सोमवार, 22 दिसंबर 2014

मरीज की गैर जरूरी जांच न कराएं डॉक्टर


आज सुबह जब मैं हिन्दुस्तान अखबार पढ़ रहा था तो इसी नाम का शीर्षक देख कर ध्यान उस तरफ़ खिंचा। जब खबर पूरी पढ़ी तो लगा कि यार एक एक बात सोलह आने सच तो लिखी है.

यह बात कल मुख्य न्यायाधीश डा धनंजय चन्द्रचूड़ ने केजीएमयू के मेडीकोज को प्रमाणपत्र देते हुए कही। एक बात तो है कि ये जो न्यायाधीश स्तर के लोग होते हैं ये बहुत ज़हीन होते हैं, ये हर शब्द तोल के निकालते हैं...मुझे इसे पढ़ कर यही लगा कि उन्होंने जो कुछ भी कहा सच में चिकित्सकों को उस तरफ़ विशेष ध्यान देने की ज़रूरत है।

मैंने इस रपट का ऑन-लाइन लिंक ढूंढने की कोशिश तो की, लेकिन मिला नहीं, इसलिए इसी के कुछ अंश यहां लिख कर आप तक पहुंचा रहा हूं।
  • डॉक्टर मरीजों को बेहतर इलाज मुहैया कराने के बारे में सोचें। उपलब्ध संसाधनों में मरीज का मर्ज ठीक करने की दिशा में उन्हें हर संभव कोशिश करनी चाहिए। 
  • अनाप-शनाप जांच कराने से बचना चाहिए। क्योंकि मेडिकल साइंस का दायरा सीमित है। जांच पर अत्याधिक निर्भरता मरीजों की सेहत को नुकसान भी पहुंचा सकती है। 
  • उन्होंने कहा कि डॉक्टर और मरीजों का रिश्ता संवेदनाओं का है। भरोसे का है। लिहाजा डॉक्टर मरीजों के हितों के बारे में सोचें। 
  • उन्होंने कहा कि डॉक्टर मरीज़ों को जांच की लंबी-चौड़ी लिस्ट न थमाएं। जो जरूरी हो वही जांच कराएं। 
                    महूसस करें मरीज का दर्द
  • मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि मरीज केवल इलाज के लिए अस्पताल नहीं आते हैं। बल्कि मानसिक सुकून के लिए भी आते हैं। डॉक्टर से सेहत के बारे में पूछते हैं। सही राय मरीजों के दर्द को कम करती है। डॉक्टर मरीजों की पीड़ा को महसूस करें। अपने पेशे से भटके नहीं। 
सब कुछ कितना सही कहा......चंद लफ्जों में जैसे गागर में सागर भर दिया। काश!



रविवार, 21 दिसंबर 2014

जनगणना करने वाले की आपबीती..

यहां मैं एक वीडियो अपलोड कर रहा हूं ...मेरे सहपाठी मित्र कैप्टन (डा) पी सी चावला ने इसे आज सुबह भेजा था, इसे सुना तो दिल को छू गया। मैंने सोचा कि इसे अपने पाठकों तक कैसे पहुंचाऊं......शायद बहुत से पंजाबी भाषा जानते न हों, इसलिए मैंने इसे पहले पंजाबी भाषा में लिखा....अब इसे हिंदी भाषा में लिख कर आप तक पहुंचाने का एक अदना सा प्रयास करने लगा हूं........वैसे तो शुक्र है कि मानवता की कोई भाषा नहीं होती..



जनगणना करता जब मैं एक गली से गुजरा,
छोटे सी कोठरी से किसे के खांसने की आवाज़ आई, 
मैंने झांक कर अंदर देखा और अंदर चला गया, 
उस बंदे ने मेरे से पानी मांगा, 
एक छोटी सी सुराही, गिलास, बालटी और टोकरी पड़ी थी, 
खस्ताहाल चारपाई पर एक ८० साल का बाबा पड़ा हुआ था...

सुराही से पानी मैंने गिलास में डाल लिया, 
बाबे ने गिलास पकड़ कर मुंह से लगा लिया, 
मैंने पहचाना नहीं तुम कौन हो भाई, 
कहां रहते हो, किस गांव से हो, 
मैंने कहा मैं आप के गांव का सरकारी मास्टर हूं..
मेरी जनगणना पर लगाई गई ड्यूटी है। 
आपके सारे घर परिवार के बारे में मैंने लिखना है, 
आप कितने मैंबर हो सारा परिवार मैंने लिखना, 
यह सुन कर बाबे की आंखें भर आईं, 
उस की आंख से अश्रु गिरता हुआ उसे रूला गया। 

हौसला रखते हुए बाबा फिर बोला, 
जिंदगी का फिर उसने राज़ खोला, 
चार पुत्तर पांच पोते बड़ा परिवार था, 
किसी समय शेरा मैं नत्था सिंह सरदार था। 
मिट्टी के साथ मिट्टी होकर मैंने कमाईयां कीं, 
मेरे पैरों में फटी बिवाईयां देख, 
काम कर कर के हाथों की लकीरें ही मिट गईं, 
पुत्र और पौतों के लिए जागीरें बना दी हैं लेकिन। 

फिर मेरे घुटने और कंधे जवाब दे गए, 
तब मेरे बेटे करने लग पड़े हिसाब ओए, 
खेत, घर, बाहर सब का हिस्सा तो पड़ गया, 
लेकिन तेरा यह बाबा बिन-बंटा ही रह गया, 
मेरी जीवनसाथी भी मुझे बीच में छोड़ गई, 
कुछ समय पहले स्वर्ग-सिधार गई। 

अगर मैंने गड्डे जोड़े तो ये गाडियों में बैठते हैं, 
हमारे बुड्ढे ने क्या किया आज यह लोगों से कहते हैं,
कोठियों से निकल कर खटिया बाहर कोठे में आ गई, 
नत्था सिंह सरदार अब नत्था बुड़ा बन के रह गया। 

लोकलाज के मारे एक दूसरे की बात मान ली, 
महीना महीना मुझे रखने की चारों ने बारी बांध ली, 
३० और ३१ दिनों का फिर पंगा पड़ गया, 
मार्च मई वाले कहते कि बुड़ा इक दिन ज्यादा रह गया। 
एक बात जा कर अपनी सरकार के कानों तक पहुंचा देना, 
हर बाजी जो जीतते वे औलाद के हाथों हारते,
आप कहते हो कि आज तरक्की कर ली, 
पर क्यों एक बात भूल जाते हो, 
वो तरक्कीयां कैसी हैं जहां बागबान ही खाए ठोकरें, 
मेरे बेटे मुझे माफ़ करना, मैं तो भावुक हो गया...
तुमने तो फार्म के खाने भरने थे और मैं अपना ही दुःखड़ा रोने लग पड़ा। 

मैं बेबस हो कर उठ खडा हुआ, मेरी आंखों से बह निकली अश्रुधारा, 
मेरे हाथों से पेन गिर गया, फार्म भी खाली रह गया। 
बुज़ुर्ग होते हैं घरों की रौनकें, इन रौनकों को कम मत करना सोहनेयो, 
ये पनीरी तैयार करने वाले माली हैं, इन्हें धूप में न बैठाना सोहनेयो।। 
धूप में न बैठाना सोहनेयो।  

इतना कुछ लिखने के बाद कुछ और कहने को क्या कुछ रह जाता है, जैसे इस पंजाबी कवि ने इशारे इशारे में सारे समाज को एक आइना दिखा दिया है। 


अच्छा है नींद की गोलियां खुले में नहीं बिकतीं...

आज मैं अमेरिका में नींद की गोलियों के अंधाधुंध इस्तेमाल की बात पढ़ रहा था तो मुझे यही ध्यान आया कि पिछले तीस सालों में एक अच्छी बात जो मैंने इस देश के कैमिस्टों में नोटिस की है ...वह यह कि ये लोग नींद की गोलियां बिना डाक्टर के नुस्खे के किसी आदमी को नहीं बेचते।

वैसे तो कुछ कैमिस्ट किस किस तरह के गोरखधंधे कर रहे हैं यह जगजाहिर है.....अपने लाइसेंस को पांच हज़ार के मासिक किराये पर किसी को आगे कैमिस्ट की दुकान चलाने के लिए दे देना, या फिर कुछ तो नशे के टीके बेचते ही नहीं, ये छोटे मोटे कैमिस्ट अपनी ही दुकान में या कहीं उस के पिछवाड़े में जनता की नज़रों से दूर नशा करने वालों की इंजेक्शन लगाने तक की ज़रूरतें पूरी करते हैं।

यह नींद की गोलियां भी ये बिना नुस्खा के इसीलिए नहीं बेचते कि ये किसी तरह के पुलिस के लफड़े में पड़ना नहीं चाहते। इन नींद की गोलियां का बहुत से आत्महत्या करने वाले युवक एवं युवतियां इस्तेमाल करने लगी थीं.....अभी भी यह सब चल ही रहा है। फिर भी नींद की गोलियां उतनी आसानी से मिलती नहीं हैं।

नींद की गोलियां......कहते तो हैं, लेकिन इन के लेने से व्यक्ति थोड़ा सुकून सा महसूस करता है, आगे बात करते हैं यह कैसा सुकून है। इस में एलप्रैक्स, कामपोज़ और लोराज़िपाम जैसी दवाईयां शामिल हैं।

नींद की दवाईयां भी अगर प्रशिक्षित डाक्टर ही लिखे तो ठीक होता है क्योंकि उसे पता रहता है कि किस मरीज़ में किस तरह की गोलियां चाहिए....आप को शायद पता नहीं होगा कि नींद की दवाईयां इस हिसाब त से बनी हुई हैं कि क्या नींद आने में दिक्कत है, या फिर कोई सो तो ठीक जाता है लेकिन बीच बीच में उठने लगता है ..नींद ठीक से आती ही नहीं, या फिर सुबह कोई जल्दी उठ जाता है, इन सब के लिए अलग अलग दवाईयां तो हैं।

एक बात जो मैंने नोटिस की है कि यह नींद वींद की समस्या उन लोगों में ज्यादा होती है जो निष्क्रिय रहते हैं ..कोई काम नहीं करते सारा दिन लेटे रहते हैं, आराम फरमाते रहते हैं......जो मैंने अनुभव किया है यह नींद की समस्या उन लोगों में बहुत कम होती है जो अपने मन की खुशी के लिए किसी न किसी काम में व्यस्त रहते हैं, घूमते टहलते हैं, किसी न किसी तरह के - अपने मन की खुशी के लिए -- आध्यात्मिक समूहों के साथ मिल बैठ कर थोडा समय बिताते हैं..

और मैंने देखा है कि कुछ लोग इतने पॉजिटिव से होते हैं कि नींद कम भी आती है तो इसे बड़ा एक्टिवली एक्सेप्ट करते हैं कि ठीक है, उम्र के साथ नींद कम तो होनी ही है... चुपचाप सुबह उठ कर अपने किसी काम में व्यस्त हो जाएंगे, कुछ पढ़ने में , टीवी पर अपना मनपसंद कार्यक्रम देखने में ...कहने का मतलब है कि अधिकतर लोगों ने इस देश में अपना कोई न कोई सुपोर्ट सिस्टम बना रखा होता है ......जिस के कंधे पर अपना हाथ या सिर रख कर अपने दिल का गुबार निकाल सकते हैं।

लेकिन आज मैंने यह खबर देखी कि अमेरिका में कितनी ज़्यादा संख्या में लोग इस तरह की नींद वाली गोलियों के आदि हो चुके हैं.....वैसे इन्हें नींद वाली गोलियां तो आम तौर पर कहते हैं ......इन्हें सिडेटिव (Sedatives) भी कहा जाता है। कोई भी दवाई है तो उस के कुछ न कुछ तो साइड-इफैक्ट्स तो होते ही हैं, जैसे कि इस रिपोर्ट में भी आप पढ़ेंगे कि इन दवाईयों के इस्तेमाल से बुजुर्गों में तरह तरह की समस्याएं भी आ जाती हैं ...वह चलते चलते गिर सकते हैं, ड्राईविंग में दिक्कत आ जाती है, किसी बात को समझने में तकलीफ़ हो सकती है ...

मेरा तो यही विचार है कि अगर आप को या आप के आसपास किसी निकट संबंधी को इस तरह की तकलीफ़ है कि वे ज़्यादा टेंशन में रहते हैं, हर समय चिंता में डूबे रहते रहते हैं, नींद कम हो गई है तो इस के लिए सदियों से टेस्टेड जो फार्मूले हैं वे बेहद आसान हैं.........अपने आहार को सात्विक करें, रात को हल्का लें, योग-प्राणायाम् और ध्यान से बढ़ कर कोई औषधि इस तरह की तकलीफ़ों को दूर रखने के लिए सब से ज़्यादा कारगर हैं, बाकी तो बाजारवाद है......दवाईयां बनती हैं तो बिकेंगी भी .......बिकेंगी तभी जब कोई लिखेगा।

मैं यह नहीं कहता कि ये दवाईयां न खाएं या डाक्टर की बात न मानें.......मेरा कहने का भाव यही है कि पहले अपने खान-पान, जीवनशैली को थोड़ा पटड़ी पर लाने की कोशिश करें तो ही डाक्टर का रूख करें......शायद अपने रहन सहन, खान-पान में परिवर्तन करने से और योग-प्राणायाम् और ध्यान को अपने जीवन में लाने पर आप की ये सब समस्याएं अपने आप ही छू-मंतर हो जाएं.......और यकीनन ऐसा ही होगा।

वरना डाक्टर तो हैं ही......अगर ऐसा कुछ लग रहा है कि नींद आ ही नहीं रही, सोने का कुछ बड़ा लफड़ा है तो भई फिजिशियन के पास तो जाना ही पड़ेगा.........इस रिपोर्ट में यह भी बड़ी आपत्ति की गई है कि इस तरह की नींद की दवाईयां अधिकतर मनोरोग विशेषज्ञों द्वारा लिखी भी नहीं होती......कोई भी डाक्टर लिख देता है और लोग लेना शुरू कर देते हैं.....यह अमेरिका की बात है..........आप इस लिंक पर जा कर पढ़ सकते हैं कि अमेरिकी जनता किस कद्र इन दवाओं की अभ्यस्त हो चुकी है..........Despite risks, benzodiazepine use highest in older people. 

नींद की बातें बहुत हो गईं, अब ज़रा उठने के लिए कुछ फड़कती सी खुराक हो जाए..........


रेहडी ब्रांड टुथब्रुश और फुटपाथ छाप टंग-क्लीनर

आपने भी बहुत बार देखा होगा कि रेहडियों पर टुथ-ब्रशों का ढेर बिक रहा होता है.....पहले मुझे अजीब लगता था....अब बिल्कुल नहीं लगता। हर तरह के ब्रांड वाले टुथब्रुश पांच पाच रूपये (बिना पैकिंग के) में बिकते अकसर दिख जाते हैं.....यही हैरानगी होती है कि ये इधर रेहड़ी पर कैसे पहुंच गये। पांच रूपये के लिए डुप्लीकेट तैयार करने के लिए कौन इतनी मगजमारी करता होगा!

अब इसलिए नहीं बुरा लगता कि उन ब्रुशों में भी कभी कुछ बिगड़ा मैंने देखा नहीं......सैकेंड हैंड तो कभी वे लगे नहीं....इसी बहाने पच्चीस तीस रूपये वाले ब्रुश पांच रूपये में खरीद कर अगर इन्हें कोई इस्तेमाल करना शुरू कर दे तो ..क्या पता इसी बहाने उस की दांतों पर खुरदरे मंजन और जला हुआ तंबाकू घिसने की आदत ही छूट जाए।

आज दोपहर मैंने एक गुरद्वारे के बाहर देखा ..वहां पर कीर्तन दरबार चल रहा था और आसपास मेले जैसा वातावरण बना हुआ था...वैसे भी जहां पर सिख-धर्म के कोई भी प्रोग्राम चल रहे होते हैं वहां पर बड़ा खुला सा वातावरण ही होता है.....यहां पर लंगर आदि सब खुले दिल से बांटा जाता है, यह आपने भी तो नोटिस किया होगा। दूसरे को खिला कर बाद में स्वयं खाने में सिख संगत दा जवाब नहीं।

हां तो उस के आसपास फुटपाथ पर भी बहुत से लोग कुछ बेच रहे थे ....मैं जहां पर खड़ा होकर इंतज़ार कर रहा था, वहां उस दुकानदार ने भी दुनिया भर के टूने-टोटके, तावीज़, नग, अंगूठियां, रंग-बिरंगे धागे, मूंगे, रूद्राक्ष, सीप......पता नहीं और भी क्या क्या, मुझे तो नाम भी नहीं आते। लेकिन फुटपाथ पर सजे उस के रंग बिरंगे स्टाल को देखना अच्छा लग रहा था। उसने भी लगता है सारे ग्रहों को वश में करने का जुगाड़ कर रखा था।

अचानक मेरी नज़र तांबे के टंग-क्लीनर पर पड़ी ......मैं बहुत सालों से इस तरह के ही टंग-क्लीनर इस्तेमाल कर रहा था.. लेकिन अब बाज़ार में ज्यादा मिलते नहीं। मैंने भी एक टंग क्लीनर खरीदा ... कॉपर वाला (तांबे का) ...कितने का?... पच्चीस रूपये का। मुझे यह अच्छा लगा। बेचने वाला कह रहा था कि यह कानपुर में बनता है।

इस के साथ ही आप देख सकते हैं कि मेटल के कुछ अन्य उपकरण से भी बिक रहे थे ....इन में एक ऐसा उपकरण भी होता है जिस से आप कान की सफाई भी कर सकते हैं और साथ ही लगी एक पत्ती से आप दांत में फंसे खाने को भी निकाल सकते हैं।

वैसे ये दोनों काम गलत हैं......जिस तरह के कान में सरसों का तेल डालना बिल्कुल गलत काम है, उसी तरह से कानों की सफाई के लिए इस तरह के धातु के यंत्र इस्तेमाल करना भी खतरनाक है क्योंकि इससे कान का परदा क्षतिग्रस्त हो सकता है। और दांतों में तो हम लोग टुथ-पिक मारने को ही मना करते हैं, और यह तो धातु का एक उपकरण था उस से भी मसूड़ों को नुकसान पहुंच सकता है।

मुझे पता है कि बुद्धिजीवियों की तरह यह सब इस पोस्ट में लिखने से हज़ारों-लाखों लोगों को मैं दांतों में तरह तरह के टुथ-पिक मारने से रोक नहीं सकता, लेकिन जिस ने इसे पढ़ लिया.......कम से कम वह तो बच गया!! इतनी ही काफ़ी है।

सांस की दुर्गंध से बचने के लिए टंग-क्लीनर से बढ़िया कोई भी चीज़ नहीं है.....आप ये लेख भी देख सकते हैं.....

सांस की दुर्गंध परेशानी 
जुबान साफ़ रखना माउथवाश से भी ज्यादा फायदेमंद 

हां, तो उस फुटपाथ से खरीदे टंग-क्लीनर का क्या किया.......पता नहीं क्यों उसे धोकर भी मुंह में डालने की इच्छा ही नहीं हो रही थी, एक बार गैस पर थोड़ा गर्म किया और उस से जुबान को साफ़ किया।

जाते जाते एक बात, फुटपाथ की बातें हों और मुझे अपने जमाने का वह गीत न याद आए........हो ही नहीं सकता!!

सिगरेट छोड़ने का एक प्राकृतिक उपाय

मुझे अभी अभी पता चला कि सिगरेट छुड़वाने के लिए यूरोप में एक प्राकृतिक कंपाउंड भी है जिस का नाम है साईटीसीन जो वहां पर उगने वाले एक गोल्डन-रेन नामक पौधे में पाए जाता है।

वैज्ञानिकों ने अध्ययन में यह पाया है कि इस का इस्तेमाल सिगरेट छुड़वाने के लिए इस्तेमाल की जाने वाले निकोटीन पैच, गम आदि से भी ज़्यादा कारगर है....अगर इस तरह के इलाज के बारे में ज़्यादा जानकारी चाहिए तो आप इसे स्वयं इस लिंक पर जा कर पढ़ सकते हैं...... Cheap Natural Product May Help Smokers Quit. 

 मैंने भी इस अच्छे से पढ़ तो लिया...लेकिन जब पता चला कि यह नेचुरल कंपाउंड तो वहां योरूप में भी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं है तो फिर यहां तक कैसे पहुंच पाएगा, यही सोच कर मैंने इस के बारे में और जानकारी हासिल करना ज़रूरी न समझा....और अगर कहीं यहां आ भी पहुंचा तो कितना महंगा मिलेगा, कौन जाने। लेकिन एक बात तो है इस कंपाउंड का विवरण पढ़ कर अच्छा तो लगा कि ऐसा भी कोई कुदरती जुगाड़ है।

मेरे अनुभव कैसे रहे हैं.......मैंने तो दो-तीन दशकों में देखा है जिसने भी धूम्रपान छोड़ा है, अपनी विल-पावर के बलबूत ही छोड़ा, उन लोगों की इच्छाशक्ति ही इतनी प्रबल थी कि उन्होंने इस जानलेवा लत को लत मार दी।
वैसे मैंने कब किसी को देखा जिस ने निकोटीन च्यूईंग गम या फिर पैच आदि का इस्तेमाल कर के धूम्रपान छोडा हो, मुझे तो याद भी नहीं। मैंने कभी इस तरफ़ इतना ध्यान भी नहीं दिया....

ध्यान इसलिए नहीं दिया क्योंिक यहां पर रोना सिर्फ़ सिगरेट पीने वालों का ही तो नहीं है, बीड़ी, चिलम, हुक्का, ज़र्दा-पानमसाला, गुटखा, खैनी, तंबाकू वाले मंजन, तंबाकू वाले पान........सारा िदन इन्हीं के चक्कर में गायब हो जाता है कि सिगरेट वालों तक तो पहुंचने को मिलता ही नहीं....अब बीड़ी वाले को कहूं कि निकोटीन च्यूईंग गम चबाया कर, तो इस के परिणाम आप जानते ही हैं...इसलिए दस पंद्रह मिनट तक हर ऐसे आदमी में इन चीज़ों के प्रति नफ़रत पैदा करना ज़्यादा मुनासिब लगता है, वही करता हूं......बाकी इन का मुकद्दर, मानें ना मानें।

वैसे मैंने इस तरह के जानलेवा उत्पादों को लोगों को छोड़ते देखा है, जानना चाहेंगे कब........जब कोई गले के कैंसर का मरीज़ मिलता है तो अकसर बताता है पिछले दो महीने से तंबाकू बंद कर दिया है, मुंह के कैंसर का मरीज़ कहता है कि पिछले १५ दिनों से तंबाकू छुआ नहीं....मुझे गुस्से और रहम की बड़ी मिक्स सी फीलिंग आती है।

सीधी सीधी बात है.....चाहे चिकित्सक कितनी भी मीठी मीठी बातें कर लें.....मरीज़ का हौंसला रखने के लिए, उस के परिवारजनों का दिल रखने के लिए...गले के, फेफड़े और मुंह के कैंसर के मरीज़ के हश्र के बारे में क्या उसे पता नहीं होता.........मेरा तो कईं बार ऐसे मरीज़ की इस बात की तरफ़ गौर करने की भी इच्छा नहीं होती कि तूने क्या छोड़ दिया, क्या नहीं छोड़ा..........लेकिन नाटकीय अंदाज़ में कहना तो पड़ता है ...बहुत अच्छा किया।

मैंने तो हिंदोस्तान में तंबाकू छोड़ते लोग तभी देखे हैं जब एक ज़ोर का झटका लग जाए......चाहे तो दिल पर जब कोई आंच जा जाए और अचानक जान बच जाए, या फिर कोई भयंकर बीमारी लगने के बाद ही समझ ठिकाने आती है.....मुंह के कैंसर से पहले भी कुछ लोगों की होश ठिकाने तब आती है जब मुंह खुलना ही बंद हो जाता है और वे एक कौर तक मुंह में नहीं डाल पाते........मुंह के कैंसर की इस पूर्वावस्था (ओरल-सबम्यूकोसिस नामक बीमारी) का इलाज ही कितना पेचीदा, सिरदुखाऊ, महंगा है, इसकी आप कल्पना न ही करें तो बेहतर होगा। हर जगह यह हो भी नहीं पाता।

अब मुझे जगह जगह मुंह में गुटखे के पैकेट मुंह में उंडेलते लोगों से कोई विशेष सहानुभूति नहीं रही.......क्या करें, मानने का नाम ही नहीं लेते, जब पैकेट पर उसे बनाने वाली कंपनी ने ही ज़ाहिर कर दिया कि इस से कैंसर हो सकता है तो फिर इस से बड़ा क्या प्रूफ़ चाहिए भाई। अब यह किसे होगा किसे नहीं होगा, यह तो जुआ है, फैसला केवल आपका है कि आप क्या जिंदगी को एक जुअे की तरह दाव पर लगा दोगे?

मुझे मुन्नाभाई का वह गीत अकसर ध्यान में आ जाता है जब एक मृत्यु-शैया पर मरीज़ की फरमाईश पर डा मुन्नाभाई एक नाचने वाली का इंतज़ाम करता है........सीख ले, आंखों में आंख डाल, सीख ले, हर पल में जीना यार सीख ले.......
मरने से पहले जीना सीख ले...




दूध के दांतों को भी क्या दुरूस्त करवाना चाहिए?

यह जो मैंने प्रश्न किया है, उस का जवाब जानने के लिए आप इस पोस्ट को देखिए.......बच्चों के दांतों को क्यों लेते हैं इतना लाइटली.....

संक्षेप में यही कहेंगे कि बच्चों के दांतों को दुरूस्त करवाना बहुत ज़रूरी होता है।



यह जो तस्वीर आप जिस बच्ची के मुंह की देख रहे हैं ये तीन साल की है.....और लगभग एक वर्ष पहले आई थी...और कल भी आई थी अपने पेरेन्ट्स के साथ।

आप देख रहे हैं कि इस के ऊपर वाले आगे के अधिकतर दांत भर रखे हैं......इन सभी में दांत का कीड़ा (दंत क्षय) लगा हुआ था....जिस की वजह से इन्हें भरना पड़ा था।


मैं इस पोस्ट में यह बताना चाहता हूं कि जब यह पिछले साल आई थी तो इतनी छोटी थी कि इस के दांतों में फिलिंग करना तो दूर इस के मुंह के अंदर देखना भी मुश्किल लग रहा था लेकिन इस के बापू ने इसे मां की गोद में पकड़ कर रखा और यह काम हो गया था ..दो तीन विजिट में।

आज मुझे अच्छा लगा कि यह मां की गोद में चुपचाप बैठी रही और इस ने काम करवा लिया.

बच्चों के दांतों को एक बार ठीक करवा लिया तो इस का मतलब यह नहीं कि इन के बड़े होने तक छुट्टी हो गई......नहीं, ऐसा बिल्कुल नहीं है.......आप को बच्चों को भी हर छःमहीने बाद दंत चिकित्सक को दिखाना ही होगा...एक तो यह कि हम बच्चों की खाने पीने की आदतों का जायजा लेते रहते हैं, उन के दांतों की साफ़-सफ़ाई की खबर लेते हैं ... जैसे कि इस बच्ची के ऊपर वाले आगे के सभी दांत रात के समय मुंह में दूध की बोतल लगा कर सोने से सड़ गये थे......मेरे कहने पर इस के मां-बाप ने इस की यह आदत छुड़वा दी।

छः महीने बाद बच्चों को इसलिए भी दिखाना ज़रूरी है क्योंकि हमें पता चलता है कि जो इलाज पहले किया गया था उस की कैसी हालत है, कुछ और तो करने की ज़रूरत नहीं है, या फिर किसी नये दांत में भी तो सड़न नहीं हो रही.....बच्चा मुंह में अंगूठा तो नहीं डाल रहा, नाखुन तो नहीं चबा रहा.......उस के पक्के दांत ठीक से अपनी जगह आ रहे हैं या कुछ करने की अभी से ज़रूरत है ताकि वे अपनी जगह पर ही आएं।

बहुत सी बातें हैं.........लेकिन एक बात है कि हमारे देश में बच्चों को बेहोश कर के उन के दांत उखाड़ने का ट्रेंड बिल्कुल भी नहीं है, होता होगा डैंटल कालेजों में कभी कभी ......लेकिन अकसर हमें इस की ज़रूरत नहीं पड़ती.......प्यार से समझा बुझा कर बच्चे अकसर मान ही जाते हैं.........थोड़ा बहुत रो भी लेते हैं...........दर्द के लिए नहीं, अपने डर की वजह से.......यह मैं दांत उखड़वाने की बातें क्यों करने लगा, इस का कारण है .....एक खबर जो मैंने कुछ अरसा पहले देखी थी कि इंगलैंड में हर सप्ताह दांत उखड़वाने के लिए ५०० बच्चों को अस्पताल में भर्ती किया जाता है।

मसूड़े अचानक ही बहुत ज़्यादा सूज सकते हैं





यह जो तस्वीरें आप यहां देख रहे हैं ये एक २०वर्ष की युवती के मुंह के अंदर की हैं....यह तीन चार  दिन पहले आई थी...परेशानी यह कि बुखार टूट नहीं रहा था और फिर अचानक मुंह में मसूड़े इतने सूज गये, मुंह में इतने छाले हो गये और यह परेशानी गले तक पहुंच गई कि कुछ भी खाना इस के लिए दुश्वार हो गया था।

इस के रक्त भी सभी जांचें सामान्य थीं.....इसे ऐंटीबॉयोटिक दवाईयां दी जाने लगीं....यह युवती अपनी इस तकलीफ़ से इतनी परेशान थी कि कैप्सूल-गोली तक भी निगल न पा रही थी। इसलिए इसे ऐंटीबॉयोटिक भी आई-व्ही लाइन से ही शुरू किए गये। जिसे कहते हैं बहुत बीमार और परेशान.....यही इस की अवस्था थी।

इसे कुल्ला करने के लिए बीटाडीन नामक माउथवॉश दिया गया, मुंह के अंदर छालों पर लगाने के लिए कोई दर्दनिवारक-ऐंटीसेप्टिक जैल, और चूंकि यह कुछ दिन ब्रुश नहीं कर पाएगी, इसलिए दांतों आदि को प्लॉक से बचाए रखने के लिए हैक्सीडीन नामक माउथवॉश करने की सलाह दी....इस के साथ ही इसे जो कुछ भी यह आसानी से खा या पी सके, बिना मिर्च-मसाले का.....उसे लेने को कहा गया।

हां, एक बात उस की जुबान पर कुछ परेशानी नहीं थी, इसलिए उसे आहिस्ता से जुबान रोज़ साफ़ करने की सलाह दी गई थी.....यह भी बहुत ही ज़रूरी होता ...बुखार में या निरोगी हालात में रोज़ाना जुबान साफ़ करना .....इससे भी मुंह में कीटाणु कम करने में बहुत ही ज़्यादा महत्वपूर्ण मदद मिलती है।

दो दिन बाद कल फिर दिखाने आई थी.....काफ़ी ठीक लग रही थी, बुखार भी उतरा हुआ था और उस से ठीक से बोला भी जा रहा था।

यह अगले दो दिन में बिल्कुल ठीक हो जाएगी.

अब सोचने की बात यह है कि आखिर इसे यह सब हुआ कैसा ?... कईं तकलीफ़ों का बिल्कुल एग्जेक्ट कारण पता नहीं लग पाता, यह केस भी उन में से ही एक था। आते हैं ऐसे मरीज़ --बहुत काम......अगर साल में छःसात हज़ार मरीज़ देखता हूं तो शायद दो-चार मरीज़ ऐसे आ जाते होंगे, इतना कम दिखता है यह सब.....इतनी तकलीफ़ और अचानक..लेकिन इतना पता तो रहता है जो भी है, जब रक्त की जांच सामान्य है तो जल्द ही ३-४ दिन में ठीक हो जाएंगे, खाने लगेंगे .

मैंने ऊपर कहा कि यह दो दिन में ठीक हो जाएगी........कहीं आप को भी नहीं लगता कि इस के मसूड़े आदि भी बिल्कुल ठीक हो जाएंगे.......नहीं, नहीं, ये अपने आप ठीक नहीं होंगे, इस का उपचार करेंगे तो दुरूस्त होंगे।

आम तौर पर लोगों को जब बुखार के दौरान या बाद में मुंह या होंठ पर कोई छाले वाले होते हैं तो वे अकसर यही कह कर टाल देते हैं कि बुखार से मुंह आ गया....और यह दो तीन में अपने आप ठीक भी हो जाता है।

लेकिन इस युवती में ऐसा नहीं था.........जो मुझे लगा कि बुखार की वजह से इस की रोग-प्रतिरोधक क्षमता में कमी आई ... और इस के पहले ही से रोगग्रस्त मसूड़ें अचानक यह सब झेल नहीं पाए.....और १-२ दिन में ही इस के मुंह का यह हाल हो गया। इसे लग रहा था कि इस ने एक दिन बाज़ार से लाए गए नूडल्स खाए थे, शायद इसलिए ऐसा हो गया होगा। लेकिन मुझे ऐसा लगता नहीं, यह तो सच है कि नूडल्स खाना सेहत के लिए खराब तो है ही और बाज़ार में िबकने वाले नूडल्स किस किस तरह के हानिकारक तेल और मसाले (अजीनोमोटो उन में से एक होता है..जिसे चीनी मसाला भी कह देते हैं...यह सेहत के लिए खराब होता है) डाल देते हैं कि इस तरह के एलर्जिक रिएक्शन भी उस की वजह से हो सकते हैं।

दुर्भाग्य है कि भारत में फूड-एलर्जी के बारे में लोग अभी उतने जागरूक हैं नहीं........वह एक अलग मुद्दा है।

बहरहाल इस लड़की बात कर रहे थे, इस में ध्यान रखने योग्य बात यही है ..जैसा मैंने पहले भी लिखा है कि इस के मसूड़े पहले ही से खराब थे.....मुंह में गंदगी तो पहले ही से थी......और तब अचानक एक दिन इस ने उग्र रूप धारण कर लिया...अब यह फूड एलर्जी थी, बुखार की वजह से था, बैक्टीरिया की इंफेक्शन की वजह से था या वॉयरस ने हल्ला बोला था, कुछ भी नहीं कहा जा सकता, सिवाए इस के कि इसे ठीक होने के बाद अपने मसूड़ों को दुरूस्त करवाना होगा.......और ये मसूड़े देखने में जितने भी खराब से लग रहे हैं, इस छोटी आयु में ये कुछ ही दिनों में इलाज से बिल्कुल ठीक हो जाएंगे और साथ में इसे अपने दांतों की सही देखभाल भी करनी होगी, ताकि यह परेशानी फिर से न घेर ले।

मसूड़ों में अचानक कभी कभी कुछ हो जाता है .....जो लोग खून पतला करने वाली दवाईयां लेते हैं जिन्हें ओरल-ऐंटीकोएग्यूलेंट कहते हैं ...दिल की कुछ बीमारियों के लिए .... इन में कभी अचानक डोज़ इधर-उधर होने पर पेशाब से और मसूड़ों से अपने आप खून आने लगता है, फिजिशियन द्वारा डोज़ ठीक किए जाने पर ठीक हो जाता है....
ब्लड-प्रेशर बहुत ज़्यादा बढ़ जाने पर भी कईं बार ऐसा देखा गया है कि मसूड़ों से खून आने लगे.......और डेंगू के मरीज़ों में भी प्लेटलेट्स कम होने की वजह से कईं बार मसूड़ों से खून अपने आप निकलने लगता है.....कारण की तरफ़ ध्यान देने से यह ठीक भी हो जाता है।

मेरे विचार में इस पोस्ट के लिए इतना ही काफ़ी है, कहीं मैं कुछ ज़्यादा ही डाक्टरी झाड़ने लगूं तो मुझे प्लीज़ रोक दिया करें। 

शनिवार, 20 दिसंबर 2014

20 साल की लड़की ने बनाया 70 साल के बुज़ुर्ग का एमएमएस

एम एम एस से याद आया...रागिनी एमएमएस मैंने नहीं देखी, कईं बार चैनल सर्फिंग करते करते पता चलता कि कोई चैनल दिखा रहा होता है तो भी नहीं........क्या हासिल यह सब देख कर!

हम लोगों के आस पास ही क्या कम क्राइम पसरा पड़ा है कि अब इस तरह की फिल्में देखने की ज़रूरत महसूस हो। दो िदन पहले लखनऊ में ही एक बैंक की एक लेडी ब्रांच-मैनेजर को उस के पति ने ही किसी सुनसान जगह पर जाकर कत्ल कर दिया....अगले दिन उस की गुमशुदगी की रिपोर्ट करने जा पहुंचा। लेकिन पुलिसिया पूछताछ में सब कुछ बक गया।

दो चार दिन पहले अखबार में एक गैंग की खबर थी कि वे एटीएम के बाहर खड़े होकर किसी के एटीएम का नंबर देख लेते और फिर अंदर जा कर उस के पिन पर भी नज़र रख लेते, बस इन दोनों जानकारियों के साथ ऑनलाइन शॉपिगं करते और रेल हवाई टिकट बुक करवाते ...आखिर चढ़ गये पुलिस के हत्थे। 

अब इस तरह की ब्लेकमेलिंग नहीं चलती ..
मैं अकसर बहुत बार यह कहता हूं कि जैसे हर तरह का हुनर सीखने के लिए किसी उस्ताद की शरण में जाना पड़ता है, शागिर्दी ज़रूरी है, हम लोग अकसर फिल्मों में देखते हैं कि जेबकतरों की भी ट्रेनिंग होती है ..कितनी सफाई से वे जेब कतर जाते हैं......बिना भनक लगे। शायद इन के ऊपर वह आंखों से काजल चुराने वाली कहावत चरितार्थ होती है।

लेकिन अब तो और भी आसान हो गया......इस तरह की फांदेबाजी सीखना........सुबह का अखबार खोलते ही किसी भी श्रेणी में जुर्म करने के नये नये ढंग से आज कोई भी रू-ब-रू हो सकता है। 


आज की टाइम्स ऑफ इंडिया के लखनऊ संस्करण में एक जैसी ही खबर छपी है...... Woman makes retired man's MMS. 

यह जनाब ७० वर्ष के रिटायर्ड हैं...इन का कोर्ट कचहरी में अकसर जाना रहता था, केस वेस चल रहे थे....वहां पर इन की मुलाकात एक २० वर्ष की युवती से हो जाती है जो इन की मदद करने के बहाने इन के पास आने लगती है और उन्हें बताती है कि वह एक हर्बल सेंटर चलाती है जहां पर इन की शारीरिक तकलीफ़ों का हल हो जाएगा। बहला-फुसला कर वह उन्हें ले जाती है किसी हर्बल-सेंटर में जहां इन की मुलाकात वहां के मालिक आदि से भी होता है....दो महीने यह वहां से लेकर दवाईयां खाते रहते हैं......एक दिन यही युवती उन्हें कोई स्पेशल दवाई वहां पर खिला देती है जिसे खाते ही ये जनाब बेहोश हो जाते हैं और सुध आने पर अपने आप को बिल्कुल निर्वस्त्र पाते हैं.....तभी वह युवती और उस के दो दल्ले आकर उन्हें उन का एमएमएस दिखाते हैं जिस में उन्हें इस युवती के साथ आपत्तिजनक स्थिति में दिखाया गया था। 

वहीं से ब्लैकमेलिंग का घिनौना खेल शुरू होता है.....ये जालसाज़ इस आदमी से पांच लाख की राशि मांगते हैं, वरना एमएमएस नेट पर डाल देने की धमकी देते हैं......जैसे तैसे यह आदमी इन्हें पांच लाख रूपया दे देते हैं.....लेकिन इन की मांग आगे से आगे बढ़ती ही जाती है.....ब्लैकमेलिंग करते करते यह इस बुज़ुर्ग का गुर्दा ही मांग बैठते हैं....

यह बात मेरठ शहर की है और आज की टाइम्स ऑफ इंडिया के पहले पन्ने पर छपी है..

अब मुझे इस खबरिया चैनल की तरह यह भी कहना पड़ेगा क्या.......चैन से जीना है तो जाग जाईए..... हसीन धोखे आप के आसपास भी हो सकते हैं। पक्की उम्र में तो और भी सचेत रहिए........पंजाबी में कहावत है.......कच्ची उम्र दा प्यार वी कच्चा, पक्की उम्र दा पक्का......चलिए जागर्स-पार्क से एक गीत सुनते हैं, यह फिल्म कभी ज़रूर देखिएगा....आप को ज़रूर गुदगुदाएगी ... ..यू-ट्यूब पर भी पड़ी हुई है......

सरकारी मीडिया पर सेहत संबंधी जानकारी

अभी मैं डीडी न्यूज़ के टोटल हैल्थ कार्यक्रम के जो वीडियो यू-ट्यूब पर अपलोड किए गये हैं उन की लिस्ट देख रहा था....मुझे यह देख कर बहुत दुःख हुआ कि १७३ के करीब वीडियो इन्होंने अपलोड किए हुए हैं ...लेकिन अभी तक ५००० से भी कम लोगों ने इन्हें देखा है।


कारण यह हो सकता है कि लोगों को इस के बारे में पता नहीं है, अगर नहीं पता तो लोगों को पता होना चाहिए कि डी डी न्यूज़ पर इतने बेहतरीन सेहत से संबंधित प्रोग्राम के वीडियो भी यू-ट्यूब पर उपलब्ध हैं.

मेरे विचार में सेहत और जीवनशैली से जुड़े जितने भी बेहतरीन प्रोग्राम हैं वे सरकारी मीडिया पर ही आते हैं....मैं जिस कार्यक्रम की बात कर रहा हूं यह भी हिंदी में आता है.....हर सप्ताह यह सेहत से जुड़ा कोई भी विषय चुनते हैं.. और उस के लिए देश के सुप्रसिद्द विशेषज्ञों की एक टीम को बुलाते हैं....मैं शायद पहले भी लिख चुका हूं कि मैंने इस से बेहतर शायद ही कोई कार्यक्रम देखा हो।

सब से बड़ी बात यह होती है कि निमंत्रित विशेषज्ञों का कोई भी वेस्टेड इंट्रस्ट होता ही नहीं है....क्योंिक कुछ प्राइव्हेट टीवी चैनलों पर सेहत से जुड़े कार्यक्रम बहुत से प्रायोजित होते हैं किसी कारपोरेट अस्पताल के द्वारा ...अगर परोक्ष रूप से स्पांसर्ड नहीं भी होंगे तो इन प्राइव्हेट चैनलों पर अकसर डाक्टरों की चर्चा को मछलियां फंसाने के लिए कांटे के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है.....बहुत से प्राईव्हेट चैनल बढ़िया काम भी कर रहे होंगे, लेकिन जो मेरा अनुभव रहा, मैं उस की बात कर रहा हूं।

यह डीडी न्यूज़ पर टोटल हैल्थ कार्यक्रम की अच्छी गुणवत्ता की ही बात नहीं है, जितने भी सरकारी चैनल हैं, अलग अलग भाषा में भी .....जो भी सेहत से संबंधी जानकारियां ये लोग मुहैया करवाते हैं ये उत्कृष्ट ही होती हैं। इसलिए जब भी मौका मिलता है मैं इन को देखता रहता हूं...अगर समय नहीं भी मिल पाता तो कभी कभी यू-ट्यूब का ही रूख कर लेता हूं।

लेकिन इस तरह के प्रोग्राम को लाइव देखने का अलग ही फायदा है, प्रोग्राम के चलते आप विशेषज्ञों से फोन पर बात कर सकते हैं, प्रोग्राम प्रसारित होने से पहले और यहां तक कि प्रोग्राम के दौरान आप अपने प्रश्नों को ई-मेल भी कर सकते हैं जिन्हें ये विशेषज्ञ तुरंत ले कर आप की उलझन को दूर करते हैं और सही रास्ता बतलाते हैं।

आज के जमाने में ऐसी बहुत सी कम जगहें हैं जहां पर किसी जिज्ञासु को बिना किसी चक्कर में डाले सीधे सीधे उसे कुछ समाधान सुझा दिया जाए......यह एक ऐसा ही कार्यक्रम है.......रविवार की सुबह आता है यह डीडी न्यूज़ चैनल पर, सोमवार को पुनःप्रसारित भी होता है. हो सके तो देखा करिए......कोई काम की बात ही पता चल जाती है.....इन के बुलाए सभी विशेषज्ञ उस स्तर के होते हैं जिन तक वैसे तो पहुंचना ही कितना मुश्किल होता होगा, और यही विशेषज्ञ अगर आप की बैठक में आकर आप का हाल चाल पूछने लगें तो इस का फायदा उठाना चाहिए कि नहीं?

शुक्रवार, 19 दिसंबर 2014

मर्ज और दवा भी बताने वाला मोबाइल एप

हम लोग तकनीक में बहुत फन्ने-खां हो गये हैं.....हम किसी को कुछ नहीं समझते, हम कईं यही मुगालता पालने की हिमाकत करने लगते हैं कि सारी दुनिया मेरी मुट्ठी में है.......मेरे पास सब से बढ़िया स्मार्टफोन है....और इस में मैं किसी भी एप को डाउनलोड कर के ज़िंदगी को आसान बना सकता हूं।

लेकिन ऐसा होता नहीं दोस्त......ठीक है ज़िंदगी में टैक्नोलॉजी की अपनी जगह है, लेकिन एक लिमिट तक। हम लोगों ने हर चीज़ की अति देख ली है... इसलिए बेहतर होगा कि ऊंचा ऊंचा उड़ने की बजाए कभी कभी पांव ज़मीन पर भी रख लिया करें।

कुछ साल पहले जब मैं साईंक्लिंग करने जाने लगता तो मेरा बेटा मेरे को एक मोबाइल जेब में रखना की सलाह दिया करता था कि इसे अगर आप जेब में रख लेंगे तो आप को पता चलेगा कि आपने कितने किलोमीटर साईक्लिंग की, कितनी कैलरीज़ खपत हुई........मैं यह काम एक दिन से ज़्यादा नहीं कर सका, क्योंकि मेरी नज़र में ये सब झंझट हैं, बिना वजह हमारी ज़िंदगी को जटिल करते रहते हैं।

इसी जटिलता से याद आया ...तीन दिन पहले की हिन्दुस्तान अखबार में छपा एक फीचर.......एप मर्ज भी बताएगा और उसकी दवा भी। बड़ा अजीब सा लगता है इस तरह के फीचर देख कर।


मैं समझता हूं कि इस तरह के एप्स का इस्तेमाल करना किसी भी व्यक्ति की व्यक्तिगत च्वाईस है, लेकिन फिर भी अपने मन की बात कर लूं तो चलूं।

एक एप है जो यह आप को अापके हार्ट-रेट के बारे में बताएगा......दूसरा बीमारी पता कर दवा बताएगा, एक ऐसा भी है जो आप को डाक्टर को ढूंढने में आप की मदद करेगा और बहुत रोचक बात एक ऐसा भी एप जो आपको अच्छी नींद भी देगा।

इस एप के बारे में लिखा है....

सेहत से लिए पर्याप्त नींद बेहद जरूरी है। कुछ एप ऐसे भी हैं जो आपको सुलाने में मदद करेंगे। इनमें से कुछ एप बारिश का आवाज निकालकर सोने का माहौल बनाएगा। कुछ एप मधुर संगीत निकालते हैं जिससे अच्छी नींद आ सकती है। स्लीपमेकर रेन एप बारिश का माहौल बनाकर सुलाएगा तो रिलेक्स मेलोडी मधुर संगीत बनाकर सुलाएगा। वहीं स्लीपबोट एप यह बताएगा कि आप रात में कितनी देर ठीक से सोए और कितनी देर करवटें बदलते रहे। इन एप को गूगल प्ले से फ्री डाउनलोड कर सकते हैं। 

ओ हो.....क्या पहले ही से हमने लाइफ को कम तनावपूर्ण बना रखा है जो इस तरह के अलग अलग एप्स भी चाहिए।
मेरी सलाह तो यह है कि इस तरह के प्रोडक्टस से जितना दूर रहा जाए उतना ही ठीक है दोस्तो। ये एप तो हमारी ज़िंदगी में पहले ही से बहुत ज़्यादा दखलंदाजी करने ही लगे हैं, लेकिन हम इन्हें ऐसा करना दे रहे हैं तभी तो।

जिस तरह से हम लोग हर पांच-दस मिनट में व्हाट्सएप और फेसबुक, ट्विटर स्टेट्स चैक करते फिरते हैं, ऐसे ही अगर दिन में बीसियों बार दिल की धड़कन को मापने बैठेंगे तो हो चुके हम सेहतमंद।

ज़िंदगी बड़ी सुगम है दरअसल इसी को हम ही ज़्यादा से ज़्यादा जटिल बनाए जा रहे हैं......एक रेस सी लगी हुई है ....तेरी कमीज़ मेरी कमीज़ से सफेद कैसे, बात वहीं तक ही रहती तो ठीक थी, लेकिन हम तो हर कदम पर, ज़िंदगी के हर पहलू पर एक गला-काट प्रतिस्पर्धा में धंसते जा रहे हैं.....कहां रूकेगी यह दौड़?....और इंसानियत जितनी आज बच पाई है उस का काला चेहरा सारी दुनिया ने दो दिन पहले अफगानिस्तान के स्कूल में बच्चों की निर्मम हत्या से देख ही लिया।

वैसे आप जो भी एप उपयोगी समझें उन्हें अपनी ज़रूरत के हिसाब से डालें और यूज़ करें.......वैसे एक घिसा-पिटा पुराने ज़माने का नुस्खा मेरे पास भी है......अगर रात में करवटें गिनने वाले एप को यूज़ करने की बजाए सोने से पहले यह गीत ही सुन कर सो जाया जाए तो कैसा रहेगा.....वैसे हम तो यही कुछ सुन कर जब अपने ज़माने में घोड़े बेच कर सोते थे तो एक भी करवट की ऐसी की तैसी...सपनों की दुनिया में पूरे बॉलीवुड का भ्रमण कर सुबह ही लौटते थे...



पुष्पक एक्सप्रेस में यात्रा की हसरत में...

उस दिन मैंने सपनों की सौदागरनी पुष्पक एक्सप्रेस के बारे में आपसे कुछ शेयर किया था.....सपनों की सौदागरनी...पुष्पक एक्सप्रेस। 

उस दिन मैं गाड़ी के प्रस्थान के समय गया था...गाड़ी रात में पौने आठ बजे लखनऊ जंक्शन से छूटती है...मैं अपनी बीवी को सी-ऑफ करने गया था ...वह बंबई जा रही थीं।

कल उन्होंने वापिस लौटना था....मैं उन्हें लेने गया था....यह गाड़ी सुबह पौने नौ बजे के आसपास लखनऊ जंक्शन पर आती है..कल थोड़ा लेट थी।

पुष्पक एक्सप्रेस छः नंबर प्लेटफार्म पर ही आती है और चलती भी यहीं से है.......दिल्ली वाली शताब्दी एक्सप्रेस भी इसी प्लेटफार्म पर आती है और यहीं से जाती है। इन दो गाड़ियों का तो मेरे को पता है, बाकी भी और होंगी।

हां, तो प्लेटफार्म नंबर छः की खासियत यह है कि आप सीधा प्लेटफार्म के किनारे अपनी कार आदि लेकर जा सकते हैं......केवल प्राईव्हेट वेहिकल.....और इस के लिए आप को शायद पचास रूपये चुकाने पड़ते हैं......ठेकेदार के पास ठेका है.....हमारे लिए फ्री है।


दो दो दिन गाड़ी में बैठने की इंतज़ार में झुझारू लोग 
हां, तो कल जब मैं वहां पहुंचा तो देखा कि लगभग उस दिन जितनी लंबी लाइन ही फिर से लगी हुई थी...मुझे लगा कि एक आध घंटे में कोई गाड़ी यहां से छूटने वाली होगी। लेकिन नहीं, मैं गलत सोच रहा था।

मैं भी एक कुली की ट्राली के एक किनारे पर धूप सेंकने के लिए बैठ गया...पास में और भी लोग थे। मैंने उत्सुकतावश पूछ ही लिया कि यार, यह लाइन किस गाड़ी के लिए है।

मैं जवाब सुन कर चौंक गया कि यह लाइन पुष्पक एक्सप्रेस के लिए थी......जो शाम को बंबई के लिए पौने आठ बजे छूटती है। मैंने पूछा कि यह लाइन सुबह ही लग जाती है क्या, तो पास बैठे बंदे ने बताया कि सुबह नहीं, जब रात में यह गाड़ी छूटती है तो बाकी बचे लोग उसी लाइन में लगे रहते हैं......ताकि अगले दिन की पुष्पक में उन्हें मिल सके।
मैं बड़ा हैरान हुआ......कि पुष्पक में बैठने की इतनी लंबी इतज़ार.......मुझे हैरानगी हुई कि इतनी ठंडी में इतनी कठोर तपस्या......लेकिन फिर ध्यान आ गया उस कहावत का.....मजबूरी का नाम.........।

पास ही बैठे एक युवक ने बताया......उसने यू पी के एक जिले का नाम भी लिया था, मुझे याद नहीं आ रहा.....

"हम लोग कल सुबह आठ बजे घर से चले थे और सांय काल चार बजे यहां पहुंच गये थे......तब से लाइन में लगे हुए हैं, आज रात में गाड़ी में जगह मिल जाएगी. जर्नल के तीन डिब्बे पीछे होते हैं और एक आगे। इस ठंडी में रात में ऐसे इंतज़ार करना बड़ा मुश्किल होता है। स्टेशन से बाहर से २२० रूपये का कंबल लेकर आए, बिल्कुल पतला, ठंड भी नहीं रूकी।"

मैंने कुछ और भी तस्वीरें खींची जो यहां शेयर कर रहा हूं.....लोग खाना खा रहे थे, कुछ सो रहे थे, कुछ अपने बैग-झोलों को लाइन में लगा कर किसी को कह कर कहीं गये हुए थे......

थोड़ी धूप सेंक कर शरीर तो खोल लें.....प्लेटफार्म के छोर पर





जब बंबई से आने वाली पुष्पक प्लेटफार्म पर पहुंची तो ये इंतज़ार करने वाले बड़ी हसरत बड़ी निगाहों से इसे निहारते लगे ......आज हम भी बैठेंगे इसी गाड़ी में
मजबूरी तो है ही ......दो महीने पहले वाला रिजर्वेशन पहले ही दिन खुलने के बाद फुल हो जाता है, तत्काल का टिकिट काफ़ी महंगा होता है, हर कोई ले नहीं पाता......ऐसे में बिना आरक्षण के ही चलने को मजबूर होती है जनता। लेकिन एक बात है, मजबूरी वाली बात तो है, लेकिन फिर भी यार इन लोगों के मन में चाहे कुछ भी चल रहा है, इन के सब्र की इंतहा, इन की सहनशीलता, सह-अस्तित्व की भावना को शत-शत बार नमन........किसी को किसी के कोई शिकवा नहीं, दो दो दिन गाड़ी में बैठने के लिए चुपचाप बैठे हैं.........बस इसी आस में कि कोई इन्हें इन के नाज़ुक सपनों के साथ बस एक बार बंबई पहुंचा दे......बाकी हम देख लेंगे।

लखनऊ का दूसरा बड़ा रेलवे स्टेशन...लखनऊ जंक्शन

हमारे सामान्य ज्ञान की दाद दीजिए कि हमें लखनऊ में आने के बाद पता चला कि लखनऊ में दो बड़े रेलवे स्टेशन हैं। जिस तरह से बंबई में दो अलग अलग रेलवे के अलग अलग टर्मिनल स्टेशन हैं ...बम्बई वी टी और बम्बई सेंट्रल....सेंट्रल रेलवे और पश्चिम रेलवे के क्रमशः ...ये दोनों स्टेशन लगभग ५-६ किलोमीटर की दूरी पर हैं और यहां से विभिन्न गन्तव्य स्थलों के लिए गाड़ियां चलती हैं।

यह तो पता ही था कि लखनऊ में दो रेलवे हैं......उत्तर रेलवे और पूर्वोत्तर रेलवे.......लेकिन बंबई की भांति इन देनों में किसी भी रेल का मुख्यालय यहां नहीं है.. उत्तर रेलवे का दिल्ली और पूर्वोत्तर रेलवे का मुख्यालय गोरखपुर में है.....लेकिन इन दोनों रेलवों की डिवीज़नल इकाईयों के मुख्यालय लखनऊ में हैं......लखनऊ मंडल। इन के डिवीज़नल मुख्यालय ..जिन्हें आम तौर पर आप डी आर एम ऑफिस के नाम से जानते हैं..भी हज़रतगंज एरिया में हैं और दोनों लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर स्थित हैं।

लखनऊ जंक्शन स्टेशन का एक दृश्य 
कल मेरा लखनऊ जंक्शन स्टेशन पर जाना हुआ...लखनऊ वालों की भाषा में इसे छोटी लाइन भी कह दिया जाता है.....पहले यहां से छोटी लाइन की गाड़ी चला करती थी। यह पूर्वोत्तर रेलवे के लखनऊ मंडल का स्टेशन है।
इधर जाने से मुझे बहुत बार ऐसा लगता है कि जैसे मैं किसी पहाड़ के स्टेशन पर आ गया हूं......बहुत पुराना और बिल्कुल साफ़-सुथरा है ..वैसे अगर आप नैनीताल गाड़ी से जाना चाहें तो काठगोदाम के लिए आप को ट्रेन यहीं से मिलती हैं.

गाड़ियों की सूचना देता यह बोर्ड
आप देखिए कि यह कितने सुंदर ढंग से गाडियां के आगमन और प्रस्थान की सूचना इस प्राचीन से दिखने वाले बोर्ड पर दर्शाई गई है। ऐसे बोर्ड मैंने बहुत से बड़े स्टेशनों पर इतने ही प्राचीन अंदाज में लगे देखे हैं.....बंबई वीटी, लखनऊ के मेन स्टेशन पर, मद्रास जैसे स्टेशनों पर। बहुत सी जगहों पर होंगे लेकिन मुझे ध्यान नहीं होगा।




साफ़ सफाई के साथ साथ मुझे स्टेशन परिसर में बहुत से पोस्टर भी लगे दिखे.......अच्छी बात है, क्या पता किस के मन को  कौन सी बात छू जाए....अगर कोई सफ़ाई की एक भी बात पल्ले बांध ले और इस तरह के सार्वजनिक स्थानों की काया ही पलट जाए.....वैसे यह स्टेशन तो बहुत साफ़-सुथरा है ही... जितनी जगह पर मैं टहला मुझे पान के दाग कहीं भी तो नहीं दिखे...लखनऊ में किसी जगह पर यह सब न दिखना ही अपने आप में एक सुखद अहसास है।

कोई भी ऐसा वैसा क्रियाकलाप करने से पहले इस तरफ़ भी नज़र दौड़ा लीजिए
हां, एक भारी भरकम पोस्टर ज़रूर दिख गया......बिल्कुल सरकारी हिंदी जैसा......आप स्वयं ही पढ़ लें.......इसे देख कर मुझे लगा कि बाप, पहले तो इसे समझने के लिए किसी को बी.ए करनी होगी और फिर बाहर से आने वाले लोगों को (जिन की हिंदी मातृभाषा नहीं है) पहले तो कहीं से क्रियाकलाप समझने की ज़हमत उठानी होगी......कि आखिर ये कौन कौन से क्रियाकलाप हैं जिन के लिए ५०० रूपल्ली का अर्थदंड भुगतना होगा......ज़ाहिर सी बात है कि इस में पान-गुटखा थूकना तो शामिल ही होगा.........ओ हो, तो क्या यही राज़ है इस स्टेशन परिसर की साफ़-स्वच्छता का।

एक बात तो बताना भूल ही गया.....ये दोनों स्टेशन - उत्तर रेलवे का जिसे चारबाग स्टेशन भी कह देते हैं और यह वाला लखनऊ जंक्शन ..ये दोनों ही चारबाग में स्थित हैं, बिल्कुल आपस में सटे हुए......जैसे बंबई में नहीं होता कि यह लोकल स्टेशन हैं और यह बाहर गांव का स्टेशन है बंबई सेंट्रल का, दादर का, वी.टी का...........और हां जैसे दिल्ली में यह रहा नई दिल्ली या पुरानी दिल्ली स्टेशन और साथ ही में सटा इन का मेट्रो स्टेशन.

यह बालीवुड भी हमारे खून में इस कद्र मिला हुआ है कि स्टेशन-वेशन का नाम लेते ही डिस्को स्टेशन का ही ध्यान आता है......जिसे सुनना हमारे ज़माने में लगभग दूरदर्शन के हर चित्रहार में एक अनिवार्य प्रश्न जैसा होता था......बिल्कुल रट गया था १९८० के दशक में यह गीत......अब हंसी आती है, लेकिन तब ..........वह दौर कुछ और था।

गुरुवार, 18 दिसंबर 2014

समय तू धीरे धीरे चल...

कितनी बार होता है कि हम बीते हुए दिनों की याद में कहीं खो जाते हैं और लगता है कि यार, कल की ही तो बात है...समय इतनी जल्दी आगे चला आया।

मेरे साथ तो ऐसा बहुत बार होता है .....कोई पिछले दिनों की तस्वीर दिखने पर भी यही अहसास होने लगता है। एक तस्वीर से हमारी कम से कम सैंकड़ों यादें जुड़ी होती हैं, है कि नहीं? थैंक-गॉड तब शेल्फी न होती थी, शायद इसलिए हम लोग फोटो को सहेजने की कीमत जानते थे।
यादों के झरोखे से........समय तू धीरे धीरे चल..
मेरी स्टडी के एक दराज में कल मुझे यह फोटो दिख गई......सारा ज़माना याद आ गया....यह तस्वीर १९९५ के आसपास की है.....मेरी और मेरी बीवी की पोस्टिंग उन दिनों बम्बई सेंट्रल में ही थी। यह बड़ा बेटा है....यह मेरे साथ बड़ी मस्ती किया करता था....ईश्वर की कृपा से आजकल यह कंप्यूटर इंजीनियरिंग करने के बाद डिजिटल मीडिया में लगा हुआ है.....अपने काम में मस्त है। इसी ने ही मुझे कंप्यूटर पर हिंदी लिखना सिखाया था.....छःवर्ष पहले मैंने उसका धन्यवाद भी किया था.....आप इसे इस लिंक पर देख सकते हैं........थैंक-यू, विशाल.. (बॉय गाड मुझे नहीं याद कि मैंने इस पोस्ट में छः साल पहले क्या लिखा था, पेशेखिदमत है वैसी की वैसी.....बिना किसी कांट-छांट के).

हां, तो बात हो रही थी समय के बहुत जल्द जल्द बीत जाने की......दो चार दिन पहले मैं जब दिल वाले दुल्हनिया के १००० हफ्ते पूरे होने की खबरें देख-सुन रहा था तो यही सोचने लगा कि यार, यह तो हम लोगों ने १९९५-९६ में देखी थी, और अभी तक १००० हफ्ते ही हुए हैं.....मराठा मंदिर के पास ही हमारा ऑफिस था, सन् २००० तक तो हमने स्वयं देखा कि यह फिल्म टिकी हुई थी......फिर हमारा तबादला हो गया.....और तब से हम पंजाब, हरियाणा, यू.पी में घाट घाट का पानी पी रहे हैं। फिल्म टिकी ऐसी हुई थी कि सुबह का पहला शो मराठा मंदिर टॉकीज़ में इस DDLJ का ही चलता था, बाकी के शो दूसरी फिल्मों के चला करते थे।

एक बात और, यह जो तस्वीर मैंने यहां टिकाई है, ऐसी तस्वीरें देख कर अकसर मुझे उस गीत का मुखड़ा बहुत याद आ जाता है...... आप भी सुनिए और इस के बोलों में खो जाइए.......समय तू धीरे धीरे चल.....आज का दिन मेरी मुट्ठी में है, किस ने देखा कल......गीत मैं यहां एम्बेड नहीं कर पा रहा हूं.......आप इस लिंक पर क्लिक कर के सुनिएगा ज़रूर। मुझे भी यह गीत सुनना बहुत अच्छा लगता है।

यार, अभी तो हम लोगों ने अच्छे से एंन्ज्वाय ही कहां किया और हम उम्र के इस पढ़ाव में पहुंच भी गए।

हां, एक बात और ध्यान में आ गई..........याद होगा मैंने कुछ महीने पहले देश के मशहूर बाल रोग विशेषज्ञ डा आनंद से आप का तारूफ़ करवाया था...याद है?..... नहीं भी याद तो अब मिल लें, इस लिंक पर क्लिक करिए..... डा आनंद से मिलिए. मैंने उन जैसा बालरोग चिकित्सक अभी तक नहीं देखा।

वे अकसर कहा करते थे कि बच्चों को बढ़ता देखना खूब एन्ज्वाय किया करो, समय बहुत जल्दी मुट्ठी में बंद रेत की तरह खिसक जाता है...और बच्चे बहुत जल्द सयाने हो जाते हैं....कितनी सही बात है ना!!


दांतों की जड़ में भी कीड़ा लग जाता है

मरीज़ों की बातें सुन सुन कर हम लोग भी उन की ही भाषा बोलने लगते हैं, होता है, आदमी सुबह से शाम जैसी संगत में रहेगा वैसे ही बोलने लगेगा......मजाक की बात, सीरियस न हो जाएं।

सच में दांत का कीड़ा वीड़ा कुछ होता नहीं है, यह केवल दांत की सड़न है जिसे पता नहीं कितने समय से लोगों ने कीड़े की संज्ञा दे दी और बस लीक की फकीरी की सुंदर परंपरा के चलते वही नाम चल निकला.......और इस गलत नाम को और भी पुख्ता किया उन सड़क-छाप दांत का इलाज करने वालों ने जो परेशान मरीज़ को रूमाल में कुछ कीड़ा सा निकाल कर दिखा देते हैं.....अब वे ये कैसे करते हैं, यह मैं नहीं जानता, बस, आप इतना याद रखिए कि दांत की कीड़े नाम के किसी जीव-जंतु का वजूद है ही नहीं।

तो फिर यह सब लफड़ा है क्या?....दरअसल बात यह है कि दांतों में खाना फंसने की वजह से उन पर जब मुंह में मौजूद लाखों-करोड़ों जीवाणु (bacteria) टूट पड़ते हैं तो एसिड (अमल) पैदा होता है जो दांतों को साड़ देता है....एक बार शूरू हो जाने पर यह एक सतत प्रक्रिया है....यह फिर धीरे धीरे दांतों में छेद पैदा कर देती है, सड़न तो होती ही है, जिस से कालापन रहता ही है, इसलिए इसे बुलाया जाने लगा दांत की कीड़ा।

पोस्ट तो मैंने बस आप से यह शेयर करने के लिए लिखी थी कि दांत का कीड़ा (यार, मुझे तो कीड़ा कहने की पक्की लत लग चुकी है, माफ़ कीजिएगा, मैं तो भाई कीड़े शब्द का ही इस्तेमाल करूंगा)...केवल दाड़ों में ही नहीं लगता, कहने का भाव वहीं पर नहीं लगता जहां पर आप को खड्डे दिखें या फिर दांतों की जिन सतहों से हम चबाया करते हैं.......बल्कि किसी भी दांत की जड़ को भी कीड़ा लग सकता है।

दांत की जड़ का दंत-क्षय (root caries)
रोज़ाना मेरे पास बहुत से मरीज़ ऐसे आते हैं जिन की दांतों की जड़ों में कीड़ा (दंत-क्षय) लग चुका होता है......और बहुत से तब आते हैं जब यह दांत की सड़न नीचे दांत की नस तक पहुंच चुकी होती है.....लेकिन कुछ कुछ अपनी सेहत का ध्यान भी रखते हैं जैसे कि यह साहब जिन की उम्र ६१ वर्ष की है, इन्हें लगा कि यह काला क्यों पड़ रहा है, इसलिए ये दिखाने आए थे।

यह दांत के जड़ की एक उदाहरण है.....जैसा कि आप देख रहे हैं....इस का इलाज बेहद आसान है.....क्या है ना, इस दंत-क्षय को हटाने के बाद हम लोग इस में एक ऐसा मैटीरियल भर देते हैं......जो दांतों के कलर से बिल्कुल मेल खाता है, किसी को पता भी नहीं चलता .......मामला बिल्कुल फिट.........इस तरह के मैटिरियल को ग्लास-ऑयोनोमर कहते हैं। यह कितना समय चलता है, आज से पच्चीस वर्ष पहले जिन लोगों में मैंने किया था, अभी भी वैसे का वैसा ही है, मेरा भाई भी उस में शामिल है। वैसे इस में मेरी कोई जादू नहीं है, यह मैटीरियल ही ऐसा है, बस इस तरह का काम करवाएं किसी प्रशिक्षित दंत चिकित्सक से ही........क्या है ना अगर किसी नीम हकीम के चक्कर में पड़ गए तो वह किसी और लफड़े में भी डाल सकता है, और ये लफड़े कौन कौन से हैं, लिस्ट बहुत लंबी है, फिर कभी इस पर चर्चा करेंगे।

वैसे इस तरह का काम करने के लिए कईं और भी मैटीरियल हैं, लेकिन मैं ग्लास-ऑयोनोमर फिलिगं को ही तरजीह देता हूं...किसी भी अच्छे इम्पोर्टेड ब्रॉंड को, जो ब्रांड मैं पच्चीस वर्ष पहले इस्तेमाल किया करता था, आज भी उन्हें ही करता हूं.....लेकिन लोकल स्तर पर तैयार ये मैटिरियल बिल्कुल बेकार हैं, रद्दी हैं......बस इतना ध्यान रखना होता है।

हां तो बात चल रही थी, दांत की जड़ की सड़न की। अधिकतर इसे बड़ी उम्र के लोगों में देखा जाता है.....अधिकतर....लेकिन पैंतीस-चालीस की उम्र में भी इसे देखता ही हूं। इस का कारण है कि उम्र बढ़ने के साथ हमारे मुंह में पलने वाले जीवाणुओं की किस्म में भी थोड़ा बदलाव आता है, बुज़ुर्गों के मुंह में जो जरासीम रहते हैं, वे इस तरह से दांतों की जड़ों की सड़न पैदा की क्षमता रखते हैं।

यही एक कारण नहीं है, कारण और भी हैं, ब्रुश और दातुन के गलत इस्तेमाल से दांत के ऊपरी हिस्से (क्राउन) और जड़ के बार्डर पर मौजूद एक पतली सी लेयर हट जाती है......वहां पर थोड़ा सा खड्डा हो जाता है, फिर वह खाने फंसने की एक जगह बन जाती है......बस, फिर तो वही सारी दंत क्षय की प्रक्रिया शुरू।

लेकिन आप इतना भारी भरकम समझने के चक्कर में भी मत पड़िए.....चुपचाप किसी प्रशिक्षित दंत चिकित्सक से छःमहीने में एक बार अपने दांतों का निरीक्षण करवा लिया करिए......सही ढंग से ब्रुश करने का इस्तेमाल सीख लें (सीखने की कोई उम्र नहीं होती, झिझकिए मत), और हां, देश में बिकने वाले हर तरह के खुरदरे मंजनों-पेस्टों से दूर रहें, ये दांतों का हुलिया ऐसा बिगाड़ देते हैं कि दांतों की सड़न की तो छोड़िए, दांत इतने कट-फट जाते हैं कि वे पहचान में भी नहीं आते.......अगली पोस्ट में इस को जिक्र करूंगा।

और हां, दांतों की जड़ों के दंत-क्षय से भी बचे रहने का एक सुपरहिट फार्मूला और भी है......हमेशा फ्लोराइड-युक्त पेस्ट ही इस्तेमाल करें.......इस के बारे में बीसियों भ्रांतियों पर रती भर ध्यान न दें, मैं पूरी जिम्मेदारी के साथ कह रहा हूं ना...... छोटी छोटी बातें मानते रहिए और सदैव मुस्कुराते रहिए। 

पायरिया रोग बिना लक्षणों के भी पनपता रहता है...

दांतों के किनारे पर जमी हुई मैल की परत..टारटर 
यह तस्वीरें जिस महिला के मुंह की हैं, इस की उम्र कुछ ज्यादा नहीं है, यही ३०-३५ के पास ही रही होगी.....दो दिन पहले मुझे दिखाने आईं थी कि दांतो में थोड़ा ठंडा लगने लगा है।

अगर मैं कहूं कि यह तस्वीर शायद बहुत से भारतीयों के मुंह की तस्वीर है तो शायद अतिशयोक्ति न होगी... क्योंकि जैसा आप महिला के मुंह में देख रहें कि दांतों के किनारे किनारे मैल की परत जमी हुई है....इसे डैंटल भाषा में टारटर कहते हैं....यह सीधा ऐसे ही नहीं जम गया......पहले इस स्थान पर प्लॉक बनता है--मैल की पतली सी झिल्ली जो बाद में पड़ी पड़ी इस तरह की ढीठ हो कर पत्थर जैसी बन जाती है।

यही पायरिया रोग की जड़ है.....आप देख सकते हैं किस तरह से नीचे के दांतों के मसूड़े भी सूजे से हुए हैं। पर इस मोहतरमा को इस सब से कोई परेशानी नहीं है, शिकायत नहीं है। लेिकन अगर ये बहुत समय तक बिना इलाज के रही तो यह पायरिया बढ़ कर नीचे जबड़े की हड्‍डी में चला जाएगा.....मसूड़ें दांतों को छोड़ने लगेंगे, मसूड़ों से पस निकलने लगेगी, दांत हिलने लगेंगे....भयानक किस्म की बदबू मुंह से आने लगेगी आदि आदि।

इसी महिला के मसूड़े भी फूले हुए हैं...इसे जिंजीवाईटिस भी कहते हैं
लेकिन ये सब शुरूआती दौर के पायरिया रोग के वे लक्षण हैं जो मरीज़ को नहीं दंत चिकित्सक को साफ साफ दिख जाते हैं....ऐसे में क्या करें, कुछ नहीं, बस...दंत चिकित्सक से इस का इलाज करवाएं.....दांतों को सही ढंग से साफ़ करने का तरीका उस से सीखें......रोज़ाना रात को सोने से पहले अच्छे से ब्रुश करिए, कुछ भी खाने के बाद कुल्ला करें, तंबाकू उत्पादों से मीलों दूर रहें......और क्या, कुछ नहीं।

टीवी..अखबारों में विज्ञापन में दिखाई जाने वाली ठंडा-गर्म पेस्टों को अपनी मर्जी से ना खरीद लिया करें......इस से कुछ फायदा होने वाला नहीं...बेकार में आप की परेशानी खत्म होने की बजाए, कुछ समय के लिए शायद दब जाए, और फिर बाद में ज़्यादा उग्र रूप ले लेगी....और अगर कहीं परेशानी दब गई तो आप समझने लगते हैं कि फलां फलां ने तो कमाल कर दिया.......नहीं ऐसा कमाल हो ही नहीं सकता, दांत की तकलीफ़, मसूड़ों की तकलीफ़ के लिए प्रशिक्षित एवं अनुभवी दंत चिकित्सक का रूख करना ही होगा।

वैसे बीमारी होते हुए भी अगर मरीज़ के मुताबिक उस में कोई भी लक्षण न हों, और उसे परेशानी न हो, तो यकीन मानिए, मरीज़ को इलाज के लिए तैयार करने में प्यारी नानी याद आ जाती है, हमें यही होता है कि रोग तो इस में हैं, अगर इलाज अभी नहीं हुआ तो यह आगे बढ़ता बढ़ता इतना बढ़ जाएगा कि हम अकसर फिर कुछ कर नहीं पाते......पायरिया जब हद से बढ़ कर हड़्डी में पहुंच जाता है तो इलाज करना और करवाना हर एक के बस की बात भी नहीं होती....बेहतरी इसी में है कि समय रहते ही इस तरफ़ ध्यान दे कर, सांसों को महकाए रखा जाए। आप का क्या ख्याल है?

अपना ख्याल रखिएगा। 

अकल की दाड़ से परेशानी

अकल की दाड़ की रगड़ से होने वाला ज़ख्म 
यह जो तस्वीर आप देख रहे हैं यह एक १८ साल के युवक के मुंह की तस्वीर है....आप देख रहे हैं तस्वीर की बाईं तरफ़ एक घाव है।

यह घाव इसलिए बना हुआ है क्योंकि इस की ऊपर वाली अकल की दाड़ पूरी तरह से नहीं निकल पाई है और जितनी निकली भी है वह भी टेढ़ी-मेढ़ी--तिरछी......इस दाड़ की रगड़ से इसे दो तीन बार पहले भी ज़ख्म हो चुका है.....कुछ अकल की दाड़ें होती हैं जिन के सही ढंग से मुंह के उतरने की हम प्रतीक्षा कर सकते हैं, लेकिन इस युवक की दाड़ उस श्रेणी में नहीं आती।

मैंने इसे बहुत बार कहा है कि इसे निकालने से ही बात बनेगी..वरना बार बार परेशान होते रहोगे। शायद अभी छोटा है, अकेला ही आता है, इसलिए अभी उस के बारे में इतने ध्यान से सुनता नहीं लगता, कोई बात नहीं।

इस घाव का इलाज कुछ विशेष नहीं है....जब भी इस घाव के साथ आता है तो मैं गाल के इस हिस्से में गढ़ रही अकल की दाड़ को थोड़ा सा ग्राईंड कर देता हूं जिससे उस के कोने मुलायम हो जाते हैं ...और यह घाव दो-तीन दिन में ठीक हो जाता है (मरीज़ों की भाषा में सूखने लगता है)..इस के लिए सामान्यतयः किसी ऐंटिबॉयोटिक आदि की ज़रूरत नहीं पड़ती लेकिन इस युवक को तीन-चार दिन लेने पड़े थे जब कुछ महीने पहले इस तरह का जो घाव बना था उस में इंफेक्शन हो गई थी।

साथ में इस घाव पर लगाने के लिए कोई दर्द-निवारक जैल सा दे दिया जाता था, साथ में वही गर्म गुनगुने पानी से कुल्ले.....और क्या, कुछ नहीं.....खाने पीने में थोड़ी एहतियात कि ज़्यादा मिर्च-मसाले से कम से कम दो चार दिन दूर ही रहा जाए, बाकी कुछ भी खाया जाए।

कुछ अन्य लेखों के जरिए आप से शेयर करूंगा कि अकल की दाड़ किस तरह से बहुत बार परेशानी का सबब बनती है।

एक बार सुनाऊं ... बड़ी रोचक.......अकसर लोग अकल की दाड़ और अकल का सीधा सीधा संबंध समझते हैं.....कुछ पूछ भी लेते हैं कि अगर अकल की दाड़ निकलवाएंगे तो समझ पर तो फर्क नहीं पड़ेगा....फिर उन्हें बता दिया जाता है कि इस दाड़ का अकल से केवल इतना संबंध जाता है कि यह आम तौर पर मुहं में तब प्रवेश करती है जब आदमी में बुद्धि का विकास हो रहा होता है.....अर्था्त् १७ से २१ वर्ष की उम्र में यह मुंह में दिख जाती है, इसलिए अकल की दाड़ कहलाती है, बस। तब कहीं जा कर उन की सांस में सांस आती है..और वे दाड़ उखड़वाने के लिए राजी होते हैं। 

रविवार, 14 दिसंबर 2014

पायरिया के लिए आचार्य बालकिशन का फार्मूला




यह जो पोस्ट मैंने ऊपर एम्बैड की है, मैं इसे फेसबुक पर कईं बार देख चुका हूं.....अभी भी कुछ ज़रूरी काम कर रहा था तो इस पर नज़र पड़ गई, मैंने सोचा कि काम बाद में हो लेंगे, पहले पायरिया जैसे रोग के बारे में जिस को देखते, इलाज करते ३० वर्ष से भी ऊपर हो गये हैं, उस के बारे में दो बातें कर लें। 

बालकिशन बहुत अच्छा काम कर रहे हैं, यह मैं मानता हूं.....लोगों को आयुर्वेदिक की तरफ़ प्रेरित करना भी अपने आप में एक बहुत पुण्य का काम है।

इस पोस्ट में बालकिशन ने जो फार्मूला बताया है कि एक गिलास गुनगुने पानी में ३-४ बूंद लौंग का तेल मिलाकर प्रतिदिन गरारे व कुल्ला करने में पायरिया ठीक होता है, मैं इस फार्मूला से बिल्कुल भी इत्तेफाक नहीं रखता......यह फार्मूला इस्तेमाल करने से लोगों को अच्छा महसूस होता होगा, मुंह की मैल निकलती होगी, इधर उधर फंसा खाना बाहर हो जाता होगा, लौंग की वजह से थोड़ी महक अच्छी हो जाती होगी, शायद......क्योंकि मैंने ऐसा न तो किसी किताब में पढ़ा और न ही ऐसी कोई वैज्ञानिक रिसर्च ही देखी कि इस तरह के फार्मूले से पायरिया रोग ही ठीक हो जाता है। वैसे मैं ऐसी किसी भी तरह की वैज्ञानिक जानकारी का स्वागत करूंगा. हो सकता है मेरी जानकारी में ऐसा कुछ न आया हो, मैं तो बस यहां अपने अनुभव की बात रखने आया हूं। 

पायरिया रोग के ऊपर मेरे लगभग दर्जनों लेख इसी ब्लॉग पर उपलब्ध हैं, आप को एक काम करना होगा......ब्लॉग पर जो सर्च आप्शन है, उस में हिंदी में (देवनागरी लिपि में) पायरिया लिखना होगा, सारी लिस्ट आप देख पाएंगें, फिर अपनी इच्छा अनुसार क्लिक कर सकते हैं।

पायरिया रोग होने पर किसी को भी दंत चिकित्सक के पास जाना ही होगा, बिना इलाज के पायरिया रोग ठीक हो ही नहीं सकता, कम से कम मैंने पांच साल अपने टीचरों से यही सीखा, फिर तीस साल तक मेरे अनुभव ने भी मुझे यही सिखाया। 

बालकिशन का मैं सम्मान करता हूं......मैं पहले कह चुका हूं.....बहुत अच्छा काम कर रहे हैं, लेिकन आज पायरिया के बारे में यह पोस्ट देखी और वह भी लगभग ५०००० लाईक्स के साथ, तो रहा नहीं गया, एक विनम्र टिप्पणी के रूप में ही इस पोस्ट को ठेलने की इच्छा हो उठी। जनता तक प्रोफैशनल दृष्टिकोण भी पहुंचाना बहुत ज़रूरी है।

आप पायरिया पर मेरे कुछ लेख ढूंढ पाएं कि नहीं, चलिए मैं आप को इन के दो चार लिंक्स ही दिए देता हूं.....


ईंजन-बोगी स्कीम जो मेडीकल सीट भी दिलाती है...

डा आनंद राय एक व्हिसल-ब्लोअर हैं जो मानते हैं कि मध्यप्रदेश में जो पीएमटी व्यापम् कांड हुआ है उस में लखनऊ की केजीएमसी मैडीकल कालेज के डाक्टरों का बहुत बड़ा हाथ है।

ऐसा कहा गया है कि यू पी के डाक्टर जो गोरखधंधे में शामिल हैं, वे दो तरह की ईंजन-बोगी स्कीमों में लिप्त पाए गये हैं।  यूपी के ये मेडीकल छात्र जो दूसरे प्रांतों में जाकर दूसरे छात्रों की जगह पर परीक्षा दे कर आते हैं इन्हें ईंजन कहा जाता है और पीएमटी से तीन महीने पहले से ही इन के वहां रहने-खाने पीने की पूरी व्यवस्था और अन्य सुविधाएं उपलब्ध करवा दी जाती हैं।

पहली स्कीम यह होती है....जो ईंजन हैं वे ओरिजनल छात्रों की जगह पर पीएमटी परीक्षा देते हैं...परीक्षा देने के लिए जो एडमिट कार्ड जारी होता है उस में भी इसी ईंजन की फोटू लगी होती है, लेकिन पीएमटी परीक्षा होने के बाद बाबू लोगों की सांठगांठ से इस फोटो की जगह बोगी (जिस के मेडीकल दाखिले के लिए ईंजन ने पेपर दिया है) की फोटू चिपका दी जाती है।

दूसरी स्कीम के बारे में सुनिए -- ईंजन और बोगी पीएमटी टेस्ट के लिए अपने अपने फार्म भरते हैं...लेकिन ये एक साथ ही इन्हें जमा करते हैं ताकि इन के रोल नंबर इस तरह से जारी हों कि पेपर में इन्हें एक साथ आगे पीछे बैठने का अवसर मिल जाए। फिर ईंजन का काम यह है कि या तो वे बोगी की परीक्षा हाल में मदद करे, नहीं तो ये आपस में उत्तर पुस्तिका बदल कर यह काम और भी आसान कर लेते हैं।

केजीएमयू के पेपर सॉल्वरों की धांसू डिमांड है। वैसे तो केजीएमसी भी कईं बरसों तक इस समस्या से जूझता रहा है िक किसी छात्र की जगह पर कोई दूसरा छात्र पेपर दे कर चला गया।

माफिया कमजोर छात्रों को डाक्टरी सीट दिलाने के लिए हर छात्र से ५ लाख से १५ लाख रूपये की वसूली करते हैं।
इस गैंग की जड़ें इतनी मजबूत होती हैं कि ये कंप्यूटर सिस्टम से छेड़खानी कर के परीक्षा परिणाम भी बदल देते हैं....अब इस की भी जांच चल रही है।

२०१३ में इंदौर के एक नेत्ररोग विशेषज्ञ डा आनंद राय ने इस प्रीमैडीकल टैस्ट रैकेट का भंडा फोड़ा और यह आरोप लगाया कि २००४ से २०१३ के बीच मध्यप्रदेश के हज़ारों छात्रों ने इसी तरह के गलत ढंग अपना कर मेडीकल में प्रवेश लिया है।

अब तो आप मेरे साथ मिल कर यही प्रार्थना करें कि भगवान मरीज़ों पर कृपा करें...वैसे सरासर बेवकूफी है मां-बाप की भी.... क्या कर लोगो यार ऐसे लोंडों को डाक्टर बना कर....जिन की नींव ही फर्जीवाड़े पर रखी गई है। लेकिन एक बार घुस जाएंगे ऐसे मुन्नाभाई तो फिर तो डाक्टर का ठप्पा लगवा कर के ही निकलते हैं कालेज से......अगर वहां तक पहुंचने में इतनी महंगी मगजमारी कर सकते हैं तो फिर मेडीकल कालेज के अंदर गोटियां फिट करना क्या इन शातिरों के लिए कोई मुश्किल काम है!!

अफसोस यह कि पढ़ने वाले योग्य छात्र इस जालसाजी के चक्कर में सीट पाने से महरूम रह जाते हैं....indeed very sad state of affairs! Shameful!

मुन्नाभाई एमबीबीएस फिल्म देख कर तालियां बजाने तक तो ठीक है लेकिन इस तरह के जाली डाक्टरों से रियल लाइफ में रू-ब-रू होने से ही मरीज़ के तो होश ही फाख्ता हो जाएं.

Source: Times of India, Lucknow Ed. page 3 (Dec11' 2014)
'Engines' clear way for 'Bogies' to secure medical berth

योग-ध्यान को भी तूने बाज़ार बना डाला..

अभी दस मिनट पहले उठा....पहले रिवाज़ था कि हम लोग सुबह सुबह उठ कर कुछ भी और किया करते थे....लेकिन आजकल बूथी (पंजाबी शब्द, मतलब चेहरा) के सामने मेरे जैसे को भी स्मार्ट बनाने वाला यंत्र पड़ा होता है.....स्मार्टफोन.....उसे उठा कर देखा तो एक ई-मेल आई हुई थी..अमेरिका से.....कि अगर तन्ने इस छुट्टियों के सीजन में ध्यान (मेडीटेशन) का २१ दिन के लिए ऑनलाइन आनंद लूटना है तो हम १० डालर की छूट दे रहे हैं....५० डालर वाला कोर्स हम लोग ४० में करवाएंगे, इस लिंक पर क्लिक कर के इस प्रोडक्ट को अभी खरीद ले। यह सीखने-सिखाने का काम सारा ऑनलाइन होता है या तो आप सीडी भी मंगवा सकते हैं।

इस तरह की ई-मेल्स अकसर आती रहती हैं, एक काम करता हूं इस पोस्ट को बीच में रोक कर पहले ज़रा इन्हें हमेशा के लिए ब्लॉक कर डालूं। एक्सक्यूज़ मी प्लीज़।

हां जी, बाज़ार के इस प्रोडक्ट को मैं जानता हूं.....दो साल पहले मेरी श्रीमति जी ने भी यह कोर्स किया था....एक बार साइन इन/रजिस्टर किया था तो पूरा तो करना ही था। पर मुझे याद है कि ऐसे प्रोडक्टस इतने शातिर होते हैं कि ध्यान का जो पाठ एक दिन अपनी साइट पर अपलोड करेंगे, ये कुछ घंटों तक ही वहां रहेगा, फिर उसे वहां से हटा दिया जाता है और यह डाउनलोड भी नहीं किया जा सकता। पहली बात तो यह कि इस तरह की विद्या ग्रहण करने के लिए आप टेक-सेवी हैं कि नहीं, आप की पात्रता इस बात पर निर्भर करेगी........धिक्कार है ऐसे बाजारू विज्ञापनों पर।

सोचता हूं कि ऐसे बेकार के अनुभवों को क्यों इतनी तूल दें, ये तो आप अपने आसपास भी देखते ही होंगे, योग प्रोग्रामों के लिए सैंकड़ों- हज़ारों खर्च पर पहली पंक्तियों में बैठ कर विशेष कृपादृष्टि का मुगालता पालने वाले भी कम थोड़े ही ना हैं इस देश में। कुछ कार्यक्रमों में तो...नहीं यार, बहुत से कार्यक्रमों में पहले इन उस्तादों के बैंक-खाते में इन्हें जबरन भिक्षा भी देनी होती है...(गुरू कहने की इच्छा नहीं हो रही, और उस्ताद शब्द का इस्तेमाल तो हम हिंदी फिल्मी में जगह जगह देखते ही हैं, इसलिए उसी से काम चला लेते हैं)....जैसे उस्ताद आप इस वीडियो में देखेंगे, इस तरह के योग-ध्यान उस्ताद भी आपस में उलझे ही रहते हैं, मैं जिस ई-मेल की बात कर रहा हूं उस में नीचे यह भी लिखा था कि ऐसे दूसरे प्रोडक्ट्स से बच कर रहें क्योंकि वे हमारे नहीं है, हम खािलस हैं, वे डुप्लीकेट हैं...



मुझे यह समझ बीस साल पहले आ गई थी कि योग-ध्यान जैसे अनमोल वरदान कृपा का विषय का... बख्शीश का मौजू है...बस गुरू की कृपा चाहिए....अगर आप में भी शिष्य बनने की सारी ज़रूरतें मौजूद हैं तो आप इस तरह की विद्याएं बिल्कुल गुरू-शिष्य परंपरा की निर्बाह करते हुए सहज सीख पाते हैं........खालिस गुरू की पहली निशानी, वे कटोरा हाथ में लेकर डॉलरों की भीख नहीं मांगा करते। वे तो चेले की तुच्छतम् दक्षिणा पर ही रीझ जाया करते हैं।  फक्कड़ किस्म के होते हैं जिन का एक ही उसूल होता है.....

हम फकीरों से जो चाहे वो दुआ ले जाए..
खुदा जाने कब हम को हवा ले जाए..
हम तो राह बैठे हैं लेकर चिंगारी..
जिस का दिल चाहे चिरागों को जला ले जाए।।

असल में जो गुरू होते हैं वे इसी तरह के ही होते हैं..बुझे हुए दिए जलाने का काम करते हैं....योग-ध्यान तो क्या, एक बार जब बीज बो दिया तो सभी विद्याएं सहज ही प्रवेश करने लगती हैं। इन का किसी से कंपीटीशन भी नहीं होता।

मैंने बहुत साल पहले इंगलिश में एक बहुत सुंदर बात पढ़ी थी कि इस संसार में जो भी हमारे लिए बेहद महत्वपूर्ण है. ज़रूरी है..इस कायनात में वह सब हमें सहज ही मुफ्त मुहैया हो जाता है.....जैसे हवा, पानी, प्यार, करूणा आदि ...
आप समझ ही गये हैं कि मैं इस पोस्ट में क्या कहना चाहता हूं......ये विद्याएं धन की मोहताज कभी भी नहीं रही हैं और शुक्र है कि कभी भी न रहेंगी...

जहां रहेगा वहीं रोशनी लुटायेगा, 
कि चिराग का कोई घऱ नहीं होता। 

मेरे बागी दिमाग में बहुत साल पहले ये विचार कौंदा करते थे कि ये कैसे प्रोग्राम कि जो पैसा खर्च कर पाए, वह तो सीख ले, और जो न खर्च पाए.....वह महरूम रह जाए........होता होगा, दुनियावी शिक्षा या डिग्रीयां पाने के लिए यह सब होता ही है......आप रद्दी से रद्दी लोंडे को पैसे की ताकत से विदेश से डिग्री करवा कर उस की मैट्रीमोनियल वेल्यू बढ़ा सकते हैं बस.....लेकिन ये जो दैवी विद्याएं ( divine blessings) हैं ये तो भाई कृपा का विषय है, रहमत का खेल है......हो गई तो ठीक, न हुई तो ठीक............और रहमत हर तरफ़ खुली बरस रही है, हम समर्पण तो कर के देखें। 

आज की सुबह तो इन योगा-ध्यान वालों का तवा लगाने में निकल गई......बस बात इतनी सी है कि जिन लोगों ने भी पब्लिक का चूतिया बनाने की कोशिश की.....देश की जनता भोली भाली है, इन के अंधविश्वास देख-सुन कर आंखें भर आती हैं......जिस ने भी इन्हें बेवकूफ बना कर अपना उल्लू सीधा करना चाहा, तो इस ईश्वरीय सत्ता ने भी ऐसा संतुलन कर दिया कि कुछ तो सलाखों के पीछे चक्कियां पीस रहे हैं, कुछ फरार हैं.........पता नहीं कितने भेड़िये अभी भी बेस बदल कर घूम रहे हैं।

यार, यह कैसे लोग अंध-श्रद्धा में अंधे हो कर अपनी बेटियां, बहनें तुम्हारे पास आशीर्वाद के लिए भेजते हैं और तुम अब उन पर बुरी नज़र ही नहीं, उन से ही मुंह काला करने लगोगे तो तुम्हें छुड़वाएगा कौन....और जो बच्चियां इस तरह के भेड़ियों का पर्दाफाश करती हैं, उन को नोबल तो नहीं मिलेगा कभी, लेकिन हमारी तालियां तो मिल ही सकती हैं....अपनी परवाह न करते हुए, पता नहीं भविष्य में शिकार होने वाली कितनी बच्चियों को दरिंदों से बचा लेती हैं। 

जब मैंने आज सुबह वह ध्यान वाली ई-मेल पढ़ी कि आप इस मेडीटेशन प्रोड्क्ट को खरीद लो........तो मुझे एक गज़ल का ध्यान आ गया........उस में कुछ लफ्फाज़ इस तरह से थे........कि तूने बाज़ार बना डाला...........यू-ट्यूब पर वह तो मिला नहीं लेकिन संयोग से एक बहुत खूबसूरत बात बरसों बाद सुनने को मिल गई.........गुलाम अली साब की आवाज़ में .........तेरी आवारगी ने आवारा बना डाला..


शनिवार, 13 दिसंबर 2014

आज से ४० साल पहले कितने डा मुन्ना भाई तैयार होते होंगे!!...(1979 से पूर्व)

आज कल जब मैं रोज़ाना सुबह उठ कर लखनऊ का कोई भी अखबार उठाता हूं तो व्यापम् घोटाले के बारे में खबरें देख देख कर दुःख होता है कि किस तरह से मैडीकल कालेजों में दाखिला दिलाने का यह रैकेट चल रहा था....और किस तरह से एमबीबीएस पढ़ रहे छात्र भी इस गोरखधंधे में शामिल मिल रहे हैं...और वे ही नहीं, उन के प्रोफैसर लोग भी। कितनी शर्मनाक बात है ..धंधा डाक्टरी का और प्रैक्टिस फर्जीवाड़े की।

मीडिया रिपोर्ट बताती हैं कि छात्र दूसरे प्रांतों में जाकर दूसरे छात्रों की जगह पर परीक्षा दे आते थे और एवज़ में दस-पंद्रह लाख की रकम वसूला करते थे। यह तो हो गई आज कल की बात जब हम लोग इमानदारी और पारदर्शिता का ढंका पीटते फिरते हैं।

चलिए, आप इस तरह के फर्जीवाडे से तैयार होने वाले डा मुन्नाभाईयों के बारे में तो आने वाले दिनों में भी पढ़ते रहेंगे...लेकिन आज से पैंतीस-चालीस साल पहले क्या होता था, ज़रा मैं उसे भी तो याद कर लूं।

मैं यह जो बातें आप से शेयर कर रहा हूं ..यह पंजाब की है..लेकिन यकीन मानिए आप इसे सत्तर के दशक के किसी भी प्रांत की ही समझ सकते हैं।

होता क्या था, पंजाब में मैडीकल कालेजों में दाखिले के लिए प्री-मैडीकल की परीक्षा के अंकों को ही आधार माना जाता था.....प्रीमैडीकल का मतलब आप समझ लें कि इंटर। दरअसल उस दौर में दसवीं करने के बाद चाहे तो आप ग्यारहवीं स्कूल में कर लें जिसे हायर सैकंडरी कहा जाता था फिर अगले साल आप कालेज में दाखिल लेकर प्री-मैडीकल कर सकते थे....या फिर दसवीं के बाद सीधा ही कालेज में प्री-यूनिवर्सिटी (मैडीकल या नॉन-मैडीकल) में दाखिला और उस के बाद वहीं से प्री-मैडीकल (या प्री-इंजीनियरिंग) की क्लास भी वहीं से हो जाती थी।

१९७८ तक पंजाब में यही प्रैक्टिस थी कि प्री-मैडीकल में जितने नंबर आएंगे उसी के आधार पर मैरिट लिस्ट बनेगी कि किसे पंजाब के सरकारी मैडीकल कालेजों में दाखिला मिलेगा। हां, एक बात और भी थी, जिस किसी को लगता था कि अंक अच्छे नहीं आएंगे तो वे एक साल के लिए ड्राप कर दिया करते थे.....अच्छा जुगाड़ था... फिर अगले साल जब फिर से आप उसी क्लास में पढ़ेंगे तो अंक तो बढ़ेंगे ही ना...ज़ाहिर सी बात है।

मुझे एक बात का और भी ध्यान आ रहा है कि कुछ लोग इम्प्रूवमैंट भी कर लिया करते थे....जी हां, इस की भी अनुमति हुया करती थी कि आप अगले साल फिर से पेपर देकर अपनी पर्सेंटेज को सुधार लें ताकि मेरिट में आप का नाम आ जाए और आप कहीं न कहीं एडमिशन पा जाएं।

आप कल्पना भी नहीं कर सकते कि इस सिस्टम में कितनी गंदगी थी, बिल्कलु बास मारने वाली सड़ी व्यवस्था थी.....क्या है ना मैं छोटा था उन दिनों लेकिन इस तरह के बातों में पूरी रूचि लिया करता था, क्यों, यह भी सिर दुःखाने वाला एक अलग किस्सा है, बाद में बात करूंगा, अभी मूड नहीं है।

पहले तो इस गंदगी के बारे में दो बातें कर लूं........ठीक है यार होते होंगे कुछ लोग जो पढ़ाई में अच्छे होते होंगे कि केवल और केवल अपनी मेरिट के बलबूते एमबीबीएस में दाखिला ले लेते होंगे, लेकिन इस तरह के सड़े-गले सिस्टम में किस तरह से व्यापक सड़न (गैंगरीन) फैली हुई थी, यह तो आप से शेयर करना बनता है।

ट्यूशन पढ़ने वालों पर विशेष कृपादृष्टि 

आम तौर पर यह देखा जाता था कि जो छात्र अपने प्रोफैसरों से प्री-मैडीकल में ट्यूशन ले लेते थे, उन्हें प्रैक्टीकल परीक्षा में खूब अच्छे अंक दे दिये जाते थे......यही नहीं, धिक्कार है ऐसे टीचरों पर जो इन छात्रों की इंटरनल एसेसमैंट भी इस बात पर तय करते थे कि वे उन के यहां ट्यूशन पढ़ रहे हैं या नहीं।

फिट्टेमुंह ओए फिट्टेमुंह तुहाडे ते....पता नहीं तुसीं किन्नीयां अनडिजर्विंग रूहां नूं अग्गे धिक्कन लई किन्नीयां जिंदगीयां तबाह कीतीयां...फिट्टेमुंह ओए फिट्टेमुंह...हुन तक तुसीं सारे ही मर-खप गये होने ओ......चलो, धरती दा भार होला होया........(दोस्तो, जब मुझे गुस्सा आता है ना तो मैं अपने आप से ठेठ पंजाबी में बातें कर लेता हूं).......मैंने सिर्फ इतना निवेदन किया है जी पंजाबी भाषा में कि जो टीचर इस तरह के गोरखधंधों में लिप्त थे उन्हें शर्म आनी चाहिए कि इस तरह की प्रैक्टिस के द्वारा उन छात्रों को तो आगे ले आए जो इस के योग्य नहीं थे और जो योग्य थे, उन्हें ठोकरें खाने के लिए छोड़ दिया। फिर मुझे ध्यान आया कि शायद उन में से ज्यादातर टीचर तो नरक-सिधार चुके होंगे.......चलो, इसी बहाने धरती का भार थोड़ा हल्का तो हुआ।

 वैसे यहां यह भी लिखना ज़रूरी है कि जो छात्र उन के पास ट्यूशन लेते थे उन का व्यवहार क्लास में भी और लैब में भी उन के साथ अलग ही किस्म का बेतक्लुफ्फी वाला हुआ करता था।

बाप के नाम की धौंस.....रसूख का खेल 

एक बात यह भी थी कि अगर किसी छात्र का बाप बड़ी पोस्ट पर था......कालेज या यूनिवर्सिटी में किसी भी विभाग में प्रोफैसर था या वहां पर किसी भी पोस्ट पर था, या फिर शहर के मैडीकल कालेज के कुछ प्रोफैसरों के लोंडे-लोंडियां, शहर के मशहूर डाक्टर, अब कमबख्त किस किस का नाम गिनाएं.......हर कोई कुछ न कुछ जुगाड़ शायद निकाल लिया करता था......शायद बिल्कुल शुद्ध लोअर मिडल और मिडल की बार्डर लाइन वाले छात्र ही कुछ नहीं कर पाते थे (अपना खून जलाने के अलावा)......ट्यूशन का फायदा लेने में और रसूख का लाभ लेने में वे वंचित रहते थे......नतीजा यही कि प्रैक्टीकल और वाईवा में और इंटरनल असैसमेंट में वे बुद्धु (या कुछ और) ऐसे पिट जाते थे कि मेरिट में आने का उन का सपना केवल एक फेंटेसी ही रह जाता था (ऐसी फेंटेसी भी किस काम की!!).... चाहे वे थ्यूरी कितनी भी अच्छी कर आएं लेकिन वे प्रैक्टीकल, वाईवा और इंटरनेल एसेसमेंट में इतना कम स्कोर ले पाते थे कि वे मेरिट से बाहर ही रहते थे।

पेपरों की चैकिंग 
अब अगर आज की तारीख में इतने डा मुन्नाभाई तैयार हो रहे हैं तो क्या आप को लगता है कि आज से पैंतीस-चालीस साल पहले रसूखवालों के लिए पेपरों के चेकरों तक पहुंच पाना मुश्किल होता होगा...इस का निर्णय मैं आप के ऊपर छोड़ता हूं।

डोनेशन वाली सीटें

अगर किसी रईस का लोंडा सरकारी कालेजों की मेरिट लिस्ट में आने से रह भी जाता था तो उसे डोनेशन खर्च कर (१९७० के शुरूआती दिनों में ये सीटें दस हज़ार में िबक जाती थीं) उसी साल पंजाब के दो प्राईव्हेट मैडीकल कालेजों के सुपुर्द कर दिया जाता था कि लोंडे को अच्छा डाक्टर बना कर तैयार करो। और जो बिल्कुल रद्दी सौदा होता था, पंजाब या दिल्ली का, उसे आंध्र प्रदेश आदि जगहों पर डोनेशन पर भेज दिया जाता था........और जो एक बार घुस गया, वह तो डाक्टर बन कर ही निकलेगा।

आज मुझे चालीस साल पुरानी बातें याद कर के आग लगी हुई है.....मैंने कुछ भड़ास तो इस पोस्ट के द्वारा निकाल ली है,  मैंने जो लिखा है ईश्वर को हाज़िर-नाज़िर जान कर लिखा है, इस पर आप में से मेरे साथ कोई भी चर्चा करना चाहे, उसे खुला निमंत्रण है.........लेकिन होता यही कुछ था, बिल्कुल गरीब-मार सरेआम हुआ करती थी........मैं बार बार यही कह रहा हूं कि योग्य छात्र भी अपनी योग्यता के बलबूते ज़रूर आगे आते होंगे लेकिन रद्दी और खोटे सिक्के भी खूब चल जाया करते थे.....इस पैसे, रसूख, और ओहदे के घिनौने खेल में।

अब लगता है थूक भी दूं इन सड़ी यादों को.......मन खराब होता है यह सब याद आने पर.........लेकिन मुझे पता है इस समय मेरा मन कैसे ठीक हो जाएगा......अच्छा, दोस्तो, मैं तो अपनी पसंद का एक सुपरहिट पंजाबी गीत सुनने लगा हूं.....आप भी सुनेंगे तो ज़रूर पसंद करेंगे........अगर पंजाबी भाषा नहीं भी आती, तो फिक्र नॉट------प्यार की भी क्या कोई भाषा होती है!!

१९७८ के बाद क्या क्या देखा, यह फिर किसी दिन आप से शेयर करूंगा। आह..हा...हा...अब कुछ ह्लकापन महसूस हुआ।