रविवार, 23 नवंबर 2025

यूं ही होनी चाहिए हर रोज़ दिन की शुभ शुरुआत....


सोते वक्त मेरे हाथ में अकसर एक किताब होती है ...गूढ़ ज्ञान वाली कोई आध्यात्मिक किताब के अलावा कोई भी ...कल रात भी सोते वक्त मुझे कहीं पर बच्चों की रामायण (इंगलिश में ..) नवनीत पब्लिकेशन की दिख गई ...मैं कुछ पन्ने ही उलट-पलट पाया कि मुझे नींद ने चारों तरफ़ से घेरा डाल लिया....फिर किसी की कहां चलती है, मैं कर भी क्या सकता था ...


खैर, सुबह उठा चार बजे...फिर सोने लगा तो मोबाईल पर विविध भारती लगा लिया...संगीत का कोई बढ़िया प्रोग्राम चल रहा था....शायद दो चार मिनट ही सुना होगा कि नींद के फरिश्ते आ धमके....फिर जब साढ़े पांच बजे के करीब उन के चंगुल से छूटा तो विविध भारती पर कबीर, रहीम और तुलसी दास जी के दोहे सुनाए जा रहे थे ...उस के बाद तो सोने का मतलब ही न था...

कबीर, रहीम, तुलसीदास जी के दोहों में इतनी कशिश है कि एक बार सुनने लगते हैं तो दिल भरता नहीं ....ऐसे लगता है कि एक के बाद एक आते ही जाएं। ज़िंदगी से जुड़ी इतने ज्ञान की बातें, इतने गूढ़ रहस्य को दो एक लाईनों के दोहे में समेट कर हमें दे कर चले गए ये रब्बी पुरुष ....यह तो आप को पता होगा कि श्री गुरु ग्रंथ साहिब में बहुत से जिन गुरुओं, पीरों, दरवेशों की वाणी दर्ज है ....उन में से कबीर जी और रहीम जी भी हैं .क...

कबीर जी और रहीम जी की याद करें तो हमें अपने स्कूल की हिंदी की किताबें याद आ जाएंगी (अगर हिंदी पढ़ने की हम ने कभी परवाह की हो तब...) जिनमें कबीर जी और रहीम जी के दोहों का भी एक पाठ हुआ करता था .....एक  चैनल पर अब जावेद अख्तर एक एक दोहे की व्याख्या करते हैं...बहुत बढि़या लगता था यह प्रोग्राम....लेकिन इस के लिए एक अलग से एक सब्सक्रिप्शन लेनी पड़ती थी ......हमारे स्कूल के मास्टरों ने तो हमें बिल्कुल फ़ोकट में एक एक दोहे को हमें रटा दिया, और इतने दिल से उन के अर्थ और भावार्थ हमें समझा दिए कि वे सब ता-ज़िंदगी के लिए हमारे साथ हो लिए....एक एक दोहे में ज़िदगी के इतने बड़े सबक लिख कर चले गए ये दरवेश, ये रब्बी लोग कि हम अगर उन में से एक दो बातें भी मान लें, अपने जीवन में उतार लें तो बात बन जाए....

अच्छा ये सब दोहे हमारे स्कूल के गुरुओं ने तो हमारे समझाए ही ...इन में से बहुत से हम अपने बड़े बुज़ुर्गों से भी सुनते आ रहे हैं....मुझे अच्छे से याद  है अगर पढ़ाई करते वक्त कोई पाठ याद न हो रहा होता तो मां अकसर वह वाली कहावत ज़रूर याद दिलाया करती ......करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान, रसरी आवत जावत ते सिल पर पड़त निशान ...(मुझे उम्मीद है मैंने इस के सभी शब्दों को सही लिखा होगा.....

इसलिए ये दोहे बहुत कुछ हैं....सीख तो हैं ही ....पथ-प्रदर्शक भी हैं, गिरते हुए को थाम लेने की ताकत रखते हैं ....सब से बड़ी बात बेहतरीन किस्म के रिमाईंडर हैं.....मैंने भी कबीर जी, रहीम जी और तुलसीदास के दोहों की कम से कम बीस किताबें तो अब तक ज़रूर खरीदी होंगी ...लेकिन अगर ढूंढने लगूं तो एक भी नहीं मिलेगी...मुझे इन की ये किताबें इतनी आकर्षक लगती हैं कि कहीं भी दिख जाएं तो खरीद लिया करता था ....

और तो और रिमाईंडर की बात करूं तो सुबह विविध भारती पर दोहे सुनते वक्त यह ख़याल भी आ रहा था कि शायद 15-20 सालों से मेरी आदत रही है कि अगर मुझे कोई भी दोहा या कथन कहीं पर अच्छा सुनने को मिलता है तो मैं उसे किसी नोटबुक में या किसी डॉयरी में लिख लेता हूं ....बस, लिखने ही से वह अपना सा लगने लगता है ....बाद में कभी वह नोटबुक या डॉयरी कितने अरसे बाद दिखेगी....यह कोई भरोसा नहीं....एक डॉयरी हो तो कोई संभाल कर रखे, जहां डॉयरीयां ही डॉयरीयां हों , वहां कौन रखे हिसाब इन का .....बस,  इतना इत्मीनान ज़रूर होता है कि हां, लिखने से वह बात थोड़ी याद सी हो जाती है....निदा फ़ाज़ली साब के दोहे भी मैंने किसी नोटबुक में लिख रखे हैं....एक लिंक यह भी रहा ...

कबीर जी हों या हों रहीम जी....इन की वाणी हमें बार बार सुनाई देती ही रहती है....मैं पाठकों को यह बताना चाहूंगा कि उर्दू ज़ुबान में एक बहुत बढ़िया रिवायत है कि बैंतबाजी के दौर चलती है ...यानी के छोटे बड़ों सभी में शेरो-शायरी का मुकाबला चलता है ....जैसे हम लोग अंताक्षरी न खेलते थे ...बस, उसी तरह ही ...लेेकिन यहां बात शे'र के ज़रिए करनी होती है ...मैं जब लखनऊ में था तो ऐसे कईं तरह के प्रोग्रामों का पता चलता रहता था...एक दो बार गया भी था...मैं लिखते वक्त सोच रहा हूं कि इन दोहों को लेकर भी स्कूलों -कॉलेजों में प्रोग्राम होने चाहिए ....जहां तक मुझे याद आ रहा है इस तरह का एक ही प्रोग्राम हुआ था एक फिल्म में जिसने ऐसी धूम मचा दी कि अभी भी हम उसे ही सुन रहे हैं.... यह रहा अखियों के झरोखों से फिल्म के उस गीत का लिंक ...नीचे एम्बेड भी कर रहा हूं लेकिन कईं बार एम्बेडिंग डिज़ेबल की होती है किसी कंपनी ने ....

ज्ञान तो ठूंस ठूंस कर भरा ही रहता है इन रब्बी लोगों की बातों में, दोहों में ....हर बात एक से बढ़ कर एक ...लेकिन कुछ बातें ऐसी होती हैं जो हम अल्पज्ञों के दिल में सीधा उतर जाती हैं...उन को हमें कहीं लिख लेना चाहिए....बिना मांगे मशविरा दे रहा हूं...क्योंकि मैं ऐसा अकसर करता हूं ...लिखने के चक्कर ही में वे याद रह जाते हैं....याद रहने भर से ही बात कहां बनेगी, प्रवीण बाबू, उन को ज़िंदगी में भी उतार के देख, खुद को समझा लेता हूं ...लेकिन चंचल मन कहां इतनी आसानी से .......

पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ...पंडित भया न कोए...

ढाई आखर प्रेम के पढ़े सो पंडित होए....


आज तो हमें इतनी सुविधा हो गई है कि हम लोग यू-ट्यूब पर कुछ भी देख-सुन सकते हैं....एक और दोहा याद आ गया....

शब्द सम्हारे बोलिए, शब्द के हाथ न पांव ...

एक शब्द औषध करे, एक करे घाव ....

अब आप देखिए इतनी अच्छी बातें इतनी सहजता से हमारे तक पहुुंचा दी गई कि इन को समझने में कौन सी राकेट-साईंस का ज्ञान हमें चाहिए....आए दिन हम देखते हैं कि बोलचाल से दंगे हो जाते हैं और अच्छी वाणी एक अचूक दवाई का भी काम कर गुज़रती है ......लेकिन बात वही है कि हम सुनें तो पहले किसी दूसरे की ....आज की पीढ़ी कया कहते हैं उसे जैन-ज़ी या अल्फा....उन के पास तो बातें ही नहीं हैं करने के लिए....बिल्कुल भी नहीं हैं....ये दोहे, कहावतें, लोकोक्तियां, लोक गीत तो बहुत दूर की बाते हैं....

ये दोहे सदियोंं का ज्ञान हम तक पहुंचाते हैं....और इन में दर्ज सारी की सारी बातें शाश्वत सत्य हैं.....लिखते लिखते कईं बातें उमड़ घुमड़ कर याद आने लगती हैं ....जैसे इसरार कर रही हों कि हमें भूल गया ....लिख हमें भी ....😀....कबीरवाणी एक पोथी तो मिलती ही है....कबीर जी के दोहे उसमे संकलित हैं....आज से बारह-तेरह बरस पहले मैं कलकत्ता गया ....2013 में ...एक दिन शाम को किसी बाग के पास से गुज़र रहा था तो देखा कोई सत्संग-कीर्तन चल रहा था ...मैं भी वहां चला गया .... खुले में चल रहा था प्रोग्राम ....उन्होंने मेरा भी स्वागत किया ...मैं वहां बैठ गया और अगले डेढ़ दो घंटे कबीर जी की वाणी सुन कर मंत्र-मुग्ध होता रहा....मैंने वहां से कबीर जी की कुछ किताबें भी खरीद लीं...किसी चंदे की उगाही नहीं कर रहे थे, किताबें खरीदने के लिए आग्रह नहीं कर रहे थे ....बस, वे कबीरवाणी का पाठ कर रहे थे ....अभी सोच रहा हूं कि इस शहर में भी ज़रूर कोई ऐसी ग्रुप होगा, कोशिश करता हूं जु़ड़ जाऊं उन से ....अभी तो कौन सा देर हो गई है.....जैसे मैं अकसर कहता हूं ....जब जागो तभी सवेरा....

अच्छा, एक बात और है ....इन रब्बी लोगों की तो वाणी दर्ज है ही ...सदियों सदियों के लिए....पत्थरों पर लिखी इबारत की तरह ...लेकिन प्रेरणा हमें कहीं से भी मिल सकती है ...ये जो फिल्मी गीत हैं, उन में से कुछ ऐसे हैं जो एक गीत नहीं हैं, वे भी किसी बीमार को तंदरुस्त कर दें, उसमें जीने की तमन्ना पैदा करने की कुव्वत रखते हैं, हारे हुए को फिर से  उठ कर कोशिश करने का पैगाम देते हैं ....

उसी तरह बडे महान् शायर हैं, कवि हैं...जो अपने शब्दों को घोल कर ऐसा रुह-अफ़ज़ा तैयार करते हैं कि क्या कहें.....ऐसे लगता है सुनते ही जाएं.....मुझे दस साल पुरानी अपनी एक नोटबुक में यह सब दिख गया...आप भी देखिए....लिखा तो और भी बहुत कुछ है उसमें लेकिन आखिर कितना कोई साझा करें ....










एक फिल्मी गीत ....




मेेरे खयाल में बंद करूं अब इस पोस्ट को ....बात लंबी हो गई है ...सुबह कबीर और रहीम जी के दोहे सुन कर जो खुशी मुझे मिली, मैं उस खुशी को आप सब तक पहुंचाना चाहता था ...बात तो इतनी सी थी, लेकिन इतनी लंबी चल पड़ी ..... 

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