गुरुवार, 18 दिसंबर 2008

हर कागज़ बहुत कुछ कह देता है –

इस समय मेरे सामने एक दिल्ली के बहुत ही मशहूर मैडीकल विशेषज्ञ का पर्चा पड़ा हुआ है --- यह एक A-4साइज के पर्चे का फोटोस्टैट है जिसे मैंने अपने एक मरीज़ से मांग लिया था। मैंने भी इस तरह का पर्चा लाइफ़ में पहली बार ही देखा था--- आप भी सोच रहे होंगे कि ऐसी भी क्या मरीज़ को बीमारी थी कि मुझे उस में इतनी दिलचस्पी हुई कि मैंने उस की फोटोस्टैट ही अपने पास रख ली। लेकिन बात दरअसल मरीज़ की बीमारी की नहीं थी – यह तो बात ही कुछ और थी ।

हां तो उस पर्चे की खासियत यह थी कि उस के फ्रंट का लगभग 75 फीसदी हिस्सा ( शायद यह 70 फीसदी हो सकता है, लेकिन इस से कम तो कतई नहीं !!)- तो पद्मश्री एवं पद्मविभूषण डाक्टर साहब ने ही घेर रखा था – इस में डाक्टर साहब के बारे में पूरी सूचना छपी हुई थी --- तीन चार पंक्तियों में डिग्रीयां, और फिर 25-30 लाइनों में उन जगहों के नाम लिखे हुये थे जहां पर उन्होंने पहले काम किया है –अगली सात-आठ लाइनों में अवार्ड्स की चर्चा थी, फिर था Please note का शीर्षक था जिन ने 10-15 लाइनें घेर रखी थीं जिन में कुछ पंक्तियों में यह लिखा था –
Home visits Not undertaken मरीज़ को घर देखने नहीं जाया जायेगा।
Punctuality is not assured समय के अनुपालन का कोई वायदा नहीं है।
Appointments can be cancelled at short notice. अपवायंटमैंट को किसी भी समय रद्द किया जा सकता है।

अगली 10-15 लाइनों में लिखा हुआ है कि डाक्टर साहब के पास किस किस संस्था की फैलोशिप है- और आगे बारी आती है उन संस्थाओं के नाम की जिन के लाइफ-मैंबरशिप डाक्टर साहब ने ले रखी है। यह तो हो गया, उस पेज का पचास प्रतिशत हिस्सा ।

शेष 25 फीसदी हिस्सा उन सभी क्लीनिकों के बारे में बता रहा होता है जहां जहां डाक्टर बाबू जाया करते हैं।
बस, यार मेरा सिर दुखने लग गया है इतनी बारीक जानकारी पढ़ते पढ़ते --- लेकिन चलिये उन के पैड की पिछली साइड को भी देख लें --- उस का लगभग 30 फीसदी हिस्सा भी कुछ हिदायतें देता है और मरीज़ों को यह कह कर भी डराता है कि किसी किस्म की ज़िम्मेदारी नहीं होगी ----बिल्कुल वैसा लग रहा है जैसा हिंदी के अखबार में विज्ञापनों के बीचों बीच एक नोटिस रहता है कि विज्ञापनों के बारे में हमारी कोई जिम्मेदारी है नहीं – और हां, उसी पेज़ पर एक विस्तृत नक्शा भी बना हुआ है कि किस तरह इन डाक्टर महोदय के पास पहुंचा जा सकता है। चलिये, मरीज़ की सहूलियत के लिये यह भी ठीक है लेकिन उसे देख कर किसी शादी के कार्ड पर किसी बारात-घर तक पहुंचने का नक्शा ज़रूर ध्यान में आ गया।

जिस मरीज़ का यह पर्चा था ( वह खुदा को प्यारा हो चुका है – मुझे उसे देख कर बहुत खुशी होती थी – अस्सी के आस पास था लेकिन एकदम फिट एंड फाइन दिखता था – मैं उस को अकसर कहा करता था कि आप तो बिल्कुल रिटायर्ड जज दिखते हो- वह बहुत हंसता था। एक बार मैंने उसे कहा कि अब की बार दिल्ली जब अपने डाक्टर को मिलने जाओगे तो उस से यह भी पूछ कर आना कि क्या उन्होंने हार्ट की बीमारी से बचाव के कोई पैंफलैट छपवाये हुये हैं तो उस ने मुझे कहा कि डाक्टर साहब, मैं कोशिश करूंगा ---क्योंकि सभी मरीज़ उस से बहुत डरते हैं ----उस के साथ केवल मतलब की एक-दो बात ही करनी होती है, वरना वह बहुत भड़क जाता है । उस के बाद मैंने उस डाक्टर के बारे में उस से कोई बात ही कभी नहीं की, बस यह उस का यह नुस्खा मेरे पास धड़ा-पड़ा है, और शायद मैं किसी डाक्टर का इतना रोचक पैड फिर कभी देख न पाऊं।

यह तो हो गई उस दिल्ली वाले डाक्टर की और मेरे मरीज़ की राम-कहानी – लेकिन इस के माध्यम से मैं बात केवल इतनी ही रेखांकित करना चाह रहा हूं कि हर कागज़ बहुत कुछ कहता है ----इतना कुछ कि मैं शायद ब्यां करने में असमर्थ हूं – ऊपर उदाहरण तो आपने देख ही ली – लेकिन चलिये लिखावट की भी बात कर लेते हैं ----हम किसी को कोई चिट्ठी भेजते हैं तो हमारी लिखावट ही बहुत कुछ हमारे व्यक्तित्व के बारे में बता देती है।
यहां तक कि कागज़ किस किस्म है यह भी बहुत कुछ बता देता है कि लिखने वाला जिसे लिख रहा है उस की नज़रों में उस की क्या हैसियत है । याद आ गया ना कि प्रेमी-प्रेमिका किस तरह से खत लिखने के लिये नये नये राइटिंग पैड मार्कीट में ढूंढा करते हैं।

पेपर की क्वालिटी भी बहुत कुछ कहती है --- जहां पर हम लोग बिल्कुल लापरवाही से लिखते हैं हम कोई भी कागज़ इस्तेमाल कर लेते हैं, वरना हम लोग कागज़ के बारे में बहुत सचेत होते हैं ।

किसी शादी के कार्ड की प्रिंटिंग, उस का पेपर भी बहुत कुछ बोलता है और हां, तरह तरह के विजिटिंग कार्ड भी अपने मालिक के बारे में कितना कुछ कह जाते है।

बात केवल इतनी सी है कि हमारा लैटर पैड, हमारे हाथ का लिखा खत, हमारा विज़िटिंग कार्ड, हमारे द्वारा भेजा किसी को आमंत्रण, आदि कुछ ऐसे दस्तावेज़ हैं जो कि हमारे ब्रांड- अम्बैसेडर हैं ----लेकिन अकसर लोग इन को इतनी गंभीरता से लेते नहीं – और कुछ भी चला लेते हैं ----लेकिन हमेशा याद रखिये कि हर कागज़ हमारे बारे में बहुत कुछ बोलता है ---- ठीक उस गाने की तरह जिस के बोल हैं -----लाख छिपाओ छुप न सकेगा , राज़ यह दिल का गहरा, दिल की बात बता देता है, असली नकली चेहरा।

वैसा पता नहीं ऐसा करना चाहिये कि नहीं, लेकिन मैं इन छोटे छोटे कागज़ी कलपुर्ज़ों के आधार पर ही किसी भी आदमी का थोड़ा बहुत चरित्र-चित्रण कर लेता हूं --- वैसे मुझे खुद पता नहीं कि मैंने आज इतनी बड़ी ढींग कैसे हांक दी है !!

रविवार, 14 दिसंबर 2008

स्कूल में मूंगफली खाने पर प्रतिबंध कितना उचित ?

सोचने की बात है कि ब्रिटेन में अगर स्कूल में मूंगफली खाने पर भी बैन लग जायेगा तो देर-सवेर उस का प्रभाव कहीं हमारे स्कूलों में भी तो नहीं देखने को मिलेगा ---क्योंकि हम लोग अकसर उन देशों की नकल करने में कभी भी पीछे रहते नहीं हैं।

हम लोग तो अकसर मूंगफली को गरीब के बादाम के नाम से जानते हैं – और यह प्रोटीन प्राप्त करने का एक बहुत उम्दा स्रोत है और लगभग 25-30 प्रतिशत प्रोटीन होता है मूंगफली में। और हमारे देश में तो धूप में बैठ कर इस का सेवन करने से तो मज़ा ही बहुत आता है। स्कूल क्या , यहां तो सर्दी की रुत में बस जहां देखो मूंगफली खाते लोग मिलते हैं --- पार्क में, गाड़ी में, सिनेमा में .....।

ब्रिटिश मैडीकल जर्नल के 12 दिसंबर के संस्करण में स्कूलों द्वारा अपने स्कूलों को मूंगफली रहित घोषित किये जाने के निर्णय की चर्चा की है। हुआ यह है कि मूंगफली एवं अन्य खाद्य पदार्थों से होने वाले एलर्जी के केस बढ़ रहे हैं , इसलिये स्कलों ने मूंगफली को बैन करने का ही निर्णय कर डाला है।

लेकिन विशेषज्ञों ने इस मुद्दे को उठाया है कि इस तरह से नट्स पर बैन लगाने से तो एक हिस्टीरिया सा ही पैदा हो जायेगा और जो बच्चे नान-एलर्जिक हैं उन का तो नट्स से एक्पोज़र ही नहीं हो पायेगा- हारवर्ड मैडीकल स्कूल के प्रोफैसर क्रिसटैकिस ने कहा है कि जो बच्चे छोटी उम्र में मूंगफली खाना शुरू कर देते हैं उन में पी-नट्स ( मूंगफली) से होने वाली एलर्जी के केस कम होते हैं।

इस तरह का जो हिस्टीरिया पैदा किया जा रहा है उस का एक उदाहरण देते हुये प्रोफैसर ने कहा है कि इस का आलम यह है कि 10 साल के बच्चों से भरी एक बस में जब मूंगफली का एक दाना नज़र आ गया तो सारी बस ही खाली कर दी गई।

अमेरिका में 33 लाख लोगों को नट्स से एलर्जी है – लेकिन फिर भी इन की वजह से किसी सीरियस रिएक्शन होने का अंदेशा बहुत कम है।

आप इन आंकड़ों से ज़्यादा परेशान न होइये, क्योंकि हमारे यहां यह समस्या लगती नहीं है और अगर है भी तो हम इस तरफ़ कभी ध्यान ही नहीं देते, हमारे पहले ही से इतने ज़्यादा सेहत से संबंधित मुद्दे हैं कि इस मूंगफली वगैरह के बारे में कौन ज़्यादा सोच कर अपना समय खाली-पीली बर्बाद करे। वैसे भी हम लोगों ने कभी इस तरह की मूंगफली की एलर्जी से होने वाले केसों में बारे में सुना नहीं है ----या यूं कहें कि हमारे यहां पर न तो इस के बारे में अवेयरनैस ही है और न ही इस तरह की डॉयग्नोसिस के कोई साधन ही ज़्यादा प्रचलित हैं।

वैसे भी मुझे नहीं लगता है कि हम लोग किसी को मूंगफली खाने से मना करें और वे इसे खाना बंद कर दें ---- और सोचने की बात है कि आखिर हम लोग ऐसा करने को किसी को कहें ही क्यों, इस देश में बच्चों और बड़ों के लिये प्रोटीन पाने का एक बहुत ही बढ़िया स्रोत है यह मूंगफली ।

स्कूलों द्वारा मूंगफली बैन किये जाने की बात तो हो गई। कईं स्कूलों में तो जंक-फूड को भी बैन किया जा चुका है। अगर हमें किसी तरह की नकल ही करनी है तो यही करनी होगी कि देश के सारे स्कूलों में जंक-फूड पर पूरी तरह से बैन कर दिया जाये।

स्कूलों में उपलब्ध जंक-फूड( बर्गर, हाट-डाग, पेटीज़, समोसे, ब्रैड-पकोड़े, चिप्स, भुजिया, बिस्कुट, चामीन......ये सब जंक-फूड ही तो हैं ) .... बिस्कुट भी अगर एक-दो दूध चाय के साथ खा लिये जायें तो अलग बात है लेकिन अगर खाने की जगह पर पूरे पूरे पैकेट ही खाने का चलन है तो यह बेहद खतरनाक आदत है ---सेहत खराब करने का श्यूर-शॉट फार्मूला।

हर देश की अपनी राष्ट्रीय समस्यायें होती हैं ---मेरे विचार में इस देश की एक बहुत बड़ी विकट समस्या है कि यहां पर स्कूल-कालेज के बच्चे स्कूल में टिफिन ले जाना अपना अपमान समझने लगे हैं और कुछ हद तक जाने-अनजाने में इस को मां-बाप की स्वीकृति भी प्राप्त हो चली है। किसी पेरेन्ट को यह पूछो कि क्या बच्चा स्कूल या कालेज में खाना लेकर जाता है तो यही जवाब मिलता है कि आजकल बच्चे कहां खाना वाना लेकर जाते हैं ,वहां पर कैंटीन में ही कुछ खा लेते हैं , सब कुछ मिलता है।

ठीक है, सब कुछ मिलता तो है, लेकिन सब जंक ही मिलता है, फूड-हाइजीन का कोई ध्यान रखा नहीं जाता और नतीजा यह निकलता है कि इन बच्चों को भविष्य में होने वाली बीमारियों की नींव पड़नी शुरू हो जाती है। सुबह बच्चे जल्द बाजी में नाश्ता करते नहीं है, और स्कूल में लंच ले कर जाने से उन्हें बेहद शर्मिंदगी महसूस होती है, और शाम तक भूखे-प्यासे क्लास में बैठे रहते हैं ----इस हालत में इन की क्या कंसैंट्रेशन बनती होगी !!
और जंक-फूड थोड़ा खा भी लिया तो उस से किसी तरह की एनर्जी मिलने के स्थान पर एनर्जी का ह्रास ही होता है और इस परिस्थिति में ढंग से पढ़ाई में मन लगाना बेहद मुश्किल काम होता है। मैं उस से बड़ा मूर्ख किसी को नहीं समझता जो स्कूल-कालेज में टिफिन नहीं ले कर जाता --- और जो मां-बाप भी इस में बच्चों का साथ देते हैं मुझे उन से भी बेहद शिकायत है ---क्योंकि आप भी अपने बच्चों की सेहत बिगाड़ने के लिये जिम्मेदार हैं ----वैसे तो मैं भी इस में शामिल हूं ---- क्योंकि मेरा कालिजेएट बेटा भी टिफिन लेकर जाना अपनी सब से बड़ी बेइज्जती समझता है ----और मैं इस के बारे में कुछ कर नहीं पा रहा हूं ---बस, इतना इत्मीनान है कि डाक्टर मां-बाप होने की वजह से जंक-फूड के बारे में उस की इतनी ज़्यादा ब्रेन-वाशिंग हो चुकी है कि कालेज में जंक-फूड खाता नहीं है। लेकिन सोचता हूं कि यह भी कैसा इत्मीनान है --- सुबह नाश्ते करने के बाद शाम के पांच बजे तक भूखा रह कर वह अपनी सेहत ही बिगाड़ रहा है, लेकिन क्या करें ---- सब कुछ अपने हाथ में कहां होता है ? –जो देश के अन्य करोड़ों युवाओं का होगा, वह उस का भी हो जायेगा, और क्या !!

स्कूल ही क्यों, किसी भी कार्यालय में चले जायें -----किसी भी समय पर चाय के साथ जो जो खाद्य़ पदार्थ वहां पर उपलब्ध रहते हैं --- उन की लिस्ट सुनिये ----बर्फी, बेसन की बर्फी, समोसे, ब्रेड-पकोड़े, चामीन, पकौड़े( भजिया), रसगुल्ले, गुलाब-जामुन – ऐसा नहीं लगता कि वे किसी कार्य-स्थल पर नहीं वरना किसी बारात में आये हुये हैं -----वहां पर मिलने वाला सब कुछ शरीर को बीमार करने वाला ही है, लेकिन सुनता कौन है , इस का यह मतलब भी तो नहीं कि मैं चिल्लाना बंद कर दूं ----मुझे अपना काम तो करना ही है !!

और हां, मूंगफली वाली बात को एक कान से अगर अंदर डाल भी लिया है तो दूसरे से तुरंत निकाल बाहर करें -----धूप निकल आई है और मूंगफली लेकर कर बाहर बैठ जायें -----सारी बातें औरों की मान लेनी कहां की अकलमंदी है !! अगर बैन ही करना है तो स्कूलों से जंक फूड का खात्मा करें ----ताकि सब विद्यार्थी घर का खाना लाने के लिये मजबूर हो जायें ---फिर किसी को किसी तरह की बेइज़्जती महसूस भी न होगी।

सोमवार, 8 दिसंबर 2008

क्या आप भी नईं दवाईयों से ज़्यादा इंप्रैस होते हैं ? -----लेकिन थोड़ा संभल कर !!

जिस तरह से नईं दवाईयों को अमेरिकी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन द्वारा थोड़ी जल्दबाजी में मान्यता ( अपरूवल) रूपी हरी झंडी कभी कभार दिखा दी जाती है और उस के तुरंत बाद संबंधित कंपनियों के द्वारा जितने अत्यंत आधुनिक तरीकों के द्वारा इन दवाईयों की मार्केटिंग की तूफ़ानी मुहिम चलाई जाती है उसे देखते हुये यह आवाज़ भी उठनी शुरू हो गई है कि इस से काफ़ी मरीज़ों को उनके खतरनाक दुष्परिणाम झेलने पड़ सकते हैं। बेहतर होगा कि इन्हीं अत्य-आधुनिक तरीकों का इस्तेमाल मरीजों को इन दुष्परिणामों से बचाने के लिये भी किया जाए।
यूनिवर्सिटी ऑफ कॉलोरेडो- हैल्थ साईंसिस सेंटर के डा डेविड काओ के अनुसार अमेरिकी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन के नये तौर-तरीकों ( procedures) की वजह से कुछ दवाईयों को हरी झंडी दिखाने में जल्दबाजी दिखाई गई है।

एक उदाहरण के तौर पर बताया गया कि किस तरह से सूजन के इलाज के लिये इस्तेमाल की जाने वाली एक कंपनी की दवाई रोफीकाक्सिब ( anti-inflammatory drug Rofecoxib) को दी गई मंज़ूरी को 2004 में दो करोड़ मरीज़ों पर टैस्ट करने के उपरांत वापिस इस लिये लेना पड़ा क्योंकि उस दवाई के हार्ट पर बुरे असर देखने को मिलने लगे।

ब्रिटिश मैडीकल जर्नल में डा काओ ने लिखा है कि जब से 1992 प्रेसक्रिपशन ड्रग यूजर फीस एक्ट के अंतर्गत कंपनियों द्वारा फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन को अपरूवल में जल्दी करने को कहा जाता है ---तब से ही किसी नई दवाई का रिव्यू करने हेतु ( time needed to review a new drug) एफडीआई द्वारा जो समय लिया जाता था उस में अच्छी खासी कमी आई है --- 1979-86 तक यह अवधि 33.6महीने हुआ करती थी लेकिन 1992-2002 के दौरान यह घट कर 16 महीने रह गई है।

सोचने की बात यही है कि अगर ऐसा हो रहा है तो आखिर यह किस के हित में है ?

एक बात विशेष ध्यान देने योग्य यह है कि दवा कंपनियों से जो इस तरह की फीस वसूली जाती है इस से जितनी रकम जमा होती है यह एफडीआई के ड्रग टैस्टिंग बजट का लगभग आधा हिस्सा ( 43%) इसी रकम से ही जमा हो पाता है। और ब्रिटेन में तो इस तरह का काम कर रही सरकारी एजेंसी के 75%फंड इसी तरह की फीस से जमा होते हैं।

क्या आप को लगता है कि यह दवाईयों की सेफ्टी के हक में है ?

होता अकसर यह है कि नईं दवाईयों को कुछ हज़ार लोगों पर टैस्ट किया जाता है ओर इन्हें अप्रूवल की हरी झंडी मिल जाती है, लेकिन इन दवाईयों के ऐसे साइड-इफैक्ट्स जो इतने आम तौर पर दिखते नहीं हैं, इसलिये इन के बारे में पता तभी चलता है जब इन्हें बहुत से मरीज़ों पर इस्तेमाल किया जाता है – इसे पोस्ट-अप्रूवल सरवेलेंस( post-approval surveillance) कहा जाता है --- कहने का मतलब यही कि किसी दवा को हरी झंडी तो मिल गई लेकिन जब उसे हज़ारों-लाखों लोग इस्तेमाल कर रहे हैं तो उन का उस के साथ कैसा अनुभव रहता है इन सब की निगरानी को ही post-approval surveillance कहा जाता है। अब देखने में यह आता है कि यही सरवेलेंस बडी कमज़ोर पड़ी हुई है।

डायबिटिज़ में इस्तेमाल होने वाली एक दवा सिटैगलिप्टिन को उस की खोज होने के बाद एफडीआई का अप्रूवल लेने में लगभग चार वर्ष( 3.8 वर्ष) लगे , उसी प्रकार सूजन के लिये नईं दवा राफीकोक्सिब ढूंढने के बाद उसे फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन का अप्रूवल लेने में पांच साल लगे जब कि 1990-99 के दौरान इस तरह की अप्रूवल लेने के लिये औसतन चौदह साल ( 14.2 वर्ष) से भी ज़्यादा का समय लग जाया करता था।

रिपोर्ट के अनुसार जैसे ही दवा सिटैगलिप्टिन को अप्रूवल मिला उस की जबरदस्त मार्केटिंग तुरंत ही शुरू हो गई – अप्रूवल मिलने के 90 मिनट के अंदर इस दवा की वेबसाइट शुरू हो गई और अगले आठ दिनों में जितने डाक्टरों को इस से अवगत करवाया जाना था उन में से 70 प्रतिशत डाक्टरों को कवर भी कर लिया गया और फार्मेसियों को इस की पहली डिलीवरी भी कर दी गई। डा. काओ का कहना है कि इस का यह मतलब नहीं है कि इस दवाई से मरीज़ों को खतरा है ---लेकिन यह तो एक जबरदस्त तूफ़ानी मार्केटिंग की एक उदाहरण है और विशेष बात यही है कि पोस्ट-अप्रूवल सरवेलेंस के लिये भी इन आधुनिक मार्केटिंग तकनीकों को इस्तेमाल किया जाना चाहिये।
शिक्षा ----- तो इस कहानी से हमें क्या शिक्षा मिलती है , देखते हैं !!

जब हम लोग मैडीकल कॉलेज में पढ़ा करते थे तो अपने बहुत सीनियर डाक्टरों के पर्चे देख कर बहुत हैरान हुआ करते थे ---अधिकांश तौर पर बस हम लोग यही सोचा करते थे कि जितना पुराना डाक्टर उतना ही पुराना उस का नुस्खा। कईं बार शायद हम लोगों के मन में यह भी विचार आ जाया करता था कि फलां फलां सीनियर डाक्टर को तो बस पुरानी दवाईयों के ही नाम याद हैं। और हमारा ज़माना जब आया हाउस-जाब का तो अकसर जिस कंपनी का मैडीकल –रैप कुछ पैड-पैन या कोई कैलेंडर या कोई बढ़िया सा छल्ला दे जाता था, दो चार नईं नईं दवा के सैंपल टेबल पर रख जाया करता था , हम अकसर उन दिनों उन नईं दवाईयों से बहुत इंप्रैस हो जाया करते थे। और शायद अगले दो-चार दिनों तक उस की दवाई की कुछ पर्चियां भी लिख देते थे। कईं बार तो अगर कोई मरीज़ थोड़ा बहुत नखरा करता था ( यह नखरा शब्द भी बीस साल पहले ही हम लोग इस्तेमाल कभी कभी कर लिया करते थे -----अभी हम लोग भी कच्चे डाक्टर हुआ करते थे ) तो हम लोग उसे 18-20 रूपये वाली टेबलेट लिख दिया करते थे।

लेकिन फिर धीरे धीरे जब हम पकना शुरू होते हैं तो हमें हमारा अनुभव ही सब कुछ सिखाने लगता है ---जैसे कि मैं पिछले 25 सालों से दांत के एबसैस के लिये केवल और केवल शायद 99 प्रतिशत केसों में कैप्सूल अमोक्सीसिलिन और साथ में सूजन और दर्द के लिये आइबूब्रूफन और पैरासिटामोल ही लिखता हूं और मेरे 95 प्रतिशत मरीज़ों की पस इसी से सूखती है और मैं आगे उन का इलाज कर पाता हूं ----अब इन पच्चीस सालों में इतने हायर ऐंटीबायोटिक्स आये, इतने नये नये दर्द निवारक टेबलेट और सूजन को कम करने वाले साल्ट आये लेकिन मैंने कभी इन को आज़माने का ज़रूरत इसलिये नहीं समझी क्योंकि मैं अपनी दोनों दवाईयों से बेहद संतुष्ट हूं ---मरीज ठीक होते हैं और साइड-इफैक्ट्स भी बेहद कम !!

हां, तो इस लेख से मिलने वाली शिक्षा की बात हो रही थी ----वह यही है कि कभी भी यह मत सोचा करें कि नईं दवाईयां हैं तो वे पुरानी तकलीफ़ों के लिये वरदान हैं-----हो सकता है कि ऐसा न हो, कंपनियों ने तो अपना राग अलापना ही है लेकिन जैसा कि हमने ऊपर लेख में देखा कि कुछ नईं दवाईयां अभी केवल हज़ारों या लाखों लोगों ने ही इस्तेमाल की होती हैं , इसलिये इन की सेफ्टी प्रोफाइल इतनी क्लियर नहीं हो पाती। इसलिये ज़रा बच कर चलने में ही बचाव है।

अगर आप का ब्लड-प्रैशर किसी ऐसी टेबलेट से कंट्रोल में है जो कि आप बीस साल से ले रहे हैं या आप की शूगर किसी बहुत पुरानी दवा से कंट्रोल में है तो ठीक है , तो नईं नईं दवाईयों के चक्कर में क्या पडना। हां, कईं बार कुछ मैडीकल कारण हो सकते हैं आप की पुरानी दवा को चेंज करके या उस के साथ साथ कोई नया साल्ट शुरू करने के---लेकिन अच्छे मरीज़ की तरह कृपया आप कभी भी अपने चिकित्सक को किसी नईं दवा का नाम लेकर यह मत कहें कि क्या वह मेरे लिये ठीक रहेगी -----इस से डाक्टरों को बड़ी चिड़ मचती है ---- तो, जब अपने आप को चिकित्सक को सौंप ही दिया तो वह वही करेगा जो हमारे हित में होगा।

रविवार, 7 दिसंबर 2008

धूप सेंकते हो तो बचे रहोगे हार्ट-अटैक से !!

मुझे यह जान कर बेहद हैरत हुई कि अमेरिका जैसे देश की भी लगभग आधी व्यस्क जनसंख्या और लगभग 30 प्रतिशत बच्चे एवं किशोर विटामिन-डी की कमी से ग्रस्त है। बहुत अरसे से देख रहा हूं कि विटामिन-डी के स्वास्थ्य पर होने वाले अच्छे प्रभावों के बारे में बहुत काम हो रहा है।

लेकिन यूं भी लगने लगा है कि हम ने अपनी सेहत की शायद ज़रूरत से ज़्यादा ही कंपार्टमैंटलाइज़ेशन कर डाली है। आज दोपहर बाज़ार से आ रहा था तो एक गाजर जूस वाले ने बड़ा सा बोर्ड लगा रखा था --- आंखों के लिये लाभदायक !!--- समझने की यह बात है कि यह गाजर का जूस केवल आंखों के लिये ही लाभदायक है --- इस तरह के मैसेज जब लोगों को मिलते हैं तो वे तरह तरह की बेबुनियाद अपेक्षायें करने लग जाते हैं ---जैसे कि इसे पीने से मेरी बेटी का चश्मा उतर जायेगा, शायद मेरा मोतिया बिंद अपने आप ही बिना आप्रेशन के ही ठीक हो जायेगा, .....और भी तरह तरह की अपेक्षायें।

तो क्या यह मान लें कि यह सब कुछ गाजर का जूस पीने से नहीं होगा ---- मेरे ख्याल में तो नहीं ----हां , अगर विटामिन ए की कमी की वजह से आंखों में कुछ तकलीफ़ है तो उस में ज़रूर राहत मिल सकती है लेकिन उस के लिये भी केवल जूस कुछ नहीं करेगा --- साथ में दवाईयां तो लेनी ही होंगी। बिल्कुल ठीक उसी तरह जिस तरह खून की कमी (अनीमिया) में केवल महंगा अनार का जूस पी लेने से कुछ नहीं होगा ---इलाज के लिये ऑयरन की गोलियां तो लेनी ही होंगी।

तो क्या गाजर जूस पीयें ही नहीं ? --- नहीं, नहीं , आप अवश्य पीयें और जितना चाहें पियें ----क्यों कि तरह तरह के जूस तो हमारे शरीर के लिये अमृत का काम करते हैं ---- सब से हैरतअंगेज़ बात यह है कि इन जूसों में कुछ इस तरह के विचित्र तत्व भी मौजूद होते हैं जिन का तो अभी तक वैज्ञानिक भी विश्लेषण नहीं कर पाये हैं।

बस, बात केवल इतनी सी है कि जहां तक हो सके होलिस्टिक ( holistic) अप्रोच अपनायें ----सारा दिन यह हिसाब रखना कि यह आँख के लिये बढ़िया है ,यह गुर्दे के लिये, यह हार्ट के लिये -----अच्छा खासा मुश्किल काम है ---- केवल और केवल इतना ध्यान रखना होगा कि हमारा खाना संतुलित हो और सादा हो ---इस संतुलित खाने के द्वारा हमें सब कुछ ही प्राप्त हो जाता है ।

वापिस अमेरिकी लोगों में विटामिन-डी की कमी की तरफ़ लौटते हैं --- मेरा विचार यह है कि वहां पर लोग विभिन्न कारणों की वजह से सूर्य की रोशनी से वंचित रह जाते हैं -----मैंने सुना है कि कईं कईं जगह तो कितने कितने दिन धूप ही नहीं निकलती – और जहां धूप होती भी है कि सफेद स्किन वाले अमेरिकी तरह तरह के सन-स्क्रीन लोशन लगा कर के बाहर निकलते हैं ---- शायद वहां तो धूप का इस्तेमाल टैनिंग ( सफेद स्किन को धूप में लेट कर थोड़ा ब्राउन सा करना) के लिये ही इस्तेमाल होता है। और यह भी कारण होगा कि गगनचुंबी इमारतों में सारा दिन बिताने वाले लोगों तक कहां सूर्य की इतनी रोशनी पहुंच पाती होगी।

नईं रिसर्च से पता चला है कि विटामिन-डी की कमी से हार्ट अटैक एवं स्ट्रोक ( दिमाग की नस फटना) का खतरा बढ़ जाता है। वैसे तो पहले भी बहुत से अध्ययनों से इस बात का पता चल चुका है कि विटामिन-डी की कमी का हार्ट अटैक, ब्लड-प्रैशर, डायबिटीज़ और रक्त की नाड़ियों के सख्त होने से संबंध है।

जिस रिपोर्ट को मैंने आज पढ़ा है उस में लिखा गया है कि जिस व्यक्ति में विटामिन – डी का स्तर रक्त के एक मिलीलिटर में 15 नैनोग्राम से कम है उन लोगों में अगले दो वर्षों में हार्ट अटैक, स्ट्रोक और दिल की किसी बीमारी से जूझने का रिस्क उन लोगों की तुलना में दोगुना है जिन में यह स्तर 20 नैनोग्राम है।

लेकिन मेरी एक बात ज़रूर मानिये ----कृपया इस लेख को पढ़ कर अपने आप ही विटामिन-डी का स्तर चैक करवाने का मूड मत बना लीजिये ---कहीं ऐसा न हो कि मैं ही इस सेहत की कंपार्टमैंटाइज़ेशन को प्रमोट करता दिखूं। बस, विटामिन डी की उचित खुराक लेने के लिये क्या करना है , यह ध्यान रखिये ---इस के बारे में हम अभी चर्चा करते हैं।

विटामिन डी को सनशाइन विटामिन भी कहा जाता है अर्थात् सूर्य की रोशनी वाला विटामिन ----- क्योंकि हमारी चमड़ी सूर्य की रोशनी के प्रभाव में ही इस विटामिन डी को तैयार करती है। विशेषज्ञों का कहना है कि सुबह 10 से तीन बजे बजे के बीच केवल 10 मिनट की सूर्य की रोशनी सफेद चमड़ी वाले लोगों के लिये काफी है जब कि डार्क कलर की चमड़ी वाले लोगों को इस सूर्य की रोशनी की कुछ ज़्यादा मात्रा चाहिये होती है। सन-स्क्रीन लोशन से भी विटामिन डी पैदा करने में रूकावट पैदा होती है।

रिपोर्ट के अनुसार लोगों को सूर्य की रोशनी के लाभ एवं हानियों को बैलेंस कर लेना चाहिये--- इस में आगे कहा गया है कि बस थोड़ी बहुत सूर्य की रोशनी अच्छी है लेकिन अगर आप को 15 से तीस मिनट तक रोज़ाना सूर्य की रोशनी में रहना होता है तो चमड़ी के कैंसर से बचाव के लिये सनस्क्रीन का इस्तेमाल करना महत्वपूर्ण है ।

कुछ खाद्य पदार्थ जैसे कि सालमान( salmon) और गहरे पानी वाली मछली ---( मैंने भी बस इस salmon का नाम ही सुन रखा है – डिक्शनरी में देख लेना कि यह है क्या ---मुझे लगता है कि कोई नॉन-वैज चीज़ ही होगी ----और मैं ठहरा शुद्ध शाकाहरी !!!) और दूध जिस को विटामिन डी से सप्लीमैंट किया गया हो ।

यह स्टडी बाहर देश की है ना इसलिये हमारी जटिल परेशानियों से शायद ये लोग वाकिफ़ नहीं हैं ----- यहां तो भई दूध की विटामिन डी सप्लीमैंटेशन की क्या बात करें ----हमें तो यह ही नहीं पता कि हम लोग पी क्या रहे हैं ----क्या वह सही में दूध ही है या सिंथैटिक दूध है ? और साथ में रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि हमें रोज़ाना जितना विटामिन डी चाहिये होता है अगर हम उसे केवल दूध से ही प्राप्त करना चाहें तो हमें दस से बीस गिलास दूध के पीने होंगे । और दोस्तो, ध्यान रहे ये 10-20 गिलास तो शुद्ध दूध की बात बाहर के देशों वालों ने कर दी और अगर हम सब कुछ मिलावटी खाने के लिये मजबूर हैं तो शायद हमें 40-50 गिलास तो दूध के पीने ही होंगे ----- क्या यह प्रैक्टीकल है ? लगता है कि दूध पीने के अलावा सब काम काज ही छोड़ देना होगा।

वैसे हमारी विटामिन डी की दैनिक आवश्यकता है ---पचास वर्ष की उम्र तक 200 इंटरनैशनल यूनिट्स, पचास से सत्तर वर्ष तक 400यूनिट्स तथा 70 वर्ष के ऊपर 600यूनिट्स । और रिपोर्ट में कहा गया है कि इस स्तर तक पहुंचने का एक रास्ता है कि विटामिन-डी का सप्लीमैंट ही ले लिया जाये। और इस के बेहद पुख्ता प्रमाण हैं कि विटामिन डी से हमारा स्वास्थ्य उत्तम होता है।

अब ज़रा हम लोग अपने यहां पर नज़र दौड़ायें ----मैं सोचता हूं कि जो लोग बड़े शहरों एवं महानगरों में रहते हैं और सूर्य की रोशनी का उन की लाइफ में कोई स्थान नहीं है, या यूं कह लें कि सनसाइन को वे अपनी लाइफ में फटकने तक नहीं देते ----तो कुछ तो उन्हें भी इस के बारे में सोचना होगा। अगर बिल्कुल ही यह सूर्य की रोशनी लाइफ में आ ही नहीं रही तो प्लीज़ अपने फ़िजिशियन से विटामिन-डी सप्लीमैंटेशन के बारे में बात करें ----बेहतर होगा।

सूर्य की रोशनी हमारे लिये कितनी लाभदायक है ---इस का एक उदाहरण देखिये। शायद आपने नोटिस किया हो कि कुछ लोग अपनी फुल बाजू की शर्ट हमेशा नीचे कर के रखते हैं ----मैंने कईं बार नोटिस किया है कि जब किसी कारण वश उन्हें अपनी शर्ट ऊपर करने को कहा जाता है तो उन की बाजू में सेहत नहीं झलकती ---बाजू बिलकुल पीली सी दिखती है लेकिन जिस व्यक्ति की बाजू नियमित धूप के प्रभाव में आती है उस की बाजू का थोडा भूरा रंग, उस की चमक ही अलग होगी । अन्य चीज़ों के साथ साथ यह सब विटामिन डी का ही कमाल है।

ठीक है अमीर मुल्कों ने इतने वैज्ञानिक टैस्ट करने के बाद यह अब बताना शुरू किया है कि विटामिन डी हमारी सेहत के लिये नितांत आवश्यक है लेकिन अपने यहां तो हज़ारों सालों से ही सूर्य नमस्कार करने की अद्भुत परंपरा रही है। और उस समय सूर्योदय के समय वाली सूर्य की किरणें हमारे शरीर के लिये बहुत उपयोगी होती हैं।

वैसे भी इस देश में लोग बहुत धूप सेंक लेते हैं ----- छोटे बच्चों के बिना कपड़े के धूप में लिटा कर उस की मालिश करने की बहुत अच्छी प्रथा है, मुझे ध्यान आ रहा है कि कभी कभी ज़्यादा ठंडी में हमारी क्लासें स्कूल की छत पर लगा करती थीं----बहुत अच्छा लगता है लेकिन पता नहीं हमारे मास्टर जी क्यों इतना डरे हुये हुआ करते थे, मज़ूदर और किसान धूप में ही काम करते रहते हैं -- - इन के लिये गर्मी क्या और सर्दी क्या--- इसलिये कुछ लोगों को तो अधिक धूप से बचने की ज़रूरत है क्योंकि वैसे भी प्रदूषण की वजह से जो ओज़ोन लेयर का सुरक्षा कवच पहले मौज़ूद था अब वह क्षीण हो चुका है और प्रतिदिन बदतर होता जा रहा है।

ध्यान कीजिये --- सुबह की रोशनी गर्मी के मौसम में हमारे लिये काफी है –सुबह से मतलब है सूर्य उदय होने के बाद जो ठंडी ठंड़ी रोशनी होती है ----और उस रोशनी को जहां तक संभव हो सके शरीर के ज़्यादा से ज़्यादा हिस्सों पर सीधा पड़ने दें ----देखिये आप को कितना अच्छा महसूस होगा ----- कुछ समय पहले मैं गर्मी के दिनों में प्राणायाम् सूर्योदय के समय उसी दिशा की तरफ़ आसन लगा कर किया करता था ---आज सोच रहा हूं कि गर्मी के अगले मौसम में इसे फिर से शुरू करूंगा। गर्मी के मौसम में बाकी दिन तो हमें सूर्य की रोशनी से अपना बचाव करनी ही है ----टोपी से, छतड़ी से , गीले रूमाल से ...कैसे भी !!

मैं सोच रहा हूं कि जो आज कल की ठंडी में धूप का मज़ा लेते हैं उन्हें कुछ भी सलाह देने की क्या कोई ज़रूरत है -----है तो , और वह यही है कि ठीक है, आप लोग खूब कपड़े पहन कर धूप में लेटे तो रहते हो लेकिन थोड़ा यह भी ध्यान रखिये कि सूर्य की रोशनी में विटामिन डी को पैदा करने के लिये सूर्य की रोशनी हमारी चमड़ी पर 10-15 मिनट रोज़ाना पड़नी ही चाहिये ----सर्दी है तो भी आप मौसम के अनुसार अपनी दोनों कमीज की दोनों बाजू ऊपर चढ़ा लें, अगर संभव हो सके तो टांगों पर भी 10-15 मिनट तक सीधी धूप पड़ने दें। वैसे तो पहले लोग हर सप्ताह सर्दीयों में तेल मालिश करने के बाद धूप में 15-20 मिनट थोड़े कपड़े में बैठ जाया करते थे -----यह विटामिन डी वाली स्टडी पढ़ने के बाद आप का उन सब पुरानी बातों को शुरू करने के बारे में क्या ख्याल है, सोचियेगा।

सूर्य की रोशनी का हमारी लाइफ में इतना रोल है कि दो-चार दिन ही जब सूर्य देवता दर्शन नहीं देते हम कैसे डिप्रैस से फील करना शुरू कर देते हैं ---और जैसे ही सूर्य दिखता है हम सब के चेहरे खिल उठते हैं ---- यही कारण है कि विटामिन डी को सनशाइन विटामिन भी कह दिया जाता है।

प्लीज़ इस लेख में लिखी बातों की तरफ़ ध्यान दीजिये---विटामिन डी हमारे लिये बेहद लाज़मी है और ऐसा अकसर होता नहीं है कि हम केवल अपने खाने से ही इसे प्राप्त कर लें ----इसलिये सूर्य की रोशनी की तो अनमोल भूमिका है ही ---लेकिन अगर किसी कारण वश सूर्य की रोशनी आप के नसीब में है ही नहीं तो प्लीज़ अपने फिजिशियन से इस के रैगुलर सप्लीमैंटेशन के बारे में बात ज़रूर कर लें। वैसे मैं भी कल अपने फिज़िशियन से इस के बारे में बात करने वाला हूं।

रविवार, 23 नवंबर 2008

मुझे नेट पर हिंदी लिखना किसने सिखाया ?-हिंदी ब्लागिंग में एक साल --थैंक्स गिविंग !!



ब्लागिंग करते करते एक साल हो गया .....सोच रहा हूं कि बढ़िया टाइम-पास है...जो भी मन में है लिख कर हल्कापन महसूस होने लगता है। पहले अखबारों के लिये लिखा करता था लेकिन जब से नेट पर लिखना शुरू किया पता नहीं कभी भी अखबार में कभी भी कोई लेख भेजा ही नहीं ----पता है इस का क्या कारण है ?---न ही टका वहां मिलता था और न ही यहां मिलता है , लेकिन यहां यह संतुष्टि है कि हम लोग अपनी मर्जी के मालिक हैं ---जो चाहा, लिख लिया, और बंदा खुश।

अखबारों के लिये पहले लेख लिखो---फिर फैक्स करो, उस के बाद दो-तीन बार फोन कर के कंफर्म करो कि ठीक तरह से रिसीव हो गया है कि नहीं--- यह सब बहुत किया ---कईं साल किया ---खीझ खीझ कर किया ---लेकिन इस के इलावा अपनी बात जनमानस तक पहुंचाने का कोई रास्ता नहीं मिल रहा था। और उस समय तो बहुतत ही चिढ़ हुआ करती थी जब अखबार के दफ्तर में काम कर रहा कोई बारहवीं पास या अंडर-ग्रेजुएट छोरा लेखों को इवैल्यूएट किया करता था - बस, जैसे तैसे समय पास हो रहा था ----पिछले साल नवंबर के महीने की 15-20 तारीख के आसपास एक संपादक ने मुझे हिंदी लेख ई-मेल के माध्यम से भेजने के लिये कहा था।

मेरी बेटे से बात हुई ----उस ने दो-चार दिन में बड़ी मेहनत करने के बाद पता नहीं कहां से यह पता कर के मुझे बता दिया कि Alt +Shift दबाने से हिंदी लिखी जा सकती है, ऐसे ही हिंदी में ई-मेल भेजी जा सकती है यह भी उसने ही मुझे बतलाया और फिर पता नहीं कहां से रविरतलामी जी के हिंदी ब्लाग का पता उस ने ही ढूंढ निकाला ---उन के ब्लाग से पहली बार जाना कि हिंदी में भी ब्लागरी हो रही है ......बस, दो चार दिन हैरान होने के बाद 21 नवंबर 2007 को ब्लाग पर पहली पोस्ट ठेल ही दी। चूंकि मुझे इन्स्क्रिप्ट टाईपिंग का पिछले कईं सालों से अभ्यास था तो नेट पर हिंदी लिखने में कोई दिक्कत नहीं हुई । ब्लागवाणी और चिट्ठाजगत जैसे हिंदी ब्लाग ऐगरीगेटरों के बारे में भी मुझे बताने वाला विशाल ही है।

तो मेरे इस हिंदी ब्लागिंग में घुसने का पूरा श्रेष्य मैं अपने बेटे विशाल को देता हूं ---तब वह +2 में पढ़ रहा था लेकिन फिर भी मेरे हर प्रश्न का जवाब देने के लिये सदैव तत्पर रहता था ---कईं बार तो अपनी पढ़ाई छोड़ कर मेरे पास बैठ जाता था ---आज कल वह कंप्यूटर इंजीनियरिंग कर रहा है -----( नहीं, नही, डाक्टरी नहीं, उस की कभी इस में रूचि ही नहीं थी ) ----मुझे कुछ पता नहीं था कि इमेज़ कैसे डालना है ब्लाग में, यू-टयूब से लिंक कैसे डालने है और इस के साथ साथ और भी बहुत सी बातें जो उस ने मुझे बतलाई। इस दौरान कईं बार तो इरीटेट भी हुआ खास कर उस समय जब मैं उस के इंटरनैट टाइम पर एनक्रोच कर जाता था ----- गर्मी खा कर बहुत बार यह भी कह देता है कि पापा, देख लेना मैं किसी दिन आप का गूगल एकाऊंट ही उड़ा दूंगा ----और यह बात तो बहुत बार कह चुका है कि पापा, मैं तो पछता रहा हूं उस दिन को जिस दिन मैं आप को यह बता बैठा कि हिंदी ब्लागिंग नाम की भी कोई चीज़ है। खैर, एक दो मिनट के बाद अपनी कही हुई बात भूल जाता है।

थैंक-यू विशाल

कुछ बातें जो मैंने नेट पर आ कर सीखी है वह यह है कि ब्लागिंग करने से मन हल्का हो जाता है -----यह एक बढ़िया स्ट्रैस-मैनेजमैंट है -----और जब ब्लाग लिखना शुरू किया था तो कोई एजैंडा था नहीं ----बस अपने आप ही एक बात से दूसरी बात निकलती गई। यहां तक कि एक पोस्ट लिखते वक्त भी कुछ खास मन में होता नहीं ----बस लिखते लिखते कलम अपने आप चल निकलती है।

ब्लॉग का असर ------ आज कल अखबारों में कईं बार आप एक कॉलम देखते हैं ना ----खबर का असर। ठीक उसी प्रकार आज मैं ब्लाग का असर बता रहा हूं -----मैंने कुछ महीने पहले एक पोस्ट लिखी थी कि मोटापा कम करने का सुपरहिट फार्मूला ------इस में मैंने अपने खान-पान के बारे में विस्तार से लिखा ----इस पोस्ट पर कुछ कमैंट्स मिले और वैसे भी पोस्ट लिखते लिखते ही मैं अपने खाने पीने के तौर-तरीके देख कर डर सा गया और उसी दिन से पूरा परहेज़ करना शुरू कर दिया और इसी चक्कर में चार-महीनों में लगभग आठ किलो वज़न कम हो गया---इसलिये हल्कापन महसूस होने लगा है।

मुझे याद है हमारे गुरू जी ब्रह्मषि श्री ऋषि प्रभाकर जी अकसर यही कहते हैं कि किसी विद्या को जीवित रखने के लिये या उसे जीने के लिये सब से बढ़िया है कि तुम उस को दूसरों को सिखाना शुरू कर दो -----दूसरों को पढ़ाना शुरू कर दो ----वे कहते हैं कि इस ज्ञान को दूसरों के साथ बे-धड़क हो कर बांटने का मतलब है कि तुम जितनी बार भी कोई बात किसी से कह रहे हो उतनी ही बार अपने आप से भी तो कह रहे हो ---इसलिये वह बात तुम्हें भी पक्की हो जाती है। इसी चक्कर में मेरे खान-पान में सुधार हुआ है और मैंने प्रातःकाल का भ्रमण शुरू कर दिया है -----अब तो मुझे केवल यह जानने की उत्सुकता हो रही है कि क्या आपने यह सब करना शुरू किया है कि नहीं ----कम से कम नमक का इस्तेमाल तो कम कर ही दिया होगा। चलिये, अच्छा है , खुश रहें, स्वस्थ रहें ----यूं ही लगे रहिये।

गुरुवार, 20 नवंबर 2008

क्या आप जो दूध पी रहे हैं उस की क्वालिटी के बारे में आश्वस्त हैं ?

हो ही नहीं सकता कि आप ने कभी मेरी तरह इसे टैस्ट करवाने की या इस की उत्तमता जानने की रत्ती भर कोशिश भी की हो। बस, यहां वहां नकली सिंथैटिक दूध, मिलावटी दूध की खबरें देख-पढ़ कर थोड़ा सा डर लिये, सहम गये ( और हर बार यही सोच कर बेफिक्र हो गये कि अपना रामू काका तो पिछले 35 सालों से आ रहा है , इस के दद्दू के ज़माने से ) ----बस हो गई अपनी ड्यूटी पूरी .... क्योंकि तभी अपने मोटर-साइकल ब्रांड दूध वाले ने घंटी दे दी । और साथ में ही पड़ा है आज का अखबार जिस से हम ने न्यूक्लियर समझौते के बारे में और भी गहराई से जानना है-----दूध के बारे में सोचने की अभी किसे फुर्सत है !!

इस पोस्ट में लिखे जाने वाले दूध के बारे में मेरा विचार एकदम पर्सनल हैं ---इसलिये कृपया इन्हें इसी ढंग से लें। बचपन से देख रहे हैं कि दूध की उत्तमता जानने का एक तरीका जो हिंदोस्तानी घरों में बहुत इस्तेमाल होता है वह यही है कि अंगुली को दूध में डुबो के देखा जाता है जैसे कि यह कोई गोल्ड-स्टैंडर्ड टैस्ट हो।

दूसरा, हमारे यहां दूध को उबालने के बाद कितनी मलाई आती है ---यह भी देश की करोड़ों महिलायों के लिये सत्संग के पंडाल में पीछे बैठ कर विचार-विमर्श करने लायक एक बहुत हॉट टॉपिक होता रहा है और आज भी है। ये भोली महिलायें आज तक यह नहीं जानतीं कि मलाई की मात्रा किसी दूध की उत्तमता की कोई गारंटी नहीं है-----कम से कम मैं तो ऐसा ही सोचता हूं क्योंकि सिंथैटिक दूध में और मिलावटी दूध भी मलाई तो अच्छी खासी आ जाती है।

इस मिलावटी दूध की वजह से शायद आप लोग इतना परेशान नहीं होंगे क्योंकि आप ने तो अपने परिवार के लिये ही यह निर्णय लेना होता है लेकिन मुझे एक आठ-दस के बच्चे का हाथ थामे उस सीधी-सादी मां को यह कहना बहुत अजीब सा लगने लगा है कि इस को दूध पिलाया करो। और विशेषकर के बिना दूध के स्रोत को जाने तो यह काम और भी मुश्किल लगता है। पिछले कुछ हफ्तों से तो मीडिया में दूध के बारे में जो कुछ पढ़ा है, उस ने तो और भी डरा दिया है।

इस पोस्ट के ज़रिये किसी तरह का पैनिक क्रियेट करना मेरी मंशा नहीं है----लेकिन जब कभी मन को हिला देने वाली खबरें दिख जाती हैं तो आम पब्लिक के स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिये मन बहुत कुछ सोचने तो लगता है लेकिन लाख सोचने के बाद भी इस लंबी सी पोस्ट के इलावा आज तक तो कुछ हाथ लगा नहीं।

अभी अभी मैं यह सोच रहा था कि हमारे विज्ञानिक इतने चोटी के हैं कि उन्होंने हमें चन्द्रमा तो दिला दिया लेकिन अफ़सोस इस बात का बहुत ही ज़्यादा है कि हम लोग एक आम-आदमी को आज तक यह नहीं बता पाये कि यह जो दूध तुम बच्चे को पिला रहे हो......क्या यह शुद्ध है, मिलावटी है, मिलावट किस चीज़ की है, या फिर है ही सिंथैटिक !

कुछ दिन पहले मेरी मुलाकात एक बुजुर्ग महिला से हुई जो पिछले पचास सालों तक भैंसों-गायों का दूध बेचने का काम करती रही हैं। और उस की एक बात मेरे को हमेशा याद रहेगी कि गाय-भैंस का दूध तो जब उस के स्तन से निकल रहा है तब ही शुद्ध है।

मेरा बहुत दृढ़ विश्वास है कि हम लोग जिस दूध को इस्तेमाल कर रहे हैं उस के बारे में कुछ भी नहीं जानते----शायद हम भी कहीं दूध में मैलामाइन की मिलावट की दो-चार रिपोर्टों की इंतज़ार ही तो नहीं कर रहे।
हां, तो मिलावट से याद आया कि चार पांच दिन पहले REUTERS की साइट पर एक खबर दिखी कि झारखंड के एक स्कूल में मिलावटी दूध पिये जाने से छः बच्चों की मौत हो गई और साठ के करीब हास्पीटल में इलाज करवा रहे हैं। मुझे यह खबर अपने समाचार-पत्र में तो कहीं दिखी नहीं----शायद इसलिये कि ये सभी बच्चे आदिवासी थे ---शायद मीडिया के लिये इन आदिवासी बच्चों की मौत की खबर से कहीं ज़्यादा यह खबर थी कि इस दुनिया में सब से हसीं नितंब किस महिला के हैं ----जी हां, चार पांच दिन पहले एक न्यूज़ यह भी थी और तस्वीर के साथ ---Most beautiful bottom of the world!! अगर यह खबर ना भी होती तो उस की जगह पर दिल्ली के किसी बड़े स्कूल के एमएमएस कांड की फोटो की छोंक उसी पेज पर लगी होती। अब आदिवासी बच्चों की मिलावटी दूध की वजह से हुई मौत से रीडरशिप पर खाक असर पड़ना था ?

चीन से आने वाला पावडर दूध बहुत ज़्यादा मात्रा में आज कल नष्ट किया जा रहा है –अमेरिका में तो वे उन डेयरी उत्पादनों को नष्ट करते जा रहे हैं जिन में भी मैलामाइन की मिलावट का अंदेशा है । ज्ञात रहे कि पिछले दिनों चीन में मैलामाइन ( एक इंडस्ट्रियल कैमीकल) की पावडर-दूध में मिलावट की वजह से चीन में कुछ बच्चों की दुःखद मौत हो गई थी और बहुत से बच्चे गुर्दे की पथरी से होने वाली बीमारी से जूझ रहे हैं।

क्या आप को लगता है कि हमारे यहां बिकने वाला मिल्क पावडर एकदम शुद्ध होगा ---- इस का जवाब टटोल कर अपने पास ही रखिये, प्लीज़। वैसे इस पावडर दूध की खपत हमारे देश में बहुत ही ज़्यादा है---दरअसल इस की भी बहुत सी किस्में बाज़ार में उपलब्ध हैं और मुझे बताया गया है कि दूध की मिलावट के लिये उस पावडर-दूध का इस्तेमाल किया जाता है जो 80 रूपये किलो बिकता है। और इस एक किलो पावडर दूध से दस किलो दूध तैयार किया जाता है। और मैं समझता हूं कि इन ब्याह-शादियों में और बड़े बड़े समारोहों में सब कुछ इसी तरह के पावडर दूध से ही बना हुआ खाने के बाद ही हम इतना अजीब सा अनुभव करते हैं।

पहले कहा करते थे कि शादी-ब्याह में ज़्यादा खाना ठीक नहीं होता---बस दही-चावल लेकर ही बस कर लेनी चाहिये। लेकिन अब तो दही का एक चम्मच भी इन जगहों पर खाने की इच्छा ही नहीं होती -------केवल मन में इतना विचार ही आता है कि और कुछ भी हो यह शुद्ध दूध से बना हुआ नहीं हो सकता।

थोड़ी सी अपनी बात कहता हूं ----- बिल्कुल पर्सनली स्पीकिंग ----मैं घर से बाहर जब भी होता हूं तो ऐसी किसी भी चीज़ से बिल्कुल परहेज़ ही करता हूं जिस में दूध का इस्तेमाल हुआ हो। मेरी ऐसी सोच है ---बस वो पिछले तीन-चार में तरह तरह की अजीबो-गरीब रिपोर्टें देख कर बन चुकी है कि जब तो सिद्ध न हो, जो भी दूध बिक रहा है उस में गड़बड़ी है। कृपया नोट करें कि ये मेरे व्यक्तिगत विचार हैं और आप इन से कतई प्रभावित न हों----आप सच्चाई को अपने ढंग से खोजने की कोशिश कीजिये।

हां, तो मैं परहेज़ की बात कर रहा था ---वैसे तो मैं चाय का ही इतनी कोई ज़्यादा शौकीन हूं नहीं लेकिन मैं बाहर कहीं भी चाय पीने से गुरेज़ ही करता हूं क्योंकि उस चाय बेचने वाले से आप उम्मीद ही कैसे कर सकते हैं कि उसे अपने दूध की क्वालिटी का कुछ भी ज्ञान होगा या वह भी कुछ गोरख-धंधा नहीं करता होगा।

आगे आते हैं ---मिल्क प्राड्क्टस-----ये आइस-क्रीम, मिठाईयां, बाज़ारी पनीर, खोआ----- इन सब से एकदम नफ़रत सी ही हो चुकी है और इस के पीछे भी इस विषय पर दिखी अनगिनत रिपोर्टों का ही हाथ है।

बच्चे अकसर खुश होते हैं कि फलां-फलां ज्वाईंट पर सात रूपये में सॉफटी मिलती है-------मैं अकसर कहता हूं कि सात रूपये का दूध तो हम लोग जानते ही हैं कि कितना होता है तो फिर यह बड़ी सी साफ्टी आखिर जो सात रूपये में बिक रही है इस की शुद्धा कितनी होगी, कितनी नहीं राम जाने। मिठाईयां इसी चक्कर में मैं कभी नहीं खाता ----- बिल्कुल भी नहीं -----कुछ सालों से ही नहीं खाता था लेकिन जब से यह चीनी दूध की बातें सुनी हैं तो इन्हें बिल्कुल चखने का भी दुःसाहस नहीं कर पाता। मेरा पर्सनल अनुभव यही रहा है कि अगर हमें या अपने बच्चे को बीमारी की छुट्टी दिलानी हो तो किसी ब्याह-शादी में जाकर शाही पनीर का आनंद ले कर लौट आयें-----अगले दिन की छुट्टी लगभग पक्की !!

सात रूपये वाली साफ्टी का तो रोना रो लिया ---लेकिन उस का क्या करें जो दूध की कुल्फियां दो-दो रूपये में मैले-कुचैले थर्मोकोल में जगह जगह बिकती दिखती हैं। यह भी दूध तो नहीं हो सकता ----और क्या क्या है , इस की तो रिसर्च करनी होगी ----परसों मैं दिल्ली में भी देख रहा था कि ऐसे बीसियों कुल्फी-वाले लोगों को अपना माल बेधड़क, सरे-आम परोस रहे थे -----विचार तब भी यह आ रहा था कि क्या पब्लिक को गर्मी में गन्ने के रस के बारे में जागरूक करने के इलावा हमारे पास कोई विषय नहीं है !!

जो लोग किसी जगह पर एकदम शुद्ध बर्फी के मिलने की बात करते हैं उन्हें मैं हमेशा यही याद दिलाना चाहता हूं कि जितने में बर्फी का एक डिब्बा मिल रहा है, आप उतने पैसे में दूध,चीनी स्वयं उबाल कर देख लीजेये कि कितना वज़न आप के हाथ में आता है ----सो , यह शुद्ध बर्फी वाली बातें कोरी ढकोसलेबाजी ही हैं----शुद्ध बर्फी और वह भी आज के दौर में ---मैं तो यही सोचता हूं कि शुद्ध एवं नरम-नरम बर्फी वही थी जो हम लोग बचपन में पचास-सौ ग्राम किसी ऐसे हलवाई से लेकर खाया करते थे जो बेचारा सुबह से दूध की कडाही में कड़छी घुमा घुमा कर शाम तक पसीने से लथ-पथ हुआ करता था----और यह दो-तीन किलो बर्फी बनाने की सारी प्रक्रिया सब के सामने ही किया करता था और इतनी मेहनत करने का उसे बहुत गर्व हुआ करता था ------सच में बतलाइये कि अपने बचपन के दौर के किसी मशहूर हलवाई की याद आ गई ना ?----तो बढ़िया है उस की मिठाईयों का स्वाद हम सब से भी बांटिये।

मैं यह चाहता हूं कि देश का हर बंदा दूध एवं दूध उत्पादों की गुणवत्ता के बारे में सजग हो और सवाल पूछने शुरू करे। यही एक आशा है----वरना कोई बात नहीं, चलता है ,हम अकेले थोड़े ही हैं, करोड़ों लोग यही सब खा-पी रहे हैं.....ऐसी सोच नहीं चलेगी, दोस्तो। आप का आज पूछा हुआ सवाल आने वाले कईं वर्षों तक आप की और अगली पीढ़ी की सेहत का फैसला करेगा !!

इस विषय पर मैं भी बार बार इंटरनैट खंगाल लेता हूं और 3-4 वर्षों में इस विषय के बारे में पढ़ पढ़ कर जितना समझ पाया, जो इस विषय के बारे में अपना ओपिनियन बना पाया, उसे आप तक रख दिया ----सिर्फ़ एक राइडर के साथ ( शायद एक ज़रूरी फारमैलिटि के लिये ही !!) कि यह मेरे व्यक्तिगत विचार हैं -----आप अपने विचारों से हम सब को रू-ब-रू करवाइये।

जैसा कि मैंने ऊपर भी लिखा है कि हम डाक्टरों की समस्या और भी विकट इसलिये है क्योंकि हम लोगों को इस बात का ध्यान तो रखना ही होता है कि लोग जिस चीज़ का भी सेवन कर रहे हैं उस से उन्हें अवश्य स्वास्थ्य लाभ होना ही चाहिये ---और यह तो कतई बरदाश्त ही नहीं हो सकता कि फायदा-वायदा तो कुछ हुआ नहीं ---लेकिन बीमारियां ज़रूर मोल ले लीं। इसलिये कुछ मरीज़ों को जवाब देना बेहद मुश्किल हो जाता है कि क्या बच्चे को दूध पिलाने से उस की सेहत ठीक हो जायेगी !! हमें खुद ही नहीं पता कि दूध में आखिर कौन-कौन सी मिलावट है तो हम क्या जवाब दें ----इसलिये केवल इतना ज़रूर कह देता हूं कि दूध की गुणवत्ता पर विशेष ध्यान दें ---मात्रा पर नहीं।

पावडर से बने हुये दूध के बारे में आप भी सोचिये कि क्या उस को बनाने के लिये भी श्रेष्ठ दूध का ही इस्तेमाल हुआ होगा-----वैसे आप इस समय यही सोच रहे हैं ना कि अब तू बस कर, हमारी खटिया-चाय का समय हो रहा है , पहले ही से तूने इतना लिख दिया है कि हो न हो आज तो उस का स्वाद कड़वा ही लगेगा और उस कड़वाहट को झेलने के बाद तो हमें अपने दूध-वाले को शक की निगाहों से देखने पर मजबूर होना ही पड़ेगा।

बस, कुछ भी खायें, कुछ भी पियें, लेकिन अपना ध्यान रखियेगा। पिछले बड़े अरसे से ये सारी बातें, अपने विचार आप सब के साथ साझे करने के लिये व्याकुल हो रहा था, आज सुबह जल्दी जाग आ गई ( क्योंकि ठंडी लगने से ,छींकों से परेशान हूं !!) तो सोचा यही काम कर लेता हूं -----इतना लिखने के बाद हल्कापन सा महसूस हो रहा है---जुकाम में भी राहत लगने लगी है। सोचता हूं अब दो-एक घंटे के लिये सो ही जाता हूं, उस के बाद टहलने का समय हो जायेगा।

अच्छा तो दोस्तो, सुप्रभात !!....a very good morning to all of you !!
PS....मैंने यह पोस्ट लिखी तो कल 19नवंबर की सुबह सुबह लिखी थी ...लेकिन पोस्ट नहीं कर पाया ---कल से ब्राड-बैंड में कुछ तकनीकी खराबी थी ।

मंगलवार, 18 नवंबर 2008

साढ़े तीन लाख लोगों की कमर नापने के बाद ....

यूरोप में साढ़े तीन लाख लोगों पर एक स्टडी की गई है जिस से पता चला है कि अगर किसी व्यक्ति का बॉडी मॉस इंडैक्स ( body mass index) नार्मल रेंज में भी हो लेकिन उस की कमर का साईज बड़ा है तो भी उस का समय से पहले ही इस दुनिया से विदा लेने का रिस्क दोगुना हो जाता है। यह अध्ययन अमेरिकी मैगज़ीन न्यू इंगलैड जर्नल ऑफ मैडीसन में प्रकाशित हुआ है।

इस अध्ययन में इसी बात को रेखांकित किया गया है कि जिन लोगों का वज़न तो वैसे ज़्यादा है ( not overweight) और ही वे मोटापे (obesity) से ग्रस्त हैं, अगर इन में भी कमर के इर्द-गिर्द ज़्यादा चर्बी डेरा जमाये हुये है तो यह भी इन की सेहत के लिये एक अच्छा खास खतरा है। इस अध्ययन के शोधकर्त्ताओं ने यह सिफारिश की है कि लोगों का सामान्य चैक-अप करते समय डाक्टरों को उन का बॉडी मॉस इंडैक्स पता करने के साथ साथ उन की कमर एवं हिप्स का भी माप लेना चाहिये।

बहुत ही ध्यान देने योग्य बात यह है कि जब एक जैसे बॉडी मॉस इंडैक्स वाले लोगों की तुलना की गई तो पाया गया कि जैसे ही उन के कमर का घेरा बढ़ा, उन का समय से पहले इस जहां से उठने का रिस्क भी काफ़ी बढ़ गया। अध्ययन में बताया गया है कि छोटी कमर ( 80सैटीमीटर से कम पुरूषों में और 65 सैंटीमीटर से कम महिलाओं में) वाले लोगों की तुलना में बड़ी कमर ( 120 सैंटीमीटर से ज़्यादा पुरूषों में और 100 सैटीमीटर से ज़्यादा स्त्रीयों में) वालों में प्री-मैच्योर संसार से अलविदे करने का रिस्क दोगुना हो जाता है। बॉडी मॉस इंडैक्स से आम तौर पर हम लोग यह देखते हैं कि क्या आदमी का वज़न नार्मल है।

अध्ययन के अनुसार कमर के घेरे में प्रत्येक 5 सैंटीमीटर का बढ़ोत्तरी मृत्यु के रिस्क को पुरूषों में 17 फीसदी और महिलाओं में 13 फीसदी बढ़ा देती है।

और मृत्यु के इस बढ़े हुये रिस्क की वजह यह बताई जा रही है कि इस कमर के इर्द-गिर्द जमा हुई पड़ी चर्बी कुछ इस तरह के साइटोकाइन्स, हारमोन्स एवं मैटाबॉलिक तौर पर सक्रिय पदार्थ उत्पन्न करती है जिन की क्रॉनिक बीमारियां पैदा करने में बहुत भूमिका है और इन बीमारियों में खास कर हार्ट से संबंधित बीमारियां एवं कैंसर जैसे रोग विशेष रूप से शामिल हैं।

स्टडी का विशेष निष्कर्ष यह भी निकलता है कि किसी बंदे में प्री-मैच्योर मृत्यु के रिस्क को बढ़े हुये वजन के साथ साथ यह बात भी बेहद प्रभावित करती है कि आखिर यह चर्बी जमा शरीर के किस भाग में है।

सुबह सुबह मैं भी कितना फीका सा टॉपिक पकड़ कर बैठ गया ---आप तो बस फिक्र-नॉट की एक टैबलेट ले लें और इस के लिये ठीक इसी वक्त ब्लागिंग को केवल आधे घंटे के लिये विराम देते हुये अपने वाकिंग-शूज़ पहन कर टहलने निकल पड़िये । बाहर मौसम बहुत अच्छा है.....तो अभी भी आप कुछ सोच रहे हैं .......प्लीज़ उठिये और घर के बाहर आइए -----देखिये, मैं भी उठ रहा हूं !!

सोमवार, 17 नवंबर 2008

आंखो-देखी ---- मिलावटी खान-पान के कुछ रूप ये भी !!

मेरे ही तरह आप ने भी शायद सपने में भी यह नहीं सोचा होगा कि बाज़ार में बिकने वाले अनानास( पाइन-एप्पल) में भी मिलावट हो सकती है। मैंने कल दिल्ली में देखा कि तीन-चार रेहड़ीयों पर बहुत से लोग जमा हैं ----वहां पर लोग अनानास के पीस कटवा कर उन का लुत्फ़ उठा रहे थे।

अनानास के उन टुकड़ों का कुछ अजीब सा रंग---बिलकुल गहरा पीला सा- देख कर मेरे से रहा नहीं गया। मैंने रेहड़ीवाले से पूछ ही लिया कि अनानास का रंग कुछ अजीब सा लग रहा है। तब उस ने कहा कि इन फलों से मक्खी को दूर रखने के लिये इन पर रंग लगा हुआ है। एक बार तो यही सोचा कि जिस खाने पर मक्खीयां भी बैठना अपनी तौहीन समझती हों, उन्हें पब्लिक को परोसा जा रहा है।

मेरी खोजी पत्रकार वाली उत्सुकता यूं ही भला कैसे शांत हो जाती !—उस ने आगे बताया कि यह खाने वाला मीठा रंग है ---क्या आप लड्डू में, अमरती में, जलेबी में नहीं देखते कि यही रंग पड़ा होता है ?—कहने लगा कि एक शीशी को पानी की एक बाल्टी में घोल कर अनानास के स्लाईसिज़ को इस बाल्टी में बस डाल कर निकाल लिया जाता है ----बस, उन पर रंग चढ़ जाता है और मक्खीयां फिर इस के पास नहीं फटकती । पता नहीं मैं यह कैसे उस से पूछना ठीक नहीं समझा कि जलेबियों और अमरती से तो मक्खीयां भिनभिनाने से हटती नहीं, तो फिर यह माजरा क्या है !!

अपनी एक पोस्ट में मैंने लिखा था कि एक डाक्टर मित्र के छोटे बेटे के जब गुर्दे फेल हो गये तो सारी जांच की गई ---कुछ पता ही नहीं चल रहा था ---आखिरकार आल इंडिया इस्टीच्यूट ऑफ मैडीकल साईंसज़ के डाक्टरों को पता चला कि बच्चा तरबूज़ बहुत खाया करता था और उस में एक लाल-रंग ( red dye) का टीका लगा होने की वजह से उसे इन सारी तकलीफ़ों से दोचार होना पड़ा था। यह भी दिल्ली की ही बात है ।

मेरे दिल्ली लिखने का यह मतलब तो नहीं कि बाकी जगहें किसी तरह से इन से बची हुई हैं। कुछ दिन पहले हम लोग पानी-पूड़ी ( गोलगप्पे) खा रहे थे ---बहुत मशहूर दुकान है----अचानक एक हरे रंग का गोलगप्पा देख कर बहुत हैरानी हुई, हमने खाया तो नहीं , लेकिन दुकानदार ने बताया कि इस तरह के रंगीन गोल-गप्पे बनाने का हम एक्सपैरीमेंट कर रहे हैं।

जिस तरह का इन कृत्तिम रंगों का चलन चल निकला है ---यह बहुत ही चिंता का विषय है। कुछ हद तो इस से बचा जा सकता है अगर हम लोग इस के बारे में अपनी जानकारी बढ़ायें। बात गोल-गप्पों की हो रही तो अब उन में डलने वाला पानी भी कहां पहले जैसा रह गया है !

एक दिन अपनी श्रीमति जी से पूछ बैठा कि यह बाज़ार में बिकने वाला गोल-गप्पों का पानी कुछ अजीब सा स्वाद देने लगा है। चूंकि मैं इमली का भाव नहीं जानता था और न ही अभी भी जानता हूं तो श्रीमति ने सचेत किया कि अब ये लोग इस पानी को तैयार करने के लिये इमली-विमली कहां इस्तेमाल करते हैं ---इस के लिये ये टाटरी( ?tartaric acid----क्या टाटरी को ही टारटैरिक एसिड कहते हैं, मेरे ध्यान में नहीं है), और फ्लेवर्ज़, क्लर्ज़ और इसेंस (flavours , colours and essence) का ही इस्तेमाल करते हैं।

बंबई के उपनगरीय स्टेशनों के बाहर बड़े बडे टबों में बिकने वाली फलों के रसों का तो मैंने पहले एक बार खुलासा किया था लेकिन कल भी नोटिस किया कि जलजीरा भी कुछ इस तरह का ही बिक रहा था। लेकिन धूप से त्रस्त लोगों को खींचने के लिये इस धंधे के खिलाड़ी उस बड़े से मटके के बाहर एक गीला लाल कपड़ा लपेटने के साथ साथ पुदीने की कुछ टहनियां उस पर लगानी कभी नहीं भूलते ---ताकि हम सब को गुमराह किया जा सके। मैं समझता हूं कि जलजीरे का रैडीमेड पावडर बाज़ार में बिकता है ---अगर वे उस का ही इस्तेमाल कर रहे होते तो सुकून हो जाता, लेकिन मुझे यकीन है कि जितने गहरे रंग का ये रेहड़ीवाले यह जलजीरा बेचते हैं उस में हरा रंग तो अवश्य ही पड़ा रहता होगा ---बिल्कुल गोल-गप्पे के हरे पानी की तरह।

हां, तो बात शुरू हुई थी अजीब से पीले रंग के अनानास से---सोचने की बात यही है कि आखिर इन खोमचे वालों ने अब खाने-पीने की इतनी कोमल सी वस्तुओं को भी क्यों नहीं बख्शा----- यह बात तो उस की ठीक नहीं लगती कि केवल मक्खियों को दूर रखने के लिये ही इस रंग का इस्तेमाल किया जाता है। और उस की बात सच भी है तो यह बात गले से नीचे नहीं उतरती कि सभी खोमचे वाले इतने जागरूक हो गये कि हम सब की सेहत के लिये रोज़ाना 10-15 रुपये का रंग ही इस्तेमाल करने लग जायें। इसलिये इस बात की तो और भी बहुत संभावना है कि पीला रंग जो इस्तेमाल भी किया जाता हो वह बेहद चीप, सस्ता, चालू किस्म का , बिना किसी कंपनी की पैकिंग वाला, घटिया और सेहत के लिये और भी नुकसानदायक टाइप का होता हो।

मक्खियों की ये खोमचे-वाले इतनी परवाह करते कहां हैं----बस थोड़ी धूप-बत्ती जला कर काम चला लिया करते हैं, वरना एक बारीक सा जालीदार कपड़ा डाल देते हैं -----तो फिर क्यों रंग इस्तेमाल किया जा रहा है ----इस का कारण जो मुझे लगता है वह यही है कि एक तो ग्राहकों को अपनी माल की तरफ़ आकर्षित करने के लिये और दूसरा यह कि उस के इस गहरे पीले रंग के चड़ते उस के माल में छोटी मोटी खराबी किसी की नज़र में आये ही नहीं।

मैं आज कल इन कृत्तिम रंगों, फ्लेवर्ज़ आदि पर शोध कर रहा हूं ---- बाहर के देशों में तो इन के इस्तेमाल के बारे में लोग बहुत ही ज़्यादा सजग हैं और इन से संबंधित कानून भी बहुत कड़े हैं क्योंकि इन के अनियंत्रित इस्तेमाल से खतरनाक बीमारियां ---यहां तक कि कैंसर भी – दस्तक दे सकती हैं। इसलिये आमजन का यह सोचना कि ये तो मीठे कलर हैं ----अर्थात् खाने में इस्तेमाल किये जा रहे हैं, इसलिये बिना सोचे-समझे इन का जितना मन चाहे सेवन कर लिया जाए ----यह सोचना खतरे से खाली नहीं है।

लेकिन अफसोस इसी बात का है कि आम आदमी इस के बारे में ज़रा भी सचेत नहीं है। बंबई में रहते हुये हमारा एक संबंधी बम्बई-सैट्रल की एक दुकान से पिस्ते की बर्फी ले कर आया----अब पिस्ता इतना महंगा कि एक हज़ार के पिस्ते पिसने के बाद भी उतना बढ़िया रंग न दे पायें जितना उस पिस्ते की बर्फी का लग रहा था ---लेकिन स्वाद उस का इतना बेकार कि क्या लिखूं ----बिल्कुल बक-बका सा, पिस्ते के स्वाद जैसी कोई खास बात ही नहीं ----आज समझ आ रही है कि उस बर्फी में भी चंद पिस्तों के साथ साथ पिस्ते के रंग से मिलता जुलता हल्का हरा रंग ही पिसा होगा।

बस, भई अब किस किस चीज़ की पोल खोलें ---अपने यहां तो बस सबकुछ गोलमाल ही है---मुझे तो लगता है कि हम सब लोगों को बहुत जल्दी ही घर में बनी दो चपातियों, दाल-साग-सब्जी के इलावा इधर-उधर देखना भी खौफ़नाक लगेगा---इस में मेरा क्या दोष है ?--- जो देखा आप के सामने रख दिया ।

वैसे पता नहीं मेरा छोटा बेटे की हिंदी फिल्म गोलमाल रिटर्ऩज़ में इतनी रूचि क्यों है ---गोलमाल रिटर्नज़ ----अर्थात् गोलमाल लौट कर आ गया ----यहां तो दोस्तो दशकों से सब कुछ गोलमाल ही है , आज भी है और कल भी रहेगा, लौटता तो वही है जो कहीं चला गया हो ।

PS -- कल भी मैंने नोटिस किया कि लोग पाईन-एपल के स्लाईसिज़ पर भी खूब नमक लगवा कर खा रहे थे। केले को काट कर, शकरकंदी काट कर---इन सब खाध्य पदार्थों पर इतना इतना नमक लगवा के खाना हाई-ब्लडप्रैशर को एकदम खुला निमंत्रण है। इसलिये यह आदत जितनी जल्दी छोड़ सकें, उतनी ही बेहतर होगा।

मैडीकल तप्सरा ------------1.

समाचार है कि नाईज़ीरिया की मिलेटरी में पिछले पांच वर्षों में एच.आई.व्ही एवं एड्स के 94000 केस मिले हैं जिन में से सात हज़ार फौजी इस के दवाईयां भी ले रहे हैं।

क्या आप जानते हैं कि नीदरलैंड में मैजिक मशरूम भी मिलती हैं- चलिये कोई बात नहीं, क्योंकि वैसे भी नीदरलैंड ने इन पर एक दिसंबर से प्रतिबंध लगाने का फैसला किया है। वहां की स्वास्थ्य मिनिस्ट्री ने कहा है कि इन मैजिक मशरूम की वजह से इसे खाने वाले लोगों में अजीबोगरीब तरह के काल्पनिक ख्याल आने लगते हैं ( hallucinogenic effects) जिस से उस बंदे का बिहेवियर अटपटा सा और रिस्की हो सकता है। सूखी हुई मैजिक मशरूम को बेचना और अपने यहां रखना तो पहले ही से कानूनी तौर पर मना है। पिछले साल वहां पर एक 17साल की फ्रैंच टूरिस्ट ने इन्हीं मैजिक मशरूम को खाने के बाद एमसटर्डम के एक पुल से कूद कर जान दे दी थी--- वैसे अपने यहां भी तो हम लोग कभी कभी मीडिया में देख-सुन ही लेते हैं कि फलां फलां जगह पर जहरीली मशरूम खाने से इतने लोग अपनी जान गंवा बैठे ----इसलिये मशरूम तो ज़रूर खाइये, लेकिन इस बात का भी ध्यान रखिये।

महिलायें ज़रा ध्यान करें ---देश में जो महिलायें गर्भावस्था के दौरान उचित पोषण लेती हैं उन का प्रतिशत तो बेहद कम है, लेकिन अधिकतर महिलायें जो पर्याप्त मात्रा में उच्च स्तर का पोषण नहीं ले पाती हैं उन की संख्या बहुत ही ज़्यादा है और कुछ महिलायें हैं या उन के सगे-संबंधी हैं जो समझते हैं कि इस दौरान उसे खूब सारा मक्खन, देसी घी देना चाहिये । अच्छा तो खबर यह है कि न्यू-यार्क सिटी में चूहों पर किये गये एक अध्ययन में पाया गया है कि गर्भावस्था के दौरान ज़्यादा फैट्स लेने से गर्भ में विकसित हो रहे शिशु के दिमाग में कुछ इस तरह के स्थायी बदलाव हो जाते हैं जिन के कारण ज़िंदगी के शुरूआती दौर में उसे ज़रूरत से ज़्यादा खाने की लत लग जाती है जिस की वजह से इस शुरूआती दौर में ही उस का मोटापा बढ़ जाता है। इस अध्ययन को जर्नल ऑफ न्यूरोसाईंस में प्रकाशित किया गया है।

अमेरिका के सब से सेहतमंद शहर का नाम बतलाईये ----यह है बर्लिंगटन। वहां के लोग एक्सरसाईज़ भी खूब करते हैं, वहां पर मोटापा, डायबिटिज़ और खराब सेहत के अन्य इंडीकेटर्ज़ का प्रतिशत भी काफी कम है। वहां पर लोग साईकिल खूब चलाते हैं, हाईकिंग, स्कियिंग ( hiking and skiing) करते हैं और अधिकतर सेहतमंद खाना खाते हैं।

हलकाये हुये कुत्ते का डर क्यों लगता है ?---क्योंकि उस के काटने से या कुछ अन्य जानवरों के काटने से रेबीज़ नाम की बीमारी हो सकती है जो जानलेवा होती है। लेकिन एक बड़ी खबर यह है कि ब्राज़ील में एक 15 साल का लड़का जिसका रेबीज़ की बीमारी( जिस में दिमाग में सूजन आ जाती है) के लिये इलाज हुआ है , उस में सफलता हाथ लगी है। यह सारी दुनिया में रेबीज बीमारी के ठीक होने वाला दूसरा केस है -----बहुत अच्छी खबर है, हम लोगों में आस बंध गई कि हां, कुछ तो हो रेबीज़ का भी निकट भविष्य में हो ही सकता है। ध्यान रहे कि इस लड़के में रेबीज़ की बीमारी चमगादड़ के द्वारा काट लेने से हो गई थी और इसे एक महीने हास्पीटल में रहना पड़ा। पिछले 20 सालों में ब्राज़ील में रेबीज़ के 629 केस पाये गये।

बस एक माज़ा की दूरी है ---थोड़ी पागल पंथी भी ज़रूरी है ----इस विज्ञापन से याद आया ज़ोहरा सहगल जी का वह सुपरहिस्ट जबरदस्त विज्ञापन ---मैं तो जितनी बार भी यह विज्ञापन देखता हूं बहुत खुश हो जाता हूं क्योंकि मेरी निगाह में ज़ोहरा सहगल जी इस देश की सब से ज़हीन बुज़ुर्ग हैं। इस वक्त मुझे उन का ध्यान इस लिये आ गया कि क्योंकि आज कल यह रिसर्च चल रही है कि जो लोग 80 साल की उम्र के बाद भी बहुत ज़िंदादिल, खुशमिज़ाज और ज़हीन रहते हैं उन में और उन बुजुर्गों में आखिर क्या फर्क़ होता है जो बढ़ती उम्र के साथ अपनी यादाश्त खो बैठते हैं और इस रिसर्च से पता चला है कि जिन बुजुर्गों की यादाश्त एकदम अच्छी बनी रहती है उन में एक टाऊ (tau) नामक प्रोटीन के फाईबर-टाइप के उलझाव( fiber-like tangles of a protein linked with Alzheimer’s Disease)- कम होते हैं।

यूनाईटेड अरब एमेरिरेट्स (UAE) की सरकार ने यह फैसला किया है कि बच्चों को स्कूल में दाखिल करने पहले उन के रक्त एवं यूरिन की जांच की जायेगी। यह इसलिये किया जा रहा है ताकि छोटी उम्र में ही कुछ बीमारियों से बचने के उपाय कर लिये जायें। छोटे छोटे बच्चों में एनीमिया( खून की कमी), डायबिटिज़ और थैलेसिमिया रोग कईं वर्षों तक बिना किसी जांच के अपनी जड़े पक्की होने तक बढ़ता ही रहता है । प्रस्ताव के अनुसार ये टैस्ट पहले तो के.जी क्लास में दाखिले के समय, उस के बाद जब बच्चा पांचवी कक्षा में आयेगा और उस के बाद नवीं कक्षा में आने के बाद उस की यह जांच हुआ करेगी।

शनिवार, 15 नवंबर 2008

ट्रांस-फैट्स के इस्तेमाल से क्या हो जायेगा ?

समोसे, कचौड़ी, जलेबी, मठरी, बेकरी की वस्तुएं, बाजारी भटूरे, पूड़ियां......ये सब पदार्थ ट्रांस-फैट्स से लैस होते हैं – ये हमारे स्वास्थ्य के विलेन आखिर हैं क्या ? – ट्रांस-फैट्स का मतलब है हाइड्रोजिनेटेड फैट्स अर्थात् जिन वनस्पति तेलों में हाइड्रोजिनेशन प्रक्रिया के द्वारा हाइड्रोजन डाली जाती है। आप को याद होगा कि बहुत पहले ऐसे ही घी को घरों में भी अधिकतर इस्तेमाल किया जाता था और ये टिन के या प्लास्टिक के डिब्बों में आया करते थे ----अभी भी ध्यान नहीं आ रहा तो याद करिये जब बचपन में ऐसे ही एक डिब्बे के ढक्कन को खोलते हुये आप का हाथ कट गया था।

इस हाइड्रोजिनेशन प्रक्रिया के द्वारा तरल लिक्विड ऑयल मक्खन जैसा ठोस सा हो जाता है और इस प्रक्रिया के बाद इस के “खराब ” होने के चांस बहुत कम हो जाते हैं---लेकिन सब से महत्वपूर्ण बात जानने लायक यह है कि इस हाइड्रोजिनेशन प्रक्रिया के फलस्वरूप यह घी हमारी धमनियों ( रक्त की नाड़ी) के लिये मक्खन अथवा चर्बी जितना ही खतरनाक हो जाता है।

विज्ञानिकों ने बहुत पहले ही यह सिद्ध किया हुआ है कि इन ट्रांस-फैट्स की वजह से एल.डी.एल ( LDL – low density lipoprotein.... जिसे बुरा कोलैस्ट्रोल कहा जाता है)- का स्तर तो बढ़ जाता है लेकिन एच.डी.एल ( HDL- high density lipoprotein- जिसे अच्छा कोलैस्ट्रोल कहा जाता है) का स्तर घट जाता है जिस की वजह से हृदय रोग होने का अंदेशा काफ़ी बढ़ जाता है।

कुछ देशों में तो रैस्टरां में और बेकरी आदि में इन ट्रांस-फैट्स के इस्तेमाल पर प्रतिबंध ही लगा दिया गया है। अमेरिकन मैडीकल एसोसिएशन में मैडीकल डाक्टर और मैडीकल स्टूडैंट्स की संख्या दो लाख चालीस हज़ार है जिन्होंने ने यह फैसला किया है कि पहले तो वे लोगों को कहते थे कि उन्हें ट्रांस-फैट्स का इस्तेमाल कम करना चाहिये लेकिन अब तो वे इन के इस्तेमाल को बिलकुल न करने की सिफारिश कर रहे हैं। और इस ग्रुप का यह मानना है कि केवल ट्रांस-फैट्स का इस्तेमाल न करने से ही अमेरिका में लगभग एक लाख लोग अकाल मृत्यु का ग्रास बनने से बच जायेंगे।

अगर अमेरिका में यह हालात हैं तो जिस तरह से हमारे यहां पब्लिक बाज़ार में खोमचों पर पकौड़ों, जलेबियों, समोसों पर सुबह शाम टूट पड़ती है---उस से तो यही लगता है कि अगर हम लोग इन खाध्य पदार्थों को बनाते समय इन ट्रांस-फैट्स का इस्तेमाल बंद करवा पायें तो हमारे यहां तो करोड़ों जिंदगीयां ही बच जायेंगी। और जिस तरह से हमारे पड़ोस वाला सुबह से लेकर रात तक उस कड़ाही के गंदे से घी में पकौड़े बनाता है और समोसे निकालता है , उस से तो इस घी के गुण ट्रांस-फैट्स से भी बीसियों गुणा नुकसानदायक हो जाते हैं। लेकिन अपनी सुनता कौन है !!

कुछ साल पहले तक तो मैं कभी कभी समोसे, जलेबी अथवा बेकरी में बनी वस्तुयें खा लिया करता था लेकिन पिछले काफी अरसे से मैंने इस तरह के खान-पान पर पूरा प्रतिबंध लगा रखा है। आप क्या सोच रहे हैं, आप भी छोड़ क्यों नहीं देते, पहले से ही बहुत खा लिया।

कृपया टिप्पणी में यह मत लिखियेगा कि इन चीज़ों को अगर खाया ही नहीं तो जीने का क्या लुत्फ़ ----क्योंकि जब शरीर में कोई तकलीफ़ लग जाती है ना तो बहुत मुसीबत हो जाती है। जितने हम से बन पाये उतना तो बच कर ही रहें, बाकी तो उस ऊपर-वाले पर छोड़ना ही पड़ता है।

शुक्रवार, 14 नवंबर 2008

वेसे है तो आज विश्व-डायबिटिज़ दिवस लेकिन..........

जी हां, आज विश्व मधुमेह दिवस है तो क्या आज के दिन इस बीमारी के बारे में शुभ-शुभ बातें ही करनी होंगी ?--- लेकिन मेरा मन कुछ और ही कह रहा है। मैं जितना इस बीमारी के इलाज की धज्जियां उड़ती देख रहा हूं, वह मैं ही जानता हूं। दोषारोपण? –क्या वह यहां भी करना ही होगा ? –वैसे मैं तो अभी तक इस का फैसला ही नहीं कर पाया कि इस के बीमारी के बुरे प्रबंधन का दोष किस के सिर पर मढूं---मरीज़ों पर, चिकित्सा व्यवस्था पर, मरीज़ों एवं मैडीकल ढांचे की परिस्थितियों पर !!

सब से अफसोसजनक बात यही है कि जो लोग इस बीमारी से जूझ रहे होते हैं उन की ठीक तरह से मॉनीटरिंग हो ही नहीं पाती है। इस के विभिन्न कारणों की तरफ़ देखना होगा। किसी मरीज़ को पता है कि उसे मधुमेह है ----और किसी डाक्टर ने उसे एक टेबलेट पर डाल दिया है। अब बहुत बार देखने में आया है कि वह सालों-साल बिना अपनी ब्लड-शूगर की जांच करवाये या तो उसी टेबलेट को उतनी ही मात्रा में लेता रहेगा वरना कुछ समय बाद जब उसे “ ठीक सा लगने लगेगा” तो उस टेबलेट को बिना किसी डाक्टरी सलाह के बंद कर देगा । शूगर के लिये ही नहीं बहुत सी तकलीफ़ों के लिये मरीज़ों के दवा बंद करने के कारण हमारे देश में कुछ इस तरह के होते हैं----- गोली खाने की आदत पड़ जायेगी, गोली गर्म होती है, लगातार गोली खाने से इस की खुराक बढ़ानी पड़ जायेगी, साथ वाली किसी पड़ोसन की शूगर तो बिना दवाई के ही गायब हो गई थी, देसी दवाई शुरू करनी है इसलिये अंग्रेज़ी दवाई तो बंद करनी ही होगी-------और भी इसी तरह के बहुत से कारण हैं डायबिटिज़ की दवाई अपने आप बंद करने के।

और एक ध्यान आ रहा है ---बहुत से मरीज़ आ कर बतलाते हैं कि डाक्टर ने तो मुझे इंसुलिन के टीके रोज़ाना लेने के लिये कहा हुआ है लेकिन मैं नहीं पड़ता इस चक्कर में ----कौन इस मुसीबत को मोल ले---एक बार लेने शुरू कर दिये तो हमेशा के लिये लेने ही पड़ेंगे। इसलिये मैं तो परहेज से ही काम चला रहा हूं और साथ में फलां दवाई की आधी गली कभी-कभी ले लेता हूं -----अब इन मरीज़ों को यह समझना भी बहुत ही ज़रूरी है कि अगर ये वह वाली आधी गोली भी नहीं लेंगे तो भी होगा कुछ नहीं ---बस वे शूगर-रोग से संबंधित तरह तरह की जटिलताओं की गिरफ्त में आ जायेंगे --- या तो दृष्टि किसी दिन जवाब दे जायेगी, गुर्दे पक्के तरह पर हड़ताल पर चले जायेंगे, हार्ट प्राब्लम हो जायेगी, वरना डॉयबिटिक पैर जैसी किसी समस्या का पंगा पड़ जायेगा और पैर या पैर का पंजा काटना पड़ सकता है ---मैं परसों रेडियो पर पीजीआई,चंडीगढ़ के एक विशेषज्ञ की एक इंटरव्यू सुन रहा था कि उन के संस्थान में चालीस में से उनचालीस पैर या पैर के पंजे आप्रेशन से काटने का कारण भी डायबिटिज़ ही होता है।

पिछले पैराग्राफ में ज़िक्र हुआ है देसी दवा का ----इस देसी दवा से मतलब है कि कुछ लोग किसी नीम-हकीम से कुछ पुड़ियां सी ले आते हैं जो बिल्कुल झूठा सा वायदा साथ में कर देता है कि इन के सेवन से शूगर-रोग जड़ से ही खत्म हो जायेगा। लेकिन वह सरासर फरेब कर रहा है ---ऐसी कोई पुड़िया, कोई तिलस्माई पुड़िया बनी ही नहीं है जिस से यह तकलीफ़ हमेशा के लिये पुड़िया घोल कर पी लेने से नष्ट हो जाये। जितनी भी आप कल्पना कर सकते हैं उतना ही नुकसान ये देसी दवाईंयां मरीज़ का करती हैं और उसे पता ही नहीं चलता। बहुत बार तो इन पुड़ियों में इन नीम-हकीमों ने बहुत से नुकसान-दायक कैमिकल डाले होते हैं जो शरीर में तरह तरह की व्याधियां पैदा करते हैं । और अगर खुशकिस्मती से कहूं या गलती से आप इन व्याधियों से बच भी गये तो भी ये देसी दवाईयां किसी के शक्कर रोग को इनडायरैक्टली बढ़ावा तो दे ही रही हैं ----किसी तरह का कोई टैस्ट हो नहीं रहा, टॉरगेट-आर्गनज़ को क्या हो रहा है उन की किसे फिक्र है नहीं ----सो, बहुत से मरीज़ इन्हीं देसी दवाईयों की वजह से शूगर रोग से संबंधित बहुत सी मुश्किलें मोल ले डालते हैं। कृपया इस तरफ़ ध्यान दें कि देसी दवा से मेरा मतलब है कि नीम-हकीम डाक्टरों द्वारा दी गई थर्ड-क्लास दवाईयां (अगर इन्हें हम दवाईयां कह सकें तो !!)

लेकिन अगर कोई आयुर्वैदिक पद्धति से या किसी अन्य भारतीय चिकित्सा पद्दति के द्वारा ही अपना इलाज करवाना चाहता है तो उसे उस पद्धति के किसी विशेषज्ञ के पास जाना ही होगा और उन के कहे अनुसार दवा एवं जीवन-शैली में बदलाव करने ही होंगे।

कुछ बातें लोग आ कर बताते हैं कि वे कहीं से पढ़ कर, किसी की सलाह से जामुन की गुठली को पीस कर ले रहे हैं, करेले का जूस ले रहे हैं, और डोडिया-पनीर रात को भिगो कर सुबह वह पानी पे रहे हैं-----अगर आप इस तरह का कोई काम भी कर रहे हैं या करने का विचार बना रहे हैं तो किसी आयुर्वैदिक डाक्टर के परामर्श से, उनकी अनुमति से करेंगे तो ही उचित है क्योंकि वह साथ ही साथ आप के ब्लड-शूगर के स्तर का भी ध्यान रखेंगे।

यह तो हो गई बात दवाईयों की, अब आते हैं ---मधुमेह की नियमित मॉनीटरिंग की । विभिन्न कारणों की वजह से यह भी ठीक तरह से हो नहीं पा रहा है। इस में काफी हद तक मरीज़ों की अज्ञानता का भी दोष है-----वास्तव में, काफी नहीं कुछ हद तक ही। बिना मॉनीटरिंग के कैसे दवा को बढ़ाया, घटाया जायेगा, रोग के कंट्रोल के लिये कैसे और निर्देश दिये जायेंगे ।

पिछले महीनों में शूगर रोग पर किस तरह का कंट्रोल रहा- इस की जांच के लिये ग्लाईकेटेड-हीमोग्लोबिन (glycated haemoglobin) नाम से एक टैस्ट तो है लेकिन इस के बारे में बहुत ही कम लोग, बहुत ही ज़्यादा कम लोग जानते हैं और जो जानते भी हैं वे इसे करवाने की ज़रूरत नहीं समझते हैं। वैसे यह टैस्ट लगभग 200 रूपये के आसपास हो जाता है। इस ब्लाग पर इस विषय पर इस नाम से एक पोस्ट है---अब हो पायेगी डायबिटिज़ की और भी बढ़िया स्क्रीनिंग।

यह ग्लाईकेटेड-हिमोग्लोबिन की बात दूर, अकसर कुछ लोगों में अगर खाली पेट और खाने के बाद ब्लड-शूगर चैक करवाने को कहा जाता है तो कईं लोग इस को भी नहीं मानते, या तो खाली पेट वाला टैस्ट ही करवा लेते हैं ---यह कहते हुये कि अब कौन दूसरे टैस्ट के लिये इंतज़ार करे, वरना कईं बार खाये-पिये ही टैस्ट करवा लेते हैं –यह कहते हुये कि हम से भूख सहन नहीं हो पाती। इन्हीं कारणों की वजह से ही इन मरीज़ों की सही मॉनीटरिंग हो ही नहीं पाती।

अच्छा बात बार बार हो रही है मॉनिटरिंग की ----हमें यह ध्यान रहे कि ब्लड-शूगर के स्तर की नियमित मॉनिटरिंग के साथ साथ शूगर के मरीज के टार्गट अंगों की भी नियमित जांच होनी चाहिये ----अपने चिकित्सक की सलाह अनुसार टार्गट अंगों की कार्य-प्रणाली का आकलन करने हेतु ये टैस्ट होते हैं। पहले ज़रा इस के बारे में बात करें कि यह जो शब्द टार्गट अंग है, इस का क्या मतलब है---इस का मतलब है कि जिन अंगों पर शूगर रोग के बुरे प्रभाव सब से ज़्यादा पड़ते हैं ---जैसे कि किडनी( गुर्दे), हार्ट, आंखें, नसें आदि -----इन की नियमित जांच के साथ साथ इन के लिये कुछ टैस्ट जैसे कि किडनी फंक्शन टैस्ट, ईसीजी, ब्लड-प्रैशर की नियमित जांच, लिपिड-प्रोफाइल टैस्ट, आंखों का नियमित परीक्षण, किसी न्यूरोलॉजिस्ट के द्वारा चैक-अप शामिल हैं----- किसी अमेरिकन वैब-साइट मैं पढ़ रहा कि शूगर के रोगियों में आंखों का चैक-अप तो एक साल की बजाये हर छः महीने के बाद ही होना चाहिये ताकि आंखों की समस्याओं का प्रारंभिक अवस्था में ही पता चल सके और उन की मैनेजमैंट की जा सके।

बातें तो बहुत हो गईं ----लेकिन अब असलियत के फर्श पर उतर ही आता हूं। क्या आप को लगता है कि इस तरह की नियमित मॉनीटरिंग किसी बिल्कुल आम आदमी के बस की बात है ---सरकारी हस्पताल मरीज़ों के लोड के कारण ठसा-ठस भरे हुये हैं----काम धंधा छोड़ कर कितने लोग इन लंबी कतारों में लग सकते हैं, कितने लोग महंगी महंगी दवाईयां खरीद पाते हैं, महंगे टैस्ट करवा पाते हैं, ये चाय में नकली मीठे की गोलियां इस्तेमाल कर सकते हैं ------ये सब सोचने की बाते हैं । और अगर आप सोच रहे हैं कि इस डायबिटिज़ में एक आम आदमी कैसे घुस आया ----तो यह अब हो चुका है। वह भी इस की चपेट में आ चुका है।

कोई समाधान ?--- सब से महत्वपूर्ण बात वही है कि कैसे भी हो अपने वजन को कंट्रोल करने की पूरी कोशिश की जाये----बिना जिह्वा के स्वाद पर पर कंट्रोल किये यह संभव है ही नहीं, जंक-फूड का नामो-निशां अपनी लाइफ से मिटाना होगा---और इन सब के साथ साथ रोज़ाना सैर तो करनी ही होगी ----चाहे मन करे या न करे----एक बार पैदल भ्रमण करने की आदत पड़ जाये तो फिर अच्छा भी लगने लगेगा। बहुत से लोग अपनी विवशता प्रगट करते हैं कि वे चल ही नहीं पाते, क्या करें !!--- उन्हे सलाह है कि अपने चिकित्सक से पूछ कर खड़े खड़े ही किसी एक्सर-साईकिल को ही चला लिया करें-----बहुत ही , बहुत ही ,बहुत ही, ..........मेरे इस तीन बार लिखे को तीस लाख बार जानिये कि वैसे तो सब के लिये ही लेकिन शूगर के रोगी के लिये भ्रमण निहायत ही ज़रूरी है।

चलिये,अब विश्राम लेते हैं क्योंकि मेरा भी भ्रमण के लिये जाने का समय हो गया है – रोज़ाना आधा घंटा भ्रमण करने की आदत डाल रहा हूं ---और इस विश्व डायबिटिज़ दिवस पर सारे विश्व के लिये यही मंगलकामना करता हूं कि शूगर के सब रोगियों की शूगर पूरी तरह से कंट्रोल में रहे, और उन के टार्गेट अंग पूरी तरह से फिट रहें और वे भरपूर ज़िंदगी का लुत्फ़ उठाएं और जो बंधु प्री-डायबिटिक्ट हैं वे अपनी जीवन-शैली में उचित परिवर्तन समय रहते कर लें ताकि उन्हें आगे चल कर किसी तरह की परेशानी न हो -----और सारे विश्व के लिये शुभकामनायें कि उन का वज़न कंट्रोल में रहे, वे जंक-फूड से मुक्त हो जायें, अपने नमक की खपत पर पूरा कंट्रोल कर लें और सारे विश्व-बंधुओं को रोज़ाना एक-आध घंटा टहलने का चस्का पड़ जाये।

जाते जाते यही लिखना चाह रहा हूं कि मैं इतनी बातें लिखते लिखते उस महान योगी ---बाबा रामदेव को कैसे भूल गया ---उन की बातें अनुकरणीय हैं -----अगर कोई बंधु हर तरह से परेशान हैं तो बाबा रामदेव की कही बातें अपने जीवन में उतारनी शुरू कर दें-----अवश्य कल्याण होगा। मैं क्या सारा संसार उन से बहुत प्रभावित है ----वे बिल्कुल निराश, हताश लोगों की ज़िंदगी में आशा का दीप जला रहे हैं , आखिर इस से बड़ी बात क्या हो सकती है !!