मैं जहां रहता हूं लखनऊ ...उस कॉलोनी से बाहर निकलने पर जिस तरह से सड़क के किनारे लकड़ी की अलमारियों में बंद मुर्गे-मुर्गियां देखता हूं.... एक बड़ी ही दयनीय स्थिति लगती है।
मैं अभी कुछ दिन पहले ही सोच रहा था कि ये सब के सब बिल्कुल दुबके से, एक दूसरे से चिपके से, उदास से ऐसे पड़े हुए हैं जैसे इन को इन का अंजाम पता चल गया है और ये एकदूसरे के हमदर्द बने ऐसे दिखते हैं जैसे कि एक दूसरे का हौंसला बढ़ा रहे हों कि चिंता मत करो, देखेंगे जो होगा, देख लेंगे... हम इक्ट्ठे तो हैं .......hoping against hope. Poor souls!
लेकिन अकसर नोटिस यह भी करता हूं कि इन के मसल तो ठीक ठाक होते हैं लेकिन ऊपर की चमड़ी अजीब सी लाल, पंख कमजोर से, झड़ चुके या झड़ने की कगार पर.
इन्हें देखने ही से लगता है कि यार इन बेचारों के साथ सब कुछ ठीक ठाक नहीं है। सोचने वाली बात है कि अगर आदम जात के पट्ठे बनाने के लिए स्टीरॉयड जैसे कैमीकल्स, हारमोन्स आदि इस्तेमाल किए जाते हैं, जिस देश में दस-बीस रूपये किलो बिकने वाली सब्जियों को बढ़ा करने के लिए टीके लगते हों, वहां क्या चूज़ों को बढ़ा करने के लिए तरह तरह की अनाप-शनाप दवाईयों पिलाई या लगाई न जाती होंगी।
मेरी सोच कुछ ऐसी ही रही है कि कुछ न कुछ तो गड़बड़ जरूर इन को बढ़ा करने के चक्कर में होती ही होगी। वैसे तो नॉन-वैज नहीं खाता, कोई भी इस का धार्मिक कारण नहीं है....किंचित मात्र भी नहीं, बस वैसे ही बुरा लगता है किसी जीव को अपने मुंह के स्वाद के लिए पहले मार देना फिर उस को भून कर या तल कर खा लेना। और ऊपर से अगर यह सब बीमारियों का घर हो, तो क्या सोचने मात्र से ही सिर भारी नहीं हो जाता।
आज भी सुबह ऐसा ही हुआ है, टाइम्स ऑफ इंडिया और दा हिंदोस्तान ..दोनों अखबारों के पहले पन्ने पर बड़े बडे़ शीर्षकों के साथ खबर छपी है कि सैंटर फॉर साईंस एंड एन्वायरमैंट की स्टडी में पाया गया है कि चिकन के ४०प्रतिशत नमूनों में ऐंटीबॉयोटिक दवाईयों की मात्रा पाई गई है।
अब सोचने लायक बात यह है आखिर चिकन के नाम पर खाया क्या कुछ जा रहा है, ताकत वाकत की बात छोड़ ही दें, जो पहले से बची-खुची है अगर वही न लुट जाए तो गनीमत जानिए......
यह मार्कीट शक्तियों का रातों रात अमीर होने का जुनून कहीं हमारी जान ही न ले ले ...हर तरफ़ मिलावट...घोर मिलावट.....बीमार कर देने वाली, बहुत बीमार कर देने वाली, जो जानलेवा तक भी हो सकती है।
एक बात और..यह भी नहीं कि आज अखबार में परोसी खबर ही से हमें पता चला हो कि मुर्गों के साथ यह सब कुछ हो रहा है, बहुत बार सुन चुके हैं, देख चुके हैं, पढ़ते भी रहते हैं ...लेकिन इन्हें खा खा कर एक बार नहीं बार बार अपने पैरों पर कुल्हाड़ी से वार किए जा रहे हैं, चोटिल हुए जा रहे हैं, शायद किसी विशेष बीमारी के निमंत्रण का इंतज़ार। अगली बार मुर्गा शुर्गा खाने से पहले आप भी सोचिएगा।
Source-- Antibiotics in your chicken
Antibiotic residues in chicken
लिखते लिखते लव शव ते चिकन खुराना फिल्म का ध्यान आ गया...... कोई गीत ढूंढने लगा तो यह सीन हाथ लग गया, आप भी देखिए...मेरी पोस्ट पढ़ने से जो सिर भारी हुआ होगा वह हल्का हो जाएगा इस परिवार की कच्छा चर्चा सुन कर।
मैं अभी कुछ दिन पहले ही सोच रहा था कि ये सब के सब बिल्कुल दुबके से, एक दूसरे से चिपके से, उदास से ऐसे पड़े हुए हैं जैसे इन को इन का अंजाम पता चल गया है और ये एकदूसरे के हमदर्द बने ऐसे दिखते हैं जैसे कि एक दूसरे का हौंसला बढ़ा रहे हों कि चिंता मत करो, देखेंगे जो होगा, देख लेंगे... हम इक्ट्ठे तो हैं .......hoping against hope. Poor souls!
लेकिन अकसर नोटिस यह भी करता हूं कि इन के मसल तो ठीक ठाक होते हैं लेकिन ऊपर की चमड़ी अजीब सी लाल, पंख कमजोर से, झड़ चुके या झड़ने की कगार पर.
इन्हें देखने ही से लगता है कि यार इन बेचारों के साथ सब कुछ ठीक ठाक नहीं है। सोचने वाली बात है कि अगर आदम जात के पट्ठे बनाने के लिए स्टीरॉयड जैसे कैमीकल्स, हारमोन्स आदि इस्तेमाल किए जाते हैं, जिस देश में दस-बीस रूपये किलो बिकने वाली सब्जियों को बढ़ा करने के लिए टीके लगते हों, वहां क्या चूज़ों को बढ़ा करने के लिए तरह तरह की अनाप-शनाप दवाईयों पिलाई या लगाई न जाती होंगी।
मेरी सोच कुछ ऐसी ही रही है कि कुछ न कुछ तो गड़बड़ जरूर इन को बढ़ा करने के चक्कर में होती ही होगी। वैसे तो नॉन-वैज नहीं खाता, कोई भी इस का धार्मिक कारण नहीं है....किंचित मात्र भी नहीं, बस वैसे ही बुरा लगता है किसी जीव को अपने मुंह के स्वाद के लिए पहले मार देना फिर उस को भून कर या तल कर खा लेना। और ऊपर से अगर यह सब बीमारियों का घर हो, तो क्या सोचने मात्र से ही सिर भारी नहीं हो जाता।
आज भी सुबह ऐसा ही हुआ है, टाइम्स ऑफ इंडिया और दा हिंदोस्तान ..दोनों अखबारों के पहले पन्ने पर बड़े बडे़ शीर्षकों के साथ खबर छपी है कि सैंटर फॉर साईंस एंड एन्वायरमैंट की स्टडी में पाया गया है कि चिकन के ४०प्रतिशत नमूनों में ऐंटीबॉयोटिक दवाईयों की मात्रा पाई गई है।
अब सोचने लायक बात यह है आखिर चिकन के नाम पर खाया क्या कुछ जा रहा है, ताकत वाकत की बात छोड़ ही दें, जो पहले से बची-खुची है अगर वही न लुट जाए तो गनीमत जानिए......
यह मार्कीट शक्तियों का रातों रात अमीर होने का जुनून कहीं हमारी जान ही न ले ले ...हर तरफ़ मिलावट...घोर मिलावट.....बीमार कर देने वाली, बहुत बीमार कर देने वाली, जो जानलेवा तक भी हो सकती है।
एक बात और..यह भी नहीं कि आज अखबार में परोसी खबर ही से हमें पता चला हो कि मुर्गों के साथ यह सब कुछ हो रहा है, बहुत बार सुन चुके हैं, देख चुके हैं, पढ़ते भी रहते हैं ...लेकिन इन्हें खा खा कर एक बार नहीं बार बार अपने पैरों पर कुल्हाड़ी से वार किए जा रहे हैं, चोटिल हुए जा रहे हैं, शायद किसी विशेष बीमारी के निमंत्रण का इंतज़ार। अगली बार मुर्गा शुर्गा खाने से पहले आप भी सोचिएगा।
Source-- Antibiotics in your chicken
Antibiotic residues in chicken
लिखते लिखते लव शव ते चिकन खुराना फिल्म का ध्यान आ गया...... कोई गीत ढूंढने लगा तो यह सीन हाथ लग गया, आप भी देखिए...मेरी पोस्ट पढ़ने से जो सिर भारी हुआ होगा वह हल्का हो जाएगा इस परिवार की कच्छा चर्चा सुन कर।