मंगलवार, 17 मार्च 2009

दांत उखड़वाने के बाद क्यों लेते हैं इतनी सारी दवाईयां ?

अगर मेरा यह प्रश्न सुन कर मुझे आप में से कोई पलट कर यही प्रश्न ही पूछ ले कि आप डाक्टर लोग देते हो इसलिये हमें दांत उखड़वाने के बाद इतनी सारी दवाईयां लेनी पड़ती हैं। चलिये, उस की भी बात अभी बाद में करेंगे --- लेकिन मुझे यह बहुत अखरता है कि दांत उखड़वाने के बाद अगर कोई विशेष दो-तीन तरह की दवाईयां किसी को नहीं लिखी जायें तो वह समझता है कि आखिर बिना दवाई के कैसे भरेगा उस के मुंह में मौजूद इतना बड़ा ज़ख्म !!

दोस्तो, ऐसी बात बिल्कुल निराधार है कि आप दवाईयां खायेंगे तो ही वह दांत उखड़वाने की वजह से हुआ जख्म भरेगा। इस समय एक कहावत का ध्यान आ रहा है ---पूत सपूत तो क्या धन संचय, पूत कपूत तो क्या धन संचय !! इसी बात को यहां हम लोग दांत उखड़वाने के बाद लंबी-चौड़ी दवाईयां खाने की फरमाईश के साथ जोड़ कर देखते हैं। अगर किसी क्वालीफाईड डैंटिस्ट ने यह काम किया है तो किसी तरह के डर की कोई बात नहीं , और अगर किसी चलते-फिरते नीम हकीम ने अपना जौहर दिखाने की कोशिश की है , तब भी दवाईयों का कोई फायदा नहीं ---क्योंकि अकसर ये नीम हकीम कुछ इस तरह का नुकसान कर डालते हैं जिस की भरपाई दवाईयां ले लेने से नहीं हो सकती।

एक बिलकुल सीधी सपाट बात है कि अगर तो मरीज़ के मुंह के मुंह का स्वास्थ्य पहले ही से बिलकुल खराब है , पहले ही से बहुत ही इंफैक्शन मौज़ूद है, मरीज़ अगर गुटखे, पान-मसाले एवं बीड़ी-सिगरेट का शौकीन है और अगर दांत को किसी ऐसी वैसी जगह से निकलवाया गया है जहां पर उस नीम-हकीम जिसे हम दंत-चिकित्सक कहते हुये भी डरते हैं, तो समझिये कि उस ने आफ़त मोल ले ली है। दांत उखड़वाने के बाद होने वाले घाव की तो आप चिंता इतनी करें नहीं, यह सब प्रकृत्ति अच्छे से देख ही लेती है। लेकिन चिंता की बात यहां पर यही होती है कि दूषित सिरिंजों, सूईंयों एवं दूषित उपकरणों की वजह से तरह तरह की भयंकर बीमारियों की चपेट में आने की पूरी संभावना बनी रहती है।

दांत उखड़वाना कोई बड़ी बात थोड़े ही है ---- लेकिन किसी बस स्टैंड पर किसी चलते फिरते डैंटिस्ट से इस तरह का काम करवाना खतरे से खाली नहीं है। लोग अकसर बहुत इंप्रैस होते हैं कि हमारे यहां पर बस स्टैंड वाला बंदा तो बस कुछ छिड़कता है और तुरंत ही दांत बाहर निकल आता है। केवल इतना ध्यान देने की ज़रूरत है कि जो पावडर वह छिड़कता है या जिस के लोशन से उस ने रूमाल गीला किया होता है वह आरसैनिक नामक का विषैला तत्व होता है जो मुंह के कुछ हिस्से को बिल्कुल सुन्न कर देता है। कुछ वर्षों के बाद यह कैंसर का रूप ले सकता है।

हां, तो बात हो रही थी दांत उखड़वाने के बाद बहुत सी दवाईयां खाने की। पहले तो मैं अपना अनुभव बताता हूं ----दोस्तो, मेरा अनुभव तो यही है कि इन की कोई विशेष आवश्यकता होती ही नहीं है। मैं अकसर दांत उखाड़ने के बाद मरीज़ों को दो-चार दर्द निवारक टेबलेट लेकर रखने की सलाह अवश्य देता हूं ----इस टेबलेट में आईबूब्रोफन एवं पैरासिटामोल नाम की दवाई होती है ---- इसे मैं अधिकांश मरीज़ों के लिये बेहद सुरक्षित मानता हूं---- एक या दो टेबलेट की ही किसी को ज़रूरत पड़ती है। यह दवाई मैं अपने मरीज़ों के लिये पिछले 25 वर्षों से इस्तेमाल कर रहा हूं और मेरा अनुभव है कि यह पूरी तरह से सुरक्षित है

इस टेबलेट के बाद बहुत सी नईं नईं टेबलेट आई हैं, नये नये साल्ट आ गये हैं , लेकिन मेरा इस कंबीनेशन पर अटूट विश्वास है क्योंकि यह अनुभव मेरे हज़ारों मरीज़ों ने मुझे दिया है। नईं नईं दवाईयों की समस्या यही है कि यह आज निकलती हैं और कुछ अरसे बाद इन से संबंधित कुछ दुष्परिणाम उजागर होने के बाद इन पर एक दो चार अमीर देश तो लगा देते हैं प्रतिबंध लेकिन हम जैसे लकीर के फकीर ही बने रहने की वजह से अपने लोगों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ करने से भी गुरेज़ नहीं करते। इसलिये, भाई हम तो पुरानी, प्रामाणिक दवाईयों से ही संतुष्ट हैं---- time-tested salts ----ये केवल दर्द-निवारक टेबलेट्स की ही बात नहीं है, मेरा ऐंटीबॉयोटिक दवाईयों के बारे में भी यही विचार है। इतने वर्षों से दांत की विभिन्न इंफैक्शनज़ के लिये अमोक्सीसिलिन कैप्सूल को ही सब से बेहतर पाता हूं और उसी को अधिकांश केसों में मुंह की इंफैक्शन एवं सूजन के लिये लिखता हूं और उसी से हमेशा वांछित रिज़ल्ट भी मिल ही जाता है। हां, कईं केसों में ( बिल्कुल कम केसों में) नईं नईं दवाईयां भी लिखनी पड़ती हैं, लेकिन इतनी कम बार कि मेरे पास वर्षों से कोई मैडीकल –रिप्रैज़ैंटेटिव ही नहीं आया है।

दांत उखड़वाने के बाद खाई जाने वाली बात तो फिर कहीं पीछे छूट गई --- ऐसा है कि इस के लिये आप को अपने प्रशिक्षित दंत-चिकित्सक की ही बात माननी होती है। मेरा अनुभव तो यही है कि मरीज़ को दो-चार टेबलेट रख लेनी चाहियें ---ज़रूरत पड़ने पर एक दो टेबलेट ले लेनी चाहिये --- अकसर बहुत से केसों में तो एक भी नहीं और किसी किसी केस में दांत उखड़वाने वाले दिन दो एक टेबलेट की ज़रूरत पड़ सकती है। सामान्यतयः दांत उखड़वाने के बाद मैंने तो अनुभव से यही सीखा है कि महंगे महंगे ऐंटिबॉयोटिक्स का कोई रोल ही नहीं है---बिना वजह अपनी सेहत एवं पेट खराब करने वाली बात है। लेकिन एक बात वही दोहरा देता हूं कि इस के बारे में भी अपने डैंटिस्ट की बात तो माननी ही होगी, बस कहीं पर आप को किसी किस्म की दुविधा हो तो मेरे अनुभवों का भी थोड़ा ध्यान कर लिया करें।

कहीं आप यह तो नहीं सोच रहे कि यार, मुंह में घाव कैसे भरेगा बिना दवाईयों के -----ऐसा है कि दांत उखड़वाने के बाद मुंह में हुये घाव का अच्छी तरह से भर जाना एक बिलकुल ही प्राकृतिक नियम है। तो यह प्रक्रिया दवाईयां खाने से तेज़ होने वाली है और ही ना खाने से मंद पड़ने वाली है। केवल हमारा कर्त्तव्य इतना सा होता है कि हम ने उस घाव को भरने के लिये एक उत्तम वातावरण देना होता है ----सिगरेट बीड़ी से घाव में भरने में देरी होती है, इसलिये इन से दूर रहें। जिस दिन दांत निकलवाया है उस के अगले दिन से गुनगुने पानी में थोड़ा नमक या फिटकड़ी डाल कर कुल्ला करना बहुत ज़रूरी है क्योंकि जख्म में इक्ट्ठी हुई सारी गंदगी इस से निकलती रहती है। और देखते ही देखते दो-चार दिन में जख्म पूरी तरह से अपने आप भर जाता है।

कुछ लोग हमें यह भी पूछते हैं कि ठीक है खाने की तो कोई दवाई नहीं दे रहे हैं, लेकिन जख्म पर कोई लगाने वाली या कोई कुल्ला करने वाली दवाई तो होगी जो कि दांत निकलवाने से हुये ज़ख्म को भरने में मदद करती होगी। इन मरीज़ों के लिये भी अपना यही जवाब होता है कि इस के लिये इस तरह की किसी भी जख्म पर लगाने वाली दवाई की अथवा कुल्ला करने वाले माउथवाश की बिल्कलु ज़रूरत ही नहीं होती।

मेरे ख्याल में मैंने अपनी बात ठीक से आप प्रबुद्ध लोगों के समक्ष रख दी है ----- पोस्ट लंबी होती दिख रही है इसलिये अपनी उंगलियों को यहीं पर विराम देता हूं ---केवल एक यही बात कह कर कि ब्लड-प्रैशर, हार्ट एवं शूगर के मरीज़ भी दांत उखड़वाने के नाम से इतने भयभीत मत हुआ करें ----इन मरीज़ों से संबंधित इस नाचीज़ के अनुभव कुछ यहां पड़े हैं और कुछ यहां भी पड़े हैं।

शुभकामनायें ------ढ़ेरों शुभकामनायें ----इतना आशीर्वाद कि आप के दांत इतने फिट रहें कि आप को कभी इस उखड़वाने के चक्कर में पड़ना ही न पड़े और अगर कभी दांत-उखड़वाने की ज़रूरत पड़ भी जाये तो डैंटिस्ट का क्लीनिक छोड़ने से पहले कभी उस से यह मत पूछें कि क्या आप कोई ऐंटीबॉयोटिक दवाई नहीं दे रहे हैं, मुझे लगता है ऐसा कोई प्रश्न ना पूछने में ही आप की भलाई छुपी है।

बातें ये सब परदे में ही रखने वाली हैं, लीजिये इसी बात पर मुझे अपने बचपन का मेरा बेहद पसंदीदा गाना ध्यान में आ गया ----शायद तब मैं पहली कक्षा में पढ़ता है ---मुझे उस उम्र के जो दो-तीन फिल्मी गाने याद हैं, यह उन में से एक है। तब यह रेडियो पर खूब बजा करता था। मुझे आज भी यह बहुत अच्छा लगता है। मेरी पोस्ट की सीरियस बातों को भूल जाने के लिये आप भी इसे एक बार तो सुन ही लीजिये।

शुक्रवार, 13 मार्च 2009

बच्चों में पहली पक्की जाड़ क्यों इतनी जल्दी खराब हो जाती है ?

हम लोगों को अपने कालेज के दिनों से ही इस बारे में बहुत सचेत किया जाता था कि बच्चों की पहली पक्की जाड़ ( First permanent molar) को टूटने से कैसे भी बचा लिया करें। अकसर अपनी ओपीडी में बहुत से बच्चे दांतों की तरह तरह की बीमारी से ग्रस्त देखता हूं। लेकिन मुझे सब से ज़्यादा दुःख तब होता है जब मैं किसी ऐसे बच्चे को देखता हूं जिस की पहली पक्की जाड़े इतनी खराब हो चुकी होती हैं कि उन का उखाड़ने के इलावा कुछ नहीं हो सकता।

इस तस्वीर में भी आप देख रहे हैं कि इस 15 साल के बच्चे के बाकी सारे दांत तो लगभग दुरूस्त ही हैं लेकिन इस की नीचे वाली पहली पक्की जाड़ पूरी तरह से क्षतिग्रस्त हो चुकी है जिस का निकलवाने के इलावा कुछ भी नहीं हो सकता। आप इस फोटो में यह भी देख रहे हैं कि इस की बाईं जाड़ में भी दंत-क्षय (dental caries) की शुरूआत हो चुकी है।

क्यों हो जाते हैं बच्चे के स्थायी दांत इतनी जल्दी खराब इस का कारण यह है कि बच्चों में ये स्थायी पहली पक्की जाड़ें ( First permament molar –total four in number, one in each oral quadrant) जिन की संख्या कुल चार ---ऊपर एवं नीचे के जबड़े के दोनों तरफ़ एक एक जाड़ होती है—यह जाड़ बच्चों में मुंह में लगभग छः साल की उम्र में आ जाती हैं।

क्योंकि इस छः साल की अवस्था तक बच्चे के मुंह में ज़्यादातर दांत एवं जाड़ें दूध (अस्थायी) की होती हैं --- इसलिये अकसर बच्चों की तो छोड़िये अभिभावक भी इस जाड़ को इतनी गंभीरता से लेते नहीं हैं ----वास्तव में उन्हें यह पता ही नहीं होता कि बच्चे के मुंह में पहली पक्की जाड़ आ चुकी है।

तो ऐसे में अकसर बच्चे के मुंह में यह जाड़ दूसरे अन्य दंत-क्षय़ दांतों के साथ पड़ी रहती है --- और जिन कारणों से दूध के दांत बच्चे के खराब हुये वही कारण अभी भी बच्चे के लिये मौजूद तो हैं ही –इसलिये अकसर बहुत बार इस पक्की जाड़ को भी दंत-क्षय लग जाता है जिसे आम भाषा में कह देते हैं कि दांत में कीड़ा लग गया है। वैसे तो मां-बाप को इस पक्की जाड़ के मुंह में आने के बारे में पता ही नहीं होता इसलिये जब बच्चे के मुंह में काले दाग-धब्बे से देखते हैं या बच्चा इस जाड़ में कैविटी ( सुराख) होने के कारण खाना फंसने की बात करता है तो इस तरफ़ इतना ध्यान नहीं दिया ----और यही सोच लिया जाता है कि अभी तो तेरे दूध के दांत हैं, ये तो गिरने ही हैं, और इस के बाद पक्के दांत जब आयेंगे तो दांतों का पूरा ध्यान रखा करो, वरना आने वाले पक्के दांत भी ऐसे ही हो जायेंगे। बस, ऐसा कह कर छुट्टी कर ली जाती है।

एक बहुत ही विशेष बात ध्यान देने योग्य है कि दंत-क्षय एक बार जिस दांत या जाड़ में हो जाता है वह तब तक उस दांत में आगे बढ़ता ही जाता है जब तक या तो किसी दंत-चिकित्सक के पास जा कर उचित इलाज नहीं करवा लिया जाता ---वरना इस दंत-क्षय की विनाश लीला उस दांत या जाड़ की नस तक पहुंच कर उस को पूरी तरह से नष्ट कर देती है। अब इस अवस्था में या तो उस पक्की जाड़ का लंबा-चौड़ा रूट कनाल ट्रीटमैंट का इलाज किया जाये जो कि अधिकांश अभिभावक विभिन्न कारणों की वजह से करवा ही नहीं पाते ------और कुछ ही समय में इस दंत-क्षय की वजह से उस पहली पक्की जाड़ का हाल कुछ ऐसा हो जाता है जैसा कि आप इस बच्चे की मुंह की फोटो में देख रहे हैं ---यह बच्चा मेरे पास कल आया था ----इसे निकालने के इलावा कोई रास्ता रह ही नहीं जाता।
अगर आप ध्यान से इस तस्वीर की दूसरी तरफ़ भी देखें तो आप नोटिस करेंगे कि दूसरी तरफ़ की पहली जाड़ में भी दंत-क्षय जैसा कुछ लग चुका है ---इसलिये उस का भी उचित होना चाहिये ताकि वह पहली जाड़ भी दूसरी तरफ़ वाली पहली जाड़ की तरह अज्ञानता की बलि न चढ़ जाये।

वैसे , बच्चों को दांत दंत-क्षय से मुक्त रखने के लिये इतना करना होगा कि किसी भी अच्छी कंपनी की फ्लोराइड-युक्त टुथपेस्ट से रोज़ाना दो बार –सुबह एवं रात को सोने से पहले – दांत तो साफ़ करने ही होते हैं और जुबान साफ़ करने वाली पत्ती से ( tongue-cleaner)नित-प्रतिदिन जिव्हा को साफ़ किया जाना बहुत ही , अत्यंत ज़रूरी है । और एक बार और भी बहुत ही अहम् यह है कि हर छः महीने के बाद सभी बच्चों का किसी प्रशिक्षित दंत-चिकिस्तक द्वारा निरीक्षण किया जाना नितांत आवश्यक है।

दंत चिकिस्तक को नियमित दांत चैक करवाने से ही पता चल सकता है कि कौन से दांतों में थोड़ी बहुत खराब शुरू हो रही है ----और फिर तुरंत उस का जब इलाज कर दिया जाता है तो सब कुछ ठीक ठाक चलता रहता है -----वरना अगर आठ-दस की उम्र में ही पक्के दांत एवं जाड़े ( permanent teeth) उखड़नी शुरू हो जायेंगी तो बच्चा तो थोड़ा बहुत सारी उम्र के लिये दांतों के हिसाब से अपंग ही हो गया ना ----- ध्यान रहे कि हमारे मुंह में मौजूद एक एक मोती अनमोल है लेकिन यह पक्की पक्की जाड़ तो कोहेनूर से भी ज़्यादा कीमती है क्योंकि हमारे मुंह की बनावट में, मुंह में इस के द्वारा किये जाने वाले काम हैं ही इतने ज़्यादा महत्त्वपूर्ण कि अन्य दांतों के साथ साथ इस की भी पूरी संभाल की जानी चाहिये।

एक बात का ध्यान और आ रहा है कि बच्चों के दांत एवं जाड़ें आप जब देखें तो इस तरह का अनुमान स्वयं न ही लगायें कि यह तो दूध की लगती है या यह पक्की लगती है ----अभिभावकों द्वारा लगाये ये अनुमान अकसर गलत ही होते हैं ----इसे केवल एक प्रशिक्षित दंत-चिकिस्तक ही बता सकता है कि कौन से दांत गिरने हैं और कौन से पक्के वाले हैं----इसलिये उस की शरण में चले जाने में ही बेहतरी है, आप के बच्चे की भलाई है।

शनिवार, 7 मार्च 2009

सुन्नत / ख़तना करवाने ( Male circumcision) के बारे में आप क्या यह सब जानते हैं ?

दो वर्ष पहले अफ्रीका में की किये गये तीन सर्वेक्षणों से यह निष्कर्ष निकाला गया कि जिन पुरूषों की सुन्नत हुई होती है उन में एड्स वॉयरस के प्रवेश का ख़तरा 60फीसदी कम होता है, इसलिये विश्व स्वास्थ्य संगठन ने एड्स की रोकथाम के लिये ख़तना करवाने की सिफारिश कर दी।

थोड़ा इस बात की चर्चा करें कि यह सुन्नत करवाना है क्या ----जैसा कि आप जानते होंगे कि पिनिस ( शिश्न, लिंग) का अगला नर्म भाग ( शिश्न मुंह अथवा glans penis) ढीली चमड़ी से ढका रहता है जिसे मैडीकल भाषा में प्रिप्यूस ( prepuce) कहा जाता है ---- एक बिलकुल छोटे से आप्रेशन के द्वारा शिश्न मुंह के ऊपर वाली इस चमड़ी को उतार दिया जाता है।

जब से विश्व स्वास्थ्य संगठन की यह सिफारिश आई है विभिन्न गरीब देशों ने अपनी अपनी सरकमसिज़न पॉलिसी बनाने की तरफ़ कदम उठाने शुरू किये तो हैं लेकिन फिर भी लोगों के बीच इस सुन्नत के बारे में बहुत सी गलत भ्रांतियां चल निकली हैं। एक बहुत ही चिंता की बात यह भी यह है कि नीम-हकीमों ने बिना साफ़-सुथरे औज़ारों के ही यह काम सस्ते ढंग से करना का जिम्मा उठा लिया। वैसे तो तरह तरह की भ्रांतियों को समाप्त करने के लिये विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस के बारे में यह वेबसाइट ही बना डाली है, लेकिन फिर भी अभी इस के बारे में बहुत जागरूकता की ज़रूरत है।

सब से पहले तो एक नज़र इस तरफ़ डाली जाये कि यह सरकमसिज़न आप्रेशन( सुन्नत, ख़तना) किया ही क्यों जाता है ---
- एक धार्मिक विश्वास के कारण ---- आप यह तो जानते हैं कि मुस्लिम धर्म में धार्मिक कारण की वजह से छोटे लड़कों की सुन्नत की जाती है।
- दूसरा कारण है जब कोई भी कंप्लीकेशन हो जाये तब ख़तना करना पड़ता है ---- होता क्या है कि कईं छोटे बच्चों की प्रिप्यूस इतनी टाइट होती है --- वह शिश्न-मुंड के ऊपर से बिल्कुल भी टस से मस नहीं होती ----इस अवस्था को फिमोसिस (phimosis) कहा जाता है। इस की वजह से कईं बार यह जटिलता हो जाती है कि छोटे लड़कों को पेशाब करने में ही दिक्तत हो जाती है जिस की वजह से उन के शिश्न-मुंड के ऊपर टाइट चमड़ी को इस छोटे से आप्रेशन के द्वारा उतार दिया जाता है।
- बिना किसी विशेष कारण के भी कईं बार सरकमसिज़न कर दी जाती है।

कुछ बातें इस प्रिप्यूस के बारे में करनी ज़रूरी लग रही हैं ---- अधिकांश नवजात शिशुओं में यह जो चमड़ी है ग्लैंस-पिनिस ( glans penis- शिश्न-मुंड) के साथ पूरी तरह चिपकी पड़ी होती है । और अगर बिल्कुल कुछ भी न किया जाये तो भी लगभग सभी लड़कों में यह चमड़ी लड़के के तीन साल की उम्र के होने तक शिश्न-मुंड से अलग हो जाती है -----------ध्यान दें कि केवल अलग हो जाती है –मतलब यह कि वह आसानी से शिश्न-मुंड से आगे-पीछे सरक सकती है।

यही कारण है कि लोगों को यह निर्देश दिया जाना बहुत ज़रूरी है कि तीन साल की उम्र तक तो शिशु के शिश्न के ऊपर जो foreskin है उस को ज़ोर लगा कर शिश्न-मुंड से पीछे सरकाने की कोशिश न करें। अगर तीन साल की उम्र तक भी ग्लैंस के ऊपर वाली यह चमड़ी ग्लैंस पर चिपकी ही रहती है तो बेहद एहतियात से बिल्कुल आहिस्ता से इस चमड़ी (foreskin) को पीछे सरकाने की कोशिश की जानी चाहिये --- और इस चमड़ी और शिश्न-मुंड के अंदर जो भी मैल सी चिपकी रहती है उसे साफ़ कर दिया जाये। लेकिन अगर शिशु के चार साल के होने तक भी यह चमड़ी शिश्न-मुंड के साथ चिपकी ही रहे तो किसी पैडिएट्रिक सर्जन से एक बार मिलना ठीक रहता है जो कि इस चमड़ी को बिना काटे ही पीछे सरका ( retract) कर सकता है।

अच्छा तो अब इस पोस्ट की दो बहुत ही अहम् बातें ---- पहली तो यह भ्रांति को तोड़ना होगा कि सरकमसिज़न ( सुन्नत, ख़तना) करवा ली और हो गई विभिन्न प्रकार की बीमारियों से शत-प्रतिशत रक्षा ---- इसीलिये बहुत से पुरूष विभिन्न यौन-जनित रोगों से बचाव के लिये कंडोम का इस्तेमाल करना ही बंद कर देते हैं।

इस से कहीं न कहीं हमें किसी रिस्क-बिहेवियर की भनक पड़ती है और लोग इस तरह के रिस्क-बिहेवियर में लिप्त होने के लिये इस सरकमसिज़न को एक क्लीन-चिट ही न समझ लें।

और अब बारी आती है वह बात कहने की जिस के लिये मैंने यह पोस्ट लिखी है ---- इस पोस्ट को पढ़ रहे कितने पुरूष पाठक ऐसे हैं जिन के बेटे सन-सरकमसाईज़ड (uncircumcised) हैं--- ( यह कोई खास बात नहीं कि ख़तना नहीं करवाया हुआ है ) ---- लेकिन उन्होंने कभी अपने बेटे के साथ इस बात की चर्चा ही नहीं की कि शिश्न-मुंड के ऊपर वाली चमड़ी (foreskin) को नियमित तौर पर पीछे सरका कर नहाते समय साफ़ करना निहायत ही ज़रूरी है --- ऐसा करना इसलिये ज़रूरी है कि जो इस ढीली चमड़ी और शिश्न-मुंड के अंदर मैल सी ( जिसे मैडीकल भाषा में smegma- स्मैगमा) इक्ट्ठा होती रहती है अगर उसे नियमित साफ़ न किया जाये तो उस से पेशाब में जलन होनी शुरू हो जाती है और कईं बार तो इस को साफ़ न करने की वजह से मूत्र-मार्ग मे सूजन भी आ सकती है - urinary tract infection (UTI).

इसलिये अनुरोध है कि अपने किशोर बेटे को अगर अब तक यह शिक्षा आपने नहीं दी है तो और देरी मत कीजिये ----यह यौन-स्वास्थ्य का एक अभिन्न अंग है , इसे नज़र-अंदाज़ नहीं कर सकते। और एक सुझाव है कि यह शिक्षा बेहतर तो यही होगा कि बेटे को चार-पांच साल से ही दे दी जाये कि नहाते समय आहिस्ता से शिश्न-मुंड के ऊपरी चमड़ी को थोड़ा पीछे सरका के ( जितना भी आसानी से बिना किसी दर्द के सरकाई जा सके) उस पर लगी मैल को साफ़ कर दिया जाये। और लड़कों को छोटी उम्र से ही इस साफ़-सफ़ाई की आदत लग जाये तो वह भी सारी उम्र अपने यौन-स्वास्थ्य के प्रति सजग रहने के साथ साथ तरह तरह की भ्रांतियों एवं काल्पनिक तकलीफ़ों से बचे रहते हैं। लेकिन इन लड़कों को यह भी ज़रूर बतायें कि रोज़ रोज़ शिश्न-मुंड ( glans penis) पर साबुन लगाना ठीक नहीं है ----जो स्मैग्मा ( मैल) जमा होती है वह बिल्कुल आहिस्ता से उंगली से ही पूरी तरह उतर जाती है ।

और अगर अब तक आप ने अपने टीन-एज- किशोर बेटे से इस के बारे में बात ही नहीं की है तो क्या करें ------- या तो उसे किसी तरह से यह पोस्ट पढ़वा दें, वरना इस का एक प्रिंट-आउट ही थमा दें ---- और अगर यह काम कर ही रहे हैं तो उस के द्वारा इस स्वपन-दोष वाली पोस्ट का पढ़ा जाना भी सुनिश्चित करे -----------------काश, हम लोगों के ज़माने में भी हमें ये सब बातें बताता ---हम लोगों ने तो यूं ही काल्पनिक बीमारियों की सोच में पढ़ कर ही अपने जीवन के सुनहरे काल के बहुत से वर्ष गर्क कर दिये ------लेकिन अब हमारे बच्चे इस तरह की बातों पर ध्यान देने लगेंगे तो बहुत बढ़िया होगा। आप भी झिझक छोड़ कर यह सब बातें अपने बेटे के साथ सांझी करेंगे तो ठीक रहेगा ----मेरा तो यह लाइफ़ का अनुभव है, आगे आप की मरज़ी -----जैसा ठीक समझें, वैसा करें।

वैसे तो सैक्स-ऐजुकेशन के लेबल के अंतर्गत लिखी मेरी सभी पोस्टें एकदम दिल से लिखी गई हैं ---आप देखें कि अपने बेटे की मैच्यूरिटि के अनुसार कौन कौन सी पोस्टें वह पढ़ सकता है---- कल रात यूं ही मैं इन पोस्टों का लेबल बदलने की कोशिश कर रहा था तो मुझे अचानक एक मैसेज दिखा कि इस लेबल की सभी पोस्टें डिलीट कर दी गई हैं------ मेरा तो सांस ऊपर का ऊपर ही रह गया ----थैंक-गॉड, ऐसा कुछ नहीं था , मुझे समझने में ही कमी थी ---उस का मतलब था कि अब ये पोस्टें बिना लेबल के हैं, इसलिये फिर मैंने उन्हें बारी बारी से सैक्स-ऐजुकेशन लेबल के अंदर रख दिया। मैं घबरा इस लिये गया कि दोस्तो ये पोस्टें मुझे स्वयं पता नहीं मैंने किसी घड़ी में लिख दी डाली हैं ---जो मैं इन दस-ग्यारह पोस्टों में पहले लिख चुका हूं अब कोई कहे कि ऐसा फिर से लिखो, वह मेरे तो बस की बात ही नहीं है, दोस्तो।
शुभकामनायें।

शुक्रवार, 6 मार्च 2009

अगर मुंह में ही ये हालात हैं तो शरीर के अंदर क्या हाल होगा ?

जिस व्यक्ति के मुंह की तस्वीर आप इस दोनों फोटो में देख रहे हैं, इन की उम्र 50 साल की है और ये पिछले 20-25 सालों से धूम्रपान कर रहे हैं। यह मधुमेह की तकलीफ़ से भी परेशान हैं। जब इन्होंने धूम्रपान शुरू किया तो पहला कश यारों-दोस्तों के साथ बैठे बैठे यूं ही मज़ाक में खींचा था ---और इन्होंने भविष्य में दोबारा कश न खींचने की बात कही थी क्योंकि धुऐं से इन को चक्कर सा आने लगा था।

लेकिन उन्हीं यारों दोस्तों के साथ उठते बैठते कब यह मज़ाक एक बदसूरत हकीकत में बदल गया इन्हें भी इस का पता ही नहीं चला। वैसे तो मेरे पास यह दांत की तकलीफ़ के लिये आये थे ----आप देख ही रहे हैं कि तंबाकू के इस्तेमाल ने इन के मुंह में क्या तबाही कर रखी है !!

ऐसे मरीज़ों की दांत की तकलीफ़ को तो मैं बाद में देखता हूं ---पहले उन्हें तंबाकू की विनाश लीला से रू-ब-रू होने का पूरा मौका देता हूं। यह जो आप पहली तस्वीर में देख रहे हैं यह इन के बायें तरफ़ की गाल का अंदरूनी हिस्सा है ---- यह भी ओरल-ल्यूकोप्लेकिया ही है ---अर्थात् मुंह के कैंसर की पूर्व-अवस्था । आप दूसरी तस्वीर में दाईं तरफ़ की गाल का भी अंदरूनी हिस्सा देख रहे हैं कि उस तरफ़ भी गड़बड़ शुरू हो चुकी है।

अब यह कौन बताये कि कौन सा ल्यूकोप्लेकिया मुंह के कैंसर में तबदील हो जायेगा और इसे ऐसा करने में कितने साल लगेंगे ------ लेकिन फिर भी इस तरह का जोखिम आखिर कौन लेना चाहेगा ? – जब सरेआम पता है कि मुंह में एक शैतान पल रहा है तो फिर भी क्यों इस को नज़रअंदाज़ किया जाये। ऐसी अवस्था को नज़रअंदाज़ करना एक अच्छा-खासा जोखिम से भरा काम है। इसलिये इस का तुरंत इलाज करवाना ज़रूरी है।

लेकिन इस का इलाज कैसे हो ? ---सब से पहली बात है कि जब भी पता चले कि यह तकलीफ़ है तो उसी क्षण से सिगरेट-बीड़ी के पैकेट पर गालीयों की जबरदस्त बौछार कर के ( जैसे जब-व्ही -मेट --jab we met की नायिका ने अपने पुराने ब्वॉय-फ्रैंड पर की थी !! , अगर हो सके तो उस से भी ज़्यादा ....!! ) बाहर नाली में फैंक दिया जाये। मेरे मरीज़ों को मेरी यह बात समझ में बहुत अच्छी तरह से आ जाती है जब मैं उन्हें यह कहता हूं कि देखो, भई, बहुत पी ली बीड़ीयां अब तक ---- अब इसे कभी तो छोड़ोगे, और अब खासकर जब आप को पता लग चुका है इस तंबाकू ने अपना रंग आप के मुंह में दिखा दिया है -----ऐसे में अगर अब भी इस कैंसर की डंडी ( सिगरेट- बीड़ी / कैंसर स्टिक) का मोह नहीं छूटा तो समझो कि धीरे धीरे आत्महत्या की जा रही है।

सिगरेट बीड़ी छोड़ कर इस ओरल-ल्यूकोप्लेकिया के इलाज की तरफ़ ध्यान दिया जाये – अगर तो आप किसी ऐसे शहर में रहते हैं जहां पर कैंसर हास्पीटल है तो वहां पर कैंसर की रोकथाम वाले विभाग में जाकर इस की ठीक से जांच करवायें, ज़रूरत होगी तो उस जगह से थोड़ा टुकड़ा लेकर बायोप्सी भी की जायेगी और फिर समुचित इलाज भी किया जायेगा। यह बहुत ही ज़रूरी है ----लेकिन इलाज से पहले , प्लीज़, कृपया, मेहरबानी कर के धूम्रपान की आदत को लात मार दें तो ही बात बनेगी।

मैं तंबाकू के विरोध में जगह जगह इतना बोलता हूं कि कईं बार ऊब सा जाता हूं –यहां तक कि इस किस्म के लेख लिख कर भी थकने लगता हूं लेकिन फिर वही ध्यान आता है कि अगर हम लोग ही थक कर, हौंसला हार कर बैठ गये तो यह तंबाकू नामक गुंडे का हौंसला तो और भी बुलंद हो जायेगा।

सोचने की बात यह है कि मुंह में तो यह तंबाकू के विभिन्न उत्पाद जो ऊधम मचा रहे हैं वह तो डाक्टर ने मरीज़ का मुंह खुलवाया और देख लिया लेकिन शरीर के अंदरूनी हिस्सों में जो यह तबायी लगातार मचाये जा रहा है, वह तो अकसर बिना किसी चेतावनी के उग्र रूप में ही प्रकट होती है जैसे कि दिल का कोई भयंकर रोग, श्वास-प्रणाली के रोग, फेफड़े का कैंसर, मूत्राशय का कैंसर -----------आखिर ऐसा कौन सा अंग है जो इस के विनाश से बचा रह पाता है ?

इसलिये केवल और केवल एक ही आशा की किरण है कि हम लोग सभी तरह के तंबाकू उत्पादों से दूर रहें -----यह भी एक खौफ़नाक आतंकवादी ही है जो गोली से नहीं मारता, बल्कि यह धीमा ज़हर है, धीरे धीरे मौत के मुंह में धकेलता है। सोचने की बात यह भी है कि आखिर यह सब जानते हुये भी किस फरिश्ते की इंतज़ार कर रहे हैं जो आकर हमें इस शैतान से निजात दिलायेगा।

तंबाकू या स्वास्थ्य -----------------आप केवल एक को ही चुन सकते हैं !!

गुरुवार, 5 मार्च 2009

क्यों हूं मैं खुली बिकने वाली दवाईयों का घोर विरोधी ?

आज सुबह ही बैंक में मेरी मुलाकात एक परिचित से हुई ---अच्छा खासा पढ़ा लिखा , अप-टू-डेट है और बीस-पच्चीस हज़ार का मासिक वेतन लेता है। बताने लगा कि डाक्टर साहब कल शाम को जब मेरे गला खराब हुआ तो मैं फलां फलां डाक्टर से कुछ दवाईयां लेकर आया , तो सुबह तक अच्छा लगने लगा। इस के साथ ही उस ने एक अखबार के कागज़ के छोटे से टुकड़े में लपेटी तीन चार दवाईंयां ---दो कैप्सूल, एक बड़ी गोली, एक छोटी गोली –दिखाईं। पूछने लगा कि क्या यह दवाई ठीक है ?

सब से पहले तो मैंने उसे यही समझाना चाहा कि यार, ठीक गलत का पता तो तभी चलेगा ना जब यह पता लगे कि आप जो दवाईयां ले रहो हो उन में आखिर है क्या !! वह मेरी बात समझ रहा था, आगे कहने लगा कि डाक्टर साहब, लेकिन मेरे को तो इस से आराम लग रहा है। मैंने यह भी कहा कि यार, देखो बात आराम आने की शायद इतनी नहीं है, बात सब से ज़्यादा ज़रूरी यह है कि आप जैसे पढ़े-लिखे इंसान को यह तो पता होना ही चाहिये कि आप दवाईयां खा कौन सी रहे हैं। फिर वह मेरे से पूछने लगा कि अब आप बताओ कि यह बाकी पड़ी खुराकें खाऊं कि नहीं --- तब मुझे उसे कहना ही पड़ा कि मत खाओ आगे से यह दवाईयां।

आज कल यह बड़ी विकट समस्या है कि नीम हकीम, झोला-छाप डाक्टर और कईं बार तरह तरह के गैर-प्रशिक्षित डाक्टर लोग इस तरह की खुली दवाईयां मरीज़ों को बहुत बांटने लगे हैं। मैं इन से इतना चिढ़ा हुआ हूं कि जब मुझे कोई दिखाता है कि इन खुली दवाईयों की खुराकें ले रहे हैं तो मुझे उन मरीज़ों को इतना सचेत करना पड़ता है कि वे खुद ही मेरी ओपीडी में पडें डस्ट-बिन में उन बची खुराकों को फैंक देते हैं।

इन खुली दवाईयों से आखिर क्यों है मुझे इतनी नाराज़गी ? –इस का सब से बड़ा कारण यह है कि इन दवाईयों के इस्तेमाल करने वाले मरीज़ों के अधिकारों की रक्षा शून्य के बराबर होती है। उन्हें पूरी तरह अंधेरे में रखा जाता है --- न दवाई का पता, न कंपनी का पता ---- यह तो भई बस में बिक रही दर्द-निवारक गोलियों की स्ट्रिप जैसी बात ही लगती है। उन्हें अगर किसी दवाई से रिएक्शन हो भी जाता है तो उन्हें यह भी नहीं पता होता कि आखिर उन्हें किस दवा के कारण यह सब सहना पड़ा। इसलिये संभावना रहती है कि भविष्य में भी वे दोबारा उसी तरह की दवाईयों के चंगुल में फंसे।

दूसरा कारण है कि आज कल वैसे ही नकली दवाईयों का बाज़ार इतना गर्म है कि हम लोग इतने इतने साल प्रोफैशन में बिताने के वाबजूद कईं बार चकमा खा जाते हैं। अकसर ये नीम हकीमों द्वारा बांटी जाने वाली दवाईयां बहुत ही सस्ते किस्म की, घटिया सी होती हैं ------इनका जितना विरोध किया जाये उतना ही कम है। तीसरा कारण है कि मुझे पूरा विश्वास है कि इन तीन-चार गोलियों-कैप्सूलों में से जो सब से छोटी सी गोली होती है वह किसी खतरनाक स्टिरायड की होती है ----steroid ----खतरनाक शब्द केवल इस लिये लिख रहा हूं कि ये लोग इन बहुत ही महत्वपूर्ण दवाईयों का इतना ज़्यादा गलत- उपयोग करते हैं कि बिना वजह भोले-भाले मरीज़ों को भयानक शारीरिक बीमारियों की खाई में धकेल देते हैं, इस लिये मैं इन का घोर विरोधी हूं और हमेशा यह विरोध करता ही रहूंगा।

नकली, घटिया किस्स की दवाईयों से ध्यान आ रहा है ---पंद्रह-बीस साल पहले की बात है कि हमारा एक दोस्त बता रहा था कि रोहतक शहर में उस के पड़ोस में एक नीम-हकीम अपने बेटे के साथ मिल कर रात के समय खाली कैप्सूल में मीठा सोडा और बूरा चीनी भरते रहते थे और सुबह मरीज़ों का इस से कल्याण किया करते थे। लालच की भी हद है !!--- यहां यह बताना ज़रूरी लग रहा है कि यह खाली कैप्सूलों के कवर बाज़ार में पैकेटों में बिकते हैं –और बस केवल चालीस-पचास रूपये में एक हज़ार रंग-बिरंगे कवर उपलब्ध हो जाते हैं। अब आप ही सोचें कि खुली दवाईयों को खाना कितना खतरनाक काम है ------अब कौन इन खाली कवर में क्या डाले, यह तो या तो डालने वाला जाने या ईश्वर ही जाने !!

मुझे अकसर लगता है कि मेरी जो यह खुली दवाईयों के बारे में राय है शायद इस के विरोध में किसी के मन में यह विचार भी आता हो कि यह तो हाई-फाई बातें कर रहा है , अब अगर किसी मरीज़ को बीस रूपये में दो-तीन दिन की दवाई मिल रही है तो इस में बुराई ही क्या है !! देश में निर्धनता इतनी है कि मेरे को भी इस बात का सही समाधान सूझ नहीं रहा ---- अगर जनसंचार के विभिन्न माध्यम इस तरह की बातों के प्रचार के लिये बढ़-चढ़ कर आगे आयें तो शायद कुछ हो सकता है।

ऐसा मैंने सुना है कि कुछ क्वालीफाईड डाक्टर भी कुछ तरह की दवाईयां ज़्यादा मात्रा में खरीद कर मरीज़ों को अपने पास से ही देते हैं, अब ऐसे केसों में यह निर्णय आप लें कि आप क्या उन्हें यह कहने के लिये तत्पर हैं कि डाक्टर साहब, कृपया आप नुस्खा लिख दें, हम लोग बाज़ार से खरीद लेंगे। यह बहुत नाज़ुक मामला है, आप देखिये कि इसे आप कैस हैंडल कर सकते हैं। मेरे विचार में अगर आप किसी क्वालीफाइड डाक्टर से इस तरह की खुली दवाईयां लेते हैं तो भी आप के पास ली जाने वाली दवाईयों का नुस्खा तो होना ही चाहिये।

कईं बार हास्पीटल में दाखिल मरीज़ों को नर्स के द्वारा खुली दवाईयां दी जाती हैं --- वो बात और है, दोस्तो, क्योंकि उस वक्त हम लोगों ने पूरी तरह से अपने आप को उस अस्पताल के हाथों में सौंपा होता है। बहुत बार तो नर्स आप की सुविधा के लिये गोलियों एवं कैप्सूलों का कवर उतार कर ही देती हैं , मेरे विचार में इस के बारे में कोई खास सोचने की ज़रूरत नहीं होती, यह एक अलग परिस्थिति है।

मंगलवार, 3 मार्च 2009

बचपन में एक बार हुआ गला खराब बना सकता है दिल का रोगी ...



ऐंटीबॉयोटिक दवाईयों के इस्तेमाल के बारे में बार बार लोगों को सचेत किया जाता है कि आम छोटी मोटी तकलीफ़ों के लिये इन्हें इस्तेमाल न किया करें लेकिन पांच से पंद्रह साल के बच्चे का अगर गला खराब हो तो तुरंत ऐंटिबॉयोटिक दवाईयों का कोर्स पूरा कर लेने में ही समझदारी है क्योंकि कईं बार एक बार यूं ही खराब हुआ गला सारी उम्र के लिये उस बच्चे को दिल का रोगी बना सकता है।

मैं जिस हास्पीटल में कुछ साल पहले काम किया करता था वहां पर रजिस्ट्रेशन काउंटर के पास ही एक बहुत बड़ा पोस्टर लगा हुआ था कि पांच से पंद्रह साल के बच्चे का अगर गला खराब हो तो उस का ठीक से इलाज करवायें वरना इस से दिल का रोग हो सकता है। दोस्तो, अगर किसी को देर उम्र में किसी अन्य कारण से दिल का रोग हो जाता है तो लोग शायद थोड़ा सब्र कर लेते हैं ---क्योंकि अकसर ऐसे केसों में थोड़ी बहुत जीवन-शैली में किसी चीज़ की कमी रह गई होती है । लेकिन अगर किसी व्यक्ति को बीस-तीस साल की उम्र में ही दिल का कोई गंभीर रोग हो जाये और उस के पीछे कारण केवल इतना सा हो कि बचपन में एक बार गला खराब हुआ था जिस का समुचित इलाज नहीं करवाया गया था ----तो उस मरीज़ को एवं उस के अभिभावकों को कितना बुरा लगता हो , शायद इस की हम लोग ठीक से कल्पना भी नहीं कर सकते।

मुझे याद है कि जिन दिनों मैडीकल कालेज के मैडीसन के प्रोफैसर साहब ने हमें 1982 में इस बीमारी के बारे में पढ़ाया था तो अगले कुछ दिनों के लिये मैंने भी एक चिंता पाले रखी थी ---क्योंकि मुझे याद था कि बचपन में मेरा भी दो-चार बार गला तो बहुत खराब हुआ था , गले में इतना दर्द कि थूक निगलना भी मुश्किल था---जबरदस्त दर्द !! मेरे से ज़्यादा परेशान मेरे स्वर्गीय पिता जी हो जाया करते थे --- थोड़ा थोड़ा डांट भी दिया करते थे कि स्कूल से टाटरी वाला चूर्ण खाना बंद करोगे तो ही ठीक रहोगे । साथ में किसी कैमिस्ट से दो-चार खुराक कैप्सूल –गोली की ले आते थे और उसे खाने पर एक-दो दिन में ठीक सा लगने लगता था- याद नहीं कभी पूरा कोर्स किया हो।

दोस्तो, जब हम लोग बच्चे थे तो कभी किसी तकलीफ़ के लिये किसी विशेष डाक्टर के पास जाने का इतना रिवाज कम ही था --- इस के बहुत से कारण हैं जो कि मेरे लिखे बिना ही समझ लिये जायें। पता ही नहीं तइतना डर क्यों था कि पता नहीं कितना खर्च हो जाये, कितने पैसे मांग ले ----- और दूसरी बात है कि लोगों इतने ज़्यादा सचेत नहीं थे । चलिये जो भी था, ठीक था, कभी कभी अज्ञानता वरदान ही होती है ----- कम से कम अपने आप से यह कह कर मन को समझाया तो जा ही सकता है।

एक बार तो मैं हिम्मत कर के अपने मैडीसन के प्रोफैसर साहब, डा तेजपाल सिहं जी के पास पहुंच ही गया कि सर, मेरे को भी बचपन में गला खराब तो हुआ था, दवा बस एक-दो दिन ही ली थी , अब जब मैं साइकिल को चलाता हुआ पुल पर चढ़ता हूं तो मेरी सांस फूलने लगती है। मुझे याद है उन्होंने मुझे अच्छे से चैक करने के बाद कहा कि सब ठीक है ---इसे सुन कर मुझे बहुत सुकून मिला था।

अच्छा तो अपनी बात हो रही थी कि पांच से पंद्रह साल के बच्चों का जब गला खराब हो उस का तुंरत इलाज किया जाना बहुत ही ज़रूरी है --- इस का कारण यह है कि कईं बार जिस स्ट्रैपटोकोकाई बैक्टीरिया ( streptococci bacteria) की एक किस्म के कारण की वजह से यह गला खराब होता है – हिमोलिटिक स्ट्रैपटोकोकाई ( haemolytic streptococci) --- उस का अगर तुंरत किसी प्रभावी ऐंटिबॉयोटिक से उपचार नहीं किया जाये तो मरीज़ को रयूमैटिक बुखार हो जाता है --- Rheumatic fever – हो जाता है। इस बुखार के दौरान जोड़ों में दर्द भी होता है ----लोग अकसर इस का थोड़ा बहुत इलाज करवा लेते हैं लेकिन शायद इस बात को भूल सा जाते हैं और इस का कभी ज़िक्र ही किसी से नहीं होता। लेकिन जब वही बच्चा बीस-तीस साल की उम्र में पहुंचता है तो जब उस की अचानक सांस फूलने लगती है ---हालत इतनी खराब हो जाती है कि वह थोड़ा भी चल नहीं पाता तो किसी फिजिशियन के द्वारा चैक-अप करने से पता चलता है कि उसे तो रयूमैटिक हार्ट डिसीज़ ( Rheumatic heart disease) हो गई ---- उसे के दिल के वाल्व क्षतिग्रस्त हो चुके हैं --- ( valvular heart disease) --- तो उस की दवाईयां आदि शुरू तो की जाती हैं ---- आप्रेशन भी करवाना होता है -----कहने का भाव उस की ज़िंदगी बहुत अंधकारमय हो जाती है – कहां सब लोग आप्रेशन का खर्चा उठा पाते हैं, इतनी इतनी दवाईयां खरीदने कहां सब के बस की बात है ----- बहुत दिक्कतें हो जाती हैं , आप्रेशन जितने समय तक मरीज को ठीक रख पायेगा उस की भी समय सीमा है। पचास साल की उम्र तक पहुंचते पहुंचते ये इसी दिल की बीमारी की वजह से अकाल मृत्यु का ग्रास बन जाते हैं।

मैं अपने हास्पीटल के फिज़िशियन डा हरदीप भगत से इस तकलीफ़ के बारे में कल ही बात कर रहा था ----वह भी यही कह रहे थे कि बच्चों का हर स्ट्रैपटोकोकल सोर थ्रोट ( streptococcal sore throat) केस ही रयूमैटिक बुखार की तरफ़ रूख कर लेगा ---- यह बात नहीं है ---लगभग दो फीसदी स्ट्रैपटोकोकल सोर थ्रोट के केसों में ही यह रयूमैटिक बुखार वाली जटिलता उत्पन्न होती है लेकिन दोस्तो, सोचने वाली बात तो यही है कि जब मैडीकल फील्ड में इस की पूरी जानकारी है कि बच्चों के गले खराब होने के बाद यह कंपलीकेशन हो सकती है तो कोई भी डाक्टर इस तरह का जोखिम पांच से पंद्रह साल की उम्र के बच्चे के साथ लेता ही नहीं है। इसलिये तुरंत उस के लिये चार-पांच दिन के लिये एक ऐंटीबॉयोटिक कोर्स शुरू कर दिया जाता है ।

वैसे हम लोगों के लिये यह कह देना कितना आसान है कि बच्चों के इस आयुवर्ग में गले खराब के लगभग दो फीसदी केसों में यह समस्या उत्पन्न होती है -----क्या करें , आंकड़े अपनी जगह हैं , यह भी तो ज़रूरी हैं लेकिन बात यह भी तो अपनी जगह कायम है कि जिस किसी के बच्चे को यह रोग हो जाता है उस के लिये तो इस का आंकड़ा दो-प्रतिशत न रह कर पूरा शत-प्रतिशत ही हो जाता है।

अब प्रश्न यह पैदा होता है कि किसी पांच से पंद्रह साल के बच्चे का जब गला खराब हो तो पता कैसे चले कि इस के पीछे उस हिमोलिटिक स्ट्रैपटोकोकाई जीवाणुओं का ही हाथ है --- इस के लिये बच्चे के गले से एक स्वैब ले कर उस का कल्चर- टैस्ट करवाया जाता है। लेकिन अकसर ऐसा प्रैक्टिस में मैं कम ही देखता हूं कि लोगों को बच्चे के खराब गले के लिये इस टैस्ट को करवाने के लिये कहा जाता है -----अकसर डाक्टर लोग किसी बढ़िया से ब्रॉड-स्पैक्ट्रम ऐंटिबॉयोटिक का चार पांच दिन का कोर्स लिखने में ही बेहतरी समझते हैं और मेरे विचार में यह बात है भी बिल्कुल उचित है। फिज़िशियन अथवा शिशुरोग विशेषज्ञ अपने फील्ड में इतने मंजे हुये होते हैं कि उन्हें मरीज़ की हालत देख कर ही यह अनुमान हो जाता है कि इस केस में ऐंटीबॉयोटिक दवाई का पूरा कोर्स देने में ही भलाई है।

मुझे इस तरह के मरीज़ों के इलाज का कोई व्यक्तिगत अनुभव नहीं है लेकिन मैं एक मैडीकल राइटर होने के नाते इतनी सिफारिश ज़रूर करूंगा कि पांच से पंद्रह साल के बच्चे का अगर गला खराब है, गले में दर्द है , और लार निगलने में दिक्तत हो रही है , साथ में बुखार है तो तुरंत अपने फैमिली डाक्टर से अथवा किसी शिशु-रोग से मिल कर खराब गले को ठीक करवाया जाये ----- दोस्तो, यह केवल खराब गले की ही बात नहीं है, यह उस बच्चे की सारी लाइफ की बात है ---- कितनी बार किसी बच्चे का इस तरह का गला खराब होता है -----शायद बहुत कम बार, लेकिन ज़रूरत है तुरंत उस के इलाज की । उस समय अपनी सूझबूझ लगाना कि यह तो जुकाम की वजह है या यह तो इस ने यह खा लिया या वह खा लिया इसलिये किसी डाक्टर के परामर्श करने की कोई ज़रूरत ही नहीं है , यह बात बिल्कुल अनुचित है। क्योंकि वह दो-फीसदी वाली बात कब किसी के लिये शत-प्रतिशत बन जाये , यह कौन कह सकता है !!

यह बात बिलकुल सही है कि इस आयुवर्ग में अधिकतर गले खराब के मामले वायरसों की वजह से ही होते हैं जिन की वजह से रियूमैटिक बुखार का जोखिम भी नहीं होता और इन के इलाज के लिये ऐंटीब़ॉयोटिक दवाईयां कारगर भी नहीं होतीं लेकिन वही बात है कि जैसी स्थिति चिकित्सा क्षेत्र की है – न तो मरीज़ अपने गले से स्वैब का कल्चर करवाने का इच्छुक है, और न ही इस की इतनी ज़्यादा सुविधायें उपलब्ध हैं इसलिये बेहतर यही है कि तुरंत अपने डाक्टर से मिल कर उस की सलाह अनुसार किसी प्रभावी ऐंटिबॉयोटिक कोर्स शुरू कर लिया जाये।

वैसे ग्रुप-ए स्ट्रैप्टोकोकल फरंजाईटिस( pharyngitis--- वही आम भाषा में गला खराब) – के लक्षण इस प्रकार हैं ---- अचानक गले में दर्द शुरू हो जाना, लार निगलते वक्त भी दर्द होना, और 101 डिग्री से ऊपर बुखार। बच्चों में तो सिरदर्द, पेट दर्द, दिल कच्चा होना( मतली लगना) और उल्टी भी हो सकती है। अगर यह इंफैक्शन रयूमैटिक बुखार की तरफ़ बढ़ जाती है तो इस के लक्षण हो सकते हैं --- बुखार, दर्दनाक, सूजे हुये जोड़, जोड़ों में ऐसा दर्द जो एक जोड़ से दूसरे जोड़ की तरफ़ चलता है, दिल की धड़कन का बढ़ जाना( palpitations), छाती में दर्द, सांस फूलने लगती है , चमड़ी पर छपाकी सी निकल आना ।

यह मुझे बैठे बिठाये आज इस विषय का ध्यान कैसे आ गया ---- क्योंकि दो एक दिन पहले मैं एक न्यूज़-रिपोर्ट पढ़ रहा ता कि हमारे जैसे देशों में तो यह रोग है लेकिन अब अमेरिका जैसे अमीर देशों में भी इन ने अपना सिर फिर से उठाना शुरू कर दिया है।

सोमवार, 2 मार्च 2009

मंदी से बेहाल विदेशी महिलायें बेच रही हैं अपने डिम्ब (eggs)…..

मेरा एक मित्र जो विश्वविद्यालय में जर्नलिज़्म का प्रोफैसर है उसे इस बात से बहुत चिढ़ है कि हिंदोस्तान के भिखारियों का चेहरा सारे संसार में जाना जाता है ---उस का कहना है कि भिखारी तो दूसरे देशों में भी हैं, कुछ लोगों का हाल-बेहाल है लेकिन उन का चेहरा दुनिया के सामने नज़र नहीं आता। इसलिये वह हमें बता रहा था कि जब वह पिछली बार विदेश गया --- देश का मेरे को ध्यान नहीं आ रहा ---- वहां पर उस ने जब एक भिखारी को पांच डालर की भीख दी तो उस ने उस भिखारी की तस्वीर भी खींच ली ----कह रहा था कि केवल इस बात के प्रमाण के तौर पर कि भिखमंगे उन देशों में भी हैं।

कल रविवार की अखबार की वह वाली खबर देख कर मन बहुत बेचैन हुआ जिस का शीर्षक था कि ऑस्कर अवार्ड समारोह से लौटने पर स्लम-डॉग मिलिनेयर के एक नन्हे कलाकार की उस के बाप ने की जम कर पिटाई --- कारण यह था कि वह उसे घर से बाहर आकर टीवी पत्रकारों को इंटरव्यू देने के लिये राज़ी कर रहा था। स्लम-डॉग मिलिनेयर में हिंदोस्तानियों की गरीब बस्ती के हालात सारे संसार ने देखे क्योंकि एक विदेशी ने इस कंसैप्ट पर यह हिट फिल्म बना डाली। हिंदोस्तानी फिल्मकारों को विदेशों के कुछ ऐसे ही मुद्दे पकड़ कर फिल्में बनाने से भला कौन रोक रहा है ---- आइडिया तो यह भी बुरा नहीं कि वहां पर कुछ महिलायें अपने निर्वाह के लिये अपने डिम्ब बेचने को इतनी आतुर हैं।

फिल्म से ध्यान आया कि रयूटर्ज़ की साइट पर इस न्यूज़-आइटम ( यह रहा इस का वेबलिंक) से पता चला है कि आर्थिक मंदी से बेहाल होकर ऐसी महिलायों की संख्या बढ़ रही है जो कि अमेरिकी फर्टिलिटि क्लीनिकों पर जा कर अपने अंडे (डिम्ब) बेचने को तैयार हैं जिस के लिये उन्हें दस हज़ार पौंड तक का मुआवजा दिया जा सकता है।

न्यूज़-रिपोर्ट में एक एक्ट्रैस के बारे में लिखा गया है कि नवंबर के महीने से उसके पास कोई काम नहीं है, इसलिये उस ने कुछ पैसे कमाने के लिये अपने एग्ज़ बेचने का निर्णय किया है। इस रकम से वह अपने क्रैडिट कार्ड बिल और अपने फ्लैट का किराया भर पायेगी। औसतन लगभग पांच हज़ार पौंड इस काम के लिये मिल जाते हैं।

लेकिन ध्यान देने योग्य बात यह भी तो है कि केवल किसी महिला की इच्छा ही काफ़ी नहीं है कि वह अपने डिम्ब बेचना चाहती है --- उसे इस काम के लिये योग्य भी होना पड़ता है। जो संस्था इस काम में कार्यरत है उस के अनुसार जितने प्रार्थना-पत्र उसे प्राप्त होते हैं उस में से पांच से सात फीसदी केसों को ही डिम्ब-दान के योग्य पाया जाता है। इस के लिये योग्यता यही है कि डिम्ब-दान करनी वाली महिला बीस से तीस साल की उम्र की हो, सेहतमंद , आकर्षक व्यक्तित्व वाली हो और अच्छी पढ़ी लिखी होनी चाहिये।

जो महिलायें ये डिम्ब-दान करना चाहती हैं उन का मैडीकल, मनोवैज्ञानिक एवं जैनेटिक टैस्ट किया जाता है और साथ ही उन की पृष्ठभूमि की भी जांच की जाती है। अगर किसी महिला का चयन कर लिया जाता है तो उसे तब तक कुछ हारमोन इंजैक्शन लगवाने होते हैं जब तक कि उस के डिम्ब उस के शरीर से निकाले जाने के लिये तैयार नहीं हो जाते।

और ऐसा कहा जा रहा है कि यह काम किसी दूसरी महिला की मदद के लिये किया जा रहा है --- ये किसी दूसरी महिला को एक महान उपहार देने का एक ढंग है जो कि सामान्य तरीके से मां बन पाने में सक्षम नहीं होती। काम बहुत महान है, इस में तो कोई शक नहीं ---- लेकिन यह कहना कि यह उपहार है , किसी ज़रूरतमंद विवाहित जोड़े की मदद करना मात्र है, क्या ये बातें आसानी से आप के गले के नीचे सरक रही हैं ?---- खैर, कोई बात नहीं ---- मैं तो केवल यही सोच रहा हूं कि अगर यह इतना ही नोबल मिशन है, अगर किसी उपहार से इस की तुलना की जा रही है तो यह पांच से दस हज़ार पौंड बीच में पड़े क्या कर रहे हैं। चलिये, हम कुछ नहीं कहेंगे ----- डिम्ब बेचने वाली महिला का भी काम हो गया और उस डिम्ब को कृत्तिम-फर्टिलाईज़ेशन ( इन-विट्रो-फर्टिलाइज़ेशन) के माध्यम से गृहण करने वाली किसी भावी मां का भी काम चल गया ----- बहुत खुशी की बात है।

एक विचार है ----विदेशी फिल्मकार ने आकर हमारी धारावी झोंपड़-पट्टी का चेहरा सारी दुनिया के सामने रखा और कईं ऑस्कर उस की झोली में आ पड़े ----यार, कोई अपने देश का फिल्मकार भी उन अमीर देशों की कोई ऐसी ही बात लेकर सारी दुनिया के सामने रख कर क्यों नहीं ऑस्कर लाता ? ---एक आइडिया तो मैंने दे ही दिया है ----डिम्ब-दान ( दान ??) करने वाली महिलायों के इर्द-गिर्द घूमती और बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर देने वाली ऐसी ही किसी थीम को लेकर भी कभी कोई फिल्म बननी चाहिये।

लेकिन जो पुरूष अपने शुक्राणु दान (??) करना चाहते हैं उन्हें इतना ज़्यादा उत्साहित होने की कोई खास वजह नहीं है ----उन्हें हर बार शुक्राणु दान करने के लिये 60 डालर ही मिलते हैं ----------यहां तो मर्द लोग मात खा गये !! …..क्या पता आने वाले समय में इस देश के बेरोज़गार, लाचार, बेहाल युवकों को भी इसी काम से ही कभी कभी अपना काम चलाना होगा !!

स्लम-डॉग मिलिनेयर देख ली है ---- सब से ज़्यादा उन सब बाल कलाकारों की अदाकारी मुझे पसंद आई ----क्योंकि वे सब नन्हे शैतान तो जन्मजात अभिनेता ही हैं , उन सब नन्हे कलाकारों के उजले भविष्य की कामना के साथ और उन के लिये बहुत बहुत शुभकामनाओं के साथ यही विराम ले रहा हूं।

मरीज़ की प्राईवेसी नाम की चीज़ भी तो होती है ----1.

अकसर मैं अपने कॉलेज के जमाने से देख रहा हूं कि मैडीकल फील्ड में अकसर किसी मरीज़ की प्राइवेसी की तरफ़ इतना ध्यान नहीं दिया जाता। बिल्कुल नये नये तैयार हुये बहुत से डाक्टर तो इस के बारे में रती भर सचेत नहीं हैं ----यह नहीं कि मरीज़ की प्राइवेसी की तहज़ीब आती ही नहीं है ---आती तो शायद कुछ लोगों को ज़रूर है लेकिन साठ-पैंसठ साल की उम्र यूं ही बिताने के बाद ।

यार, मैं अगर अपना ब्लड-प्रैशर भी किसी फ़िजिशियन से चैक करवाने जाऊं तो मुझे महसूस होता है कि उस समय उस के चैंबर में कोई और मरीज़ न ही हो, अगर मैं अपनी श्रीमति जी के चैंबर में भी अपने स्वास्थ्य से संबंधित कोई परामर्श उन से लेने जाता हूं तो मेरी इच्छा होती है कि उस समय कमरे में वार्ड-ब्वॉय भी न हो ---- दोस्तो, यह एक स्वाभाविक चेष्ठा है। इस में कोई बुराई तो नहीं है भई। लेकिन अकसर मैं जगह जगह घूमता रहता हूं और यही देखता हूं कि हमें मरीज़ की प्राइवेसी का आदर करने की तरफ़ भी बहुत ही ज़्यादा ध्यान देने की ज़रूरत है ।

मुझे लगता है कि इस का मुख्य कारण यह है कि कॉलेज स्तर पर चिकित्सकों को कम्यूनिकेशन स्किल्ज़ नाम का कोई विषय नहीं है ---- मैं समझता हूं कि इस की बहुत ज़्यादा ज़रूरत है क्योंकि जब कोई व्यक्ति किसी विषय के बारे में जानता है तो ही वह उसे प्रैक्टिस भी कर सकता है। पता नहीं डाक्टर लोग मेरे इस लेख को किस भाव से लेंगे, लेकिन मेरा तो भई दृढ़ विश्वास है कि मरीज़ों की प्राइवेसी की धज्जियां जगह जगह उड़ रही हैं। यह इतना महत्वपूर्ण एरिया है और किसी भी मरीज़ के इलाज का परिणाम इस से भी बहुत हद तक जुड़ा हुआ है।

मैं भी कभी इस तरफ़ ज़्यादा दिमाग लगाया नहीं करता था ---कभी इस के बारे में सोचा ही नहीं था – 1992 तक ---- उस साल मैंने बंबई के टाटा इंस्टीच्यूट ऑफ सोशल साईंसेज़ से एक वर्ष के डिप्लोमा इन हास्पीटल एडमिनिस्ट्रेशन में एडमिशन लिया था। वहां पर हमारा एक विषय था –कम्यूनिकेशन । उसे पढ़ कर मुझे बहुत अच्छा लगा ----मेरी सोच कर नज़रिया बहुत फैला। और उस कोर्स के बाद मैंने मरीज़ की प्राइवेसी का लगभग पूरा पूरा ध्यान रखा है।

वैसे आप इस प्राइवेसी से क्या समझ रहे हैं ----- इस से मतलब यह है कि जब मरीज़ हमारे सामने अपनी बात रख रहा है तो उस समय किसी तीसरे का उस कक्ष में होने का कोई मतलब है ही नहीं। लेकिन किसी सार्वजनिक क्षेत्र के हास्पीटल में काम करते वक्त इस को पूरा पूरा निभा पाना शायद नामुमकिन सा लगता है--- लेकिन इस में भी मुझे लगता है कि हमारी इच्छा शक्ति की ही कमी होती है कि हम लोग चंद प्रभावशाली लोगों तक अपना यह संदेश पहुंचा ही नहीं सकते कि यार, सारे मरीज़ों की प्राइवेसी एक जैसी ही है। अकसर डाक्टर लोग ऐसी परिस्थितियों में ज़्यादा पंगा मोल लेना के इच्छुक नहीं होते और यूं ही बिना बारी के अंदर घुस चुके ( इन्हे गेट-क्रेशर्ज़ कह दें तो कैसा रहेगा !!) इन चंद so-called “व्ही-आई-पी” (manytimes - "self-styled" as well !!) की वजह से बहुत से आम मरीज़ों के इलाज में व्यवधान ही पैदा होता ही दिखता है।

ज़रा इस तरफ़ ध्यान करें कि ये लोग बिना किसी दूसरे की प्राइवेसी का ध्यान किये हुये अंदर क्यों घुस आते हैं --- सरकारी सैट-अप की बात करें तो शायद इस का कारण यह है कि किसी भी डाक्टर का जो अटैंडैंट हैं वह इतनी कड़ाई से इस नियम का पालन कर ही नहीं पाता क्योंकि शायद वह इस का पालन करना ही नहीं चाहता क्योंकि वह भी सिस्टम से डरता है। उस का डाक्टर उसे चाहे कितनी बार ही क्यों न कह दे कि एक मरीज़ के अंदर होते हुये दूसरा अंदर नहीं आयेगा तो भी इन "व्ही-आई-पी " की बॉडी-लैंगवेज़ ही कुछ इस तरह की होती है कि उस की उस कर्मचारी की कमज़ोर सी इच्छा शक्ति उसी समय उसे बाहर ही रूक कर इंतज़ार करने के लिेये कहने वक्त और भी कमज़ोर पड़ जाती है। यह काम वो करता है लेकिन आम आदमी के साथ ----उस के साथ इतनी कड़की बरती जाती है जितनी कि शायद ज़रूरी भी नहीं होती --- मैंने देखा कि आम आदमी को तो कोई एक बार हल्के से भी कह दे कि आप को अपनी बारी की शांति से प्रतीक्षा करनी होगी और वे दो घंटे टस से मस नहीं होते और न ही किसी तरह का व्यवधान किसी दूसरे के इलाज में डालते हैं ------ मैडीकल फील्ड इन की सहनशीलता को सैल्यूट करती है !!

किसी किसी हास्पीटल में तो डाक्टर के कमरे में घुस कर ऐसा लगता है जैसे कि वह उस का हास्पीटल कक्ष न होकर उस के घर का ड्राईंग-रूम हो ---- वहां पर मरीज़ों का चैक-अप चल रहा होता है ---और साथ ही कुर्सीयों पर वे लोग सजे होते हैं जो लोग मैटर करते हैं ( people who really matter !!) – पास ही कंपनियों के मैडीकल-रैप अपनी नईं दवाईयों की तारीफ़ के पुल बांधने में लगे होते हैं, चाय का दौर चल रहा है ----- और डाक्टर साहब की मल्टी-स्किलिंग देखिये कि वह इस के साथ साथ मरीज़ की छाती को स्टैथोस्कोप से जांच भी रहे हैं और उसे गहरे सांस दूसरी तरफ़ छोड़ने के लिये कह भी रहे हैं।

मैंने तो देखा है कुछ प्राईवेट क्लीनिकों में मरीज़ों की इस प्राइवेसी का सम्मान ज़्यादा होता है --- आप का क्या ख्याल है ?---बहुत से सरकारी हास्पीटलों के डाक्टरों द्वारा भी शायद इस का ध्यान रखा जाता है ----लेकिन जो मेरी आब्जर्वेशन थी वह मैंने आप से साझी की है। जो भी डाक्टर –सरकारी या प्राइवेट प्रैक्टिस में – किसी मरीज़ को यह पर्सनल स्पेस उपलब्ध करवाता है इस से उस का भी काम आसान हो जाता है ---मरीज़ उस में अपने एक सहानुभूति से भरे मित्र की छवि देखने लगता है जो उस की बात सुनने के लिये आतुर है और उस बातचीत के वक्त उस के लिये कोई भी अन्य काम महत्वपूर्ण नहीं है ।
बाकी बातें अगली पोस्ट में करते हैं !!

शनिवार, 28 फ़रवरी 2009

चमड़ी रोग के लिये ली यह दवा मौत के मुंह में भी धकेल सकती है !

वैसे सुनने में बहुत हैरतअंगेज़ ही लगता है और खास कर किसी नॉन-मैडीकल इंसान को कि सोरायसिस नामक चमड़ी रोग के लिये ली गई एक दवा ( जिस में ईफॉलीयूमाब- efalizumab नामक साल्ट था) से तीन लोगों की अमेरिका में मौत हो गई। इसलिये वहां की फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने एक चेतावनी जारी की है कि भविष्य में इस दवाई पर एक ब्लैक-बाक्स चेतावनी लिखी जायेगी। इस की विस्तृत जानकारी आप इस लिंक पर क्लिक कर के प्राप्त कर सकते हैं।

अकसर मैंने देखा है कि लोग चमड़ी रोगों को बहुत ही ज़्यादा हल्के-फुलके अंदाज़ में लेते हैं। चमड़ी की कुछ तकलीफ़ों के बारे में तो अकसर लोग यही सोच लेते हैं कि इन का क्या है, कुछ दिन में अपने आप ही ठीक हो जायेंगी, अब कौन जाये चमड़ी रोग विशेषज्ञ के पास। अपने आप ही कोई भी ट्यूब कैमिस्ट से लेकर लगा कर समझते हैं कि रोग का खात्मा हो गया। लेकिन यह बात बिल्कुल गलत है। विभिन्न कारणों की वजह से लोग अकसर चमड़ी-रोग विशेषज्ञ के पास जाना टालते रहते हैं।

मेरा विचार है जो कि छोटी मोटी चमड़ी की तकलीफ़ें हैं उन का उपचार तो एक सामान्य डाक्टर ( एम.बी.बी.एस) से भी करवाया जा सकता है ---उदाहरण बालों में रूसी, कील-मुहांसे, जांघ के अंदरूनी हिस्सों में दाद-खुजली, स्केबीज़ आदि ---- लेकिन कुछ चमड़ी रोग इस तरह के होते हैं जो बहुत लंबे समय तक परेशान किये रहते हैं, बीच बीच में ठीक हुये से लगते हैं और कभी कभी फिर से उग्र रूप में उभर आते हैं। सोरायसिस भी एक ऐसी ही चमड़ी की तकलीफ़ है , वैसे तो और भी बहुत सी चमड़ी की तकलीफ़ें हैं लेकिन इस की एक मात्र उदाहरण यहां ले रहे हैं।
वैसे तो आम से दिखने वाले चमड़ी रोगों का भी जब कोई जर्नल एमबीबीएस डाक्टर या कोई भी स्पैशलिस्ट ( चमड़ी रोग विशेषज्ञ नहीं ) इलाज कर रहा होता है और कुछ दिनों के बाद भी उपेक्षित परिणाम नहीं मिलते तो समय होता है उसे चमड़ी रोग विशेषज्ञ के पास रैफर करने का। और जहां तक चमड़ी की क्रॉनिक बीमारियां हैं जो लंबे समय तक चलती हैं उन का इलाज तो चमड़ी रोग विशेषज्ञ से ही करवाना चाहिये।

इस में किसी चिकित्सक के डाक्टर को अहम् को ठेस पहुंचने वाली बात तो है ही नहीं ---जो भी जिस रोग का विशेषज्ञ है उसी के पास जाने में समझदारी है। यह सोच कर कि चमड़ी के कुछ रोगों का इलाज तो लंबा चलता है –बार बार कौन स्किन स्पैशलिस्ट के पास जाये, ऐसे ही किसी पड़ोस के फैमिली डाक्टर से कोई दवा लिखवा कर, कोई ट्यूब लिखवा कर लगा कर देख लेते हैं। इस से कोई फायदा होने वाला नहीं विशेषकर उन तकलीफ़ों में जो क्रॉनिक रूप अख्तियार कर लेने के लिये बदनाम हैं। एक तो रोग बिना वजह बढ़ता है और दूसरा यह कि ऐसी दवाईयों के इस्तेमाल की जितनी जानकारी और जितना अनुभव एक चमड़ी-रोग विशेषज्ञ को होता है उतना एक सामान्य डाक्टर को अथवा किसी दूसरे विशेषज्ञ को नहीं होता । और आज आपने अमेरिका में सोरायसिस के लिये दी जाने वाली दवा का किस्सा तो सुन ही लिया जिस की वजह से तीन लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। अब इस बात का ध्यान कीजिये कि वहां पर कानून कायदे इतने तो कड़े हैं कि चमड़ी-रोग विशेषज्ञ ही चमड़ी के मरीज़ों का इलाज करते हैं। लेकिन फिर भी यह दुर्घटना हो गई ---- इस में चमड़ी रोग विशेषज्ञों का भी कोई दोष नहीं है, अब नईं नईं दवाईयां, नये नये इलाज आ रहे हैं जिन के इस्तेमाल को हरी झंडी मिल तो जाती है लेकिन फिर भी लंबे अरसे तक उन का इस्तेमाल करने से चिकित्सकों को बाद में पता चलता है कि उन के क्या क्या दुष्परिणाम हो सकते हैं और जब ये फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन के नोटिस में आते हैं तो फिर वह भी हरकत में आ कर उचित कार्यवाही करती है।

अकसर मैं देखता हूं कि चमड़ी के रोगों के इलाज में खूब गोरख-धंधा चल रहा है ---और इस का मुख्य कारण यह है कि चमड़ी रोग विशेषज्ञ के पास ना जा पाना। मरीज़ जब अपनी मरजी से तरह तरह की ट्यूबें लगा कर थक जाते हैं तो फिर किसी नीम-हकीम देसी दवाई वाले की शरण ले लेते हैं --- वह भी सभी अंग्रेज़ी दवाईयां कूट कूट कर मरीज़ों को महीनों एवं सालों तक छकवाता रहता है और जब या तो रोग बहुत ही ज़्यादा बढ़ जाता है और या तो बिना किसी हिसाब किताब के ली गई इन अंग्रेज़ी दवाईयों ( स्टीरायड्स इस में सब से प्रमुख हैं) .... के कारण जब शरीर में अन्य भयंकर रोग लग जायेंगे तो फिर चमड़ी रोग विशेषज्ञ को ढूंढना शुरू किया जाता है ---- अब इतनी देर से उस के पास जाने से कैसे बात तुरंत ही बन जायेगी। एक बात यहां यह भी रखनी ज़रूरी है कि संभवतः चमड़ी-रोग विशेषज्ञ भी अन्य दवाईयों के साथ साथ मरीज़ को स्टीरायड्स दे सकता है लेकिन उसने इन दवाईयों का सही नुस्खा लिखने की तहज़ीब सीखने के लिये दस साल लगाये हैं -----और वह आप के इलाज के दौरान आप के तरह तरह के टैस्ट करवा कर यह भी सुनिश्चित करता रहता है कि सब कुछ ठीक चल रहा है, शरीर पर किसी तरह का दुष्परिणाम दवाईयों का नहीं पड़ रहा है।


दोस्तो, जिस का काम उसी को साजे ------वाली कहावत इस समय याद आ रही है --- कुछ साल पहले मेरी माता जी को आंख के पास भयानक दर्द थी, एक दो दिन में आंख के ऊपर माथे पर छोटी छोटी फुंसियां सी निकल आईं ---- दर्द बहुत भयानक था ---- याद आ रहा है कि उस दिन मैं, मेरा छोटा बेटा और मां जी भटिंडा स्टेशन पर बैठे थे ---जनवरी की सर्दी के दिन थे ---- वह लगातार दर्द से कराह रही थी ---- उस सारी रात वह एक मिनट भी नहीं सोईं ।

अगले दिन मैंने अपने एक चमड़ी-रोग विशेषज्ञ मित्र को अमृतसर फोन किया ---उस को सारा विवरण बताया , जिसे सुन कर उस ने बताया कि हरपीज़-योस्टर लग रहा है – फिर भी उस ने कहा कि तुरंत किसी चमड़ी-रोग विशेषज्ञ को दिखा कर आओ। हम लोग तुरंत गये शहर के एक चमड़ी-रोग विशेषज्ञ के पास, जिस ने कहा कि यह हरपीज़-योस्टर ही है ( जिसे अकसर लोग जनेऊ निकलने के नाम से भी जानते हैं) ---उस ने कुछ दवाईयां लिखीं और साथ में कहा कि तुरंत किसी नेत्र-रोग विशेषज्ञ को चैक अप करवायो (क्योंकि जब यह हरपीज़-योस्टर आंख को अपना शिकार बनाती है तो फिर कुछ भी हो सकता है) ---- तुरंत हम लोग नेत्र-रोग विशेषज्ञ के पास गये तो उस ने कहा कि आप बिल्कुल सही वक्त पर ही आये हो इस से आंख भी खराब हो सकती है। उन्होंने भी दवाईयां लिखीं ---खाने की और आंख में डालने की ---- और कुछ दिन इलाज करने के बाद सब कुछ ठीक हो गया।
यह उदाहरण इस लिये ही दी है कि किसी भी रोग को छोटा नहीं जानना चाहिये ---हमेशा यह मत सोचें कि सब कुछ अपने आप ठीक हो जायेगा --- हां, अगर कोई विशेषज्ञ यह बात कहता है तो बात भी है !! कईं बार जिस तकलीफ़ को हम बिल्कुल छोटा समझते हैं वह स्पैशिलस्ट के लिये किसी बड़ी तकलीफ़ का संकेत हो सकती है और अकसर जब कभी हम यूं ही किसी बड़ी तकलीफ़ की कल्पना से डर कर किसी विशेषज्ञ से मिलने से कतराते रहते हैं लेकिन विशेषज्ञ से मिल कर भांडा फूट जाता है कि यह तो तकलीफ़ कोई खास थी ही नहीं ----कुछ ही दिनों की दवाई से तकलीफ़ छृ-मंतर हो जाती है।

एक बात और भी है कि आज कल कुछ तरह के चमड़ी रोगों के होम्योपैथी इलाज के विज्ञापन भी समाचार-पत्रों में हमें दिख जाते हैं --- अकसर जब मरीज़ इन के बारे में किसी डाक्टर से अपनी राय पूछता है तो वह चुप सा हो जाता है । ऐसा इसलिये होता है क्योंकि हमारी चिकित्सा शिक्षा में एलोपैथी और अन्य भारतीय चिकित्सा पद्वतियों का समन्वय न के बराबर है ---- ना तो यह चिकित्सकों के स्तर पर है और न ही मरीज़ों के स्तर पर ---- कईं बार बस असमंजस की स्थिति सी बन जाती है --- मेरे विचार में मरीज को यह पूर्ण अधिकार है वह सारी सूचना प्राप्त कर के अपने विवेक एवं सुविधा के अनुसार ही चिकित्सा पद्धति का चयन करे ---बस इतना ध्यान अवश्य कर ले कि जो भी होम्योपैथिक एवं आयुर्वैदिक चिकित्सक उस का इलाज करे वह प्रशिक्षित होना चाहिये और दूसरा यह कि दोनों चिकित्सा पद्वतियों के इलाज की खिचड़ी से दूर रहने में ही समझदारी है ---- वरना दो नावों की एक साथ सवारी करने वाले जैसी हालत हो जाती है। जाते जाते बस एक बात और करूंगा कि यह जो हमें अकसर बैंक, डाकखाने , पड़ोस में सेल्फ-स्टाईल्ड होम्योपैथ अथवा आयुर्वैदिक चिकित्सक मिल जाते हैं ना इन से तो बिल्कुल बच कर ही रहा जाये ---- इन के पास कोई प्रशिक्षण होता नहीं है , बस कहीं से एक किताब मंगवा कर उस के आधार पर देख देख कर ये अपने जौहर दिखाने पर हर समय उतारू रहते हैं--- बस ऊपर वाला हम सब की ऐसी नेक रूहों से रक्षा करें---- जी हां, होते ये बहुत नेक किस्म के इंसान हैं लेकिन बस वही बात बार बार याद आ जाती है ----नीम हकीम खतराये जान !!

शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2009

वाह ! क्या सच में यह मशीन सब कुछ भला चंगा कर देगी !!

कुछ दिन पहले सूचना मिली कि शहर में फलां-फलां जगह पर जर्मनी से एक मशीन ला कर स्थापित की गई है जो कि बहुत से रोगों से निजात दिला देगी। कुछ दिन बाद मुझे पता चला कि जिस के यहां यह जर्मनी वाली मशीन स्थापित की गई है उस ने कुछ दिन के लिये फीस के लिये छूट दे रखी है—लोग रोज़ाना जा कर सिंकवाई करवाये जा रहे हैं।

दो चार दिन पहले रोहतक गया तो वहां पर भी इस जर्मनी वाली मशीन के इश्तिहार जगह जगह लगे हुये थे।
सोच रहा हूं कि क्या इस मशीन से सचमुच ही सब कुछ ठीक हो जायेगा---तो जवाब संतोषजनक मिलता नहीं। लगता है कि पब्लिक को बस उल्लू बनाया जा रहा है –अब रोज़ाना इस इलाज के हर मरीज़ से तीस रूपये लिये जा रहे हैं। इस से कुछ भी तो होने वाला नहीं है। आज मैं अपने एक मरीज़ को कह रहा था कि यार, इस तीस रूपये के तो यार तेरा परिवार फल खा सकता है --- वैसे आम आदमी की क्या कम सिंकाई हो रही है जो मशीन से भी यह काम करवाने की भी ज़रूरत आन पड़ी है, और यह काम तो घर पर भी किया जा सकता है। और जहां तक बड़ी उम्र के साथ और बढ़े हुये वजन की बदौलत घुटने चलते नहीं, जोड़ जाम हो गये हैं, चाल टेढ़ी हो गई है तो उस में यह कमबख्त मशीनें क्या कर लेंगी ----कुछ नहीं कर पायेंगी ---- केवल झूठी आस देती रहेंगी ----कब तक ? ----जब तक जनमानस रोज़ाना तीस रूपये इन जगहों पर जा कर पूजते रहेंगे !

अकसर यह भी सोचता हूं कि हम लोग बहुत ज़्यादा भटक चुके हैं ---इस के बहुत से कारण है। जिस तरह से आज कल टीवी पर हाई-फाई विशेषज्ञों द्वारा राशि फल सुनाया जाता है वह भी अच्छा खासा रोचक प्रोग्राम हो गया है ---- इस काम को भी प्रोड्यूसरों ने अच्छा खासा रोचक बना दिया है। इसे पेश करने वाले लोगों के हाव-भाव, उन के गले में मालाओं की वैरायिटी, डिज़ाइनर कपड़े और बेहद उतावलापन देखते बनता है।

कुछ प्रोग्रामों पर तो तरह तरह के तावीज़, यंत्र-तंत्र धारण करने की गुज़ारिश की जाती है और इन को पेश करने का ढंग भी इतना लुभावना होता है कि आदमी इन को पहनने के लिये मचल ही जाये क्योंकि इस के फायदे बताने वाली बहन जी की बातों में जादू ही कुछ इस किस्म का है कि क्या कहने !!

याद आ रहा है कि अपने पिता जी की अस्थि-विसर्जन के लिये जब हम लोग हरिद्वार गये तो वहां पर हम ने भी 1500 रूपये में एक रूद्राक्ष खरीद कर यही सोचा था कि यार, यह रूद्राक्ष हमें इतनी आसानी से आखिर मिल कैसे गया ---क्योंकि उस बेचने वाले की बातों में बात ही कुछ ऐसी थी कि यह रूद्राक्ष तो बस केवल एक ही बचा है। सरासर हम लोगों को बेवकूफ़ बनाया गया था।

दोस्तो, मैं भी जगह जगह इतनी बार धोखा खा चुका हूं ---- इतनी बार बेवकूफ़ बन चुका हूं कि अपनी सारी फ्रस्ट्रेशन निकालने का केवल एक ही रास्ता ढूंढ निकाला है कि जनमानस को खूब सचेत किया जाये ----सुना है कि हर आदमी के लिये ऊपर वाले ने कोई न कोई काम बनाया हुआ है --- मेरे लिये तो मुझे लगता है कि जनमानस को जागरूक करना ही मेरे हिस्से आया है। और मुझे पूरा विश्वास है कि यह काम मैं आप सब के आशीर्वाद से अच्छे खासे ढंग से कर लेता हूं।

कईं बार रात को डेढ़-दो बजे आप टी वी लगा कर देखिये --- स्थानीय चैनलों पर प्रादेशिक भाषाओं में विदेशी महिलायें जो फर्राटेदार पंजाबी अथवा हिंदी( सब डब किया हुआ ) बोलती दिखती हैं, वह देश कर कोई भी हैरान हुये बिना रह ही नहीं सकता। वह इतनी तेज़ी तेज़ी से बोल रही होती हैं कि सुनने वाले को लगता है कि अगले कुछ ही घंटों में वह उसे उस की फालतू चर्बी से निजात दिलवा कर एकदम छरहरा कर देंगी ----सब अजीबो गरीब विज्ञापन इसी समय भी दिखते हैं ---किसी विज्ञापन में वक्ष सुडौल करने की रणनीति समझाई जाती है , कहीं पर पेट को बिल्कुल अंदर धंसाने के गुर सिखाये जा रहे होते हैं ---- और यह विज्ञापन इतने कामुक अंदाज़ में पेश किये जाते हैं कि लोग बार बार इन्हें देख कर भी थकते नहीं---- और लोहे को गर्म देख कर तुरंत मेम घोषणा करती है कि अगर तू भी इतना ही बलिष्ठ एवं सुडौल बनता चाहता है तो तुरंत फोन उठा के अपना सौदा बुक करवा ले, और दो हज़ार की छूट वाली स्कीम केवल पहले एक सौ फोन करने वाले दर्शकों के लिये ही है।

मन तो मुसद्दी का भी कर रहा है कि एक मशीन मंगवा कर विलायती कसरत कर ही ली जाये, लेकिन पास ही चटाई पर बेपरवाह घोड़े बेच कर सो रहे सारे परिवार जनों की अंदर धंसी हुई आंखें और गाल देख कर वह डर जाता है ---तुरंत बती बुझा कर वह भी सोने की कोशिश तो करने लगता है लेकिन उस विज्ञापन वाली मेम की मीठी-मीठी (लेकिन महंगी बातें) उसे ढंग से सोने ही नहीं देतीं।

सुबह अखबार वाले की साईकिल की घंटी सुन कर जैसे ही वह दरवाजे की तरफ लपकता है तो अखबार से पहले उस के हाथ में एक पैम्फलेट लगता है ---- जिस पर यह लिखा हुआ है ----

खानदानी ज्योतिषी – ज्योतिष रत्न बहुत सारे सम्मान पत्रों से सम्मानित –विश्वविख्यात ज्योतिषी से आप भी नौकरी, विदेश यात्रा, प्रेम विवाह, शिक्षा, शादी, प्रमोशन, निःसंतान, कोर्ट कचहरी, तलाक, मांगलिक, कालसर्प योग, पितृ-दोष, किया-कराया, शारीरिक कष्ट, वास्तु दोष, ग्रह कलेश आदि समस्त समस्याओं के विधि पूर्वक समाधान हेतु मिलें।
(सोचने से नहीं मिलने से कष्ट दूर होता है)
100 प्रतिशत समाधान की गारंटी निश्चित समय में।
इस इश्तिहार के नीचे तीन सूचनायें भी लिखी हुई हैं ---
तांत्रिक, मौलवी और बंगाली बाबाओं से विश्वास खो चुके व्यक्ति एक बार अवश्य मिलें। फीस श्रद्धानुसार।
जब कहीं न हो काम तो हमसे लें तुरंत समाधान।
नोट – किसी माता बहिन के सन्तान न होती हो या होकर खत्म हो जाती हो तो एक बार अवश्य मिलें।
विशेष प्रावधान – हमारी पूजा का असर तुरन्त होता है।

इस विज्ञापन से चकराये हुये सिर को डेढ़ प्याली कड़क चाय से दुरूस्त करने के बाद जैसे ही वह अपने चहेते पेपर का पन्ना पलटता है तो उसे सेहत से संबंधित विज्ञापनों में इतना अपनापन नज़र आता है कि वह राजनीति दंगल की किसी भी खबर को पढ़ने की बजाह वह वाला विज्ञापन बार बार पढ़ता है जिस में उसे यह आस दिखती है कि उस दवाई के इस्तेमाल से उस की ठिगनी ही रह गई प्यारी बिटिया का कद झट से बढ़ जायेगा, उसे वह विज्ञापन भी बहुत लुभाता है जिस में बताया गया है कि फलां फलां दवाई के इस्तेमाल से उस के स्कूल में पढ़ रहे बेटे की यादाश्त बढ़ सकती है, विज्ञापन तो वह वाला भी काट कर रख के छिपा लेता है जिस में पुरानी से पुरानी कमज़ोरी को दूर करने का वायदा दिलाया गया होता है ------------------लेकिन अफसोस ये सब सरासर झूठे, बेबुनियाद , धोखा देने वाले विज्ञापन ------ भला ऐसे कद बढ़ता है, यादाश्त बढ़ती है या यौवन लौट कर आता है क्या !!

वह असमंज की स्थिति में है ---- बस जैसे तैसे अपने पड़ोस के नीम हकीम के पास अपने परिवार को लेकर पहुंच जाता है। वह उन सब की तकलीफ़ों के लिये एक ही समाधान बताता है कि ताकत के टीके पांच पांच लगवा लो --- सब ठीक हो जायोगे। वह भी कर लिया --- लेकिन कुछ हुआ नहीं ---- लेकिन एक बात ज़रूर हो गई ----उस नीम हकीम के यहां टीके लगवाने से उसके लड़के को हैपेटाइटिस बी ( खतरनाक पीलिया ) हो गया ---- बैठे बिठाये आफ़त हो गई।

उसे लेकर जब बड़े शहर गया तो पांच हज़ार तो टैस्ट पर ही लग गये और उन टैस्टों से यह पता चला कि इस तकलीफ़ के लिये कुछ कर ही नहीं सकते। सब कुछ ऊपर वाले पर ही छोड़ना होगा।

यह जो आपने बातें सुनीं ये आज घर घर में हो रही हैं दोस्तो, जनमानस में स्वास्थ्य जागरूकता की इतनी ज़्यादा कमी है (विभिन्न कारणों की वजह से) कि क्या कहें और ऊपर से आम आदमी को अपने जाल में फंसाने वाले व्यवसायी हर समय घात लगाये बैठे हैं कि कब इस की तबीयत ढीली हो और कब हम इस का खून चूस कर इस की हालत और भी पतली करें ----साला जी कर तो दिखाये !!, बहुत जी लिया है बेटा तूने ....................................
मैं अकसर सोचता हूं कि क्या केवल स्वास्थ्य जागरूकता बढ़ाने से ही बस लोगों की सेहत ठीक हो जायेगी ------ मुझे तो नहीं ऐसा लगता ---- क्योंकि हम लोगों की हर तकलीफ़ के कईं कईं पहलू हैं। लेकिन मुझे तो अपना काम करना है ----- जागरूकता की अलख जगानी है।

क्योंकि यह मेरा चिट्ठा है इसलिये मैं इमानदारी से कुछ भी लिख सकता हूं -----यह स्वास्थ्य जागरूकता का प्रचार-प्रसार करना ही मेरा मिशन है --- सर्विस कर रहा हूं लेकिन वह भी सोचता हूं कि एक तरह से भविष्य की सैक्यूरिटि के लिये भी कर रहा हूं वरना विचार तो यही बनता है कि किसी ऐसी संस्था के साथ जुड़ जाऊं जिस के साथ मिल कर इस जागरूकता को आगे बढाऊं -----सुबह से शाम तक गांव गांव जा कर लोगों से मिलूं ---- उन की जीवनशैली के बारे में उन से खूब बातें करूं, तंबाकू-शराब, अन्य नशों का सफाया करने में अपना योगदान दूं , और उन्हें प्राचीन भारतीय चिकित्सा पद्धति अपनाने के लिये प्रेरित करूं----------------लेकिन यह क्या आज की पोस्ट तो एक अच्छा खासा भाषण ही हो गया लगता है। एक बात जो मैं मुझे लगता है कि पत्थरों पर खुदवा देनी चाहिये वह यह है कि ताकत किसी टीके में, कैप्सूल में या टेबलेट में नहीं होती -------------------ताकत है तो सीधे सादे हिंदोस्तानी खाने में, बाकी सब वायदे झूठे हैं, फरेब हैं, झूठी आशा है , सरासर किसी को गुमराह करने के धंधे हैं-----------------जी हां, कुछ लोग इस प्रोफैशन को भी धंधे की तरह ही चला रहे हैं।

बुधवार, 25 फ़रवरी 2009

इस कैंडी को तो आप भी ज़रूर ही खाया करें ...




दो-तीन दिन पहले मैं अपनी माता जी के साथ बाज़ार गया हुआ था ---रास्ते में वे बाबा रामदेव के एक औषधालय के अंदर शहद लेने गईं ---मैं बाहर ही खड़ा हुआ था, जब वह बाहर आईं तो हाथ में दो पैकेट पकड़े हुये थे जिन्हें उन्होंने मेरी तरफ़ सरका कर खाने के लिये कहा।

यह निराली कैंडी मैंने पहली बार देखी थी – आंवला कैंडी – दो तरह के पैकेट में यह दिखीं। इस का स्वाद बहुत बढ़िया था। अब आंवले के गुण तो मैं क्या लिखूं---- बस, केवल इतना ही कहूंगा कि इसे प्राचीन समय से अमृत-फल के नाम से जाना जाता है और यह आंवला तो गुणों की खान है। यह आंवला कैंडी का 55 ग्राम का पैकेट 10 रूपये में मिलता है। यह बाबा रामदेव की दिव्या फार्मेसी द्वारा ही बनाया जाता है , इसलिये हम लोग इस की गुणवत्ता के बारे में आश्वस्त हो सकते हैं।

मैं जब भी अपने मरीज़ों को आंवला खाने की सलाह देता रहा हूं तो अकसर तरह तरह की प्रतिक्रियायें देखने-सुनने को मिलती रही हैं। कुछ तो झट से कह उठते हैं कि उस का तो स्वाद बहुत ही अजीब सा होता है, वह हम से तो नहीं खाया जाता।

अब मरीज़ों को जो भी बात कहनी होती है तो बड़ी सोच समझ कर कहनी होती है क्योंकि अधिकतर मरीज़ डाक्टर के मुंह से निकली बात को ब्रह्म-वाक्य समझ कर उस पर अमल करना शुरू कर देते हैं। यह मैं इसलिये कह रहा हूं क्योंकि बाज़ार से लेकर आंवले का मुरब्बा खाना आम आदमी के लिये थोड़ा बहुत महंगा ही है ---अगर तो इसे केवल किसी बीमार द्वारा ही लिया जाना हो तो शायद चल सकता है लेकिन अगर हम चाहते हैं कि एक औसत परिवार का हर सदस्य इस का नित्य-प्रतिदिन सेवन करे तो इस के इस्तेमाल का कोई सस्ता और टिकाऊ तरीका ढूंढना होगा।

यह आंवले का मुरब्बा तो मैं भी कभी कभी लेता रहा हूं ---- लेकिन बाज़ार में बिकने वाले मुरब्बा से मैं कोई ज़्यादा संतुष्ट नहीं हूं ---- बहुत अच्छी अच्छी दुकानों पर जिस तरह से बड़े बड़े टिन के डिब्बों में जिस तरह से इन की हैंडलिंग की जाती है , वह देख कर अजीब सा लगता है । व्यक्तिगत तौर पर मैं कम से कम अपने सेवन के लिये तो इस आंवले के मुरब्बे को बाज़ार से खरीद कर खाने के पक्ष में नहीं हूं---- और इस के कईं कारण हैं, दुकानों पर इस की इतनी बढ़िया हैंडलिंग न होना इस का एक मुख्य कारण है।

मैं अकसर जब मरीज़ों को आंवले के सेवन की बात कहता हूं तो वे समझते हैं कि मैं केवल इस के मुरब्बे की ही बात कर रहा हूं। कईं लोग मुरब्बे वाले आंवले को पानी से धो कर इस्तेमाल करने की बात भी करते हैं ---- क्योंकि उन्हें यह बहुत मीठा रास नहीं आता।

कईं बार मुझे अपने प्रयोग भी किसी किसी मरीज़ के साथ बांटने ज़रूरी हो जाते हैं --- क्योंकि हम सब लोग एक दूसरे से अनुभवों से ही सीखते हैं। कुछ साल पहले मुझे फिश्चूला की तकलीफ़ हो गई थी ---मैं लगभग चार पांच साल तक बहुत परेशान रहा --- अब क्या बताऊं कि चिकित्सा के क्षेत्र से जुड़ा होने के बावजूद भी मैं आप्रेशन करवाने के नाम से ही कांप उठता था --- मैं सोचा करता था कि अगर मैं आंवले का नियमित प्रयोग करता रहूंगा तो शायद धीरे धीरे सब कुछ अपने आप ही ठीक हो जायेगा लेकिन ऐसा कभी होता है क्या !--- जयपुर के सर्जन डा. गोगना जी से आप्रेशन करवाना ही पड़ा और पूरे छ- महीने ड्रेसिंग चलती रही थी।

इस बात लिख कर मैं तो बस यह बात रेखांकित करना चाहता था कि मेरी उन चार-पांच साल तक चलने वाली तकलीफ़ के दिनों में इस आंवले में एक सच्चे मित्र की तरह मेरा पूरा साथ दिया। सर्दी के मौसम में तो जब आंवला बाज़ार में बिकता है उन दिनों तो मैं इसे उसी रूप में ही लेना पसंद करता हूं। इस का एक बहुत ही आसान हिंदोस्तानी तरीका है ----आंवले का आचार --- पंजाब में सर्दी के दिनों में यह बहुत चलता है।

अच्छा जब कभी आचार नहीं होता था तो मैं एक आंवले के छोटे छोटे टुकड़े कर लिया करता था और आचार की जगह इन टुकड़ों को खा लिया करता था ---इस तरह से भी ताज़े आंवले का सेवन कर लेना बहुत आसान है, इसे आप भी कभी आजमाईयेगा।
अच्छा तो जब ताज़े आंवले बाज़ार में नहीं मिलते तो तब क्या करें ---- सूखे आंवले का पावडर बना कर एक-आधा चम्मच लिया जा सकता है और यह भी मैं लगभग दो साल तक लेता रहा हूं। वो बात अलग है जिस शारीरिक तकलीफ़ का उपाय ही सर्जरी है , वह तो आप्रेशन से ही ठीक होगी लेकिन इस तरह से आंवले के इस्तेमाल से मेरा पेट बहुत बढ़िया साफ़ हो जाया करता था और मैं सौभाग्यवश उस फिश्चूला की जटिलताओं से बचा रहा।

आंवले की यह कैंडी भी बहुत बढ़िया आइडिया है --- आज कल जब बच्चे सब्जियां तक तो खाते नहीं है, ऐसे में उन से यह अपेक्षा करना कि वे आंवला खायेंगे, क्या यह ठीक है ? लेकिन मेरे विचार में उन्हें आंवले का सेवने करने के लिये प्रेरित करने के लिये इस आंवला कैंडी से बढ़िया कोई चीज़ है ही नहीं ---- इस का सेवन करने के बहाने वे आंवले के लिये अपना मुंह का स्वाद भी डिवैल्प कर पायेंगे जो कि इन की सारी उम्र मदद करेगा।

क्या है ना इस तरह की दिव्य वस्तुओं के लिये स्वाद डिवैल्प होना भी बहुत ज़रूरी है --- अब हम लोगों को बचपन से ही आदत रही है कि गला खराब होने पर मुलैठी चूसनी है और हम दो एक दिन में बिल्कुल ठीक भी हो जाया करते थे ....लेकिन अब हम लोग अपने बच्चों को इस का इस्तेमाल करने को कहते हैं तो वह नाक-मुंह सिकोड़ते हैं, और इस तरह से दिव्य देसी नुस्खों से दूर रह कर बिना वजह कईं कईं दिन तक दुःख सहते रहते हैं।

एक बार और भी है ना कि इस तरह की कैंडी खाते वक्त इसे ज़्यादा खा लेने से डरने वाली भी कोई बात नहीं --- जैसा कि मैंने उस पैकेट को दो-एक घंटे में ही खत्म कर दिया क्योंकि मुझे इस का स्वाद बहुत बढ़िया लगा। हां, अगर ज़्यादा मीठा सा लगे तो खाने से पहले धो लेंगे तो भी चलेगा।

आंवले इतने सारे दिव्य-गुणों की खान है कि इसे खाने का जहां भी मौका मिले उस से कभी भी न चूकें। और खास कर जब आंवला-कैंडी ऐसी कि बच्चे भी इसे बार बार चखने के लिये मचल जायें। तो, मेरा आपसे अनुरोध है कि आप इस आंवला कैंडी का खूब सेवन किया करें----- आज बाबा रामदेव की संस्था दिव्य फार्मेसी द्वारा तैयार इस आंवला कैंडी के लिये इस पोस्ट के माध्यम से विज्ञापन लिख कर बहुत अच्छा लग रहा है----शायद यह पहली बार है कि जब मैं किसी वस्तु का अपनी इच्छा से विज्ञापन कर रहा हूं ----- आप जिस भी शहर में हैं वहां पर बाबा रामदेव की फार्मेसी से ये सब प्राडक्ट्स आसानी से उपलब्ध होते हैं।

पांच-छः साल पहले मैं आसाम में जोरहाट में एक लेखक शिविर में गया हुआ था ---वह मुझे यह देख कर बहुत अच्छा लगा कि कुछ दुकानों पर पान-मसालों एवं गुटखों के पैकेटों के साथ साथ सूखे आंवले के छोटे छोटे पाउच एक-एक रूपये में भी बिक रहे थे ---वहां मुझे यही विचार आ रहा था कि आदमी की ज़िंदगी भी क्या है ----दिन में बार बार उसे किन्हीं दो चीज़ों में से एक को चुनना होता है और इस च्वाईस पर ही उस का भविष्य निर्भर करता है ---अब जोरहाट वाली बात ही लीजिये कि बंदा चाहे तो एक रूपये में आंवले जैसे अमृत-फल का सेवन कर ले और चाहे तो एक रूपये का पान-मसाला एवं गुटखा रूपी ज़हर खरीद कर आफ़त मोल ले ।।

रविवार, 22 फ़रवरी 2009

जब भिखारी भीख में तंबाकू मांगने लगें..... तो समझो मामला गड़बड़ है!!

क्या आप को किसी भिखारी ने तंबाकू दिलाने को कभी कहा है ? मेरे साथ ऐसा ही हुआ कुछ दिन पहले जब मैं पिछले सप्ताह चार-पांच दिन के लिये एक राष्ट्रीय कांफ्रैंस के सिलसिले में नागपुर गया हुआ था। मैं एक दिन सुबह ऐसे ही टहलने निकल गया। रास्ते में एक मंदिर के बाहर बहुत से मांगने वाले बैठे किसी धन्ना सेठ की बाट जोह रहे थे। वहां से कुछ ही दूर एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति जो बीमार लग रहा था –उस की टांग में कोई तकलीफ़ लग रही थी- उस ने मुझे आवाज़ दी ---बाबू, तंबाकू दिला दो। मैं एकदम हैरान था।

यह पहला मौका था जब किसी मांगने वाले ने मेरे से तंबाकू की फरमाईश की थी। मुझे उस की यह फरमाईश सुन कर न तो उस पर गुस्सा आया, ना ही तरस आया ---- वैसे तो मैं उस समय भावशून्य ही हो गया। लेकिन पता नहीं क्या सोच कर मैंने उसे कहा कि बिस्कुट खायोगे (पास में एक किरयाना की दुकान खुली हुई थी ) --- तो उस ने अपना तर्क रखा कि इस समय कहां मिलेंगे बिस्कुट। मैं तुरंत उस दुकान पर गया और वहां से बिस्कुट खरीद कर उसे दिये।

साथ में उस के एक कुत्ता बैठा हुआ था --- मैं समझ गया कि यह इस के दुःख सुख का साथी है, एक पैकेट उस के लिये भी दिया। एक बात का ध्यान आ रहा है कि जितनी शेयरिंग ये मांगने वाले आपस में या अपने पालतु जानवरों के साथ करते हैं, यह काबिले-रश्क होती है। मैं बहुत बार देखा है कि अगर इन के पास ब्रैड के दो पीस हैं तो एक-एक खा लेते हैं। मैं इस बात से बहुत ही ज़्यादा प्रभावित होता हूं ।

खैर, उस मांगने वाले के बारे में सोच कर मैं मिष्रित सी भावनाओं से भरा रहा --- खाने के लाले पड़े हैं, ऊपर से बीमारी, रहने का कोई ठिकाना नहीं लेकिन तंबाकू का ठरक एकदम कायम !! लेकिन यह हल्के-फुल्के अंदाज़ में टालने वाली बात नहीं है। उसी दिन बाद दोपहर तंबाकू के ऊपर एक सैमीनार ने भी यही कहा कि हमें तंबाकू के आदि हो चुके लोगों का कभी भी मज़ाक नहीं उड़ाना चाहिये --- ये बीमार लोग हैं, ये लोग तंबाकू के आदि हो चुके हैं, इन से प्यार और सहानुभूति से ही पेश आने की ज़रूरत है, तभी ये हमारी बात मानेंगे।

उस दिन तंबाकू एवं पान-मसाला, गुटखे के इस्तेमाल से होने वाले विनाश की दो गाथायें सुन कर मन बहुत ही बेचैन हुआ। वर्धा के सुप्रसिद्ध ओरल-सर्जन ने एक 21 साल के युवक के बारे में बताया जो कि गुटखा इस्तेमाल किया करता था --- उन्होंने बताया कि उसे मुंह का कैंसर हो गया --- पूरे दस घंटे लगा कर उन्होंने उस का आप्रेशन किया ---सारी तस्वीरें उन्होंने दिखाईं---आप्रेशन की और जब हास्पीटल से छुट्टी लेने के बाद वह अपने मां-बाप के साथ खुशी खुशी घर लौट रहा था। लेकिन उन्होंने बताया कि इतना लंबा आप्रेशन करने के बावजूद छःमहीनों के बाद ही उसे दोबारा से मुंह के कैंसर ने धर दबोचा और वह देखते ही देखते मौत के मुंह में चला गया। मुंह के कैंसर के रोगियों के साथ अकसर यही होता है। इस 21 साल के नवयुवक के केस के बारे में सुन कर हम सब लोग आश्चर्य-चकित थे --- ऐसे केस अब इतनी कम उम्र में भी बिल्कुल होने लगे हैं क्योंकि यह गुटखा, पानमसाला, तंबाकू हमारे जीवन में ज़हर घोले जा रहा है।

दूसरा केस यह था कि चार साल का बच्चा जो गुटखे और पानमसाले का आदि हो चुका था उस का मुंह ही खुलना बंद हो चुका था ---- वह ओरल-सबम्यूकसफाईब्रोसिस की तकलीफ़ का शिकार हो चुका था और उस की तस्वीर के नीचे लिखा हुआ था ----मेरा क्या कसूर है ? बात सोचने की भी है कि उस का निःसंदेह कोई कसूर भी तो नहीं है, कसूर सामूहिक तौर पर हम सब का ही है, सारे समाज का ही दोष है कि हम सब मिल कर भी इन विनाशकारी पदार्थों को उस के मुंह तक पहुंचने से रोक न सके !

कुछ दिन पहले मेरे पास एक साठ साल के लगभग उम्र वाला एक मरीज़ आया --- उस से मैंने यह सीखा कि बार बार तंबाकू छोड़ने वाली बात के पीछे पड़े रहना कितना ज़रूरी है। यह मरीज़ पिछले कईं सालों से तंबाकू-चूने का मिश्रण बना कर गाल के अंदर रखा करता था --- इस से उस की गाल का क्या हाल हुआ, यह आप इस तस्वीर में देख सकते हैं। इस अवस्था को ओरल-ल्यूकोप्लेकिया (oral leukoplakia) कहा जाता है और यह कैंसर की पूर्व-अवस्था है।

मैंने पंद्रह-बीस मिनट उस मरीज़ के साथ बिताये ---उसे खूब समझाया बुझाया। नतीज़ा यह निकला कि मरीज़ कह उठा कि डाक्टर साहब, ये सब बातें आपने एक साल पहले भी मेरे से की थीं, लेकिन मैं ही इस आदत को छोड़ नहीं पाया, लेकिन आज से प्रण करता हूं कि इस शैतान को कभी छूऊंगा भी नहीं। और इस के साथ ही उस ने यह तंबाकू का पैकेट मेरी टेबल पर रख दिया जिस की तस्वीर आप यहां देख रहे हैं--- मैंने पूछा कि चूने वाले डिबिया भी यहीं छोड़ जाओ। उस ने बताया कि सब कुछ इस पैकेट में ही है। उस समय मुझे यह पैकेट देख कर इतनी खुशी हो रही थी जितनी इंटरपोल के अधिकारियों को किसी अंतर्राष्ट्रीय गैंग के खूंखार आतंकवादी को पकड़ते वक्त होती होगी------ वैसे देखा जाये तो यह तंबाकू भी किसी खतरनाक आतंकवादी से कम थोड़े ही है --- इस का काम भी हर तरफ़ विनाश की आग जलाना ही तो है !!

आज वह पांच दिन बाद मेरे पास वापिस लौटा था --- बता रहा था कि यह देखो कि हाथ कितने साफ़ कर लिये हैं ---कुछ दिन पहले उस के हाथों पर तंबाकू की रगड़ के निशान गायब थे , ( काश, शरीर के अंदरूनी हिस्सों में तंबाकू के द्रारा की गई विनाश-लीला भी यूं ही धो दी जा सकती !!) …. वह बता रहा था कि पांच दिन हो गये हैं तंबाकू की तरफ़ देखे हुये भी। मैंने सलाह दी कि अपने कामकाज के वक्त भी ध्यान रखो कि किसी साथी से भी भूल कर तंबाकू की चुटकी मत लेना ---- बता रहा था कि आज सुबह ही उसे एक साथी दे तो रहा था लेकिन उस ने मना कर दिया। मुझे बहुत खुशी हुई उस की ये बातें सुन कर। और मैंने उसे कहा कि थोड़े थोड़े दिनों के बाद मुझे आकर मिल ज़रूर जाया करे और अपने दूसरे साथियों की भी इस शैतान से पीछे छु़ड़वाने में मदद करे।

और मैंने उस की इच्छा शक्ति की बहुत बहुत तारीफ़ की --- यही सोच रहा हूं कि तंबाकू छुड़वाने के लिये पहले तो डाक्टर को थोड़ा टाइम निकालना होता है और दूसरा मरीज़ की इच्छा-शक्ति, आत्मबल होना बहुत ज़रूरी है --- वैसे अगर डाक्टर उस समय यही सोचे कि उस के सामने बैठा हुआ वयोवृद्ध शख्स उस के अपने बच्चे जैसा ही है तो काम आसान इसलिये हो जाता है कि अगर हमारा अपना बच्चा कुछ इस तरह का खाना-चबाना शुरू कर दे तो क्या हम जी-जां लगा कर उस की यह आदत नहीं छुड़वायें---- बेशक छुड़वायेंगे, तो फिर इस बच्चे के साथ इतनी नरमी क्यों----यह भी जब तंबाकू रूपी शैतान को लात मार देगा तो इस का और इस के पूरे परिवार का संसार भी तो हरा-भरा एवं सुनहरा हो जायेगा-------और यकीन मानिये कि डाक्टर के लिये इस से ज़्यादा आत्म-संतुष्टि किसी और काम में है ही नहीं, दोस्तो।

शनिवार, 21 फ़रवरी 2009

विज़िटिंग कार्डों का बोझ ---1.

कल ऐसे ही मेरे हाथ विज़िटिंग कार्डों वाला फोल्डर लग गया ---वैसे तो आज के ई-युग में इस की तरफ़ लपकने की ज़रूरत ही कहां महसूस होती है ! एक कार्ड पर नज़र गई --- केशव गोपीनाथ भंडारी – यह शख्स मेरे साथ हास्पीटल अटैंडेंट के तौर पर बंबई में काम किया करता था और यह कार्ड उस ने मुझे लगभग पंद्रह साल पहले अपनी सेवा-निवृत्ति के समय दिया था।

मैंने झट से बंबई का नंबर लगाया ---बस आगे 2 लगा लिया --- घंटी बजी ---उधर से पूछने पर मैंने बताया की भंडारी से बात करनी है। तो, फोन उठाने वाले ने आवाज़ लगाई कि पापा, आप का फोन है। भंडारी के फोन पर आने के बाद मैंने कहा, भंडारी बाबू, राम-राम -----उस ने पूछा कौन। मैंने कहा --- भंडारी, काम पुड़ता मामा। वह यह बात बहुत बार बताया करता था ---- यह मराठी भाषा का एक जुमला है जिस का अर्थ है ---- काम पड़ने पर लोग किसी को भी मामा बना लेते हैं !! 10-15 मिनट उस से बातें होती रहीं --- मुझे और उसे बहुत ही अच्छा लगा। लेकिन, एक छोटे से विज़िटिंग कार्ड का कमाल देखिये कि उस ने हमारी पुरानी यादें हरी कर डालीं।

वैसे यह विज़िटिंग कार्ड वाला फोल्डर मैंने उठाया इसलिये था कि मैंने इस की सफ़ाई करनी थी – यह बंबई लोकल की तरह खचाखच भरा हुआ था। मेरे पास कुछ और कार्ड थे जिन्हें इस फोल्डर में जगह देनी ज़रूरी थी ---वही डार्विन वाली बात हो गई --- survival of the fittest ! अर्थात् जो लोग काम के लगेंगे वही इस फोल्डर में टिक पायेंगे और बाकी कार्ड रद्दी की टोकरी के सुपुर्द हो जायेंगे।

आज सुबह मैंने डेढ़-दो सौ के करीब कार्ड रद्दी की टोकरी में फैंक दिये --- और यह काम मेरे को बहुत आसान लगा। यह काम करते हुये सोच रहा था कि अकसर बहुत से लोगों के साथ हमारे संबंध कितने ऊपरी सतह पर ही होते हैं --- और ऐसे कार्डों को फोल्डर से निकाल कर बाहर फैंकते वक्त एक क्षण के लिये भी सोचना ही नहीं पड़ता। ये कार्ड विभिन्न कंपनियों आदि के साथ, उन के डीलर्ज़ के थे --- जब ये कार्ड किसी से लिये होंगे या जब किसी ने इन्हें दिया होगा तो शायद इंटरएक्शन ही कुछ इस तरह का हल्का-फुल्का रहा होगा कि कभी खास संपर्क बाद में रखा ही नहीं गया।

कुछ कार्ड इस लिये भी सुपुर्दे ख़ाक हो गये क्योंकि उन की जगह पर उन्हीं लोगों के नये अपडेटेड कार्ड मुझे मिल चुके थे --- और कुछ कार्ड ऐसे थे जो ट्रेन में सफ़र करते वक्त विज़िटिंग-कार्ड एक्सचेंज प्रोग्राम के तहत प्राप्त हुये थे, इसलिये सालों तक इन को रखे रखने की भी कोई तुक नहीं थी।

जब मैं उस फोल्डर को उलटा-पुलटा कर रहा था तो रह रह कर यही विचार मन में आता जा रहा था कि जो कार्ड डस्ट-बिन में फैंक दिये वे तो सही जगह पर पहुंच गये हैं लेकिन जो बचे हुये कार्ड हैं इन में से हरेक कार्ड के पीछे एक अच्छी खासी स्टोरी है। और यही स्टोरियां ही मैं लिख कर साझी करना चाह रहा हूं।

जब मैं ये विज़िटिंग कार्ड फैंक रहा था तो कुछ कार्ड फैंकते हुये मुझे दुविधा सी हो रही थी कि फैंकूं या पड़ा रहने दूं ---- बस, फिर उस समय जो ठीक समझा कर दिया ---लगता है कि जब ऐसे मौके पर दुविधा हो तो उस कार्ड को रखे रखना ही मुनासिब है ।

यह साफ़-सफाई करते वक्त मैं यही सोच रहा था कि अगर मेरे इस फोल्डर में अपने किसी बचपन के दोस्त का कार्ड मिल जाता तो मैं देखता कि उसे मैं कैसे फैंक पाता – पता नहीं जैसे जैसे हमारी उम्र बढ़ती है तो हमारे संबंधों में इतना फीकापन क्यों आ जाता है --- कालेज से ज़्यादा अपने स्कूल के संगी-साथी अज़ीज लगते हैं, प्रोफैशन से जुड़े लोगों से कहीं ज़्यादा अपने कालेज के दिनों के हमसफर क्यों इतना भाते हैं , .........बस, इस तरह अगर हम यूं ही आगे चलते जायेंगे तो पायेंगे कि हम लोगों की कितनी जान-पहचान तो बस ऐसे ही कहने के लिये ही होती हैं ---- जैसे जैसे उम्र बढ़ती है इस में फीकापन इसलिये आता है क्योंकि हम मुनाफ़े और नुकसान का टोटल मारना शुरू कर देते हैं --- इस से मेरे को यह फायदा होगा और इस से कुछ नहीं होगा -----बस, यही हमारी समस्याओं की जड़ है। हम क्यों नहीं बच्चों की तरह हो जाते ---- जब मैंने डेढ़-दो सौ कार्ड अपने छठी में पढ़ रहे बेटे को कूड़ेदान में फैंकने के लिये दिये तो उस ने मुझे यह कह कर चौंका दिया ----पापा, ये सब मैंने अभी अपने पास रखूंगा, ये मेरे काम के हैं, बाद में बताऊंगा----ये कह कर उसने वे सभी मेरे डिस्कार्ड किये हुये कार्ड अपनी स्टडी-टेबल की दराज में रखे और अपना स्कूल का बैग उठा कर बाहर भाग गया । मैं हमेशा की तरह यही सोचने लगा कि यार, हम लोग कब बच्चों की तरह सोचना बंद कर देते हैं, पता नहीं हम लोग बड़े होकर, बड़ों की तरह सोच कर , बड़ों की तरह कैलकुलेटिंग होने से आखिर क्या हासिल कर लेते हैं !!

मंगलवार, 3 फ़रवरी 2009

क्या च्यूईंग चबाना ठीक है ?

जब कभी फिल्म समारोहों में बहुत नामी गिरामी सितारों ( आप के और मेरे ही बनाये हुये) को या फिर क्रिकेट आदि के मैचों के बाद जब खिलाड़ियों को तरह तरह के सम्मान से नवाज़ा जा रहा होता है तो इन सितारों, खिलाड़ियों को कईं बार च्यूईंग-गम चबाते हुये देख कर आप के मन में क्या ख्याल पैदा होते हैं ? --मुझे तो यह बहुत भद्दा लगता है, मुझे लगता है कि बंदा कह रहा है कि मुझे किसी की भी कोई परवाह नहीं है , मैं हरेक को अपने जूते की नोक पर रखता हूं । कईं बार तो जो इस तरह के प्रोग्राम कंपीयर कर रहा होता है वह भी यह सब चबा कर अपने माडर्न होने का ढोंग करता दिखता है। जब कोई मुंह में पान चबाते हुये या पान मसाला खाते हुये हम से मुखातिब होता है तो हम आग बबूला हो जाते हैं लेकिन हमारे ही ये चहेते कलाकार अथवा खिलाड़ी जब सैटेलाइट टीवी के ज़रिये करोड़ों लोगों से मुखातिब हो रहे होते हैं तो हम क्यों नहीं इन्हें कहते कि जाओ, पहले इस च्यूईंग-गम को थूक के आओ, फिर हम तुम्हें सुनेंगे -----चलो, जल्दी से पहले कुल्ला कर के आओ, शाबाश, अच्छे बच्चे की तरह ---और आगे से भी इस का ध्यान रखना ------वरना ...............इस गाने की तरफ़ ध्यान कर लेना !!

मुझे तो इन समारोहों में इन चांद-सितारों को देख कर अपने स्कूल के दिनों के दो सहपाठियों का ध्यान आ जाता है ---गुलशन और राकेश ----ये कमबख्त हमारी क्लास में टैरर थे ---च्यूईंग को चबाते तो रहते ही थे और बाद में दूसरों की बैंच पर चिपका देते थे जिस से वहां पर बैठने वाले की पैंट खराब हो जाया करती थी, कईं बार तो किसी सहपाठी के बालों पर ही चिपका दिया करते थे ---कईं बार तो इस की वजह से थोड़े बाल ही काटने पड़ जाया करते थे !

चलिये , अब ज़रा यह देख लेते हैं कि च्यूईंग-गम का हमारी सेहत पर क्या प्रभाव होता है !!