहत के अनुकूल है!!

चलिये, आगे चलें ---अभी बारात आने में टाइम है--- इसलिये पानी-पूरी के स्टॉल का चक्कर लगा कर आते हैं --- अब इस में इस्तेमाल किये जाने वाले पानी के बारे में आप का विचार है, तरह तरह के इसैंस, कलर, फ्लेवर आदि को नज़र-अंदाज़ कर भी दें तो जो बंदा अपने हाथ के साथ साथ आधी बाजू को भी उस खट्टे-मीठे पानी के मटके में बार बार डाल रहा है, और किसी किसी फेशुनबल, हैल्थ-कांसियस पार्टी में उस नें डाकटरों वाले दस्ताने डाल रखे होते हैं ---- आप यही पूछ रहे हैं न कि फिर पानी पूरी भी न खाएं ----- यह आप का निर्णय है। और बर्फ के गोलों, शर्बत आदि में कौन सा पानी- कौन सी बर्फ इस्तेमाल हो रही है, इसे देखने की किसे फुर्सत है।

मिल्क से बने उत्पाद --- पिछले तीन सालों में मिलावटी नकली दूध के बारे में इतना पढ़ सुन चुका हूं कि कईं बार सोचता हूं कि इस के बारे में तो मेरा ब्रेन-वॉश हो गया है। और यह खौफ़ इस कद्र भारी है कि मैं बाज़ार से कभी भी चाय-काफ़ी पीना पिछले कईं महीनों से छोड़ चुका हूं। अच्छा तो यह भी देखते हैं कि दूध से बनी क्या क्या वस्तुयें इन पार्टियों में मौजूद रहती हैं ---- मटका कुल्फी, आइसक्रीम, पनीर, दही, कईं कईं जगहों पर रबड़ी वाला दूध --- मेरे अपने व्यक्तिगत विचार इन सब के बारे में ये हैं कि ये सब ऐसे वैसे दूध से ही तैयार होते हैं ---और अगर कुछ नहीं भी है तो भी मिलावट की तो लगभग गारंटी होती ही है। ऐसे में क्यों ऐसा कुछ खाकर अगले चार दिन के लिये खटिया पकड़ ली जाए।

और यह इधर क्या नज़र आ रहा है-----इतनी लंबी लाइन यहां क्यों हैं? ---यहां पर फ्रूट-चाट का स्टॉल है और सत्तर के दशक में अमिताभ बच्चन की फिल्म के पहले दिन पहले शो जितनी भीड़ है --- लेकिन यहां भी दो तीन चीजें ध्यान देने योग्य हैं -- बर्फ जिन पर ये फल कटे हुये सजे पड़े हैं, फलों की क्वालिटी ---कुछ तो लंबे सयम से कटे होते हैं और गर्मी के मौसम में तो इस से फिर पेट की बीमारियां तो उत्पन्न होती ही हैं। इसलिये अगली बार फ्रूट-चाट के स्टाल की तऱफ़ लपकने से पहले थोड़ा ध्यान करिये।

और हां सलाद के बारे में तो बात कैसे हम लोग भूल गये ----न तो ये खीरे,टमाटर,ककड़ी, प्याज ढंग से धोते हैं और न ही काटते और हैंडलिंग के समय कोई विशेष साफ सफाई का ध्यान रखा जाता है ---तो फिर क्या शक है कि इन से सेहत कम और बीमारी ज़्यादा मिलने की संभावना रहती है। पता नहीं अकसर लोग घर में तो साफ-सुथरे तरीके से तैयार किये गये सलाद से तो दूर भागते हैं लेकिन इन सार्वजनिक जगहों पर तो सलाद ज़रूर चाहिये।

हां, और क्या रह गया ? ---हां, उधर तरफ़ से जलेबियों और अमरतियों की बहुत जबरदस्त खुशबू आ रही है। तो, चलिये एक एक हो जाये लेकिन रबड़ी के साथ तो बिलुकल नहीं, क्योंकि पता नहीं क्यों हम भूल जाते हैं कि इतनी रबड़ी के लिये कहां से आ गया इतना दूध -----लेकिन जलेबी-अमरती भी तभी अगर उस में नकली रंग नहीं डाले गये हैं। और कृपया यह तो देखना ही होगा कि कहीं ये बीमारी परोसने वाले दोने तो नहीं है।

आप को यह पोस्ट पढ़ कर यही लग रहा है ना कि डाक्टर तूने भी झाड़ दी ना हर बात पर डाक्टरी --- मैं मान रहा हूं कि आप मुझ से पूछना चाहते हैं कि फिऱ खाएं क्या--- चुपचाप थोड़े चावल और दाल लेकर लगे रहें।

मुझे भी यह सब लिखते बहुत दुःख हो रहा था क्योंकि कोई अगर मेरे को पहली बार पढ़ने वाला होगा तो उसे मैं बहुत घमंडी लगूंगा लेकिन तस्वीर का दूसरा रूख दिखाना भी मेरा कर्तव्य है। मुझे इस बात का भी अच्छी तरह से आभास है कि इन पार्टियों में जो सामान इस्तेमाल हो रहा है उन में घरवालों का रती भर भी दोष नहीं है ---- वे भी क्या करें, पैसा ही खर्च सकते हैं ---मिलावट हर चीज़ में इतनी व्याप्त हो गई है कि वे भी क्या करें ?

और अब बात अपने आप से पूछता हूं कि अगर मेरे घर में कोई इतना बड़ा समारोह होगा तो क्या मेरे पास इन सब मिलावटी चीज़ों को खरीदने-परोसने के अलावा कोई विकल्प है------ नहीं है, तो फिर इन सब से बचते हुये अपनी सेहत की रक्षा करने का एक ही मूलमंत्र बच जाता है ---------अवेयरनैस -----इन सब बातों के बारे में जगह जगह पर बात करें ताकि जनमानस को जागरूक किया जा सके।

क्या हुआ अभी आप के दाल-चावल ही खत्म नहीं हुये? ---- वैसे कैसी रही पार्टी --- ओ हो, जाते जाते उस मीठे पान को चबाने से पहले यह ध्यान रखिये कि उस पर उस मिलावटी चांदी का वर्क तो नहीं चढ़ा हुआ। और एक बात, दांतों में टुथ-पिक का इस्तेमाल सख्त वर्जित है।

मैं भी क्या---- आप की पार्टी का मज़ा किरकिरा कर दिया -----तो फिर इस समय यह गाना सुनिये जो मुझे भी बहुत पसंदे हैं ----- विशेषकर इसके बोल ------ धागे तोड़ लायो चांदनी से नूर के ...............................वाह, भई, वाह, यह किस ने लिखा है, क्या आप बता सकते हैं ?

बुधवार, 19 मई 2010

एशियाई समलैंगिकों एवं द्विलिंगियों(bisexual) में एचआईव्ही इंफैक्शन के चौका देने वाले आंकड़े

एशियाई समलैंगिकों एवं द्विलिंगियों में बैंकाक में एचआईव्ही का प्रिवेलैंस 30.8 प्रतिशत है जब कि थाईलैंड में यह दर 1.4 प्रतिशत है। यैंगॉन के यह दर 29.3 फीसदी है जब कि सारे मयंमार में यह दर 0.7 प्रतिशत है। मुंबई के समलैंगिकों एवं द्विलिंगियों में यह इस संक्रमण की दर 17 प्रतिशत है जब कि पूरे भर में एचआईव्ही के संक्रमण की दर 0.36 प्रतिशत है।

संयुक्त रा्ष्ट्र के सहयोग से हुये एक अध्ययन से इन सब बातों का पता चला है--और तो और इन समलैंगिकों एवं बाइसैक्सुयल लोगों की परेशानियां एचआईव्ही की इतनी ज़्यादा दर से तो बड़ी हैं ही, इस क्षेत्र के कुछ देशों के कड़े कानून इन प्रभावित लोगों के ज़ख्मों पर नमक घिसने का काम करते हैं।

न्यूज़-रिपोर्ट से पता चला है कि एशिया पैसिफिक क्षेत्र के 47 देशों में से 19 देशों के कानून ऐसे हैं जिन के अंतर्गत पुरूष से पुरूष के साथ यौन संबधों को एवं द्विलिंगी ( Bisexual- जो लोग पुरूष एवं स्त्री दोनों के साथ शारीरिक संबंध स्थापित करते हैं) गतिविधियों के लिये सजा का प्रावधान है।

इन कड़े कानूनों की वजह से छिप कर रहते हैं-- और इन लोगों में से 90प्रतिशत को न तो कोई ढंग की सलाह ही मिल पाती है और न ही समय पर दवाईयां आदि ये प्राप्त कर पाते हैं। कानून हैं तो फिर इन का गलत इस्तेमाल भी तो यहां-वहां होता ही है। इस के परिणामस्वरूप इन के मानवअधिकारों का खंडन भी होता रहता है।

इन तक पहुचने वाली रोकथाम की गतिविधियों को झटका उस समय भी लगता है जब इन प्रभावित लोगों की सहायता करने वाले वर्कर (out-reach services) - जो काम अकसर इस तरह का रूझान ( MSM -- men who have sex with men) रखने वाले वर्कर भी करते हैं--उन वर्करों को पुलिस द्वारा पकड़ कर परेशान किया जाता है क्योंकि उन के पास से कांडोम एवं लुब्रीकैंट्स आदि मिलने से ( जो अकसर ये आगे बांटने के लिये निकलते हैं) यह समझ लिया जाता है कि वे भी इस काम में लिप्त हैं और इस तरह के सारे सामान को जब्त कर लिया जाता है।

संयुक्त राष्ट्र की इस रिपोर्ट में यह सिफारिश की गई है कि अगर इस वर्ग के लिये भी एचआईव्ही के संक्रमण से बचाव एवं उपचार के लिये कुछ प्रभावशाली करने की चाह इन एशियाई देशों में है तो इन्हें ऐसे कड़े कानूनों को खत्म करना होगा, जिन कानूनों के तहत इन लोगों के साथ भेदभाव की आग को हवा मिलती हो उन्हें भी तोड़ देना होगा, यह भी इस रिपोर्ट में कहा गया है।

विषय बहुत बड़ा है, इस के कईं वैज्ञानिक पहलू हैं, विस्तार से बात होनी चाहिये ---फिलहाल आप इस लिंक पर जा कर मैड्न्यूज़ की साइट पर इस रिपोर्ट को देख सकते हैं --- HIV among gay, bisexual men at alarming highs in Asia.

रविवार, 16 मई 2010

हार्ट चैक-अप के लिये पीटा जा रहा है ढिंढोरा

आज जब मैं सुबह कहीं जा रहा था तो मैंने सुना कि एक रिक्शे पर एक सज्जन यह घोषणा कर रहा था कि फलां फलां दिन उस बड़े हस्पताल (कारपोरेट हस्पताल) से एक बहुत बड़ा हार्ट का स्पैशलिस्ट आ रहा है जो मरीज़ों के हार्ट की फ्री जांच करेगा।
इस तरह के इश्तिहार/ पैम्फलेट कईं बार अखबारों के अंदर से तो गिरते देखे हैं लेकिन शायद आज मैं इस काम के लिये इस तरह का ढिंढोरा पिटता पहली बार देख रहा था। ढिंढोरा ही हुआ --- क्या हुआ अगर ढोलकची गायब था।
कुछ समय बाद ध्यान आया कि कुछ वर्ष पहले जिन छात्रों का दाखिला मैडीकल कॉलेजों में नहीं होता था उन के शुभचिंतक उन्हें यह कह कर अकसर दिलासा देने आया करते थे ----हो न हो, ज़रूर इस में कोई भलाई ही है -- डाक्टरों की तो हालत ऐसी हो रही है कि तुम देखना आने वाले समय में डाक्टर गली-मोहल्लों में स्वयं मरीज ढूंढा करेंगे--------मैं आज यह अनाउंसमैंट सुन कर यही सोचने लग गया कि आने वाला समय पता नहीं कैसा होगा?
मुझे यह बहुत अजीब सा लगता है कि हार्ट के रोगियों से हार्ट के विशेषज्ञों का सीधा संपर्क --केबल में विज्ञापन के माध्यम से, अखबार में पैम्फलेट डलवा कर और अब एक किस्म से ढिंढोरा पिटवा कर। आप को क्या लगता है कि इस तरह का मुफ्त चैक-अप क्या मरीज़ों के हित में है ? सतही तौर पर देखने से यही लगता है कि इस में क्या है, कोई दिल का मुफ्त चैक-अप कर रहा है तो इस में हर्ज़ क्या है?
चलिये, कुछ समय के लिये इस बात को यही विराम देते हैं। एक दूसरी बात शुरू करते हैं --- बात ऐसी है कि अगर किसी को ब्लड-प्रैशर है या इस तरह का कोई और क्रॉनिक रोग है तो सब से पहले तो उसे चाहिये कि वह इन बातों का ध्यान करे ---
सभी तरह के व्यसनों को एक ही बार में छोड़ दे या चिकित्सीय सहायता से छोड़ दे। तंबाकू का किसी भी रूप में इस्तेमाल आत्महत्या करने के बराबर है---अगर ये शब्द थोड़े कठोर लग रहे हों, तो ये कह लेते हैं कि स्लो-प्वाईज़निंग तो है ही।
शारिरिक व्यायाम एवं परिश्रम करना शुरू करे।
खाने-पीने में वे सभी सावधानियां बरतें जिन का आज लगभग सब को पता तो है लेकिन मानने के लिये प्रेरणा की बेहद कमी है।
किसी भी तरह से नमक का कम से कम इस्तेमाल करे।
तनाव से मुक्त रहे --- तनाव को दूर रखने के लिये हमारी प्राचीन पद्धतियों का सहारा ले जैसे कि योग, प्राणायाम्, ध्यान (meditation).
कल एक स्टडी देख रहा था कि जो लोग रोज़ाना 10-12 घंटे काम करते हैं उन में दिल के रोग होने की संभावना बढ़ जाती है।
इन सब के साथ साथ खुश रहने की आदत डालें (क्या यह मेरे कहने मात्र से हो जायेगा..!.)
अब आप यह कल्पना कीजिये कि अगर कोई बंदा इन ऊपर लिखी बातों की तरफ़ ध्यान दे नहीं रहा बल्कि ब्लड-प्रैशर के लिये सीधा हृदय रोग विशेषज्ञ से संपर्क करता है तो उस से हो क्या जायेगा ? --- कहने का भाव है कि थोड़ी बहुत भी तकलीफ़ होने पर सब से पहले ऊपर लिखी बातों पर ध्यान केंद्रित किया जाए --- और अपने फैमिली डाक्टर से ज़रूर संपर्क बनाये रखा जाए----- he knows your body inside out hopefully. और अगर उसे लगेगा कि किसी एम डी फ़िज़िशियन से परामर्श लेने की ज़रूरत है, वह कह देगा। यह तो हुआ एक आदर्श सा सिस्टम जिस में सारा काम कायदे से चले।
और फिर फ़िज़िशियन को भी लगेगा कि किसी दिल के विशेषज्ञ से चैकअप करवाना ज़रूरी है तो वह मरीज़ को रैफर कर देगा। लेकिन समस्या यह है कि आज कल इधर उधर से मिलनी वाली अध-कचरी नॉलेज ने मरीज़ों को और भी परेशान कर दिया है कि उन्हें लगता है अगर थोड़ी बहुत टेंशन की वजह से थोड़ा बहुत ब्लड-प्रैशर भी बढ़ गया है तो भी किसी हार्ट के विशेषज्ञ को ही दिखाना ठीक रहेगा।
लेकिन मुझे लगता है इस तरह से अपनी मरजी से ही डाक्टरों के पास पहुंच जाना ज़्यादा लोगों के लिये हितकर नहीं है। कारण ? --- जो लोग अफोर्ड कर सकते हैं उन्हें शायद मेरी बात में इतना तर्क नज़र न भी आता है। शायद उन्हें लगा कि मैं तो उन्हें समय से पीछे ले कर जा रहा हूं ---जब स्पैशलिस्ट उपलब्ध हैं तो फिर उन्हें दिखाया क्यों न जाए  ?
लेकिन अधिकतर लोगों के बस में नहीं होता कि वे इन सुपर स्पैशलिस्ट के पास जा कर इन की फीसें भरे और महंगे महंगे टैस्ट करवायें। वे चाहते हुये भी इन टैस्टों को कराने में असमर्थ होने के कारण अपनी परेशानियों को बढ़ा लेते हैं।
अब वापिस अपनी बात पर आते हैं ----इन हार्ट चैक्अप के लिये लगने वाले फ्री कैंपों की तरफ़। एक आधा टैस्ट जैसे कि ईसीजी वहां फ्री ज़रूर कर दी जाती है ---- और शायद एक आध और टैस्ट। और इस के बाद कुछ मरीज़ों को उन की ज़रूरत के अनुसार ऐंजियोग्राफी करवाने के लिये कहा जाता है और फिर उस में गड़बड़ होने की हालत में बाई-पास सर्जरी।
अब देखने की बात है कि अधिकतर लोग इस देश में आम ही है ----अब सिचुएशन देखिये कि वह अपनी इस तरह की तकलीप़ के लिये सीधा पहुंच गया हार्ट-चैक करवाने --- और उसे कह दिया गया कि तेरे तो दिल में गड़बड़ है। अब न तो यह हज़ारों रूपयों से होने वाले टैस्ट ही करवा पाये और न ही लाखों रूपये में होने वाले आप्रेशन ही करवा पाए -----वह कुछ करेगा नहीं, सोच सोच कर मरेगा -- इतने पैसों का जुगाड़ कर पाता नही, और पता नहीं अगले कईं साल तक वैसे तो निकाल लेता लेकिन एक बार डाक्टर ने कह दिया कि तेरा तो भाई फलां फलां टैस्ट या आप्रेशन होना है तो समझो कि यह तो गया काम से।
मुझे इस तरह से ढिंढोरा पीटने वालों से यही आपत्ति है कि क्यों हम किसी भूखे को बढ़िया बढ़िया बेकरी के बिस्कुट दिखा कर परेशान करें ----अगर वह हमें पैसे देगा तो हम उसे वे बिस्कुट देंगे, ऐसे में क्यों हम उसे सताने का काम करें।
तो बात खत्म यहीं होती है कि कोई भी तकलीफ़ होने पर अपने खान-पान को, अपनी जीनव शैली को पटड़ी पर वापिस लाया जाए और ज़रूरत होने पर अपने फैमिली फ़िज़िशियन से मिलें ----सीधा ही सुपर स्पैशलिस्ट को दिखाना मेरे विचार में आम आदमी के हित में होता नहीं है। साधारण तकलीफ़ों के उपचार भी साधारण होते हैं।
एक बात और भी है कि मान लीजिये लाखों रूपये के बोझ तले दब कर आप्रेशन भी करवा लिया लेकिन बीड़ी-तंबाकू का साथ छूटा नहीं, सारा दिन एक जगह पर पड़े रहना और खाना-पीना भी खूब गरिष्ट, नमक एवं मसालों से लैस -----क्या आप को लगता है कि ऐसे केस में आप्रेशन से होने वाले फायदे लंबे अरसे तक चल पाएंगे ?
हां, एक बात हो सकती है कि बाबा रामदेव की खाने-पीने एवं व्यायाम करने की सारी बातें मानने से क्या पता आप को उतनी ही फायदा हो जाए ------लेकिन यह विश्वास की बात है ---आस्था की बात है ---- यह प्रभु कृपा की बात है ---इस में कब दो गुणा दो दस हो जाएं और कब शून्य हो जाए--- यह सब हम सब जीवों की समझ से परे की बात है।
आप को भी लग रहा है ना कि यार, यह तो प्रवचन शूरू हो गये ----मुझे भी कुछ ऐसा ही लग रहा है इसलिये बस एक आखिरी बात आपसे शेयर करके विराम लूंगा।
कुछ दिन पहले मैं सहारनपुर में एक सत्संग में गया हुआ था --मेरे सामने दो-तीन दोस्त बैठे हुये थे। दोस्तो, वे लोग बीच बीच में आपस में हंसी मज़ाक कर रहे थे और जिस तरह से वे खुल कर ठहाके मार रहे थे, उन्हें देख कर मै भी बहुत खुश हुआ। मैं उस समय यही समझने की कोशिश कर रहा था कि दिल से निकलनी वाली हंसी इतनी संक्रामक क्यों होती है।
कमबख्त हम लोगों की बात यह है कि हम लोग हंसना भूलते जा रहे है ---किसी से साथ दिल कर बात इसलिये नही करते कि कहीं कोई इस का अन-ड्यू फायदा न ले ले ---बस इसी फायदे नुकसान की कैलकुलेशन में ही पता ही कब बीमारियों मोल ले लेते हैं। टीवी पर एक बार एक हार्ट-स्पैशलिस्ट कह रहा था ----
दिल खोल लै यारा नाल,
नहीं तां डाक्टर खोलनगे औज़ारा नाल।
( बेपरवाही से अपने दोस्तों से दिल खोल कर बाते किया कर, वरना डाक्टरों को आप्रेशन करके दिल को खोलना पड़ सकता है) .....

मैडीकल न्यूज़ - आप के लिये

कुछ मीठा हो जाए ---टीका लगवाने से पहले

टीका लगवाने से पहले मीठा खा लेने से दर्द कम होता है और एक महीने से एक वर्ष तक की उम्र के बच्चों के लिये डाक्टरों एवं नर्सों को सिफारिश की गई है कि इन्हें टीका लगाने से पहले ग्लूकोज़ अथवा शुकरोज़ के पानी के घोल की कुछ बूंदे ---ज़्यादा से ज़्यादा आधा चम्मच ----दे देनी चाहिये। इस से इन शिशुओं को टीका लगवाने में कम दर्द होता है।

एक और रिपोर्ट में पढ़ रहा था कि इस तरह से अगर छोटे बच्चों को कम पीड़ा होगी तो उस से टीकाकरण के कार्यक्रम को भी एक प्रोत्साहन मिलेगा क्योंकि ऐसा देखा गया है कि अगर बच्चा ज़्यादा ही रोने लगता है या उस की परेशानी देख कर कुछ मां-बाप अगली बार टीका लगवाने से पीछे हट जाते हैं।

इस खबर में बताई बात को मानने के लिये एक तरह से देखा जाए तो किसी कानून की कोई आवश्यकता नहीं है लेकिन कुछ फिजूल के प्रश्न ये हो सकते हैं ---कितना ग्लूकोज़ अथवा शुकरोज़ खरीदा जाए, कहां से खरीदा जाए कि सस्ता मिले, इस का घोल कौन बनायेगा, .........और भी तरह तरह के सवाल।

कहने का भाव है कि बात बढ़िया लगी हो तो मां-बाप स्वयं इस तरह की पहल कर लें कि बच्चों को टीका लगवाने के लिये ले जाते वक्त इस तरह का थोडा़ घोल स्वयं तैयार कर के ले जाएं ताकि उस टीकाकरण कक्ष में घुसते वक्त शिशु को उसे पिला दें। आप का क्या ख्याल है ? और ध्यान आया कि हमारी मातायें चोट लगने पर हमें एक चम्मच चीनी क्यों खिला दिया करती थीं और हम लोग झट से दर्द भूल जाया करते थे।

पांच साल के कम उ्म्र के शिशुओं की आधी से ज़्यादा मौतें पांच देशों में

विश्व भर में पांच साल से कम आयु के शिशुओं की जितनी मौतें होती हैं उन की लगभग आधी संख्या चीन, नाईज़ीरिया, भारत, कॉंगो और पाकिस्तान में होती हैं।

और जो 88 लाख के करीब मौतें एक साल में पांच वर्ष से कम बच्चों की होती हैं उन में से दो-तिहाई तो निमोनिया, दस्त रोग, मलेरिया, संक्रमण की वजह से रक्त में विष बन जाने से (blood poisoning) हो जाती हैं।

कुछ अन्य कारण हैं बच्चे के जन्म के दौरान होने वाले जटिल परिस्थितियां, जन्म के दौरान बच्चे को ऑक्सीजन की कमी और जन्म से ही होने वाले शरीर की कुछ खामियां --- complications during child birth, lack of oxygen to the newly born during birth and congenital defects.

और एक बात जो आंखे खोलने वाली है वह यह है कि इन मौतों में से 40फीसदी के लगभग मौतें शिशु के जन्म के 27 दिनों के अंदर ही हो जाती हैं।

यह तो हुई खबर, और इसी बहाने में अपने तंत्र को टटोलना चाहिये। बच्चे के जन्म के दौरान उत्पन्न होने वाली जटिलताओं का सब से प्रमुख कारण है बिना-प्रशिक्षण ग्रहण की हुई किसी दाई का डिलीवरी करवाना। और जो यह छोटे छोटे बच्चों में सैप्टीसीमिया (septicemia)---- "blood poisoning" हो जाता है इस का भी एक प्रमुख कारण है कि इस तरह की जो डिलीवरी घर में ही किसी भी "सयानी औरत" द्वारा की जाती हैं उन में नाडू (cord) को गंदे ब्लेड आदि से काटे जाने के कारण इंफैक्शन हो जाती है जो बहुत बार जानलेवा सिद्ध होती है।

और यह जो निमोनिया की बात हुई ---यह भी छोटे बच्चों के लिये जानलेवा सिद्ध हो जाता है। और इस की रोकथाम के लिये यह बहुत ज़रूरी है कि बच्चों को मातायें स्तन-पान करवायें जो कि रोग-प्रतिरोधक एंटीबाडीज़ से लैस होता है। और नियमित टीकाकरण भी इस से बचाव के लिये बहुत महत्वपूर्ण है -----ठीक उसी तरह से जिस तरह से यह सिफारिश की जाती है कि शिशुओं को पहले तीन माह में स्तन-पान के अलावा बाहर से पानी भी न दिया जाए ताकि उसे दस्त-रोग से बचाये रखा जा सके। और ध्यान तो यह भी आ रहा है कि नवजात शिशुओं को पहले 40 दिन तक जो घर के अंदर ही रखने की प्रथा थी -- हो न हो उस का भी कोई वैज्ञानिक औचित्य अवश्य होगा-------और अब अगले ही दिन से बच्चे के गाल थपथपाने, उस की पप्पियां लेनी और देनी शुरु हो जाती हैं -----इन सब से नवजात शिशुओं को संक्रमण होने का खतरा बढ़ जाता है।

अमेरिका में सलाद के पत्तों को भी मार्कीट से वापिस उठा लिया गया ....
अमेरिका में सलाद के पत्तों (lettuce leaves) को मार्कीट से इस लिये वापिस उठा लिया गया क्योंकि उन में ई-कोलाई (E.coli) नामक जावीणु के होने की पुष्टि हो गई थी। इस जीवाणुओं की वजह से इस तरह के पदार्थ खाने वाले को इंफैक्शन हो सकती है --- जिस में मामूली दस्त रोग से मल के साथ रक्त का बहना शामिल है और कईं बार तो इस की वजह से गुर्दे का स्वास्थ्य भी इतनी बुरी तरह से प्रभावित हो जाता है कि यह जान तक ले सकता है।

अब सोचने के बात है कि क्या हमारे यहां सब कुछ एकदम फिट मिल रहा है--- इस प्रश्न का जवाब हम सब लोग जानते हैं लेकिन शायद हम इस तरह की तकलीफ़ें-बीमारियां सहने के इतने अभयस्त से हो चुके हैं कि हमें हर वक्त यही लगता है कि यह सब्जियों में मौजूद किसी जीवाणुओं की वजह से नहीं है, बल्कि हमारे खाने-पीने में कोई बदपरहेज़ी हो गई होगी----- कितनी बार सब्जियों को अच्छी तरह से धोने की बात होती रहती है, ऐसे ही बिना धोये कच्ची न खाने के लिये मना किया जाता है।

जाते जाते ध्यान आ रहा है कि वैसे हम लोग इतने भी बुरे नहीं हैं ---- कल सुबह बेटे ने कहा कि स्कूल के लिये पर्यावरण पर कोई नारा बताइये ---मैं नेट पर कुछ काम कर रहा था ---मैंने environment quotes लिख कर सर्च की ---जो परिणआम आये उन में से एक यह भी था ----

" कम विकसित देशों में कभी पानी मत पियो और बहुत ज़्यादा विकसित देशों की हवा में कभी सांस न लो "...................
और हम यूं ही ईर्ष्या करते रहते हैं कि वो हम से बेहतर हैं ------लेकिन कैसे, यह सोचने की बात है -----Today's Food for Thought !!

शुक्रवार, 14 मई 2010

तंबाकू प्रोडक्ट्स पर कैसी हो चेतावनी ? ---ज़रा देखिये

बिल्कुल सीधी सी बात है कि वह चेतावनी कैसी जिसे देख कर, पढ़ कर भी आदमी पनवाड़ी से सिगरेट-बीड़ी-गुटखे का पैकेट मांगे--- चेतावनी तो वही सही चेतावनी है कि बंदे को हिला के रख दे--- एक बार तो किसी को भी ऐसा हिला दे कि यार, कहीं तंबाकू के सेवन से मेरे साथ भी ऐसा न हो जाए-- हाथ में बुझी हुई बीड़ी को बिना दोबारा सुलगाए ही नाली में फैंक दे, पाउच को डस्ट-बिन में दे मारे, गुटखे-तंबाकू-खैनी जैसे ज़हर को तुरंत थूक कर कुल्ला करने के साथ ही हमेशा से इस ज़हर को खाने से तौबा कर ले ---ऐसी चेतावनी हो कि जनमानस नफरत करने लग जाए।

वरना छोटी मोटी चेतावनी को क्या कहे ? --- बस एक वैधानिक जिम्मेदारी पूरी करने के इलावा कुछ भी तो नहीं!! और अगर तंबाकू उत्पादों पर छपी चेतावनियों से भी छेड़-छाड़, चुस्त चालाकी कि कैसे भी इस का सेवन करने वाले की आंखों में यह न पड़े और अगर गलती से पड़ भी जाए तो वह ढंग से इसे पढ़ ही न पाए और पढ़-देख भी ले तो इस का उस पर असर नहीं पड़े।


मैं कल विश्व स्वास्थ्य संगठन की वेबसाइट देख रहा था --वहां मैंने देखा कि तंबाकू मुक्त पहल (tobacco-free initiative) के अंतर्गत एक ऐसा पन्ना तैयार किया है जिस में उन्होंने कुछ देशों में तंबाकू के बुरे प्रभावों को दर्शाती तस्वीरें जो उन देशों में इन उत्पादों पर छपती हैं, का विवरण दिया है।


यह पन्ना देख कर मुझे बहुत अच्छा लगा --- कारण यही था कि मुझे लगा कि इस से इस मुद्दे पर भी पारदर्शिता आयेगी ---हम अपने यहां पर छपने वाली तीन तस्वीरों को देख कर ही न खुश होते रहें कि देखो, दुनिया वालो, हम कितने महान हैं। इसलिये ऐसी कोई भी राय बनाने से पहले ज़रा एक नज़र कुछ देशों में इस काम में इस्तेमाल की जाने वाली तस्वीरों की तरफ़ आप एक नज़र मारना चाहेंगे ?


वैनेज्यूला में इस के व्यसन के बारे में इस तरह की चेतावनी छपती है ---



ब्राज़ील में तंबाकू से चमड़ी पर होने वाले बुरे प्रभाव जैसे झुर्रियां आदि से आगाह करने के लिये इस तसवीर का सहारा लिया जाता है


तंबाकू का इस्तेमाल करने वाले के मुंह से जो गंदी बास आती है उस के लिये यह तस्वीर आप को कैसी लगी




और तंबाकू मौत का सौदागर है इस के लिेये यह फोटोग्राफ कैसा है



और तंबाकू के शरीर पर अन्य क्या क्या बुरे प्रभाव पड़ते हैं क्यों लोग इस तरह से तस्वीर से भांप न लेते होंगे



खून की नाडि़यों को यह कैसे प्रभावित करता है आप भी देखिये

आंख के लिये इतना खतरनाक है तंबाकू


दिल तो समझ लो गया तंबाकू से

फेफड़े की सिंकाई से क्या हो जायेगा, आइये इधर देखें

और मुंह में यह क्या कोहराम मचायेगा, बाप रे बाप



और दिमाग की नस फट गई तो क्या केवल वही फटती है ?

और हाथों-पैरों में तंबाकू की वजह से जब खून का दौरा कम हो जाता है तो बड़े बड़ों की बस हो जाती है






और तंबाकू से आवाज़ को क्या हो जाता है ?



ओ हो, यह क्या पंगा --- अगर तंबाकू बंदे के पौरूष पर ही वार करने लगे तो ....

और अगर मां-बापू भी तंबाकू का इस्तेमाल किये जा रहे हैं तो ..

और अगर गर्भवती महिला तंबाकू के सेवन से गुरेज न करे ंतो



तंबाकू छोड़ने के बारे में यह तसवीर कैसी है

और यह जो दूसरे दर्जा का तंबाकू है इसे इस तरह की तस्वीर से दिखाना कैसा है ?



महिलायों में कैसे यह तंबाकू उत्पात मचाता है, यह तस्वीर बहुत कुछ कह ही रही है


अच्छा तो आपने दूसरे देशों में तो प्रचलित ये सब तसवीरें देख ही लीं जिन से तंबाकू का किसी भी रूप में सेवन करने वाले के मन में दशहत सी बैठने लगती है।

आपने क्या अपने यहां प्रचलित तसवीरें देखी हैं और इन को जारी करने से पहला कितना बवाल मचा था उस के बारे में तो सब जानते ही हैं। आप क्या कह रहे हैं कि आपने इन तस्वीरों को कभी नोटिस नहीं किया ---- नहीं,यार ऐसा मत कहो, इन्हें तो मैंने भी कईं बार गुटखे के पैकेटों पर छपा देखा है। आप को क्या लगता है कि ये जो नीचे तीन तस्वीरें (अगर इन्हें आप तस्वीरें कह सकें तो)हैं जो अपने यहां छपती हैं, तंबाकू के बारे में दशहत पैदा करने में किसी तरह से ऊपर दिखाई गई तस्वीरों के मुकाबले में यह कितनी कारगर होंगी।

वैसे मैंने सुना है कि भारत में भी तंबाकू के प्रोडक्ट्स पर छपने वाली डरावनी किस्म की तसवीरों पर विचार किया जा रहा है...देखते हैं कब यह विचार विमर्श संपन्न होता है। डरावनी क्या, तस्वीरें इतनी खौफ़नाक हों कि लोग इन से दूर भागने लगें। ये जो ऊपर आप ने तस्वीरें देखी हैं ये विभिन्न देशों में इस्तेमाल की जा रही हैं।

आप मेरे इन तीन तस्वीरों के बारे में विचार जान कर क्या करेंगे ---मैं जानता हूं कि बिच्छू कैंसर का सिंबल है, लेकिन कितने लोग यह जानते हैं इसलिेये मुझे तो इस पहली तस्वीर देख कर तो यही लग रहा है कि इस पैकेट के साथ बच्चों का एक प्लास्टिक का बिच्छू खिलौना भी मिलेगा( जैसा मेरी मां बचपन में पेस्ट के साथ लाया करती थीं), अगली में लग रहा है कि कोई हीरो-छाप लड़का जैकेट डलवा कर फोटो खिंचवा रहा है, और तीसरी तस्वीर में मुझे क्यों लगता है कि पान तैयार किया जा रहा है।

पो्सट लिखने में जितनी भी मेहनत लगी, उसे मैं तभी सार्थक मानूंगा अगर इसे देखने के बाद कुछ दोस्त इस व्यसन को छोड़ देंगे ---अब प्लीज़ कोई इसे Moral policing न कहे, बुरा लगता है।




गुरुवार, 13 मई 2010

बैनाड्रिल क्रीम खा लेने से हो गई आफ़त

समझ में नहीं आता कि बैनाड्रिल क्रीम को कैसे कोई खा सकता है --- लेकिन कुछ लोगों ने इस तरह की हरकत की होगी या गलती से उन से हो गई होगी जैसा कि इस रिपोर्ट में कहा गया है तभी तो अमेरिकी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने जनता को आगाह किया है कि खारिश-खुजली के लिये बाज़ार में उपलब्ध बैनाड्रिल क्रीम को अगर निगलने की कोशिश की जाएगी तो परिणाम भयंकर निकल सकते हैं। क्योकि बैनाड्रिल नामक दवाई का इस तरह से इ्स्तेमाल करने से बहुत मात्रा में डाइफैनहाइड्रामिन नामक साल्ट शरीर में पहुंच जाता है जिस से बेहोशी, और दिमाग में अजीबो-गरीब विचार आने शूरू हो जाते हैं ---- it can lead to confusion, hallucinations and unconsciousness.

एफ डी आई ने ऐसे केसों को संज्ञान में लेते हुये यह चेतावनी जारी की है ---दरअसल बैनाड्रिल नामक दवाई की टेबलैट्स आदि तो निगलने /खाने (to be taken orally) के लिये होती हैं लेकिन अगर गलती से भी चमड़ी पर लगाई जाने वाली बैनाड्रिल क्रीम को निगल लिया जाये (यह कैसे हो सकता है, मेरी समझ में नहीं आया, क्योंकि अकसर लोग क्रीम कहां "खाते" हैं ---और मुंह के अंदर भी कोई क्रीम आदि लगाने से पहले अच्छी तरह से आश्वस्त हो लेते हैं कि यह मुंह में लगाने के लिये ही है ना----ऐसे में पढ़े-लिखे लोगों द्वारा इस तरह की गलती होना----- बात हजम तो नहीं हो रही, लेकिन हां अगर कोई इस तरह की हरकत जान-बूझ कर करने के लिये तुला हो तो उस के कोई क्या करे।

चलो, दूर देश की बात हो गई --अपने यहां तो और भी विषम समस्यायें हैं---अधिकांश लोग अंग्रेज़ी पढ़ना जानते नहीं हैं लेकिन दवाईयों की सभी स्ट्रिपों, टयूबों की डिब्बीयों एवं बोतलों आदि पर सब कुछ अंग्रेज़ी में ही लिखा रहता है, क्या हुआ अगर कभी कभी हिंदी में लिखे कुछ नाम दिख जाएं।

यह तो बात हम सब लोग मानते ही हैं कि ये नाम केवल अंग्रेज़ी में ही लिखे होने के कारण कईं हादसे तो होते ही हैं----और जितने हादसे हमारे यहां होते होंगे उन में से एक फीसदी भी प्रकाश में नहीं आते होंगे क्योंकि हमारे यहां ऐसा कुछ सिस्टम है ही नहीं कि इस तरह के आंकड़े नेशनल स्तर पर या राज्य स्तर पर इक्ट्ठे किये जाएं। लोगों को भी मजबूरी में सब कुछ चुपचाप भुगतने की हम सब ने लत सी डाल दी है।

कुछ इसी तरह की गलतियां जो अकसर लोग करते हैं इन का उल्लेख भी करना उचित जान पड़ता है।

----डिस्प्रिन की गोली है ---उसे केवल हमें पानी में घोल कर ही लेना हितकर होता है ---लेकिन बहुत बार लोग उसे भी थोड़े से पानी के साथ निगल कर ले लेते हैं --इस से पेट की अंदरूनी झिल्ली (mucous membrane of the stomach) को नुकसान पहुचने का डर रहता है।

और तो और, मैंने देखा है कि कुछ लोग दर्द के लिये ली जाने वाली टैबलेट को पीस कर दांत के दर्द से निजात पाने के लिये मुंह में रख लेते हैं। इस से दांत दर्द तो ठीक होना दूर, बल्कि मुंह में कईं घाव हो जाते हैं जिन्हें ठीक होने में कई कई दिन लग जाते हैं।

---- मैडीकल फील्ड में हैं तो सभी लोगों से मिलना होता है, सब की बातें सुनते हैं तो ही पता चलता है कि कहां क्या चल रहा है। कुछ लोगों में अभी भी यह भ्रांति है कि उन्हें शरीर में जो कमज़ोरी किसी भी तरह से महसूस सी हो रही है, उस के लिये उन्हें या तो दो-तीन ग्लूकोज़ की बोतलें चढ़ा दी जाएं तो वे फिट हो जाएंगे --क्योंकि वे हर साल यह काम करवा लेते हैं। और तो और, कईं तो यह भी कहते हैं कि चढ़ाई चाहे न भी जाएं, अगर वे एक-दो ग्लुकोज़ की बोतलें पी भी लेंगे तो एक दम चकाचक हो जाएंगे। उन्हें यह समझने की ज़रूरत है कि अगर ऐसी ही बात है तो वे बाज़ार से गुलकोज़ पावडर लेकर पानी में घोल कर क्यों नहीं पी लेते ? सच यही है कि ये केवल भ्रांतियां मात्र हैं, सच से कोसों दूर-------ये बोतले केवल क्वालीफाई डाक्टर की सलाह अनुसार ही मरीज़ों को चढाई जाएं तो ठीक है, वरना कोई यूं ही हठ करने लग जाये h उसे कोई क्या कहे ? और फिर लोग कहते हैं कि फलां फलां नीमहकीम ग्लुकोज़ की बोतलें चढ़ा चढ़ा कर चांदी कूटने में लगा हुआ है।

---- कईं बार यह भी देखा है कि कईं लोग कैप्सूल को खोल कर उस में मौजूद पावडर को पानी के साथ ले लेते हैं ------शायद ये लोग समझते होंगे कि कैप्सूल का बाहर का जो खोल है वह केवल खूबसूरती बढ़ाने के लिये है लेकिन वास्तविकता यह है कि इस कैप्सूल में जो दवाई मौजूद होती है उसे अगर हम चाहते हैं कि यह पेट में घुलने की बजाए सीधा आगे जाकर आंत के किसी हिस्से में घुले,तो इस तरह की दवाई को कैप्सूल के रूप में दिया जाता है। यह क्यों किया जाता है ---यह एक लंबा विषय है --दवाई की नेचर (एसिडिक या बेसिक------ अम्लीय अथवा क्षारीय प्रवृत्ति) यह सब तय करती है कि उसे पेट(stomach) में ही अपने काम आरंभ करने देना है या आगे आंतड़ियों में पहुंचा कर उसे डिसइंटिग्रेट (disintegration of the drug which facilitates its absorption) होने देना है।

--- दवाईयों का हर तरह से जो दुरूपयोग हो रहा है, वह हम सब से छिपा नहीं है। खूब धड़ल्ले से ये दर्द की टैबलेट, टीके, खांसी के सिरप, एलर्जी की दवाईयां, नींद की दवाईयां नशे के लिये तो इस्तेमाल हो ही रही हैं. लेकिन खतरनाक बातें इस तरह की भी हैं कि आयोडैक्स जैसी दवाई को नशा करने वाले ब्रैड पर लगा कर खाने लगे हैं।

आठ दस साल पहले जब मैने नवलेखक कार्यशालाओं में जाया करता था तो वहां पर बहुत महान, धुरंधर, लिक्खाड़ हमेशा यही कहा करते थे कि बस कागज-कलम लेकर बैठने की देर होती है----कलम का क्या है,अपने आप दौड़ने लगती है..........यही संदेश मैं अब आगे लोगों को कलम का इस्तेमाल करने की प्रेरणा देते समय इस्तेमाल करता हूं। हां, इस बात का ध्यान आज इस तरह आ गया क्योंकि मैं सुबह से ही यह पचा ही नहीं पा रहा था कि बैनाड्रिल क्रीम को आखिर कोई क्यों खायेगा --------लेकिन अभी लिखते लिखते ध्यान आया कि हो न हो, गलती से किसे न इस तरह की क्रीम को खा लिया हो, यह तो चलिये मान लेते हैं, लेकिन यह सारा नशे का चक्कर भी तो हो सकता है, क्योंकि उन "विकसित" देशों में तो ये सब टैबलेट्स तो डाक्टरी नुख्से पर ही मिलती हैं लेकिन अगर किसी के हाथ इस तरह की क्रीमें लग जाती होंगी तो फिर इन्हें खाकर या मुंह में रगड़ कर काम चला लिया जाता होगा, ऐसा मुझे लगता है कि इस चेतावनी के पीछे यही कारण होगा------- i wish i were wrong !!

तो क्या सच में भूसी इतने काम की चीज़ है ?

शायद अगर आप भी मेरे साथ इस वक्त अपने बचपन के दिन याद करेंगे तो याद आ ही जायेगा कि सुबह सुबह गायें गली-मौहल्लों में घूमते आ जाया करती थी और घरों की महिलायें रोज़ाना उन के आगे एक बर्तन कर दिया करती थीं जिन में दो-एक बासी रोटी और बहुत सी भूसी(चोकर, Bran) पड़ी रहती थी। और गायें इन्हें बड़े चाव से खाती थीं। हम छोटे छोटे थे, हमें देख कर यही लगता था कि हो न हो यह भूसी भी बहुत बेकार की ही चीज होगी।
लेकिन फिर जैसे जैसे पढ़ने लगे तो पता चलने लगा कि यह भूसी तो काम की चीज है। हां, तो बचपन में क्या देखते थे--कि आटा को गूंथने से पहले उसे छाननी से जब छाना जाता तो जितना भी चोकर(भूसी) निकलती उसे गाय आदि के लिये अलग रख दिया जाता। और फिर समय आ गया कि लोग गेहूं को पिसवाने से पहले उस का रूला करवाने लगे ---मुझे इस के बारे में कोई विशेष जानकारी तो नहीं है, लेकिन ज़रूर पता है कि रूला करने के प्रक्रिया के दौरान भी उस गेहूं के दाने की बाहर की चमड़ी (Outer thin covering) उतार दी जाती है। ज़ाहिर है इस से पौष्टिक तत्वों का ह्रास ही होता है।

और मैंने कईं बार आटे की चक्कीयों में देखा है कि लोग उन से बिल्कुल सफ़ेद,बारीक आटे की डिमांड करते हैं ---इसलिये इन चक्की वालों ने इस तरह का सफेद आटा तैयार करते वक्त निकली भूसी को अलग से जमा किया होता है ---जो पहले तो केवल पशुओं को खिलाने के लिये ही लोग खरीद कर ले जाया करते थे लेकिन अब मैंने सुना है कि मीडिया में सुन कर लोग भी इसे खरीदने लगे हैं ताकि इसे बाद में बाज़ारी आटे में मिला सकें।

जी हां, भूसी(चोकर) गेहूं की जान है ---मैं तो बहुत पहले से जान चुका हूं लेकिन अधिकांश लोग तभी मानते हैं जब इस बात को गोरे लोग अपने मुखारबिंद से कहते हैं ---तो फिर सुन लीजिये, अमेरिका की हार्डवर्ड इंस्टीच्यूट ऑफ पब्लिक हैल्थ ने यह प्रमाणित कर दिया है कि भूसी के बहुत फायदे हैं ----आप को तो पता ही है कि जो बात यह लोग रिसर्च करने के बाद कहते हैं वे एक तरह से पत्थर पर लकीर होती है....क्योंकि इन के रिसर्च करने के तौर-तरीके एकदम जबरदस्त हैं --न कोई कंपनी इन को इंफ्ल्यूऐंस कर सके और न किसी भी तरह की सिफारिश ही इन के पास फटक पाए।

हां, तो इन वैज्ञानिकों ने लगभग 8000 महिलायों पर यह रिसर्च की है --और आप इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकते कि इन्होंने इस रिसर्च को 26 वर्षों तक जारी रखा और उस के बाद यह निष्कर्ष निकाला है कि भूसी का लाभ डायबीटिज़( मधुमेह) के रोगियों को तो बहुत ही ज़्यादा होता है, और आप स्वयं मैडी-न्यूज़ पर प्रकाशित इस रिपोर्ट को विस्तार से पढ़ लें ---Bran Intake helps those with Diabetes.

वैसे तो इस रिपोर्ट में इतने बढ़िया ढंग से सब कुछ ब्यां किया गया है लेकिन अगर मैडीकल भाषा थोड़ी मुश्किल लगे तो परवाह नहीं। हम ने आम गिन कर क्या करने हैं, आम छक के बात को दफ़ा करने की बात करते हैं। कितने अच्छे से लिखा है कि जिन डायबीटीज़ से ग्रस्त लोगों ने भूसी का इस्तेमाल किया और ऱेशेदार खाने वाली चीज़ों( जैसे कि साबुत अनाज आदि) उन में हृदय-रोग की वजह से मृत्यु होने के चांस 35फीसदी कम हो गये---------क्या यह कम उपलब्धि है ?

बातें सुनने सुनाने में तो और भी बहुत बढ़िया बढ़िया हैं ----क्या हमें भूसी के फायदों का पहले से पता नहीं है, लेकिन हमारी वेदों-शास्त्रों पर दर्ज़ इन बातों पर जब विदेशी समझदार लोगों की मोहर लग जाती है, हम लोग तभी सुनने के लिये तैयार होते हैं वरना हमें लगता है---ठीक है, देख लेंगे, कभी ट्राई कर लेंगे।

अब, भूसी को कैसे अपने खाने पीने में लाएं --सब से पहले मोटा आटा इस्तेमाल करें जिस में से न तो चोकर ही निकला हो और न ही उस का रूला किया गया हो। यह बेइंतहा ज़रूरी है ---- हर अच्छे चिकित्सक द्वारा इस का ढिंढोरा पीटा जा रहा है लेकिन मरीज़ इस तरफ़ शायद कोई विशेष ध्यान नहीं देते।

और मैं कईं मरीजों से सुनता हूं कि वे भूसी बाज़ार से खरीद लाते हैं -----मेरा व्यक्तिगत विचार है कि जहां हर तरह मिलावट का बा़ज़ार गर्म है, वहां बाज़ार में बिकने वाली इस भूसी में भी मिलावट का कीड़ा लगते कहां देर लगेगी ?

इसलिये बेहतर होगा कि हम लोग मोटे आटे से शूरूआत करें ---और मैंने कुछ लोगों से बात की है कि इस आटे को छानना तो पड़ता ही है, वह ठीक है, छानिये, लेकिन कचरा अलग कर के भूसी को वापिस आटे में मिला ही देना चाहिये।

यह स्टडी तो है मधुमेह के रोगियों को लेकर -----लेकिन इस तरह का मोटा आटे खाने से स्वस्थ लोगों को भी अपनी सेहत बरकरार रखने में मदद मिलती है। इस तरह का आटा रक्त-की नाड़ियों के अंदरूनी परत के लिये तो लाभदायक है, यह हमें पेट की नाना प्रकार की बीमारियों से बचा लेता है।

बाजार मे मिलने वाले आटे के बारे में आप का क्या ख्याल है ? -- क्या करें, बड़े शहरों में रहने वालों की अपनी मजबूरियां होंगी, लेकिन फिर भी इतना तो ध्यान रखें ही आटा मोटा है, और उस में चोकर है, इस के बारे में अवश्य ध्यान देना होगा------सफेद, मैदे, रबड़ जैसी रोटियों के पीछे भागने से परेशानी ही हाथ लगेगी।

आटे का दिल देखिये, उस का चेहरा नहीं। और साबुत अनाज लेने के भी बहुत लाभ बताये गये हैं क्योंकि इन में रेशे (fibre) की मात्रा बहुत अधिक होती है। बहुत बार सुनता हूं कि यह डबलरोटी रिफाइन्ड फ्लोर से नहीं होल-व्हीट से तैयार की गई है ----अब कौन जाने इस में कितना सच है, मुझे बहुत बार लगता है कि क्या शुद्ध गेहूं का इस्तेमाल करने से ही डबलरोटी इतनी ब्राउन हो जाती है ----हो न हो, कोई कलर वलर का लफड़ा तो होगा ही। लेकिन अब किस किस बात की पोल खोलें -----यहां तो जिस भी तरफ़ नज़र घुमाओ लफड़े ही लफड़े हैं, ऐसे में क्या करें..........फिलहाल, मोटे आटे (जिस में भूसी मौजूद हो) की बनी बढ़िया बढ़िया रोटियां सिकवायें।

और हां, उुस घर की चक्की को याद करती हुई एक संत की बात का ध्यान आ गया --
दादू दुनिया बावरी पत्थर पूजन जाए,
घर की चक्की कोई न पूजे जिस का पीसा खाए।

सोमवार, 10 मई 2010

सच में यह इंसान बहुत बड़े गुर्दे वाला है ..

पिछले कुछ दिनों में ऐसे तीन केस मेरी नज़र में आये जिन में बस पहली बार ही पेट में दर्द हुआ --दर्द ज़्यादा था, अल्ट्रासाउंड करवाया गया तो पता चला कि दो केसों में गुर्दे में पत्थरी है और एक केस में किसी दूसरी तरह की रूकावट (stricture) है।

एक केस तो लगभग बीस साल के लड़के का--- पहले कोई समस्या नहीं, बस एक बार पेट में दर्द उठा, पेशाब में जलन ---और अल्ट्रासाउंड करवाने पर पता चला कि पत्थरी तो है ही लेकिन इस की वजह से दायें गुर्दे में पानी भी भर गया है ---अब यह देसी जुगाड़ वाली भाषा ही बड़ी खतरनाक है--- मुझे कईं बार लगता है कि डाक्टरों एवं पैरामैडीकल लोगों का एक विषय यह भी होना चाहिये कि प्रादेशिक भाषाओं में मरीज़ को कैसे बताना है कि उसे क्या तकलीफ़ है, अब जो तकलीफ़ है, वह तो है लेकिन कईं बार इतने लंबे लंबे से डरावने नाम सुन के मरीज के साथ साथ उस के संबंधी भी लड़ाई से पहले ही हिम्मत हार जाते हैं।



हां, तो हम लोग उस बीस साल के लड़के की बात कर थे जिसे स्टोन तो है और इस के साथ उस के एक गुर्दे में पानी भर गया है --इसे मैडीकल भाषा में हाइड्रोनैफरोसिस (hydronephrosis) कहते हैं। इस तरह की हालत के बारे में सुन कर किसी का भी थोड़ा हिल सा जाना स्वाभाविक सा है।

और एक दूसरे केस में जिस की उम्र लगभग पचास साल की थी उस में भी पेट दर्द ही हुआ था और जांच करने पर पता चला कि एक गुर्दे में पानी भरा हुआ है और इस की वजह कोई रूकावट लग रही थी ---जब उस ने रंगीन एक्स-रे ( IVP --intravenous pyelogram) करवाया तो पता चला कि किसी स्ट्रिक्चर (stricture) की वजह से यह तकलीफ हो रही है।

आप भी सोच रहे होंगे कि यह क्या हुआ ---पहले से कोई तकलीफ़ नहीं, बस एक बार पेट में दर्द हुआ और पता लगा कि यहां तो कोई बड़ा लफड़ा है।

एक बात तो तय है कि 35-40 की आयु के आसपास तो हम सब को अपनी नियमित जांच करवानी ही चाहिये और कईं बार उस में पेट का अल्ट्रासाउंड (ultrasonography of abdomen) भी शामिल होता है।

अकसर देखने में आया है कि अल्ट्रासाउंड की इस तरह की रिपोर्ट आने के बाद भी कईं बार उसे इतनी गंभीरता से नहीं लिया जाता। यही सोच कर कि कोई बात नहीं, अपने आप देसी दवाई से सब ठीक हो जायेगा।

लेकिन एक बात का ध्यान रखना ज़रूरी है कि दवा देसी हो या ऐलोपैथिक --एक तो अपने आप नहीं और दूसरा किसी क्वालीफाई डाक्टर के नुख्से द्वारा ही प्राप्त की जानी चाहिये। वरना बीमारी लंबी खिंच जाती है।

अब उस 20 साल के लड़के की ही बात करें ---अल्ट्रासाउंड करवाने के बाद उसे चाहिये कि किसी सर्जन से मिले जो ज़रूरी समझेगा तो रंगीन एक्स-रे करवायेगा ताकि पत्थरी से ग्रस्त गुर्दे के बारे में और भी कुछ जाना जा सके। और फिर प्लॉन किया जा सके को पत्थरी किस तरह से निकालनी है।

अब यह सोचना स्वाभाविक है कि पहेल अल्ट्रासाउंड, फिर रंगीन एक्स-रे और फिर ब्लड-यूरिया, सीरम किरैटीनिन ( Blood urea, Serum creatinine etc) --- इतने सारे टैस्ट ही परेशान कर देंगे। लेकिन यह गुर्दे की सेहत को समझने के लिये नितांत आवश्यक हैं।

अल्ट्रासाउंड से तो पता चल गया कि गुर्दे की बनावट कैसी है, वह अपने सामान्य आकार से बड़ा है या कम है, बड़ा है तो उस के बड़े होने का कारण क्या है, क्या उस में पानी भरा हुया है, अगर हां, तो गुर्दे के किन किन हिस्सों में पानी भरा हुया है, और अल्ट्रासाउंड से यह भी पता चलता है कि पत्थरी है तो कहां पड़ी है, उस का साईज़ कितना है, क्या आयुर्वैदिक दवाईयों से उस का अपने आप बाहर निकलने का कोई चांस है या नहीं, क्या यह केस लिथोट्रिप्सी (lithotripsy -- किरणों से पत्थरी की चूरचूर कर देना) के लिये सही है या फिर इस में सर्जरी करनी चाहिये।

इतने सारे निर्णय कोई भी चिकित्सक एक अल्ट्रासाउंड रिपोर्ट देख कर ही नहीं कर पाता --- उस के लिये उसे कईं तरह के और टैस्ट भी करने होते हैं। पेट का रंगीन एक्स-रे (IVP -- intravenous pyelography) करने से उस के गुर्दे के बारे में एवं उस के आस पास के एरिया के बारे में डाक्टर और भी बहुत सी जानकारी इक्ट्ठी करता है ताकि बीमारी का डॉयग्नोसिस एकदम सटीक हो।

और अब अगर चिकित्सक को यह देखना हो कि इस के गुर्दों की कार्य-क्षमता क्या है, ये काम कैसे कर रहे हैं, इसके लिये उसे मरीज के रक्त की जांच करवानी पड़ती है जिस के द्वारा उस के शरीर में ब्लड यूरिया एवं सीरम क्रिटेनिन आदि के स्तर का पता चलता है जिस के द्वारा यह पता चलता है कि इस के गुर्दे कितनी कार्यकुशलता से अपना काम कर रहे हैं।

यह सब को देख लेने के बाद चिकित्सक निर्णय लेते हैं कि आगे क्या करना है। वैसे आप को यह लगता होगा कि अगर किसी को इस तरह की तकलीफ़ हो तो उसे जाना कहां चाहिये ----जो डाक्टर गुर्दे के आप्रेशन इत्यादि करते हैं उन्हें यूरोलॉजिस्ट कहते हैं ---Urologist --- अगर अल्ट्रासाउंड में पत्थरी होने की पुष्टि हो गई है तो यूरोलॉजिस्ट के पास जाना ही मुनासिब है। यह जो यूरोलॉजी सुपर-स्पैशलिटी है इसे सामान्य सर्जरी (MS general surgery) की डिग्री लेने के बाद तीन साल की एक और डिग्री (MCh) करने के बाद किया जाता है।
वैसे देखा गया है कि कुछ सामान्य सर्जन भी गुर्दे संबंधी सर्जरी में अच्छे पारंगत होते हैं ---सारा अनुभव का चक्कर है, अपनी अपनी रूचि की बात है---इसलिये बहुत बार अच्छे अनुभवी सामान्य सर्जन भी इस तरह की सर्जरी से मरीज़ को ठीक ठाक कर देते हैं।

मुझे ऐसा लगता है और जो मरीज़ मेरे पास किसी तरह के मशवरे के लिये आते हैं उन्हें मैं यह सलाह देता हूं कि तीन चार भिन्न भिन्न जगह दिखा कर ही कोई निर्णय लें ---जैसे कि पहले तो किसी सर्जन से बात कर लें, फिर यूरोलॉजिस्ट को दिखा लें, और अगर लगे कि किसी आयुर्वैदिक विशेषज्ञ से भी बात की जाए तो ज़रूर करें क्योंकि ऐसा सुना है कि छोटी मोटी पत्थरी के लिये आयुर्वैदिक दवाई भी बहुत काम करती हैं। और ज़रूरत महसूस हो तो लित्थोट्रिप्सी सैंटर में जाकर दिखा आने में भी कोई खराबी नहीं -----सब विशेषज्ञों की सलाह के बाद अपना मन बनाया जा सकता है। लेकिन वही मिलियन डॉलर प्रश्न ----आखिर आम बंदा यह च्वाईस हो तो कैसे करे? कईं बार बस रब पर ही सब कुछ छोड़ना पड़ता है ---- मेरी एक बार कोई सर्जरी होनी थी, यूरोलॉजिस्ट करने ही वाले थे कि एक बहुत अनुभवी जर्नल सर्जन ओटी में किसी काम से घुसे और उन्होंने मेरे केस को देख कर चाकू अपने हाथ में ले लिया ----क्योंकि उन्हें देखते ही लगा कि  यह यूरोलॉजी का केस नहीं है, यह गैस्ट्रोइंटैसटाइनल ट्रैक्ट का केस था जिस में उन्हें विशेष महारत हासिल थी। होता है , कभी कभी ऐसा भी होता है। आज भी हम लोग जब उस दिन को याद करते है तो यही सोचते हैं कि अपनी होश्यारी कम ही चल पाती है, पता नहीं कब कौन सा फरिश्ता किस मुश्किल से निकालने कहां से आ जाता है !! है कि नहीं ?

हां, तो उस लड़के के गुर्दे में पानी भरे जाने की बात हो रही थी ---ऐसा इसलिये होता है कि चूंकि पेशाब के बाहर निकलने के रास्ते में अवरोध होता है इसलिये वह वापिस बैक मारता है और गुर्द मे यह सब जमा होने से गुर्दे फूल जाते हैं।

लेकिन अगर एक ही तरफ़ के गुर्दे में यह हाइड्रोनैफरोसिस की शिकायत है तो पत्थरी इत्यादि से निजात मिल जाने के बाद गुर्दा वापिस सामान्य होने लगता है।

इस में सब से अहम् बात यह है कि किसी तरह की देरी नहीं होनी चाहिये --क्योंकि गुर्दे के रोग इस तरह के हैं कि कईं कई साल तक ये बिना किसी लक्षण के पनपते रहते हैं और अचानक गुर्दे फेल होने के साथ धावा बोल देते हैं।

इस लिये गुर्दे के रोगों से बचाव बहुत ज़रूरी है --- और अगर कोई तकलीफ़ है तो उस का तुरंत उपचार ज़रूरी है। हा, हम ने यूरोलॉजिस्ट के बारे में तो बात कर ली, गुर्दे का एक विशेषज्ञ होता है ---नैफरोलॉजिस्ट (Nephrologist) जो दवाईयों आदि से मरीज़ के गुर्दे का उपचार करता है--- नैफरोलॉजिस्ट ने सामान्य MD (general Medicine) करने के बाद तीन साल की DM( Nephrology) का कोर्स किया होता है।

अब इस में कोई कंफ्यूजन नहीं होना चाहिये कि कोई तकलीफ़ होने पर यूरोलॉजिस्ट के पास जाया जाए अथाव नैफरोलॉजिस्ट के पास। जिस तरह की तकलीफॉ है उस तरह के स्पैशलिस्ट के पास ही जाना होगा ---- अब उदाहरण देखिये कि अगर सर्जन कहता है कि किसी व्यक्ति के गुर्दे में ऐसी कोई तकलीफ़ नहीं है जिस का आप्रेशन करने की ज़रूरत है लेकिन उस बंदे के गुर्दों की सेहत अल्ट्रासाउंड से और ब्लड-टैस्ट द्वारा पता चलता है कि ठीक नहीं है, ऐसे में उसे नैफरोलॉजिस्ट के पास भेजा जाता है। यही कारण है कि नैफरोलॉजिस्ट विशेषज्ञों के पास ब्लड-प्रैशर एवं डायबीटीज़ आदि रोगों से ग्रस्त ऐसे लोग बहुत संख्या में पहुंचते हैं जिन के गुर्दे में इन रोगों की वजह से थोड़ी गड़बड़ होने लगती है।

बड़े बड़े कारपोरेट हस्पतालों में तो सभी तरह के विशेषज्ञ यूरोलॉजिस्ट, लैपरोस्कोपिक सर्जन ( जो दूरबीन द्वारा गुर्दे आदि के आप्रेशन करते हैं), नैफरोलॉजिस्ट, लित्थोट्रिप्सी सैंटर आदि सभी कुछ रहता है ---- बस, मरीज़ की हालत, ज़रूरत एवं उस की जेब पर काफी कुछ निर्भर करता है।

लेकिन सोचने की बात है कि ये तकलीफ़े आजकल इतनी बढ़ क्यों गई हैं ----हम सब कुछ लफड़े वाला ही खा -पी रहे हैं,  कोई कितने भी ढोल पीट ले, लेकिन हर तरफ़ मिलावट का बाज़ार गर्म है-----ऐसे में बड़े बड़ो की छुट्टी हो जाती है, अब गुर्दे भी कितना सहेंगे ---------- लेकिन जितना हो सके जितना अपनी तरफ़ से कोशिश हो बच सकें, बाकी तो प्रभु पर छोड़ने के अलावा क्या कोई चारा है?

बातें तो बहुत सी हो गईं लेकिन इस पोस्ट के शीर्षक का जवाब मेरे पास नहीं है ---पंजाब में अकसर लोग किसी की तारीफ़ के लिये भी यह कह देते हैं ----ओए यार, एस बंदे का बड़ा वड्डा गुर्दा ए -- (इस आदमी का गुर्दा बहुत बड़ा है) ---पता नहीं, यह कहावत कहां से चली ?