बुधवार, 19 जनवरी 2022

कान की सफाई वाले नीम-हकीम

कान की सफाई किसी ईएनटी क्लीनिक में जाकर करवाने का कोई ख़ास चलन है नहीं इस मुल्क में ...हमें भी जब बचपन में ...बचपन क्या, 18-20 साल की उम्र तक जब भी कान में खारिश होती तो मां कहती कि सोने से पहले कान में सरसों का तेल डाल दूंगी गर्म कर के ...और अगर थोड़ा दर्द-वर्द भी होता, तो उस गर्म तेल में लहसून की तुरीयां एक दो डाल दी जातीं ...फिर जो काला सा तेल तैयार होता,  कान की संजीवनी की तरह रात में सोते वक्त दोनों कानों में दो दो चार चार बूंदे उस तेल की उंडेल दी जाती और साथ में दोनों कानों में थोड़ी थोड़ी रूई भी ठूंस दी जाती ...ताकि तेल बाहर न निकल जाए ....और शायद सिरहाने को खराब होने से बचाना भी इस का मक़सद रहता होगा....आज वह सब याद आता है तो दिल सिहर जाता है कि वे सब कितने खतरनाक कारनामे थे ....

फिर थोड़ी सी समझ आने लगी तो दियासिलाई से, लेड-पैंसिल से ... स्वेटर बुनने वाली सिलाई से ....थोड़ी बहुत एहतियात से कान की खुजली शांत की जाने लगी ...मैल निकल आए तो ठीक, नहीं निकले तो भी कोई टेंशन नहीं, बस, यह सब करते हुए कान से खून निकल पड़े तो फिर तो जैसे मुसीबतों का पहाड़ ही टूट पड़ता था...पहले तो घर में हरेक से डांट फटकार खाओ और बाद में ईएनटी विशेषज्ञ के गुस्से को झेलो...जहां तक मुझे याद है हम बचपन में कान में छोटी छोटी स्लेटी भी डाल कर कुछ न कुछ तो करते थे ...और कईं बार वह अंदर टूट भी जाती थी ...जब, दुनिया की नज़रों में हम समझदार हो गए तो कान में जमी हुई वेक्स को पिघलाने के लिए दो बूंदे दवाई की डालने लगे ..लेकिन फिर भी उस के बाद भी ईएऩटी विशेषज्ञ के पास जाने से परहेज ही किया ....

ईमानदारी से सोचता हूं तो लगता है कि फुटपाथ पर जो लोग किसी कान के नीम-हकीम कारीगर से कान का इलाज करवाने लगते हैं हम अपने आप को ज़्यादा बुद्धिजीवि कहने या समझने वाले लोग भी उन के मरीज़ों से थोड़ा सा ही कम हैं ....यह ठीक है, हम उन के पास नहीं जाते लेकिन विशेषज्ञ के पास भी तो हम तब तक नहीं जाते जब तक जान पर ही नहीं पड़ आती...है कि नहीं ?

खैर, ये जो मुझे फुटपाथों पर अलग अलग इलाकों में कान साफ करने वाले मजदूर दिखते हैं ...इन के अनुशासन से मैं बहुत मुतासिर हूं ... इस की टोपी या इन का ड्रेस-कोड बड़ा कड़क है ...दूर ही से इन के मरीज़ इन को ताड़ लेते हैं ... लेकिन आज लिखते लिखते यह ख्याल आया कि इलाकों के मुताबिक ही इन की वेश-भूषा भी होती है ... यानि ड्रेस-कोड...

कुछ दिन पहले जब कोविड़ के बहुत से केस हो रहे थे तो कान की सफाई जैसे गैर-ज़रूरी (दूसरे किसी इलाज की तुलना में) काम बड़े अस्पतालों में होने बंद थे ... ऐसे में इन नीम हकीमों की पौ-बारह थी ...किसी पेड़ के नीचे अपने शिकार को लेकर बैठे ये अकसर दिख जाते थे ...एक दिन तो मुझे एक पढ़ा-लिखा बंदा किसी ऐसे ही कारीगर के शिकंजे में पड़ा दिख गया ....हैरानी हुई ...वह बंदा इतने इत्मीनान से अपने कानों का इलाज करवा रहा था कि क्या कहें ....

यह खड़े खड़े कान की सफाई वाला कारनामा मैंने शायद ही पहले कभी देखा हो ...मैं यही सोच रहा था कि नीम हकीम सोच रहा होगा ....चुनाव की आंधी चल रही है, रैलीयां हो रही हैं, और इसे अभी कान की सफाई का ख्याल आया है ...!!

दो तीन दिन पहले की बात है कि यह मंज़र दिखाई दिया ....फोटो ले ली ...लेकिन खड़े खड़े इस तरह से कान साफ़ करवाना तो ज्यादा ही जोखिम वाला काम लगा ...वैसे तो इन नीम हकीमों के हाथों को कान पर लगवाना ही खतरे से खाली नहीं है ...अगर कान का परदा इन से न भी फट पाए तो भी ये ऐसी ऐसी बीमारियां (संक्रमण) फैलाने के बाइस हो सकते हैं ...हो सकते क्या, होते हैं ...जो जानलेवा भी हो सकती हैं। और अगर कान का परदा फट जाए तो उस के क्या नतीजे निकलते हैं, उस के बारे में न ही जानिए तो अच्छा है, जानिए तो बस आप इतना ही कि रास्ते में आते जाते ऐसे नीम हकीमों के शिकार मत बनिए...

इस तरह का सस्ता इलाज हमेशा सेहत के लिए खतरनाक तो होता ही है ....ज़ूम कर के देखा दस दस के तीन सिक्के भी दिख गए ... मुझे ऐसे लगा जैसे कान का कारीगर उसे यह कहना चाह रहा हो कि इतने पैसों में तो तेरा कहीं केस-पेपर भी न बन पाता ...और तुमने चंद सिक्कों में ही परेशानी से छुटकारा पा लिया............(वैसे यह तो वक्त ही बताएगा, छुटकारा पा लिया या कोई मुसीबत मोल ले ली!!) 

मैं वहां कुछ पल ही रूका ....इतने में मरीज़ ने कान के इस मजदूर को कुछ सिक्के दिए ...मुझे भी बेवजह की उत्सुकता की बीमारी है ..मैंने फोटो तो खींच ली ...लेकिन जैसे ही मरीज़ चलने लगा तो उस से पूछे बिना रह न सका कि कितने पैसे लेते हैं कान की सफाई के ...उसने बताया कि तीस रूपये ... कईं बार बंदा कितनी बेवकूफी की बात कर देता है ...लेकिन अपने साथ यह कभी कभी नहीं, अकसर ही होता है ...जब मैंने उसको अगला सवाल दाग दिया ...दोनों कानों की सफाई के!! चलते चलते उसने कह तो दिया कि हां..लेकिन मुझे पता है वह मन ही मन मेरा सवाल सुन कर क्या सोच रहा होगा ...किस बारे में ?- मेरे बारे में ही, और क्या!!

अभी नींद आ रही है ...सोने से पहले मेरा यह संदेश है कि कान ही नहीं, दांतों की भी सफाई आज कल फुटपाथ पर लोग करने करवाने लगे हैं, आंखों में तरह तरह के अंजन-सुरमे एक ही सुरमचू से डलवाने लगे हैं ...पैरों की ब्याईयां, नाखूनों के इलाज सभी फुटपाथ से करवाने लगे हैं .......लेकिन यह सब खतरनाक काम है, बच कर रहिए....

सडकें, फुटपाथ, गलियां बुरी नहीं हैं ...जीवन के दर्शन वहीं होते हैं .... लेकिन बस दर्शन तक ही ठीक है, किसी के झांसे में, बहकावे में मत आइए....याद रखिए....वह पुरानत कहावत ...नीम हकीम खतराए जान....और हां, सड़क की बात हुई ...फुटपाथ की बात हुई तो सोने से पहले आप भी आशा फिल्म का यह सुपर हिट गीत सुनिए ...इसमें जो छोटा बच्चा नाच रहा है, वह रितिक रोशन है ...यह फिल्म उस के नाना ने बनाई थी ... क्या नाम था उन का ... जे ओमप्रकाश, निर्माता-निर्देशक...

ख़तो-किताबत वाले दिनों की यादें ....

यादें...यादें...यादें ....ख़तो-किताबत की दुनिया की पचास साल पुरानी यादों की गठरियां हैं मेरी उम्र के लगभग सभी लोगों के पास...कुछ लोग इन से जुड़े अपने जज़्बात ब्यां कर पाते हैं, कुछ नहीं कर पाते ...इस से कुछ फ़र्क नहीं पड़ता...कुछ लिख कर न सही, सुना कर अपनी यादें ताज़ा कर लेते हैं ...

आज दो तीन बातें सोच रहा हूं लिख कर दर्ज कर दूं ..इससे पहले कि मैं भूल जाऊं...मेरा ननिहाल अंबाला में था...अमृतसर से जब मैं अपनी मां के साथ स्टीम इंजन वाली गाड़ी में बैठ कर अंबाला पहुंचता तो बहुत मज़ा आता...भौतिक सुख-सुविधाओं से उन दिनों घरों को नहीं आंका जाता था ... प्यार ही प्यार था ... मेरे नाना जी ट्यूशन पढ़ाते थे ...80-82 साल की उम्र तक ट्यूशन पढ़ाते रहे ...रीडर-डाइजेस्ट पढ़ते थे ...रात के वक्त रेडियो पर खबरें सुनने के लिए उस के बटन घुमाते रहते ...लेकिन हमने तो कभी उस रेडियो को कोई भी स्टेशन पकड़ते देखा नहीं ...अब पता नहीं रेडियो में खराबी थी या किस्मत में ...वैसे आज से 50 साल पहले रेडियो पर कोई स्टेशन लग जाना किसी छोटी मोटी लॉटरी लगने से कम न था ...और हां, मैं यह तो बताना भूल ही गया कि मैं रात में 12-1 बजे उठ कर अपनी नानी से चीनी वाले परांठे खाने की ज़िद्द करने लगता ...मां कहती सुबह खा लेना..लेकिन नहीं, नानी उसी वक्त उठ कर स्टोव जला कर बड़े बड़े चीनी के परांठे मुझे खिला कर ही दम लेती ....

हां, बात तो करनी थी हमारी नानी के घर डाइनिंग टेबल के पास क्राकरी वाली अलमारी के साथ ही लगे एक कील की ...और उस पर लोहे की सीख को मरोड़ कर उस में पिरोए ढेरों खतों, बिजली-पानी के बिलों की ....न वहां कोई रेडियो होता था, बाद में टीवी भी था, लेकिन वह भी हमेशा खराब ही नज़र आता था...ऐसे में बहुत बार हम उस तार में संभाल कर रखे हुए ख़तों को ही पढ़ने लग जाते ...हमारे लिए यही साहित्य था ...यही लिटरेचर था ....जितने पढ़े जाते या जितने देखे जाते देख लेते, बाकी के फिर से उस लोहे की तार में पिरो कर टांग देते ...क्योंकि सारे घर में वह तार पर टंगे हुए कागज़ात ही सब से ज़रूरी दस्तावेज हुआ करते थे ..बाकी, किसी को पता भी न था कि कोई प्राईव्हेसी नाम की चीज़ भी होती है ....सब कुछ खुला पड़ा रहता था, सब लोग मिल कर खुली बातें करते थे ...किसी से कुछ भी छुपा हुआ नहीं होता था...

मैं शायद अपने किसी ब्लॉग में लिखा था कि ख़त तो अब एंटीक की तरह हो गये हैं ...आज ही क्यों आज से 25-30 साल पहले ही हम ने जो ख़त वत लिखने थे लिख लिए ....अब कहां लिखते हैं हम लोग ख़त ...पहले सब कुछ फोन पर हो जाता था, अब बहुत कुछ वाट्सएप पर निपट जाता है, जो रह जाता है, वह फोन पर निपटा दिया जाता है ...लेकिन यकीन मानिए आज की गुफ्तगू से रूह गायब है ...सब कुछ सतह पर होता था, गहराई बिल्कुल नहीं है ...बहुत से कारण हैं, हम सब जानते हैं ...मैं तो एंटीक की दुकानों पर जाता रहता हूं ...वहां पर मुझे पचास-साठ साल पुराने ख़त देख कर बडी़ हैरानी हुआ करती थी किसी ज़माने में ...अब नहीं होती ...एक एक पोस्टकार्ड पचास रूपये में बिकते देखा है ...खरीद तो मैंने भी बहुत कुछ रखा है ...लेकिन उस की नुमाइश करने की कभी ज्यादा इच्छा हुई नहीं ... बस, ये सब चीज़ें दिल की तरंगों को झंकृत करती हैं जब भी इन को निहारता हूं ...

कल वाट्सएप पर मुझे कहीं से 45-46 साल पुराना एक ख़त मिला ... लेकिन उस ख़त को पढ़ते मज़ा आ गया ...उस से लिखने वाले के अहसास जैसे उस कागज़ पर खुदे हुए थे ...ख़त लिखने वाले ने लिखा था कि अब उस से और ज़्यादा लिखा नहीं जा रहा, उस के आंसू नहीं थम रहे हैं....मुझे भी वह ख़त ने बड़ा भावुक कर दिया ... लेकिन होता था लोग पहले ख़तों में ऐसी ऐसी दिल की बातें लिख दिया करते थे जो आज वाट्सएप के ज़माने में सोच भी नहीं सकते ...यह जो मैं 45-46 साल पुराने खत की बात कर रहा हूं इस ख़त ने बहुत सी यादें ताज़ा कर दीं ...

ख़तों के बारे में मैं अकसर अपने ख्याल लिखता रहता हूं इस ़डॉयरी नुमा ब्लॉग में और नीचे गीत भी वही बार बार लगाता रहता हूं ....डाकिया डाक लाया ....डाकिया डाक लाया ....लेकिन आज सोच रहा हूं इस रिकार्ड को भी थोडा़ बदल ही दूं ...चलिए, सुनते हैं ..

रविवार, 16 जनवरी 2022

आनंद बक्शी साहब का जादू

बक्शी साहब पर लिखी यह किताब हिंदी में भी उपलब्ध है ...इसे ज़रूर पढ़िए...

जादू भी कोई छोटा मोटा नहीं...3500 के करीब बेहतरीन फिल्मी नगमें - 650 फिल्मों के लिए लिख दिए...और लगभग सभी एक से बढ़ कर एक...आज कल उन पर लिखी एक किताब पढ़ रहा हूं...उन के बेटे राकेश बक्शी ने लिखी है ...बहुत अच्छी किताब है ....जो लोग भी फिल्मी गीतों से मोहब्बत करते हैं, 60-70-80 के दशक के फिल्मी गीतों के दीवाने हैं, उन सब को यह किताब ज़रूर पढ़नी चाहिए...ज़िंदगी के हर जज़्बात में भीगे हुए गीत ..बक्शी साहब ने लिख दिए...और जब उन पर लिखी किताब पढ़ रहा हूं तो सोच रहा हूं कि जिस बंदे ने इतनी जद्दोजहद वाली ज़िंदगी जी हो, यह उसी की क़लम का जादू ही हो सकता है ...

फिल्मी गीतों से याद आया कि जब हम लोग बच्चे थे तो फिल्मी गीतों के पेम्फलेट मिलते थे ...यही कोई 15-20-25 पैसे का एक पन्ना मिलता था जिस पर किसी नई आई फिल्म के सारे गाने छपे होते थे ...कुरबानी फिल्म का ऐसा ही पेम्फलेट मुझे पिछले साल कहीं से मिल गया था ...बिल्कुल पहाड़े जैसे कागज़ पर ये गीत छपे होते थे ...पहाड़े समझते हैं न आप, जिसे फिरंगी में हम लोग टेबल कहने लगे थे बाद में ...सच में तब से पहाड़ों को याद करने, और तोते की तरह रटने का असल ज़ायका ही जाता रहा ...पहले स्कूलों की रौनक ही कक्षाओं से आने वाली पहाड़े रटने की ज़ोर-ज़ोर से आने वाली आवाज़ों की वजह से हुआ करती थी...

फिर बहुत साल बाद फिल्मी गीतों की छोटी छोटी किताबें बाज़ार में आने लगीं ...हम भी खरीद लेते कभी कभी ...लेकिन इन किताबों को खरीदने का इतना शौक नहीं था, शायद अपने स्कूल-कालेज की किताबों से ही फ़ुर्सत न मिलती थी ...बहरहाल, ये फिल्मी गीतों की किताबें 2-3 बरस पहले मेरी ज़िंदगी में आईं...कैसे, बताता हूं। मैं उर्दू पढ़ रहा था, रोज़ क्लास में भी जाता था....लेकिन कुछ ख़ास पल्ले पड़ नहीं रहा था...एक तरह से शर्म सी महसूस होने लगी ....एक तो 55 साल की उम्र में यह काम कर रहा था, उस पर कुछ बात आगे बढ़ नहीं रही थी ...यही हिज्जे समझ में न आ रहे थे, हुरूफ का आपस में मिलान कैसे करना है, कुछ भी पता न चल रहा था, उर्दू के उस्ताद जी भी जैसे एक बार खीझ ही गए थे ...जब मैं सवाल ज़्यादा करता लेकिन मुझे आता जाता कुछ था नहीं ....

उर्दू में लिखा है मेहदी हसन की गज़लें....😄

उर्दू में लिखा है किशोर के गीत ...इसने मुझे उर्दू सिखाने में बहुत मदद की ..😂

वह कहते हैं न इरादे पक्के हों तो ख़ुदा भी बंदे की मदद करने पर मजबूर हो जाता है ...मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ....एक दिन लखनऊ की सड़कों की खाक छानते हुए एक फुटपाथ पर मुझे फिल्मी गीतों की छोटी छोटी किताबें दिख गईं ....अब इतना तो मैं उर्दू जानता ही था कि यह पता लगा पाया कि ये फिल्मी गीतों की किताबें हैं ...लेकिन लिखी हुई वे उर्दू में थीं। कुछ गज़लों की किताबें मिल गईं ...मैंने दो चार खरीद लीं ...और मैं उन को धीरे धीरे पढ़ने लग गया ...मुझे थोड़ा बहुत समझ में आने लगा ..फिर एक आइडिया आया कि यार, अगर किसी तरह से हर गीत का मुखड़ा मैं पढ़ पाऊं ...थोड़ा बहुत जितना भी हो जाए...तो मैं उस को यू-टयूब पर मोबाइल पर सुनने लगता और सामने किताब रख लेता ....कुछ ही दिनों में बहुत से गीत सुनते सुनते मैं उर्दू पढ़ने लगा ...क्योंकि गीतों की ज़ुबान बिल्कुल आम बोल चाल की ज़ुबान हुआ करती थी उस दौर में ....और यही उन की इतनी लोकप्रियता का राज़ था...


मेरे वेहले कम ....टाइम नूं धक्के मारन लई!!😉

अभी मैं शाम को बिल्कुल निठल्ला बैठा हुआ था...यू-ट्यूब पर अपने आप ही एक गीत दिखा ...देख सकता हूं मैं कुछ भी होते हुए ...यह गीत बेहद लोकप्रिय है ..सुनने लगा ....सुनते सुनते एक फिल्मी गीतों की एक छोटी सी किताब उठा कर इस गीत को वहां से देख कर अपनी नोटबुक में लिखना शुरू कर दिया ..सोचा कि इस तरह से फाउंटेन पेन से लिखने की प्रैक्टिस भी हो जाएगी...यह काम भी मैं अकसर कर लेता हूं ...वरना, कैलीग्रॉफी में भी दिक्कत होने लगती है ...

काश...ये नोट्स तैयार करने की मेहनत सही वक्त पर की होती...!!

मुझे हैरानी इस बात की हुई कि जो किताब में लिखा था वह मैंने लिख लिया ...लेकिन फिर उस गीत को सुनते हुए पाया कि उसमें जो एक लाइन है ....बाग़ में सैर को मैं गया एक दिन ...वह तो इस किताब में लिखी ही नहीं हुई ....एक आधा और छोटा मोटा लफ़्ज़ था जो किताब में लिखा हुआ था जब कि गीत में नहीं था...अभी इस बात पर हैरान हो ही रहा था कि अचानक पता चला कि यू-ट्यूब पर जो गीत सुन रहा हूं उस गीत से आखिरी पैरा ही गायब है ...

यह बात मैंने बहुत जगह नोटिस की है ...महान गीतकारों के गीत तो हमें नेट पर मिल जाते हैं, किताबों में भी मिल जाते हैं ...लेकिन बहुत सी त्रुटियों के साथ मिलते हैं ...ये गीत हमारी धरोहर हैं ...इन को यूं का यूं सहेज कर रखना हमारी जिम्मेदारी है ....कम से कम हम इतना तो कर ही सकते हैं....जहां भी त्रुटि दिखे, उसे लिखने वाले के नोटिस में लाया जाए....यह सब इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि आनंद बक्शी साहब अपने सभी गीत हिंदोस्तानी भाषा में उर्दू स्क्रिप्ट में लिखते थे ... इसलिए उन को उन के मूल रूप में संभाल कर अगली पीढ़ीयों तक पहुंचाना भी तो हमारा काम ही है ....ये सब फिल्मी गीत कालजयी हैं, हमारी संवेदनाओं को झकझोड़ते हैं, हमें अलग दुनिया में ले जाते हैं ....इसलिए लिखने वालों ने इन में जो प्राण फूंके हैं, उन्हें हमें उसी हालत में ज़िंदा रखना है ... 😎...


रविवार, 9 जनवरी 2022

जब कभी मोबाइल घर पर रह जाता है ....

जब कभी मोबाइल घर पर रह जाता है ...तो मुझे किसी के भी फोन-मैसेज का इतना ज़्यादा मलाल कभी होता नहीं ...क्योंकि मैं वैसे भी कोई इतना सोशल-बर्ड हूं नहीं...शायद ही मैं किसी के साथ फोन पर कुछ सैकेंड से बात कर पाता हूं ...बस, बोरियत सी होने लगती हैत ...हां, कोई स्कूल-कालेज का साथी हो तो फिर पता ही नहीं हम ठहाके ठहाके मार मार के एक घंटे तक बतियाते रहते हैं, अपनी बेवकूफियों पर हंसते, दूसरों की बेवकूफियों पर खिलखिलाते ...वक्त का पता ही नहीं चलता, ऐसे लगता है कि हंसते हंसते पेट में बल पड़ जाएंगे ...जी हां, मुझे बहुत ही हंसमुख किस्म के लोग ही पसंद हैं....अब जो है, सो है ...जो हंसने का बहाना ढूंढते रहें ...

और रही बात किसी के ऊपर हंसने की ....उस का भी मुझ जैसे बंदे को पूरा हक है ...क्योंकि मैं अपनी बड़ी से बड़ी और छोटी से छोटी बेवकूफियां ब्यां करता रहता हूं और खूब हंसता हूं....मुझे कईं बार लगता है कि यह हमारी खानदानी खासियत है। कुछ दिन पहले मेरा बड़ा भाई अपनी ज़िंदगी में की गई गल्तियों को याद करके ज़ोर ज़ोर से ठहाके लगा रहा था और साथ में अपने मुंह पर खुद ही चपेड़ें मार रहा था...मैं और वह ही थे कमरे थे ...हंस हंस कर मेरा बुरा हाल हो रहा था ...अब जो भी है, हम ऐसे ही हैं, हम बाहर किसी के भी साथ उतना ही खुलते हैं जितना ज़रूरी होता है लेकिन पर्सनल लाइफ में हम बिल्कुल अलग हैं...

आज थोड़ा यह सब कुछ लिखने का ख्याल इसलिए आया है क्योंकि मेरे बहुत से साथी इस वक्त कोरोना से जूझ रहे हैं ...आसपास बहुत सन्नाटा है, सोच रहा हूं कि इस वक्त माहौल को थोड़ा हल्का फुल्का बनाए रखने के लिए हम से जो भी बन पाए करना चाहिए..और मेरे जैसे बंदे के पास ऐसे ही कुछ भी बकवास बातें लिखने के अलावा और है ही क्या....

हां, तो आज जब मैं सुबह स्कूटर पर बांद्रा की सड़कों को मापने निकला तो मोबाइल घर पर ही छोड गया....मुझे मोबाइल ढोना बहुत बड़ी सिरदर्दी लगती है ....हर वक्त यही लगता है कि जितना यह महंगा है, अगर यह कभी इधर उधर हो गया तो कहीं शॉक की वजह से मुझे अपनी जान से ही हाथ न धोना पड़ जाए। इसलिए मैं बच्चों को कहता हूं कि मुझे पांच सौ हज़ार का एक मोबाइल खरीदवा दो ...जिस से कि मैं दुनिया से बस टच में रह सकूं...इस से ज़्यादा मुझे किसी बात की तमन्ना भी नहीं है। कह देते हैं, हां, बापू, दिलाते हैं, दिलाते हैं....पर बस हर कोई अपनी अपनी दुनिया में खोया हुआ है ....

एक बात बताऊं कभी घर में या काम पर मेरा मोबाइल कुछ सैकेंडों के लिए भी मेरी आंखों से ओझिल हो जाता है न तो सच में बिलकुल पागलों जैसी हालत हो जाती है...१० सैकेंड में प्राण फूलने लगते हैं जैसे मेरा गोद में उठाया हुआ शिशु लोकल गाडी़ की गर्दी में गाड़ी में ही रह गया हो ....सच, मैं इतने महंगे फोन से बहुत परेशान हूं ....लेकिन मजबूरी यह भी है कि मुझे बाज़ारों की, गलियों की, आम आदमी की, आते जाते रास्तों की बहुत सी तस्वीरें खींचनी होती हैं, फिर मैं पोस्टर बनाता हूं ....कैलीग्राफी की मदद से ....मुझे यही काम पसंद है....किसी का भी मज़ाक उड़ाना मेरा कभी भी मक़सद नहीं होता और न ही कभी भी होगा....बस, ज़िंदगी के हसीन लम्हों को कैद करना ही मकसद होता है...जो तस्वीरें मुझे गुदगुदाती हैं मैं चाहता हूं वह दूसरों को भी खूब हंसाएं....और मैं उस पर लोगों की प्रतिक्रियाएं भी लेता हूं उन के पोस्टर बनाने से पहले ....

इसीलिए मुझे पैदल चलना, भीड़ भाड़ वाली जगहों से गुज़र कर निकलना बहुत भाता है ...सारी की सारी ज़िंदगी वहीं है ...मेरे घुटने में दर्द होता है, मैं परवाह नहीं करता, जब ज़्यादा दुखते हैं तो एक दिन बैठ जाता हूं चुपचाप लेकिन ज़िंदगी का भीड़ भड़क्का मेरी ऑक्सीजन है....मुझे मेरे सारे किरदार वहीं बैठे, हंसते-खेलते दिखते हैं ....

अस्पताल वाले तो कह रहे हैं, कोरोना के बादल छंट जाएं तो आना...चल, यार, तू ही कुछ मेरी मदद कर दे ...

दो दिन पहले हास्पीटल से निकला...थोड़ी दूर पर एक पीपल के नीचे ....एक बुज़ुर्ग टांग पर टांग रख कर बड़े इत्मीनान से किसी फुटपाथिया कान रोग विशेषज्ञ से अपने कानों का इलाज करवा रहा था....ऐसी तस्वीरें देख कर बड़ी हंसी आती है ....लेकिन हमें उन में भी व्यंग्य ढूंढना होता है ... ताकि लोगों तक संदेश भी पहुंचे और हल्के फुल्के ढंग से वे बात को समझ भी जाएं। उस फोटो में सब से बात जो नोटिस करने वाली थी वह यही थी कि उस फुटपाथी विशेषज्ञ ने अपना ड्रेस कोड बिल्कुल परफैक्ट रखा हुआ था ...यह बात मेरे भाई ने भी नोटिस की कि इस की ड्रेस तो देख और साथ में भाई ने अपनी टिप्पणी भी जोड़ दी ...पंजाबी भाषा का सहारा लेकर ..क्या करे कोई पंजाबी भाषा का सहारा लिए बिना बात मज़ेदार बनती नहीं ....भाई ने पंजाबी में एक भारी भरकम गाली निकाली और साथ में कहने लगा कि, इस मरीज़ को देख .....इतने इत्मीनान से, बेफ़िक्री से कान से छेड़खानी करवा रहा है जैसे अंबेडकर अस्पताल के ईएटी के एचओडी के रूम में बैठा हो ....😂😂😂

जब भी मैं फोन घर पर रख गया हूं या रह गया है, मेरे से कोई न कोई तस्वीर लेना ज़रूर छूट जाता है जिस का मुझे बहुत मलाल होता है ...आज भी मैंने बीच बाज़ार में एक बंदे को देखा ...उसने तन पर सिर्फ़ एक कोट पहना हुआ था, बिना बनियान, बिना शर्ट के ...और गले में एक चमकती हुई मटरमाला और जिस तरह से हाथ में भजिया रख कर उन का लुत्फ़ उठा रहा था ...वह नज़ारा देखते ही बन रहा था ....मेरी भी उसी वक्त भजिया खाने की हसरत हुई ....कुछ मिनटों के बाद वह पूरी भी हुई जब गर्मागर्म परांठों के साथ आलू, प्याज़ के बढ़िया पकौड़े, आम का आचार और खूब मीठी चाय का नाश्ता किया ...श्रीमति जी का बहुत बहुत शुक्रिया ...हां, तो मैं जैसे ही उस बंदे के पास से गुज़रा मुझे यही अहसास हुआ कि मनवा बेपरवाह की यही तस्वीर है ...मैंने वह सुकून, वह तृप्ति, वह अहसास कब किसी के चेहरे पर देखा था, मुझे तो याद भी नहीं...

हां, मटर माला से अपनी मौसी सुवर्षा याद आ गई ...उन्हें खूब सारा सोना खरीदने और उसे दिखाने का बड़ा ज़्यादा शौक था ..उन के पास एक बहुत बड़ी सोने की मटरमाला थी ...खूब लंबी ...जिसे वह दो-तीन बार फोल्ड कर के गले में पहनती और बढ़िया बढ़िया सिल्क की साड़ी के साथ पहनती तो बिल्कुल महारानी लगतीं ....मैं अपनी मौसी को अकसर वह मटरमाला और उस का महारानी लगना ज़रूर याद दिलाया करता ....वह खूब हंसती..खूब हंसती ....और मैं बात को कोई बढ़ा-चढ़ा के भी न कर रहा होता....वह मौसी हमें बड़ा प्यार करतीं...बचपन में हमें कहा करती कि ये नंदन, चंदन, चंदामामा, लोटपोट खूब पढ़ा करो ....

बस, हो गया आज की सुबह के लिए इतना ही काफी है ...नीचे एक पसंदीदा गीत चिपका दूं, बस हो गया....बात इतनी सी है कि दूसरों पर हंसने की बजाए अपने पर हंसने की आदत डालिए....मुझे ऐसे लोगों से बहुत डर लगता है जो दूसरों पर ही हंसना जानते हैं...मैं कोसों दूर से ऐसे लोगों को भांप लेता हूं ....मुझे सभी हंसते-मुस्कुराते चेहरे बहुत भाते हैं ....मैं इन की तलाश करता रहता हूं ....हम लोग जहां काम करते हैं वहां भी दो चार चेहरे तो ऐसे होते हैं जो बिना किसी रस्म के, बिना किसी ख़ास कारण के, बिना किसी मतलब के हंसना-मुस्कुराना जानते हैं ....ऐसे चेहरों को तलाशिए....ये वो रब्बी लोग होते हैं जिन के दीदार के लिए कुछ भी बहाना ढूंढा करिए.....क्योंकि इन को देखते ही, इन से एक मिनट बात करते ही आप को इतना हल्कापन महसूस होने लगता है कि क्या कहें ....मैंने भी यह टीम ढूंढ रखी है ..लेकिन उसे उजागर करना ठीक नहीं, दुनिया की अच्छी-बुरी नज़र से बचा कर रखना होता है, संभाल कर रखना होता है , आप अपने लिए यह एक्सरसाईज़ खुद करिए... हा हा हा हा हा ...वक्त लगता है इसमें...😎😎😂😂😃😃

बुधवार, 5 जनवरी 2022

कोविड टेस्ट पॉज़िटिव - तब और अब..(व्यंग्य लेख)

२३ मार्च २०२० को पहली बार लॉक-डाउन लगा था ...उस से पांच दिन पहले लखनऊ के कुछ चौराहों पर लाल बत्ती शुरू हुई थी ...मैं इस तारीख को भला कैसे भूल सकता हूं ...क्योकि उन्हीं नई नईं लाइटों के चक्कर में चौराहों पर असमंजस की स्थिति थी ...मैं २०-३० की स्पीड से स्कूटर चलाने वाला ...मेरे आगे चल रहे थ्री-व्हीलर ने मारी ब्रेक ...और मैं धड़म से नीचे ....पांव की हड्डी टूट गई...पलस्टर लगा कईं हफ्तों के लिए...मैं सारा दिन अपने फ्लैट की बॉलकनी में एक खटिया पर लेटा लेटा रेडियो सुनता रहता और बीच बीच में वाट्सएप पर वॉयरल हो रही वीडियो देख कर सहम जाता ..यही लग रहा था उन दिनों की अब तो दुनिया खत्म होने की कगार पर है ....

कुछ दिन पहले हमारा एक कर्मचारी मुझे कहने लगा....मेरा टेस्ट पॉज़िटिव आया है, मैं अब निकल रहा हूं...मैंने इतना ही कहा कि अच्छा, भई, अपना ख्याल रखना...

इस बंदे ने तो मुझे ख़ुद सूचना दी ....लेकिन इस बीमारी के पहले चरण में कोई यह सूचना खुद देने के काबिल ही न होता था...आपने टीवी वीवी पर देखा होगा कि उन दिनों हमारा मीडिया सच में ओव्हर-टाइम कर रहा था ...

पता चला कि अमृतसर (यह देश का कोई भी शहर हो सकता था...)  की करमो-ड्योढी की फलां फलां गली में किसी कोविड पॉज़िटिव मरीज़ को उठाने सेहत महकमे की टीम पहुंची हुई है ...कैमरे लगे हुए हैं...इतनी चाक-चौबंद व्यवस्था तो धर्मा फिल्म में चंदन डाकू को पकड़ने के लिए न होती होगी जितनी मुस्तैदी उन दिनों सेहत विभाग की टीम किसी कोविड़ मरीज़ को "काबू" करने के दिखाती थी .... पूरी लाइव टैलीकॉस्ट चल रही होती....कि टीम अभी अभी पहुंची है, अब ये गली में जा रहे हैं, इन्होंने ने क्या पहना है, माजरा है क्या, बस अब ये मरीज़ को ऐम्बुलेंस में ठूंस ही देने वाले हैं...सुनसान सड़के, सुनसान रास्ते ....न कोई बंदा न बंदे की जात...तब ऐम्बुलेंस के वहां से वापिस चलने से शुरु कर के आंखों से ओझिल होने तक कमैंट्री चलती रहती। 

बेशक, यह तो वह दौर था २०२० में कि जिस किसी को कोरोना हो गया उसे यह अहसास हो जाता कि उससे कोई संगीन जुर्म हो गया...सरकारी ऐम्बुलेंस पकड़ने आ जाती, और आसपास के गली-मोहल्लों की खिड़कियों से देखने वाले सब कुछ लाइव देख रहे होते और पूरा मुल्क टीवी पर सब कुछ लाइव देख रहा होता ... और जो मरीज़ दुनिया से कूच कर जाते, उन की अन्तयेष्ठि बहुत दूर से टीवी पर ऐसे दिखाई जाती जैसे नॉरकोटिक्स वाले  कंट्राबैंड मिलने पर उसे नष्ट करते हुए बालीवुड फिल्मों में दिखाते हैं ....मुझे तो अपनी मां की अंत्येष्ठि की वह फोटो याद आ जाती जो श्मशान घाट से बाहर आकर हमने दूर से जलती हुई चिता की खींची थी ...

उस दिन इस हालत में हम मां को अलविदा कह कर अपनी रज़ाईयों में वापिस लौट आए थे...११ दिसंबर २०१७

कुछ महीने का दौर तो ऐसा था कि लोग खांसने से डरने लगे ...क्या पता कमबख्‍त पड़ोसी ही रिपोर्ट कर दे, टैस्टिंग के लिए विभाग की टीम आ जाए और उठा कर ले जाए...

कोरोना वार्ड में जेल से भी ज़्यादा सिक्यूरिटी दिखती थी उन दिनों ...बस, मोबाइल की सुविधा कोरोना कैदियों को दे दी गई...और हां, बीड़ी और बार-बार चाय पे चर्चा करने के लिए दो चार बंदे बाहर चाय के स्टॉल तक पहुंचने का जुगाड़ कर ही लेते ...उन्हें ऐसी हालत में बीड़ी फूंकने की बात जब अस्पताल के हैड तक पहुंचती तो कोरोना वार्ड में तैनात स्टॉफ की क्लास लग जाती कि ये लोग बाहर आए तो आए कैसे और सामान्य लोगों से बीच पहुंचे कैसे! शुरू के दिनों में तो कोविड अस्पतालों के बाहर मरीज़ों के रिश्तेदारों का तांता लगा देख कर परीक्षा केन्द्रों के बाहर खड़े अभिभावकों की भीड़ की यादें ताज़ा हो जातीं...सच यह बड़ा कठिन दौर था ...लोग नरक भुगत रहे थे, कोरोना योद्धा अपनी जानें गंवा रहे थे ...हर तरफ़ मौजूद डर के माहौल को और ज़्यादा खौफ़नाक बना रहे थे फेसबुक और वाट्सएप के गुमराह करने वाले फेक वीडियो कि किसी गरीब मुस्लमान ने अपने फलों पर अपना थूक चिपका कर कोरोना फैला दिया ....सच में यह फेक वीडियो जो लोग शेयर करते हैं यह भी एक लाइलाज बीमारी है ...उन को भी किसी वार्ड में ठूंसा जाना चाहिए....वरना यह बाज़ नहीं आते ...

हां, तो मैंने बात शुरू की थी कि अब लोग पॉज़िटिव होने पर भी इतने हट्टे-कट्टे दिखते हैं कि वे आसपास सूचित कर देते हैं कि हां, भई हम पॉज़िटिव हो गए हैं, और यहां से कट रहे हैं, बाकी, वाट्सएप पर हम बने रहेंगे ....उस की कोई टेंशन है नहीं। जैसे ही उस बंदे के साथियों को उस की पॉज़िटिव रिपोर्ट का पता चलता है तो वह इतने ज़्यादा नाटकीय अंदाज़ में 'ओह शिट् ' कहते हैं ....(यह थोड़ा ओल्ड वर्शन वाले कहते हैं...लेटेस्ट वर्शन वाले अपना दुःख और हैरानी ब्यां करने के लिए जिस चार एल्फाबेट के लफ्‍ज़ का इस्तेमाल करते हैं, वह टी-शर्ट पर तो लिखा दिखने लगा है ....लेकिन ब्लॉग में कहां लिख कर उसे मुसीबत मोल लूं!!) .... हां, जिस अंदाज़ में हैरानी, शॉक, दुःख, रोमांच, थ्रिल....कुछ भी ब्यां किया जाता है किसी परिचित, किसी साथी के पाज़िटिव आने पर ...उससे कईं बार दूसरों को ऐसे लगने लगता है कि यार, यह कुछ ज़्यादा ही ओव्हर रिएक्ट कर रहा है ...कहीं इस के मन में उसे मिलने वाली क्वारेंटाइन के बारे में जलन तो नहीं ....इधर इतना काम धरा पड़ा है और अब यह महाशय घर बैठ जाएंगे क्वारेंटाइन भोगने के लिए...अच्छा भला तो था, सुबह साथ में काफी पी थी....दूसरों को यही लगने लगता है कि कहीं इस के मन में यह क्वारेंटाइन लीव न मिल पाने की तो कसक नहीं है..

क्योंकि और तो किसी भी तरह की छुट्टी (आध्यात्मिक तक भी) भोगने और निचोड़ने में कोई कोर-कसर छोड़ता नहीं बंदा, अब यह जो क्वारेंटाइन तो तभी मिले अगर कोई पॉज़िटिव आए ...अब अगर किसी ने हिम्मत कर के टैस्ट करवाया है, पाज़िटिव पाये जाने पर उसे यह सुविधा मिल ही गई है तो यह तो भई उस का हक है ...किसी का कोई अहसान नहीं  ..लेकिन देखा भी यह गया इस बीमारी के विभिन्न चरणों में कि घर में क्वारेंटाइन हुए बंदे की और उस के रिश्तेदारों की जान निकली रहती है कि सब कुछ ठीक ठाक निकल जाए, बिना किसी जटिलता के ...लेकिन दफ्तर में उस के साथ काम कर रहे कुछ बाबूओं को तो जैसे ही बंदे के क्वारेंटाइन पर जाने का पता चलता है उन्हें तो सांप ही सूंघ जाता है जैसे वह बेचारा महाबलेश्वर छुट्टी मनाने निकल गया हो...और किसी बाबू को तो इस खबर से ही ऐसे हल्के जुलाब लग जाते हैं कि वह अपने साथी को पर्मिसिबल लीव के दिनों की केलकुलेशन के लिए दफ्तर में बैठ कर पुराने सर्कुलर छानने लगते हैं .....अरे भाई, इतनी कसक क्यों, इतना मलाल क्यों, हिम्मत कर के टैस्ट करवाओ, यह रोज़ रोज़ बदन दर्द के लिए अदरक वाली चाय के साथ कॉम्बीफ्लैम लेना कोई समाधान नहीं ....टैस्ट तो करवाना ही होगा...निगेटिव आए तो मौज मनाओ, पॉज़िटिव आए तो अपने हक से क्वारेंटीन लीव पर भई तुम भी निकल जाओ....और अगर कुछ नहीं भी करवा रहे तो भी ५० प्रतिशत हाज़री की सुविधा के घेरे में  तो अब आ ही चुके हो....

हज़ार बातों की एक बात यह है जो आप नीचे लिखे पोस्टर में पढ़ेंगे ...यह कल वाट्सएप पर हमें दिखा ...इसलिए इसे यहां चस्पा दिए रहे हैं...इस में कही बातों पर गौर करिए..डा साहिबा ने शत-प्रतिशत बातें सही कही हैं ...एक काम और किया जाए...सारी अखबार, सारा मीडिया कोविड से भरा पड़ा होता है तो ऐसे में अपने आप पर हंसने की आदत भी डाल लीजिए...खूब हंसिए....अपने आप पर हंसने से कोई आप को नहीं रोक सकता....


यह टापिक है ऐसा कि लिखते ही जाएं....लेकिन अब उठना पड़ेगा....बस, जाते जाते आप को अपना पसंदीदा गीत सुनाते हैं....पता नहीं यह गाना आज मेरे से यहां एम्बेड नहीं हो रहा ....इस गीत का लिंक मैं यहां शेयर कर रहा हूं ...आप को इसे सुनने के लिए लिंक पर क्लिक करना होगा..यह गीत मुझे बहुत अच्छा लगता है ....यह पौधे, ये पत्ते, ये फूल, ये हवाएं........वाह!

रविवार, 2 जनवरी 2022

झुर्रियां भी अच्छी लगती हैं...उन की अपनी ब्यूटी है!

अरसा हुआ एक विज्ञापन आया करता था ...दाग अच्छे हैं...बच्चे बारिश के खड़े पानी में उछल कूद करते हैं, कपड़े खराब कर लेते हैं...यह सब टीचर के घर के सामने हो रहा होता है ...टीचर जी किसी पर्सनल लॉस की वजह से बड़ी उदास सी बैठी दिखाई देती है लेकिन इन नन्हे-मुन्नों को कीचड़ में उछल कूद करते देखती है तो वह हंस पड़ती है ....दाग का क्या है, वह तो मां सर्फ-एक्सेल से साफ कर ही देगी....लेकिन उस विज्ञापन की टैग लाइन मुझे बहुत पसंद है...दाग अच्छे हैं।

ठीक उसी तरह झुर्रियां भी मुझे अच्छी लगती हैं...अपनी भी और दूसरों की भी....वाटसएप पर एक मैसेज आया था कईं बरस पहले एक बुज़ुर्ग महिला की तस्वीर थी जिस के चेहरे पर अनेकों झुर्रियां थीं और वह बहुत सुंदर लग रही थी...और साथ में लिखा था कि चेहरे की इन सिलवटों का मतलब यह है कि उस इंसान ने ज़िंदगी को उतना भरपूर जिया है ....एक एक सिलवट ज़िंदगी के कड़वे-मीठे अनुभवों की संदूकची है .. और एक बात यह भी तो है झुर्रीदार चेहरों को देखते ही हमें अपनी नानी-दादी की गोद मे बिताए हसीन पल याद आ जाते हैं...

जैसे आज के बाज़ारवाद में कईं धंधे चल निकले हैं...वैसे ही इन झुर्रियों को मिटाने का भी एक नया धंधा चल निकला है...पहले सफेद बालों को काले करने का फितूर, फिर झुर्रियों को मिटाने की ललक, और कुछ सर्जन या प्लास्टिक सर्जन आज कल जो कारनामे कर रहे हैं उस के बारे में तो लिखते भी नहीं बनता,  वे शरीर के अंगों का कसाव बढ़ाने में लगे हुए हैं..😂..ईश्वर का शुक्र है कि ये सब काम सरकारी अस्पतालों में नहीं होते ...और मैं उन चमड़ी रोग विशेषज्ञों की दिल से इज़्ज़त करता हूं जो इन चक्करों से अभी भी दूर हैं...वरना प्रलोभन तो हर जगह बिखरे पड़े हैं। 

बाल काले हों या सफेद, ब्यूटी-पार्लर में कोई हो कर आया है या नहीं, झुर्रियां दो हैं, चार हैं या सैंकड़ों हैं ....इस का कुछ भी तो फ़र्क़ नहीं पड़ता....सच में मुझे ऐसे लोगों के ऊपर तरस आता है जिन को ये सब काम करवाने की ललक सवार हो जाती है ...लेकिन वे भी क्या करें, पैसा है तो खर्च कहां करें..

हर उम्र की अपनी सुंदरता है ...सफेद बालों की वजह से, झुर्रियों की वजह से ...उम्र के साथ साथ शरीर में कम होती शक्ति की वजह से भी एक अलग तरह की सुंदरता दिखने लगती है....यही कहीं मैंने वाटसएप पर पढ़ा था कि बुज़ुर्ग लोगों में सुंदरता कभी भी कम नहीं होती ...बस वह उन के चेहरों से सिमट कर उन के दिल में वास करने लगती है ...

उम्र के साथ होती कम ताकत से याद आया ...लखनऊ में मैं पुष्पेश पंत के एक प्रोग्राम मे शिरकत करने गया ....वह पाक कला के बारे में भी बहुत कुछ जानते हैं...वह बता रहे थे कि आटा गूंथने की मशीने आ गईं ...लेकिन जो बुज़ुर्ग महिलाएं अपनी कमज़ोर मुठ्ठियों के इस्तेमाल से आहिस्ता आहिस्ता आटा गूंथती हैं, उस का एक अलग ही लुत्फ है ...क्योंकि आटा को गूंथने के लिए उतनी ही सहजता और उतनी ही शक्ति दरकार होती है ...😎

ये झुर्रियां वुरीयां मिटाने-छिपाने-हटाने का धंधा भी बरसों पुराना है ...मेरे पास कईं एंटीक मैगज़ीन हैं ५०-६०साल पुराने, ऑनलाइन खरीदने की मुझे भी धुन सवार रहती है ...उन में भी इस तरह की चीज़ों के विज्ञापन ठूंसे पड़े हैं...हैरानी होती है सच में ...

दिक्कत यह है कि पहले तो शो-बिज़नेस से जुड़े लोग ...सिने तारिकाएं, हीरो, माडल ही ये सब काम करवाते थे ...कितनों की शक्लें ही बदल गईं, हम ने देखा ....लेकिन अब आम लोग भी जिन के पैसे की भरमार है वे भी इन चक्करों में पड़ने लगे हैं...लेकिन जो भी है, सुंदरता इन चीज़ों से तय नहीं होती, सुंदरता हमारी शख्शियत की होती है ....क्यों होता है कि कुछ लोगों के साथ हमारा बार बार बात करने को मन होता है ....और कुछ को देखते ही हमारी ब्लड-प्रैशर १५-२० डिग्री शूट कर जाता है...उन के हाव-भाव ही कुछ ऐसे होते हैं...

लोग आज़ाद हैं, कुछ भी करवाएं, कहीं भी पैसा खर्च करें ...लेकिन हम जैसे ओपिनियन-मेकर्स की भी तो एक छोटी सी ड्यूटी है...और हां, एक बात और भी ...ये जो लोग मेक-अप-वेक-अप के चक्कर में ज़्यादा रहते हैं ....उन्हें अगर बिना मेक-अप के कभी देख लेते हैं तो भई हम तो डर ही जाते हैं ....सोचने वाली बात यह भी है कि मैं डर जाऊं या कुछ भी हो मुझे ...यह तो मेरी एक खामखां वाली बात है ....जीने दो लोगों को जैसे लोग जीना चाहते हैं ....हर किसी को कोई न कोई फितूर है ..मुझे भी है सभी तरह की एंटीक चीज़ों को सहेजने का ....उसी सिलसिले में ही कहीं मैं झुर्रीदार चेहरों को भी तो नहीं ढूंढता रहता ...

शनिवार, 1 जनवरी 2022

आवारा भीड़ के खतरे ....

जैसे मुझे फिल्मो की कहानियां याद नहीं रहतीं...उसी तरह से मुझे साहित्यिक किताबों में लिखी बातें भी याद नही रहतीं...हरिशंकर परसाई हिंदी के एक नामचीन व्यंग्यकार हुए हैं...उन्हीं की एक किताब है मेरे पास ...आवारा भीड़ के खतरे ...मैंने पढ़ी थी बस इतना याद है...

सच बात है जब भी मॉब काबू से बाहर हुई है, तबाही के मंज़र ही देखे गये हैं....गुज़रात हो, पंजाब हो, दिल्ली हो, सिक्ख दंगे हों ...आवारा भीड़ के तो खतरे ही खतरे हैं .... देश की तकसीम के वक्त हमारी पिछली पीढ़ी ने आवारा भीड़ के कारनामे देखे, सुने और भुगते ...

कुछ दिन पहले हम लोगों ने देखा कि एक २०-२२ साल के युवक ने अमृतसर के हरिमंदिर साहब में जाकर बीढ़ की बेअदबी की ...बहुत निंदनीय बात है ...लेकिन जिस तरह से मेरे सरदार दोस्त यह कहते हैं कि चूंकि कानूनी रास्ते से तो किसी को अभी तक ऐसे गुरूघर की बेअदबी करने की सज़ा मिली नहीं ...इसलिए लोगों ने इस बार उस जवान का फैसला भी ख़ुद ही कर दिया...साध-संगत ने उसे मौके पर ही पीट पीट कर मार दिया....

मुझे यह बात बहुत ज़्यादा बुरी लगी...मैंने अपने सिक्ख दोस्तों से यह बात कही भी ...लेकिन उन का तर्क यही था जो मैंने ऊपर लिखा है ...मेरे भी फंडे बडे़ क्लियर हैं...मैं किसी से भी बहस कम ही करता हूं ...बस, हूं हां, हूं हां कर के बात वहीं छोड़ देता हूं...

इस युवक को इस तरह से मौके पर मार देने से कोई सबूत भी हाथ न लगेगा....अगर वह ज़िंदा रहता तो कुछ न कुछ तो उस से पता चलता ही और देश की न्याय व्यवस्था उस की जड़ों तक जाने की कोशिश करती ...लेकिन अफसोस उस का फैसला साध संगत ने ही कर डाला....अगर फैसले ऐसे ही होने लगें तो फिर कोर्ट-कचहरी की ज़रूरत ही कहां रही। जिस देश में अगर बाबा राम रहीम या आशा राम बापू को सज़ा हो सकती है, वहां कोई भी अपराधी बच नहीं सकता ...हम मोटे तौर पर तो यह कह ही सकते हैं....बाकी, अपवाद होते हैं, होते रहेंगे ....आप भी सब समझते हैं...

मेरे सिक्ख दोस्त यह कह रहे थे कि उस जवान को मौके पर ही मौत के घाट उतार देने से अब भविष्य में लोगों के मन में ऐसा करने के बारे में दहशत पड़ जाएगी....लेकिन मैं ऐसा कोई तर्क मानने के लिए तैयार नहीं हूं....मेरा दिल और दिमाग तो यही कहता है कि कानून के रास्ते से उस का फैसला होना चाहिए था...

और जो मुझे लगा इस वारदात के अगले दिनों में अखबारों को पढ़ते हुए कि इस बात पर कुछ हो-हल्ला नही हुआ ...कि जवान कैसे मौके पर ही मार दिया गया....हां, हां, बेअदबी की भी उच्च स्तरीय जांच ज़रूरी है ....बेशक...वह तो एक गंभीर मुद्दा है ही ..टीवी में क्या कुछ चला इस मुद्दे पर, इस का मुझे बिल्कुल भी इल्म नहीं है क्योंकि टीवी कईं साल से बंद पड़ा है...

आवारा भीड़ के खतरों से हम वाकिफ़ हैं ही ....लेकिन कईं बार एक आदमी का गुस्सा भी क्या कर जाता है....आज की टाइम्स आफ इंडिया में एक खबर देख कर मन बड़ा दुःखी हुआ - एक बारह साल के बच्चे ने घर से ५० रूपये चुरा लिए ...और उस के बाप ने कल उसे पीट पीट कर मार डाला ...आज बड़ा मूड खराब हुआ यह खबर देख कर ...नए साल की तो न मुझे कोई खुशी है न गमी .....और सालों की तरह एक और नया साल आ गया है....जूझ लेंगे इस से भी 😎....लेकिन इस तरह की खबरें बड़ा दुःखी करती हैं...

शुक्रवार, 31 दिसंबर 2021

जाने वाले साल को सलाम...

यह उस दौर की बात है जब हम लोगों के लिए नए साल का मतलब सिर्फ यह होता था कि साल के उन आखिरी दिनों में हमें अपने बाबा आदम के ज़माने वाले रेडियो पर रात के वक्त बिनाका गीत माला सुनाई देती थी ...और मुझे अच्छे से यह भी याद है कि अगर उन दिनों सिबाका गीत माला के दौरान हमारे रेडियो में सिग्नल ठीक से नहीं पहुंच पाता था तो हमारा मूड बहुत ज़्यादा खराब हो जाया करता था...बड़े होने पर पता चला कि वह दिलकश आवाज़ जिस शख्स की होती थी उस महान हस्ती का नाम अमीन सयानी है ... क्या बात थी उस की पेशकश में कि मैं उस दिनों यही कोई तीसरी-चौथी जमात में रहा हूंगा ...लेकिन रेडियो से तो जैसे चिपके रहते थे ...फिर अगले दिन हम लोग स्कूल में चर्चा करते थे कि कौन सा फिल्मी नगमा किस नंबर पर आया ...वह दिन भी क्या मज़ेदार दिन थे ...इस लिंक पर क्लिक करिए और उस दौर को याद करिए....

अच्छा, यह तो हुई बचपन की मासूम सी बातें...हमें कुछ ज़्यादा नए-पुराने साल से मतलब न होता था .. नए साल के आसपास २५ दिसंबर से २-३ जनवरी तक हमारी बड़े दिन की छुट्टियां होती थी, या ठंडी की छुट्टियां (विंटर-वकेशन) होती थीं ...और हमें उदासी थोड़ी सी यह भी होने लगती कि अब तो एक दो दिन में स्कूल खुल जाएंगे ... बकरे की मां कब तक खैर मनाएगी...फिर वही हिसाब किताब की बातें, साईंस की नीरसता ...सब कुछ वापिस झेलना पडे़गा...ये आठ दिन तो अच्छे से कट रहे थे ...जब चाहे उठे, जब चाहे घूमने निकल गए, फिल्म देखने चले गए....और रेडियो सुनते रहते थे...और इस के इलावा कुछ था भी तो नहीं ...एक डालडे के डिब्बे में भरे कंचों के अलावा ...😂😂

लो जी, हम कालेज पहुंच गए ...१६-१७ साल की उम्र में घर में टी वी आ गया....नए साल का मतलब यह भी होता कि ३१ दिसंबर की रात को दूरदर्शन पर एक बहुत बढ़िया ख़ास प्रोग्राम आया करता था ...पहले दो घंटे शायद दस बजे तक तो जालंधर दूरदर्शन की पेशकश हुआ करती ...फिर दिल्ली से अगले दो घंटे प्रसारण होता ...वाह, क्या बात होती ...उस में देश भर के चुनिंदा कलाकार, गायक अपनी प्रस्तुति देते ...मुझे अच्छे से याद है गुरदास मान का भी उन्हीं दिनों नाम होना शुरू हुआ था ...

 

और हां, उषा उत्थुप को मैं कैसे भूल गया...किस किस का नाम लें....यह प्रोग्राम रात १२ बजे तक चलता था ...फिर हम लोग सो जाते थे ...सारे साल में यही एक दिन होता था जब हम लोग इतना लेट सोते थे ...वरना रात साढ़े नौ बजे या हद १० बजे तक थक-टूट कर नींद आ ही जाती थी ...क्या करते, घर में वही डॉयलाग बार बार सुनने को मिलते ...Early to bed and early to rise ....और मां भी अकसर गुनगुनाया करती ...उठ जाग मुसाफिर भोर भई..अब रैन कहां जो सोवत है....😎


और हां, यह वह दौर था जब लोग एक दूसरे को नये साल के कार्ड भेजा करते थे ...और डाकखानों में उन दिनों काम इतना बढ़ जाता था कि उन की व्यवस्था चोक हो जाया करती थी ...कईं कईं दिन बाद वे कार्ड मिलते थे ....बहुत बार लोगों को शिकायत होती थी कि मिलते भी नहीं थे। आज कल जिस तरह से हर नुक्कड पर मोमोज़ बिक रहे होते हैं ...उन दिनों ऐसे ही नए साल के कार्ड थोक रेट पर बिका करते थे ...यही कोई १५-२० रूपये के १२ ....और किसी को आर्चीज़ से महंगे कार्ड --उन दिनों में भी दस-पंद्रह रूपये वाले कार्ड - भिजवाना कईं बार लोगों की मजबूरी ही लगा करती थी ...जैसा मुझे लगा ... मेरी बात का मतलब आप समझ ही गए होंगे...मैंने कभी यह सब काम नहीं किए....क्या करते, इतने पैसे ही नहीं हुआ करते थे कि इस तरह की चौंचलेबाजी में पड़ा जाए....

फिर देखते ही देखते ....नए वर्ष की पूर्व-संध्या किसी जश्न की बजाए एक शोर में बदल गईं....हर तरफ शोर- शराबा, बे-वजह की दौड़, दिखावा, दारू-शारू....बस, यही सब कुछ....जब से यह चलन शुरु हुआ, तब से नए साल की शुरूआत का जो एक मासूम सा मक़सद अगर हुआ भी करता था वह भी नहीं रहा है....ऊपर से यह वाट्सएप पर नए साल की बधाईयां देने-लेने वालों का तांता...बड़ी चिढ़ है मुझे इन सब संदेशों से ...

मैं यह सोचता हूं कि सुबह उठ कर ...साल नया हो या पुराना....सब से पहले सारी कायनात की सलामती की दुआ कर दें तो उस में सभी लोग शामिल हो जाते हैं...😄मैं किसी को भी बहुत कम नए साल की बधाई भेजता हूं क्योंकि मैं सभी लोगों की सलामती, खुशहाली की दुआ दिल में ही कर लेता हूं ....कईं बार मेरा इन फ़िज़ूल बातों से सिर दर्द ही ट्रिगर हो जाता है और फिर सारा दिन बन्ने लग जाता है ...

अभी बज रहे हैं ११ बज कर ४५ मिनट ...पंद्रह मिनट अभी हैं नए साल के शुरू होने में ...इसलिए अभी यह फिल्मी गीत सुनता सुनता सो रहा हूं ......ताकि न मुझे कोई डिस्टर्ब करे, न ही मैं किसी को करूं ...मै किसी को नए साल की मुबारकबाद का फोन भी नही करता ...क्योंकि मुझे लगता है कि लोग पहले ही ढ़ेरों बधाई संदेशों से त्रस्त होंगे ...उन्हें थोड़ी सांस भी लेने दें...

अच्छा, दोस्तो, इस पोस्ट को पढ़ने वालो, आप सब के लिए २०२२ नईं खुशियां और उमंगे लेकर आए ...और सब से ज़रूरी आप सेहतमंद रहें, खुश रहें, खिले रहें ....और खुशियां बांटते रहें हमेशा ...गुड नाइट ....

बुधवार, 29 दिसंबर 2021

शहर की इस दौड़ में दौड के करना क्या है...!



यही कोई १५ साल तो हो गये होंगे, इस फिल्म को आए हुए...फिल्म तो बढ़िया थी ही, बेशक...लेकिन इस फिल्म का यह बेहद हसीन डॉयलॉग मेरे तो जैसे दिलो-दिमाग पर छा गया...मुझे याद नहीं मैंने कितनी बार अपने ब्लॉग में इस का ज़िक्र किया...डॉयलॉग क्या है भाई यह तो जैसे हम लोगों के लिए एक आईने का काम कर रहा है ...लेकिन आईना देखने की भी फ़ुर्सत है कहां, हम पहले अंधी रेस तो दौड़ लें..

कुछ दिन पहले मैंने कहीं पढ़ा कि सत्यजीत रे जब ६ साल का बालक था तो उस की मां उसे रबिन्द्रनाथ टैगोर के पास ले कर गई ...और उन्हें उस की कापी पर कुछ लिखने को कहा ...उन्होंने उस की कापी पर यह लिखा ...

Many miles I have roamed, over many a day....
from this land to that, ready for the price to pay..
Mountain ranges and oceans lay in my way..
yet two steps from my door, with wide open eyes..
I did not see the dewdrops on a  single sheaf of rice....

इसे लिखने के बाद टैगोर ने उस की मां को कहा कि यह कागज़ इस बालक के पास ही रहने देना, जब यह बड़ा होगा तो इस में लिखी बातें समझ जाएगा। जी हां, हुआ भी वही ...उस बालक ने भी इतनी अहम् बात को ऐसा समझा कि जो फिल्में उसने अपने आस पास के परिवेश में, आस पास के लोगों के बारे में बनाईं, उन की धूम किसी सूबे या देश ही में ही नहीं, सारी दुनिया में वे मास्टरपीस मानी गईं...


कोई भी ज्ञान कहीं से भी मिल जाए...किसी भी उम्र में ले लेना चाहिए...६ साल की उम्र में और मेरी ६० साल की उम्र में फ़र्क है ही कितना ..मुझे भी यह बात इतनी बढ़िया लगी कि मैंने इसे लिख कर एक एंटीक फ्रेम में अपनी स्टड़ी टेबल पर रिमाँइडर के तौर पर टिका दिया है ...अकसर निगाह पड़ जाती है और मन ज़्यादा इधर-उधर भटकने से बचा रहता है ...वरना, हर वक्त यही बात ..यार, मैंने स्विज़रलैंड नहीं देखा, कश्मीर नहीं देखा, नार्थ-इस्ट नहीं देखा...महाबलेश्वर नहीं देखा....और लंबी-चौड़ी लिस्ट ....यहां नहीं गए, वहां नहीं गए....अजंता -एलौरा नहीं गए तो क्या हुए...तस्वीरें तो देख लीं...अब यही लगने लगा है कि सहजता से, आसानी से जहां जाया जा सके ठीक है ...वरना क्यों इतनी मगजमारी की हर वक्त बंदा देश-विदेश के दौरों की प्लॉनिंग ही करता फिरे ...

हम सारी उम्र घूमते ही रहें...फिर भी कुछ न कुछ ही नहीं, बहुत कुछ रह जाएगा...एक किताब पढ़ रहा हूं ...वंडर्ज़ ऑफ दा वर्ल्ड ...यह सात अजूबों की नहीं, दुनिया के बहुत से अजूबों के बारे में बताती है ...पढ़ते हुए यही अहसास होता है कि इतनी बढ़िया दुनिया, इतने बड़े बड़े अजूबे, पहले अगर पढ़ता तो यही लगता कि इन में से ताजमहल के अलावा कुछ भी नहीं देखा, लेकिन अब मन ठहर सा गया है...समझ आने लगी है ..कि नहीं देखा तो भी कोई बात नहीं, जब देखेंगे देख लेंगे ..अगर मुमकिन हुआ तो अच्छा, अगर नामुमकिन हुआ तो भी  बढ़िया ...

हम लोगों की परेशानी यही है कि हम दूर दूर की जगहों पर जाते हैं, दूर बैठे लोगों से पेन-फ्रेंडशिप करते हैं....लेकिन अपने पास ही के लोगों से ढंग से तो क्या, बेढंग से भी बोलते-बतियाते नही, आसपास की जगहों में रूचि नहीं लेते ..जहां हम रहते हैं वहां से पांच-दस किलोमीटर के घेरे में आने वाले ऐसे कईं स्थान हैं जिन्हें हम ने कभी देखा ही नहीं ...लेकिन देखें भी तो कैसे, उस के लिए पैदल चलना होगा, किसी टू-व्हीलर पर उन सड़कों को नापना होगा...हम मोटर-गाड़ियों में दूर दूर से जगहों को देखते हैं....और मन ही मन सोचते हैं कि हां, इधर भी कभी आना है ..लेकिन वह कभी कब आता है .....इस का कुछ पता नहीं ...अकसर तो आता ही नहीं...जैसे कल मेरी एक कॉलेज की साथी ने यह बहुत ही हंसाने वाली वीडियो भेजी वाट्सएप पर ...देखते ही मज़ा आ गया....उस में साथ में यही लिखा था कि जब आप रिटायर होने के बाद फैरॉरी लेते हैं तो आप का भी यही हश्र होता है ... 😄😄😄ओ माई गॉड, यह तो मुझे खुद की बीस साल बाद की तस्वीर दिखी...लेकिन ज़िंंदगी जीने की भी इतनी जल्दी क्या है, पहले बैंक-बेलेंस को तो मोटा कर लें...वह कही ज़्यादा ज़रूरी है ...😂😉



वीडियो की तो बात क्या करें, अपनी हालत पर ही हंसी आती रही कि कभी पलंग के नीचे से कुछ निकालना हो तो नानी याद आ जाती है, बाथरूम में किसी चौकी पर बैठ कर उठना ऐसा मुश्किल लगने लगा है कि अब वहां पर खूब ऊंचे स्टूल पर बैठ कर ही खुद को नहलाया जाता है, कपड़े की अलमारी की नीचे की शेल्फों को देख कर गुस्सा आता है कि कौन इतना झुके और कैसे झुके ...इसलिए वहां पर भी कुछ देखने के लिए ऊंचे स्टूल पर बैठना पड़ता है ....यह है हमारी फिटनैस का लेवल...





हम बड़ी बड़ी प्लॉनिंग ही करते रह जाते हैं ...और कब ३० से ६० के हो जाते हैं, पता ही नहीं चलता लेकिन तभी घुटने चीखना चिल्लाना शुरू कर देते हैं ....😄😎😂

पिछले कुछ दिनों से मैं खार-बांद्रा की एक सड़क की तरफ़ से ऑटो पर जब निकलता तो वहां पर राजेश खन्ना पार्क का बोर्ड लगा देखता....कल सुबह सुबह यह धुन सवार हो गई कि वहां हो कर आते हैं..चला गया जी ..वाह, इतना खूबसूरत पार्क ...खुब हरा-भरा ...मज़ा आया वहां जाकर ...दस मिनट टहले, फिर डयूटी जाने का ख्याल आया तो लौट आए....वहां पर राजेश खन्ना की सुपर-डुपर फिल्मों के पोस्टर भी लगे थे जिन्हें देख कर तो और भी अच्छा लगा...मैंने किसी से पूछा कि इस का नाम राजेश खन्ना पार्क है, क्या यह उसने बनाया था...एक टहल रहा बंदा रूक गया और बताने लगा कि हां, बनाया तो उसने था, लेकिन बाद में बीएमसी ने इस का रखरखाव अपने पास ले लिया...

चलिए, रखरखाव कोई भी करे, हमारे लिए अच्छी बात यह है कि पार्क बहुत सुंदर है, बहुत से लोग वहां पर अपने दिलो-दिमाग की चार्जिंग अपने अपने अंदाज़ में बड़े जोशो-खरोश से कर रहे थे, देख कर बहुत ही अच्छा लगा....हमने भी यह निश्चय किया कि किसी दिन आते हैं यहां पर फुर्सत में दो एक घंटे बैठ कर मज़ा लेंगे ...देखते हैं, वे फुर्सत के पल कब आते हैं...






ज़्यादा दूर न भी जाएं या जा पाएं तो घर ही के आसपास गलियों की खाक छानते ही हमें ऐसी ऐसी चीज़ें, कलाकारों के ऐसे काम दिख जाएंगे कि एक बात तो दांतों तले अंगुली दबाते दबाते रह जाएं...


 दो-तीन साल पहले की बात है ...मैं अपनी बहन के पास जयपुर गया तो हमने एक पार्क में जाने का प्रोग्राम बनाया...इतना बड़ा पार्क ...हम लोग वहां दो घंटे घूमते रहे ...हमें वापिस निकलने का रास्ता ढूंढने में दिक्कत हुई ....बहन ४० साल से जयपुर में है, वहां पर पहली बार मेरे साथ गई थी...यही हाल हम सब का है, हम अपने शहरों को अमूमन इतना ही देख पाते हैं, जानने की बात न ही करें...

सस्ती दवाई पाना भी कहां इतना आसां है!

डयूटी से आने पर आज दो तीन घंटे सोया रहा ...सिर दर्द से परेशान था...रात साढ़े आठ नौ बजे उठा तो ख्याल आया कि एक दवाई खरीदनी है ..नानावटी अस्पताल का नुस्खा था...पाली हिल के एरिया में तीन-चार दुकानें छान लीं...नहीं मिली दवाई .. दिन-रात चलने वाली वेलनैस कैमिस्ट की एक दुकान है ...उन के यहां भी न मिली ..कहने लगे कल शाम को मिलेगी...लेकिन इतना वक्त किस के पास होता है आजकल कि चक्कर मारते फिरो एक दवाई के लिए...

मैंने वेलनैस वाले कैमिस्ट से ही पूछा कि यह मिलेगी कहां ...कहने लगा कि किसी अस्पताल की फार्मेसी से ही मिल पाएगी...मैंने पूछा होली-फैमिली से मिलेगी? - उसने कहा कि हां, वहां ज़रूर मिल जाएगी। मैं होली-फैमिली की तरफ़ चल दिया...रास्ते में मुझे यही ख्याल आ रहा था कि दवाई तो यह बहुत सस्ती होगी, इसलिए ही नहीं मिल रही। वरना, महंगे टॉनिक, सप्लीमैंट जैसी दवाईयां तो आज कल छोटे से छोटे कैमिस्ट ऱखने लगे हैं...

होली फैमिली वाले सिक्योरिटी गार्ड ने अंदर जाने से पहले नुस्खा चैक किया...मैंने फार्मेसी के काउंटर पर बैठी महिला को पर्चा दिया तो उसे देखते ही वह अपनी साथी फार्मासिस्ट से बुदबुदाई...नानावटी अस्पताल की प्रिस्क्रिप्शन है। खैर, वह दो मिनट तक कंप्यूटर में तांका-झांका करने के बाद कहने लगी कि हम तो अपने अस्पताल के डाक्टर की प्रिस्क्रिप्शन पर ही दवाई देते हैं। खैर, बंबई में किसी से भी बहस फिज़ूल है ..यह ज्ञान बहुत ज़रूरी है। उसने कहा कि अस्पताल के बाहर जो कैमिस्ट है, उस से पता कर लीजिेए।

बाहर आते वक्त मैंने उस सिक्योरिटी गार्ड से पूछा कि तुमने मेरा पर्चा चैक तो किया लेकिन उसमें देखा क्या...अगर मुझे यहां से दवाई नहीं मिलनी थी, तो मुझे यहीं से लौटा देते, क्योंकि ये तो बाहर के नुस्खे पर दवाई देते ही नहीं। सिक्योरिटी वाला कहता है कि अगर हम अंदर नहीं जाने देते तो लोग हम से उलझते हैं, हम क्या करें...और उसने बताया कि ऐसा नहीं है कि बाहर के नुस्खे पर दवाई नहीं मिलती, किसी को मिल जाती है, किसी को नहीं देते ....मैंने वहीं पर उस बात पर मिट्टी डाली और उस महिला के द्वारा बताए गये कैमिस्ट के पास चला गया लेकिन वहां भी नहीं मिली...कहने लगा कि इस की खपत कम है, इसलिए रखते नहीं। हां, उसने यह कहा  कि लीलावती अस्पताल से पता कर लीजिए, वहां ज़रूर मिल जाएगी। 

मैं लीलावती अस्पताल पहुंच गया...वहां पर भी उसने कंप्यूटर में देख कर यही बताया कि यह दवाई इस स्ट्रैंथ की नहीं है, इस से ज़्यादा की है ...आप इधर ही लैफ्ट में चले जाइए...नोबल कैमिस्ट है, वहां से पता कर लीजिए। मुझे तो आते वक्त कोई न कोई नोबल, न कोई क्रयूएल कैमिस्ट दिखा...लेकिन लगभग एक डेढ़ किलोमीटर के बाद हिल रोड पर मेहबूब स्टूडियो के सामने एक दवाई की दुकान पर नज़र गई तो नोबल लिखा था...उस के अंदर जा कर पूछा तो वहां से दवाई मिल गई ...कुल चालीस रूपये की दवाई थी ....और एक-डेढ़ घंटे की स्कीम हो गई। 

मुझे यही लगता है ..पता नहीं अब ठीक लगता है या नहीं, कि ऐसी सस्ती दवाईयां रख कर वे लोग अपनी इंवेंट्री क्यो बढ़ाने लगें...इन में कमाई ही क्या है...अभी मैं दवाई ले रहा था कि एक जेंटलमेन आया कि खांसी की दवाई लेनी है। मुझे अपना बचपन याद आ गया कि हम लोग या हमारे मां-बाप भी तो ऐसे ही अमृतसर इस्लामाबाद चौक पर सरदार कैमिस्ट के पास जा कर खड़े हो जाते थे कि हमें यह तकलीफ है, वह एक दो सवाल पूछता और हमें दो-तीन खुराक दे देता ...यही कोई १५-२० रुपये में (४५-५० साल पुरानी बातें ...) ...मेरे माता पिता की नज़रों में वह अमृतसर का सब से सयाना कैमिस्ट था ...जब भी मेरा गला खराब होता, थूक निगलने में भी दिक्कत होने लगती तो मेरे पापा दफ्तर से लौटते वक्त वहां से दो-चार टैरामाइसिन की खुराकें ले आते ...और हम एक-दो कैप्सूल और पापा से हल्की सी डांट खाने के बाद टनाटन हो जाते ...और पापा की डांट यही होती कि यार, खट्टे चूरन मत खाया कर, उसमें टाटरी पड़ी होती है, तू समझता क्यों नहीं ...

आज इस ४० रूपये की दवाई खरीदने के चक्कर में मुझे जब इतनी भाग-दौड़ करनी पड़ी तो मुझे यही ख्याल आ रहा था कि एक तो यह हालत है और दूसरी तरफ़ सरकारी अस्पतालों में दवाईयों के अंबार लगे हुए हैं...फिर भी !!!!!😷चुप रह यार, चुप भी रहना सीख ले...वरना किसी दिन बुरा फंसोगे तुम ....खुद को समझाने की कोशिश कर रहा हूं...

शनिवार, 25 दिसंबर 2021

आज बड़ा दिन तो है....ठीक है!

अभी अभी उठा हूं...आज बड़ा दिन है ...हैपी क्रिसमिस है ...लेकिन इतनी शांत और ठहरी ठहरी सी सुबह...चलिए, सुबह की इस सुंदर बेला का जश्न मनाने के लिए एक खूबसूरत गीत सुनते हैं पहले...बातों का क्या है, वे तो होती ही रहेंगी...


मुझे आज अचानक ख्याल आ रहा है कि आज से ४०-५० साल पहले कोई भी तीज-त्यौहार का दिन हो या कहीं भी जागरण हो, रामलीला हो, होली-दीवाली हो या पड़ोस में किसी के घर में महिलाओं की कीर्तन मंडली ने दोपहर में कीर्तन ही करना होता या कहीं पर सुंदर-पाठ का आयोजन होता, सत्यनारायण की पूजा होनी होती, सरकारी पब्लिसिटी महकमे की ओर से कोई फिल्म ही दिखाई जानी होती तो उस से कईं घंटे पहले हमें ऊंची ऊंची आवाज़ में बड़े बड़े लाउड-स्पीकरों पर बज रहे अपने मनपसंद फिल्मी गीतों के ज़रिए उस की सूचना मिल जाती ..

लाउड स्पीकर ही क्यों...राखी, भैया दूज आदि के दिन तो सुबह सुबह सभी घरों में ऊंची ऊंची आवाज़ में राखी से जुड़े सुपर-डुपर गीत बजने लगते ...हमें भी यूं लगता कि हां, यार, आज जश्न का दिन है ..

इन फिल्मी गीतों की अहमियत हमारे लिए इतनी थी कि वे उम्र भर के लिए हमारे साथ ही हो लिए...होली के दिन जब तक वे गीत नहीं बजते ..होली जैसा लगता ही नहीं कुछ ...😂😂प्रूफ के लिए इस लिंक पर क्लिक करिए और यह गीत सुनिए....आज न छोडेंगे...खेलेंगे हम होली...

मेरी तो बचपन-जवानी की सारी यादें अमृतसर शहर की हैं...लेकिन अकसर यह सभी शहरों की ही दास्तां होगी ... गली,मोहल्ले और अड़ोस-पड़ोस में किसी के घर किसी शादी का आयोजन होता तो सुबह ही छत पर बड़े बड़े स्पीकर से हमें अपने मनपसंद फिल्मी गीत सुनने लगते ....बहुत मज़ा आता था ...बार बार सुन कर भी हम कहां बोर होते थे ...यह कमबख्त बोर लफ़्ज़ ही से हम वाकिफ़ न थे, हमें तो वैसे भी हर पल उत्सव जैसा लगता था..हर वक्त अपनी ही सुनहरे ख़्वाबों में खोए-खोए से अपने आप में मस्त रहना ...ज़िंदगी को एक वक्त में एक ही दिन के लिए ही जीना ही हमें जीना लगता था...

१९७५ की बात है ...शोले फिल्म जब आई तो हमें बडे़ बड़े लाउड स्पीकरों पर दिलकश फिल्मी गीतों के साथ साथ फिल्मों के ़डायलॉग भी हमें सुनने को मिलने लगे ...गब्बर, कालिया, जय-वीरू की बातें और बसंती की चुलबुली बातें जैसे हमें रट गईं ....अपने सिलेबस से भी कहीं ज़्यादा अच्छे से...लोगों में सहनशक्ति थी ...किसी के दुःख सुख का ख्याल रखते थे ...थोड़ी बहुत असुविधा भी होती थी तो चुपचाप सह लेते थे ...पंजाबी च कहंदे ने जर लैंदे सी...लेकिन हमें तो यह सब बहुत अच्छा लगता था...
हम भी उस वक्त किताब-कापी लेकर मेज़ पर पढ़ने का नाटक करने बैठ तो जाते थे लेकिन कमबख्त सारा ध्यान उस लाउड-स्पीकर से बज रहे गीतों पर ही हुआ करता था ...

किसी के यहां रात में जागरण होना होता तो शाम ही से माता की भेंटे बजने लगती ...कहने का मतलब की पूरा माहौल तैयार हो जाता था रात होते होते ...अभी लिखते लिखते ख्याल आ रहा कि अमृतसर के इस्लामाबाद एरिया में एक पीर की जगह थी ..जहां पर लोग वीरवार के दिन सरसों का तेल कटोरी में ले जाकर चढ़ाया करते थे ...कहते थे इस से मन्नत पूरी हो जाती है ...लेकिन मेरी तो न हुई ...बेवकूफी की हद यह कि नवीं-दसवीं कक्षा में जब स्वपन-दोष (वेट-ड्रीम्स) की शुरूआत हुई तो मैं तो भई परेशान रहने लगा, पढ़ाई में मन ही न लगता...यही लगने लगा कि यह कौन सी बीमारी लग गई....मन ही मन मैंने देखा कि पीर बाबा के बारे में बताते हैं कि वह जगह बड़ी पहुंची हुई है ...

मैंने भी वहां पर वीरवार के दिन सरसों का तेल लेकर पहुंच जाना और वहां पर जल रहे दीयों में उसे डाल कर आना और दिल की गहराईयों से यही अरदास करता कि बाबा, मुझे इस बीमारी से छुटकारा दिला दो ....लेकिन कईं साल बाद पता चला कि यह स्वपन-दोष कोई दोष तो है ही नहीं, यह तो सामान्य सी बात है और सभी को इस अवस्था से गुज़रना ही पड़ता है ...उसमें पीर क्या उखाड़ लेता ...हम लोग भी ऐसे बुद्दू थे...थे से मतलब?😂😎सच में हमें दीन-दुनिया की कुछ समझ न थी, न ही हम लोग लोग किसी बड़े बुज़ुर्ग के साथ, यहां तक कि बड़े भाई के साथ ही ऐसी कोई बात करते थे कि उन से ही पूछ लें कि ऐसा क्यों हो रहा है....लेकिन पूछते कैसे, हमें तो लगता कि इसमें भी हमारा ही कोई दोष है ....😎😎

चलिए, पुरानी बातों पर मिट्टी डालें ...हां, तो पीर बाबे की जगह पर तो फिल्मी कव्वालियां तो लाउड-स्पीकर पर चल ही रही होतीं ...कुछ लोगों के घरों में जिन की मन्नत पूरी हो चुकी होती ....(खुदा जाने उन की क्या मन्नत पूरी हो चुकी होती, मैंने तो अपनी बेवकूफ मन्नत की पोल-पट्टी खुद ही खोल दी है...😎😂)...तो उन के घर मे एक देग में शाम के वक्त गुड़ वाले मीठे चावल पकाए जाते और उस देग को एक साईकिल रिक्शा पर रख कर उस पीर की मजार पर लेकर जाया जाता और वहां आने वाले भक्तों में उसे बांटा जाता ....और उस घर में शाम से ही वहीं फिल्मी सूफी-कव्वालियां बड़े बड़े लाउड-स्पीकरों पर हमें सुनाई देने लगतीं...


और जहां तक धुंधला सा ख्याल आ रहा है कि किसी के यहां शोक में अगर कोई आयोजन होना होता - भोग, श्रद्धांजलि आदि--वहां पर वही माईं डिप्रेसिंग से गीत की माईं तू संसार में लेकर क्या आया है, लेकर क्या जाएगा, ये चौरासी का फेर है, ये सब डराने वाली बातें ..नरक में जाएगा, स्वर्ग में सीट बुक करवा ले .....सच में हमें उस उम्र में ये सब बेकार की बातें ...मन को उदास करने वाली बातें बहुत बुरी लगतीं, हां, आज भी लगती हैं....सच में उस वक्त सारे ऐसे गीत बजते जैसे अगले दो घंटे में सारी दुनिया तबाह होने वाली है ...

और क्या होता था....त्योहारों पर ...मिठाईयां खाई जातीं, केक खाए जाते (तब काटने का चलन न था...बस हमें केक-खाने का ही पता था....)और बहुत से लोग नए-नए कपड़े इन त्योहारों पर पहनने के लिए खरीदते ... देखा जाए तो उस नज़रिए से तो अब दिन जश्न का दिन होना चाहिए ...लेकिन ऐसा है नहीं ...क्यों नहीं है, यह हमें ख़ुद से पूछना होगा...आराम से, इत्मीनान से, सुकून से खुद के साथ बैठ कर ...मुझे लगता है हम इतने समझदार हो गए हैं कि अब हमने जश्न के लम्हों की बजाए सुख-वैभव की चीज़ों में खुशियां ढूंढना शुरू कर दिया है .....

बस करूं, मैं भी बड़े दिन के क्या लिखने बैठ गया..रात में मैं ईज़ी-चियर पर पडे़-पड़े वह गीत याद करता रहा ...हमारे दौर का बहुत ही पापुलर गीत .....


क्रिसमिस की बहुत बहुत बधाईयां ....और भी बहुत सी यादें हैं, इस त्यौहार की ..फिर कभी आप से कहेंगे...😂....अभी यू-टयूब पर बचपन वाले पीर-बाबे को सर्च करना चाहा तो बीसियों रिज़ल्ट आ गए...मैंने चुपचाप उसे बंद कर दिया ...कि कहीं फिर से तेल चढ़ाने के चक्कर में न फंस जाऊं...बहुत मुश्किल से तो पहले ही उस फिसलन से बाहर निकला हूं....आराम से यही गीत वीत ही  सुनते हैं...और बड़े दिन के जश्न में शामिल हो जाते हैं....

सोमवार, 15 नवंबर 2021

पवाड़ा जूतों का ...

"एक तो हमारी समझ में यह नहीं आता कि आप लोग जूते उतरवाने के पीछे क्यों इतना हाथ धो कर पड़े रहते हो हर वक्त" .. जब आईसीयू के बेड नंबर तीन पर ज़िंदगी और मौत की जंग लड़ रही एक दादी के पोते ने बड़ी बेरुखी से संदीप को यह कहा तो उसे कहना ही पड़ा -   " ताकि आप अपने मरीज़ को सही सलामत लेकर घर लौट सको!"

संदीप एक बहुत बड़े सरकारी अस्पताल के आईसीयू में एक मेल-नर्स है ...जिसे आज कर ब्रदर कहने का चलन है...बड़ी निष्ठा से अपना काम करता है ...यह जो एक दादी का पोता उसे कुछ कह गया, यह उस के लिए कुछ नया नहीं था। कभी किसी को आईसीयू के अंदर जाने से रोकने पर, कभी किसी को मरीज़ के पास ज़्यादा न रूकने की ताक़ीद करने पर, कभी जूता बाहर उतार कर आने के लिए कहने पर ...इस तरह की थोड़ी बहुत नोंक-झोंक होती ही रहती थी...

ख़ैर, किसी को बुरा लगे या अच्छा, संदीप किसी को अच्छा-बुरा लगने की परवाह किए बगैर कायदे से अपनी ड्यूटी करता था ताकि आईसीयू में किसी तरह के संक्रमण से मरीज़ों को बचाया जा सके...

संदीप को आज ऐसे ही बैठे बैठे ख़्याल आ रहा था कि जूतों की भी अजब चिक-चिक है...कभी न पहनने की बातें, कभी पहनने की ज़िद्द ....कभी फटे हुए, कभी सिले हुए...किसी के तीन सौ रूपये के ...किसी के छः हज़ार के ...

दो दिन पहले एतवार के दिन गांव से उस का चचेरा भाई बिट्टू उस से मिलने आया था...उसे शहर में कुछ काम था, बैंक के लोन-वोन का कुछ चक्कर था, किसी बड़े अफसर से कुछ सैटिंग करने आया था...सुबह संदीप से कहने लगा - भाई, सुना है यहां की रेस-कोर्स देखने लायक है ...अगर फ़ुर्सत हो तो मुझे भी दिखा दो। संदीप को आज फ़ुर्सत ही थी और वैसे भी बिट्टू इतने बरसों बाद आया था..।

 वे दोनों साढ़े बारह बजे के करीब पहुंच जाते हैं रेस-कोर्स ...संदीप ने मोटर साईकिल पार्किंग में खड़ी की और गेट पर पहुंच गए जहां अंदर जाने के लिए टिकट मिलती थी। संदीप को यह तो पता था कि टिकट लगती है लेकिन उसे लगा कि यही कोई सौ-दो रूपये की टिकट होगी..इसलिए उस की जेब में सात-आठ रूपये ही थे, एटीएम कार्ड भी था वैसे तो..लेकिन यह क्या !

टिकट के काउंटर पर पहुंचने से पहले ही दो दरबानों ने बिट्टू को अंदर जाने से रोक दिया...संदीप को एक झटका सा लगा...बिटटू ने कपड़े भी ठीक ठाक पहने हुए थे ..और लेदर की चप्पल भी नयी ही लग रही थी। लेकिन यही चप्पल का ही तो पंगा था...सिक्यूरिटि गार्ड ने कहा कि बिना शूज़ पहने अंदर नहीं जा सकते। दो चार बार संदीप ने उन से कहा कि कहा कि जाने दो ऐसे ही, पता नहीं था, लेकिन आप लोगों को पता ही है कि ये दरबान कहां मानते हैं...इन का रुआब तो बड़े बड़े को उनकी औकात याद दिला देता है...

संदीप मन ही मन सोच रहा था कि यार, यह तो बड़ी मुसीबत हो गई बैठे-बिठाए...अब कहां से लाएं शूज़.... लेकिन बिट्टू का मन तो अंदर जाने के लिए मचल रहा था..उसने संदीप से कहा कि चलो, यार, कहीं से कोई चालू किस्म के शूज़ खरीद लेते हैं....

दस मिनट बाद वे लोगों मोटरसाईकिल पर बैठ कर एमजी रोड पहुंच गए...ऐसे ही छोटी-मोटी दुकाने थीं, दो तीन दुकानें घूम कर उन्होंने एक गुरगाबी खरीद ली...चार सौ रूपये में ....बिट्टू चाह तो रहा था कि सौ-दो सौ रूपये में ही कुछ मिल जाए...लेकिन उस के लिए उन लोगों को किसी चोर-बाज़ार में ही जाना पड़ता...शायद चले भी जाते, लेकिन वक्त न था।

वापिस लौटते हुए संदीप ने बिटटू को कहा कि अंदर जाने का टिकट ५०० रूपए है...अगर मोबाइल साथ लेकर अंदर जाना है...और दो सौ रूपये अगर मोबाइल बाहर ही रख कर जाना है...बिट्टू ने संदीप से कहा कि वह तो अपना फोन साथ ही रखे, आई फोन है,  वह (बिट्टू) अपना फोन बाहर ही रख देगा। संदीप ने उस से इतना ही कहा कि देखते हैं...

बाइक को दोबारा पार्किंग में खड़ी करने के बाद एन्ट्रेंस गेट की तरफ़ जाते हुए दोनों देख रहे थे जो लोग मर्सिडीज़ से नीचे उतर रहे थे  सिर्फ़ अपने थ्री-पीस सूट की वजह से और महंगी गाडि़यों में आने की वजह ही से उन की पहचान थी...वे दोनों आपस में मज़ाक कर रहे थे अगर इन सेठ लोगों ने यह थ्री-पीस न पहना हो और पैरों में चप्पल पहनी हो तो ये मोहल्ले की किसी किराना दुकान चलाने वाले लगें..उन की शख्शियत में ऐसा कुछ भी न था जिन की वजह से वे कुछ विशिष्ठ लग रहे हों....हंसते हंसते वे लोग अंदर घुस गए...

बिट्टू को उस की ब्राउन पैंट के साथ मैचिंग करती गुरगाबी पहने देख कर एक सिक्यूरिटि गार्ड ने इतना ही कहा ... " यह हुई न बात ! "...लेकिन उन दोनों ने उस की बात को सुना-अनसुना कर दिया...वे वैेसे ही खीज से रहे थे ...मन ही मन बिट्टू ने सिक्यूरिटी गार्ड को दो-तीन गालियां निकालीं और यही सोचा कि वे लोग ठीक हैं जो इन लोगों को इन की औकात का आइना दिखाते रहते हैं....ये लोग ज़्यादा मुंह लगने वाले नहीं होते। 

टिकट खिड़की पर संदीप ने टिकट लेने के लिए पर्स निकाला तो काउंटर पर बैठे स्टॉफ ने कहा कि एक टिकट एक हज़ार की है ...संदीप ने सोचा कि बिट्टू को ही टिकट दिलवा कर अंदर भेज देता हूं ..फिर पता नहीं उसके मन में क्या ख़्याल आया कि उसने दो हज़ार में दो टिकटें खरीद लीं और अंदर चले गए...रेस चल रही थीं ...और हां, अंदर जाने से पहले बिट्टू ने रेस की किताब खरीद ली थी ..चालीस रुपये में ..उसे रेस में बेटिंग करने का कुछ इल्म था...

एक रेस में बिट्टू ने १०० रूपये की बेटिंग की ...चार सौ रूपये जीत गया...फिर उसने एक बार सौ और एक बार दो सौ रूपये की बेटिंग की ...लेकिन वे डूब गये। बि्टटू ने मज़ाक मज़ाक में अपने मुंह पर हल्के से एक चपत लगाई कि मैंने कैसे इतना बेकार दांव लगा दिया..संदीप ने कहा, ज़्यादा सोचा मत कर, जो हो गया उसे बिसार दे, आगे की सुध ले ....गलतियों से सीखना ही आदमी का धर्म है। संदीप बिट्टू को खुश देख कर और भी खुश था...लेकिन वह जिधर भी नज़रें दौड़ा रहा था उसे यही लग रहा था कि यार, अगर यह बंदा सूट की जगह बनियान और पायजामा पहने हो तो रामू हलवाई से भी गया गुज़रा दिखे...और अगर देख, बिट्टू, देख, उस ग्रे-सूट वाले को देख....अगर यह महंगे सूट में न हो तो बाहर खड़े दरबान उसे माली समझ कर बाहर ही रोके रखें...

संदीप और बिट्टू का हंसी मज़ाक भी चल रहा था...संदीप बि्टटू से यही कह रहा था कि यार, हिंदोस्तान में दो देश बसते हैं....भारत और इंडिया ...इन दोनों का पहरावा, इन का रहन-सहन, इन की भाषा, इन की किताबें, इन की कलमें ......सब कुछ अलग अलग है..हम तो हिंदु-मुस्लमान के मुद्दे पर ही अटके पड़े हैं, लेकिन असल मुद्दे तो यही हैं ....असली पवाड़ों की जड़ तो ये सब बाते हैं....इन की फिल्में अलग, इन के नाटक अलग, रेस्ट्रां अलग, बातें अलग .......कुछ भी नहीं मिलता इन दोनों का आपस में ...यह असलियत है ......यही असलियत है....

यही सोचते सोचते वे लोग रेस खत्म होने पर बाहर आ गए...मोटरसाईकिल पर बैठ कर वापिस लौटते हुए संदीप यही सोच रहा था कि ऐसी टुच्ची जगह पर इतना रिजिड ड्रेस-कोड ---समझ से परे है.......अचानक उसे ख्याल आया कि दो दिन पहले जब देश के राष्ट्रपति महोदय पद्म अवार्ड से महान शख्शियतों को सम्मानित कर रहे थे तो जो लोग बिना जूतों के ही वहां पहुंच गये थे या हवाई चप्पल में ही अवार्ड लेने पहुंच गये थे, सारा देश उन की सरलता, उन के काम की विशालता, महानता और विनम्रता की तारीफ़ कर रहा था...और यहां ऐसी जगहों पर लोगों के पैसे की लूट मची हुई है लेकिन सलीके से उसे शूज़ पहना कर, उसे जेंटलमेन होने का मुखौटा पहना कर ....


और हां, अगले दिन जब शाम को संदीप बिट्टू को स्टेशन पर गाड़ी में बिठाने गया तो उसकी नज़र बिट्टू के पास बैठे किसी युवक के सीमेंट में लिपे हुए शूज़ की तरफ़ गई तो वह सोचने लगा कि इस के शूज़ तो उन सफेदपोश लुटेरों से कहीं ज़्यादा चमकदार, शानदार हैं जो दूसरों का माल हड़प कर जाते हैं ....यह बंदा तो सुबह से शाम घरों की चिनाई-लिपाई-पुताई कर के खून-पसीने की खा रहा है...इस के जूते उन सब फरेबियों, जालसाज़ों, फांदेबाज़ों से कहीं ज़्यादा उम्दा हैं...क्योंकि इन पर चिपका हुआ  दिन भर की मेहनत का सबूत इन की शान बढ़ा रहा है...


शनिवार, 13 नवंबर 2021

जब टूटी चप्पलें घर लाना लाज़िम होता था...

मेरी पिछली पोस्ट शायद आपने देखी होगी...अगर नहीं देखी, तो कभी फ़ुर्सत में देख लीजिएगा...यकीं है आप बोर नहीं होंगे ...यह रहा उस का लिंक ...जब टूटी हुई चप्पलों को सिलवा लिया जाता था...

हां, तो बड़े भाई को बहुत पसंद आई ....और जो उन्होंने उस के ऊपर मुझे टिप्पणी लिख कर भेजी, मैं वह देख कर बहुत हंसा...क्योंकि इतने पते की बात पता नहीं मैं कैसे लिखनी भूल गया था...वैसे भी मैं तो अकसर कहता ही हूं अपनी बड़ी बहन से और बड़े भाई से जो मेरे से क्रमशः १० और ८ साल बड़े हैं कि हमारे माहौल में रहने का उन के पास मेरे से कहीं ज़्यादा ख़ज़ाना है ...तभी तो वे कभी कभी ऐसी बातें कह देते हैं कि मैं भी हैरान हो जाता हूं...

हां, तो भाई ने लिखा कि पोस्ट पढ़ कर उन्हें भी वह गुज़रा दौर याद आ गया...और वे लिखते हैं - चप्पल चाहे कितनी भी बुरी तरह से टूटी होती, लेकिन उसे उसी हालत में लेकर घर लौटना ज़रूरी होता था...और टूटी हुई चप्पल घर लाने के लिए बंदे को चाहे कितना भी आढ़ा-तिरछा, टेढ़ा-मेढ़ा  होकर चलना पड़ता, वह चलता ...कईं बार तो चप्पल हाथ में उठा कर नंगे पांव चलते हुए घर तक पहुंचते और कईं बार टूटी चप्पल से घिसट-घिसट कर चलते हुए और हाथ से साईकल के हैंडल को थामे हुए घर पहुंच कर ऐसी फीलिंग आती थी मानो कोई किला फतह कर के पहुंचे हों... 

भाई मुझे जब सामने बैठ कर यह बात करता है तो हंसते हंसते पूछता है कि उस माई हावी टुट्टी चप्पल नूं बाहर ही सुट्ट के फ़ारिग हो कर घर लौटने का रिवाज़ नहीं सी, न जाने क्यों...

भाई आगे लिखता है टूटी चप्पल घर पर पहुंचाने के बाद फिर लगभग घर के सारे लोग उसे देखते ताकि एक अहम फ़ैसला लिया जा सके कि चप्पल नई खरीदनी है या उसी को ही गंढवा (सिलवा) कर काम चल सकता है...और इस फ़ैसले में महीने के उस दिन का भी बड़ा अहम रोल था जिस दिन चप्पल टूटने का हादसा पेश आया होता ...क्योंकि राशन, स्कूल की फीसें, दूध-साग-सब्जी का जुगाड़ करते करते,  उस वक्त घरेलू बजट की हालत कितनी नाज़ुक है, इन सब से यह तय होता था  कि चप्पल नयी आयेगी या पुरानी ही से अभी काम चलेगा..ख़ैर, अगर तो चप्पल नयी आ जाती तो कम से कम कईं महीनों क्या, एक बरस तक तो फिर बंदा चैन की बंसी बजाते हुए चलता, उस चप्पल को पहन कर एक दो  महीने तो उस नई चप्पल की वजह से इतराता रहता क्योंकि यह नशा भी एक अलग किस्म का ही था, जिन्होंने इस नशे को कभी किया है, वे ही जान पाएंगे...लेकिन अगर उस टूटी चप्पल को गंढवा के ही काम चलाने का फ़ैसला ले लिया गया है तो फिर यही सिलसिला चप्पल टूटने का और घसीटते हुए उसे घर के आंगन तक पहुंचाने का आगे भी चलता ही रहता जब तक कि ..............आप नहीं समझेंगे, छोड़ो, आगे चलते हैं। यह सब भी भाई ने ही याद दिलाया है।एक बात जो क़ाबिलेतारीफ़ यह भी लिख दूं कि वह पीढ़ी इतनी समझदार थी कि मां-बाप के बिन कहे कि उन के हालात समझती थी...किसी भी चीज़ के लिए ज़िद्द नहीं करती थी....वाह, क्या दौर था वह भी!!

हां, तो भाई साहब को मैंने भी उन के टूटे हुए शूज़ की बात याद दिला दी...तो जनाब हुआ यूं कि भाई सात-आठ साल का रहा होगा...निक्कर, बुशर्ट पहन रखी है उसने....पापा के चार पांच दोस्तो ने एक फोटो खिंचवानी थी, भाई भी वहीं पास ही खेलता हुआ फोटो खिंचवाने के वक्त पापा के पास जा पहुंचा और उस फोटो में उस की भी फोटो है...मुझे वह फोटो बड़ी प्यारी लगती है ...मेरा तो शायद उस तरफ़ ख्याल भी न जाता, और मेरे लिए यह कोई ख़ास या मामूली बात भी नहीं कि उस फोटो में भाई के बूट आगे से फटे हुए हैं....लेकिन पहले घरों मे तस्वीरें कम ही होती थीं, जब भी घर में रखी तस्वीरें देखी जातीं तो मां अपनी तरफ़ से यह बात ज़रूर याद दिला देती सब को ..देखो, पपू तो वैसे ही खेल रहा था, और फटे बूट में ही पहुंच गया फोटो खिंचवाने।

मैंने मां से कभी नहीं पूछा...ज़िंदगी भर, और न ही भाई से कभी पूछा कि क्या इस आगे से फटे हुए बूट के अलावा भी भाई के पास कोई दूसरे बूट भी थे....लेकिन पूछना वहां होता है जहां कुछ पता न हो, मुझे यकीं है कि उस के पास कोई और जूता होगा ही नहीं....ख़ैर, कोई बात नहीं, बड़े लोगों के जूते कोई नहीं देखता....महान् साहित्यकार प्रेम चंद के भी जूते टूटे हुए थे...और परसों-नरसों जिन लोगों को पद्‌म सम्मान से सुशोभित किया गया है उनमें से एक देवी तो नंगे पांव ही महामहिम के पास पहुंची थी और दूसरी एक देवी जो पंजाब से आई थी उन्होंने पैर में हवाई चप्पल पहनी हुई थी ....यह सब क्या सिद्ध करता है, आप भी जानते हैं....

आज इस बात को यहीं पर विराम देते हैं. आगे की बातें फिर कभी करेंगे... खुश रहिए, मस्त रहिए...मैं हमेशा कहता हूं कि ज़िंदगी में पैर कहीं ज़्यादा ज़रूरी हैं, वे चलते रहने चाहिेए....इन चप्पलों, बूटों की ऐसी की तैसी ...ये हैं तो ठीक है, जिन के पास जूते नहीं होते क्या वे ज़िंदगी नहीं जीते....आप का क्या ख़्याल है?

डालडे दा वी कोई जवाब नहीं...

हमारे बचपन का साथी...डालडा घी...आज सुबह इस का ख्‍याल आ गया जब कल की अख़बार के पन्ने उलट रहा था तो एक हेल्थ-कैप्सूल दिख गया जिस में वनस्पति घी की जम कर बुराईयां की गई थीं...मुझे भी बचपन याद आ गया - वह दौर जब मां के द्वारा अंगीठी पर रखे तवे पर  डालडा घी में सिक रहे, नहीं, नहीं सिक नहीं ...तैर रहे परांठों को देख कर हमारे रोम-रोम में ख़ुशी की एक लहर दौड़ जाया करती थी..

सारा बचपन और जवानी इन्हीं डालडा घी के परांठों पर ही पले हैं..कम से कम हर रोज़ चार परांठे--दो सुबह स्कूल-जाने से पहले आम के अचार के साथ, साथ में चाय, या दही या बाद के बरसों में बोर्नविटा वाले दूध के साथ...चार परांठों का हिसाब भी तो दे दूं...दो घर में खाते थे और दो स्कूल-कालेज़ में खाने के लिए ले जाते थे ...साथ में आम का अचार और अधिकतर कोई न कोई सूखी सब्जी के साथ। 

इस वक्त मुझे लिखते लिखते डालडे में बने परांठों की ख़ुशबू का ख़्याल आ रहा है ...जैसे कि वह हमें घर के किसी कोने में बैठे हुए अपनी तरफ़ खींच लेती थी, वह मां का उस डालडे या रथ के डिब्बे से चम्मच की मदद से घी को निकालना और उसे तवे पर सिंक रहे परांठें पर चुपड़ना....और फिर जो उसमें से धुआं निकलना...हम तो बस उस दृश्य के दीवाने थे...दो तीन परांठे खाने के बाद पेट तो भर भी जाता लेकिन निगाहें न भरती थीं....पंजाबी में कहते हैं ढिड भर जाना पर नीयत न भरना...

मैं अभी लिखने लगा था कि ज़्यादातर घरों में यह डालडा ही इस्तेमाल होता था आज से चालीस-पचास साल पहले ...फिर मुझे लगा कि यार अपनी बात कर, अपने घर की बात कर...ऐसे ही दूसरे के घरों के बारे में ज़्यादा मत कुछ कहा कर। वैसे भी हम लोग दूसरे के घरों में जाते ही कितना था ..सिवाए इस के छुट्टी वाले दिन किसी यार दोस्त के घर जब सुबह सुबह जाते तो एक मंज़र देखने को मिलता ...उसकी मां अंगीठी पर बेतहाशा परांठे पे परांठे सिके जा रही है...क्योंकि उन के कुनबे में सात-आठ लोग तो कम से कम थे ही ..जहां ये लोग बरामदे में लंबी तान कर सोए रहते उस के बिल्कुल पास ही उन की मां ने अंगीठी पर तवा रखा होता ...वही धुएंधार डालडे के परांठे ..साथ साथ वह आवाज़ें देती जाती...वे टीटे उठ जा वे, परांठे तैयार ने ...वे बिट्टे तू वी उठ...। मुझे अच्छे से याद है कि हमारे दोस्त ने आंखे मलते हुए उठना....दांत साफ़ करना तो दूर, बिना हाथ मुंह धोए ही उस को दो तीन गर्मागर्म परांठे पीतल की एक थाली में डाल कर पकड़ा दिए जाते ...और साथ में पीतल के एक गिलास में गर्मागर्म चाय....हां, आम का अचार तो होना लाज़िम था ही ...अब वो लोग यह तसव्वुर भी नहीं कर सकते जिन लोगों ने यह किल्लर कंबीनेशन देखा नहीं कभी ....

हमें उस दोस्त को परांठे छकते देख कर मन ही मन में यही लगता रहता कि ये लोग कितने अच्छे थे, घर वाले किसी को इतना सब खाने को देने से पहले पेस्ट करने को भी नहीं कहते ....बस, हम यह सोचते रहते ...दोस्त की मां हमें भी पूछ लेती कि तू भी खा ले...पता नहीं मैं क्या जवाब देता, याद नहीं इस वक्त....लेकिन इतना याद है कि मैं ऐसे कभी किसी के यहीं खाया नहीं....

देशी घी ....देशी घी का मतलब था पंजाब में वेरका देशी घी...और इसे ज़्यादातर देसी घी कहते थे, जैसे देशी दारू तो कहते हैं हिंदोस्तान में, लेकिन पंजाब में कहते हैं...देसी दारू। रोटी फिल्म के मुमताज़ और राजेश खन्ना पर फिल्माए गए उस ढाबे वाले यादगार सीन से किसी को भी उस दौर में देसी घी की अहमियत का अंदाज़ हो जाएगा। अगर कुछ नहींं भी याद आया तो इस पोस्ट को पढ़ने के बाद रोटी फिल्म देखिए। 

सच में घरों में ही कईं बार ऐसा ही होता था...देसी घी को चपातियां चुपड़ने के लिए या एक आध-चम्मच देसी घी दाल में डाल दिया जाता था, या काली तोरई को देसी घी में तैयार किया जाता था....ऐसी और भी बहुत सी बेकार की बातें हैं, लेकिन याद करना पडे़गा उन को। तवे पर डालडा घी में तैर रहे डालडा घी के परांठों का मंज़र तो मैंने पेश करने की कोशिश की ...लेकिन देसी घी में तैयार हो रहे परांठों की तो बात ही क्या करें....सारा घर उस रूहानी खुशबू से महक जाता था...कभी कभी हमें भी देसी घी का परांठा और देसी घी में तैर रहा हलवा नसीब हो जाता था...

कुछ लोग सब्जी भी देसी घी में बनाते थे और सारे मोहल्ले में जो लोग घर में देसी घी ही इस्तेमाल करते थे उन की रईसी का चर्चा दूर दूर तक होता था ...ऐसे ही थे पड़ोस के कपूर आंटी-अंकल...मोहल्ले में दूर-दूर तक उन के बारे में लोगों को पता था कि वे घर मे डालडा घुसने नहीं देते थे ( Another foolish status symbol of 1970s) ...और जब कभी लोग उन के सामने इस बात का ज़िक्र करते तो सच में वे दोनों ऐसे शरमा जाते या ऐसे इतरा देते कि मुझे उसी दौर का वह गीत याद आ जाता ...हाय शरमाऊं किस किस को बताऊं ....अपनी प्रेम कहानियां ...) 


लेकिन मैं डालडे पर पला-बड़ा, देशी घी के डिब्बे की तरफ़ क्यों ताक रहा हूं.....आज जब मैं यह लिख रहा हूं तो मुझे नील कमल फिल्म का वह गीत ...खाली डिब्बा खाली बोतल ...खाली सब संसार ...याद आ रहा है...उसमें डालडे का डिब्बा भी दिख रहा है।हमारे ज़माने में यह गीत रेडियो पर खूब बजा करता था...और महमूद के तो हम सब दीवाने हैं ही..

मुझे डालडे से याद आया कि मैं नवीं कक्षा में था, और नौमाही साईंस की परीक्षा में मुझे साईंस के पेपर में ४० में से ३८ अंक मिले थे,  उसमें एक सवाल यह भी था कि हाईड्रोजिनेटेड फैट्स (यही डालडा, वालड़ा) कैसे तैयार किया जाता है, उस को तैयार करने की रासायनिक प्रक्रिया लिखनी थी...हमें उन दिनों यह लिख कर ऐसे लगता था मानो हमने ही कोई आविष्कार कर दिया हो...और ऊपर से हमारे साईंस टीचर ने सारी क्लास को मेरी आंसर-शीट दिखा कर बताया कि पेपर लिखने का यह सलीका होता है ...मेरी १५ साल की ब्लागिंग के दौरान कभी इतनी हौंसलाअफ़ज़ाई नहीं हुई, जितनी उस दिन हुई थी। 

जब हम कालेज तक पहुंचे तो दिल्ली बंबई में रहने वाले अपने रिश्तेदारों के यहां पोस्टमैन रिफाँइड तेल की इस्तेमाल होते देख कर मां पोस्टमैन का एक बड़ा सुंदर सा चौकोर सा टीन का डिब्बा भी ले कर आने लगी... जहां तक मेरी यादाश्त मेरा साथ दे रही है, यह डालडे की बनिस्पत कुछ या काफ़ी महंगा था, इसलिए डालडा के साथ यह भी आने लगा। फिर धीरे धीरे यही पोस्टमैन ही इस्तेमाल होने लगा...और अब तो बाज़ार में तेलों का एक अलग संसार ही है ...किसी भी दुकान पर तेलों की सजावट देख कर सिर चकरा जाता है ...पढा़ लिखा भी अनपढ़ महसूस करने लगता है ...ऐसे ऐसे लोग हैं जो ऑलिव ऑयल इस्तेमाल करते हैं लेकिन सारा दिन जंक भी खाते हैं...ऊपर से यह मेडीकल वैज्ञानिक ...कभी कुछ खाओ, कभी यह मत खाओ...कभी यह न करो, वो न करो....हमारे बड़े-बुज़ुर्ग यही कहते थे कि सरसों का तेल ही सब से बढ़िया है, खाने-पकाने के लिए...हम भी यही मानते हैं...लेकिन तवे पर परांठे कैसे तैर पाएंगे इस सरसों के तेल में ....जैसे स्कूल में सरसों के तेल से चुपड़े सिर -मुंह दूर से ही भांप लिए जाते थे...वैसे ही उन परांठों की बास भला कौन झेल पायेगा...तो फिर परांठे खाना ही बंद करिए....न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी...न ही पेट बाहर निकलेंगे और न ही अँदर करने के जुगाड़ ढूंढने पड़ेंगे।

वैसे एक बात और भी गांठ बांध लेने वाली यह है कि सिर्फ एक ही चीज़ खाने या न खाने से कुछ होता नहीं...बेलेंस्ड डाइट चाहिए होती है सब को ...सब से पहले मैं अपनी बात ही करूं, फिर दूसरों की करूंगा....मैं कुछ अनाप-शनाप नहीं खाता, लेकिन सारा दिन मीठा खाता रहता हूं ...यह भी बहुत गलत है सेहत के लिए....बहुत से लोगों को जानता हूं सलाद, फल-फ्रूट खाते हैं...स्पराउट्स भी ....लेकिन इस के साथ सारा दिन बीड़ी-सिगरेट से फेफड़ों की सिंकाई भी चालू रहती है...आज के युवा ऑलिव आयल ही इस्तेमाल करेंगे, लेकिन सारा दिन जंक-फूड....गांव में महिलाएं कुछ खाना पका रही थीं, अभी वीडियो देखी, सब कुछ सरसों के तेल में तला हुआ ...डीप-फ्राई किया हुआ...यह भी गलत है, मैंने तो ज़िंदगी का एक ही सिट्टा निकाला है ...कि आप किसी एक भी बंदे की ज़िंदगी बदल नहीं सकते, जो जिस के मुकद्दर में लिखा है, उसे वह मिलेगा....यूं ही हर बंदे को खाने-पीने के उपदेश देने के चक्कर में खुद को हलकान करने की ज़रूरत नहीं, दुनिया जैसे चल रही है, वैसे ही चलेगी....अपने आप को खुश रखिए, मस्त रहिए....और नशे-पत्ते से दूर रहिए....महंगे से महंगे सिगरेट, महंगी से महंगी दारू, महंगे महंगे बॉडी-बिल्डिंग टॉनिक, मोटे शऱीर को पतले करने वाली और पतले को मोटा करने वाली दवाईयां, बिस्कुट सब के सब पंगे हैं....मानो या न मानो.....चाहे तो अपने ऊपर अजमा कर देख लो...

मंगलवार, 9 नवंबर 2021

इंसान तो इंसान, जानवरों से भी इतना प्यार...

ToI 8.11.21

 कल का अख़बार अभी देख रहा था तो टाइम्स ऑफ इंडिया की इस ख़बर पर नज़र पड़ गईं...हैरानी यह हुई कि पेज़ थ्री पर नहीं, टाइम्स जैसे अख़बार ने पेज़ दो पर इसे छाप दिया...हैं कुछ लोग जो जानवरों से भी इंसानों की तरह ही मुहब्बत करते हैं, वरना यह कायनात चल न पाती। यहां पर हरामी से हरामी और मेहरबान से मेहरबान लोग भरे पड़े हैं...

जानवरों से प्यार से पेश आने वाली बात पर मुझे यह बात याद आ गई कि जब हम लोगों को इंसानों से ही पेश आने की तहज़ीब नहीं है तो जानवर किस खेत की मूली हैं...मैंने जितनी भी पढ़ाई की या नहीं है, जितनी भी किताबों में टक्करें मारी हैं या नहीं मारी हैं, जितने भी सत्संगों में जाकर पाखंड भोरे हैं ...(मेरा मन कभी भी सत्संग में न तो लगता था, न ही कभी लगता है ...बस, मैं अपनी मां की खुशी के लिए उन के साथ रविवार के दिन ज़रूर जाता था...और मन ही मन कुढ़ता भी रहता था कि यार, इस काम के चक्कर में सारी छुट्टी .....लग गई (फिल इन दॉ ब्लैंक्स कर लीजिए, जो पंजाबी जानते हैं😎)....कईं बार मां को कह भी देता कि बीजी, मेरा दिल नहीं करता, बस, चला जाता हूं क्योंकि आप को वहां ले कर जाने वाला कोई नहीं है....वह भी संजीदा हो कर कह देती कि बिल्ले, दिल नहीं करदा जेकर, तू न जाया कर, मैं तां घर बैठ के वी रब दा ना लै लैनी हां...!!) लेकिन जब तक मां की सेहत ठीक थी, हम दोनों सत्संग चले ही जाते थे...(मेरा मन बिल्कुल भी न होते हुए...). 

क्यों चिढ़ है मुझे इन पाखंडों से, बाहरी दिखावे से, अपने आप को दूसरे से बेहतर समझने की आदत से, ऐवें ही भोरी च रहन ते....क्योंकि सब बातों का सार तो एक ही है कि हम किसी को पैसा नहीं भी दे सकते न दें, और किसी की कोई सहायता करने में सक्षम नहीं हैं तो न करें, कोई जबरदस्ती नहीं चल सकती ....लेकिन ज़िंदगी का केवल एक फंड़ा होना चाहिए कि हर बंदे के साथ बातचीत ऐसे करें जैसे कि मेरे मां-बाप कहा करते थे और वे ऐसे ही थे कि जैसे बात करते करते किसी के पेट में घुस जाए बंदा...इतनी सादगी, इतनी विनम्रता, इतनी झुकाव हो ..सामने वाले बंदे के बौद्धिक स्तर को देख कर उस तक पहुंच कर बात की जाए...उसे किसी भी तरह से उस की कमज़ोर या विषम परिस्थिति का अहसास होने देना ही कम्यूनिकेशन की एक बहुत बड़ी त्रासदी है ...मैं ऐसा समझता हूं ...अमूमन मैं किसी के साथ आपा नहीं खोता....ड्यूटी पर कभी किसी के साथ ऊंची आवाज़ में बात हो भी जाए तो मैं जब तक उस के खेद प्रकट न कर दूं ..मुझे चैन नहीं आता...

मैंने कहीं यह भी पढ़ा था कि किसी जेंटलमेन की निशानी क्या है ...(कहीं मैं भी तो अपने आप को कोई जेंटलमेन नहीं समझ रहा (नहीं, नहीं, मुझे अपनी औकात पता है)। उस में लिखा था कि कोई इंसान जेंटलमेन है या नहीं, इस का अंदाज़ा आप इस बात से लगा सकते हैं कि जो जेंटलमेन होगा वह उस व्यक्ति से भी बहुत अच्छे तरीके से पेश आएगा जिस के साथ उस का कोई वास्ता नहीं है और जो किसी भी तरह से उसे नुकसान पहुंचाने के क़ाबिल नहीं है.....मुझे यह बात बेहद पसंद आई...फिर मैंने देखा कि हम डरते हैं उन लोगों से जो हमें नुकसान पहुंचाने की स्थिति में हैं, उन से तो पेश आते हैं, कमबख्त इतना झुक जाते हैं जैसे रब ने रीड़ दी ही नहीं, बातों में इतनी मिठास घोल देते हैं कि सुनने वाले को सुन कर ही डॉयबीटीज़ हो जाए... लेकिन जो लोग हमें लगता है, हमारा कुछ बिगाड़ नहीं सकते, हम उन के साथ ठीक से पेश भी नहीं आते...अमूमन मैंने ऐसा देखा है, शायद मेरे देखने में नुक्स हो (वैसे आंखों की जांच कुछ महीने करवाई तो थी) ..लेकिन जो दिखता है वही लिखता हूं ...और यह भी यहां जोड़ दूं कि उस लिहाज से मैं भी कोई जेंटलमेन कतई नहीं हूं....लेकिन हां, मुझे अपने अल्फ़ाज़ का पूरा ख़्याल रहता है, कभी ये इधर हो जाएं तो फ़ौरन इन्हें सुधार लेता हूं ...और बहुत बार माफ़ी मांगने से भी गुरेज़ नहीं करता ...(उन से भी जो किसी तरह से मेरा नुकसान कर पाने की स्थिति में नहीं हैं...) ...तो क्या ये बातें मुझे जेंटलमैन की श्रेणी में ले आती हैं?...नहीं भाई नहीं..)

यहां पर हम लोग इंसानों से ढंग से पेश आने की बात कर रहे हैं, दुनिया में लोग परे से परे पड़े हैं....एक पंजाबी गीत का ख्याल आ गया है, उसे नीचे लगा दूंगा..पंजाबी तो वैसे सब ही समझ लेते हैं, नहीं समझ सकते तो भी लगा दूंगा ..क्योंकि मैं उसे एक ज़रूरी खुराक की तरह सुन लेता हूं जब भी मुझे कुलदीप मानक  की याद आती है ...वह इस गीत में कहते हैं कि दुनिया में लोग परे से परे पड़े हैं, बेवकूफ इंसान तू किस भ्रम में जी रहा है ...)....मुझे भी यह बहुत ज़रूरी लगता है कि किताबी ज्ञान के साथ साथ झुकना, विनम्रता होना भी बेहद....बेहद...बेहद ज़रूरी है ...मैं जब भी कभी ऐसे लोगों से बात करता हूं मुझे लगता है मैं फरिश्तों से बात कर रहा हूं...

पंजाबी में एक बड़ी पापुलर कहावत है जो बचपन से हम लोग घर में अकसर सुना करते थे ...हमारी ज़ुबान ही है जो हमें हम चाहें तो हमें राजा बना दे, और यही ज़ुबान हम अगर ख़्याल न करें तो छित्तर भी पड़वा सकती है...बिल्कुल सही बात है ...बस, सारा लफ़्ज़ों का ही फेर है ....सब के पास वही हैं, किन को कहां इस्तेमाल करना है, और कैसे इस्तेमाल करना है...ज़िदंगी का यही फ़लसफ़ा है ...क्यों होता है कि कुछ लोगों के साथ आप का बार बार बात करने को दिल करता है और कुछ लोगों को आप एवॉयड करते हो ....सोचने वाली बात है...

इंसान तो इंसान , कुछ लोगों को जब रास्ते पर चल रहे जानवरों से भी इतनी मुहब्बत करते हैं तो मेरी आंखें टपके न भी सही, भीग तो जाती ही हैं और जब मैं ऐसे लोगों को देखता हूं मुझे लगता है मैंने कोई फरिश्ता देख लिया हो....मैं एक ऐसी ही महिला की बात कर रहा हूं ...उस की उम्र यही कोई ६० के करीब होगी...सुबह अकसर देखता हूं वह अपने कंधों पर कैट-फूड (बिल्लीयों का खाना) और पानी लेकर निकलती है ...और जगह जगह उस की इंतज़ार में बैठी बिल्लीयों को छोटी छोटी कटोरियों में ऐसे खाना परोसती हैं जितना आज के मशीनी दौर में कुछ औरतें भी अपने बच्चों को न दे पाती होंगी ...(नौकरी के चक्कर में या अनेकों और व्यस्तताओं के रहते ) ....फिर जब वे उस खाने को खा रही होती हैं तो उन दस-पंद्रह बिल्लीयों को सहला कर प्यार करती है, बिना किसी जल्दबाजी के उन का खाना फ़िनिश होने का इंतज़ार करती है....इस महिला को दूर से तकना ही मुझे किसी देवी को तकने जैसा लगता है ...मैं फोटो खींचने का शैदाई तो हूं लेकिन मैंने कभी इन के इन ख़ुशनुमा पलों को कैमरे में कैद करने की बेवकूफ़ी नहीं की....मुझे लगता है कि यह अगर करूंगा तो बहुत घटिया काम हो जाएगा....या तो यह कांसिएस हो जाएंगी, शायद बिल्लीयों के खाने में ही खलल पड़ जाए...बस, इस तरह की बातें सोच कर मैं यह गुस्ताखी नहीं करता ....एक साल पहले जब यह दो तीन बिल्लीयों को खाना खिला रही थीं, और इन की पीठ मेरी तरफ़ थी, उस दिन एक फोटो ज़रूर खींची थी...एक रिमाइंडर के तौर पर कि ऐसे लोग भी हैं....) 

इसी बात पर मुझे निदा फ़ाज़ली साहब की नसीहत याद आ गई....

बाग में जाने के भी आदाब हुआ करते हैं...

फूलों से तितलियों को न उड़ाया जाए...!!

मैंने ज़िंदगी को बंद कमरों में नहीं, बाहर निकल कर जिया है, देखा है...इसलिेए मेरे पास इस तरह के बहुत से वाक्यात हैं बताने के लिए...लेकिन बहुत बार कुछ लिखने का मन ही नहीं होता...क्या करें..इस पोस्ट को शुरू तो कर लिया है लेकिन लगता है बेकार की बातें लिख दी हैं, लेकिन जो लिख दिया है, अपनी ही डॉयरी से उसे डिलीट क्या करना...पड़ा रहने देते हैं...

कम्यूनिकेशन इतना बड़ा मौज़ू है मुझे नहीं पता था...१९९२ में मैं टाटा इंस्टीच्यूट ऑफ सोशल साईंसेस में जब हास्पीटल एडमिनिस्ट्रेशन की पढ़ाई कर रहा था तो हमारा एक विषय था कम्यूनिकेशन....जो हमें एक साल तक पढ़ाया गया...तीस साल की उम्र थी मेरी और मुझे यह अफ़सोस हुआ कि यह सब हम लोगों ने स्कूल में ही क्यों नहीं पढ़ा....कम्यूनिकेशन बस लिखा हुआ या बोला जाने वाला शब्द ही नहीं है, इस के साथ बहुत सी और बातें जुड़ी हैं जो यह बात तय करती हैं कि हम किसी के साथ क़ायदे से पेश आ भी रहे हैं या नहीं.....कभी इस के बारे में और भी बहुत सी बातें करेंगे .


ज़िंदगी की सच्चाई यह है, बाकी सब बकवास है .....हमें ज़्यादा उड़ने-उछलने की ज़रूरत कतई नहीं है!