शुक्रवार, 13 जून 2008

हरिद्वार में ककड़ी खाने से दो भाई मरे, अमेरिका ने लगाई टमाटर पर रोक..


कुछ दिन पहले हरिद्वार में दो भाईयों ने खेत से तोड़ कर ककड़ी क्या खाई, अपनी मौत को बुलावा दे दिया। उस के कुछ ही समय बाद उन की हालत इतनी बिगड़ गई कि एक भाई ने तो हस्पताल जाते जाते ही दम तोड़ दिया और कुछ समय बाद दूसरे की भी मृत्यु हो गई। कारण यह बताया जा रहा है कि जिन ककड़ीयों को इन भाईयों ने खेत से तोड़ कर खाया था उन पर कुछ समय पहले ही ज़हरीले कीटनाशक का स्प्रे किया गया था।

इस से एक बात फिर से उजागर हो गई है कि हम लोग खा क्या रहे हैं। यह तो अब हम सब लोग जान ही गये हैं कि हमारे यहां इन खतरनाक एवं प्रतिबंधित कीटनाशकों का भी जबरदस्त इस्तेमाल हो रहा है। रिपोर्टज़ यह भी हैं कि ये जो हमें सब्जियां-फल बड़े ताज़े ताज़े से रेहड़ीयों इत्यादि पर करीने से सजे हुये दिखते हैं इन पर भी कईं तरह के रासायनों का स्प्रे कर के इन्हें इतना फ्रेश दिखाया जाता है और ये रासायन बहुत हानिकारक होते हैं।

मैं जब भी खेतों में फसलों पर मजदूरों के द्वारा स्प्रे किया जाता देखता हूं तो अकसर उन के स्वास्थ्य के बारे में सोचता हूं कि वे किस तरह बिना किसी तरह की जानकारी के , बिना किसी तरह के सेफ्टी-गियर के...यहां तक कि बिना अपना मुंह एवं नाक ढके हुये.....इस तरह का काम करते रहते हैं। लेकिन कल ही मेरी नज़र एक रिपोर्ट पर पढ़ी है जिस में बताया गया है कि अमेरिका की शीर्ष हैल्थ एजेंसी ने यह बात कही है कि ऐसी लाईसैंसधारी पैस्टीसाइड स्प्रे करने वालों में जिन्होंने अपने जीवनकाल में एक-सौ दिन से ज़्यादा इन पैस्टीसाइडों को स्प्रे करना का काम किया है, उन में डायबिटीज़ रोग होने का खतरा 20 से 200 प्रतिशत तक बढ़ जाता है।

Licensed pesticide applicators who used chlorinated pesticides on more than 100 days in their lifetime were at greater risk of diabetes, according to researchers from the National Institutes of Health (NIH). The associations between specific pesticides and incident diabetes ranged from a 20 percent to a 200 percent increase in risk, said the scientists with the NIH's National Institute of Environmental Health Sciences (NIEHS) and the National Cancer Institute (NCI).

दो-चार दिन पहले पता चला कि अमेरिका के हैल्थ-विभाग की ओर से वहां के नागरिकों को कुछ तरह के टमाटरों का इस्तेमाल न करने की सलाह दी गई है। इस का कारण यह है कि उन के हैल्थ विभाग ने पता लगाया है कि कुछ इंफैक्टेड किस्म के टमाटरों की वजह से वहां कुछ लोगों को सालमोनैला इंफैक्शन ( salmonella infection) हो गई । यह इंफैक्शन एक बैक्टीरिया सालमोनैला की वजह से होती है जिस में दस्त लग जाते हैं जिन के साथ खून भी आने लगता है। वहां पर तो पब्लिक को इस बात के बारे में भी सचेत किया गया है कि वे जिन टमाटरों का इस्तेमाल कर रहे हैं उन के बारे में स्टोर से इस के बारे में भी पूरी जानकारी लें कि वे किस क्षेत्र की पैदावार हैं। फिर उन्होंने अपने नागरिकों को इस बारे में भी सचेत किया है कि टमाटर की कौन कौन सी किस्में इस साल्मोनैला इंफैक्शन से रहित हैं और इन का प्रयोग किया जा सकता है।


हम कहां खड़े हैं...........इस बात का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि हमारे देश में हर समय इन दस्तों, पेचिशों, एवं खूनी दस्तों के मरीज़ तैयार मिलते हैं, लेकिन कभी किसी तरह का कारण पता करने की कोशिश ही कहां की जाती हैं। कितने लोग हैं जो मल का टैस्ट करवाते हैं या करवा पाते हैं......कोई समझता है यह किसी शादी बियाह में खाने से हो गया, कोई कहता है कि यह गर्मी के मिजाज की वजह से है, कोई सोचता है कि इस का कारण यह है कि उसे रात में दही पचता नहीं है, कोई सोचता है कि तरबूज, खरबूजा खाने के बाद पानी लेने से ये दस्त हो गये हैं............बस, किसी तरह के कारण की गहराई में जाने की न तो कोशिश ही की जाती है ...............वैसे, हमारे यहां की समस्यायें हैं भी तो कितनी कंपलैक्स कि किसी पेचिश के मरीज को साफ-स्वच्छ पानी पीने का मशविरा देते हुये भी लगता है कि उससे मज़ाक सा ही किया जा रहा है..........कितने दिन पी लेगा वो उबला हुया पानी !!


अब आते हैं इस बात की तरफ़ की इस से आखिर हमें सीख क्या मिलती है............सीख यही है कि दोस्तो कितना भी कह लें, खाना तो यही सब कुछ ही हम ने है....लेकिन अगर कुछ थोड़ी बहुत जन-जागरूकता कम से कम इस बारे में हो जाये कि बिना अच्छी तरह धोये हुये कोई सब्जी-फल का सेवन तो एक इंस्टैंट ज़हर है ............लेकिन फिर भी रोज़ाना कितनी सी कीटनाशकों से लैस सब्जियों वगैरह का सेवन हम लोग करते हैं.....चाहे कितनी भी अच्छी तरह से धुल चुकी हों लेकिन उस से भी वे स्लो-प्वाईज़न जैसा असर तो रखती ही हैं। लेकिन इन के खाये बिना कोई चारा भी तो नहीं है। और अगर आप कहते हैं कि ऑगैनिक हो जाएं, तो दोस्तो यह तो आप को भी पता है कि यह कितने लोगों के बस की बात है !!

इन्हीं कीटनाशकों की वजह से मैंने भी पिछले दो-वर्ष से आम को चूस कर खाना बिलकुल बंद कर दिया है। हुया यूं कि दो साल पहले कईं बार ऐसा हो गया कि जब मैं आम को चूसता और बाद में उस की गुठली को निकालने के लिये उस का छिलका छीलता तो हैरान हो जाता कि बाहर से इतना बढ़िया दिखने वाला आम अंदर से इतना सड़ा-गला और कीड़े लगा हुआ....... और ऐसा बहुत बार हुआ.............बस, तब से इतनी नफ़रत हो गई है कि अब तो आम की फाड़ी काट कर उसे चम्मच से ही खाना ठीक लगता है.....कोशिश यही रहती है कि जहां तक हो सके आम के छिलके को मुंह ना ही लगाना पड़े।

कहीं ऐसा तो नहीं कि इस समय आप आम खा रहे हों और मैंने आप का मजा किरकिरा कर दिया हो...........खाइये, खाइये....इस गर्मी के मौसम में आनंद लूटिये।

मंगलवार, 10 जून 2008

महिलाओं को इस तरह के विषयों पर आपस में बात करते रहना चाहिये...भाग2

गर्भाशय के कैंसर से बचाव का इंजैक्शन....
कल मैंने एच.पी.व्ही इंफैक्शन की बात की थी....यह समझना बेहद ज़रूरी है कि इस इंफैक्शन का गर्भाशय के मुख (cervix of uterus) के कैंसर में सीधा रोल है। एच.पी.व्ही का पूरा नाम है....ह्यूमन पैपीलोमा वॉयरस ( Human papilloma-virus).
शायद आप को भी यह सोच कर थोड़ा अजीब सा लग तो रहा होगा कि क्या वॉयरस से भी कैंसर होते हैं ....लेकिन मैडीकल वैज्ञानिकों ने इस को प्रमाणित कर दिया है। अब जब हम यहां महिलाओं के गर्भाशय के मुख पर होने वाले कैंसर की बात कर रहे हैं तो इस के बारे में यह जान लेना ज़रूरी है कि इस के लिये इसी एच.पी.व्ही इंफैक्शन को ही जिम्मेदार ठहराया जा रहा है।
महिलाओं के इस गर्भाशय के मुख के कैंसर के बारे में यह भी जानना ज़रूरी है कि हर वर्ष हज़ारों महिलाओं की जान ले लेने वाले इस कैंसर के भारत में सब से ज़्यादा केस पाये जाते हैं। महिलाओं में जितने भी कैंसर के केस होते हैं उन में से 24प्रतिशत केस इसी गर्भाशय के कैंसर के होते हैं और 20 प्रतिशत केस स्तन-कैंसर के होते हैं। भारत में एक लाख तीन हज़ार से भी ज़्यादा नये केस हर वर्ष डिटेक्ट होते हैं और विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक अनुमान के अनुसार हर वर्ष यह बीमारी भारत में 74000महिलाओं की जानें लील लेती है।
अब खबर यही है कि इस एच.पी.व्ही इंफैक्शन से बचाव का भी इंजैक्शन आ गया है। इस ह्यूमन पैपीलोमा वॉयरस की भी कईं किस्में होती हैं ...और इन में से दो किस्में ऐसी होती हैं जिन्हें गर्भाशय के कैंसर के 70प्रतिशत केसों के लिये जिम्मेदार माना जाता है.....तो, बहुत बड़ी खुशखबरी यही है कि इन एच.पी.व्ही की दोनों किस्मों से बचाव के लिये यह इंजैक्शन शत-प्रतिशत कारगर है।
अमेरिका की सरकारी फूड एवं ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन एजेंसी ने इस इंजैक्शन के 9 से 26 वर्ष की लड़कियों एवं युवा महिलाओं में इस्तेमाल की अनुमति दे दी है। यूरोप में भी यह इंजैक्शन चल रहा है। लेकिन भारत में अभी यह उपलब्ध नहीं है....वैसे तो यह अभी अच्छा-खासा महंगा भी है लेकिन महिलाओं को इतने भयानक एवं दर्दनाक जानलेवा रोग से बचाने के लिये शायद इस का मोल इस के इस्तेमाल के रास्ते में नहीं आयेगा।
वैसे अभी तो इंडियन काउंसिल ऑफ मैडीकल रिसर्च कुछ ही दिनों में इस इंजैक्शन के लिये एक क्लीनिकल ट्रायल शुरू करने जा रही है ...जो तीन वर्ष तक चलेगा और इस इंजैक्शन की भारतीय महिलाओं में सफलता सिद्ध होने के बाद ही इसे भारत में शुरू किया जायेगा।
इस नये वैक्सीन के बारे में यह बात भी बहुत ध्यान देने योग्य है कि यह वैक्सीन लड़कियों की एवं युवा महिलाओं की तो एच.पी.व्ही इंफैक्शन से रक्षा करता है लेकिन बड़ी उम्र की उन महिलाओं में जिन में पहले ही से एच.पी.व्ही इंफैक्शन मौजूद है उन में इस इंजैक्शन का कोई प्रभाव नहीं है।
एक बात और भी विशेष ध्यान देने योग्य है कि जिन महिलाओं को ये कैंसर से बचाव के ये इंजैक्शन दिये गये हैं ...उन को भी कैंसर के लिये नियमित जांच( cervical cancer screening) करवानी आवश्यक है।
गर्भाशय के कैंसर की स्क्रीनिंग से ध्यान आ रहा है कि विकसित देशों में इसी स्क्रीनिंग की वजह से ही इस के केसों में भारी कटौती संभव हो पायी है। लेकिन भारत में इस के केस बढ़ रहे हैं.....और अफसोस तो इसी बात का है कि इस तरह के कैंसर को इतनी आसानी से रोका जा सकता है, इस से बचा जा सकता है। इसी स्क्रीनिंग के लिये ही एक टैस्ट है ....पैप स्मीयिर( PAP Smear)…..यह बहुत ही सिंपल सा टैस्ट है जिस में बहुत ही आसानी से बिना किसी दर्द आदि के एक स्लाईड के ऊपर महिला के गर्भाशय से लिये कोशिकाओं की लैब में जांच की जाती है।( स्लाईड तैयार करने का काम स्त्री-रोग विशेषज्ञ द्वारा ही किया जाता है) । इस पैप-स्मीयर टैस्ट की वजह से बहुत सी जानें बच पाई हैं। लेकिन हमारे देश में आमतौर पर महिलाओं को आसानी से उपलब्ध नहीं है। और जहां है भी, वहां पर महिलायें अज्ञानता वश इसे करवाती नहीं हैं कि हमें क्या हुआ है, हम भली-चंगी तो हैं, ......लेकिन इस टैस्ट को बिना किसी तकलीफ़ के भी अपनी उम्र के अनुसार अपनी स्त्री-रोग विशेषज्ञ की सलाह अनुसार अवश्य करवाना चाहिये।
तो, कहने का भाव है कि गर्भाशय के कैंसर से बचाव के लिये इस्तेमाल किये जाने वाली इंजैक्शन की बातें तो हम ने कर लीं लेकिन हमारे यहां तो अभी तक महिलाओं में इस बीमारी के लिये रूटीन स्क्रीनिंग ( स्त्री-रोग विशेषज्ञ द्वारा नियमित परीक्षण, पैप-स्मीयर टैस्ट आदि) तक की जागरूकता नहीं है तो ऐसे में बिना नियमित स्क्रीनिंग के इस टीके का प्रभाव कितना कारगर होगा, यह तो आने वाला समय ही बतायेगा। वैसे भी इस समय ज़रूरत इस बात की है कि गर्भाशय कैंसर के लिये रूटीन स्क्रीनिंग को कैसे सब महिलाओं तक ...उन की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति को बिल्कुल भी कंसिडर न करते हुये.......पहुंचाया जाये।
जाते जाते यही ध्यान आ रहा है कि महिलाओं के अधिकारों का महिलाओं के इस गर्भाशय के कैंसर से सीधा संबंध है। भारत में लड़कियां छोटी उम्र में ब्याह दी जाती हैं, बार-बार वे गर्भावस्था से गुज़रती हैं ...और इन का अपने पति की यौन-आदतों के ऊपर किसी भी तरह का बिल्कुल कंट्रोल होता नहीं है......इन सब की वजह से महिला की अपनी रिप्रोडक्टिव हैल्थ खतरे में पड़ जाती है।
इतना लिखने के बाद ध्यान आ रहा है कि इस एच.पी.व्ही इंफैक्शन से होने वाले गर्भाशय के कैंसर के बारे में इतनी बातें हो गईं .....लेकिन एच.पी.व्ही इंफैक्शन के बारे में कुछ अहम् बातें करनी अभी शेष हैं......ये चर्चा कल करेंगे कि यह इंफैक्शन महिलाओं में अकसर आती कहां से है।

सोमवार, 9 जून 2008

महिलायों को इन विषयों के बारे में आपस में बात करनी चाहिये....भाग..1.

पिछले कुछ अरसे से महिलायों के गर्भाशय के मुख के कैंसर से बचाव के लिये इस्तेमाल किये जाने वाले टीके की बातें चल रही हैं। एक मैडीकल-राइटर होने के नाते मैंने कुछ महीने पहले एक महिला-चिकित्सक से इस एचपीव्ही इंफैक्शन के बारे में बात करनी चाही.....कि नेट पर तो इस इंफैक्शन की जानकारी की भरमार है, लेकिन अपने यहां के आंकड़े क्या कहते हैं । तो मुझे जो जवाब मिला वह बिल्कुल भी संतोषजनक ना था, मैं आज भी यह सोच कर हैरान हूं कि उस स्त्री-रोग विशेषज्ञ ने मुझे यह क्यों कहा कि यह समस्या तो बाहर के देशों की ज़्यादा है।

इसलिये सोच रहा हूं कि आज दो-चार बातें अपनी जानकारी के आधार पर महिलायों के स्वास्थ्य के बारे में विशेषकर महिलायों में होने वाले कैंसर के बारे में ही करते हैं। अकसर विभिन्न कारणों की वजह से हमारे देश की महिलायें अपने शरीर की देखभाल पूरी तरह से कर नहीं पाती हैं। उन का तो किसी चिकित्सक के पास जाने का फैसला भी ज्यादातर उन के पति की इच्छा के मुताबिक ही होता है।
स्तन कैंसर के रोग के बारे में भी इतनी जागरूकता है नहीं। कोई प्रिवैंटिव प्रोटोकॉल फॉलो नहीं किया जाता। बाहर के देशों में तो महिलायें जैसे ही 35 वर्ष की होती हैं वे महिला-रोग विशेषज्ञ से मिल कर अपनी नियमित जांच करवाती रहती हैं......क्लीनिकल चैक-अप के साथ-साथ वे अपनी मैमोग्राफी भी नियमित तौर पर चिकित्सक की सलाह के अनुसार करवाती रहती हैं।

मैमोग्राफी एक तरह का एक्स-रे ही है जिस के करवाने से महिलाओं के स्तन में आने वाले बारीक से बारीक बदलाव को प्रारंभिक अवस्था में ही पकड़ा जा सकता है। वैसे तो बाहर के देशों में और अब तो हमारे देश में भी महिलायें इसे करवाने लगी हैं.....लेकिन फिर भी हमारे यहां तो अभी भी यह स्तन में कोई तकलीफ़ होने पर ही करवाया जाता है। तो, यहां ज़रूरत है इस मैमोग्राफी तकनीक को पापुलर करने की। यह लगभग सात-आठ सौ रूपये में हो जाता है....कीमत विभिन्न जगहों पर अलग हो सकती है। आम तौर पर जिन सैंटरों में सीटी-स्कैन आदि की मशीन होती है वहां इस की भी सुविधा होती ही है। बाहर के देशों में स्त्रियां इस के बारे में बेहद चेतन हैं। इसलिये हमारे देश की महिलायों को भी अपने चिकित्सक की सलाह से इसे अवश्य करवा लेना चाहिये।....करवा क्या लेना चाहिये बल्कि नियमित करवाना चाहिये...जहां तक मुझे ध्यान है एक तो बेस-लाइन मैमोग्राफी 35 साल की उम्र में होनी चाहिये और उस के पांच –पांच साल के बाद इसे रिपीट किया जाना जरूरी होता है। इस की विस्तृत जानकारी एवं शैड्यूल आप को अपनी महिला रोग विशेषज्ञ से मिल जायेगा। उस के बाद एक उम्र के बाद तो इस मैमोग्राफी को हर साल के बाद रिपीट करने की हिदायत दी जाती है। यह बेहद लाज़मी है....क्योंकि अकसर देखा गया है कि हमारे देश में जब तक स्तन में किसी तरह की गांठ वांठ के लिये अपने चिकित्सक से मिलती हैं तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। इसलिये इस मैमोग्राफी की मदद से छोटे से छोटे बदलाव को बहुत सी आसानी से पकड़ कर किसी तरफ भी फैलने से पहले ही उसे काबू कर लिया जाता है।

वैसे तो स्त्री –रोग चिकित्सक महिलायों को अपने वक्ष-स्थल की स्वयं-जांच के लिये भी बताती ही रहती हैं....महिलाओं को इस का पालन भी करना चाहिये....और कुछ दिन पहले से कहीं पर पढ़ा है कि इस स्वयं-जांच का एक चार्ट सा जो अपने चिकित्सक से मिले उसे उन्हें अपने कपड़ों की अलमारी में चिपका लेना चाहिये....ताकि एक तो उस के अनुसार ही वे अपने वक्ष-स्थल की स्वयं जांच करती रहें और दूसरा यह कि यह चार्ट उन को यह काम करने की याद भी दिलाता रहेगा।

एक बात और जो बहुत ही ज़रूरी है कि वैसे तो बिना किसी तकलीफ़ के भी अपनी मैमोग्राफी करवानी बहुत ज़रूरी है लेकिन एक बात तो बहुत बहुत ही ज़रूरी है कि जिन महिलायों के परिवार में किसी नज़दीकी रिश्तेदार को स्तन-कैंसर की बीमारी हो चुकी है जैसे कि किसी की मां,बहन, नानी, मौसी .....ऐसे में इन महिलायों को तो अपनी नियमित जांच करवानी और भी बहुत महत्वपूर्ण है।

इस जानकारी को हिंदी में ब्लाग पर डालने के बारे में मैंने बहुत सोचा....लेकिन मुझे यह पोस्ट लिखने के लिये मज़बूर होना ही पड़ा। उसका पहला कारण तो यह कि पोस्ट पढ़ने वाले काफी पुरूष भी हैं और देश में महिलाओं के स्वास्थ्य की विडंबना भी यही है कि उस के शरीर से संबंधित फैसले अभी भी पुरूषों के हाथ ही में हैं। और, दूसरा यह कि जो महिला ब्लागर हैं ....मैं समझता हूं ये सब बेहद प्रबुद्ध महिलायें हैं जो अपने अपने क्षेत्र में सक्रिय हैं जिन्हें इस तरह की जानकारी पहले ही से होगी ....तो इन सभी बहनों से मेरी गुज़ारिश यही है कि अपने ग्रुप में .......अपनी घर काम करने वाली बाई से शुरू कर के , अपनी किट्टी पार्टी की सदस्याओं एवं अपने कार्य-क्षेत्र के इंफार्मल ग्रुप में इस तरह की चर्चायें किया जायें ....................क्योंकि यह आप के अपने स्वास्थ्य का प्रश्न है................आरक्षण बिल का तो हमें अभी पता नहीं क्या होगा, लेकिन बहनो, अभी अपने स्वास्थ्य की जिम्मेदारी तो थामो।( यह सब कहना जितना आसान है , काश ! यह सब प्रैक्टीकल लाइफ में भी इतना ही आसान होता !!)…………फिर भी , .......Try to take control of your life from this moment onwards……….afterall it is the question of your well-being……….which is so very important for the well-being of your kids …..not only kids, but your whole family………even extended family !!
Wish all of you pink of health and spirits !!

कल दूसरे भाग में महिलायों के गर्भाशय के मुख के कैंसर के बारे में कुछ अहम् बातें करूंगा।

शुक्रवार, 6 जून 2008

जब दांतों में खाना फंसने से आप परेशान होने लगें...


दांतों में खाना फंसना एक बहुत ही आम समस्या है। लेकिन इस विषय पर कुछ विशेष बातें करने से पहले चलिये यह तो समझ लें कि प्रकृति ने हमारे दांतों, जिह्वा, गालों की संरचना एवं कार्य-प्रणाली ऐसी बनाई है कि दांतों के बीच सामान्यतः कुछ भी खाद्य पदार्थ फंस ही नहीं सकता। जिह्वा एवं गालों के लगातार दांतों पर होने वाले घर्षण से हमारे दांतों की सफाई होती रहती है। अगर कभी-कभार कुछ फंस भी जाता है तो वह कुल्ला करने मात्र से ही निकल जाता है। लेकिन अगर किसी व्यक्ति के किसी विशेष दांत अथवा दांतों में ही खाना फंस रहा है तो समझ लीजिये की कहीं न कहीं तो गड़बड़ है जिस के लिये आप को दंत-चिकित्सक से अवश्य परामर्श करना होगा।

आम तौर पर देखा गया है कि बहुत से लोग ऐसे ही टुथ-पिक या दिया-सिलाई की तीली से फंसे हुये पदार्थों को कुरेदते रहते हैं। यह तो भई समस्या का समाधान कदापि नहीं है। इस से तो कोमल मसूड़े बार बार आहत होते रहते हैं। इसलिये टुथ-पिक के इस्तेमाल की तो हम लोग कभी भी सलाह नहीं देते हैं.....इसे नोट किया जाए। कुछ लोग अपने आप ही इस समस्या से समाधान हेतु इंटर-डैंटल ब्रुश ( अर्थात् दो दांतों के बीच में इस्तेमाल किया जाने वाला ब्रुश) को यूज़ करना शुरू कर देते हैं । लेकिन एक बात विशेष तौर पर काबिले-गौर है कि दांतों में खाद्य-पदार्थों के फंसने की समस्या का अपने ही तरीके से समाधान ढूंढने का सीधा-सीधा मतलब है ......दंत-रोगों को बढ़ावा देना।

अब ज़रा हम दांतों में खाना फंसने के आम कारणों पर एक नज़र डालेंगे....

दंत-छिद्र ( दांतों में कैविटीज़)

मसूड़ों की सूजन ( पायरिया रोग)

मसूड़ों की सर्जरी के बाद

दंत-छिद्रों और पायरिया का समुचित उपचार होने के पश्चात् इस समस्या का समाधान संभव है। जहां तक मसूड़ों की सर्जरी के बाद दांतों में फंसने की बात है, यह आम तौर पर कुछ ही सप्ताह में ठीक हो जाता है क्योंकि थोड़े दिनों में मसूड़े एवं उस के साथ लगे उत्तक अपनी सही जगह ले लेते हैं।

कईं बार ऐसे मरीज़ मिलते हैं जिन के दांतों में स्वाभाविक तौर पर ही काफी जगह होती है और उन में कभी कभार थोड़ा खाना अटकता तो है....लेकिन केवल कुल्ला करने मात्र से ही सब फंसा हुया निकल जायेगा।

ध्यान में रखने लायक कुछ विशेष बातें.....

कुछ ऐसे लोग अकसर दिखते हैं जो एक छ्ल्ले-नुमा आकार में छोटे-छोटे तीन औज़ार हमेशा अपने पास ही रखते हैं...एक दांत खोदने के लिये, दूसरा कान खोदने के लिए और तीसरा नाखून कुरेदने के लिये। ऐसे शौकिया औज़ारों के परिणाम अकसर खतरनाक ही होते हैं।

कईं बार जब कोई मरीज़ दंत-चिकित्सक के पास जा कर किसी दांत में कुछ फंसने ( उदाहरण के तौर पर कोई रेशेदार सब्जी जैसे पालक, साग, बंद-गोभी, मेथी इत्यादि) मात्र से ही दंत-चिकित्सक को यह संकेत मिल जाता है कि इस दांत में या अमुक दो दांतों के बीच कुछ गड़बड़ है। चाहे मरीज को अपने दांत देखने में सब कुछ ठीक ठाक ही लगे, लेकिन उपर्युक्त दंत-चिकित्सा औजारों से उस स्थान पर दंत-छिद्र अथवा मसूड़ों की तकलीफ़ की पुष्टि की जाती है। आवश्यकतानुसार दांतों का एक्स-रे परीक्षण भी कर लिया जाता है।

जहां कहीं भी मुंह में दांतों के बीच या कहीं भी खाना फंसेगा, स्वाभाविक है कि यह वहां पर सड़ने के बाद बदबू तो पैदा करेगा ही और साथ ही साथ आस-पास के दांतों के दंत-क्षय (दांतों की सड़न) से ग्रस्त होने की संभावना भी बढ़ जाती है।

इसलिये दांतों में खाना फंसने का इलाज स्वयं करने की बजाए दंत-चिकित्सक से समय पर परामर्श लेने में ही बेहतरी है।

गुरुवार, 5 जून 2008

जब भी मुझे यह कमीशन का चांटा लगता है...

यह लेख नहीं है ....मेरी पर्सनल डायरी का 25 अगस्त 2006 को लिखा गया एक पन्ना है...जिसे मैं बिल्कुल बदले बिना यहां डाल रहा हूं.....आशा है आप स्वीकार करेंगे !!

यह जो अखबार वाले अपने लेखकों को उनके लेखों एवं फीचरों के लिये मानदेय भेजते हैं, मुझे यह सब बहुत हास्यास्पद सा लगता है। लेखकों की तकदीर पर बस करूणा आती है। अब मैं अपना ही किस्सा ब्यां करता हूं....मैंने शायद जनवरी 2006 में एक अखबार में मसूड़ों से खून आने के संबंध में एक लेख लिख भेजा था। लगभग पांच-छः महीने बाद उन्होंने मुझे 200 रूपये का एक चैक भेज दिया था( आउट-स्टेशन चैक)...पानीपत से जारी किया हुया।
मेरे पास भी वह चैक एक-डेढ़ महीने तक तो ज्यों का त्यों पड़ा रहा। फिर मैंने कुछ दिन पहले –लगभग 10-15 दिन पहले- अपने जगाधरी के खाते में जमा करवा दिया।

आज जब मैं पास-बुक में एन्ट्री करवाने के लिये गया तो बाबू कह रहा था कि आप का चैक भी पास हो गया है। मैंने कहा...ठीक है। जब मैंने पास-बुक में प्रविष्टियां देखीं तो 60रूपये( साठ रूपये) उन 200रूपयों में से कटे हुये थे। मैंने बाबू से पूछा कि यह 60 रूपये का तमाचा किस लिये ? ….तो वह कहने लगा कि 25 रूपये तो डाक-खर्च और बाकी बैंक की कमीशन !! मैं उस से पूछना चाह रहा था कि देख लो, भाई, कोई और भी कटौती रह गई हो तो हसरत पूरी कर डालो।
गुस्सा तो मुझे बहुत आया और बहुत अजीब सा भी लगा ...क्या,यार, लेखकों की यह हालत !! इन कमीशनों के चक्कर में उन के फाके करवाओगे क्या ? उन से ही काहे की ये....... ............( खेद है, ये शब्द मैं यहां लिखने में असमर्थ हूं क्योंकि उन्हें सैंसर करना पड़ रहा है....कभी मौका मिलेगा तो व्यक्तिगत रूप में इस शब्द का रहस्य उजागर कर दिया जायेगा) .....भई , किसी बंदे को आपने 200 रूपये भेजे हैं तो उस के हाथ में लगे केवल 140 रूपये।

अखबार वाले इस राशि का ड्राफ्ट नहीं भेज रहे क्योंकि शायद उन्हे यह झँझट लग रहा होगा, और शायद इसलिये भी नहीं कि ड्राफ्ट बनाने में पैसे लगते हैं...लेकिन आप एक काम तो कर ही सकते हैं कि उसे मनीआर्डर तो करवा ही सकते हैं । और मनीआर्डर का खर्चा आप उस की राशि से घटा लें, जैसे कि अगर आपने किसी मेरे जैसे स्ट्रगलर लेखक को 200 रूपये भेजने हैं , जिस के मनीआर्डर पर दस रूपये लगने हैं तो आप उसे 190 रूपये मनीआर्डर करवा कर छुट्टी करें, और क्या और ये पैसे उसे अगले दो-तीन दिन में पहुंच भी जायेंगे !! आउटस्टेशन चैक के भुगतान के लिये इतने दिन भी तो लग जाते हैं।

कोई पता नहीं किसी लेखक के द्वारा उस राशि की कितनी शिद्दत से इंतज़ार हो रही होगी !!.......लेकिन बात कहीं ना कहीं संवेदना की है....मानवीय मूल्यों की है...अब अखबार वालों को यह सब कौन समझाए ? कौन डाले बिल्ली के गले में घंटी !!.......इसलिये सब कुछ जस का तस चलता आ रहा है......खूब चल रहा है और माशा-अल्ला आने वाले समय में भी बखूबी चलता ही रहेगा।

बुधवार, 4 जून 2008

बच्चों के दांतों को क्यों लेते हैं इतना लाइटली !!

मुझे रोज़ाना अपनी ओपीडी में बैठे बैठे यह प्रश्न बहुत परेशान करता है.......कि आखिर लोग बच्चों के दांतों को इतना लाइटली क्यों लेते हैं। वास्तविकता यह है कि ये दूध के दांत भी कम से कम पक्के दांतों के जितना ही महत्व तो रखते ही हैं....शायद उन से भी ज़्यादा, क्योंकि यह बिल्कुल ठीक कहा जाता है कि ये दूध के दांत तो पक्के दांतों की नींव हैं।

लेकिन मां-बाप यही समझ लेते हैं कि इन दूध के दांतों का क्या है, इन्होंने तो गिरना ही है और पक्के दांतों ने तो आना ही है। इसलिये बच्चों को डैंटिस्ट के पास ले जाने का काहे का झंझट लेना। लेकिन यह बहुत बड़ी गलतफहमी है।

और यह धारणा बच्चे के बिल्कुल छोटे होते ही शुरू हो जाती है। बच्चे के मुंह में दूध की बोतल लगी रहती है और वह सो जाता है जिस की वजह से उस के बहुत से दांतों में कीड़ा लग जाता है......( क्या यह वास्तव में कोई कीड़ा ही होता है , इस की चर्चा किसी दूसरी पोस्ट में करूंगा।) लेकिन फिर भी मां-बाप डैंटिस्ट के पास जाने से बचते रहते हैं।

जब बच्चों के दांत इतने ज़्यादा सड-गल जाते हैं कि वह दर्द की वजह से रात-रात भर मां-बाप को जागरण करने पर मजबूर करता है तो मां-बाप को मजबूरी में डैंटिस्ट के पास जाना ही पड़ता है। लेकिन अकसर बहुत से केसों में मैं रोज़ाना देखता हूं तब तक बहुत देर हो चुकी होती है.....दांत के नीचे फोड़ा( एबसैस) सा बना होता है......और बहुत बार तो इन दूध के दांतों को निकालना ही पड़ता है। अब शायद कईं लोग यह समझ रहे होंगे कि दूध के दांत ही तो हैं....इन्हें तो वैसे भी निकलना ही था....अब अगर डैंटिस्ट को इन्हें निकालना ही पड़ा तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ा।
इस का जवाब देने की कोशिश कर रहा हूं ....ठीक है दूध के दांत गिरने हैं....लेकिन मुंह में मौजूद दूध के बीस दांतों के गिरने का अपना एक निश्चित समय है। वह समय कौन सा है ?........वह समय वह है जब उस के नीचे बन रहा पक्का दांत इतना तैयार हो जाता है कि उस के ऊपर आने के प्रैशर से दूध के दांत की जड़ धीरे धीरे घुलनी ( resorption of deciduous teeth) शुरू हो जाती है कि वह दूध का दांत धीरे धीरे इतना हिलना शुरू हो जाता है कि आम तौर पर बच्चा स्वयं ही उसे हिला हिला कर निकाल देता है.....( और हमारी और आप की तरह किसी मिट्टी वगैरा में फैंकने का टोटका कर लेता है !!!)...

यह तो हुया दूध के दांत के दांत का नार्मल गिरना......क्योंकि इस के गिरते ही कुछ दिनों में नीचे से आ रहा पर्मानैंट दांत इस की जगह ले लेता है और सब कुछ नार्मल हो जाता है। यह संतुलन कुदरत ने बेहद नाज़ुक सा बनाया हुया है....लेकिन यह संतुलन बिगड़ता है तब जब हमें बच्चों के दूध के दांतों को उन के नार्मल गिरने के समय से पहले ही निकलवाना पड़ जाता है...जैसा कि आज कल खूब हो रहा है क्योंकि बच्चे किसी के भी कहने में हैं नहीं....एक-एक, दो-दो हैं...इसलिये इन की पूरी दादागिरी है जनाब.......मॉम-डैड को टाइम है नहीं , बस जंक-फूड से, महंगी महंगी आइस-क्रीम से , विदेशी चाकलेटों के माध्यम से ही इन के सामान्य स्वास्थ्य के साथ साथ दांतों की सेहत का भी मलिया मेट किया जा रहा है। और फिर डैंटिस्टों के क्लीनिकों के चक्कर पे चक्कर................

पच्चीस साल डैंटल प्रैक्टिस करते करते यही निष्कर्ष निकाला है इलाज से परहेज भला कहावत दंत-चिकित्सा विज्ञान में बहुत ही अच्छी तरह फिट होती है। क्योंकि ट्रीटमैंट माडल तो बाहर के अमीर मुल्क ही नहीं निभा पाये तो हम लोगों की क्या बिसात है । सरकारी हस्पतालों के डैंटिस्टों के पास वर्क-लोड इतना ज़्यादा है कि क्या कहूं.......सारा दिन अपने काम में गड़े रहने के बावजूद भी ......डैंटिस्ट के मन को ही पता है कि वह मरीज़ों के इलाज के पैरामीटर पर कहां स्टैंड कर रहा है। इस का जवाब केवल उस सरकारी डैंटिस्ट की अंतर-आत्मा ही दे सकती है। दूसरी तरफ देखिये तो प्राइवेट डैंटिस्ट का खर्च आम आदमी नहीं उठा सकता ....प्रोफैशन में पूरे पच्चीस साल पिलने के बाद अगर ऐसी स्टेटमैंट दे रहा हूं तो यह पूरी तरह ठोस ही है........प्राइवेट डैंटिस्ट के पास जाना आम आदमी के बस की बात है नहीं.......एक तरह से देखा जाये तो वह भी क्या करे......उस ने भी इतने साल बिताये हैं पढ़ाई में, डैंटल चिकिस्ता के लिये इस्तेमाल होने वाली दवाईयां इतना महंगी हो गई हैं, प्राइवेट क्लीनिकों के खर्च इतने हो गये हैं, ए.सी -वे.सी के बिना अब बहुत मुश्किल होती है..................इतने ज़्यादा फैक्टर्ज़ हैं कि क्या क्या लिखूं। कहना बस इतना ही चाह रहा हूं कि डैंटल ट्रीटमैंट महंगी है और इस के बहुत से कारण हैं।

अच्छा तो मैं बात कर रहा था बच्चों के दूध के दांत समय से पहले जब निकलवाने पड़ जाते हैं तो अकसर गड़बड़ होने के चांस बहुत बढ़ जाते हैं ....क्यों ? ....वह इसलिये कि इन दूध के दांतों ने एक तरह से पक्के दांतों की जगह घेर कर रखी होती है और जब ये ही समय से पहले निकल जाते हैं तो कईं बार इन पक्के दांतों को अपनी निश्चित जगह पर जगह न मिलने के कारण कहीं इधर-उधर निकलना पड़ता है...और कईं बार तो ये जगह के अभाव के कारण मुंह में निकल ही नहीं पाते और जबड़े की हड्डी में ही दबे रह जाते हैं। और बहुत बहुत टेढ़े-मेढ़े होने की वजह से फिर इन के ऊपर तारें /ब्रेसेज़ लगवाने की तैयारियां शुरू हो जाती हैं जिन में काफी पैसा भी खर्च होता है और समय भी बहुत लगता है।

तो, सलाह यही है कि छोटे बच्चों को एक साल की उम्र में डैंटिस्ट के पास पहली बार ले कर जाना बेहद लाजमी है। उस के बाद हर छःमहीने बाद हरेक बच्चे का डैंटिस्ट के द्वारा देखा जाना बहुत बहुत ज़रूरी है क्योंकि हम सब ने बहुत अच्छी तरह से पढ़ रखा है ना कि a stitch in time saves nine......तो फिर यहां भी यह बात बिल्कुल फिट बैठती है।

इसी तरह की बच्चों के दांतों की बातें मैं अपनी कुछ अगली पोस्टों में करूंगा और साथ में एक्स-रे के माध्यम से अपनी बात स्पष्ट करता रहूंगा। तो, दांतों और मसूड़ों के परफैक्ट स्वास्थय का सुपरहिट फार्मूला तो यहां लिख ही दूं........रोज़ाना दो-बार ब्रुश करें.....रात को सोन से पहले ब्रुश करना सुबह वाले ब्रुश से भी ज़्यादा महत्वपूर्ण है और इस के साथ ही साथ सुबह सवेरे रोज़ाना जुबान साफ करने वाली पत्ती ( टंग-क्लीनर ) से जीभ रोज़ साफ करनी भी निहायत ज़रूरी है।

बाकी बातें फिर करते हैं, आज पहली बात अपनी पोस्ट आन-लाइन लिख रहा हूं, इसलिये डर भी रहा हूं कि कहीं कोई गलत कुंजी न दब जाये और यह गायब ही ना जाये.......ऐसा एक-दो बार पहले हो चुका है। इसलिये अब मैं तुरंत पब्लिश का बटन दबाने में ही बेहतरी समझ रहा हूं।

मंगलवार, 3 जून 2008

वो मैला कुचैला रद्दी कागज़ !


जब मैं अखबारों के लिये लिखा करता था तो पहले किसी भी रफ कागज़ पर आईडिया लिख लिया करता था.....फिर किसी दूसरे कागज़ पर लेख लिखता था.....एक-दो बार लिखने के बाद मैं या तो उसे फेयर कर लिया करता था...अन्यथा कंप्यूटर में डाल कर तुरंत फैक्स कर दिया करता था।
लेकिन अगर मुझे कोई लेख लिखने से पहले ही फेयर कागज़ थमा दे, तो मुझे लगता है कि मैं तो कुछ भी लिख ही ना पाऊं। पता नहीं मेरे साथ ऐसा क्यों है कि मैं किसी रद्दी पेपर जैसे पेपर पर ही अपने विचारों का खाका खींच सकता हूं। यह मैं बहुत बार सोचता हूं। और इन रद्दी कागज़ों में से मेरा सब से फेवरट है.....वह कागज़ की पैकिंग जिस में हम लोगों के ग्लवज़ पैक हो कर आते हैं। मेरे हास्पीटल के रूम में ये कागज़ प्रतिदिन कितने पड़े होते हैं और इन पर मैं एक-दो मिनट की फुर्सत के दौरान अपने आइडिया लिखता रहता हूं और जेब में बस इन्हे ठूंसता रहता हूं। उस के बाद पता नहीं कब किस कागज़ के भाग्य खुलते हैं..............जी, आप बिलकुल ठीक सोच रहे हैं कि तू अगर इतने रद्दी कागज़ इक्ट्ठे करता है तो फिर तेरा स्टडी-रूम कबाड़खाना तो लगना ही है। कईं बार मुझे कोई रद्दी कागज़ नज़र नहीं आता तो मैं अखबार के साथ आये हुये तरह तरह के हैंड-बिल्ज़ की पिछली तरफ़ भी अपनी कलम से खेल लेता हूं। और कईं बार किसी इस्तेमाल किये हुये एनवेल्प के इधर-उधर लिख कर मन को ठंड़ा कर लेता हूं।
मुझे ऐसा लगता है कि मैं इन रद्दी कागज़ों के ऊपर जब कलम चलाता हूं ना तो मुझे पूरी आज़ादी का अहसास होता है.....मैं शत-प्रतिशत पूरी स्वच्छंदता का अनुभव करता हूं.....मुझे लगता है कि जो भी मैं लिखूंगा, बस अपनी मरजी से लिखूंगा......यह मेरा एरिया है.....इस में कोई नहीं घुस सकता ......इस में मुझे किसी की टोका-टोकी पसंद नहीं है.....मुझे लगता है कि मैं अपने इलावा केवल इस रद्दी कागज़ के ही ऊपर ही तो अपना दिल खोल सकता हूं.....मुझे शायद यह भी तो लगता है किसी साफ़-सुथरे, फेयर कागज़ की तुलना में यह रद्दी कागज़ मेरे जैसा कमज़ोर भी है.....मैं शायद सोचता हूं कि इस मैले-कुचैले कागज़ में भी ढेरों कमज़ोरियां हैं , इसलिये यह मुझे क्या कहेगा!......मैं सोचता हूं कि यह मेरा सच्चा साथी है , मेरा हमराज़ है, मेरे दुःख-सुख का साझीदार है, इसलिये इस के ऊपर जब मैं अपनी कलम से अपने विचारों का कोई खाका खींच रहा होता हूं तो यह विचार मन में आते हैं कि यार, मैं भला इस बेकार से दिखने वाले ( दो-कौड़ी के भी नहीं!!) कागज़ को भी बेइमानी से लिख कर शर्मिंदा क्यों करूं। मुझे यह अहसास है कि इस के साथ किसी तरह की चालाकी करना अपनी मां के साथ फरेब करने के बराबर है। इन सब बातों की वजह से मैं इस मैले-कुचैले कागज़ों को अपना सब से बड़ा हमराज़ मानता हूं। लेकिन मेरी खुदगर्ज़ी की इन्तहा भी तो ज़रा देखिये.......इन का और मेरा साथ केवल लैप-टाप में लिखने तक का ही होता है।
इन कईं तरह के रफ कागज़ों को अपने सामने रख के मैं अपने लैप-टाप पर बैठ जाता हूं और जो भी ये रद्दे कागज़ मुझ से लिखवाते हैं मैं लिखता जाता हूं। लिखने के बाद या तो यहीं से लेख को पब्लिश कर देता हूं , नहीं तो पैन-ड्राइव में लेकर दूसरे किसी डैस्क-टाप से पब्लिश कर देता हूं।
सीधी सी बात करूं तो मुझे इन रद्दी कागज़ों पर कुछ भी लिखना दुनिया में किसी भी चीज़ की परवाह किये बिना अपने बचपन में मिट्टी के साथ खेलने के दिनों की याद दिलाता है.......शायद यही तो अब अपने बचपन के दिन जी लेने का एक बहाना है.....मुझे अकसर याद आते हैं वो दिन जब हम लोग गीली-रेत में खूब भागा-दौड़ा करते थे, अपना पांव उस में धंसा कर बड़े बड़े घर उस रेत में बना डालते थे ....अगले ही पल उसे गिरा कर नया घर बना डालते थे......और फिर आपस में एक दूसरे से पूछते थे कि देख, मैंने कितना बड़ा बना लिया...................जी हां, जैसे अब टिप्पणीयों की संख्या और आज कितनी बार पढ़े गये के आंकड़े ये सब बातें हमारे लेखन के बारे में बताते रहते हैं।
लेकिन मेरे दुःख-सुख में इतना साथ निभाने के बाद, मेरा मन निर्मल करने वाले , मुझे सुकून देने वाले उस रद्दी कागज़ का क्या हश्र होता है.....जानना चाहेंगे ??............लेख छपते ही पहली फुर्सत में उसे नोच कर रद्दी की टोकड़ी के हवाले कर दिया जाता है....जी हां, बिल्कुल उसी तरह जैसे अपना मतलब निकल जाने के बाद हम उसी बंदे से आंखें चुराने में ज़रा भी नहीं हिचकाते। वाह.....भई ....वाह.......हम इंसानों की भी क्या फितरत है......अपना उल्लू सीधा करने के बाद अगर हम एक छोटे से रद्दी के कागज़ को नहीं झेल सकते तो आदमी की क्या बिसात कि हमारे सामने हमारा उल्लू सीधा होने के बाद टिक भी पाए !!
इस रद्दी कागज़ से एक और बात याद आ रही है....जब चुनाव के दिनों में कपड़े के बैनर जगह-जगह लगे देखता हूं और अगले दिन किसी नुक्कड़ पर बैठे भिखारी को उस से अपना तन ढांप कर लंबी ताने देखता हूं तो मन ही मन एक विजय का , एक संतोष का, एक सुकून का अहसास करता हूं.......इतना संतोष कि मैं ब्यां नहीं कर पा रहा हूं.......क्योंकि बिना वजह अभी से ही भावुक हो रहा हूं.......वैसे भी अभी तो चुनाव होने में कईं महीने पड़े हैं !!

सोमवार, 2 जून 2008

क्या आप ने कभी लट्टू चलाया है ?


मैं
तो कभी नहीं चला पाया....अपनी टोली के दूसरे लड़कों को इतनी आसानी से बार-बार उस मिट्टी के बने लट्टू पर झट से डोरी लपेट कर ज़मीन पर छोड़े जाने का सारा एक्शन मैं बड़ी हसरत से देखा करता था। बहुत बार मैंने भी उस मिट्टी के बने लट्टू पर डोरी लपेट कर उसे ज़मीन पर छोड़ने की नाकाम कोशिश की।

अच्छा तो अब आप को याद आ रही है उन पांच-पांच पैसे में बिकने वाली मिट्टी के लट्टूयों की .....तो यह भी बता डालिये कि आप के इस के साथ क्या अनुभव रहे ? मुझे तो आज दोपहर में उन लट्टूयों के बारे में ही सोच कर इतना सुखद लग रहा था कि क्या कहूं !!

दोस्तो, मैं उस ज़माने की बात कर रहा हूं कि जब ये मिट्टे के बने लट्टूओं पर बहुत बढ़िया सा चमकीला काला-लाल पेंट भी किया गया होता था। उन्हें देखना ही कितना सुखद हुया करता था। और फिर जब हम खुराफाती लड़की की टोली में इन को चलाने का मुकाबला हुया करता था तो पूछो मत कि कितना मज़ा लूटा करते थे।

इमानदारी से कह रहा हूं कि दशकों पुरानी यह बात आज ही याद आई है कि दो लड़के अपने अपने लट्टू पर डोरी लपेट कर एक साथ ज़मीन पर छोड़ते थे, जिस का लट्टू ज़्यादा समय तक चल पाया, वही जीता ....वही सिकंदर। लेकिन हारने वाला भी अपनी हार इतनी आसानी से कैसे स्वीकार कर ले...... फिर वह बिल्कुल नाच ना जाने आंगन टेढ़ा कि तर्ज़ पर कह उठता कि देख, मेरे वाला इस बार तो ज़मीन पर पड़े हुये पत्थर से टकरा गया, ऐसा कर, तू अब देख......भूल गया, परसों मैंने तेरे को कितनी बार हराया था।

पेंट वाले लट्टूओं के साथ ही साथ ऐसे लट्टू भी तो आया करते थे जिन पर पेंट नहीं हुया होता था...बस, मिट्टी के लट्टू होते थे जिन के नीचे एक लोहे की पिन सी लगी होती थी।

लिखते लिखते मुझे आज खुशवंत सिंह जी की वह वाली बात बहुत याद आ रही है कि खुदा का शुक्र है कि किसी ने कलम के लिये कंडोम नहीं बनाया......दोस्तो, मैंने इस महान लेखक के अखबारों में छपे लेखों से लिखने की बहुत प्रेरणा ली है.......वे अकसर लिखा करते हैं कि पेन को बस कागज़ पर छोड़ना ही आप का काम है, बाकी काम धीरे धीरे अपने आप होने लगता है।

यह मैं इसलिये यहां लिखना ज़रूरी समझता हूं कि जब मैं यह लेख लिखने लगा तो बहुत सी बातें मेरे ध्यान में ही नहीं थीं, लेकिन अब लिखते लिखते याद आने लगा है। जैसे कि मुझे अभी ध्यान आ रहा है कि मिट्टी के लट्टूओं के बाद फिर लकड़ी के बने लट्टू बाज़ार में आने लग गये थे। लेकिन मैं उन मिट्टी के लट्टूओं के बारे में यह बताना तो भूल ही गया कि जिन लड़कों की गैंग में मैं शामिल था, उन में से कईं लड़कों को जेबों में कईं कईं मिट्टी के लट्टू ठूसे रहते थे ...क्योंकि जब एक लट्टू टूट जाता था तो बिना किसी शिकन के झट से जेब से दूसरा लट्टू तुरंत ना निकले तो यह एक प्रैस्टीज इश्यू हो जाया करता था और लड़कों में खिल्ली उड़ती भला कौन बर्दाश्त करे, भई .......मैं बार बार एक बात फिर से दोहरा रहा हूं कि मुझे इन लट्टूओं को देखने से ही बहुत अच्छा लगता था। जिन लकड़ी के लट्टूओं की मैं बात कर रहा हूं उन की भी बनावट भी बिल्कुल मिट्टी के लट्टूओं के जैसी ही हुया करती थी....जिन पर भी डोरी लपेट पर उन को ज़मीन पर छोड़ा जाता था।

ये लकड़ी के लट्टू मेरे बेटे ने बंबई रहते खूब चलाये हैं.....बंबई की यही तो खासियत है कि यहां सब कुछ मिल जाता है। और वह भी रेलवे स्टेशनों के प्लेटफार्मों पर या फुटपाथों पर.....यह सब कुछ बहुत आसानी से मिल जाता है ताकि कोई भी बच्चा इन छोटी मोटी चीज़ों के लिये कभी तरसे नहीं। इन लकड़ी के लट्टूओं को चलाने में मेरे बड़े बेटे ने इतनी महारत हासिल कर ली कि मुझे उस से ईर्ष्या होती कि यार, इसे भी तो किसी ने नहीं सिखाया,यह कैसे इतनी आसानी से इन को चला लेता है और वह इतना धुरंधर लट्टूबाज हो गया कि इन लट्टूओं को जमीन पर छोड़ कर ....उन्हें चलते चलते फिर से.....अपने हाथ में पकड़ी डोरी की मदद से ज़मीन पर चलते चलते लट्टू को अपने हाथों पर ट्रांस्फर कर लेता ( बिल्कुल उसी तरह जिस तरह मेरी बचपन की टोली के लोग खासकर दोस्त दारा किया करता था !)..... मुझे यह सब देखना बहुत रोमांचक लगता।

यह नब्बे के दशक का वह दौर था जब उन 5-5, 10-10 रूपये के जंक-फूड के पैकेटों के साथ एक बिल्कुल छोटा सा प्लास्टिक का लट्टू आने लगा था.....जिस की उम्र एक-दो दिन की ही हुया करती थी, क्योंकि अकसर ये इधर उधर पड़े किसी के पैरों तले आ ही जाते थे।

अब आते हैं नये मिलिनियम में.....अर्थात् चार-पांच साल पहले मेरा बेटा क्लब से खबर लेकर आया कि शर्मा अंकल अपने बेटे के लिये दिल्ली से बे-ब्लेड लाये हैं.......यकीनन उस ने कुछ वर्णऩ इस तरह का किया कि हमें भी उत्सुकता हो उठी कि यार, देखना ही होगा, यह कौन सा करिश्मा है। मुझे याद है मैं और मेरी पत्नी उसे लेकर फिरोज़पुर की एक स्थानीय खिलौनों की दुकान पर पहुंच गये........दाम पता किया तो अढ़ाई सौ –तीन सौ रूपये। और साथ में दुकानदार की शर्त की ना ही पैकिंग खोल कर चैक ही करवायेगा और ना ही कोई गारंटी होगी......कहने लगा कि हमें तो कंपनी से जाते आते हैं वैसे ही हम आगे बेच देते हैं, हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं। फिर उस ने बताया कि जो बच्चे ठीक से हैंडल नहीं कर पाते, उन के बे-ब्लेड झट से खराब हो जाते हैं......और ये फिर रिपेयर नहीं हो पाते...उस ने इतना कहते हुये पास ही पड़े खराब बे-ब्लेड़ो का ढेर दिखा दिया। लेकिन फिर भी रिस्क लेते हुये हम एक बे-ब्लेड खरीद ही लाये।

अभी दो-तीन दिन हुये थे कि कोई और डिजाइन बेटे के दोस्तों के पास आ गया.....तो फिर वैसा ही डिजाइन लुधियाना से मंगवाना पड़ा। बस, देखते ही देखते घर में कईं तरह के बे-ब्लेड दिखने लग गये। इन बे-ब्लेड़ों की शुरूआत हुई एक टीवी प्रोग्राम से ही थी, लेकिन हमें ही इतनी बार सिर मुंडवा कर पता चला कि यार, यह भी एक लट्टू ही तो है.......बस, उसे ज़मीन पर छोड़ने का मकैनिज़्म ही तो अलग है......पहले डोरी से यह काम हो जाता है और यहां से काम एक प्लास्टिक की लंबी सी पत्ती से हुया करता था। लेकिन यकीन मानिये जो रोमांच बचपन में दिखने वाले उस लट्टू का था, वह तो भई अलग ही था।

हम हिंदोस्तानियों के इतनी सफाई से नकल करने के हुनर को सलाम......कुछ ही महीनों में ये बे-ब्लेड पहले पचास-साठ रूपये में और फिर कुछ ही समय के बाद बीस-बीस, तीस तीस रूपये में बिकने लग गये। घर में जगह जगह बे-ब्लेड दिखने लग गये.....बच्चों में क्लबों, पार्टियों में इन के बारे में चर्चा होने लगी कि यार, तेरे पास कितने हैं, तेरे पास क्या वह लाइट-वाला है या नहीं !!

बस, पता नहीं कुछ ही महीनों में फिर से इन बच्चों को कभी बे-ब्लेड़ों का नाम लेते देखा नहीं..........अब तो पता नहीं कि ये धीरे धीरे मार्कीट से ही गायब हो गये हैं या अपने बच्चे ही बड़े हो गये हैं।

लेकिन मेरे छोटे बेटे के पास बहुत साल पुराना एक लकड़ी का लट्टू पड़ा हुया है जिस को मैंने भी खूब चलाया है...........नहीं, साहब, नहीं, यह डोरी वाला नहीं है.......डोरी वाला तो कईं वर्षों से दिखा ही नहीं है और डोरी वाला लट्टू इस जन्म में तो मेरे से चलने से रहा। यह लकड़ी का खूबसूरत-सा लट्टू तो हाथ से घुमा कर चलाने वाला है जिसे मैं कईं साल पहले घुमा कर उस के नर्म-नर्म पेट पर छोड़ दिया करता था जिससे उसे बहुत मज़ा आता था। और उस की किलकारियां सुन कर मुझे उस से भी ज़्यादा मज़ा आता था...................सचमुच, अपनी बड़ी बड़ी खुशियां भी कितनी छोटी छोटी बातों में छिपी बैठी हैं !!.....क्या आप को ऐसा नहीं लगता, दोस्तो !!

क्या करें नए रचनाकार....

नए लेखकों को क्या करना चाहिए ?...इस प्रश्न का उत्तर दे रहे हैं प्रख्यात लेखक मुद्राराक्षस। ......दोस्तो, मैंने यह जबरदस्त लेख तीन साल पहले एक अखबार में पढ़ा था, इस ने मुझे इतना कुछ कह दिया कि मैंने इस की कतरन अपनी नोटबुक में लगा रखी है। आज अपने स्टडी-रूम की सफाई करते करते जब इस कापी के ऊपर नज़र पड़ी तो सोचा कि यार, यह तो आप सब से शेयर करने वाली क्लिपिंग है। सो, इस को जैसे का तैसे ही लिख रहा हूं।
युवा रचनाकारों को कोई सलाह दे पाना मुश्किल काम है। लगभग 54 बरस हो गए हैं लिखते और छपते लेकिन हर नई चीज़ के लिए कलम उठाने से पहले गहरी उलझन होती है कि वह लिखने के लिए मेरे पास पूरी तैयारी नहीं है।
सार्त्र ने आत्मकथा में लिखा था कि लेखन एक बंदूक होता है। बंदूक सिर्फ उसका घोड़ा दबाने से ही काम नहीं करती । उससे निशाना लेने के लिए लंबे और श्रमसाध्य अभ्यास की जरूरत होती है। फिर बंदूक चलने पर निशाना ही नहीं लगाती, वह चलाने वाले को भी भरपूर धक्का देती है।
कुछ निशानेबाजी तो सिर्फ कौशल के लिए होती है और कुछ कारगर। लेखन भी बहुत कुछ ऐसी ही चीज़ है।
युवा लेखक को सलाह इसलिए भी मुश्किल काम है कि हर लेखक नई दुनिया खोजता है। उसे कौन बता सकता है कि तुम अमुक को खोजो क्योंकि जिस अमुक की सलाहें दी जाएंगी वह तो सलाह देने वाले की खोज है। क्या निराला को किसी ने बताया था कि तुम ऐसी कविता लिखो? आइन्सटाइन को किसने बताया था कि वे क्वाण्टम फिजिक्स का नया इतिहास रचें बल्कि उनके अध्यापक तो उनके काम से गहरी असहमति जताते थे। नए लेखक को एक घबराहट ज़रूर होती है कि उसकी रचना अक्सर छप नहीं पाती या संपादक अस्वीकार कर देता है। कुछ लेखकों को संयोग से यह कभी नहीं झेलना पड़ता लेकिन ऐसा कुछ झेला तो भवभूति जैसे शिखर के संस्कृत नाटककार ने भी , तभी उसने लिखा था कि धरती बहुत बड़ी है और समय निरवधि है, कभी तो लोग पहचानेंगे। और वे पहचाने गए।
निराला का विरोध भी हुआ और उनकी रचनाएं अस्वीकृत भी हुईं....तभी उन्होंने लिखा था ....एक संपादकगण निरानंद, वापस कर देते पढ़ सत्वर, दे एक पंक्ति दो में उत्तर। मुक्तिबोध तो बड़े उदाहरण हैं कि उनकी कोई कविता या निबंध की किताब उनके जीवनकाल में नहीं छपी थी। कभी-कभी किसी तेजस्वी लेखक के साथ यह भी होता है। इसके लिए भी लेखक को तैयार रहना चाहिए।
एक विनम्र सुझाव देना चाहूंगा...किसी भी रचना को लिखने से पहले व्यापक अध्ययन ज़रूरी होता है। अपने समय का ओर अपने इतिहास में जो कुछ लिखा गया वह गंभीरता से पढ़ना चाहिए। दुनिया में क्या लिखा गया, इसका भी बोध होना चाहिय, तभी पता लग सकता है कि कितना और कैसा क्या कुछ लिखा गया है। तभी यह भी पता लगता है कि जो कुछ लिखा जा चुका है उससे अलग और बेहतर कुछ कैसे लिखा जा सकता है।
PS…..मुझे लेखक मुद्राराक्षस जी की सभी बातें बहुत भा गई। हिंदी चिट्ठाकारी में बहुत से साहित्यकार हैं...अगर मुद्राराक्षस जी के लेखन एवं जीवन के बारे में बतलाने का कष्ट करेंगे तो अच्छा लगेगा।
देखिये , आज एक बार फिर इस पोस्ट को लिखने के चक्कर में मेरा स्टड़ी-रूम साफ होते होते रह गया। ....पता नहीं इस कबाड़खाने की किस्मत कब खुलेगी.....दोस्तो, यह रूम इतना ज़्यादा अव्यवस्थित है कि मुझे यहां बैठ कर कुछ लिखे पढ़े महीनों बीत जाते हैं।

शनिवार, 31 मई 2008

आज है विश्व तंबाकू निषेध दिवस....मुझे कौन बतायेगा ये आंकड़े !!


आज सुबह अखबार में एक इश्तिहार देखा है जिस का शीर्षक है....तंबाकू मुक्त युवा। इस के नीचे विभिन्न प्रकार के कानूनों की लिस्ट दी गई थी, जिन को मैं यहां बतलाना ज़रूरी समझता हूं।

तंबाकू बेचने वाली कोई भी दुकान/प्रतिष्ठान को “ अठारह साल से कम आयु वाले व्यक्ति को तंबाकू बेचना एक दंडनीय अपराध है” का चेतावनी बोर्ड अवश्य प्रदर्शित/लगाना होगा। संदेह होने की सूरत में, दुकानदार से आयु का पता लगाने के लिए आयु प्रमाण की मांग कर सकता है।यह पढ़ कर मुझे बहुत हंसी आई। मैं तो केवल इतना पूछना चाह रहा हूं कि क्या कोई मुझे इस से संबंधित आंकड़े बताने का कष्ट करेगा कि इस कानून के अंतर्गत अभी तक देश में कितने बीड़ी-सिगरेट वालों को बुक किया गया है। मुझे ये आंकड़े जानने की बेहद उत्सुकता हो रही है। क्या आप इस संबंध में मेरी मदद कर सकते हैं ? फिलहाल तो अगर किसी पनवाड़ी को भी इस कानून का उल्लंघन करने के लिये इस के अंतर्गत अभी तक नहीं लपेटा गया है तो इस का मतलब तो यही हुया ना कि सारे देश में सभी बीड़ी-सिगरेट वाले इस का सख्ती से पालन कर रहे हैं....लेकिन इस बात को पचाने के लिये मुझे आप को मुझे हाजमोला की दो डिब्बीयां पार्सल करनी होंगी।

दूसरी पंक्ति भी क्या पेट दर्द से बिलख रहे किसी रोते हुये बालक को भी को खिलखिला कर हंसाने में क्या कम है....संदेह होने पर दुकानदार आयु का प्रमाण-पत्र मांग सकता है। चलिये शुक्र है कानून में यह तो नहीं कहा गया कि यह प्रमाण-पत्र दुकानदारों को अगले पांच वर्ष तक संभाल कर रखने होंगे.....इन की कभी भी इलाके का दारोगा जांच कर सकता है। लेकिन दुकानदार को भी इस तरह की शक्तियां दी गईं हैं...शायद उसे इस बात का अभी तक आभास नहीं है, नहीं तो दुकानदार ने अभी तक इस तरह के प्रमाण के आभाव में ज़्यादा मोल लेकर बीड़ी-सिगरेट बेचनी शुरू कर दी होतीं। लेकिन यह पता नहीं कि रोज़ाना इस तरह के उत्पाद खरीदने वाले कैसे इस तरह के उम्र के प्रूफ़ को हमेशा अपने साथ ले कर चलेंगे। तो, आप ही कुछ सुझाव दे दीजिये।

दूसरा नियम कह रहा था ....शैक्षणिक संस्थानों को भी शैक्षणिक संस्थान से सौ गज की परिधि के भीतर क्षेत्र में सिगरेट और अन्य तंबाकू वस्तुओं की बिक्री करना निषेध है तथा एक अपराध है ”..लिखित चेतावनी बोर्ड अवश्य प्रदर्शित/ लगाना होगा।
इस के बारे में काश मुझे कहीं से आंकड़े मिल जायें कि इस नियम के उल्लंघन के लिये कितने लोगों को अब तक इस अपराध के अंतर्गत पकड़ा गया है।

किसी भी सार्वजनिक स्थल में सिगरेट/बीड़ी पीना अथवा किसी भी रूप में तंबाकू का प्रयोग करना अपराध है।अब इस के बारे में मैं क्या कहूं....आप मुझ से ज़्यादा इन सार्वजनिक स्थलों पर घूमते हैं....तो इन जगहों पर धूम्रपान की क्या हालत है, यह तो आप ही बता सकते हैं। मैं तो भई हास्पीटल से घर लौटने के बाद बस घर में ही टिका रहता हूं !!

सभी चेतावनी बोर्डों का न्यूनतम आकार 30X60सैं.मी. होना चाहिए। चेतावनी बोर्ड पर निर्धारित भाषा में किसी भी प्रकार का परिवर्तन करना अपराध माना जाएगा। सभी सार्वजनिक कार्यालयों/क्षेत्रों/ होटलों/ रेस्टोरेंटों को “धूम्रपान निषेध क्षेत्र –यहां पर धूम्रपान करना अपराध है ” लिखित दो बोर्ड प्रदर्शित/लगाने होंगे।इतना कुछ पढ़ने के बाद भी क्या मेरे कुछ कहने की गुंजाइश बचती है क्या !! …पता नहीं मुझे इस तरह के बोर्ड अकसर क्यों नहीं दिखते...लगता है कि आंखें फिर से टैस्ट करवा ही लूं।

कोई भी व्यक्ति किसी भी तंबाकू उत्पादन या ब्रांड का विज्ञापन अथवा किसी भी प्रत्य़क्ष या अप्रत्यक्ष विज्ञापन में भाग नहीं ले सकता है। उल्लंघन करने वाले व्यक्ति को 5 वर्ष तक सजा हो सकती है।इस के बारे में तो बस इतना ही जानना चाहता हूं कि जब से यह कानून बना है इस नें कितने उल्लंघन करने वालों को अपनी चपेट में लिया है। ठीक है, अगर किसी को भी सजा नहीं हुई है तो सीधा सीधा मतलब यही हुया ना कि अभी तक किसी भी बंदे ने इस कानून का उल्लंघन नहीं किया है। वाह..भई ...वाह....यह जान कर तो बहुत ही खुशी होगी।

इतने सारे कानूनों की जानकारी के बाद सार्वजनिक स्थल/जगह की परिभाषा दी गई थी....सात-आठ वाक्यों की इस परिभाषा को सुना कर मैं आप को उलझाना नहीं चाहता हूं।
तो, आगे चलते हैं....यह उस अखबार में दिखे इश्तिहार का आखिरी पैराग्राफ है जिस का शीर्षक है....कहां पर व्यक्ति धूम्रपान कर सकता है ?.......सात-आठ पंक्तियां इस के बारे में भी लिखी गई हैं...और सब से आखिरी पंक्ति में लिखा गया है....मगर खुले क्षेत्र में सिगरेट का टुकड़ा फेंकना या तंबाकू थूकना अपराध है।
( आप भी मेरी तरह इसी सोच में पड़ गये कि अगर सिगरेट के टुकड़े फेंकना और तंबाकू थूकना अपराध है तो हर शहर में हज़ारों जेलें चाहियें जहां पर इन अपराधियों को कैदे-बा-मुशक्कत की सजा दे कर बंद किया जा सका। अगर वे भी कम पड़ जायें तो इस अपराध के लिये हाउस-अरैस्ट की व्यवस्था शुरू कर दी जाये.....)।

आज विश्व स्वास्थ्य दिवस पर एक बहुत अजीब सी बात और भी दिखी ....एक इंश्योरैंस कंपनी का इन्वैस्टमैंट फार्म भर रहा था तो नीचे एक क्लाज़ पर नज़र अटक गई.......
मैं घोषणा करता हूं कि मैंने पिछले 12 महीनों में तंबाकू का किसी भी रूप में सेवन नहीं किया है.....( धूम्रपान, तंबाकू चबाना आदि के रूप में) ...और भविष्य में भी तंबाकू का इस्तेमाल करने की कोई चाह नहीं रखता हूं। मैं जानता हूं कि अगर मेरी यह तंबाकू वाली घोषणा गलत निकलती है तो मेरा कंपनी के साथ किया गया करार निरस्त हो जायेगा और मेरा इंश्योरेंस कवर खत्म कर दिया जायेगा ”

अच्छा चलिये पोस्ट समाप्त करने से पहले एक विज्ञापन की याद दिलाता हूं....आप को याद है सर्फ वगैरा की किसी एड में दो छोटे छोटे प्यारे से बच्चे दिखते हैं.....जो कीचड़ से अपने कपड़े खराब करते हुये खूब मस्ती करते हैं और बाद में हंसते हुये कहते हैं.........दाग अच्छे हैं!!
तो , उसी तर्ज़ पर मुझे भी तंबाकू के लिये विभिन्न कानूनों को याद करते हुये एक ही बात कहने की इच्छा हो रही है ......कानून अच्छे हैं, लेकिन..................??

शुक्रवार, 30 मई 2008

आज तो ठंडी आइसक्रीम हो ही जाये !


आज के लेख के इस शीर्षक का राज़ यह है कि अगर हम ठंडी आइसक्रीम की बात छेड़ते हैं तो बहुत से बंधु अपने दांतों में इस आइसक्रीम की वजह से उठी सिहरन का दुःखडा लेकर बैठ जायेंगे और मेरे को दांतों में ठंडे-गर्म वाले टॉपिक को छेड़ने का बहाना मिल जायेगा।

कल मैंने दांतों के स्वास्थ्य के बारे में एक पोस्ट लिखी थी जिस पर मुझे तो तीन-चार ऐसी टिप्पणी प्राप्त हुईं हैं, जिन पर मैं अलग से एक-एक पोस्ट लिखूंगा। एक टिप्पणी में यह चिंता जताई गई है कि क्वालीफाईड डैंटिस्ट भी असकर ग्लवज़ नहीं पहनते, मास्क नहीं लगाते इत्यादि.......इस के बारे में मैं जो पोस्ट लिखूंगा वह मेरी अपनी ही आपबीती पर आधारित होगी और रोंगटे खड़े करने वाली होगी.....शास्त्री जी से मेरा अनुरोध है कि जहां कहीं भी क्वालीफाईड डैंटिस्ट को बिना ग्लवज़ के देखें तो उन्हें मेरी उस पोस्ट की एक कापी थमा दें, वे ग्लवज़ पहनना शुरू कर देंगे। दूसरी टिप्पणी थी कि टुथपेस्ट कौन सी करें..कौन सी ना करें...बड़ी दुविधा सी रहती है, सो मैं इस का भी समाधान एक पोस्ट में करूंगा। एक टिप्पणी में यह चिंता जताई गई है कि यह जो सिल्वर दांतों में भरी जाती है उस से पारा निकलता रहता है जो हमारे शरीर के लिये क्या खतरनाक है....यह विषय भी इतना अहम् है कि इस पर एक पोस्ट लिखने के बगैर बात बनेगी नहीं।

आज तो मैंने दांतो पर ठंडा-गर्म लगने के बारे में बात करने का विचार किया है। शायद मैंने पहले भी बताया था कि एनसीईआरटी के पास मेरी एक किताब की पांडुलिपि पड़ी हुई है.....सो, पहले तो ध्यान आया कि उस में से ही दांतों के ठंडे-गर्म वाला अध्याय यहां इस पोस्ट में चेप देता हूं....लेकिन मन माना नहीं। यही सोचा कि यार वो पांडुलिपि को तो लिखे दो साल से भी ज़्यादा का समय हो गया है...और वैसे भी इधर ब्लागिंग पर तो बेहद खुलेपन से लिखना होता , लिखना क्या.....अपने बंधुओं से बातें ही करनी होती हैं, तो यहां तो सब कुछ ताज़ा तरीन ही चलता है।

तो चलिये दांतों में लगने वाले ठंडे-गर्म की बात करते हैं। यकीन मानियेगा कि यह दांतों की एक इतनी आम समस्या है कि इस की वजह से दवाईयों से युक्त टुथपेस्टों के कईं विक्रेताओं की जीविका जुड़ी हुई है।

वैसे मुझे याद आ रहा है कि बचपन में जब हम लोग इमली खाते थे ( जी हां, नमक के साथ!)…तो दांत बहुत किटकिटाने से लग जाते थे। और हां, स्कूल में जो कागज़ के टुकड़े पर पांच-दस पैसे का बेहद खट्टा चूर्ण बिकता था, उसे खाने के बाद भी तो दांतों का कुछ ऐसा ही हाल हुया करता था। लेकिन तब हमें इन सब बातों की परवाह कहां थी.....दोपहर तक घर आते आते दांत तो ठीक लगने लगते थे लेकिन गला बैठने लगता था ......लेकिन गले बैठने का भी इतना दुःख नहीं होता था जितना इस बात का डर लगता था कि एक बार फिर पापा ने हमारे चूर्ण खाने वाली चोरी पकड़ लेनी है....क्योंकि अगली सुबह तक गला बंद हो जाया करता था , बुखार हो जाया करता था और थूक निगलने में बेहद तकलीफ। पता नहीं उस चूर्ण में क्या डाला गया होता था।

लेकिन वापिस अपने टॉपिक पर ही आते हैं.....तो क्या आप को भी कईं बार आइसक्रीम खाते खाते अचानक दांतों पर बहुत ठंड़ी सी लगी है........क्या कहा....हां..............कोई बात नहीं, इस में कोई बड़ी बात नहीं है, यह तकलीफ़ अकसर सभी को कभी-कभार होती ही है ।

मुझे लग रहा है कि सब से पहले मुझे इस ठंडा-गर्म लगने के कारण की तरफ बात को लेकर जाना होगा। तो, सुनिये होता यह है कि दांतों के क्राउन ( दांत का वह भाग जो हमें मुंह में नज़र आता है ) की तीन परतें होती हैं.....( वैसे होती तो दांत की जड़ की भी तीन परते ही हैं...लेकिन यहां हम खास बात दांत के ऊपरी हिस्से की ही कर रहे हैं ).....हां, तो क्राउन का बाहर वाला हिस्सा होता है इनेमल....उस के अंदर का भाग जो संवेदनशील होता है उसे डैंटीन कहते हैं और उस के अंदर दांत की नस व रक्त की नाड़ियां होती हैं.....तो होता यूं है कि अगर किसी भी कारण वश क्राउन की बाहरी परत इनैमल क्षतिग्रस्त हो जाती है ...घिस जाती है (उसके क्या कारण हो सकते हैं, इन्हें हम अभी देखते हैं).....तो जो कुछ हम खाते हैं....ठंडा, मीठा, खट्टा आदि ......ये पदार्थ दांत की दूसरी परत के संपर्क में आने की वजह से एक सिहरन सी पैदा करते हैं....यह तो हुई बेसिक सी बात।

अब देखते हैं कि वे कारण कौन से हैं जिस की वजह से दांतों के बाहर की इतनी मजबूत परत इनैमल घिस जाती है.....कट जाती है....क्षतिग्रस्त हो जाती है.......

दांतों को ब्रुश करने में और बूट-पालिश करने में कुछ तो अंतर होगा !..........

दांतों की बाहरी परत इनैमल के क्षतिग्रस्त होने का सब से महत्वपूर्ण कारण यही है कि अकसर लोग ब्रुश एवं दातुन को गलत ढंग से दांतों पर रगड़ते हैं जिस की वजह से यह इनैमल की परत नष्ट हो जाती है और एक बार यह कट जाये और ऊपर से टुथ-ब्रशिंग की शू-शाईन वाली गलत टैक्नीक लगातार चलती रहे ..तो फिर यह इनैमल का कटाव चलता ही रहता है जब तक कि यह कटाव इतना ही न हो जाये कि अंदर से दांत की नस ही एक्सपोज़ हो जाये.....यह बहुत दर्दनाक स्थिति होती है।

तो, इस तरह की स्थिति का इलाज यही है कि अगर दांतों में ठंडा गर्म लग रहा है तो तुरंत दंत-चिकित्सक को मिलिये.......ताकि आप को सही ढँग से ब्रुश करने की बातें भी पता चलें और जो दांतों पर इनैमल का कटाव हो चुका है उस का भी उचित फिलिंग के द्वारा इलाज किया जा सके।

यहां यह बात समझनी बहुत ज़रूरी है कि केवल फिलिंग ही इस का समाधान नहीं है क्योंकि अगर ब्रुश इस्तेमाल करने का अपना ढंग न ठीक किया गया तो यह कटाव वापिस हो जाता है...फिलिंग कोई इनैमल से ज़्यादा मजबूत थोड़े ही होती है।

खुरदरे मंजन भी इनैमल को घिसा देते हैं.........

बहुत से मंजन लोग बाज़ार से लेकर दांतों पर घिसने चालू कर देते हैं जिस की वजह से इनैमल घिस जाता है क्योंकि इस में खुरदरे तत्व मिले रहते हैं और कईं पावडरों में तो गेरू-मिट्टी मिली रहती है जिस की वजह से दांतों का घिसना तय ही है।

तो अगर दांतों में ठंडा-गर्म इस खुरदरे मंजन की वजह से है तो मरीज को तुरंत उस मंजन का इस्तेमाल करने की सलाह दी जाती है और साथ में यह भी ज़रूर याद दिलाया जाता है कि आप ने तो उस मंजन को इस्तेमाल करना नहीं , घर के किसी परिवार को भी इस से दांत घिसने से रोकें...............इस से पहले की मेरे मरीज़ अपनी अकल के घोड़े दौड़ाने लगें कि खुद करना नहीं...घर के दूसरे सदस्यों को छूने देना नहीं....तो फिर परसों ही बस-अड्ड़े के बाहर बैठे बाबा भूतनाथ से जो पच्चीस रूपये की 250ग्राम की डिब्बी खरीद कर लाये हैं...उस का क्या करें.............मैं उन्हें तुरंत कह देता हूं कि उसे आप उस के ठीक ठिकाने पर पहुंचा दें........कहां ?.............नाली में, और कहां !!

पायरिया रोग में भी यह ठंडा-गर्म तंग करता है ......

जिन लोगों को पायरिया की वजह से यह दांतों में ठंडा-गर्म लगने की शिकायत होती है, ये लोग अकसर किसी डैंटिस्ट के पास जाने की बजाये बाज़ार से महंगी महंगी पेस्टें खरीद कर दांतों पर लगानी शुरू कर देते हैं.....लेकिन उस का रिजल्ट ज़ीरो ही निकलता है......ज़ीरो से भी आगे माइनस में ही निकलता है क्योंकि ये पेस्टें इन के इन लक्षणों को बहुत टैंपरेरी तौर पर दबा देती हैं ....और नीचे ही नीचे पायरिया की बीमारी बढ़ती ही जाती है । लेकिन अगर कोई डैंटिस्ट आप को इस तरह की दवाई-युक्त पेस्ट कुछ समय के लिये इस्तेमाल करने की सलाह देता है तो उसे आप अवश्य इस्तेमाल करें।

तो, पायरिया के रोग के लिये तो डैंटिस्ट से मिल कर इस का समाधान ढूंढना ही होगा, वरना इन महंगी ठंडे-गर्म वाली पेस्टों के चक्कर में पड़ कर अपना टाईम खराब करने वाली बात तो है ही....साथ में रोग को बढ़ावा भी मिलता है।

इस लेख में बातें तो बहुत ही विस्तार में की जा सकती हैं लेकिन इस की भी अपनी लिमिटेशन्ज़ हैं.....तो सारांश में इतना ही कहता हूं कि दांतों में ठंडे-गर्म को लगने को कभी भी इतना लाइटली न लें क्योंकि इस के परिणाम गंभीर हो सकते हैं जैसा कि हम ने अभी अभी देखा है। क्योंकि इस के बीसियों कारण हैं...जब कोई क्वालीफाईड डैंटिस्ट आप की हिस्ट्री ले रहा होता है तो वह ये सब बातें नोट करता रहता है कि यह समस्या किसी एक विशेष दांत में है या मुंह के एक तरफ ही है या मुंह के दोनों तरफ ही है या सभी दांतों में एक साथ ही होती है................और फिर वह दांतों का क्लीनिकल परीक्षण कर के और कभी कभी एक्स-रे करने के बाद ही सही डायग्नोसिस कर पाता है और उस के अनुसार ही समाधान बताता है। तो, इस तरह की समस्या अगर हो तो, अपने आप महंगी पेस्टें जो ठंडा-गर्म ठीक करने का दावा करती नहीं थकतीं.....इस्तेमाल मत करिये ....इस से कुछ नहीं होगा......केवल आप को एक सुरक्षा का गल्त सा अहसास होने के कारण आप का दुःख बढ़ जायेगा.....आप तो बस केवल डैंटिस्ट से तुरंत मिल लीजिये। वैसे उस से भी पहले अगर आप मेरे को ई-मेल करके अपनी किसी भी शंका का समाधान करना चाहें तो आप का स्वागत है।

एक बात और भी कहनी बहुत ज़रूरी है कि अकसर लोग अपने दांतों की स्केलिंग इसी डर की वजह से नहीं करवाते कि इस के बाद उन्हें दांतों पर ठंडा-गर्म लगना शुरू हो जायेगा....लेकिन यह एक गलत धारणा है ....हो सकता है कि कुछ दिनों तक बिलकुल टैंपरेरी तौर पर आप को थोड़ी असुविधा हो, लेकिन उस का भी समाधान डैंटिस्ट आप को बता ही देते हैं।

मुझे लगता है कि मैंने इतनी लंबी पोस्ट लिख कर भी इस ठंडे-गर्म की समस्या के मुख्य बिंदुओं को ही छुया है , लेकिन अगर आप किसी बिंदु पर विस्तृत बातें सुनना चाहें तो मुझे टिप्पणी में ज़रूर कहिये।

जाते जाते सोच रहा हूं कि अपनी पोस्टों में मुझे क्लीनिकल फोटो भी डालनी चाहिये....सो, फिलहाल इस का कारण यही है कि मैं फोटोग्राफी में टैक्नीकली इतना साउंड नहीं हूं......आज सुबह भी हास्पीटल में अपना डिजीटल कैमरा साथ ही ले गया ....एक मरीज़ को बिलकुल क्षतिग्रस्त दांत उखाड़ने से पहले फोटो लेने की कोशिश की ...क्लिक भी किया....लेकिन स्क्रीन पर आ गया....मैमरी फुल.....सो, चुपचाप कैमरे को कवर में यह सोच कर डाल लिया कि अब इस के बारे में जानकारी बेटे से हासिल करनी ही होगी.............लेकिन कब?..................जब उसे इस IPL के मैचों से फुर्सत मिलेगी, तब !!

गुरुवार, 29 मई 2008

दांतों का इलाज करवाते करवाते कहीं लेने के देने ही न पड़ जायें !!


इस लेख की शुरूआत तो यहीं से करना चाहूंगा कि अगर आप अपने और अपनों के दांतों की सलामती चाहते हैं ना तो कृपया आप कभी भी ये नीम-हकीम टाइप के दंत-चिकित्सकों के ज़ाल में भूल कर भी न पड़ियेगा। नीम-हकीम टाइप के दंत-चिकित्सकों का नाम सुन कर आप नाक-भौंह इसलिये तो नहीं सिकोड़ रहे कि अब हमें यह भी किसी से सीखना होगा कि नीम-हकीम टाइप के दंत-चिकित्सकों के पास नहीं जाना है....इन झोला-छाप दंत-चिकित्सकों का क्या है, इन का तो बहुत दूर से ही पता चल जाता है....क्योंकि ये अकसर बस-अड्डों एवं पुलों आदि पर ज़मीन पर अपनी दुकान लगाये हुये मिल जाते हैं या तो अजीब से खोखे से अपने हुनर की करामात दिखाते रहते हैं।

हमारे देश में समस्या यही है कि इतने सारे कानून होने के बावजूद भी बहुत से जैसे नीम-हकीम डाक्टर फल-फूल रहे हैं। नहीं, नहीं, मुझे कोई ईर्ष्या वगैरह इन से नहीं है.....और इस का कोई कारण भी तो नहीं है। अकसर आप में से कईं लोग ऐसे होंगे जो दंत-चिकित्सक की डिग्री की तरफ़ ज़्यादा गौर नहीं फरमाते.....बस, बोर्ड पर दंत-चिकित्सक लिखा होना ही काफी समझ लेते हैं। और हां, बस अपने परिवार के किसी बड़े-बुजुर्ग द्वारा की गई उस दंत-चिकित्सक की तारीफ़ उन के लिये काफी है- इन डिग्रीयों-विग्रियों की बिल्कुल भी परवाह न करने के लिये।

शायद आप में से भी कईं लोग अभी भी ऐसे होंगे जो ये सोच रहे होंगे कि देखो, डाक्टर, हम ज़्यादा बातें तो जानते नहीं ....हमें तो देख भाई इतना पता है कि अपने वाला खानदानी दंत-चिकित्सक दांत इतना बढ़िया निकालता है कि क्या कहें.....ऊपर से जुबान का इतना मीठा है कि हम तो भई उस को छोड़ कर किसी दूसरे के पास जाने की सोच भी नहीं सकते। और इस के साथ साथ महंगी महंगा दवाईयां बाज़ार से भी खरीदने का कोई झंझट ही नहीं, सब कुछ अपने पास से ही दे देता है......और इतना सब कुछ करने का लेता भी कितना है......डाक्टर चोपड़ा, तुम सुनोगे तो हंसोगे..... केवल तीस रूपये !!

आप की इतनी बात सुन कर भी मेरे को बस इतना ही कहना है कि जो भी हो, आप किसी भी डाक्टर के पास जायें तो यह ज़रूर ध्यान रखा करें कि वह क्वालीफाइड हो....उस की डिग्री-विग्री की तरफ़ ध्यान अवश्य दे दिया करें....और यह भी ज़रा उस के पैड इत्यादि पर देख लिया करें कि क्या वह भारतीय दंत परिषद के साथ अथवा किसी राज्य की दंत-परिषद के साथ रजिस्टर्ड भी है अथवा नहीं।

मेरा इतन लंबी रामायण पढ़ने के पीछे एक ही मकसद है कि मैं रोज़ाना बहुत से मरीज़ देखता हूं जिन के दांतों की दुर्गति के लिये ये नीम-हकीम दंत-चिकित्सक ही जिम्मेदार होते हैं। पता नहीं पिछले दो-तीन से इच्छा हो रही थी कि आप से इस के बारे में थोड़ी चर्चा करूं कि आखिर ये नीम-हकीम दंत-चिकित्सक कैसे आप की सेहत के साथ खिलवाड़ कर सकते हैं......

साफ़-सफाई को तो भूल ही जायें...........

इन के यहां किसी भी तरह की औज़ारों इत्यादि की सफाई का ध्यान नहीं रखा जाता। मुझे पता नहीं यह सब इतने सालों से कैसे चला आ रहा है। कम से कम आज की तारीख में तो एचआईव्ही एवं हैपेटाइटिस बी जैसी खतरनाक बीमारियों की वजह से तो इन के पास जा कर दांतों का इलाज करवाना अपने पैर पर कुल्हाडी ही नहीं, कईं कईं कुल्हाडे इक्ट्ठे मारने के समान है। पहले लोगों में इतनी अवेयरनैस थी नहीं ....बीमारियों तो तब भी इन के पास जाने से इन के दूषित औज़ारों से फैलती ही होंगी....लेकिन लोग समझते नहीं थे कि इन बीमारियों का स्रोत इन नीम-हकीम डाक्टरों की दुकाने( दुकानें ही करते हैं ये !)….ही हैं।

पता नहीं किस तरह की सूईंयों का, टीकों का , दवाईयों का इस्तेमाल ये भलेमानुष करते हैं ...कोई पता नहीं।

लिखते लिखते मुझे यह बात याद आ रही है कि कहीं आप यह तो नहीं समझ रहे कि ये झोला-छाप दंत-चिकित्सकों की समस्या कहीं और की ही होगी.....अपने शहर में तो ऐसी कोई बात नहीं है। यकीन मानिये , यह आप की खुशफहमी हो सकती है......देखिये मुझे भी यह बात हज़म सी नहीं हुई ....खट्टी डकारें आने लगी हैं।

मुझे याद है जब हम लोग अपने ननिहाल जाया करते थे तो अकसर मेरी नानी जी ऐसे ही नीम-हकीम डाक्टर बनारसी की बहुत तारीफ़ किया करती थी.....बनारसी आरएमपी भी था और दांत-वांत भी उखाड़ दिया करता था। नानी सुनाया करती थीं कि पता नहीं दांत पर क्या छिड़कता है कि दांत अपने आप तुरंत बाहर आने को हो जाता है। बाद में जब हम लोग नीम-हकीमों के इन पैंतरों को जान रहे थे तो यह जाना कि यह पावडर आरसैनिक जैसा हुया करता होगा.....जिस के परिणाम-स्वरूप मुंह में कैंसर के भी बहुत केस होते थे।

दांत को गलत तरीके से भरना---

एक करामात ये झोला-छाप डैंटिस्ट यह भी करते हैं कि जिन दांतों को नहीं भी भरना होता, उन को भी ये भर देते हैं.....इन्हें केवल अपने पचास-साठ रूपये से मतलब होता है....भाड़ में जाये मरीज़ और भाड़ में जायें उन के दांत...। वैसे इस के लिये मरीज़ स्वयं जिम्मेदार है...क्योंकि जब कोई क्वालीफाइड दंत-चिकित्सक इन को पूरी ट्रीटमैंट-प्लानिंग समझाता है तो ये कईं कारणों की वजह से दोबारा उस के क्लीनिक का मुंह नहीं करते ( वैसे इन कारणों के बारे में भी कईं पोस्टों लिखी जा सकती हैं। ).....और फंस जाते हैं इन नीम-हकीम के चक्करों में।

और दूसरी बात यह भी देखिये कि ये नीम-हकीम लांग-टर्म इलाज के बारे में तो सोचते नहीं हैं.....वैसे मरीज़ों की भी तो यादाश्त कुछ ज़्यादा बढ़िया होती नहीं....अगर इस तरह के गलत तरीके से भरे हुये दांत दो-तीन महीने भी चल जायें...तो अकसर मैंने लोगों को कहते सुना है कि क्या फर्क पड़ता है...पचास रूपये में तीन महीने निकल गये.....डाक्टर ने तो भई पूरी कोशिश की...इस के आगे वह करे भी तो क्या........। इस तरह की सोच रखने वाले मरीज़ों के लिये मेरे पास कहने को कुछ नहीं है। लेकिन इतना ज़रूर कहना चाहूंगा कि दो-तीन महीने तो निकल गये...लेकिन इस गलत फिलिंग ने आस-पास के स्वस्थ दांतों की सेहत पर क्या कहर बरपाया...........यह मरीज़ों को कभी पता लग ही नहीं सकता ।

मेरी मानें तो किसी झोला-छाप दंत-चिकित्सक के पास जाने से तो यही बेहतर होगा कि कोई बंदा अपना इलाज करवाये ही न....यह मैं बहुत सोच समझ कर लिख रहा हूं...क्योंकि देश में बहुत से लोग हैं जो ये कहते हैं कि इन के पास ना जायें तो करें क्या, क्वालीफाईड डाक्टरों के क्लीनिकों पर चढ़ने की हम लोगों में तो भई हिम्मत है नहीं...कहां से लायें ढेरों पैसे.............बात है तो सोचने वाली ....लेकिन फिर भी अगर क्वालीफाइड के पास जाने में किसी भी तरह से असमर्थ हैं तो कम से कम इन नीम-हकीम दांत के डाक्टरों के चक्कर में तो मत फंसिये।

ये कैसे फिक्स दांत हैं भाई...................

अकसर नीम हकीमों के लगाये हुये फिक्स दांत देखता रहता हूं.....बस, बेचारे मरीज़ों की किस्मत ही अच्छी होती होगी......कि मुंह के कैंसर से बाल-बाल बच जाते हैं । कईं बार तो मैं भी जब इन अजीबो-गरीब फिक्स दांतों को मरीज के हित में निकालता हूं तो मुझे भी नहीं पता होता कि यह आस-पास का मास इतना अजीब सा क्यों बढ़ा हुया है......इसलिये मैं इन मरीजों को एक-दो सप्ताह बाद वापिस चैक अप करवाने के लिये ज़रूर बुलाता हूं।

होता यूं है कि ये नीम-हकीम जब कोई नकली दांत फिक्स करते हैं तो इन नकली दांतों की तारों को असली दांतों से बांध कर कुछ अजीब सा मसाला इस तार के ऊपर इस तरह से लगा देते हैं कि मरीज को लगता है कि इस ने तो 200रूपये में मेरे आगे के तीन दांत फिक्स ही लगा दिये ....कहां वह दूसरा डाक्टर 1500 रूपये का खर्च बता रहा था। लेकिन जो वह क्वालीफाईड डाक्टर फिक्स दांत लगाता है और जो यह नीम-हकीम फिक्स दांत लगाता है.....इन दोनों फिक्स दांतों में कम से कम ज़मीन आसमान का तो फर्क होता ही है, इतना फर्क तो कम से कम है....इस से ज्यादा ही होता होगा। ऐसा इसलिये होता है कि क्वालीफाईड डाक्टर ने पूरे पांच साल जो ट्रेनिंग की तपस्या की होती है..उस के ज्यादातर हिस्से में उसे मरीज़ के टिशूज़ की इज़्जत करनी ही सिखाई जाती है.......उसे सिखाया जाता है कि कैसे अपने पास आये हुये मरीज़ को कोई बीमारी साथ में बिना वजह पार्सल कर के नहीं देनी है, उसे उस की सीमायों से रू-ब-रू करवाया जाता है कि इन सीमायों को लांघने पर कौन सी खतरे की घंटियां बजती हैं........वगैरह..वगैरह...वगैरह।

नीम-हकीमों के द्वारा लगाये गये फिक्स दांतो के बारे में तो इतना ही कहूंगा कि ये तो आस पास के असली स्वच्छ दांतों को भी हिला कर ही दम लेते हैं। और तरह तरह के घाव जो मुंह में उत्पन्न करते हैं , वह अलग।

लिखने को तो इतना कुछ है कि क्या कहूं...।लेकिन अब यहीं पर विराम लेता हूं.........मुंह एवं दांतों की बीमारियों के बारे में कुछ 101प्रतिशत सच सुनना चाहते हों....तो मुझे लिखिये............चाहे टिप्पणी में अथवा ई-मेल करें।

रविवार, 25 मई 2008

मिलावटी खाद्य -पदार्थों की जांच कैसे हो पायेगी सुगम !!

आप किसी भी क्षेत्र की तरफ़ नज़र दौड़ा कर देख लीजिये....तरक्की तो खूब हुई है। डेयरी इंडस्ट्री को ही देख लें.....बड़े बड़े संस्थान खुल गये, बहुत से लोग पीएचडी कर के आस्ट्रेलिया में डालरों से खेल रहे हैं, लेकिन जितनी भी रिसर्च हुई है क्या आप को लगता है कि उस का लाभ एक आम भारतीय को भी हुया है। पहले तो वह गवाले की दूध में पानी मिलाने की आदत से ही परेशान था....अब तो उसे पता ही नहीं है कि दूध के रूप में उसे क्या क्या पिलाया जा रहा है।

अभी अभी मैं सिंथैटिक दूध के बारे में नेट पर ही कुछ पढ़ रहा था, तो यकीन मानिये इस का वर्णन पढ़ कर कोई भी कांप उठे। इसीलिये मैं सोच रहा था कि देश में विभिन्न क्षेत्रों में तरक्की तो खूब हुई लेकिन आम आदमी की तो पतली हालत की तरफ ध्यान कीजिये कि उसे यह भी नहीं पता कि वह जिस खाद्य पदार्थ का सेवन कर रहा है वह असली है या नकली ....अगर नकली भी है या मिलावटी भी है तो इस के लिये इस्तेमाल किये जाने वाले ऐसे पदार्थ तो नहीं हैं जिन से उस की जान पर ही बन आये।

अभी मैं जब सिंथैटिक दूध का विवरण पढ़ रहा था तो मुझे उस का वर्णन पढ़ कर यही लगा कि यार हम लोग भी बंबई में ज्यादातर सिंथेटिक दूध ही पीते रहे होंगे...क्योंकि जिस तरह के बड़े बड़े टैंकरों में हमारे दूध वाले के यहां दूध आया करता था और 24घटे दूध उपलब्ध होता था, उस से यही शक पैदा होता है कि इतना खालिस दूध बंबई में अकसर आता कहां से था। लेकिन क्या करें......हम लोगों की बदकिस्मती देखिये कि हम लोग इतना पढ़ लिख कर भी असली और नकली में पहचान ही नहीं कर पाते।

मेरा तो यहां डेयरी वैज्ञानिकों से एवं अन्य विशेषज्ञों से केवल एक ही प्रश्न है कि आप क्यों कुछ ऐसे टैस्ट पब्लिक में पापुलर नहीं करते जिस से वे झट से घर पर ही पता कर सकें कि दूध असली है या सिंथेटिक है....क्योंकि सिंथेटिक दूध पीना तो अपने पैर पर अपने आप कुल्हाडी मारने के बराबर है।

ऐसे ही और भी तरह तरह की वस्तुओं के लिये टैस्ट होने चाहियें जो कि आम पब्लिक को पता होने चाहिये....इस से मिलावट करने वालों के दिमाग में डर बैठेगा.......मैंने कुछ साल पहले इस पर बहुत कुछ पढ़ा लेकिन जो मुझे याद है वह इतना विषम कि उपभोक्ता यही सोच ले कि कौन ये सब टैस्ट करने का झंझट करे....सारी दुनिया खा रही है ना ये सब कुछ....चलो, हम भी खा लें...जो दुनिया के साथ होगा , हमारे साथ भी हो जायेगा। बस, यही कुछ हो रहा है आज हमारे यहां भी।

लोगों में जागरूकता की कमी तो है ही, लेकिन उसे सीधे सादे ढंग से जागरूक करने वाले बुद्धिजीवी तो चले जाते हैं अमेरिका में ......यकीनन बहुत विषम स्थिति है।

छोटे छोटे सवाल हैं जो हमें परेशान करते हैं लेकिन उन का जवाब कभी मिलता नहीं......यह जो आज कल सॉफ्टी पांच-सात रूपये में बिकने लग गई है...इस में कौन सी आइस-क्रीम डाल दी गई है जो इतनी सस्ती बिकने लग गई, इसी तरह से मिलावटी मिठाईयों, नकली मावे का बाज़ार गर्म है। यकीन मानिये दोस्तो पिछले कुछ वर्षों में इतना कुछ देख लिया है, इतना कुछ पढ़ लिया है कि बाज़ार की किसी भी दूध से बनी चीज़ को मुंह लगाने तक की हिम्मत नहीं होती।

अभी यमुनानगर के पास ही एक कसबे में यहां के अधिकारियों ने हलवाईयों की कईं दुकानों पर छापे मारे हैं जो बहुत से शहरों में मिल्क-केक सप्लाई किया करते थे.....लेकिन उन को वहां पर बहुत मात्रा में एक्पायरी डेट का मिल्क-पावडर मिला और साथ ही कंचों की बोरियां भी मिलीं.......पेपर में ऐसा लिखा गया था कि शायद इन कंचों को पीस कर मिल्क केक में डाल कर उस में चमक पैदा की जाती थी। मिल्क में चमक तो पैदा हो गई लेकिन उसे खाने वाले के गुर्दे फेल नहीं होंगे तो क्या होगा, दोस्तो।

स्थिति इतनी विषम है कि बाज़ार में बिक रही किसी भी चीज़ की क्वालिटि के बारे में आप आश्वस्त हो ही नहीं सकते। ऐसे में मेरा अनुरोध सभी विशेषज्ञों से केवल इतना ही है कि अपनी सामाजिक, नैतिक जिम्मेदारी समझते हुये कुछ इस तरह से जनता को सचेत करें कि उन्हे नकली और असली में पता लग जाये, उन्हें पता लग जाये कि यह खाद्य़ पदार्थ खाने योग्य है या नाली में फैंकने योग्य ।

यह सब बहुत ही ज़रूरी है.....हर तरफ़ मिलावट का बोलबाला है, कुछ साधारण से टैस्ट तो होंगे ही हर चीज़ के लिये जिन से यह पता चले कि हम लोग आखिर खा क्या रहे हैं। मेरे विचार में इस तरह की जागरूकता हमारे समाज को मिलावटी वस्तुओं से निजात दिलाने के लिये पहला कदम होगी....क्योंकि जब पब्लिक सवाल पूछने लगती है तो बड़ों बड़ों की छुट्टी हो जाती है।

बाज़ारी दही का भी कोई भरोसा नहीं है, पनीर पता नहीं किस तरह के दूध का बन रहा है.....सीधी सी बात है कि दूध एवं दूध से बने खाध्य पदार्थों की गुणवत्ता की तरफ़ खास ध्यान दिया जाना ज़रूरी है। वैसे तो अब मिलावट से कौन सी चीज़ें बची हैं !!

मैंने एक डेयरी संस्थान के प्रोफैसरों को बहुत पत्र लिखे हैं कि कुछ छोटे छोटे साधारण से टैस्ट जनमानस में लोकप्रिय करिये जिस से उन्हें पता तो लगे कि आखिर वे क्या खा रहे हैं, क्या पी रहे हैं। मुझे याद आ रहा है कि बंबई के वर्ल्ड-ट्रेड सेंट्रल में अकसर कईं तरह की प्रदर्शनियां लगा करती थीं ...वहां पर अकसर एक-दो स्टाल इस तरह के उपभोक्ता जागरूकता मंच की तरफ से भी हुया करते थे......लेकिन अब तो उस तरह के स्टाल भी कहीं दिखते नहीं।

ऐसे में क्या सुबह सुबह घर की चौखट पर जो दूध आता है क्या वही पीते रहें ?....यही सवाल तो मैं आप से पूछ रहा हूं .....तो, अगली बार जब अपने घर में आये हुये दूध को देखें तो उस के बारे में कम से कम यह ज़रूर सोचें कि आखिर इस की क्वालिटी की जांच के लिये आप क्या कर सकते हैं.....नहीं, नहीं, मैं फैट-वैट कंटैंट की बात नहीं कर रहा हूं.....मैं तो बात कर रहा हूं सिंथैटिक दूध में इस्तेमाल की जाने वाले खतरनाक कैमिकल्ज़ की ....जो किसी भी आदमी को बीमार बना कर ही दम लें।

वैसे हम लोग भी कितनी खुशफहमी पाले रखते हैं कि हो न हो, मेरा दूध वाला तो ऐसा वैसा नहीं है.......पिछले बीस सालों से आ रहा है.......लेकिन फिर भी ...प्लीज़ ..एक बार टैस्टिंग वैस्टिंग के बारे में तो सोचियेगा। बहुत ज़रूरी है......मैं नहीं कह रहा है, आये दिन मीडिया की रिपोर्टें ये सब बताती रहती हैं।

वो फुल मस्ती वाले दिन !!

अभी अभी बारिश थमी है...मई के महीने के इन दिनों में बारिश.....सुहाना मौसम....हां,हां, मौसम ने करवट ली है...आज से नहीं पिछले तीन हफ्तों से यह मौसम बेहद हसीन सा बना हुया है। आज अखबार में तो आया है कि इस तरह की करवट के परिणाम कितने भयानक हो सकते हैं, लेकिन इस समय तो बस यूं ही लग रहा है कि चलो, यारो, कल जो होगा, देखा जायेगा, अभी तो इस मौसम का लुत्फ उठा लो। बस, इस समय बगीचे में झूले पर बैठे बैठे अपने बचपन की बरसातों वालों दिन याद आ गये.....

एक बात तो यह याद आई कि हम लोग बरसात के मौसम में इन झूलों के साथ कितनी मस्ती किया करते थे। सोच कर के इतनी हंसी आती है कि क्या कहूं। हमारे घर के बाहर एक बहुत बड़ा पेड़ हुया करता था जिस पर एक मोटी सी रस्सी के साथ पींघ ( झूला ) बनाया जाता था। मजबूत पेड़ और बहुत ही मजबूत रस्सी की वजह से कोई टेंशन नहीं होती थी......बस, जितनी हिम्मत हो, जितना ज़ोर हो, खींच लो उतनी ही ऊंचाईंयों तक..............कितना मज़ा आता था जब हमारे साथ कोई झूलने वाला डर रहा होता था। झूला झूलने वालों के साथ साथ आस पास खड़े बीसियों लोगों का भी अच्छा खासा मनोरंजन हो जाया करता था। फट्टा हम उस झूले को झूलते समय एक लकड़ी का मजबूत सा भी अकसर उस पर टिका लिया करते थे। सचमुच वो दिन बेहद मज़े वाले थे......लेकिन इतने सालों के बाद भी पता नहीं ऐसा लग रहा है कि ये सब बातें कल की ही हैं। पता नहीं इस समय को भी कौन से पंख लगे हुये हैं......ऐसा फुर्र से उड़ जाता है।

दूसरी याद जो आज सता रही है ...वह है सूआ खेलना। अब सूआ मैं आप को कैसे समझाऊं.....अच्छा तो सुनिए कि हम किसी बोरे वगैरा को सिलने के लिये सूईं की जगह एक बड़ी सी सूईं इस्तेमाल करते हैं ना ...जिसे सूआ कहते हैं। लेकिन जिस सूये के खेल की मैं बात कर रहा हूं यह लगभग डेढ़-दो फुट का नुकीला सा हुया करता था।

यह सूये वाली गेम केवल तब ही खेली जा सकती थी जब ताजी ताजी बरसात बंद हुई होती थी। हम लोग सीधे पास ही एक ग्राउंड की तरफ़ लपक पड़ते थे ...अभी बरसात पूरी तरह से रुकी भी नहीं होती थी। वहां जाकर उस सूये से ही गीली जमीन पर एक गोल सा आकार बनाया जाता था। टॉस करने के बाद, हमारा खेल शुरू हुया करता था.....जो टॉस जीत जाया करता था( टॉस भी तो सिक्के विक्के से थोड़े ही किया जाता था...अगर इतने सिक्के ही होते तो वहां हम सूया खेलने की बजाये कहीं बाज़ार ना भाग गये होते......सो टॉस के लिये भी पास ही पड़ी कोई ठीकरी वीकरी से काम चला लिया जाता था। ).....

तो टॉस जीतने वाला उस गोलाकार में खड़ा होकर ज़ोर से जमीन पर सूआ मारता था, अच्छा, वाह, यह सूआ तो धंस गया ज़मीन में........फिर उसे वहां से निकाल कर आगे मारता और फिर आगे से आगे चला जाता .....इस सारी यात्रा में दूसरा लड़का भी साथ ही होता । यह सिलसिला बहुत रोचक होता था....अभी याद आ रहा है कि किसी जगह पर एक-आध मिनट के लिये रूक भी जाते थे कि सूआ कहां मारें कि ज़मीन में धंस जाये.....ऐसा ना हो कि यह बिना धंसे ही ज़मीन पर गिर जाये.......वैसे तो यह खेल में अकसर चार-पांच सौ मीटर तक निकल जाना कोई बड़ी बात नहीं हुया करती थी.....लेकिन जैसे ही सूया ज़मीन में धंसने की बजाये गिर जाता, वहां से लेकर उस गोलाकार आकृति तक ( जो हमनें गेम के शुरू में बनाई होती थी).....दूसरे लड़के को हमें अपनी पीठ पर लाद कर लाना होता था. अगर तो वह सही सलामत बिना गिराये हमें उस गोलकार आकृति तक ले आता तो हमारी पारी खत्म और फिर उस की पारी शुरु.....वरना जहां पर वह हमें गिरा देता था या उस का सांस इतना फूल जाता था कि वह हमें उतरने को कह देता था, वहीं से फिर हमारा सूया जमीन में धंसना शुरू हो जाया करता था....( भगवान का शुक्र है तब इतना वज़न नहीं हुया करता था...हमारा ही नहीं, सभी बच्चों का ....वरना सभी की रीढ़ की हड्डियां हिल विल जाया करतीं। आज सोच रहा हूं कि पता नहीं हम यह सूया भी बरसात होते ही हम कहां से झटपट निकाल लिया करते थे......तुरंत हाजिर हो जाया करता था। तो, आप को भी हमारी इस बचपन की गेम में शामिल हो कर मज़ा आया कि नहीं !!

आप भी क्यों अपने बचपन के दिनों की कुछ गेम्स हम सब के साथ शेयर क्यों नहीं कर रहे ?......हम सब इंतज़ार कर रहे हैं.......कुछ समय तक तो इन राष्ट्रीय-अंतरर्राष्ट्रीय मुद्दों के बारे में सोचना बंद करिये और लौट चलिये अपने बचपन की ओर !!

गुरुवार, 22 मई 2008

अगर अपनी दो ब्लागस को इक्ट्ठा करना हो...

सभी हिंदी चिट्ठाकारों के नाम......
कृपया इन दो बातों का उत्तर देने की कृपा करें..

पहली बात तो यह कि अगर कोई ब्लागर अपनी दो ब्लाग्स को इक्ट्ठा कर के एक करना चाहे तो उस के लिये उसे क्या करना होगा.....मुझे तो यही रास्ता लगता है कि एक-एक पोस्ट को नईं ब्लाग पर दोबारा पब्लिश करना होगा। चलिये यह भी मान लिया जाये...लेकिन इस में दिक्कत यह लगती है कि बार बार फिर आप की इन पहले से पब्लिश पोस्टों को ब्लागवाणी पर दिखाया जायेगा, इस का क्या समाधान है, कृपया उत्तर दीजिये। एक बात और भी है कि अगर हम इस तरह से दोबारा अपनी पोस्टें अपने एक ब्लाग से दूसरे ब्लाग पर शिफ्ट करते हैं तो कमैंट्स भी डिलीट हो जायेंगे....इन सब का क्या सोलूशन है। मुझे आप के सुझावों का इंतज़ार रहेगा।

दूसरी बात यह है कि हम लोग जो इतना ब्लागस पर लिख रहे हैं या लिख चुके हैं , उस का हमारे पास रिकार्ड रखने का कोई तरीका भी तो होगा। बहुत समय पहले इन सभी पोस्टों का बैक-अप रखने के बारे में कुछ पढ़ा तो था, लेकिन वह बिलकुल याद नहीं है, तो कृपया इस के बारे भी बताइये की यह बैक-अप रखना कैसे संभव होगा।

बुधवार, 21 मई 2008

सफल डाक्टर का फंडा....

दो-चार दिन से सोच रहा हूं कि क्या केवल निजी हस्पतालों में ही मरीज़ से अच्छे ढंग से बात करने की ज़रूरत है, क्या सरकारी हस्पतालों में यह कोई इतना ज़रूरी नहीं है....क्या सरकारी हस्पतालों में इस बारे में रिलैक्शेसन हो सकती है। .....नहीं ,नहीं, किसी तरह की रिलैक्शेसन की बात सोची भी नहीं जा सकती ।

बात यह है ना कि अगर तो हम मरीज से अपने इंटरएक्शन को भी उस के इलाज का एक हिस्सा ही मानते हैं तो जिस ढंग से हम मरीज़ से बात कर रहे हैं..............इस ढंग का भी उस के इलाज पर , उस के तंदरूस्त होने की संभावनाओं पर, या यूं कह लें कि मरीज़ का नहीं, उस के परिवार जनों का विश्वास जीतने के लिये यह बेहद लाज़मी है कि किसी भी डाक्टर का मरीज़ के साथ बातचीत करने का ढंग इतना नफ़ीस हो कि मरीज़ को तो एक बात यही लगे कि वह तो डाक्टर के पास पहुंच कर आधा ठीक वैसे ही हो गया है.....और बाकी आधा भी उसे तुरंत ठीक कर ही दिया जायेगा।
तो, यह तो पत्थर पर लिखी बात है कि हम जो बात मरीज़ से बात करते हैं...वो बात ही नहीं , उसे कहने का ढंग भी उस के इलाज का ही एक अभिन्न हिस्सा है....क्योंकि कितनी सारी बातें हैं जिन का उस के इलाज से सीधा संबंध है...जो केवल एक इस बात पर आधारित होती हैं कि मरीज़ हमें कितना अपना मानता है, उस के परिजन हमें कैसे देखते हैं, हमारी छवि कैसी है ?

बातें शायद ये सारी कहने में जितनी आसान हैं, उतनी व्यवहार में उतनी आसान हैं नहीं................और एक बात और भी तो है, इस में नकलीपन चल नहीं सकता, सवाल ही पैदा नहीं होता, वो कहते हैं ना कि आंखें भी होती हैं दिल की जुबां......बिल्कुल ठीक ही कहते हैं। वो बात अलग है कि कभी कभार इस तरह के बर्ताव का थोड़ा ढोंग भी करना होता है.....ऐसा करने के बहुत से कारण हैं......उस एरिया में फिर कभी घुसेंगे.....लेकिन एक आम सा कारण जो मुझे दिखा है, जो मैंने अनुभव किया है वह यही है कि किसी कारण वश डाक्टर का स्वयं का मूड भी तो थोड़ा ऑफ हो ही सकता है........क्या वह इंसान नहीं है !! ….मन ठीक होते हुये भी वह उस दिन उस वक्त अगर मरीज़ की सलामती के लिये उसे अच्छा फील करवाने के लिये वह अपने मन का भारीपन अपने रूम के बाहर ही कहीं रखकर मरीज से , उस के परिजनों से अच्छे से बतिया रहा है तो भई मैं तो इसे उस डाक्टर की बहुत बड़ी उपलब्धि ही मानूंगा क्योंकि मैं जानता हूं कि ऐसा करना कितना मुश्किल है। ( हां, वो बात अलग है जब कोई डाक्टर किसी मरीज से इतने अच्छे से इंटरएक्ट करने की कोशिश कर रहा होता है, चाहे कभी कभार रियर्ली उस में इतनी जैनूयननैस ना भी हो, लेकिन वह बिल्कुल थोड़ा थोड़ा ड्रामा सा कर रहा है क्योंकि उस का स्वयं का मन ठीक नहीं है, तो ऐसे करते करते कब उस के मन का भारीपन हल्केपन में बदल जाता है....यह तो भई चिकित्सक को भी पता नहीं चलता) ।

एक बात और अहम् यह भी तो है कि कईं सरकारी हस्पतालों में मरीज़ की प्राइवेसी का इतना ध्यान रखा नहीं जाता, मुझे आज तक यह पता नहीं लगा कि आखिर हम क्यों समझ लेते हैं कि जिस के पास बाहर प्राइवेट में किसी डाक्टर के पास जाने के पैसे नहीं हैं, या जो कोई भी सरकारी हस्पतालों में आ रहा है, उस की कोई प्राइवेसी नहीं है। मैं तो भई इस से घटिया सोच मान ही नहीं सकता।

इसी प्राइवेसी वाली बात पर एक बात याद आ रही है.....मैं रोहतक मैडीकल कॉलेज में उन दिनों रजिस्ट्रार था....एक दिन राउंड चल रहा था , एक सीनियर डाक्टर एक ही कमरे में बहुत सारे डाक्टरों के बैठने की व्यवस्था के लाभ गिनाये जा रहे थे....गिनाये जा रहे थे ......कुछ समय तक तो सुना ...लेकिन एक हद के बाद मेरे से रहा नहीं गया.....मुझे यही लगा कि यार, होना-हवाना तो मेरे कहने से क्या है, लेकिन मन में अपनी बात आखिर क्यों दबी रहने दूं......तो मैंने कह ही दिया ....सर, ऐसा है ना कि इस तरह की व्यवस्था से हम मरीज़ की प्राइवेसी तो खत्म ही कर देते हैं। मैंने फिर आगे कहा कि सर, अब मुझे अगर किसी डाक्टर के पास कुछ परामर्श लेने जाना होगा, अगर कुछ उस से कोई बात करनी होगी तो मैं तो भई कोई ऐसा डाक्टर ही ढूंढूंगा जो अलग से बैठा हुया है ताकि मैं अपनी बात उसे अकेले में कह सकूं। तो, उस वरिष्ठ अधिकारी का जवाब सुन कर मैं झेंप कर रह गया.....उस ने मुझे यह कह कर चुप करा दिया कि डाक्टर साहब, आप तो बड़े आदमी हो गये ना। इतना सुनने पर मैंने भी अपनी बीन तुरंत नीचे ज़मीन पर पटकने में ही समझदारी समझी ( समझ गये न आप !)।

एक बात जो मुझे बेहद अखरती है कि कुछ सरकारी हस्पतालों में मरीज़ से उस के स्टेट्स के हिसाब से ही बात होती है। अब यह मेरा अनुभव है, मैं इस के बारे में किसी तरह की भी सफाई सुनने के मूड में कम से कम इस समय तो हूं नहीं.........तो, चलिये, यह तो मान भी लिया कि मरीज़ तो बेचारा बीमार है तो शायद इस मजबूरी की वजह से उसे डाक्टर का किसी तरह का भी लहज़ा आपत्तिजनक नहीं लगता, लेकिन उस के साथ अकसर उस के जो परिजन होते हैं उन्हें तो यह बिलकुल नहीं पचता कि उन के मरीज़ के साथ किसी तरह से भी बात करने के लहज़े में कुछ भी कमी रहे।
बात कोरी मनोविज्ञान की है........बच्चा है , उस के लिये तो भई उस का बाप किसी हीरो नंबर वन से कम नहीं है, वैसे देखा जाये तो हो भी क्यों, बच्चे के इस सोच के पीछे आखिर बुराई क्या है और जहां तक मरीज़ की पत्नी की बात है, उस के लिये तो उस का संसार ही वह स्टूल पर बैठा उस का बीमार बंदा है, उस का तो फरिश्ता ही वही है, तो फिर अगर कोई डाक्टर इन समीकरणों को नहीं समझता, केवल किताबों के आसरे ही मरीज़ को ठीक करने में लगे हुये उस से ठीक ढंग से व्यवहार नहीं कर पाता तो समझो उस की तो शामत आ ही गई .....उस का तो तवा पचास लोगों में लगेगा ही।
बदकिस्मती यही है कि इस तरह की बातें मैडीकल कालेजों में नहीं सिखाते ....यह तो हर बंदे को जिंदगी की किताब के पन्नों से ही सीखनी पड़ती हैं। तो इन्हें जितनी जल्दी सीख लिया जाये उतना ही ठीक है।

हम बहुत ही मज़ाकिया ढंग से कह तो देते हैं कि यार, ये नीम-हकीम तो भई क्वालीफाईड डाक्टरों से भी ज्यादा सफल हो रहे हैं। तो इस का कारण भी यही है कि उन्होंने इस मरीज़ के इस ह्यूमन कंपोनैंट को बहुत ऊंचा रखना सीख लिया है.........मैं इन नीम-हकीमों को किसी तरह से डिफैंड करने की कोई कोशिश नहीं कर रहा हूं.....वैसे मरीज़ के इलाज के दौरान क्या क्या गुल खिला कर मरीज़ की जिंदगी से किस तरह से खिलवाड़ करते हैं, वो बात तो है ही ...आप सब जानते ही हैं....लेकिन यहां बात हो रही थी केवल उन के व्यवहार की , मरीज़ के मन में उन के प्रति विश्वास की।
तो संक्षेप में इतना ही कहना चाहूंगा कि डाक्टरी विज्ञान की जानकारी के साथ ही साथ डाक्टर में ढ़ेरों सॉफ्ट स्किलस का डिवेल्प होना भी बेहद ज़रूरी है......क्योंकि इन सब को भी इस्तेमाल करना मरीज के इलाज का हिस्सा ही है। और रही बात डाक्टर की, कईं बार उसे इन को व्यवहार में लाने के लिये किस तरह से शमा की भांति जलना पड़ता है, इस की चर्चा फिर कभी । लेकिन इतना ध्यान रहे कि यह काम इतना आसान भी नहीं है, खास कर तब जब कोई सहानुभूति करने का , जैनूइयन बनने का ढोंग कर रहा है..............क्योंकि कागज़ के फूल...कागज़ के फूल....खुशबू कहां से लायोगे !!

शिक्षण संस्थानों का यह धंधा बढिया है !

मुझे बहुत ही ज्यादा आपत्ति है उन सारे शिक्षण संस्थानों से जो अपने प्रोस्पैक्ट्स महंगे महंगे मोलों पर बेचते हैं कि कईं बार डिसर्विंग छात्र इसलिये ही इन प्रोस्पैक्ट्स को खरीद ही नहीं पाते। इन का मोल जो अकसर दिखता है...पांच सौ रूपये, हज़ार रूपये..........यह इन संस्थानों की डकैती है, लूट है, सरे-आर धांधली है। और जब उस प्रोस्पैक्ट्स को देखो तो इतना अजीब सा लगता है कि यार इन चार पन्नों की कीमत पांच सौ रूपये। दरअसल होता ऐसा है कि इन संस्थानों ने अप्लाई करने की फीस भी इस में शामिल की होती है। एक बार जब प्रोस्पैक्ट्स लोग खरीद लें,तो कालेज, यूनिवर्सिटी एवं संस्थानों की बला से........अप्लाई करें या न करें, इलिजिबल हैं कि नहीं ....उन से इस से क्या लेना-देना.....उन का तो सीधा सा काम है रूपये इक्ट्ठा करने .....सो वे पहले ही से कर चुके हैं।
एक बार इतने महंगे महंगे प्रोस्पैक्ट्स खरीदने के बाद छात्रों के पास इन कोर्सों के लिये अप्लाई करने के सिवाय कोई विकल्प रहता ही नहीं। बस, यह सब धांधली देख कर बहुत दुख होता है। अकसर इस समय मैं यही सोच रहा होता हूं कि लोग डाक्टरो का तो कईं बार रोना रोते हैं लेकिन इस तरह के रोने राते किसी को देखा नहीं......न तो कभी प्रिट मीडिया में ही इस तरह से आवाजें उठती देखीं, न ही शायद इलैक्ट्रोनिक मीडिया में ही इस के बारे में कभी कुछ सुना.......................पता नहीं लोग अपनी बात कहने के लिये किस बात का इंतजार कर रहे हैं।
मैं मानता हूं कि किसी मैकडोनाल्ड में जाकर पांच सौ रूपये के बर्गर -फिंगर चिप्स खाने वाले लोगों पर इसका कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन आम आदमी किसे अपना दुखडा सुनाये।
मुझे ही बतलाईये की इस के लिये किस को अपनी बात लिख कर भेजनी होगी.......मैं ही करूं थोड़ी शुरूआत। मेरे विचार में यह बहुत गंभीर मसला है। आप क्या सोचते हैं इस के बारे में।