शनिवार, 13 जून 2009

फ्लू की महामारी अब, वैक्सीन सितंबर तक ----यह भी कोई बात है !

आज कल के अखबार पढ़ कर बहुत से लोगों के मन में यह प्रश्न अवश्य उठता होगा कि यार, विश्व स्वास्थ्य संगठन ने तो एच1एन1फ्लू को एक महामारी घोषित कर दिया है लेकिन इस से बचाव के लिये टीका सितंबर तक आने की बातें हो रही है, कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि तब तक इस की विनाश लीला बेरोकटोक चलती रहेगी।

इस बात का उत्तर जानने के लिये कि इस के टीका सितंबर तक आने की बात क्या बार बार कही जा रही है, विभिन्न प्रकार के टीकों के बारे में थोडा़ ज्ञान होना ज़रूरी लगता है।

मोटे तौर पर वैक्सीन दो प्रकार के होते हैं --- लाइव वैक्सीन एवं किल्ड वैक्सीन --- अब देखते हैं कि क्यों इन वैक्सीन को जीवित वैक्सीन या मरा हुआ वैक्सीन कहा जाता है। यह अपने आप में बड़ा रोचक मुद्दा है जिसे हमें दूसरे साल में माइक्रोबॉयोलॉजी के विषय के अंतर्गत पढ़ाया जाता है।

तो सुनिये, सब से पहले तो यह कि इन वैक्सीन में रोग पैदा करने वाले विषाणु, कीटाणु अथवा वॉयरस ही होते हैं, यह क्या आप तो चौंक गये कि अब यह क्या नई मुसीबत है!! लेकिन इस में चौंकने की या भयभीत होने की रती भर भी बात नहीं है क्योंकि इन विषाणुओं, वॉयरस के पार्टिकल्ज़ के उस रूप को वैक्सीन में इस्तेमाल किया जाता है जिस के द्वारा वे किसी भी स्वस्थ व्यक्ति में रोग-प्रतिरोधक शक्ति तो पैदा कर दें लेकिन किसी भी हालत में रोग न पैदा कर सकें। ( हुन मैंनू ध्यान आ रिहै इस गल दा ---पंजाबी वीर चंगी तरह जानदे हन कि खस्सी कर देना ---बस समझ लओ मितरो कि एस वॉयरस नूं या जर्म नूं खस्सी ही कर दित्ता जांदा )।

Antigenicity- हां and Pathogenicity- ना, को समझ लें ? ---- ये दो परिभाषायें वैक्सीन के संदर्भ में वैज्ञानिक लोग अकसर इस्तेमाल करते हैं। पैथोजैनिसिटी से मतलब है कि कोई जीवाणु अथवा वॉयरस को उस रूप में इस्तेमाल किया जाये कि वैक्सीन के बाद यह मरीज़ में वह बीमारी तो किसी भी स्थिति में पैदा करने में सक्षम हो नहीं लेकिन इस में मौज़ूद एंटीजैन की वजह से इस की एंटीजैनिसिटी बरकरार रहे। एंटीजैनिसिटी बरकरार रहेगी तो ही यह वैक्सीन किसी व्यक्ति के शरीर में पहुंच कर उस रोग से टक्कर लेने के लिये अपनी रोग प्रतिरोधक क्षमता तैयार कर पाता है, मैडीकल भाषा में कहूं तो ऐंटीबाडीज़ तैयार कर पाता है। तो कोई भी वैक्सीन तैयार करने से पहले इन सब बातों का बेहद बारीकी से ख्याल रखा जाता है।

अब स्वाभाविक है कि आप सब को उत्सुकता होगी कि यह जीवित एवं मृत वैक्सीन का क्या फंडा है ---- इस के बारे में हमें केवल यह जानना ज़रूरी है कि लाइव वैक्सीन में तो जो जीवाणु अथवा वॉयरस पार्टिकल्ज़ इस्तेमाल होते हैं वे लाइव ही होते हैं, जी हां, जीवित होते हैं लेकिन बस उन्हें वैक्सीन में डाला उस रूप ( in medical term, we say it is used in an attenuated form ) में जाता है कि वे उस बीमारी से जंग करने के लिये सैनिक (ऐंटीबाडीज़) तो तैयार कर सकें लेकिन किसी भी हालत में बीमारी न पैदा कर पायें। और जहां तक डैड वैक्सीन ( इन्एक्टिव वैक्सीन)की बात है उस में तो मृत वायरस अथवा जीवाणु ही इस्तेमाल किये जाते हैं जो कि मरे होने के बावजूद भी अपनी ऐंटिजैनिसिटी थोड़ी बरकरार रखे होते हैं यानि कि किसी व्यक्ति के शरीर में पहुंचते ही ये उस के विरूद्ध ऐंटीबॉडीज़ तैयार करनी शुरू कर देते हैं। और हां, इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि हर वैक्सीन के लिये यह अवधि तय है कि वह शरीर में पहुंचने के कितने समय बाद अपना जलवा दिखाना ( ऐंटीबाडीज़ तैयार) शुरू करता है।

यही कारण है कि कईं बार हमें जब तुरंत ऐंटीबाडीज़ की आवश्यकता होती है तो हमें कोई ऐसा उपाय भी इस्तेमाल करना होता है जिस के द्वारा हमें ये ऐंटीबाडीज़ पहले से ही तैयार शरीर में पहुंचानी होती हैं ---ताकि वह समय भी नष्ट न हो जब कि कोई वैक्सीन ऐंटीबाडीज़ बनाने में अपना समय़ ले रहा है।

ऐंटीजन एवं ऐंटीबाडी की बात एक उदाहरण से और भी ढंग से समझ लेते हैं ( चाहे इस उदाहरण का वैक्सीन से कोई संबंध नहीं है ) --जब हमारी आंख में धूल का एक कण भी चला जाये तो यह तुरंत गुस्से में आ कर ( लाल हो जाती है) और आंख से पानी निकलना शुरू हो जाता है। आंख में धूल के कण को आप समझिये की यह एक ऐंटीजन है और आंख से निकल रहा पानी उस धूल-मिट्टी से आप को निजात दिलाने की कोशिश कर रहा होता है।

एक कीचड़ में छलांगे लगाते हुये नन्हें मुन्नों बच्चों का बहुत ही बढ़िया सा विज्ञापन आता है ना ----दाग अच्छे हैं ----तो हम कह सकते हैं कि वैक्सीन भी अच्छे हैं, ये अनगिनत लोगों का रोगों से प्रतिरक्षण करते हैं।

हां, तो महामारी अब घोषित हो गई और वैक्सीन सितंबर तक --- इस का जवाब यह है कि इतना सारा काम करने में समय तो लगता ही है ना ---- अब तो हम सब लोग मिल कर यही दुआ करें कि यह सितंबर तक भी आ जाये तो गनीमत समझिये। इस तरह की वैक्सीन की टैस्टिंग भी बहुत व्यापक होती है। एक बात और कि क्या न वैक्सीन को पहले ही से तैयार कर लिया गया ? ---इस का जवाब यह है कि जिस वॉयरस का पता चले ही कुछ अरसा हुआ है, तो पहले से कैसे इस के वैक्सीन को तैयार कर लिया जाता, आखिल वैक्सीन तैयार करने के लिये वॉयरस नामक का विलेन भी तो चाहिये।

अब मन में यह ध्यान आना कि ये वैक्सीन तैयार करने इतने ही आसान हैं तो एचआईव्ही का ही वैक्सीन क्यों नहीं अब तक बन पाया ----इस क्षेत्र में भी बहुत ही ज़ोरों-शोरों से काम जारी है लेकिन वहां पर समस्या यह आ रही है कि एचआईव्ही की वायरस बहुत ही जल्दी जल्दी अपना स्वरूप बदलती रहती है इसलिये जिस तरह की वायरस से बचाव के लिये कोई वैक्सीन तैयार कर उस का ट्रायल किया जाता है तब तक एचआईव्ही वॉयरस का रंग-रूप ही बदल चुका होता है जिस पर इस वैक्सीन का कोई प्रभाव ही नहीं होता। लेकिन चिकित्सा विज्ञानी भी कहां हार मान लेने वाली नसल हैं, बेचारे दिन रात इस की खोज़ में लगे हुये हैं। इन्हें भी हम सब की ढ़ेरों शुभकामनाओं की आवश्यकता है।

अभी जिस विषय पर लिखना जरूरी समझ रहा हूं ---वह है जैनेटिकली इंजीनियर्ज वैक्सीन ( genetically-engineered vaccines). इस पर बाद में कभी अवश्य चर्चा करेंगे।

आज जब मैं सुबह सुबह यह पोस्ट लिख रहा हूं तो मुझे अपनी गवर्नमैंट मैडीकल कालेज की अपनी एक बहुत ही आदरणीय प्रोफैसर साहिबा --- डा प्रेमलता वडेरा जी की बहुत याद आ रही है, उन्होंने हमें अपने लैक्चर्ज़ में इतने सहज ढंग से समझाया बुझाया कि आज पच्तीस साल भी आप तक अपनी बात उतनी ही सहजता से हिंदी में पहुंचा पाया। वह हमें नोट्स तो देती ही थीं लेकिन हम लोग भी उन्हें रोज़ाना दो-तीन बार पढ़ लेना अच्छा लगता था जिस से बेसिक फंडे बहुत अच्छी तरह से क्लियर होते रहते थे। वे अकसर मेरे पेपर का एक एक पन्ना सारी क्लास को दिखाया करती थीं कि यह होता है पेपर में लिखने का ढंग। थैंक यू, मैडम। मुझे बहुत गर्व है कि हम लोग बहुत ही सम्मानीय,समर्पित मैडीकल टीचरों की क्रॉप के प्रोड्क्ट्स है जिन्हें हम लोग आज भी अपना आदर्श मानते हैं।

और हां, जहां तक एच1एन1 स्वाईन फ्लू की बात है , इस के लिये हम सब का केवल इतना कर्तव्य है कि बेसिक सावधानियां बरतते रहें जिन के बारे में बार बार मीडिया में बताया जा रहा है, बाकी जैसी प्रभुइच्छा। अब हम लोगों के लालच ने भी ने भी प्रकृति का दोहन करने में, उस का शोषण करने में कहां कोई कसर छोड़ रखी है अब उस का समय है हमें समझाने का। शायद कबीर जी ने कहा है --कभी नांव पानी पर, कभी पानी नांव पर !!

आज एक खबर जो सुबह अंग्रेज़ी के पेपर में दिखी जिस ने तुरंत इस पोस्ट लिखने के लिये उठा दिया ---वह यह थी कि दिल्ली में एक छः साल की बच्ची को फ्लू है जो कि विदेश से आई है-- उसे क्वारैंटाइन में रखा गया है और उस के दादू ने उस के साथ स्वेच्छा से रहना स्वीकार किया है।(उस बच्ची के साथ साथ उस महान दादू के लिये भी हमारी सब की बहुत बहुत शुभकामनायें)। पता नहीं, इस तरह की अनूठी कुरबानियों के बावजूद इन बुजुर्गों की इतना दुर्दशा क्यों है, कभी किसी ने सुना कि जब किसी बूढे़-बूढ़ी को बोझ की एक गठड़ी समझ कर ओल्ड-एज होम में पटक के आया जाता है तो उन के पोते-पोतियां भी उन के साथ रहने चले गये ------ मैंने तो ऐसा कभी नहीं सुना !!

गुरुवार, 11 जून 2009

मेरा पिंड ( मेरा गांव मेरा देश)

कल समीर लाल जी की एक बहुत ही बेहतरीन पोस्ट पढ़ने का हैंग-ओव्हर अभी तक नहीं टूटा है। उन्होंने ने कितने सुंदर एवं भावुक शब्दों में अपने गांव की मिट्टी को याद किया--- कल शाम ऐसे ही उन का ब्लॉग फिर से लगाया तो साठ के करीब टिप्पणीयां देख कर दंग रह गया। समीर जी की पोस्ट का नशा उतरने का मेरे लिये एक कारण एक और था --- आज दोपहर मेरे बेटे ने ज़ी-पंजाबी पर एक बहुत प्रसिद्ध पंजाबी गायक साबर कोटी का एक प्रोग्राम लगाया हुआ था। उस प्रोग्राम के बारे में बताने से पहले साबर कोटी का एक गीत सुनना चाहेंगे ?

कंडे जिन्ने होन तिक्खे, फुल ओन्हा हुंदा सोहना,
साडे अपने नहीं होय, तां परायां कित्थों होना .....
( कांटे जितने नुकीले हों, फूल उतना ही सुंदर होता है,
अगर हमारे अपने ही अपने न हुये तो बेगानों से क्या शिकवा )



हां, तो उस प्रोग्राम का नाम था ---मेरा पिंड। यह ज़ी-टीवी का एक रैगुलर प्रोग्राम है जिस में यह किसी शख्सियत को उस के गांव में ले जाकर इंटरव्यू करते हैं। मैं इस प्रोग्राम का बुहत शौकीन हूं। मुझे नहीं पता कि यह किस दिन कितने बजे आता है लेकिन जब कभी ऐक्सीडैंटली बच्चे रिमोट के साथ पंगे लेते हुये इस लगा लेते हैं तो बस फिर तो मैं इस के दौरान दिखाये जाने वाले कमर्शियल्ज़ के दौरान भी उसी चैनल पर ही डटा रहता हूं।

पंजाबी गायक साबक कोटी बिल्कुल ठेठ पंजाबी में अपनी पिंड ( गांव) की यादें बहुत भावुक हो कर दर्शकों से साझी कर रहा था जिन्हें सुन कर बहुत ही अच्छा लग रहा था। मैं अकसर कहता रहता हूं कि जब कोई दिल से अपनी बात रख रहा होता है तो बस फिर तो बात ही निराली होती है।

मुझे अपनी मां-बोली पंजाबी से बहुत ही प्यार है --- मैं इस के प्रचार-प्रसार के लिये अपने स्तर पर काम करता रहता हूं। घर में भी हम सब लोग पंजाबी में ही बात करते हैं --- मुझे बड़ा गर्व है कि मेरे बेटे भी बहुत अच्छी पंजाबी बोलते हैं। ऐसा हम लोग जान-बूझ कर करते हैं --- इस का कारण है कि दूसरी भाषायें तो आदमी विभिन्न मजबूरियों के कारण सारी उम्र सीखता ही रहता है। लेकिन अपनी मां-बोली मां के दुलार की तरह है --- शुरूआती वर्षों में इस का जितना अभ्यास कर लिया जाये वह भी कम है।

मैं प्रोग्राम देखते हुये बेटे को यही कह रहा था कि कितनी बढ़िया पंजाबी बोल रहा है कोटी --- मैंने फिर कहा कि दरअसल इस तरह के लोग जब बोलते हैं तो इन की बोली से भी इन के गांव की मिट्टी की खुशबू आती है। आज साबर कोटी को ज़ी-पंजाबी पर बोलते देख कर ऐसे लग रहा था कि भाषा कोई भी हो, बस जब तक उस की टांग न घुमाई जाये, बार बार स्लैंग का इस्तेमाल न किया जाये ---- तो फिर सब कुछ बढ़िया ही लगता है।

साबर कोटी ने हमें अपने पिंड की गलियों की सैर कराई, वह हमें उस स्कूल ले गया जहां पर उस ने पांचवी कक्षा तक पढ़ाई की थी। अपने स्कूल में जा कर वह भावुक हो रहा था ---उसे अपने उस स्कूल मास्टर की याद आ गई थी जिस ने उसे पहली पहली बार स्कूल की स्टेज पर गीत गाने का अवसर दिया था।

उस के बाद साबर हमें गांव के एक पीर की जगह पर हम सब को ले गया ---- साबर बता रहा था कि वह हर वीरवार के दिन वहां पर अपनी हाज़िरी लगवाने ज़रूर आता है -- वह कितना भी व्यस्त क्यों न हो, वहां आने के लिये समय कैसे भी निकाल लेता है।

मैंने साबर कोटी का प्रोग्राम लगभग 10-15 मिनट देखा, मुझे तो बहुत आनंद आया। मुझे इस का मलाल है कि मैं प्रोग्राम शुरू से नहीं देख पाया। आप को पता है मुझे इतना मज़ा क्यों आया --- क्योंकि जब साबर कोटी अपने गांव की गलियां हमें दिखा रहा था तो मैं भी उस के साथ अपने बचपन की गलियों की यादों में बह गया था ---मैं भी याद कर रहा था उस नीम के पेड़ को जिसे मेरी मां ने अपने हाथों से लगाया था ---किस तरह हम लोग उस की छांव में कंचे ( गोटियां) खेलते रहते थे और फिर उस डालडे के प्लास्टिक वाले डिब्बे में जमा करते रहते थे ----फिर जब उस दिन का खेल खत्म हो जाना तो उन कंचों को पानी से धोना और बढ़िया-बढ़िया और थोड़े टूटे हुये कंचों को अलग अलग करना ----इसलिये कि कल सुबह वाले सैशन में पहले खराब कंचे लेकर ही बाहर जाना है।

और उसी पेड़ के नीचे जमीन पर गुल्ली-डंडे के खेल के लिये बनाई गई एक खुत्थी (टोया, डूंग) को भी याद कर रहा था --- जब मैं साबर कोटी के गांव की नालियां देख रहा था तो मैं भी अपने घर के बाहर नाली को याद कर रहा था जिस में से कितनी बार मैंने गेंद उठाया था ---और दो-चार बार शायद एमरजैंसी में उस नाली पर बैठा भी था ----किस लिये ? --( अब वह क्यों लिखूं जिसे लिख कर मुझे शर्म आ जाती है)--- आप समझ गये ना !!

मुझे उस घर के बाहर पड़ा एक पत्थर भी याद आ जाता है जिस पर मैं अपने पापा की इंतज़ार किया करता था कि आज उन की टोकरी में क्या पडा़ मिलेगा ---- बर्फी, पेस्टरी, केले, अंगूर, भुग्गा( पंजाब की एक मशहूर मिठाई) या फिर कईं बार केवल बेइंतहा प्यार ही प्यार।

और फिर मुझे साबर कोटी का गांव घूमते घूमते अपने मोहल्ले का वह मीठे पानी का वह हैंड-पंप भी याद आ जाता है जहां से प्री-फ्रिज के दिनों में डोल में ठंडा पानी भर कर लाया करता था। कमबख्त यादें बहुत परेशान करती हैं --- लेकिन जब इन्हें बांट लो ना तो बहुत अच्छा लगता है। मैं उस छोटी सी चारपाई को भी याद कर रहा था जिस पर बैठ क मोहल्ले की महिलायें कभी खत्म न होने वाली बातों में लगी रहती थीं --- अब ये मुंह की मैल उतारने वाले मंजे नहीं दिखते।

अब लोग बहुत बड़े हो गये हैं ----शायद मैं बहुत बड़ा हो गया हूं -----लेकिन जब गहराई से टटोलता हूं तो पाता हूं कि अब भी हम तो वहीं ही हूं ---- शायद उस निश्छलता पर बहुत से कवर डाल लिये हैं ----कितने कवर किस जगह उतारने हैं बस इतना पढ़ने लिखने के बाद वही सीख पाया हूं,और ज़्यादा कुछ नहीं। क्या यही विद्या है, यही सोच रहा हूं ------पता नहीं साबर कोटी पर लिखते लिखते किधर निकल गया कि उसी ज़माने की एक मशहूर फिल्म मेरा गांव मेरा देश फिल्म की याद आ गई ---- वह गीत याद आ रहा है ---- मार दिया जाये या छोड़ दिया जाये।
यादें तो बांटने वाली अनगिनत हैं ---बाकी फिर कभी । बाई साबर कोटी, तेरा बहुत बहुत शुक्रिया ---- तूं तां सानूं वी अपने दिन याद करा दित्ते। परमात्मा अग्गे एहो अरदास है कि तूं होर वी बुलंदियां छोहे।

बुधवार, 10 जून 2009

दांतों में ठंडा लगने से कहीं आप भी परेशान तो नहीं ?

दांतों में ठंडा पानी आदि लगने से परेशान जब कोई मरीज़ किसी क्वालीफाईड डैंटिस्ट के पास जाता है तो उसे प्रश्नों की बौछार के लिये तैयार रहना चाहिये। और आप के मुंह के अंदर झांकने से पहले ही ये प्रश्न ताबड़तोड़ उछाल दिये जाते हैं ....
क्या यह ठंडा लगने की शिकायत सभी दांतों में है ?
अगर सभी दांतों में तकलीफ़ नहीं है तो फिर मुंह की किस तरफ़ दर्द है, दर्द ऊपर वाले जबाड़े में होता है या नीचे वाले जबाड़े में ?
ऊपर या नीचे वाले जबाड़े में जब दांतों में ठंडा लगता है तो क्या सभी दांतों में लगता है या केवल एक या दो दांतों में ?
अब प्रश्नों का दूसरा दौर शुरू होता है ---
जब ठंडा पानी मुंह में लिया जाता है तो यह दर्द कितने समय तक रहता है ? क्या पानी पी लेने के बाद भी यह होता रहता है ? इस दर्द की अवधि सैकेंडों में है या मिनटों में ?

ये जो मैंने प्रश्न लिखे हैं ये हमें लगभग हर उस मरीज़ से पूछने होते हैं जो इस ठंडे-गर्म की शिकायत से परेशान होता है। अब आप समझ सकते हैं कि इस परेशानी के लिये बस यूं ही किसी भी दवाई वाली पेस्ट को लगा कर दबाने की कोशिश क्यों निर्रथक साबित होती है। जब कारण का पता ही नहीं, डायग्नोसिस हुआ ही नहीं तो फिर ये दवाई वाली पेस्टें क्या कर लेंगी ?

और जो प्रश्नों की लिस्ट आप ऊपर देख रहे हैं ---इन में एक एक प्रश्न का बहुत महत्व है। एक अच्छा डैंटिस्ट चाहे कितना भी व्यस्त क्यों न हो किसी भी दांतों पर ठंडा लगने से परेशान मरीज़ से ये प्रश्न तो पूछता ही है। हर प्रश्न का उत्तर विभिन्न दांतों की बीमारियों की तरफ़ इशारा करती है। बिना किसी डायग्नोसिस के बस यूं ही महंगी महंगी पेस्टें या मंजन लगाते रहना बिल्कुल उसी प्रकार है जिस तरह कई दिनों से बेहद पेट दर्द से परेशान कोई बंदा केवल दर्द-निवारक टीकिया ले लेकर अपना काम चलाता रहे। इस लिये डैंटिस्ट के पास जाकर ही कारण का पता लग सकता है।

और एक शिकायत मरीज़ बहुत करते हैं कि दांतों में गैप आ गया है, अभी मैं थोड़ा थका हुआ हूं ---आज दोपहर सोने का समय नहीं मिला ---इसलिये इस गैप के बारे में कल अच्छे से लिखूंगा।

तंबाकू चूसना --- पार्टी स्टाईल !!

हम लोग किसी भी क्षेत्र में काम कर रहे हों, शायद ही अपने उस्ताद को कभी भूल पाते हैं। मुझे भी अकसर अपने ओरल-सर्जरी के प्रोफैसर डा कपिला जी की याद अकसर आती है। ये हम लोगों को अकसर कहा करते थे कि मरीज़ की बात ध्यान से सुना करो, वह तुम्हें स्वयं ही अपनी बीमारी का डायग्नोसिस बतला रहा है। In his words – “ Listen to the patient carefully, he is giving you the diagnosis !”. अब यह अपने आप में आत्म-अविलोकन करने वाली बात है कि यह काम हम लोग कितनी हद तक उस भावना से कर पाते हैं।

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कल भी मेरे पास यह मरीज़ आया जिस के मुंह के अदंर दांतों की तस्वीर आप यहां देख रहे हैं। यह मेरे पास ऊपर आगे के एक दांत की जड़ निकलवाने आये थे जो कि दांत की सड़न की वजह से टूट चुका था। जब मैं इन के मुंह में इंजैक्शन लगा रहा था तो मुझे लगा कि ऊपर वाले होंठ का अंदरूनी हिस्सा ( oral mucosa) थोड़ा खुरदुरा सा है।

मेरा ध्यान इंजैक्शन देने में पूरी तरह लगा हुआ था इसलिये मैंने इस खुरदरेपन तरफ़ कुछ खास ध्यान देना शायद इसलिये उचित नहीं समझा कि मुझे लगा कि ये Fordyce spots हैं और दूसरा मेरा ध्यान उस खुरदरेपन की तरफ़ उस समय था भी नहीं ---सोच रहा था कि इसे बाद में देखूंगा। ( बाद में किसी दिन इन स्पाट्स के बारे में चर्चा करेंगे )---- लेकिन इस समय केवल यही बता रहा हूं कि ये फारडाइस-स्पाट्स पसीने पैदा करने वाले ग्लैंड्स ( sebaceous glands) होते हैं जो कि सामान्यतः तो हमारी चमड़ी पर ही होते हैं लेकिन कईं बार ये मुंह के अंदर ( oral mucosa), पुरूषों के ग्लैंस-पीनस( glans penis) को कवर कर रही चमड़ी के अंदरूनी भाग ( mucous membrane आदि में भी होते हैं ---- ये बिल्कुल छोटे छोटे दाने से होते हैं और अकसर मरीज़ इन के बारे में चिंतित से हो जाते हैं जब कि चिंता करने वाली कोई बात ही नहीं होती।

हां, तो मैं अपने मरीज़ की बात कर रहा था --- मैंने मरीज़ का दांत निकलवाने से पहले ऐसे ही पूछ लिया कि यह ऊपर खरदुरा सा आप को कभी लगा नहीं ? ----तब उस ने बताया कि यह तो तंबाकू की वजह से है।
कहने लगा कि पिछले पांच साल से तंबाकू-चूने की आदत लग गई है। और मैं ऊपर वाले होंठ के अंदर की तरफ़ भी अकसर तंबाकू दबा कर रखता हूं। मुझे तुरंत सारी बात समझ में आ गई।


दरअसल शायद यह पहला केस मेरी नज़र में आया था जो कि तंबाकू-चूने का मिश्रण ऊपर वाले होंठ के अंदर दबा कर रखता था ( अकसर कभी कहीं पर कोई भद्रपुरूष इस तरह के कैंसर के मिश्रण को गाल के अंदर ऊपर वाली दाढ़ों के साथ लगती जगह पर तो रखते नज़र आ ही जाते हैं ) ...... मुझे बहुत हैरानगी हो रही थी ----उस ने आगे बताना शुरू रखा कि कईं बार उसे ऊपर वाले होंठ के अंदर ही इस तंबाकू ( कैंसर-मिश्रण !!!! ---- Cancer mixture !! --- Cancer cocktail !!!) को रखना पड़ता है क्योंकि जब मैं किसी पार्टी वगैरह में गया होता हूं तो बार बार थूकने के झंझट से निजात मिल जाती है। वह यह भी कह रहा था कि वैसे तो वह नीचे के होंठों के अंदरूनी हिस्से का ही इस काम के लिये इस्तेमाल करता है और इस की वजह से उस नीचे वाले दांतों के बाहर की जगह की क्या हालत हो चुकी है वह आप इस तस्वीर में देख सकते हैं। DSC03179

मैं एक दो मिनट उस की बातें सुनीं-----उस का टूटा दांत निकालने के बाद फिर उस की क्लास ली कि यह सब क्या है और भविष्य में यह किस तरह कैंसर में तबदील हो सकता है। वह मेरी बातें बहुत ध्यान से सुन रहा था और उस ने कल ही से तंबाकू को मुंह में दबाने से तौबा कर ली ।

उस के जाने के बाद मैं यही सोच रहा था कि मरीज़ की बात ध्यान से सुनने की आदत आज एक बार फिर काम आ गई ---वरना आज एक महत्वपूर्ण डायग्नोसिस मिस हो जाता और वह बंदा अपनी आदत को बिना परवाह के जारी रखता जो कि उसे मुंह के कैंसर की तरफ़ धकेल सकती थी।

रविवार, 7 जून 2009

जय हो ! ---बाबा रामदेव जी, तुसीं बहुत ग्रेट हो !

सुबह जब मैं नेट पर बैठ कर अपना टाइम बिता रहा होता हूं तो मेरी मां अपने कमरे में बाबा रामदेव का सम्पूर्ण कार्यक्रम देख रही होती हैं। और अकसर ऐसा बहुत बार होता है कि जब बाबा की एक-दो बातें मेरे कानों में पहुंच जाती हैं तो मैं नेट पर से उठ कर टीवी के सामने बैठ कर बाबा की बहुत बढ़िया बढ़िया बातें सुननी शुरू कर देता हूं। और मैं उन की सब बातों से सहमत हूं --- सहमत क्या हूं मैं भी अपने आप को उन का भक्त ही मानने लगा हूं। लेकिन कईं बार मेरी अंग्रेज़ी अकल अपनी टांग थोड़ी अड़ानी शुरू तो करती है लेकिन फिर मैं उसे समझा देता हूं कि ये बातें कहने वाला कोई आम इंसान नहीं है ---एक ऐसा देवता है जो कि सारे विश्व को सेहत का तोहफ़ा देने ही आया है।

आज मैं बैठा बैठा यही सोच रहा था कि क्या है इस महात्मा की बातों में कि इतने लोग इन की बातों को अपने जीवन में उतार कर अपने जीवन को पटड़ी पर ला रहे हैं। तो मुझे जो समझ आया वह यही है कि यह संत सेहत की बात करता है जब कि आज का आधुनिक चिकित्सा-विज्ञान केवल एवं केवल बीमारी की ही बात करता है। यह देवता बात करता है कि कैसे घर में ही उगे बेल-बूटों से कोई अपने जीवन में खुशहाली-हरियाली ला सकता है। लेकिन माडर्न मैडीसन कहती है कि इस बीमारी से बचना है तो यह खा, उस से बचना है तो वह खा, कोलैस्ट्रोल कम करने के लिये यह कर --------यह मेरा बहुत स्ट्रांग ओपिनियन है कि इस अल्ट्रा-मार्डन सिस्टम में पुरानी (क्रानिक) बीमारियों का एक कारोबार सा ही हो रहा दिखता है। महंगे महंगे टैस्ट, और उस से भी कहीं महंगी दवाईयां और तरह तरह के आप्रेशन। इस में कोई संदेह नहीं कि आधुनिक चिकित्सा प्रणाली ने डायग्नोसिस( रोगों के निदान ) के क्षेत्र में अच्छी खासी तरक्की की है, एक्यूट बीमारियों ( अल्प अवधि रोगों ) में कईं बार आधुनिक चिकित्सा प्रणाली एक वरदान सिद्ध होती है और कईं बार किसी बीमारी का इलाज केवल आप्रेशन से ही संभव होता है।

अब इस पोस्ट को पढ़ के कोई यह कहे कि यार, टैस्ट महंगे हैं, इलाज महंगे हैं तो महंगे हैं, इस से तेरा पेट क्यों दर्द हो रहा है। मेरा पेट दर्द इसलिये होता है कि यह इतना महंगा और अकसर कंफ्यूज़ कर देने वाला सिस्टम हमारे देश की ज़्यादातर गरीब जनता के लिये लगता है उपर्युक्त नहीं है। बाबा रामदेव किसी भी बीमारी की जड़ को खोद कर बाहर फैंक निकालता है जब कि आज का आधुनिक सिस्टम अकसर लक्षण दबाने में ही लगा हुआ है। बाबा हॉलिस्टिक हैल्थ की ही बात करते हैं जब कि आज का अत्याधुनिक सिस्टम शरीर को अनगिनत हिस्सों में बांट कर उस को दुरूस्त करने की बातें करता है। सोचता हूं कि ऐसे में शरीर की विभिन्न प्रणालीयों का समन्व्य केवल सांकेतिक ही तो नहीं हो कर रह गया।

अगर यह सच नहीं है तो फिर क्यों लोगों का ब्लड-प्रैशर (उच्च रक्तचाप ) कंट्रोल क्यों नहीं हो रहा, क्यों लोग मधुमेह ( डायबिटीज़) की जटिलताओं से परेशान हैं। कारण वही जो मैं समझ पाया हूं कि लोग अपनी जीवन-शैली बदलने की बजाये एक टेबलेट पर ज़्य़ादा भरोसा करने लग पड़े हैं। लेकिन बाबा उन को जीवनशैली बदलने की प्रेरणा देता है जिस से उन के शरीर के सैल्युलर लेवल पर पाज़िटिव चेंज आ जाते हैं।

मैं तो भई बाबा की बातों का इतना कायल हूं कि अकसर सोचता हूं कि इस जैसे देव-पुरूष को संसार की किसी शीर्ष स्वास्थ्य संस्था जैसे की विश्व स्वास्थ्य संगठन का मुखिया होना चाहिये --- क्योंकि सारी दुनिया को सेहत का उपहार देना केवल इस तरह के स्वामी के ही बश की बात है।

बाबा की बातों में इतनी कशिश है कि जब से टीवी पर बात कर रहे होते हैं तो बीच में उठने की बिल्कुल इच्छा नहीं होती। सब कुछ अकसर वे अपनी बातों में कवर कर रहे होते हैं। मैं अकसर यह भी सोचता हूं कि ये रोज़ाना इतनी बातें खुले दिल से सारे संसार के साथ साझा कर रहे होते हैं कि अगर कोई व्यक्ति उन की रोज़ाना एक बात भी पकड़ ले तो जीवन में बहार आ जाये।

अब हर जगह हम किसी भी बात का प्रूफ़ नहीं मांग सकते --- स्वामी रामदेव जी जैसे लोग प्रकृति के साथ बिल्कुल रल-मिल कर रह रहे हैं ---इसलिये प्रकृति भी ऐसे लोगों से फिर कुछ भी छिपा कर नहीं रखती। अब मेरी मां मुझे अकसर कहा करती हैं कि रात को दही मत खाया करो क्योंकि बाबा रामदेव बार-बार इस के बारे में कहते हैं। अब अगर मैं अपनी अंग्रेज़ी अकल को इस में भी घुसा दूंगा तो फिर मैं यही कहूंगा कि इस से क्या होगा, हमारी किताबों में तो ऐसा कहीं नहीं लिखा। लेकिन जैसा कि मैंने समझा है कि हर बात में तर्क-वितर्क की कोई गुंजाईश होती कहां है, कुछ बातें जब संत-महात्माओं के मुख से निकलती हैं तो उन्हें ब्रह्म-वाक्य जान कर मान लेने में ही बेहतरी होती है। जी हां, मैंने रात को दही खाना पिछले कुछ महीनों से छोड़ रखा है।

आज भी बाबा सुबह बता रहे थे कि खाने-पीने की जितनी मिलावट यहां होती है वह शायद ही किसी दूसरी जगह होती हो। मुझे पूरा विश्वास सा होने लगा है कि जैसे हमारे आयुर्वेद डाक्टर कहते हैं कि खाने-पीने की वस्तुओ का सेवन अपने शरीर की प्रवृत्ति के अनुसार ही किया जाये --- ऐसा है ना कि अकसर हमें कईं खाध्य पदार्थ सूट नहीं करते और हम उन्हें खा कर बीमार सा हो जाते हैं ---कोई कोई दाल ऐसी है जो रात में हज़्म नहीं होती हैं लेकिन इस के बारे में मेरे ख्याल में आज का सिस्टम कम ही कुछ कहता है जब कि आयुर्वैदिक प्रणाली में इन सब के बारे में खूब चर्चा होती है।

हां, एक ध्यान आ रहा है कि यह जो हम लोग ई.टी.जी( इलैक्ट्रोत्रिदोषोग्राम) के बारे में इतना सुनते हैं इस के बारे में भी हमें जानकारी हासिल करने की ज़रूरत है। इस के बारे में मेरे मन में भी बहुत से प्रश्न हैं ---लेकिन मैंने शायद अभी तक इस के बारे में कभी गंभीरता से जानने की ही कोशिश ही नहीं की। लेकिन सोचता हूं अब मैं इस के बारे में जान ही लूं।

आज कितने ही लोग प्राणायाम् एवं प्राकृतिक जीवन-शैली की ओर प्रेरित हो रहे हैं-- इस सब का श्रेय परमश्र्देय़ बाबा को ही जाता है ---कितने उत्साह से वह अपना काम कर रहे हैं यह देख कर मैं अकसर दंग रह जाता हूं। निःसंदेह वह आज के मानव को एक संपूर्ण इंसान बना रहे हैं।

बस,आज बाबा रामदेव स्पैशल इस पोस्ट पर इतना ही लिख कर विराम ले रहा हूं।

शनिवार, 6 जून 2009

कटे एवं घिसे दांत कैसे हों दुरूस्त ?

दांतों का कट जाना एवं बुरी तरह से घिस जाना एक बहुत ही आम समस्या है। आज मैं आप के लिये कुछ तस्वीरें ले कर आया हूं। ये सब तस्वीरें मेरे मरीज़ों की ही हैं ---इन में से किसी का भी विवरण पढ़ने के लिये इस पर क्लिक करें।

इस मोहतरमा ने तो दांतों को छील ही दिया है
इस
महिला के दांतों को आप देखिये---यह किसी चालू से खुरदरे मंजन का इस्तेमाल करती रही हैं और पान खाने की खूब शौकीन रही हैं—देखिये इन दोनों आदतों ने इस के दांतों की क्या हालत कर दी है। इन घिसे हुये दांतों का पूरा इलाज करने के बाद इन पर एक दांतों के कलर से मिलती-जुलती एक फिलिंग ---लाइट-क्योर कंपोज़िट ( light-cure composite) से इन को दुरूस्त किया जायेगा।

वैसे तो इस तरह के दांतों में ठंडा-गर्म अकसर लगने लगता है लेकिन इन्हें इस तरह की कोई शिकायत नहीं है। इन्होंने तो यह भी नहीं कहा कि ये दांत भद्दे दिखते हैं ---शायद यह मानती होंगी कि इन का कोई इलाज ही नहीं है। लेकिन जब मैंने इन पर फिलिंग करवा लेने की बात कही तो तुरंत मान गई हैं।

अब इस मरीज़ का दांत देखिये --- देखिये किस तरह से एक दांत पर कट लगा हुया है और दूसरे पर फिलिंग हुई है। इस घिसे हुये दांत का क्या होगा ?

इस तरह से दांत के कटने का सब से आम कारण है कि टुथब्रुश को जूता पालिश करने वाले ब्रुश की तरह इस्तेमाल किया जाना। अगर कोई व्यक्ति अपनी इस आदत को नहीं सुधारता तो एक दांत में फिलिंग करवा लेने से फिर दूसरे दांत इस कटाई-घिसाई का शिकार हो जाते हैं जैसा कि इस केस में हुआ है। आप देख सकते हैं कि इस कटे हुये दांत के पीछे जो दांत है उस को मैंने लगभग दो-एक साल पहले दांत के कलर से मेल खाती एक फिलिंग ---ग्लॉस-ऑयोनोमर से भरा था और ताकीद तो यह भी की थी कि अब ब्रुश को सही ढंग से इस्तेमाल किया जाये।

और हां, केवल ब्रुश का स्टाईल ही विलेन नहीं है ----बल्कि ब्रुश की हालत भी इस के लिये बहुत हद तक जिम्मेवार है। DSC02955
अब जिस तरह के ब्रुश आप इस बाथरूम में पड़े देख रहे हैं ये दांतों की घिसाई ज़्यादा और सफ़ाई कम करेंगे। ( एक राज़ की बात ---यह फोटो हमारे ही घर के एक बाथरूम की है ----फोटो खींचते मेरे छोटे बेटे ने देख लिया था लेकिन अगर उस को पता चल गया कि इसे पोस्ट पर डाल दिया गया है तो भई मेरी खैर नहीं --- मुझे तो बार बार बेटों से वैसे ही यह धमकी मिलती रहती है कि पापा, देख लेना किसी दिन आप का ब्लॉग ही उड़ा देंगे – इस का कारण यह है कि पीक समय पर नेट पर काम करने के तीन उम्मीदवार होते हैं !!वैसे मेरे घर के ही एक बाथरूम में अगर ब्रुश इस हालत में मौज़ूद हैं तो मैं इस की नैतिक जिम्मेदारी लेता हूं ।।

DSC03161
इस तस्वीर में भी आप देख रहे हैं कि किस तरह से दांत कट चुके हैं ---इन का इलाज भी वही है कि फिलिंग तो करवा ही ली जाये और साथ ही ब्रुश इस्तेमाल करने का ढंग भी सही किया जाये।

दरअसल , इस तरह के कटाव-घिसाव का इलाज करवाना इसलिये ज़रूरी है क्योंकि यह आगे ही बढ़ता चला जाता है और फिर धीरे धीरे अगर यह दांत की नस ( dental pulp) तक पहुंच जाता है तो बखेड़ा खड़ा हो जाता है---- फिर तो रूट-क्नाल ट्रीटमैंट एवं कैप का लंबा चौड़ा चक्कर पड़ जाता है। इसलिये इलाज का सब से महत्वपूर्ण पहलू है कि कारण को पकड़ा जाये और फिर बाद में फिलिंग कर देने से सब कुछ ठीक ठाक हो जाता है।

अकसर मैं देखता हूं कि लोग इस तरह के कटाव-घिसाव के लिये दंत-चिकित्सक के पास न जाकर ठंडे–गर्म के इलाज के लिये तरह तरह की दवाईयों वाली खूब चर्चित पेस्टें ले लेकर इस्तेमाल करनी शुरू कर देते हैं ----यह किसी भी तरह से इस तकलीफ़ का इलाज नहीं है, इस से केवल आप तकलीफ़ को दबा ही सकते हैं। इसलिये दंत-चिकित्सक के पास जाने से ही बात बन पाती है।

और फिर आप मटका कुल्फी का पूरा लुत्फ़ भी उठा पायेंगे।

गुरुवार, 4 जून 2009

वज़न कम करने वाली दवाईयों के बारे में आई है फिर से चेतावनी

अमेरिकी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन में एक बार फिर से मोटापा कम करने वाली कुछ ऐसी दवाईयों की एक लंबी-चौड़ी लिस्ट जारी की है जिन में कुछ ऐसे तत्व मौजूद हैं जो कि हमारी सेहत को बहुत बुरी तरह खराब कर सकते हैं।
मैं भी जब कभी बाज़ार वगैरा जाता हूं तो अकसर पेट कम करने वाले, वज़न कम करने वाले विज्ञापन स्कूटरों की स्टपनी के कवर पर प्रिंट हुये देखता ही रहता हूं और अकसर मेरा सुबह का हिंदी का अखबार भी मुझे इस तरह के करिश्माई नुस्खों की खबर देता ही रहता है। लेकिन मैं यह सोच कर, देख कर सकते में हूं कि चलो, हमारे यहां की तो बात क्या करें, हम लोगों की जान की तो कीमत ही क्या है, लोगों को उल्लू बनाना किसे के भी बायें हाथ का खेल है लेकिन अमेरिका जैसे विकसित देश में भी अगर ये सब चीज़ें बिक रही हैं तो निःसंदेह यह एक बहुत संगीन मामला है।
मैं शायद पहले भी बता चुका हूं कि हमारी दूर की रिश्तेदारी में एक 35 वर्ष की महिला थी --- सेहत एवं सुंदरता की मूर्ति थी --- हम लोग छोटे छोटे से थे तो हमें उसे देख कर लगता था कि हमारी उस आंटी में और हेमा मालिनी में कोई फ़र्क ही नहीं है। लेकिन परिवार वाले बताते हैं कि उन्होंने मोटापा कम ( पता नहीं, उन की क्या परिभाषा थी मोटापे की ---हमें तो वह कभी भी मोटी नहीं लगीं) करने के लिये कुछ ऐसी ही दवाईयां खाईं थी जिस से वह अपनी भूख मार लिया करती थीं। बस, कुछ ही महीनों में उन्हें लिवर-कैंसर हो गया और देखते ही देखते वह चल बसीं।
हमारे देश में एक समस्या हो तो बतायें --- चलो, इस आंटी का तो हमें पता था कि इस ने कुछ दवाईयां खाईं थीं लेकिन अधिकतर तौर पर तो परिवार वालों तक को यह पता नहीं होता कि परिवार के सदस्य किस किस मर्ज़ के लिये किस किस सयाने के चक्करों में हैं। परेशानी की बात भी तो यही है कि ये झोलाछाप नीम-हकीम ( बिना किसी क्वालीफिकेशन के ही ) मरीज़ों को अपनी बातों में इस कद्र उलझा कर रखते हैं कि उन्हें उस के आगे कोई और दिखता ही नहीं है।
अब मेरा वह जुबान की कैंसर वाला मरीज़ जिस चमत्कारी इलाज का वायदा करने वाले शख्स के चंगुल में है वह उस से इतना ज़्यादा प्रभावित है कि कोई भी बात सुनने के लिये राज़ी ही नहीं है। वह तो उस झोलाछाप की इस अदा का ही कायल है कि बंदा हर समय मुंह में पान रखे रखता है और बार बार थूकता जाता है ----और साथ में कहता है कि वह भी बंदा क्या बंदा है, कोई टैस्ट ही नहीं करवाता , बस दो बातें करता है और अपने पैन को अपने नुस्खे पर घिसट देता है। इस बार तो मैंने उस मरीज़ को थोड़ा सख्ती से कह ही दिया था कि आप अपना समय नष्ट कर रहे हैं।
हां, तो बात हो रही थी --- वज़न कम करने वाली दवाईयों की जिन्होंने अमेरिका जैसे देश में हड़कंप मचा रखा है। समस्या इस तरह की दवाईयों में जो अमेरिका में भी दिखी वह यही थी कि इन दवाईयों की पैकिंग या लेबल पर अकसर यह ही नहीं बताया गया था कि इन में क्या क्या साल्ट मौजूद हैं. और इन तथाकथित दवाईयों का जब अमेरिका की सरकारी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने परीक्षण करवाया तो इन में कुछ इस तरह की दवाईयां मिलीं जिन के बारे में सुन कर आप भी परेशान हो जायेंगे।
इन तथाकथित मोटापा दूर भगाने वाली दवाईयों में कुछ गैर-कानूनी दवाईयां भी मौज़ूद थीं।
सिबूट्रामीन ( sibutramine) – इस दवा से भूख को दबाया जाता है और इसे केवल डाक्टर के नुस्खे द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। ये जो चालू किस्म की दवाईयों की लिस्ट अमेरिका में जारी की गई है इन में से कुछ में यह दवा बहुत ही ज़्यादा मात्रा ( much higher doses than maximum daily doses) में पाई गई।
फैनप्रोपोरैक्स ( Fenproporex) – एक ऐसा साल्ट है जिस की मार्केटिंग अमेरिका में हो ही नहीं सकती।
फ्लूयोएक्सटीन ( Fluoxetine) – इस दवाई को वैसे तो डिप्रेशन के मरीज़ों को ही दिया जाता है लेकिन अगर मोटापा कम करने वाली दवाईयों में भी यह मिला दिया जाये तो इस के क्या परिणाम हो सकते हैं, शायद इस की आप कल्पना भी नहीं कर सकते।
ब्यूमीटैनाईड ( Bumetanide) – यह एक जबरदस्त डाययूरैटिक – potent diuretic- है जिसे केवल डाक्टर का नुस्खा दिखा कर ही प्राप्त किया जा सकता है। डाययूरैटिक वह दवाई होती है जिसे डाक्टर लोग विभिन्न प्रकार की जांच-वांच करने के बाद ब्लड-प्रैशर के रोगी को, दिल के मरीज़ को देते हैं ----अब अगर इस तरह की दवाई बिना वजह बिना किसी डाक्टरी सलाह के केवल मोटापा घटाने के लिये इस्तेमाल की जायेंगी तो इस के परिणाम कितने खौफ़नाक निकलेंगे, इस के बारे में कोई नॉन-मैडीकल बंदा क्या सोचेगा !!
रिमोनाबैंट ( rimonabant) – इस दवा की भी अमेरिका में मार्केटिंग नहीं हो सकती।
सैटिलिस्टैट ( cetilistat) – यह मोटापा कम करने वाली एक ऐसी दवा है जिस पर अभी भी प्रयोग ही हो रहे हैं और जिस की मार्केटिंग अमेरिका में हो नहीं सकती।
फैनीटॉयन ( phenytoin) – इस दवाई को मिर्गी के इलाज के लिये दिया जाता है लेकिन लालच के अंधे सिरफिरों ने इसे मोटापा कम करने वाली दवाईयों में ही झोंक दिया।
फिनोलथलीन ( phenolphthalein) – इस को कैमिस्ट्री के एक्सपैरीमैंट्स में इस्तेमाल किया जाता है और कैंसर उत्पन्न करने में इस की संदेहास्पद भूमिका है। इस की मिलावट भी वज़न कम करने वाली तथाकथित दवाईयों में पाई गई है।
अब अमेरिका की सरकारी संस्था ने तो सारे अमेरिका को तो सचेत कर दिया लेकिन मुझे कौन बतायेगा कि मोटापा कम करने वाले जिन इश्तहारों को मैं स्कूटरों की स्टपनी पर या हिंदी के अखबारों में रोज़ाना देखता हूं आखिर इन में क्या है ------ और मुझे पूरा यकीन है कि अगर अमेरिका में इन चालू किस्म की दवाईयों में खतरनाक किस्म की मिलावट है तो फिर हमारे यहां मिलने वाली दवाईयों में क्या क्या नहीं होगा। बेशक हमारे यहां तो स्थिति अमेरिका से तो बहुत ही बदतर होगी।
तो, फिर आज के पाठ से यही शिक्षा ले ली जाये कि कभी भी इन मोटापा कम करने वाली दवाईयों के चक्कर में न ही पड़ें तो ही ठीक है। लेकिन अगर किसी ने ठान ही ली है कि मोटापा कम करने के लिये दवाईयां लेनी ही हैं तो शहर के किसी topmost specialist ( फिज़िशियन) से मिल कर ही कोई भी फैसला करें।
और एक गुज़ारिश ---अगर किसी ने पहले इस तरह की दवाईयां खाई हुई हैं तो भी किसी फिज़िशियन से अपनी पूरी जांच अवश्य करवा लें।
जाते जाते अमेरिका की फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन का बहुत बहुत धन्यवाद तो अदा कर लें कि उन की इस तरह की कार्यवाई से सारे विश्व को सचेत हो जाने का एक अवसर तो मिल जाता है ----आगे सब लोग अपनी मरजी के मालिक हैं, अपना तो काम है बस एक सीटी बजा देना।

बुधवार, 3 जून 2009

मिलावटी दूध का गोरख-धंधा

चंद मिनट पहले आजतक न्यूज़-चैनल पर मिलावटी दूध पर एक विशेष रिपोर्ट देख रहा था। डा राम मनोहर लोहिया से एक विशेषज्ञ भी अच्छी तरह से सब कुछ बता रहे थे। रिपोर्ट में ऐसे फोटो भी दिखे जिस में मिलावटी दूध तैयार करने के लिये उस में शैंपू, यूरिया मिलाया जा रहा था और इस को तैयार करने के लिये तरह तरह के ऊल-जलूल कामों का खुलासा भी किया गया।

मुझे अच्छा लगता है जब कोई लोकप्रिय चैनल इस तरह का कार्यक्रम पेश करता है ---क्योंकि मैं समझता हूं कि इस तरह के पाठों को बार बार दोहराने में ही हम लोगों की भलाई है क्योंकि हम लोगों की यादाश्त में ज़रूर कुछ न कुछ गड़बड़ है। हम लोग सब कुछ जानते हुये भी इस तरह के दूध का इस्तेमाल करने से ज़रा भी गुरेज़ क्यों नहीं करते। अब अगर कोई यह कहे कि कोई विकल्प भी तो नहीं है ना -----लेकिन इस का मतलब यह भी तो नहीं कि हम लोग ऐसे दुध का इस्तेमाल करने लगें जो केवल सेहत बिगाड़ने का ही काम करता हो।

मैंने तो इस मिलावटी दूध के बारे में ----- चलिये, इस वाक्य को बाद में पूरा करता हूं । पहले तो मेरी इच्छा यह जानने की हो रही है कि इस मिलावटी दूध के कारण कितने लोगों पर आज तक मुकद्मा चला है और कितनों की सज़ा हुई है। अब मेरे पास प्रश्नों का तो अंबार है ..... लेकिन समय की कमी है। सारा दिन हास्पीटल की ड्यूटी करने के बाद ये प्रश्न केवल प्रश्न ही बने रहते हैं। लेकिन कभी न कभी इन सब सवालों का जवाब तो ढूंढ ही लूंगा और इस से भी बहुत बड़े बड़े प्रश्न हैं जिन्हें मैं अभी तो इक्ट्ठे ही किये जा रहा हूं। उपर्युक्त समय आने पर ही इन का झड़ी लगाऊंगा, इस के बिना मुझे भी चैन आने वाला नहीं है।

हां, तो मैं पिछले पैरे में कह रहा था कि इस मिलावटी दूध के बारे में इतना कुछ पढ़ लिया है कि अब तो मुझे दूध से बनी कोई भी चीज़ बाहर खाने से एक ज़बरद्स्त फोबिया सा ही हो गया है । और मैं जहां तक हो सके खाता भी नहीं हूं। मैंने बहुत सोच विचार कर यह फैसला किया हुया है।

ड्यूटी के दौरान अपने हास्पीटल में चाय पीना मुझे बिल्कुल पसंद नहीं है --शायद साल में एक दो बार फार्मैलिटी के तौर पर यह दिखावा करना ही पड़ता है।

घर के बाहर मैं कहीं भी चाय पीना पसंद नहीं करता हूं लेकिन कईं बार दो-चार महीने में यह कसम टूट ही जाती है। लेकिन इस समय मैं उन लोगों का ध्यान कर रहा हूं जो अपने काम पर बार बार चाय पीने के शौकीन हैं---अब कैसे दूध की क्वालिटी का पता लगे। हर चाय भेजने वाला कहता तो यही है कि वह तो बिल्कुल शुद्ध दूध ही इस्तेमाल करता है।

आज जब मैं उस आजतक का यह विशेष कार्यक्रम देख रहा था तो सुन रहा था कि विशेषज्ञ बता रहे थे कि मिलावटी दूध खालिस दूध से कैसे भिन्न होता है। बता तो वह रहे थे कि उस की महक अलग होगी, जब दही जमेगा तो भी पता चल जायेगा कि दुध कितना शुद्ध है और एक बात और भी बता रहे थे कि अगर दूध बार बार फटता है तो समझ लीजिये मामला गड़बड़ है।

जैसा कि आप जानते हैं कि मैं दंत-चिकित्सक हूं और मूलतः पिछले 25 वर्षों से यही काम कर रहा हूं और किसी तरह का आत्मा पर बोझ नहीं है ---- बिल्कुल सच बात ही करता हूं और कोई भी मेरे से मेरे प्रोफैशनल अनुभव पूछे तो शत-प्रतिशत इमानदारी से साझे भी कर दूंगा ----बिना किसी परवाह के जैसा कि मैं अपनी दांतों के सेहत वाले लेखों में करता ही रहता हूं।

हम लोग 100 करोड़ से भी ऊपर हैं लेकिन क्यों हमारे डेयरी विशेषज्ञ दूध की शुद्धता के बारे में अपना मुंह क्यों नहीं खोलते ----मुझे इस से बहुत ज़्यादा आपत्ति है । कईं बार सोचता हूं कि शायद दूध के धंधे में इतना ज़्यादा गोरख-धंधा है कि कुछ चंद लोग चाहते हुये भी मुंह नहीं खोल पाते ----सोचने की बात है कि हम लोगों ने इतनी तरक्की हर क्षेत्र में कर ली है लेकिन हम लोगों को दो-चार साधारण टैस्ट घर में ही करने क्यों नहीं सिखा पाये जिस से कि वे पूरे विश्वास से अपने दूधवाले से कह सकें कि कल से यह गोरख-धंधा बंद करो --- बहुत हो गया।

अब आप से समझ सकते हैं कि अगर कोई ग्राहक दूध वाले से यह सब कहेगा कि दूध की महक ठीक नहीं लगती, दूध पिछले कुछ दिनों से कुछ ज़्यादा ही पीला सा लग रहा है, दही सही नहीं जम रही और पिछले हफ्ते में दो बार दूध फट गया ----- तो ग्राहक यह सब कह कर अपनी ही खिल्ली उड़वाता है क्योंकि हर बात का उस शातिर दूध वाले के पास रैडी-मेड जवाब पहले ही से तैयार होता है।

ऐसे में ज़रूरत है किसी वैज्ञानिक टैस्ट की जो कि लोग घर पर ही दूध में कुछ मिला कर थोड़ा जांच कर के देख लें कि कहीं वे दूध के भेष में यूरिया तो नहीं पीये जा रहे , कहीं दूध में पड़ा शैंपू ही तो नहीं आंतों को खराब किये जा रहा और भी तरह तरह के कैमीकल्स जिन की आप कल्पना भी नहीं कर सकते। बेहतरी होगी कि ये डेयरी विशेषज्ञ कुछ इस तरह के टैस्टों के बारे में लोगों को बतायें जिस से कि लोग अपने आप ये टैस्ट कर सकें और मिलावटी दूध को तुरंत बॉय-बॉय कह सकें।

बहरहाल, मिलावटी दूध से बच कर रहने में ही समझदारी है । लेकिन अफसोस इसी बात का है कि जब हम लोग बैठे आजतक चैनल पर दिखाई जा रही कोई ऐसी विशेष रिपोर्ट देखते हैं तो हम सब यही सोचते हैं कि यह समस्या कम से कम हमारे दूध वाले के साथ तो नहीं है ------यह तो किसी दूसरे शहर की, दूसरे लोगों की समस्या है ----अगर आप भी ऐसा ही सोचते हैं तो शायद आप भी मेरी तरह कुछ ज़्यादा ही खुशफहमी का शिकार हैं।

और क्या लिखूं ? ----बस बार बार यही लिखना चाहता हूं कि दूध के बारे में पूरे सचेत रहा करें ------मिलावटी दूध पीने या इस से बने प्रोडक्टस खाने से हज़ारों गुणा बेहतर है कि इस से बच कर रहा जाये। सिर दुखता है इस विषय पर लिखते हुये, लेकिन लालच की आंधी में ये दूध बेचने वाले अंधे हुये जा रहे हैं।

बुधवार, 20 मई 2009

बिना किसी बीमारी के भी हो सकता है दांतों में गैप !

उस दिन हम लोग चर्चा कर रहे थे दांतों में गैप आ जाने की और उस लेख में इस के विभिन्न कारणों की चर्चा की गई। लेकिन इतना ध्यान रहे कि ज़रूरी नहीं कि किसी दांतों एवं मसूड़ों की बीमारी की वजह से ही गैप हो सकता है----कईं बार ऐसे मरीज़ भी दिखते हैं जिन में कोई बिना किसी दंत-रोग के भी दांतों के बीच गैप दिख ही जाता है।

मेरी यह मरीज़ की उम्र 49 साल की है। इस के ऊपर वाले दांतों की तस्वीर में आप देख रहे हैं कि बिल्कुल फ्रंट वाले दांतों में अच्छा खासा गैप है। लेकिन आप को यह बताना चाह रहा हूं कि यह मेरे पास इस तकलीफ़ की वजह से नहीं आई हैं।
बिना किसी बीमारी के भी दांतों में गैप हो सकता है ---डायास्टिमा Diastema

दरअसल इस महिला के नीचे वाले अगले दांतों में भी गैप था ----ऊपर वाले दांतों से भी ज़्यादा। लेकिन कभी इस तरफ़ इतना ध्यान दिया नहीं। तो समय के साथ इनके आगे वाले नीचे के दांतों में टारटर की बड़ी सी परत जमने की वजह से ये मसूड़ों के रोग से ग्रस्त हो गये जिस की वजह से ये बुरी तरह से हिलने तो लग ही गये लेकिन इस के साथ ही साथ इन में जो पहले से बड़ा हुया गैप था वह और भी बड़ा हुआ दिखने लगा। यह सब देखने में भी बहुत भद्दा लगने लगा।इसलिये इस महिला ने फैसला किया है कि नीचे के हिलते हुये अगले दांत निकलवा कर बढ़िया से फिक्स दांत लगवा लेंगी। ठीक है, उन का यह फैसला ---लेकिन फिक्स दांत दो की बजाए तीन लगेंगे क्योंकि पहले ही से इतना गैप था।

हां, तो ऊपर वाले अगले दांतों के गैप की बात चल रही थी। इस महिला ने तो बिना किसी परवाह के इतने साल बिता दिये ----लेकिन आज की जैनरेशन इस मामले में काफ़ी सजग है। वैसे, देखा जाये तो जितना गैप इस महिला के इन ऊपर वाले अगले दांतों में है इस के लिये इस 49 साल की उम्र में उसे यही सलाह दी जाती कि इसे तो अब ऐसे ही रहने दें।

सलाह ? लेकिन वह तो तभी दी जाती अगर इन्हें इस तरह के गैप से कोई परेशानी होती ---जब इन्हें इस से कोई गैप है ही नहीं, दोनों दांत स्वस्थ हैं तो इस महिला की खुशी में हम भी खुश हैं।

लेकिन मैं बात कर रहा था कि आज के युवक-युवतियां इस तरह के गैप के प्रति बहुत कांशियस हैं ----ठीक है , हों भी क्यों न ,क्योंकि किसी के चेहरे की सारी सुंदरता अगले दांतों की एलाइनमैंट पर भी तो कितनी निर्भर करती है। अकसर, इन दांतों में जो थोडा़ बहुत गैप होता है ( इस महिला के दांतों के गैप से कम) उसे आसानी से बंद कर दिया जाता है ---यह एक बहुत ही वंडरफुल डैंटल फिलिंग मैटीरियल ( light-cure composite) से संभव है जिसे इस देश में कुछ लोग गल्ती से लेज़र-फिलिंग के नाम से भी पुकारते हैं ----यह कोई लेज़र-वेज़र फिलिंग नहीं है।

यह जो मैं लाइट-क्योर कंपोज़िट फिलिंग की बात कर रहा हूं इस गैप के तरफ़ के दोनों दांतों पर थोड़ा थोड़ा लगा कर इस गैप को बंद कर दिया जाता है। इस मैटीरियर की विशेषता यह भी है कि विभिन्न कलरर्ज़ एवं शेड्स में उपलब्ध रहता है और इसे लगाने के बाद बिलकुल भी पता नहीं चलता कि दांत के ऊपर कुछ लगा भी हुआ है ।

जो भी कहें, दांतों के बीच गैप दिखता तो भद्दा ही है ---सब से पहले जिस से भी बात की जा रही हो उस का पहला ध्यान आप के अगले दांतों की तरफ़ ही जाता है। वैसे, कुछ डैंटिस्ट इस तरह के गैप का इलाज पोरसलीन लैमीनेट्स ( porcelain laminates or veneers) से भी करते हैं----यह महंगा विकल्प तो है ही , इस के साथ ही इसे किसी अनुभवी डैंटिस्ट से ही करवाना चाहिये जो कि पहले इस तरह का काम करते आ रहे हों।

लेकिन, मैंने बहुत से लोग ऐसे भी देखे हैं कि जिन के दांतों में गैप इस महिला के दांतों जितना होता है या इस से ज़्यादा लेकिन वे किसी झोलाछाप दांतों के कारीगर की बातों में आकर बेकार सा फिक्स दांत इस गैप में लगवा तो लेते हैं, लेकिन फिर इस तरह के फिक्स दांत से क्या होता है, वह तो आप कल देख-सुन ही चुके हैं !!

मंगलवार, 19 मई 2009

ब्रेसेज़ से कुछ (या काफी ?) हद तक तो बचा ही जा सकता है ....

कुछ अरसा पहले मैंने एक लेख में इस बात का जवाब देने की एक कोशिश की थी कि क्या ब्रेसेज़ से बचा जा सकता है ?
मुझे हमेशा उसी विषय पर लिखना अच्छा लगता है जिस का सरोकार हज़ारों-लाखों से आम लोगों से हो। ब्रेसेज़ के बारे में मैं जब भी सोचता हूं तो यही लगता है कि होती तो बहुत से बच्चों एवं युवकों-युवतियों को इसकी ज़रूरत है लेकिन मेरे अनुमान के मुताबिक इन में से केवल एक फीसदी ( 1%) या शायद इस से भी बहुत कम इस तरह का इलाज करवा पाते हैं।

मेरे ये आंकड़ें टीवी चैनलों के एग्ज़िट पोल जैसे नहीं है – कोई सनसनीखेज़ हवाई बात नहीं है यह , यहां पर एक एक बात बहुत ही सोच समझ कर कही जा रही है।

लाखों मरीज़ों को मिलने के बाद अब कुछ कुछ समझने लगा हूं कि आखिर क्यों लोग बच्चों के टेढ़े-मेढ़े दांतों का इलाज नहीं करवा पाते। इस का एक कारण है कि यह इलाज अच्छा खासा महंगा होता है ---अकसर अगर फिक्सड़ ब्रेसेज़ से इस तरह के ऊट-पटांग दांतों को सीधा करने का इलाज करवाया जाता है तो लगभग दस-पंद्रह हज़ार का खर्च तो इस में हो ही जाता है। यह महंगा इसलिये है क्योंकि इस में इस्तेमाल होने वाले मैटीरियल बहुत महंगे हैं और इसे आरथोडोंटिस्ट विशेषज्ञ ही बढ़िया ढंग से कर पाते हैं।

अकसर यह भी देखा है कि इतनी रकम खर्च करना बहुत से लोगों की बस की बात नहीं होती क्योंकि उन की अपनी प्राथमिकतायें हैं।

लेकिन मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि जिन बच्चों के दांत टेढ़े-मेढ़े होते हैं उन में थोड़ी बहुत हीन-भावना आ ही जाती है। अब कोई कहे कि नहीं , नहीं, ऐसा नहीं होता, तो मेरी इस के लिये कोई दलील नहीं है।

लेकिन मैंने बहुत गहराई से इन बच्चों , युवकों-युवतियों के चेहरे को पढ़ कर यही पाया है कि टेढ़े-मेढ़े दांतों से ग्रस्त ये बच्चे कईं बार तो हंसना ही भूल जाते हैं। अकसर स्कूल आदि में दूसरे बच्चे जब इन की दांतों की बनावट के बारे में जाने-अनजाने मज़ाक में कभी कोई कमैंट ही मार देते हैं तो ये और भी आहट हो जाते हैं।

यह, क्या ......बात तो कुछ ज़्यादा ही लंबी खिंच रही है। तो, बस इतना ही कह कर आगे चलता हूं कि मेरा अनुभव मुझे यह कहता है कि इस तरह का इलाज करवाना आम बंदे के बस की बात है ही नहीं ---कारण तो बहुत से हैं, अब क्या क्या गिनवायें।

हां, एक बात मैं कहनी भूल गया कि अकसर आम आदमी इन टेढ़े दांतों को सीधा करवाने के चक्कर में भी किसी नकली दंत-चिकित्सक के चक्कर में फंस जाते हैं ----जो केवल हज़ार-डेढ़ हज़ार लेकर दांतों को सीधा करने की गारंटी ले लेते हैं।
यह केवल धोखाधड़ी है ---- इस तरह का इलाज सही ढंग से करना किसी नकली, फुटपाथी डाक्टर के बस की बात है ही नहीं ----- इन को टिश्यूज़ ( oral tissues) के बारे में कुछ भी तो पता होता नहीं -----ये बस धक्के से दांत आगे पीछे करने के लिये कुछ भी फिट कर यह कोशिश छःमहीने तक करते रहते हैं और जब इस के बाद भी कुछ हो नहीं पाता तो मरीज़ खुद ही इन के पास जाना छोड़ देते हैं। और अगर ये जल्दबाजी में दांतों को आगे पीछे सरका ही देते हैं तो भी ये अकसर दांतों को हिला कर ही दम लेते हैं। इसलिये इन के चंगुल फंसने से कहीं ज़्यादा बेहतर है टेढ़े-मेढ़े दांतों का कुछ भी न करवाना, कम से कम स्थिति बद से बदतर तो नहीं होगी।

अब, ज़रूरी बातें ---यह तो सारी भूमिका ही थी ...... तो यह तय है कि ब्रेसेज़ अपने इस देश के आम आदमी की पहुंच के बाहर हैं, तो फिर कम से कम हम लोग इस जनता को इतना तो सचेत कर दें कि वे छोटे छोटे बच्चों का शूरू से ही हर छःमहीने के बाद दंत-निरीक्षण करवा लिया करें।

नियमित निरीक्षण करवाने से यह होता है कि डैंटिस्ट को जहां भी थोड़ी बहुत गड़बड़ होती दिखती है वह तुरंत उसे ठीक ठाक कर के भविष्य में ब्रेसेज़ की ज़रूरत को कम करता जाता है।

अपनी इस बात को समझाने के लिये मैं एक उदाहरण ले रहा हूं। यह 11 वर्ष का लड़का मेरे पास कल आया था। आप देख सकते हैं कि इस के ऊपर वाले सूये ( maxillary canines) कितनी गलत जगह पर निकलने की फ़िराक में हैं। अपने मां-बाप की सजगता से यह बच्चा सही समय पर हमारे पास पहुंच गया।

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आप देख ही रहे हैं कि बच्चे के दाईं तरफ़ वाले पक्के दांत का क्या हाल हो रहा है , इस का मुख्य कारण यह है कि जिस जगह पर इस पक्के दांत ने आना था उस जगह पर तो अभी भी दूध वाला दांत ( milk tooth – deciduous caninc) टिका हुआ है।

वैसे तो आम तौर पर किसी भी पक्के दांत ( permanent tooth) के निकलने से पहले उस की ऊपर टिका हुआ दूध वाला दांत गिर कर नये पक्के दांत का स्वागत करता है लेकिन कुछ केसों में ऐसा भी होता है जो आप इस तस्वीर में देख ही रहे हैं। ज़्यादा जानकारी के लिये इस तस्वीर पर क्लिक करिये जिस से आप जान पायेंगे कि कौन सा दूध का दांत है और कौन सा पक्का दांत है।

हां, तो अगर इस बच्चे के मां-बाप इसे हमारे पास नहीं लेकर आते तो क्या होता ? ---इस की बहुत संभावना थी कि यह जो इस के दाईं तरफ़ पक्का दांत आ रहा है यह गलत जगह पर आ जाता और फिर जब पक्का दांत किसी गलत जगह पर जम चुका होता तो दूध वाला दांत गिरने की सोच लेता -----यानि कि सारा मामला ही गड़बड़ हो जाता। और फिर अगर अभिभावकों की इतनी हैसियत होती तो ब्रेसेज़ के लिये कोई जुगाड़ करना पड़ता।

वैसे जिस अवस्था में यह बच्चा हमारे पास आया है आप यह सुन कर हैरान होंगे कि इस अवस्था में भी कम बच्चे ही हमारे पास आते हैं --- ये अकसर तभी आते हैं जब पक्का दांत किसी गलत जगह पर पूरी तरह सैट हो जाता है, तब तो अकसर ब्रेसेज़ के अलावा कोई विकल्प रहता नहीं है। लेकिन बहुत से केसों में मैंने ऐसा भी देखा है –विशेष कर इसी पक्के सूये ( permanent canine) के संबंध में कि यह बिल्कुल ही अगले दांतों के ऊपर आ बैठता है जिस से बच्चा किसी से बात करने में भी झिझकने लगता है ----- क्योंकि जब ये दांत अपनी जगह पर न होकर किसी अन्य दांत के ऊपर जम जाते हैं तो ये लंबे लंबे दांत बिल्कुल शैतान के दांतों ही जैसे दिखते हैं । और मैंने सैंकड़ों केसों में इस प्रकार के permanent canine( पक्के दांत ) को निकाल दिया ----जिससे कि बच्चे की लुक्स तुरंत बेहतर भी हो गई क्योंकि बाकी के पक्के दांतों में किसी तरह का गैप नहीं था। इस के अलावा इन बच्चों के पास ब्रेसेज़ लगवाने जैसा कोई विकल्प नहीं था ----और इस तरह के केसों में जब कि यह दांत बिलकुल ही किसी दूसरे दांत के बाहर ही जम कर बैठ जाये, तो फिर इसे तो इस की सही जगह दिलवाना तो और भी पेचीदा काम है -----पहले इस के लिये जगह बनाने के लिये किसी दूसरे पक्के दांत को निकालना पड़ता है ---फिर आर्थोडोंटिक्स ट्रीटमैंट के ज़रिये इसे इस की सही जगह पर ला दिया जाता है ---यह इलाज काफ़ी लंबा तो चलता ही है ----स्वाभाविक है कि यह अच्छा खासा महंगा काम भी है क्योंकि इसमें आर्थोडॉंटिस्ट की बहुत मेहनत भी इंवाल्व होती है और जैसा कि मैंने पहले ही बताया कि उत्तम क्वालिटी के डैंटल-मैटीरियल अच्छे खासे महंगे हैं।

हां, तो मैं अपने 11 साल के मरीज़ पर वापिस आता हूं । इस का इलाज कल ही शुरू कर दिया गया ---कल ही इस का दाईं तरफ़ का दूध वाला केनाइन ( milk canine) निकाल दिया गया है ---- इससे उम्मीद है कि पक्के दांत को अपनी जगह पर आने के लिये एक रास्ता मिलेगा। क्योंकि इस ग्यारह साल की उम्र में इरप्टिव फोर्स ( दांत के जबड़े में अपना स्थान लेनी की प्रक्रिया) बहुत अच्छी होती है , इसलिये दो –एक महीने में हमें रिज़ल्ट दिखने शुरू हो जाते हैं कि पक्का दांत थोड़ा रास्ते पर आ रहा है और अगर इस तरह के केसों में थोड़ी बहुत कसर रह भी जाती है तो अकसर इतनी ऊंच-नीच खुशी खुशी स्वीकार कर ही लेते हैं। लेकिन अगर फिर भी किसी केस में यह ज़रूरत लगती है तो थोडे़ समय के लिये ब्रेसेज़ की सिफारिश भी कर दी जाती है।

और इस बच्चे के मुंह की बाईं तरफ़( फोटो में दाईं तरफ़) का दूध वाला दांत ( deciduous canine) भी एक-दो दिन में निकाल दिया जायेगा।

यह सब कुछ इतना लंबा-चौडा़ केवल इसलिये लिखा कि आप के साथ साथ एक बार मैं भी उस बढ़िया सी अंग्रेज़ी कहावत वाला पाठ दोहरा लूं ----------- a stitch in time saves nine !!
Any comments ?

इस तरह के फिक्स दांतों के भेष में मुसीबत

इस 52 वर्ष के पुरूष ने अपने ऊपर वाला बाईं तरफ़ का दांत निकलवाने के बाद किसी नकली डैंटिस्ट से यह दांत लगवा लिया है। उसे यही कहा गया है कि यह फिक्स दांत है। अब मरीज़ क्या जाने कि फिक्स दांत किस बला का नाम है, उसे तो बस इतना ही बता दिया जाता है कि इस तरह का फिक्स दांत लगवाने से आप इसे उतारने-चढ़ाने के झंझट से बच जाते हैं।
यह फिक्स दांत नहीं होता
(आप इस फोटो पर क्लिक कर के इस के बारे में विस्तृत जानकारी पा सकते हैं)
लेकिन फिक्स दांत के बारे में किसी को बस इतना कह कर ही फुसला लेना ठीक नहीं है। लेकिन वही बात है ना कि यहां ठीक-गलत की परवाह किसे है—कोई इस झंझट में पड़ने को तैयार ही नहीं है। हम लोग ने इतने इतने साल बिता दिये लोगों को सजग करते हुये कि नीम हकीम डाक्टरों के हाथों में मत पड़ा करो, वहां जाने से लेने के देने ही अकसर पड़ते हैं, लेकिन सुनता कौन है। रोज़ाना इस तरह के केस मेरे पास आते रहते हैं।

अब ज़रा यह देखते हैं कि आखिर इस तरह के इलाज से क्या पंगा हो सकता है। एक पंगा हो तो बताएं---इस तरह का फिक्स दांत लगवाना तो बस पंगो का पिटारा ही है। सब से बड़ा पंगा तो यही है कि इस तरह का फिक्स दांत लगवाने से आसपास के स्वस्थ दांतों के भी हिल जाने का पूरा पूरा चांस होता है ।

दरअसल इस तरह के नकली फिक्स दांत को जमाने के लिये यह खुराफ़ाती फुटपाथ मार्का नकली डैंटिस्ट काम ही कुछ इस तरह का कर देते हैं ---- पहले तो यह आसपास के स्वस्थ असली दांतों पर तार लगा देते हैं ---अपने जिस मरीज़ की मैं आप को तस्वीर दिखा हूं उस केस में भी आस पास के स्वस्थ दांतों पर तार तो कसी ही हुई है लेकिन इसे आप देख नहीं पा रहे हैं क्योंकि एक अच्छा खासा कैमरा होते हुये भी मैं फोटोग्राफी के बारे में कुछ भी नहीं जानता हूं ----चलिये, धीरे धीरे सीख ही जाऊंगा -----करत करत अभ्यास के ---!! मरीज़ के दांतों की तस्वीर खींचते वक्त पता नहीं रूम की फ्लोरिंग क्यों ज़्यादा साफ़ दिखती है !! Any tips ?

अच्छा तो आस पास के दांतों पर तार फिक्स करने के बाद फिर इस पर शैल्फ-क्यूरिंग एक्रिलिक ( self-cure acrylic) लगा दिया जाता है जो कि पांच-दस मिनटों में बिल्कुल सख्त हो जाता है -----मरीज़ भी खुश और डाक्टर भी ---- चलो, फिक्स दांत लग गये हैं।

लेकिन यह जो तार मरीज़ के अच्छे खासे सेहतमंद दांतों पर कस दी जाती है यह कुछ ही महीनों में एकदम फिट असली ,दांतों का भी कबाड़ा कर देती है और यह अकसर हिलना शुरू कर देते हैं। और दूसरी बात यह है कि यह जो एक्रिलिक मुंह में लगा कर एक नकली दांत को मुंह में टिका दिया जाता है यह भी बहुत हानिकारक प्रक्रिया है।

आखिर यह मुंह में एक्रिलिक लगा कर नकली दांत को मुंह में सैट करने की प्रक्रिया क्यों ठीक नहीं है, आप शायद सोच रहे होंगे कि नकली दांतों के जो सैट बनते हैं वे भी तो एक्रिलिक के ही होते हैं। बात यह है कि निःसंदेह नकली दांत भी इसी एक्रिलिक से ही बने तो होते हैं लेकिन इस तरह के मैटीरियल को सीधा मुंह में लगाना बहुत हानिकारक होता है और जिस ढंग से इन अनक्वालीफाइड डाक्टरों द्वारा इस एक्रिलिक का सीधा ही मुंह में इस्तेमाल किया जाता है वह बहुत ओरल-कैविटि (मुंह) के टुश्यूज़ के लिये बहुत हानिकारक हो सकता है। इस के पावडर को जिस लिक्विड से मिक्स किया जाता है --- वह अगर सीधा ही मुंह में लगा दिया जाता है तोh उस का मुंह की सेहत पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है।
अब इस मरीज़ के इस तरह के फिक्स दांत की बाहरी तस्वीर तो आप देख रहे हैं लेकिन इन के अंदर तालू पर भी यही एक्रिलिक लगा हुआ है----लगा क्या होता है, बुरी तरह से चिपकाया गया होता है।

इस प्रकार के नकली फिक्स दांतों का प्रकोप झेल रहे बहुत से मरीज़ अकसर आते रहते हैं। इस फिक्स दांत के आसपास वाले हिलते दांतों की वजह से तो लोग आते ही हैं । इस के अलावा बहुत से केसों में इस तरह के फिक्स दांत के आसपास के मसूड़े बहुत बुरी तरह फूल जाते हैं और उन में थोड़ा सा ही हाथ लगने से ही रक्त बहने लगता है।

इस तरह के चालू इलाज का सही उपचार करने के लिये पहले तो मरीज़ को तुरंत ही उस फिक्स दांत से निजात दिलाई जाती है जिस की वजह से यह सारा कलेश हुआ। और इसे निकालते ही मरीज़ राहत की सांस लेते हैं और उचित उपचार से अकसर क्षतिग्रस्त मसूड़ों की खोई हुई सेहत लौटने लगती है, लेकिन अकसर इस तरह से हिले हुये दांतों का कुछ कर पाना संभव नहीं होता।

मैं अकसर समझता हूं कि मीडिया के द्वारा ये बातें क्यों आम लोगों तक नहीं पहुंचाई जातीं। इसी वजह से आम बंदा इस तरह के बिल्कुल बेवकूफ़ी से भरे इलाज का शिकार बनता रहता है। लेकिन फिर भी लोग पता नहीं क्यों नहीं समझते।

सोमवार, 18 मई 2009

काले पड़ चुके इस डैड दांत का क्या होगा ?

आप ने अकसर सुना ही होगा कि दांत अकसर डैड भी हो जाते हैं ----दांत का मर जाना !! इस तस्वीर में आप एक 40 वर्षीय महिला की तस्वीर देख रहे हैं जिस का ऊपर वाला आगे का दांत ( maxillary central incisor – मैग्ज़िल्यरी सैंट्रल इन्साईज़र) डैड हो गया है।

डैड दांत ??

यह महिला मेरे पास आज किसी दूसरे दांत के इलाज के संबंध में आई थीं। मैंने ही उन से पूछा कि इस अगले दांत को क्या हो गया, यह काला कब से पड़ गया ?

इस महिला ने बताया कि जब यह 10-12 वर्ष की थी तो वह सीढ़ियों से गिर गई थीं जिस की वजह से अगले दांत पर चोट लगी थी। दांत कुछ दिन दर्द हुआ और बाद में कुछ वर्षों में यह अपने आप काला सा पड़ गया है।
तो आज इस तरह के दांतों के बारे में ही चर्चा कर लेते हैं।

दरअसल बात यूं है कि बचपन की जिस उम्र(7-8 वर्ष) में ऊपर वाला यह दांत आता है वह उम्र बच्चों की फुल मस्ती की उम्र होती है। इसलिये अगले कुछ वर्षों में इस अगले दांत पर चोट लगने की काफी संभावना होती है। चोट लगती है ---दांत में थोडा़ दर्द होता है, बच्चे को कोई भी दर्द की टेबलेट दे दी जाती है।

लेकिन अकसर कुछ वर्षों में वह दांत जिस पर चोट लगी थी काला सा पड़ जाता है जैसा कि आप इस महिला का दांत यहां पर देख रहे हैं। और फिर कईं कईं वर्ष बस यूं ही निकल जाते हैं ----अब इसी महिला का ही केस देखिये—इसे पिछले 30 वर्षों से यह तकलीफ़ है। लेकिन फिर भी बस यूं ही कभी इस के बारे में इस ने किसी से बात ही नहीं की।

यह भी नहीं कि इस दांत में कभी कोई तकलीफ़ न हुई हो, महिला बता रही थीं कि दांत की जड़ के पास से अकसर कभी कभी पस सी निकलनी शुरू हो जाती थी। लेकिन वह बता रही थीं कि अब कुछ समय से उस को इस की कोई परेशानी नहीं है। आप यह नोटिस करें कि 40 वर्ष की महिला हैं, आगे वाले दांत का रंग किस कद्र काला पड़ा हुया है लेकिन इन्हें इस से कोई परेशानी नहीं है।

थोड़ी चर्चा करते हैं इस के इलाज के बारे में। मैडीकल भाषा में ऐसे दांत को कहते हैं कि यह नॉन-वाइटल हो चुका है। इस तरह के दांत को डैड (मरा हुआ ) कहना ठीक नहीं है ----क्योंकि यह ठीक है कि दांत की नस ( Dental pulp) नष्ट हो चुकी है लेकिन फिर भी दांत जीता-जागता जबड़े की हड्डी में अच्छी तरह से सैट है।

हां, तो ऐसे दांत अकसर रूट-क्नॉल ट्रीटमैंट से ठीक हो जाते हैं, पस-वस निकलनी बंद हो जाती है और उस के बाद इस तरह के काले रंग के दांत के ऊपर एक कैप लगा दी जाती है जिसे जैकेट-क्राउन कहते हैं।

जैकेट क्रॉउन

लेकिन जैसा कि मैं बार बार आगाह करता रहता हूं कि यह सारा काम करवाया केवल किसी प्रशिक्षित डैंटिस्ट से ही जाए।

जैकेट क्रॉउन --- अपनी जगह पर

हां, एक बात का जवाब देना तो मैं भूल ही गया कि आखिर यह दांत काला क्यों पड़ गया ---- इस का कारण यह है कि जब दांत पर चोट लगती है तो उस के इम्पैक्ट से दांत के अंदर रक्त-स्राव होने से यह रक्त दांत की डैंटीन परत ( because of impact of trauma, blood enters the dentinal tubules of the dentin ----this causes blackening of teeth with passage of time) में चला जाता है जो कि बाद में फिर हमें काले दांत के रूप में नज़र आता है। ( इस पोस्ट में दी गई किसी भी फोटो के बारे में ज़्यादा जानकारी के लिये उस पर आप को क्लिक करना होगा )

डैड दांत ??

अभी इस महिला का भी डैंटल एक्स-रे हुआ नही है लेकिन लगता है कि यह केवल रूट-क्नॉल-ट्रीटमैंट से ही ठीक हो जायेगी –इस में और कुछ लंबी चौड़ी सर्जरी करने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी।

फिर किसी दिन आगे के दांत की चोट के दूसरे पहलूओं पर भी चर्चा करेंगे। यह तो नहीं कि हर बार चोट लगे और दांत बिल्कुल भी न टूटे। अकसर इस तरह की चोट से दांत टूट जाते हैं और फिर उस का इलाज इस बात पर निर्भर करता है कि वह कितना टूटा है और उस का कितना भाग बच गया है। किसी दिन इस के बारे में विस्तार से चर्चा करेंगे।

शनिवार, 16 मई 2009

दांतों को जब मसूड़े छोड़ देते हैं

ये भी एक बहुत ही आम सी समस्या है। इस का सब से आम कारण है ---मसूड़ों की सूजन । इस मसूड़ों की सूजन का सब से आम कारण है –दांतों पर टारटर का जम जाना ---जिसे अंग्रेज़ी में हम लोग डैंटल कैलकुलस कह देते हैं।

इस तस्वीर में आप देख रहे हैं कि इस लगभग 50 वर्ष की महिला में कितनी बुरी तरह से नीचे के आगे वाले दांतों को मसूड़े ने छोड़ दिया है। और यह सब हुआ इस टारटर ( दांत पर जमा मैल का पत्थर ) की वजह से ---जैसे जैसे यह बढ़ता वैसे वैसे यह मसूड़े में सूजन के साथ साथ उसे दांत से अलग भी करता गया।
अब इस का इलाज क्या है ? यह तो तय है कि इस सारी प्रक्रिया में दांत की नीवं कमज़ोर पड़ जाती है और अकसर यह हिलना भी शुरू कर देता है। इस का इलाज इस बात पर निर्भर है कि दांत से मसूड़ा किस कद्र अलग हो चुका है ---हां, दांतों से मसूड़े के अलग होने की अवस्था को मैडीकल भाषा में कहते हैं ----जिंजिवल रिशैशन ( gingival recession).

वैसे छोटी उम्र में अगर किसी एक-दो दांतों में ही यह समस्या है तो इस टारटर को हटाने के साथ साथ एक सर्जरी जिसे जिंजिवल ग्राफ्टिंग ( gingival graft) कहते हैं इस से इस समस्या का हल निकाला जाता है। लेकिन इस तरह के इलाज को केवल प्रशिक्षित पैरियोडोंटिस्ट ( मसूड़ों के रोग के विशेषज्ञ ---जिन्होंने इस विषय में एमडीएस की होती है) से ही करवाना बेहतर होता है।

कुछ और भी कारण हैं जिस की वजह से मसूड़े दांत से पीछे हट जाते हैं –इन में से एक दो की और चर्चा करते हैं। एक और महत्वपूर्ण कारण है ---- दांतों पर गलत तरीके से ब्रुश अथवा दातुन का इस्तेमाल करना ----और इस साफ़-सफाई को इतने जोशो-खरोश से करते रहना कि आस पास का मसूड़े दांत से पीछे हट जाने में ही अपनी सलामती समझने लगते हैं। इस टॉपिक पर किसी दिन विस्तार से चर्चा करेंगे।

शुक्रवार, 15 मई 2009

अपना बॉडी मास इंडैक्स ( Body mass index) देखने के लिये इधर आयें

डाक्टर लोग किसी व्यक्ति का बॉडी मास इंडैक्स ( बी एम आई) देख कर ही यह फैसला लेते हैं कि क्या उसे वज़न कम करने की ज़रूरत है कि नहीं। लेकिन अपना बीएमआई जानने के लिये आप को किसी डाक्टर के पास जाने की ज़रूरत नहीं --- आप एक चार्ट को देखने मात्र से जान सकते हैं कि क्या आप का वज़न कम है, ठीक है , ओवर-व्हेट हैं, स्थूल हैं अथवा क्लीनिकल मोटापे से ग्रस्त हैं।

यह चार्ट मेरे को कल दिखा ---आप भी इस को अवश्य देखें और मेरी मानें तो इसे बुक-मार्क कर के अपने सगे-संबंधियों को भी इस का लिंक भेजें।

किसी व्यक्ति का बीएमआई ( बॉडी मास इंडैक्स ) जानने के लिये उस के वज़न की उस के कद के साथ तुलना की जाती है।

आज इस पोस्ट में मेरे लिये लिखने लायक कुछ खास नहीं है ---बस, मैं आप के और इस ग्राफ के बीच में नहीं आना चाहता। मैं तो भई ओवर-व्हेट की आखिरी छोर पर हूं और ओबीज़ (मोटापे) की बस दहलीज़ पर ही खड़ा हूं –इसलिये एक बार फिर से फैसला कर रहा हूं कि अभी भी समय है अपनी सुबह और शाम की सैर पर नियमित होने और मीठे पर थोड़ा कंट्रोल करने का समय यही है।

तो, अभी तुरंत आप भी इसे देखिये और फिर कल से मेरी तरह सुबह सैर पर निकल जाया करिये----यह बहुत ही ज़रूरी है । सुबह सुबह उठ कर मैं नेट पर बैठने से बड़ा परेशान हूं --- अपने आप में ही मुझे मेरी यह आदत बहुत इरिटेटिंग लगती है। मुझे पता तो है कि यह आदत खतरनाक है ---सुबह का समय है अपने लिये, अपनी सेहत के लिये , टहलने के लिये , कुदरत के नज़ारे देखने का, उदय होते हुये खूबसूरत सूरज की लाली को आंखों में समेटने का, सुबह की ठंडी ठंडी खुशबुदार हवा में सांस लेने का ----- यह क्या हुआ सुबह उठे और सीधे बैठ गये नेट पर --- और काम पर जाने के वक्त तक गले में खिंचाव से परेशान हो गये।

तो , फिर आप भी कल से नियमित टहलना शुरू कर रहे हैं कि नहीं ? --- प्लीज़, सुबह सुबह नेट पर बैठने से थोड़ा परहेज़ कर लेने में ही समझदारी है। मैं तो यही सोच रहा हूं, आप ने क्या सोचा ?------लिखियेगा।

गुरुवार, 14 मई 2009

अब मुंह पूरा न खोल पाने का यह क्या लफड़ा है !

कुछ लोगों का मुंह पूरा नहीं खुल पाता ---लेकिन कईं बार लोगों को इस का आभास ही नहीं होता जब तक कि वे किसी दिन पानी-पूरी (गोलगप्पा) मुंह में डाल नहीं पाते। ऐसे बहुत से मरीज़ आते हैं जो बताते हैं कि पहले तो उन्हें पानी-पूरी खाने में कभी दिक्कत आई ही नहीं, लेकिन अब गोलगप्पा उन के मुंह में जाता ही नहीं।

चलिये, आज आप सब के साथ इसी समस्या से संबंधित अपने अनुभव साझे करते हैं। दरअसल मुझे इस का ख्याल आज सुबह आया जब कि मेरा यह मरीज़ मेरे पास आया --- इस के मुंह की तस्वीर आप यहां देख रहे हैं।
मुंह इतना कम क्यों खुल रहा है ? by Dr Parveen Chopra, on Flickr"><span title=मुंह इतना कम क्यों खुल रहा है ?"

इस तस्वीर में आप देख रहे हैं कि इस का मुंह कितना कम खुल रहा है। इन की उम्र 52 वर्ष की है और यह मुंह पूरा न खुलने की तकलीफ़ इन को पिछले लगभग तीन साल से है । इस का इन्होंने जगह जगह से खूब इलाज करवाया लेकिन इन्हें जब कोई फ़र्क महसूस नहीं हुआ तो ये चुप कर के बैठ गये। आज भी यह मेरे पास इस तकलीफ़ के साथ नहीं आये कि इन का मुंह पूरा नहीं खुल रहा --- मुझे लगता है कि यह अब इस के ठीक होने की उम्मीद छोड़ ही बैठे थे। मेरे पास तो यह केवल यह शिकायत लेकर आये थे कि एक दाढ़ में ठंडा-गर्म लगता है।

अगर आप ने इस ऊपर वाली फोटो में नोटिस किया होगा कि जब यह बंदा मुंह खोलने की कोशिश करता है तो उस का नीचे वाला जबड़ा उस की दाईं तरफ़ सरक जाता है। उसे तकलीफ़ भी दाईं तरफ़ के टैम्पोरोमैंडीबुलर ज्वांइट ( Temporomandibular joint) में ही है ।

अब देखते हैं कि इस का क्या कारण है ? --- अकसर इस तरह की समस्या का सब सेआम कारण होता है ---- जबड़े पर चोट का लगना जिस से कान के ठीक नीचे जो ज्वाईंट होता है उस में सूजन आ जाती है --- और कईं बार इस के आसपास हड्डी भी टूटने से यह समस्या हो जाती है। लेकिन अगर तुरंत स्पैशलिस्ट डैंटिस्ट से इस का इलाज करवा लिया जाये तो यह समस्या का समाधान हो जाता है।

लेकिन इस मरीज़ जिस का तस्वीर आपने ऊपर देखी है उसे इस बात का भी बिल्कुल कोई आभास नहीं है कि उसे कभी कोई चोट भी लगी हो। वह मुंह पर किसी भी तरह की चोट वगैरा लगने की बात से भी इंकार कर रहा है।

और न ही वह किसी तरह के पानमसाला या गुटखे खाने का कोई शौक ही रखता है –उस ने कभी भी इन चीज़ों का सेवन नहीं किया है। दरअसल जैसा कि आप जानते ही होंगे कि जो लोग पान-मसाला गुटखा आदि चबाने का शौक पाले रखते हैं उन में सबम्यूक्सफाईब्रोसिस नामक की एक तकलीफ़ हो जाती है जिस में मुंह के अंदर की चमड़ी बिल्कुल चमड़े जैसी हो जाती है और मुंह धीरे धीरे खुलना बंद हो जाता है। इस अवस्था से जूझ रहे 15 से 20 साल आयुवर्ग के बहुत से युवकों को मैंने पिछले कुछ वर्षों में देखा है जिन का मुंह इतना भी नहीं खुल पाता कि वे किसी तरह के ठोस खाद्य पदार्थों का सेवन कर सकें ।

वैसे आप इस नीचे वाली तस्वीर में यह देख रहे हैं कि इस बंदे का भी बुरा हाल है –एक अंगुली भी उस के मुंह में नहीं जा रही। आज से लगभग दस साल पहले मैंने लगभग एक हजा़र लोगों के मुंह खोलने के पैटर्न पर एक रिसर्च स्टडी की थी जिसे एक नैशनल कांफ्रैंस में प्रस्तुत किया था।
एक अंगुली तक तो मुंह में जा नहीं रही !

इस मुंह पूरा न खुलने को मैडीकल भाषा में ट्रिस्मिस ( trismus) कहते हैं। और इस के मुख्य कारण तो मैंने गिनवा ही दिये हैं लेकिन कईं बार यह तकलीफ़ मरीज़ों को दांत उखड़वाने के बाद कुछ दिन तक परेशान करती है। इस के लिये कुछ खास करने की ज़रूरत होती नहीं ---- बस, एक-आध यूं ही छोटी मोटी दवाई और गर्म पानी से मुंह की सिकाई और नमक वाले गर्म पानी से कुल्ले करने से यह मामला चंद दिनों में सुलट जाता है। लेकिन इस के लिये लोगों को तसल्ली देने की ज़रूरत होती है कि चिंता की कोई बात नहीं, सब कुछ ठीक है , बस थोड़े दिनों में मुंह पूरा खुल जायेगा। और हां, कईं बार हम कुछ दिनों के लिये मरीज़ को चऊंईंगम चबाने के लिये कह देते हैं जिस से कि जबड़ों की कसरत हो जाती है।

हां, लेकिन जब इस तरह की समस्या जबड़े पर चोट लगने से होती है और यह अगर लंबे अरसे से परेशान कर रही हो तो इस का पूरा उपचार करवाना ज़रूरी होता है। नीच वाले जबाड़े का एक्स-रे, ओपीजी एक्सरे आदि करवा के यह जानने की कोशिश की जाती है इस मुंह पूरा न खुल पाने की तकलीफ़ के पीछे आखिर कारण क्या है और फिर ज़रूरत पड़ने पर सर्जरी के द्वारा इस का इलाज किया जाता है जिस के बाद मरीज़ का मुंह अच्छी तरह से खुलना शुरू हो जाता है।

मैं अपने आज वाले अपने मरीज़ की सहनशीलता से बहुत हैरान होने के साथ ही साथ परेशान भी हूं --- किस तरह से बंदा किसी शारीरिक तकलीफ़ को विधि का विधान मान कर चुपचाप सहने लगता है। उस का मुंह इतना कम खुलता है कि एक अंगुली भी मुंह में जा नहीं पाती । मैंने खाने-पीने के बारे में पूछा तो उस ने बताया की धीरे धीरे से बस जैसे तैसे खा ही लेता है। इस तरह से अगर मुंह कम खुल रहा है तो मुंह के सारे स्वास्थ्य पर ही इस का बुरा प्रभाव पड़ता है क्योंकि इस की वजह से दांतों की एवं जुबान की बिल्कुल भी सफ़ाई ही नहीं हो पाती है।

आज जो मेरे पास मरीज़ आया था उस के उपचार की पूरी व्यवस्था कर दी गई है।

शायद इतने भारी-भरकम लेख से आप को भी मुंह कम खुलने वाले विषय का थोड़ा बहुत आइडिया तो हो ही गया होगा।

ये भी लेख देखिएगा... (संबंधित लेख)

चमड़ी को चमड़ा बनने से पहले पानमसाले को तो अभी से थूकना होगा 
मुंह न खोल पाना एक गंभीर समस्या- ऐसे भी और वैसे भी 
पान मसाला न जीने दे न मरने दे 
पान मसाला छोड़ने के १५ वर्ष बाद भी ..

बुधवार, 13 मई 2009

बेहद आसान है मसूड़ों की सूजन का उपचार

मसूड़ों की सूजन एक बहुत ही आम समस्या है जिस का उपचार अगर समय पर हो जाये तो बहुत ही सुगम है। इसलिये कभी भी ब्रुश करते समय अगर रक्त आये या मसूड़ों पर हाथ लगने से भी रक्त निकले तो तुरंत किसी दंत-चिकित्सक से अपना निरीक्षण करवायें।

यह तस्वीर एक 30 साल के युवक की है जिस की समस्या यह है कि ब्रुश करते वक्त इस के मसूड़ों से रक्त निकलता है। इस के नीचे के आगे के दांतों के मसूड़ों की तरफ़ देखिये कि इन में सूजन आई हुई है । देखने में भी ये सामान्य नहीं लगते। इस मसूड़ों की अवस्था को जिंजीवाईटिस (gingivitis) कहते हैं। DSC02692

मसूड़ों की इस अवस्था के लिये सब से महत्वपूर्ण कारण है ---दांतों की ढंग से सफ़ाई न हो पाना। इस से जब दांतों एवं इन के आसपास मैल की परत ( Dental plaque and Dental Calculus) जमा हो जाता है तो यह मसूड़ों की सूजन पैदा कर देता है।

लेकिन खुशी की बात यह है कि यह जो जिंजीवाईटिस की यह वाली अवस्था है ना यह पूरी तरह उपचार से ठीक हो जाती है। इस का उपचार बहुत ही सुगम है। अकसर इस अवस्था के लिये केवल दंत-चिकित्सक से स्केलिंग ( दांतों पर जमे टारटर को उतरवाना) करवानी होती है ---यह या तो अल्ट्रासॉनिक स्केलर से कर दी जाती है या फिर हैंड-इंस्ट्रयूमैंट्स ( scaling hand instruments) से इस ट्रीटमैंट को पूर्ण कर दिया जाता है। और अकसर दो –एक बार डैंटिस्ट के पास जाने से यह तकलीफ़ ठीक हो जाती है और मसूड़ों अपनी सामान्य शेप में एक हफ्ते में आ जाते हैं।

लेकिन ध्यान रहे कि इस तरह का इलाज करवाने के लिये भी लोगों के मन में बहुत सी भ्रांतियां हैं ----बार बार मरीज़ों के मुंह से यह सुनते थक गये हैं कि इस से दांत कमज़ोर तो नहीं हो जायेंगे क्योंकि उन की पड़ोस वाली मौसी ने उन के मन में यह भर दिया है कि इस से दांत ढीले हो जाते हैं। नहीं, यार, ऐसा सोचना बिल्कुल बेबुनियाद है।

अच्छा तो आप इस तस्वीर में देखें कि इसी मरीज़ के ऊपर वाले मसूड़ों में भी सूजन तो है लेकिन नीचे वाले मसूड़ों की अपेक्षा कम है। DSC02695

अगर आप ने नोटिस किया हो कि इस मरीज़ के मसूड़े कुछ काले से हैं। यह तो अच्छा है कि इस मरीज़ को इस से कोई सरोकार नहीं था ---वरना, बहुत से मरीज़ तो इस को भी एक बीमारी ही समझ लेते हैं। लेकिन यह कोई बीमारी-वीमारी नहीं है ---यह केवल मसूड़ों के रंग की बात है ----जैसा हम सब लोगों का रंग अपना अपना है वैसा ही मसूड़ों का रंग भी भिन्न भिन्न हो सकता है और यह सब मैलॉनिन पिगमैंट (melanin pigment) का कमाल है ---किसी में ज़्यादा किसी में कम। लेकिन अगर कोई मसूड़ों के इस काले रंग से भी परेशान है तो इस का भी इलाज है जिस की चर्चा फिर कभी कर लेंगे।

दांतों में स्पेस --- परेशानी का सबब ....

यह फोटो एक 35 वर्षीय महिला की है जो कि आज मेरे पास इस शिकायत के साथ आई थी कि उस के दांत में टीस सी उठती है। यह जो आप इस महिला के ऊपर व नीचे के अगले दांतों के बीच में बढ़ा हुआ स्पेस देख रहे हैं इस के बारे में यह महिला कुछ ज़्यादा जागरूक नहीं है। यह दांतों में गैप कहां से आ गया ? by Dr Parveen Chopra, on Flickr"><span title=यह दांतों में गैप कहां से आ गया ?" width="240" height="180"> इस फोटो के बारे में और जानकारी के लिये इस पर क्लिक करिये।

कुछ मरीज़ अकसर आते ही इस शिकायत के साथ हैं कि उन के दांत पहले तो भले-चंगे थे लेकिन कुछ महीनों से ही उन्होंने नोटिस किया है कि दांतों में गैप आ गया है, उन में स्पेस पैदा हो गया है। अब ज़रा यह देखते हैं कि अकसर यह गैप आ क्यों जाता है ?

इस तरह का गैप जो कि आप इस महिला के दांतों की तस्वीर में देख रहे हैं इस का सब से आम कारण है --- मसूड़ों का पायरिया रोग। दरअसल होता यूं है कि जब पायरिया रोग मसूड़ों के अंदर जबड़े की हड्डी की तरफ़ अपना रूख करता है तो इस के प्रभाव से वह हड्डी धीरे धीरे नष्ट होने लगती है। इस के कारण दांत अपनी जगह से हिल-ढुल जाते हैं और इन में ऐसी स्पेस दिखने लगती है जो कि पहले नहीं थी।

मैंने यह समस्या पुरूषों की बजाये महिलायों में ज़्यादा देखी है और अधिकतर महिलायें जो इस समस्या के कारण डैंटिस्ट के पास आती हैं उन की उम्र 30-40 वर्ष के करीब होती है। मेरा तो यही अनुभव है।( इस के पीछे यही बात हो सकती है कि महिलायें पुरूषों की अपेक्षा अपनी लुक्स के प्रति ज़्यादा सचेत होती हैं ? –क्या आप मेरे से सहमत हैं ?) …… इस का यह मतलब भी नहीं कि इस उम्र के बाद यह गैप-वैप सब अपने आप बंद हो जाता है लेकिन इस उम्र के बाद मैंने देखा है कि देश की औसत महिलायें अपनी शारीरिक तकलीफ़ों के प्रति इतनी ज़्यादा उदासीन सी हो जाती हैं कि उन्हें कोई फर्क ही नहीं पड़ता। उन्हें बार बार इस तरह की तकलीफ़ों के बारे में आगाह करना पड़ता है कि यह केवल दांतों एवं मसूड़ों की सेहत की ही बात नहीं है, इस का प्रभाव सामान्य स्वास्थ्य पर भी पड़ता है।

तो कैसे हो इस तरह के गैप का इलाज ? ---सब से पहले तो यह देसी फंडा ध्यान में रखिये कि छः महीने के बाद बिना किसी तकलीफ़ के भी डैंटिस्ट को अपने दांत दिखा लिया करें। और यह भी ध्यान रखें कि जैसे ही कोई भी इस तरह का अजीब सा गैप आप को किसी भी दो दांतों के बीच दिखे तो तुरंत डैंटिस्ट से संपर्क करें। जितना जल्दी इस का इलाज हो उतना ही ठीक है।

ज़्यादा गैप हो जाने पर इस गैप को खत्म करना न ही तो डैंटिस्ट के लिये इतना आसान होता है और न ही अकसर मरीज़ ( क्या हुआ अगर एक-दो फीसदी मरीज़ इस का इलाज पूरा करवा पाते हैं ----मैं तो मैजोरिटि की बात कर रहा हूं) के बस में ही होता है कि वह इस तरह के इलाज को विभिन्न कारणों की वजह से किसी मसूड़ों के रोग-विशेषज्ञ से पूरा ही करवा पाये।

अकसर जब पायरिया रोग की वजह से इस तरह की स्पेस कुछ दांतों के बीच बन जाती है तो कुछेक दांत थोड़ा या बहुत हिलना भी शुरू हो जाते हैं। तो, फिर अकसर देखता हूं कि ऐसे मौकों पर झोला-छाप डैंटिस्ट खूब चांदी कूटते हैं। वे कुछ भी कह कर मरीज़ को चक्कर में डाल देते हैं कि यह मसाला, वह सीमेंट पैक करने से दांतों के बीच वाली जगह भर भी जायेगी और इन का हिलना-ढुलना भी बंद हो जायेगा।

लेकिन इस तरह के फुटपाथिया इलाज के कुछ लाभ तो होता नहीं , हां हानि ज़रूर हो जाती है। क्योंकि जिन दांतों पर वे अकसर तार सी लपेट पर उस के ऊपर एक्रीलिक आदि लगा देते हैं, यह मसूड़ों की को धज्जियां उड़ा ही देता है, आसपास वाले दो-चार सेहतमंद दांतों को भी ले डूबता है । लेकिन चार-छः महीने जब तक यह सब प्रकट होता नहीं, ये मरीज़ उस नीम-हकीम डैंटिस्ट के नाम की माला रटते हैं। यकीनन, इस तरह के नीम-हकीम जो कि हर शहर में फैले हुये हैं, लोगों की सेहत के साथ खिलवाड़ ही कर रहे हैं।

वैसे अगर इस तरह के गैप के लिये मसूड़ों का पूरा इलाज करवाने के बाद अगर गैप को एक फिलिंग मैटीरियल – लाइट क्योर कंपोज़िट से दूरूस्त करवा लिया जाता है तो बात बन जाती है।

थोड़ा बहुत तो आप इस फोटो में भी देख ही रहे हैं कि इस महिला के दांतों में स्पेस तो है ही , इस के साथ ही साथ मसूड़ों में सूजन भी है जिस से मैंने पस एवं रक्त आते देखा। लेकिन ध्यान रखने योग्य बात यह है कि कईं बार ऐसे मरीज़ भी आते हैं जिन में न तो मरीज़ को देखने में मसूड़ों की सूजन ही दिखती है और न ही उसे और कोई शिकायत ही होती है, केवल वह हमारे पास यही शिकायत लेकर आती है कि आगे के इन दांतों में पहले तो गैप था नहीं, लेकिन अब इन में जगह बन गई है। हमें उस की एक बात से ही इस तरह की बीमारी का अंदेशा हो जाता है जिसे हम लोग एक्स-रे एवं अन्य परीक्षण से कंफर्म कर लेते हैं।

इस तरह के दांत जिन में स्पेस हो जाता है इन के अंदरूनी हड्ड़ी कईं बार इतनी नष्ट सी हो जाती है कि ये लटक से जाते हैं जैसा कि आप इस तस्वीर से देख रहे हैं।यह आगे वाला दांत कैसे नीचे लटक गया ? by Dr Parveen Chopra, on Flickr"><span title=यह आगे वाला दांत कैसे नीचे लटक गया ? " width="240" height="180"> इस फोटो के बारे में कुछ और जानकारी के लिये इस पर क्लिक करिये।

तो इस सारी बात से हम यही सीख लें कि दांतों के बीच कभी भी स्पेस बनता दिखे तो तुरंत डैंटिस्ट से बात करें ---- क्योंकि यह अकसर पायरिया रोग का एक लक्षण होता है। और बिना डैंटिस्ट से अपना इलाज करवाये यह गैप बढ़ता ही जाता है।

जाते जाते एक भ्रांति पंजाब की ----जितना गैप जिस के दांतों में होता है वह उतना ही धनी होता है ----इतना ही नहीं, यह तो हुआ वह गैप जो कि कुछ लोगों के दांतों में बचपन से ही होता है। लेकिन अकसर यह भी देखता-सुनता रहा हूं कि जब कोई महिला किसी दूसरी से अपने दांतों में पड़ने वाली विरल ( गैप के लिये पंजाबी शब्द) के बारे में बात करती है तो अकसर उसे जवाब मिलता है ----अब तेरे पास हो गया है खूब पैसा, इसलिये दांतों में विरल तो शुभ बात है ---और इस के बात छूटे हंसी के फव्वारों के शोर में असली मुद्दा कुछ समय के लिये दब ज़रूर जाता है।

रविवार, 10 मई 2009

कब लगवायें ब्रेसेज़ बच्चों के ऊबड़-खाबड़ दांतों के लिये ?

अकसर हम से यह प्रश्न बहुत बार पूछा जाता है कि किस उम्र में बच्चे के दांतों पर ब्रेसेज़ लगवाई जायें। इस का सीधा सीधा जवाब है कि सब से पहले तो आप इस बात का ध्यान रखें कि बच्चे को बिना किसी तकलीफ़ के भी किसी प्रशिक्षित दंत-चिकित्सक के पास छः महीने के बाद अवश्य चैक-अप के लिये ले कर जाने की आदत डाल लें।

इस नियमित चैक-अप का यह फायदा होगा कि शायद इस ब्रेसेज़ की ज़रूरत ही न पडे़ क्योंकि जो भी ज़रूरी इलाज होगा अगर दंत-चिकित्सक ठीक समय पर ही करता रहेगा तो फिर बहुत से केसों में ब्रेसेज़ से बचा जा सकता है और अगर ब्रेसेज़ लगवाने की नौबत आती भी है तो बहुत कम समय में ही यह ऊंचे, ऊबड़-खाबड़ दांतों की समस्या हल सी होने लगती है।

अब इस 12 वर्ष की बच्ची के दांतों की कुछ तस्वीरें देखते हैं जिन ने द्वारा बस आप को यह छोटा सा ट्रेलर सा दिखाने की कोशिश की जा रही है कि बच्चों का नियमित दंत-निरीक्षण करवाना कितना ज़रूरी है। और ज़रूरत पड़ने पर दंत-चिकित्सक एक ओ.पी.जी एक्स-रे की भी सलाह देता है जिस में सभी दांत एक ही एक्स-रे में देख लिये जाते हैं।

ये तस्वीरें मैंने अपनी फ्लिकर फोटोस्ट्रीम से डाली हैं। कृपया नोट करें कि ये जो नीचे तस्वीरें दी गई हैं इन का विवरण पढ़ने के लिये आप को इन पर बारी बारी से क्लिक करना होगा और फिर उस फोटो पर कर्सर लेकर जाने से जो बाक्स दिखेंगे उन पर कर्सर लेकर जाने से आप कुछ विशेष जानकारी (नोट्स) भी देख पायेंगे। बतलाईयेगा, कैसा लगा इस तरह से फोटो एवं उस से संबंधित जानकारी को पढ़ना !

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( इन सभी फोटो पर बारी बारी से क्लिक करना होगा---विस्तृत जानकारी के लिये)

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अगर अभी भी किसी के मन में यही विचार है कि बच्चा 12 वर्ष का होने दें तब ही दंत-चिकित्सक के पास जा कर ब्रेसेज़ का पता कर लेंगे, यह केवल भ्रम मात्र है । इस से बेवजह टेढ़े-मेढ़े दांतों का इलाज पेचीदा हो सकता है।

शनिवार, 9 मई 2009

बच्चों के इन एक्स्ट्रा दांतों का झंझट







कईं बार बच्चों में एक्स्ट्रा दांत आ जाते हैं। आप इस 12 वर्ष की बच्ची के ऊपर वाले दांतों की तस्वीर में देख रहे हैं कि उस के ऊपर के सामने वाले दांतों ( इंसाईज़र्ज़) के पीछे एक प्वाईंटेड सा दांत दिख रहा है ।

ये एक्स्ट्रा दांत मुंह के दो-तीन एरिया में अकसर उग आते हैं --- जब इस तरह के दांत ऊपर वाले आगे के दांतों के बीच में उग आते हैं तो इन्हें मिज़ियोडैंस ( mesiodens) कहा जाता है और जब ये ऊपरी की अकल दाढ़ के पीछे या उस की साइड में आ धमकते हैं तो इन्हें पैरामोलर्ज़ ( Paramolars, Supernumerary molars) कह देते हैं। एक एरिया है नीचे के जबड़े का प्री-मोलर एरिया ( दाढ़ों से पहले जो दो छोटी दाढ़ें होती हैं उन्हें प्री-मोलर्ज़ कहा जाता है) जिस में भी यह एक्स्ट्रा कभी दिख जाते हैं।

इन के बारे में थोड़ी विस्तार से बात करते हैं। जो एक्स्ट्रा दांत ऊपर वाले जबड़े के आगे के दांतों के बीचों बीच उग आते हैं उन्हें तो जितनी जल्दी हो उखड़वा लेना चाहिये। डैंटिस्ट को पता रहता है कि कौन सा दांत एक्स्ट्रा है , इसलिये इस के बारे में आप आश्वस्त रहें। ऊपर के जबड़े में आगे के दांतों के बीचो बीच उग आये एक्स्ट्रा दांत को इसलिये उखड़वाना ज़रूरी होता है क्योंकि एक तो यह इस जगह में पड़ा होने की वजह से देखने में बहुत बुरा सा दिखता है और शायद उस से भी बड़ा कारण उस को उखड़वाने का यह होता है कि अगर यह इस जगह पर जम जाता है तो यह दूसरे दांतों की एलाईनमैंट को खराब कर देता है। जब दांतों के मुंह में उगने के लिये जगह ही पूरी न पडेगी तो वे कहीं भी इधर उधर निकलने लगते हैं। इसलिये भी इस तरह के एक्स्ट्रा दांतों को जैसे ही ये उगे दंत-चिकित्सक के परामर्श अनुसार उखड़वा लेना चाहिये।

12 वर्ष की बच्ची में आप देख रहे हैं कि यह दांत ऊपर के आगे के दांतों के बीचों-बीच न आकर अंदर तालू पर निकल आया है । अब इस का क्या करें ? इस दांत को निकले तो दो-तीन साल हो चुके हैं लेकिन यह बच्ची अपने मां-बाप के साथ मेरे पास कुछ दिन पहले आई थी ---जिसे मैंने इस दांत को उखड़वाने की सलाह दी थी --- क्योंकि इस दांत की वजह से अब उसे बोलने में तकलीफ़ आने लगी है और उसे अजीब सा लगने लगा है। ये तो थे उस बच्ची या उस के मां-बाप के बताये कारण ----लेकिन डैंटिस्ट का इसे उखडवाने की सलाह देने का एक कारण यह भी होता है कि अगर यह एक्स्ट्रा दांत यूं ही मुंह में टिका रहेगा तो इस से आसपास के बाकी नार्मल दांतों की साफ़ सफ़ाई ठीक ढंग से नहीं हो पाती जिस की वजह से उन दांतों में तरह तरह की बीमारियां ---दंत क्षय एवं मसूड़ों की सूजन--- होने की संभावना बढ़ जाती हैं।

सो, आज इस बच्ची का भी दांत निकाल ही दिया गया ---इस की तस्वीर आप यहां देख रहे हैं।
और इस तरह के एक्स्ट्रा दांत जब ये ऊपर वाली दाढ़ के पीछे या साइड में उग आती हैं तो भी इन के वहां पड़े होने की वजह से इन की एवं इन के साथ पड़े सामान्य दांतों की सफ़ाई ढंग से न हो पाने की वजह से दंत-क्षय होने के चांस बहुत ज़्यादा बढ़ जाते हैं जिस की वजह से कई बार इस एक्स्ट्रा दांत के साथ साथ इस के साथ पड़ी अकल की दाढ़ को भी उखड़वाना पड़ता है।

तो इस सारी स्टोरी से यही शिक्षा मिलती है कि जब भी मुंह में एक्स्ट्रा दांत दिखें तो अपने दंत-चिकित्सक से मिल कर उस की सलाह अनुसार अकसर इन्हें उखडवा लेने में ही समझदारी है । अगर इस तरह के दांत को न उखड़वाने का कोई विशेष कारण होगा तो वह आप का डैंटिस्ट आप को बता ही देगा।

गुरुवार, 7 मई 2009

अप्राकृतिक यौन-संबंधों का तूफ़ान ( सैक्सुयल परवर्शन्ज़ का अजगर )

आज एक बहुत ही बोल्ड किस्म की पोस्ट लिख रहा हूं ---लिखने से पहले कितने ही दिन यही सोचता रहा हूं कि इस विषय पर लिखूं कि नहीं लिखूं----लेकिन फिर यही ध्यान आया कि अगर पाठकों तक सही जानकारी पहुंचेगी ही नहीं तो यह जो तरह तरह के अप्राकृतिक यौन संबंधों की तेज़ आंधी-तूफ़ान सी चल रही है उस से बचने के लिये लोग किस तरह से उपाय कर पायेंगे।


चलिये, शुरू करते हैं---इन बलात्कार की खबरों से। आपने भी यह तो नोटिस किया ही होगा कि जब हम लोग छोटे थे और जब कभी महीनों के बाद किसी अखबार में बलात्कार की खबर छपती थी तो एक सनसनी फैल जाया करती थी। लोग हैरान-परेशान से हो जाया करते थे और उस केस से लगभग अपने आप को पर्सनली एन्वॉल्व करते हुये उस केस को मीडिया के माध्यम से पूरा फॉलो-अप करते थे कि उस कमबख्त अपराधी का आखिर हुआ क्या ?


आज का दौर देखिये---लगभग हर रोज़ अखबार में बलात्कार की खबरें छप रही हैं लेकिन लोगों की अब इस में रूचि नहीं रही ----अब वे इस में भी क्रूरता के ऐंगल की तलाश करते फिरते हैं ---अब पब्लिक की फेवरिट खबर हो गई है सामूहिक बलात्कार की खबरें ---जिन्हें मीडिया परोसता भी बहुत सलीके से है। आप भी ज़रा सोचिये कि हिंदोस्तानी के वहशी दरिंदों को आखिर इस गैंग-रेप का विचार कहां से आया ?

सामूहिक बलात्कार की खबर किसी दिन अगर नहीं दिखेगी तो इस तरह की खबर दिख जायेगी की एक 70 वर्षीय बुजुर्ग ने एक छः साल की अबोध बच्ची के साथ मुंह काला किया। छः साल की ही क्यों, इस से कम उम्र की बच्चियों के साथ दुराचार की वारदातें हम मीडिया में देखते सुनते रहते हैं।

और अकसर पुरूष के साथ पुरूष के शारीरिक संबंधों ( male homosexuals) की खबरों भी हैड-लाइन बनने लगी हैं ----लेकिन महिलायें भी क्यों पीछे रहें ? --- उन के भी अंतरंग संबंधों ( लैस्बियन – lesbian relationship) की बातें मीडिया लगातार परोसता ही रहता है , इन समलैंगिक जोड़ों की शादियां भी खूब चर्चा में रहती हैं। और जब कभी विकसितदेशों में इन समलैंगिक संबंधों पर कोई नया कानून बनता है या किसी कानून का वहां विरोध बनता है तो उसे अपने यहां मीडिया के लोग खूब मिर्च-मसाला लगा कर परोसते हैं।

कॉन्डोम के विज्ञापन ऐसे आते हैं जैसे कि किसी नये तरह के पिज़ा के बारे में बताया गया हो --- फ्लेवर्ड कॉन्डोम ---- अब इस तरह के विज्ञापन देख कर किसी पाठक के मन में क्या भाव उत्पन्न होते हैं , मुझे नहीं लगता मेरा इस के बारे में कुछ लिखना यहां ज़रूरी है । एक विज्ञापन ने तो कमबख्त सभी फ्लेवर्ज़ की लिस्ट ही छाप रखी होती है---- मैंगो, स्ट्राबरी.......और साथ में नीचे लिखा होता है कि बनॉनॉ फ्लेवर ट्राई किया क्या ?

अब आगे चलें ---- यह जो आजकल लोग थ्री-सम, फोर-सम की बातें करते हैं .......यह जो सामूहिक सैक्स क्रीडायों की बातें होती हैं ----क्या यह सब कुछ इतना लाइटली लेने योग्य है ? बिल्कुल नहीं -----ये सब की सब बीमारियां हैं, कमबख्त लोगों को लाइलाज रोग परोसने के बहाने हैं, शारीरिक तौर पर तो तबाह करने के साधन हैं ही ये सब, मानसिक तौर पर भी ये यौन-विकृतियां आदमी को खत्म कर देती हैं। एक बार अगर कोई इस अंधी, अंधेर गली में घुस गया तो समझ लीजिये उस का तो काम हो गया । उस का फिर इस तरह के संबंधों से बाहर निकलना मुश्किल हो जाता है -----हर तरह की ब्लैक-मेलिंग, वीडियो फिल्मिंग, दांपत्य जीवन पर बहुत ही बुरा असर और उस से भी ज़्यादा बुरा असर बच्चों के विकास पर -----उन बेचारों का भी मानसिक तौर पर बीमार होना लगभग तय ही होता है।


अब कोई अगर यह सोच रहा है कि यह सब तो अमीर, विकसित देशों में ही होता है तो हमें उस बंदे के भोलेपन पर तरस ही आयेगा। जिस तरह से यौन-विकृतियां हम जगह जगह देख-सुन रहे हैं ----गैंग-रेप, स्पॉउस स्वैपिंग, बाईसैक्सुयल लोग .........ये सब अब कैसे विकसित देशों तक ही सीमित रह पाई हैं ? ग्लोबलाईज़ेशन का ज़माना है तो कैसे कोई भी देश कोई भी ऐसी वैसी चीज़ ट्राई करने में पीछे रह सकता है।


आज से दस साल पहले की बातें याद करूं तो ध्यान आता है कि बंबई के अंग्रेज़ी के अखबारों में ढ़ेरों ऐसे विज्ञापन आते थे ( पता नहीं अब भी ज़रूर आते होंगे...या फिर अब इंटरनेट ने लोगों की मुश्किलों को आसान कर दिया है) ...... कि इस वीकएंड पर अगर ब्राड-माईंडेड दंपति बिल्कुल बिनदास पार्टी में हिस्सा लेना चाहते हैं तो इस मोबाइल नंबर पर बात करें ----साथ में यह भी लिखा होता था कि सब साफ़-सुथरे लोग हैं, ऊंची पोजीशन वाले लोग हैं, और साथ में किसी कोने में यह भी लिखा हुआ दिखता था कि इस के बारे में पूरी गोपनीयता रखी जायेगी ( Confidentiality assured!).


आये दिन बड़े शहरों में अमीरज़ादों की रेव-पार्टियां सुर्खियों में होती हैं। अब इन रेव पार्टी में क्या क्या चलता है इस का अंदाज़ा लगाने के लिये बस अपनी कल्पना के घोडे दौड़ाने की ही ज़रूरत है। ड्रग्स चलती हैं, नशे के टीके चलते हैं, दारू बहती है तो फिर इस के आगे भी सब कुछ क्यों नहीं चलता होगा ? ----आप ने बिल्कुल सही सोचा ---जी हां, सब कुछ चलता ही है।


अब कितनी यौन-विकृतियों के बारे में लिखें ----आप सब कुछ जानते हैं। लेकिन मेरा केवल एक ही प्रश्न है कि ये आज से बीस-तीस साल पहले कहां थीं ? वह भी दौर था कि महीनों बाद किसी युवती के रेप की खबर देख कर देश का खून खौलने लगता था लेकिन आज साले इस खून को क्या हो गया कि छोटी छोटी नाबालिग अबोध बच्चियों के साथ दुष्कर्म की खबरें देख-सुन कर भी यह खून बर्फ़ जैसा जमा ही रहता है ? क्यों एक 25 साल का युवक एक अस्सी साल की औरत के साथ मुंह काला करने पर उतारू हो रहा है ? हो सके तो कभी इस के बारे में सोचियेगा।


25 साल की उम्र में 1987 में एमडीएस करते हुये जब हमें एड्स के विषय पर एक सैमीनार तैयार करने को कहा गया तो हम लोगों ने पहली बार होमोसैक्सुएलिटि ( male homosexuals) का शब्द सुना था । और ये ग्रुप-सैक्स, थ्री-सम, फोर-सम, मुख-मैथुन (ओरल सैक्स), एनल सैक्स (गुदा मैथुन), स्पॉउस स्वैपिंग( एक रात के लिये पति-पत्नी की अदला-बदली) , वन-नाइट स्टैंड -----इन (यहां पर मैंने एक छोटी सी गाली लिखी थी ) विकृतियों के बारे में शायद हिंदोस्तान के चंद लोग ही जानते होंगे। लेकिन सोचने की बात तो यही है कि फिर यह सारा कचरा आया कहां से -------निःसंदेह यह सारा कचरा पोर्नोग्राफी के ज़रिये विश्व भर में फैल रहा है। मैं तो जब भी इस पोर्नोग्राफी के बारे में दो बातें ही जानता हूं ---------सीधा सा नियम है जो इनपुट हम लोग इस के अंदर डालेंगे वैसी ही आउटपुट बाहर निकलेगी। बेशक कोई कितना भी धर्मात्मा क्यों न हो , अगर अश्लील तस्वीरें, फिल्में देखी जायेंगी , अश्लील वार्तालाप में संलिप्त होगा तो फिर परिणाम भयंकर तो निकलेंगे ही।


अब आप भी यह सोच रहे होंगे कि डाक्टर तू भी क्या.....सुबह सुबह नसीहतों की घुट्टी लेकर कहां से आ टपका है ! मैं भी इस तरह के विषयों पर लिखने से पहले बहुत सोचता रहता हूं कि लिखूं कि नहीं लिखूं -----लेकिन फिर जब मन बेकाबू हो जाता है तो लिखना ही पड़ता है। इस तरह के विषयों के बारे में लोगों में बहुत ही अज्ञानता है --- लोग आपस में इन विषयों पर बात करते हुये झिझकते हैं, मीडिया-प्रिंट एवं इलैक्ट्रोनिक इन यौन विकृतियों जैसे विषयों पर खुल कर कुछ कहने से कतराता है --- तो फिर हम जैसे मलंग लोगों को कुछ तो करना ही होगा। लेकिन खफ़ा मत होईये, मैं बस कुछ मुख्य बिंदु यहां लिख कर खिसक लूंगा ----


--- पुरूष समलैंगिक को एचआईव्ही संक्रमण होने का खतरा बहुत अधिक होता है। यह विज्ञान ने सिद्ध कर दिया है और इस विकृति के परिणाम हम देख ही रहे हैं।

---- जिन महिलायों को गर्भाशय का कैंसर है उन सब के प्रति आदर एवं सहानुभूति के साथ यहां यह लिखना ज़रूरी समझता हूं कि इस तरह के कैंसर के लिये एक से ज़्यादा पुरूषों के साथ शारीरिक संबंध स्थापित किया जाना अपने आप में एक रिस्क फैक्टर है। नोट करें रिस्क फैक्टर है !!

---- यह जो तरह तरह के फ्लवर्ड कॉन्डोम के विज्ञापन दे कर लोगों को किस विकृति की तरफ़ उकसाया जा रहा है , इस का अनुमान आप सहज ही लगा सकते हैं। फ्लेवर्ड ही क्यों आज कल तो ब्रिटेन में शाकाहारी कॉन्डोम( vegetarian condom) ने धूम मचा रखी है। यकीन ना आये तो गूगल सर्च कर के देख लें। बाकी अंदर की बातें आप स्वयं समझ लें -----अब सब कुछ मैं ही लिखूं क्या ?

---- जो अंग जिस काम के लिये बना है उससे वही काम लिया जायेगा तो बात ठीक है-----वरना किसी तरह का अननैचुरल( अप्राकृतिक) यौनाचार अपने साथ तबाही ही लेकर आता है। ओरल-सैक्स ( मुख मैथुन) से तरह तरह की अन्य बीमारियों के साथ साथ ह्यूमन-पैपीलोमा वॉयरस ( human papilloma virus) के ट्रांसफर होने का खतरा बहुत बड़ा होता है ( यह वही वॉयरस है जिसे कि गर्भाशय के मुख के कैंसर के बहुत से केसों के लिये दोषी पाया गया है)। ओरल-सैक्स के द्वारा इस तरह के वॉयरस के ट्रांसफर का जो खतरा बना रहता है उस से गले के कैंसर के बहुत से केस सामने आये हैं, यह मैंने कुछ अरसा पहले ही एक मैडीकल स्टडी के परिणामों को देखते हुये जाना था।

----यह जो वन-नाईट स्टैंड है, ग्रुप सैशन, थ्री सम, फोर-सम हैं ---ये सब की सब दिमागी बीमारियां हैं -----वह इसलिये कि इन के दौरान भयंकर किस्म की लाइलाज बीमारियां मोल लेने का पूरा अवसर मिलता है लेकिन फिर भी इन तरह की यौन-क्रीडायों ( परवर्शन्ज़) में लिप्त होने वाले बस एक खेल ही समझते हैं। ऐसा बिलकुल नहीं है, यह तो बस आग है। बाहर के विकसित देशों में इन यौन-जनित रोगों की वजह यही है कि वहां पर उन्मुक्त यौनाचार है । लेकिन हम लोग की क्या स्थिति है यह कोई स्टडी खुल कर कह नहीं रही है !! वैसे भी जब इस तरह के विषयों पर कुछ कहने-सुनने की बात आती है तो हम लोग कबूतर की तरह आंखें बंद कर लेने में ही अपनी भलाई समझते हुये यह सोच लेते हैं कि इस से बिल्ली भाग जायेगी।


खजुराहों की गुफायों पर आकृतियां( माफ़ कीजिये मैंने देखा नहीं है, बस सुना ही है , उसी आधार पर ही लिख रहा हूं) , कोणार्क की सैंकड़ों साल पुरानी आकृतियां ---- आप यही सोच रहे हैं ना कि डाक्टर फिर वह सब क्या है , लेकिन इमानदारी से इस का मेरे पास कोई जवाब नही है, ज़रूरी तो नहीं कि जो सदियों पुरानी बातें हैं सब पर हाथ आजमाना ही है, वैसे भी हम लोग कब सारी पुरातन बातों को मान ही लेते हैं------हज़ारों साल पहले हमारे तपी-पपीश्वरों ने तो योग-ध्यान-प्राणायाम् को भी अपनी दिनचर्या में शामिल करने की गुज़ारिश की थी, लेकिन अगर हम उन की ये बातें कहां मान रहे हैं ?


बस, दोस्तो, आज तो इन सैक्स-परवर्शन्ज़ के बारे में बातें करने की ओवर-डोज़ सी ही हो गई है ---इसलिये यही यह कह कर आप से आज्ञा लेता हूं कि किसी भी तरह का अननैचुरल सैक्सुयल आचरण केवल खतरा ही खतरा है ----------एक बार इस सुनामी की चपेट में कोई आ जाये तो फिर ......। कहने वाले ऐसे ही तो नहीं कहते कि एक बार मुंह को खून लग जाये तो बस ........।।