बुधवार, 29 अक्तूबर 2014

काश, तहज़ीब भी एक विषय होता...

मुझे कईं बार उन बाप बेटे की याद आ जाती है.. अरसा बीत गया इस बात को.....२० वर्ष का वह लड़का था और उस के पिता की उम्र ४५-५०के बीच ही थी....पिता को एडवांस कैंसर था। जिस दिन वे मेरे से बात कर रहे थे.. वे इलाज की बात तो कम कर रहे थे...बार बार एक डाक्टर की बात याद कर रहा था वह लड़का.....याद करते करते रूआंसा हो गया था....दरअसल वे जिस डाक्टर के पास गये थे, उसने बस उन्हें एक विशेष अस्पताल में रेफर करना है....औपचारिकता होती हैं कईं सरकारी विभागों की....तो उस डाक्टर ने इन्हें देख कर कह दिया....."एक तो आप बहुत जल्दी आ गये हो।"

मैं उस दिन उस लड़के के मुंह से यह बात सुन कर बहुत दुःखी हुआ था। एक तो वे लोग पहले ही से परेशान...किस तरह से जूझ रहे होंगे वे इस सच्चाई से....ऊपर से एक पढ़ा लिखा डाक्टर इस तरह का भद्दा कटाक्ष कर दे....क्या यह किसी अपराध से कम है?

सोचने वाली बात यह है कि क्या उन्हें नहीं पता मरीज की हालत देखते हुए कि देर हो गई.....फिर उसे यह याद दिला कर और इस तरह के बेहूदा तरीके से तकलीफ़ पहुंचाने से क्या हासिल।

ऐसे भी एक डाक्टर को जानता हूं जिस के बारे में बुज़ुर्ग औरतें कहा करती थीं कि हर उम्रदराज़ इंसान को मजाक के अंदाज़ में यही कहता है कि बाबा, माता, हुन गोड़ेयां च ग्रीस खत्म हो गई ऐ.. (बाबा, माता, अब घुटनों में ग्रीस खत्म हो गई है)...क्या यह बताने के लिए तुम बैठे हो। ग्रीस खत्म है, कम है, अब ग्रीस वापिस नहीं लगने वाली, ये सब बातें बुज़ुर्ग लोग हम से कहीं बेहतर जानते हैं। तुम्हारा काम था... उन को हौंसला देना, उम्मीद की चिंगारी लगा देना......अगर यह भी नहीं कर सकते, तो काश, तुम डाक्टर ही न बने होते।

कुछ अरसा पहले शायर मुनव्वर राना साब को सुनने गया था, उन की बात याद आ गई....
हम फ़कीरों से जो चाहे दुआ ले जाए..
खुदा जाने कब हम को हवा ले जाए...
हम तो राह बैठे हैं ले कर चिंगारी, 
जिस का दिल चाहे चिरागों को जला ले जाए।।

ये तो चंद उदाहरणें हैं दोस्तो, यह सच है कि हमें बात करने की तहजीब ही नहीं है। हम बोलने से पहले सोचते नहीं है, शब्दों को तोलते नहीं हैं......

लेकिन मेरी एक आब्ज़र्वेशन यह भी है कि जितने ज़्यादा पढ़े लिखे और अनुभवी चिकित्सक होते हैं उन में उसी अनुपात में विनम्रता भी बढ़ जाती है। एक नाम याद आ गया .....टाटा अस्पताल के डा एस ए प्रधान का, जब मैं TISS में १९९२ में पढ़ाई कर रहा था तो वे हमें एक विषय पढ़ाते थे ...मैं दंग रह जाता था उन की विनम्रता को देख कर, बातचीत का ढंग, इतनी शांतिपूर्ण स्वभाव......क्या कहने !! वैसे तो मैं ऐसी बहुत सी शख्शियतों को जानता हूं और इन से निरंतर इंस्पीरेशन लेता हूं।



हास्पीटल एडमिनिस्ट्रेशन का कोर्स था ... एक विषय हमें मैडीकल एंड साईकैट्रिक सोशल वर्क भी पढ़ाया जाता था.....आंखें उस दौरान भी खुली कि चिकित्सीय समस्याओं का सामाजिक, मनोवैज्ञानिक पहलू भी इतना नाज़ुक होता है। काश, मैडीकल कालेजों में यह विषय चिकित्सा शिक्षा में भी सम्मिलित कर लिया जाए तो बात ही बन जाए।

चिकित्सा प्रणाली में काम कर रहे हर व्यक्ति को मानवीय पहलुओं को समुचित ज्ञान होना नितांत आवश्यक है, बिना इस के तो सब कुछ एक धंधा है, जितनी मरजी बदतमीजी करो, जितना मरजी शोषण करो, कोई पूछने वाला नहीं, जितनी मरजी कमाई करो.........क्योंकि अब शिकार फंसा हुआ है। धिक्कार ही तो है इस तरह के रवैये पर।

अब मैं अपनी तहज़ीब की बात भी कर लूं.......मेरे मन में विचार आया और मैंने इस विषय पर अपने भाव प्रकट कर दिए.....इस का यह मतलब तो नहीं कि मैं बहुत तहज़ीब वाला इंसान हूं.......ऐसा नहीं मानता मैं, जैसे मैं किसी की बात यहां लिख रहा हूं, कोई मेरी बदतमीजीयों के किस्से कहीं और साझे करता होगा........ज़रूर।

यह पोस्ट केवल यह याद दिलाने के लिए......अपने आप को सब से पहले......कि मरीज़ से ढंग से बात करना... सब से ज़रूरी बात है.....चिकित्सा जितना ही महत्व रखती है यह बात कभी कभी......अकसर यह भी सोचता हूं कि वह डाक्टर ही क्या, जिस से केवल बात कर के ही मरीज़ अपने आप को आधा ठीक ना महसूस कर पाए........दवाईयां तो बाद में काम करेंगी ही।

नोट.......सारी बातें सच हैं, कुछ भी गढ़ने की आदत नहीं है...गढ़ूं भी तो आखिर क्यों, क्या हासिल!!

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