इतना बढ़िया टॉपिक है यह फूलों का तो इस की शुरूआत एक फूलों की आरती से तो होनी ही चाहिए , है कि नहीं..
फूल-पत्तों से सभी को प्यार होता है , मुझे ही दीवानगी की हद तक इन से लगाव है। सुबह सैर करते हुए किसी को फूल तोड़ कर प्लास्टिक की पन्नी में धकेलते देख कर मूड खराब हो जाता है। ईश्वर सब को तौफ़ीक बख्शे कि हम कुदरत की नेहमतों को कम से कम जैसे हैं वैसे तो रहने दें, अगर इन में इज़ाफ़ा नहीं भी कर सकते।
घर में सैंकड़ों फूल खिला करते थे लेकिन कभी याद नहीं कि किसी तरह की पूजा-अर्चना के लिए इन्हें तोड़ा हो, मुझे यह ठीक नहीं लगता, जिस ने हमें फूल दिया हम उसी को चढ़ाने के लिए उसे तोड़ दें। हां, जब बचपन था तो 31मार्च के दिन (जिस दिन मेरा रिजल्ट निकलता था) मेरी बड़ी बहन मेरे लिए तीस-चालीस गुलाब के फूल तोड़ कर एक हार अपने स्कूल के प्रिंसीपल साहब के गले में डालने के लिए ज़रूर थमा कर मुझे स्कूल के लिए विदा करती थी....मुझे अभी भी याद है उस का उस दिन सुबह सुबह उठ कर, सूईं धागे से उन फूलों को एक माला में पिरोना...। आज लगता है कि यार उस की भी क्या ज़रूरत थी, जब एक फूल ही से काम चल सकता था।
मुझे तब भी बड़ा बुरा सा लगता है जहां पर मैं सैंकड़ों-हज़ारों फूलों की बर्बादी होती देखता था.....माखन लाल चतुर्वेदी जी की रचना पुष्प की अभिलाषा याद आ जाती है....हम हिंदी के मास्टर साहब ने बड़े दिल से पढ़ाई थी। एक बात बताऊं कि मैंने कभी भी बुके (फूलों का गुलदस्ता) किसी को भेंट करने के लिए नहीं खरीदा.......मुझे यह एक घोर फिजूलखर्ची, सिरदर्दी सी लगती है दोस्तो.......हम देखते हैं कि कितने टन फूल यूं ही स्टेजों को सजाने में, एक दूसरे का सम्मान करने के चक्कर में बर्बाद कर दिये जाते हैं.....और कभी देखें कि एक घंटे के बाद वही फूल उधर ही पब्लिक के पैरों के नीचे मसले जा रहे होते हैं.....यह सब देख कर सिर भारी हो जाता है........
फूल तो हैं हर तरफ खुशी बिखरने के लिए...यह मेरी टेबल के गुलदस्ते में रूक कर क्या करेंगे, यह इन का स्वभाव नहीं है, आप याद करिए जब कभी हम लो सा फील कर रहे थे और फिर बाग मे टहलने गये, और रंग बिरंगे खुखबूदार फूलों को देख कर हम ने कितना आनंद अनुभव किया था......उसी तरह आप कल्पना करें कि दिनों से बीमार व्यक्ति को जब अस्पताल की खिड़की से बाहर फूलों का बागीचा दिखता है तो उस का शरीर तो क्या, रूह भी गद गद हो जाती है......चेहरे पर अपने आप एक मुस्कान आ जाती है....
खिलो तो फूलों की तरह, बिखरो तो खुशबू की तरह..
बहुत हो गई शायरी, अब एक सुंदर सा गीत सुनते हैं .........और आश्चर्यचकित हो कर इन फूलों के बारे में सोचते हैं.....
पांच दिन पहले २६सितंबर की हिन्दुस्तान के संपादकीय पन्ने पर एक लेख दिखा था....नज़रिया स्तंभ के अंतर्गत....इस का शीर्षक था.....फूलों की जगह फलों से हो स्वागत। शीर्षक ही इतना बढ़िया लगा था कि उसे पढ़ने की उसी समय इच्छा हो गई....इसे गोवा की राज्यपाल मृदुला सिन्हा जी ने लिखा था। लेख इतना बढ़िया लगा कि उसे ऐसे का तैसा ही लिखने लगा हूं............
जाते जाते यह ध्यान आ रहा है कि चलो यह तो बहुत अच्छी शुरूआत है फूलों की जगह फलों की शुरूआत....लेकिन वही बात है कि यहां भी अगर स्पर्धा शुरू हो गई कि महंगे से महंगे फल देना, ड्राई फ्रूट देना......लेकिन अच्छा ही होगा उन बच्चों के लिए जिन में यह सब कुछ बांटा जाएगा जिन के नसीब में वैसे यह सब कुछ नहीं होता....।
जाते जाते बनावटी फूलों के बारे में भी एक बात कर लेते हैं...........बात क्या करनी है, गीत ही सुन लेते हैं.......सारी बात समझ में आ जाएगी... आप तो पहले ही से समझे हुए हैं।
फूल-पत्तों से सभी को प्यार होता है , मुझे ही दीवानगी की हद तक इन से लगाव है। सुबह सैर करते हुए किसी को फूल तोड़ कर प्लास्टिक की पन्नी में धकेलते देख कर मूड खराब हो जाता है। ईश्वर सब को तौफ़ीक बख्शे कि हम कुदरत की नेहमतों को कम से कम जैसे हैं वैसे तो रहने दें, अगर इन में इज़ाफ़ा नहीं भी कर सकते।
घर में सैंकड़ों फूल खिला करते थे लेकिन कभी याद नहीं कि किसी तरह की पूजा-अर्चना के लिए इन्हें तोड़ा हो, मुझे यह ठीक नहीं लगता, जिस ने हमें फूल दिया हम उसी को चढ़ाने के लिए उसे तोड़ दें। हां, जब बचपन था तो 31मार्च के दिन (जिस दिन मेरा रिजल्ट निकलता था) मेरी बड़ी बहन मेरे लिए तीस-चालीस गुलाब के फूल तोड़ कर एक हार अपने स्कूल के प्रिंसीपल साहब के गले में डालने के लिए ज़रूर थमा कर मुझे स्कूल के लिए विदा करती थी....मुझे अभी भी याद है उस का उस दिन सुबह सुबह उठ कर, सूईं धागे से उन फूलों को एक माला में पिरोना...। आज लगता है कि यार उस की भी क्या ज़रूरत थी, जब एक फूल ही से काम चल सकता था।
मुझे तब भी बड़ा बुरा सा लगता है जहां पर मैं सैंकड़ों-हज़ारों फूलों की बर्बादी होती देखता था.....माखन लाल चतुर्वेदी जी की रचना पुष्प की अभिलाषा याद आ जाती है....हम हिंदी के मास्टर साहब ने बड़े दिल से पढ़ाई थी। एक बात बताऊं कि मैंने कभी भी बुके (फूलों का गुलदस्ता) किसी को भेंट करने के लिए नहीं खरीदा.......मुझे यह एक घोर फिजूलखर्ची, सिरदर्दी सी लगती है दोस्तो.......हम देखते हैं कि कितने टन फूल यूं ही स्टेजों को सजाने में, एक दूसरे का सम्मान करने के चक्कर में बर्बाद कर दिये जाते हैं.....और कभी देखें कि एक घंटे के बाद वही फूल उधर ही पब्लिक के पैरों के नीचे मसले जा रहे होते हैं.....यह सब देख कर सिर भारी हो जाता है........
फूल तो हैं हर तरफ खुशी बिखरने के लिए...यह मेरी टेबल के गुलदस्ते में रूक कर क्या करेंगे, यह इन का स्वभाव नहीं है, आप याद करिए जब कभी हम लो सा फील कर रहे थे और फिर बाग मे टहलने गये, और रंग बिरंगे खुखबूदार फूलों को देख कर हम ने कितना आनंद अनुभव किया था......उसी तरह आप कल्पना करें कि दिनों से बीमार व्यक्ति को जब अस्पताल की खिड़की से बाहर फूलों का बागीचा दिखता है तो उस का शरीर तो क्या, रूह भी गद गद हो जाती है......चेहरे पर अपने आप एक मुस्कान आ जाती है....
खिलो तो फूलों की तरह, बिखरो तो खुशबू की तरह..
बहुत हो गई शायरी, अब एक सुंदर सा गीत सुनते हैं .........और आश्चर्यचकित हो कर इन फूलों के बारे में सोचते हैं.....
पांच दिन पहले २६सितंबर की हिन्दुस्तान के संपादकीय पन्ने पर एक लेख दिखा था....नज़रिया स्तंभ के अंतर्गत....इस का शीर्षक था.....फूलों की जगह फलों से हो स्वागत। शीर्षक ही इतना बढ़िया लगा था कि उसे पढ़ने की उसी समय इच्छा हो गई....इसे गोवा की राज्यपाल मृदुला सिन्हा जी ने लिखा था। लेख इतना बढ़िया लगा कि उसे ऐसे का तैसा ही लिखने लगा हूं............
"यह विचार गुजरात से आया है, लेकिन सबके लिए उपयोगी है। गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल ने एक कार्यक्रम चलाया है, जिसके तहत राज्य भर में अब गण्यमान्य लोगों का स्वागत फूलों से नहीं, फलों से किया जाएगा। इस कार्यक्रम के तहत जितने भी फल एकत्रित होंगे, वे किसी आंगनबाड़ी केंद्र, विद्यालय या अनाथालय में भेजे जाएंगे।
पूरी दुनिया की तरह ही भारत में भी लोगों का फूलों से स्वागत करने की परंपरा बहुत पुरानी है। यदि कोई व्यक्ति किसी भी महत्वपूर्ण व्यक्ति का पुष्पगुच्छ से स्वागत करता है, तो अक्सर वे पुष्पगुच्छ व्यक्ति के मान-सम्मान और व्यक्ति की आर्थिक क्षमता का प्रदर्शन करते हैं, उस व्यक्ति का नहीं, जो सम्मानित होता है।
देश भर में एक दिन में भिन्न भिन्न स्तर के नेताओं के स्वागत में हजारों टन पुष्प खर्च किए जाते हैं। स्वागत के बाद उनका कोई सदुपयोग नहीं होता है.। फूलों की उपयोगिता समाज में जहां है, वहां उनका उपयोग होना चाहिए। लेकिन गणमान्य लोगों के सम्मान में यदि फूल की जगह फल के छोटे छोटे टोकरे का उपयोग हो, तो उसका शहर और गांव के गरीब बच्चों के लिए उपयोग हो सकता है।
हमारे देश में आज कुपोषण की बहुत चर्चा होती है। इसका स्थानीय स्तर पर एक समाधान ऐसे भी हो सकता है। यह ठीक है कि इससे सभी कुपोषित बच्चों को सुपोषित नहीं बनाया जा सकता है। परंतु स्वागत के फूल की जगह फल का उपयोग संवेदनशीलता का प्रतीक तो है ही। गोवा में राज्यपाल पद की शपथ लेने के बाद मैंने तय किया कि मैं भी यही करूंगी। पिछले दिनों मुझे उपराष्ट्रपति मोहम्मद हामिद अंसारी और उनकी पत्नी सलमा अंसारी का एयरपोर्ट पर स्वागत करने का अफसर मिला, तो मैं इसके लिए फल लेकर ही वहां पहुंची, जिसे देखकर उपराष्ट्रपति की आंखों में आश्चर्य के भाव उभरे - ' फल ' ? मैंने जब फूल के बदले फल की बात बताई, तो वह बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा --" मैं पिछले सात वर्षों से लोगों से कह रहा हूं कि स्वागत के लिए फूल बर्बाद मत करो, एक फूल काफी है। पर मेरे दिमाग में फूल के बदले फल की बात नहीं आई। ये फल में दिल्ली ले जाऊंगा। एक-दो खाऊंगा और बाकी ज़रूरतमंदों को भिजवाऊंगा।"
अब यह उम्मीद सभी गण्यमान्य लोगों से है। हमारे देश में बहुत सारी ऐसी गंभीर समस्याएं हैं, जिन्हें छोटे छोटे निर्णयों व कार्यों से सुलझाया जा सकता है। जब इस निर्णय की चर्चा मैंने गोवा के किसी गण्यमान्य व्यक्ति से की, तो उन्होंने मुझे बताया कि फूलों के गुच्छे की तुलना में फल देना सस्ता रहेगा। फिर यह भी पता चला कि गोवा में फूलों की खेती बहुत ज़्यादा होती भी नहीं। वहां फूल बाहर से मंगवाए जाते हैं। जहां फूलों की खेती होती है, वहां भी फल की छोटी डाली एक बड़े गुच्छे से सस्ती ही पड़ेगी। वैसे यह महंगे और सस्ते की बात नहीं है। बात तो भावना की है और सरोकार की है, जिसे पूरे देश को अपनाना ही चाहिए। "
-- मृदुला सिन्हा, राज्यपाल, गोवा.
जाते जाते यह ध्यान आ रहा है कि चलो यह तो बहुत अच्छी शुरूआत है फूलों की जगह फलों की शुरूआत....लेकिन वही बात है कि यहां भी अगर स्पर्धा शुरू हो गई कि महंगे से महंगे फल देना, ड्राई फ्रूट देना......लेकिन अच्छा ही होगा उन बच्चों के लिए जिन में यह सब कुछ बांटा जाएगा जिन के नसीब में वैसे यह सब कुछ नहीं होता....।
जाते जाते बनावटी फूलों के बारे में भी एक बात कर लेते हैं...........बात क्या करनी है, गीत ही सुन लेते हैं.......सारी बात समझ में आ जाएगी... आप तो पहले ही से समझे हुए हैं।
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