शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2008

तारे ज़मीं पर तो क्या, यहां तो स्वर्ग भी ज़मी पर उतर आया है.....

मैंने आज तक जितने भी फूल देखे हैं, उन में से सब से सुंदर फूल मुझे कल दिखा......जिसे मैं आप को भी इस तस्वीर के द्वारा दिखा रहा हूं....आप जानना चाहेंगे कि यह फूल कहां दिखा ? –यह फूल हमें कल बाबा रामदेव जी के पतंजलि योगपीठ में दिखा जो हरिद्वार में स्थित है। मैं अब अगली कुछ पोस्टें इस स्लेट पर अपनी पतंजलि योगपीठ यात्रा पर ही लिखूंगा.....खूब सारी तस्वीरें भी खींचीं हैं, जो इन पोस्टों के साथ आप के साझा करता रहूंगा।


परसों हम सब का घर में प्रोग्राम बन गया कि चलो, बाबा रामदेव द्वारा स्थापित पतंजलि योगपीठ की यात्रा कर के आया जाये। कल हमें हास्पीटल से गुरू रविजयंती के उपलक्ष्य में अवकाश था। यह तो मैं आप को बता ही चुका हूं कि हम यमुनानगर में रहते हैं।

यमुनानगर की दूरी अंबाला से 50 किलोमीटर है....एक्सप्रैस गाड़ी में लगभग 45मिनट लगते हैं और बस में एक घंटा लगता है। लेकिन पतंजलि योगपीठ जाने के लिए यमुनानगर से अंबाला जाने की ज़रूरत नहीं होती। यह तो वैसे ही मैंने दूर-दराज रहने वाले हिंदी चिट्ठाकारों की जानकारी के लिए ही लिखा है।

यमुनानगर के रेलवे स्टेशन का नाम जगाधरी है....हम एक्सप्रेस गाड़ी के द्वारा डेढ़-घंटे से भी कम समय में रूड़की पहुंच गये। जगाधरी और रूड़की के बीच एक स्टेशन आता है ...सहारनपुर । रूड़की पहुंचने के बाद वहां से बस के द्वारा हम पतंजलि योगपीठ के लिए रवाना हुये। हम दोपहर साढ़े बारह बजे जगाधरी से चल कर अढ़ाई-पौने तीन बजे पतंजलि पहुंच चुके थे। वैसे मैं तो अकेला भी तीन-चार महीने पहले ही वहां हो कर आ चुका था, लेकिन परिवार सहित यह पहली यात्रा थी।

पाठकों की सूचना के लिए बताना चाहूंगा कि यह पतंजलि योगपीठ रूड़की- हरिद्वार सड़कमार्ग पर बिल्कुल मेन रोड पर ही है। रूड़की से लगभग 20मिनट के करीब का सफर है और हरिद्वार रेलवे स्टेशन से भी लगभग आधा घंटे का समय ही लगता है। रूड़की और हरिद्वार तो आप सब जानते ही हैं कि देश के सब भागों से रेल एवं बस-सेवा के द्वारा जुड़ा ही हुया है।

वहां पहुंच कर यही लगता है कि यार अगर आमिर खान ज़मीं पर तारे लाया है तो बाबा ने तो स्वर्ग ही ज़मीं पर उतार दिया है। निःसंदेह वहां का वातावरण बेहद नैसर्गिक है और अंदर जाते ही इतनी शांति का अनुभव होता है कि ब्यां नहीं कर सकता।

जब भी मैं पतंजलि योगपीठ में विभिन्न सुविधाओं की फोटो खींच रहा था और वहां पर लगे बड़े-बड़े बोर्डो की फोटो खींच रहा था तो अनायास ही मेरा ध्यान पंकज अवधिया जी और ज्ञान चंद पांडे और एक दो और बलागर बंधुओं की तरफ जा रहा था जिन की इन पुरातन चिकित्सा विधियों में इतनी गहरी ऋद्धा से मैं बहुत प्रभावित हूं......सो , वहां पर कईं फोटो तो मैंने इन के इंटरेस्ट को ध्यान में ही रखते हुए खींचे जो कि मैं अब अपनी इस पतंजलि योगपीठ से संबंधित पोस्टों के साथ आप के साथ शेयर करता रहूंगा। और ये हमें गहराई से इन के बारे में बतलायेंगे।

वहां पहुंचने के बाद , वहां ठहरना भी कोई समस्या नहीं है, डॉरमैट्री आवास मात्र 50 रूपये प्रतिदिन के हिसाब से , साधारण रूम 300, 400, 550 (क्रमशः सिंगल, डबल और ट्रिपल) और इस से दोगुने रेट में ए.सी कमरे भी उपलब्ध हैं......वैसे हम तो वहां ठहरे नहीं , शाम को वापिस आ गये थे।

वहां पर उपलब्ध सुविधाओं के बारे में विस्तार से चर्चा करता रहूंगा लेकिन संक्षेप मे तो अभी यही सुझाव दूंगा कि हम लोग दूर-दूर जाते हैं हमेशा अपने परिवार को लेकर छुट्टियां मनाने, उस में यह डैस्टीनेशन आप यह भी जोड़ लें...........यकीन मानिए , देखने वाली जगह है। इतनी सफाई, इतनी शांति ,इतना अनुशासन, इतना ठहराव..............................अगर आप ने प्रकृति के साथ कुछ समय बिताने का फैसला कर लिया है तो इस जगह का कोई जवाब नहीं है।

और हां, यह बताना तो भूल ही गया कि हरिद्वार स्टेशन के बाहर ही से शेयरिंग में आटो-रिक्शा भी मिलते हैं जो प्रति सवारी 20रूपये किराया लेते हैं। बस , अब यही विराम लेता नहीं , अगर पहली ही पोस्ट इतनी लंबी कर दूंगा और अगर आप फिर इस ब्लोग पर आये ही नहीं तो मेरा क्या होगा कालिया........क्या करूं, सब सोचना पड़ता है।

ताकि आप के बच्चे की बॉयोलॉजिक क्लाक(biologic clock) ठीक से काम करे....

आप को अकसर यह सोच कर हैरानगी नहीं होती कि जब कभी रोत को सोने से पहले हम यह निश्चय कर लेते हैं कि कल तो सुबह पांच बजे उठना ही है, नहीं तो छःबजे वाली अपनी गाड़ी तो भई छूट जायेगी। और अगले दिन सुबह अकसर आप क्या उठ पाते हैं.....अगर आप वैसे रोज़ाना सात बजे भी उठते हैं तो उस दिन आप यह देख कर बहुत ही हैरान हो जाते हैं कि बिना किसी अलार्म के ही आप पौने-पांच बजे उठ कर बैठ जाते हैं। यह सब कुछ बायोलाजिक क्लाक ही चमत्कार है जो हम सब के अंदर फिक्स है।

तो फिर हम सब के बच्चे सुबह सुबह इतना नाटक क्योंकरते हैं ,क्योंकि हमारे लाड-प्यार की वजह से उन की यह बायोलाजिक क्लाक ठीक से चल ही नहीं रही है। और इस के लिए हम ही दोषी हैं , और कोई नहीं।

आज कल के अधिकांश बच्चों को पता है कि उस की मम्मी या पापा ही उस को सुबह समय पर जगायेंगे। इसलिए वह बेपरवाह हो कर सोया रहता है। इस लिए ही लगभग सभी घरों में रोज सुबह सवेरे नाटक होते हैं क्योंकि बच्चा जागा हुया होते भी उठना नहीं चाहता। वह मस्ती से पड़ा रहता है और स्कूल की बस आने से 15-20 मिनट पहले उठता है ...वह भी लाडले का मां-बाप द्वारा तीन-चार बार झकझोरने के बाद ही....और उस के बाद का सीन देखने वाला होता है....भाग भाग के टॉयलेट....पेट साफ़ हो या नहीं , कोई फर्क नहीं पड़ता, बस 10सैकिंड में ब्रुश और अगले एक मिनट में नहाना -धोना निपट जाता है । कोई पता नहीं बूट पालिश हैं या नहीं.....क्या फर्क पड़ता है....उधर से बैग से कल वाला टिफिन निकालने की आवाज़े आनी शुरू हो जाती हैं. इतने में बच्चे का सिर घूम रहा है कि यार, अब टॉई किस से बंधवाये....ओहो, अभी तो स्कूल के कैलेंड़र पर साइन भी करवाने हैं. पता नहीं कल शाम को जो ड्राइंग -शीट्स मंगवाईं थीं, इस काम करने वाली ने कहां रख छोड़ी हैं......ओहो, रूमाल नहीं मिल रहा......यह क्या, केबल से किसी बढ़िया से गाने की आवाज़ आ रही है......बस ऐसे और भी कईं चीज़े उन 15 मिनटों में एक साथ हो रही होती हैं और यह सब इतनी तेज़ी से हो रहा होता है कि चार्ली चैप्लिन की फिल्म की याद ताज़ा हो आती है। अरे अभी तो उस दूध के गिलास को भी गटकना है....इस समय सारे जागे हुये हैं इसलिए सिंक में भी नहीं फैंक सकता । अरे यह क्या, कंघी ठीक से नहीं हो रही.....तुम अब इस कंघी का पीछा छोड़ो, आज तो तुम्हारी बस समझ ले कि छूट ही जायेगी। और होता भी अकसर ऐसा ही है .....जैसा कि आज मेरे छोटे बेटे के साथ हुया...बस छूटने के कारण सारा दिन घर में ही बैठा रहा।

लेकिन इस में दोष किस का है...मैं तो मानता हूं कि इस में सब से ज़्यादा दोष हम मां-बाप का ही है, एक तो हम अपने बच्चों की दिनचर्या ठीक तरह से डिवेल्प नहीं कर पाते और ऊपर से सुबह उन को यह उठाने की जि़म्मेदारी अपने ऊपर ले लेते हैं। सारी समस्या की जड़ यही है।

तो क्या बच्चों की छुट्टी करवा दें.....हां, हां ,ज़रूर करवा दें....क्योंकि अगर उसे आपने प्रैक्टीकल पाठ पढ़ाना है तो उसे यह छुट्टी करवानी ही होगी। अच्छा आप यही डर रहे हैं ना कि ऐसे तो पता नहीं उस की कितनी छुट्टियां हो जायेंगी...तो होने दीजिए...यकीन मानिए एक-दो दिन के बाद वह रोज़ाना सुबह पांच बजे उठ कर बैठ जाया करेगा...चाहे उसे उस के लिए उसे रात को साढ़े नौ बजे ही सोना पड़े। बच्चे भी कहां घर में रहना चाहते हैं....।
लेकिन अगर आप द्वारा उस को प्रैक्टीकल लैसन देने के बावजूद भी वह सुबह आप के उठाने के बाद ही उठता है तो आप को आप को उस की स्कूल काऊंस्लर से बात करनी होगी...और अगर उस को कोई शारीरिक समस्या है तो आप को किसी पैडीट्रिशियन को दिखाना ही होगा।

इस को आप कभी भी इगनोर न करें...और बच्चों में अपने आप उठने की आदत डालें। आप अपना समय याद करें...क्या आप में से किसी को आप के बाबूजी या मां स्कूल जाने के लिए उठाते थे....नहीं ना, मुझे भी कभी किसी ने नहीं जगाया...स्कूल जाने का चाव ही इतना ज़्यादा हुया करता था कि सुबह सवेरे उठ कर बैठ जाया करते थे। इसलिए मैंने अपने बच्चों को भी कभी सुबह नहीं जगाया......लेकिन मेरी बीवी यह काम
बेहद निष्ठा से करती हैं।मुझे ऐसे सारे अभिभावकों से ( मेरी बीवी सहित) बेहद शिकायत है कि बच्चों को अपने पैरों पर खुद खड़ा होने का मौका तो दें।

अलार्म की मदद-----मैं तो भई इस का भी घोर-विरोधी हूं....क्या है कि उस से सब की नींद खराब हो जाती है। उस का प्रयोग भी कभी कभार या परीक्षाओं के दिनों में ही मुझे तो ठीक लगता है..............वैसे आप का क्या ख्याल है...और हां, अकसर देखा यह भी गया है कि बड़े उत्साह से अलार्म लगाने वाला तो लिहाफ में मज़े से खर्राटे भर रहा है( जिसे देख देख कर गुस्सा आता है) और निर्दोष बंदा रात को साढ़े तीन बजे उठ कर बैठ गया है और सुबह होने का इंतज़ार कर रहा है।

बुधवार, 20 फ़रवरी 2008

पता नहीं अब हमारे सादे पान-मसाले पर क्यों डाक्टर अपनी डाक्टरी झाड़ रहे हैं !

अभी मैं अपना लैप-टाप खोल कर स्टडी-रूममें बैठ कर सोच ही रहा था कि आज किस विषय पर पोस्ट लिखूं कि अचानक बेटे ने मेरी टेबल के सामने लगे बोर्ड पर लगे एक विज्ञापन की कटिंग को देखते हुए कहा कि पापा, यह विज्ञापन मैंने भी देखा था, बड़ा अजीब लगा था।


क्योंकि इस पान मसाले में है.....अव्वल दर्जे का कत्था(रू800प्रतिकिलो) , पवित्र चंदन(रू60000-66000प्रतिकिलो),रूह केवड़ा(रू3लाख प्रतिकिलो), ज़ायकेदार इलायची(रू450प्रतिकिलो), प्रोसैस्ड सुपारी(रू200-225प्रतिकिलो), 0%तम्बाकू(तम्बाकू के रूप में नहीं)................यह विज्ञापन किसी हिंदी के समाचार-पत्र में छपा था। अब कोई भी बंदा इतना लुभावना विज्ञापन देखने के बाद भला क्यों करेगा गुरेज़ मुंह में दो-तीन पानमसाले के पाउच उंडेलने से। और ऊपर से यह 0% तम्बाकू वाली बात ....भई यह सब कुछ लिखा हो तो पानमसाले की धूम आखिर क्यों न मचे। वैसे वो 0% तम्बाकू- तम्बाकू के रूप में नहीं वाली बात तो मेरी समझ में भी नहीं आई...........।


लेकिन यह पानमसाला खाना भी हमारी सेहत के लिए बहुत नुकसानदायक है। आप ही सोचिए कि अगर ऐसा न हो तो क्यों विज्ञापन के एक कोने में यह चेतावनी भी लिखी हो....पानमसाला चबाना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकता है। वैसे वो बात दूसरी है कि उसे लिखा कुछ इस तरह से होता है कि उसे पहले तो कोई ढूंढ ही न पाये और अगर गलती से ढूंढ ले भी तो बंदा पढ़ ही न पाये।


जी हां, पानमसाला चबाना भी स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। इस में मौजूद सुपारी को मुंह के कैंसर की एक पूर्व-अवस्था सब-मयूक्स फाईब्रोसिस( submucous fibrosis) के लिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा है और यह वैज्ञानिक तौर पर सिद्ध भी हो चुका है.....


छोटे छोटे कॉलजियेट लड़कों को दो-पहिया वाहनों पर चढ़े-चढ़े नुक्कड़ वाले पनवाड़ी की दुकान के ठीक सामने वाले फुटपाथ पर पानमसाले के दो तीन पाउच इक्ट्ठे ही मुंह में उंडेलते हुए बेहद दुःख होता है....यह शौक शुरू शुरू में तो रोमांचित करता होगा लेकिन बाद में जब इस की लत पक्की हो जाती है तो फिर शायद इसे छोड़ना सब के बश की बात भी नहीं होती।


ओरल-सबम्यूक्स फाईब्रोसिस की बात चली थी तो कुछ इस के बारे में बात भी की जाये...इस अवस्था में मुहं की नर्म,लचकीली चमडी़अपनी लचक खो कर, बिलकुल सख्त, चमड़े जैसी और झुर्रीदार हो जाती है, धीरे धीरे मुंह खुलना बंद हो जाता है, मुंह में घाव और छाले हो जाते हैं और मरीज़ को कुछ भी खाने में बहुत जलन होती है। यह कैंसर की पूर्वावस्था होती है और यह अवस्था किस मरीज़ में आगे चल कर मुंह के कैंसर का रूप धारण कर ले., यह कुछ नहीं कहा जा सकता । इसलिए इस अवस्था का तुरंत इलाज करवाना बहुत लाजमी है.....क्योंकि इस अवस्था में तो कईं बार मरीज का मुंह इतना कम खुलने लगता है कि वह रोटी का एक निवाला तक मुंह के अंदर नहीं रख सकता जिस के कारण उसे फिर तरल-पदार्थों पर ही ज़िंदा रहना पड़ता है या फिर सर्जरी के द्वारा मुंह खुलवाना पड़ता है और सब से...सब से ...सब से जरूरी यह कि उसे पानमसाले की लत को हमेशा के लिए लत मारनी पड़ती है।


लेकिन इस लत को लात मारने के लिए आखिर तब तक इंतजार आखिर किया ही क्यों जाये.....यह शुभ काम हमआज ही कर दें तो कितना बढ़िया होगा....आज से ही क्यों अभी से ही अपने मुंह में रखे पान-मसाले को अभी थूक दें तो क्या कहने......शाबाश.....यह हुई न बात......मोगैंबों खुश हुया।

पता नहीं अब हमारे सादे पान-मसाले पर क्यों डाक्टर अपनी डाक्टरी झाड़ रहे हैं !


अभी मैं अपना लैप-टाप खोल कर स्टडी-रूममें बैठ कर सोच ही रहा था कि आज किस विषय पर पोस्ट लिखूं कि अचानक बेटे ने मेरी टेबल के सामने लगे बोर्ड पर लगे एक विज्ञापन की कटिंग को देखते हुए कहा कि पापा, यह विज्ञापन मैंने भी देखा था, बड़ा अजीब लगा था।


क्योंकि इस पान मसाले में है.....अव्वल दर्जे का कत्था(रू800प्रतिकिलो) , पवित्र चंदन(रू60000-66000प्रतिकिलो),रूह केवड़ा(रू3लाख प्रतिकिलो), ज़ायकेदार इलायची(रू450प्रतिकिलो), प्रोसैस्ड सुपारी(रू200-225प्रतिकिलो), 0%तम्बाकू(तम्बाकू के रूप में नहीं)................यह विज्ञापन किसी हिंदी के समाचार-पत्र में छपा था। अब कोई भी बंदा इतना लुभावना विज्ञापन देखने के बाद भला क्यों करेगा गुरेज़ मुंह में दो-तीन पानमसाले के पाउच उंडेलने से। और ऊपर से यह 0% तम्बाकू वाली बात ....भई यह सब कुछ लिखा हो तो पानमसाले की धूम आखिर क्यों न मचे। वैसे वो 0% तम्बाकू- तम्बाकू के रूप में नहीं वाली बात तो मेरी समझ में भी नहीं आई...........।


लेकिन यह पानमसाला खाना भी हमारी सेहत के लिए बहुत नुकसानदायक है। आप ही सोचिए कि अगर ऐसा न हो तो क्यों विज्ञापन के एक कोने में यह चेतावनी भी लिखी हो....पानमसाला चबाना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकता है। वैसे वो बात दूसरी है कि उसे लिखा कुछ इस तरह से होता है कि उसे पहले तो कोई ढूंढ ही न पाये और अगर गलती से ढूंढ ले भी तो बंदा पढ़ ही न पाये।


जी हां, पानमसाला चबाना भी स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। इस में मौजूद सुपारी को मुंह के कैंसर की एक पूर्व-अवस्था सब-मयूक्स फाईब्रोसिस( submucous fibrosis) के लिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा है और यह वैज्ञानिक तौर पर सिद्ध भी हो चुका है.....


छोटे छोटे कॉलजियेट लड़कों को दो-पहिया वाहनों पर चढ़े-चढ़े नुक्कड़ वाले पनवाड़ी की दुकान के ठीक सामने वाले फुटपाथ पर पानमसाले के दो तीन पाउच इक्ट्ठे ही मुंह में उंडेलते हुए बेहद दुःख होता है....यह शौक शुरू शुरू में तो रोमांचित करता होगा लेकिन बाद में जब इस की लत पक्की हो जाती है तो फिर शायद इसे छोड़ना सब के बश की बात भी नहीं होती।


ओरल-सबम्यूक्स फाईब्रोसिस की बात चली थी तो कुछ इस के बारे में बात भी की जाये...इस अवस्था में मुहं की नर्म,लचकीली चमडी़अपनी लचक खो कर, बिलकुल सख्त, चमड़े जैसी और झुर्रीदार हो जाती है, धीरे धीरे मुंह खुलना बंद हो जाता है, मुंह में घाव और छाले हो जाते हैं और मरीज़ को कुछ भी खाने में बहुत जलन होती है। यह कैंसर की पूर्वावस्था होती है और यह अवस्था किस मरीज़ में आगे चल कर मुंह के कैंसर का रूप धारण कर ले., यह कुछ नहीं कहा जा सकता । इसलिए इस अवस्था का तुरंत इलाज करवाना बहुत लाजमी है.....क्योंकि इस अवस्था में तो कईं बार मरीज का मुंह इतना कम खुलने लगता है कि वह रोटी का एक निवाला तक मुंह के अंदर नहीं रख सकता जिस के कारण उसे फिर तरल-पदार्थों पर ही ज़िंदा रहना पड़ता है या फिर सर्जरी के द्वारा मुंह खुलवाना पड़ता है और सब से...सब से ...सब से जरूरी यह कि उसे पानमसाले की लत को हमेशा के लिए लत मारनी पड़ती है।


लेकिन इस लत को लात मारने के लिए आखिर तब तक इंतजार आखिर किया ही क्यों जाये.....यह शुभ काम हमआज ही कर दें तो कितना बढ़िया होगा....आज से ही क्यों अभी से ही अपने मुंह में रखे पान-मसाले को अभी थूक दें तो क्या कहने......शाबाश.....यह हुई न बात......मोगैंबों खुश हुया।

3 comments:

राज भाटिय़ा said...

ड्रा चोपडा जी,आप ने हमेशा ही बहुत उपयोगी जानकारी दी हे, ओर आप के आज के लेख मे **वैसे वो बात दूसरी है कि उसे लिखा कुछ इस तरह से होता है कि उसे पहले तो कोई ढूंढ ही न पाये और अगर गलती से ढूंढ ले भी तो बंदा पढ़ ही न पाये।*
तो इस के लिखने का कया फ़ायदा,अगर बडे शव्दो मे लिखा हो ओर खरीदते वक्त दिखे तब तो ठीक हे, हमारे यहां सिगरेट के पाकेट पर मोटे ओर साफ़ शव्दो मे चारो ओर चेतावनी लिखी होती हे, १६ साल से छोटे बच्चे कॊ ऎसी चीजे बेचने पर दुकानदार को भारी जुर्माना चुकाना पडता हे,जब की भारत मे बच्चे से ही यह सब मगबाते मा बाप.

पंकज अवधिया Pankaj Oudhia said...

मै तो इससे दूर ही हूँ पर मुझे लगता है कि जिन्हे तलब लग चुकी है वो इसे आसानी से छोडने से रहे। क्या हम इसका कोई विकल्प खोज सकते है जो नुकसान रहित हो? मैने हर्बल सिगरेट पर काम किया है पर इसे इतना अधिक अच्छा नही बना पाया कि असली सिगरेट वाले सब छोडकर इसे पीने लगे। कोशिश जारी है।

Gyandutt Pandey said...

केन्सर अस्पताल में बड़े भीषण केस देखे हैं मुंह के केन्सर के। पर उसी अस्पताल में मरीज की सेवा में तैनात परिवार जनों को गुटका खाते भी पाया!

मंगलवार, 19 फ़रवरी 2008

बस हमारे यहां भी ऑक्सीजन बार खुलने ही वाले हैं.....

“ऑक्सीजन बार में आक्सीजन सूंघने आये ग्राहकों को आक्सीजन बहुत अच्छी मात्रा (95प्रतिशत तक) उपलब्ध होती है जो कि सामान्य वातावरण से उपलब्ध होने वाली मात्रा (21प्रतिशत) से बहुत ज्यादा होती है और यह मात्रा प्रदूषित वातावरण में तो और भी घट जाती है।”--------यह पंक्तियां मैंने आज के अंग्रेजी पेपर हिंदु की एक रिपोर्ट से ली हैं, जिस का शीर्षक और यही पंक्तियां नीचे लिख रहा हूं......
Oxygen bars catch on…..……”Oxygen bars offer sniffers an increased percentage (upto 95percent) of oxygen compared to the normal atmospheric content of 21percent – lower in the case of severe pollution.”

यह वाली खबर पढ़ कर मुझे कोई ज़्यादा हैरानी नहीं हुई क्योंकि कुछ इस से मिलती जुलती खबर मैंने एक-दो साल पहले भी कहीं पढ़ी थी। इस में यह भी बताया गया है कि कैनेडा से कैलीफोर्निया और ब्रिटेन से जापान...तक फैलते हुये ये ऑक्सीजन बॉर अब फ्रांस में भी कईं जगहों पर खुल गये हैं...इसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए इस तरह का पहला बॉर कल पैरिस के बहुत ही फैशुनेबल इलाके में खुला है, जिस से ही संबंधित यह खबर लगी थी।

इस देश में तो जब किसी को ऑक्सीजन लगती है ना तो सारे सगे-संबंधी अपना खाना-पीना भूल जाते हैं। लेकिन यह फैशन देखिए कि लोग रिलैक्स होने के लिए, तनाव-मुक्त होने के लिए इन ऑक्सीजन बॉर में जा रहे हैं....जो कि नाइट-क्लबों में, हैल्थ-क्लबों में, हवाई-अड्डों पर, और यहां तक कि ट्रेड-फेयरों में एक अच्छा-खासा बिजनैस बन रहा है। इस दौरान इन्हें कम से कम दस मिनट तक ऑक्सीजन सूंघाई जाती है।

हां, एक बात याद आई.....कि मैं जिस किसी न्यूज़-रिपोर्ट को पहले से पढ़ने की बात कर रहा था, इस के संबंध में मुझे कुछ कुछ याद आ रहा है कि शायद उस में मैंने पढ़ा था कि ऐसा ऑक्सीजन बार अहमदाबाद में भी खुल गया है।

वैसे एक तरह से देखा जाये तो जिस तरह की प्रकृति के साथ दूसरी सब तरह की पंगेबाजी हो रही है, यह ऑक्सीजन बार वाली बात तो कोई इतनी बड़ी नहीं कि इसे इतना तूल दिया जाये। लेकिन , नहीं , हमारे देश में इसे तूल दिया जाये दिया ही जाना चाहिए......क्यों कि इस तरह की ऊल-जलूल प्रणालियों की हमें कोई ज़रूरत ही नहीं है।

हमारे पास तो भई इस से भी कईं गुणा (हज़ारों गुणा !) बेहतर विकल्प है .....हज़ारों साल पुराना हमारे ऋषियों-मुनियों द्वारा सिद्ध किया हुया प्राणायाम्। यह जो प्राणायाम् है न यह पूरी तरह से वैज्ञानिक पद्धति पर आधारित है क्योंकि जब हम प्राणायाम् करते हैं तो हमारे शरीर में इस प्राण-ऊर्जा की सप्लाई कईं गुणा तक बढ़ जाती है जिस की वजह से हम सारा दिन बहुत चुस्ती-स्फूर्ति अनुभव करते रहते हैं। अगर हम नियमित प्राणायाम करते हैं तो हमें अनगिनत लाभ प्राप्त होते हैं।
लेकिन मैं यह समझता हूं कि प्राणायाम की विधि हमें कहीं से व्यक्तिगत रूप से सीखनी चाहिए क्योंकि यह एक बहुत ही सटल(subtle science)वैज्ञानिक प्रक्रिया है जिस को अगर पूरी निगरानी से न सीखा जाये तो इस का वांछित प्रभाव तो दूर किसी उल्ट प्रभाव का भी अंदेशा लगा रहता है।

मैंने यह सब कुछ बंबई में रहते हुए एक पंद्रह दिन के कार्यक्रम के दौरान सीखा था। यह सिद्ध समाधि योग कार्यक्रम है, जो कि ऋषि संस्कृति विद्या केन्द्र नामक संस्था करवाती है जो कि अडवर्टाइजिंग में विश्वास नहीं करती है....इस के संस्थापक हैं ब्रह्मर्षि ऋषि प्रभाकर जी, जो कि स्वयं एक ऐरोनॉटिक्ल इंजीनियर हैं और जिन की कईं सालों की तपस्या का फल है यह प्रोग्राम...सिद्ध समाधि योग प्रोग्राम ( Siddha Samadhi yoga programmes run by Rishi Samskruti Vidya Kendra with its headquarters at Bangalore.. www.ssy.org) इन के सेंटर विभिन्न शहरों में हैं।
वास्तव में यह प्रोग्राम कर लेने के बाद से तो मेरी जिंदगी में बहुत बदलाव आये थे। कुछ साल तक तो मैं नियमित सब कुछ प्रैक्टिस करता रहा ...लेकिन काफी लंबे अरसे से बस हर किसी को ज़्यादा उपदेश देता रहता हूं लेकिन खुद नहीं करता हूं जब कि मुझे इतना भी पता है कि इस का नियमित अभ्यास करने से ज़्यादा कोई और चीज़ मेरे लिए इतनी ज़रूरी नहीं है। लेकिन अब जब से इस ऑक्सीजन बार वाली खबर पर नज़र पड़ी है ना , तो बस मन ही मन ठान लिया है कि अब फिर से इस का अभ्यास दोबारा शुरू करूंगा। पता नहीं हम डाक्टर लोग खुद के लिए क्यों इतने लापरवाह होते हैं। शायद हम अपनी सलाह खुद नहीं मानना चाहते ...अपने आप से पूछ रहा हूं कि कहीं वही वाली बात तो नहीं है....हलवाई अपनी मिठाई खुद नहीं खाता। लेकिन जो भी यह सब कुछ ---प्राणायाम् इत्यादि ---तो जल्द से जल्द शुरू करना ही होगा....वज़न बढ़ रहा है, और कुछ खास शारिरिक श्रम करता नहीं हूं।

और हां, वह अपनी ऑक्सीजन बार तो कहीं बीच में ही रह गई। उस हिंदु अखबार की रिपोर्ट में यह भी लिखा था कि चूंकि इस तरह की ऑक्सीजन का प्रयोग सामान्यतः अस्पताल में तो एक दवाई की तरह होता है ( विशेषकर सांस लेने में कठिनाई के मामलों में), इसलिए इस तरह के ऑक्सीजन बारों को भी कंट्रोल करने की बात छिड़ी हुई है।
तो चलो, बीयर बॉर के मुद्दे से पूरी तरह फारिग हुये बिना अपनी बलोग्स में इस ऑक्सीजन बार के बारे में हमें आने वाले दिनों में खूब लिखने को मिलेगा.......वैसे तो मेरी प्रार्थना यही है कि ये आक्सीजन बार हमारे यहां तो न ही आयें तो बेहतर होगा......इस मामले में हम वैस्टर्न के लोगों से जितना पीछे ही रहें उतना ही बेहतर होगा। लेकिन मेरे सोचने से क्या हो जायेगा.....अगर आने वाले समय में इन ऑक्सीजन बारों की भरमार होनी है तो इन्हें लोगों को शुद्ध ऑक्सीजन का लुत्फ़ उठाने के लिए उकसाने से भला कौन रोक सकता है ?

रविवार, 17 फ़रवरी 2008

वैधानिक चेतावनी का ढोंग.......!

“ यह तम्बाकू चबाने में खुशज़ायका है और बेजरर है। दांतों को पायरिया से बचाता है। मुंह में खुशबू पैदा करता है।” एक पाउच पर यह लिखा हुया है तो कोई दूसरा पाउच चीख-चीख कर यह कह रहा है…… “फिल्टर तम्बाकू पाउच अपने होंठ के बीच में रखें और चैन से मज़ा लें( चबायें नहीं)”। ये तो कुछ उदाहरण मात्र हैं कि किस तरह से इन विनाशकारी उत्पादों की मशहूरी की जाती है। काश, उस के साथ यह भी लिखा होता कि होंठ के बीच में रखें और फिर होंठ के भयानक कैंसर से बच कर दिखायें।

मैंने लगभग 65 -70 पान-मसालों, गुटखों एवं तम्बाकू के पाउचों का अध्ययन किया है...जिन में से केवल चार-पांच तंबाकू के पाउचों पर वैधानिक चेतावनी हिंदी में लिखी पाई। कितने अफसोस की बात है कि इस विशाल देश में जहां बहुत ही कम लोग अंग्रेज़ी जानते हैं , वहां इतनी बड़ी जानकारी जिन का उनकी सेहत से सीधा संबंध है अंग्रेज़ी में ही उपलब्ध करवाई जा रही है। क्या इस तरफ़ किसी एऩजीओ का ध्यान नहीं गया ?....शायद आप मेरी बात से सहमत होंगे कि इस तरह की चेतावनी इस देश में केवल अंग्रेज़ी में ही लगा देने से कुछ होने वाला नहीं है।

चलिए, एक बात यह भी मान लें कि क्या ग्राहक को वैसे नहीं पता कि इस तरह के सभी उत्पाद उस की सेहत के साथ उत्पात ही मचाते हैं। लेकिन जब वैधानिक चेतावनी का प्रावधान है तो फिर ये कंपनियां आखिर क्यों इस की धज्जियां उड़ाने पर उतारू हैं। क्यों नहीं लिखतीं यही बात ये हिंदी में ...जब कि कईं पाउचों पर तो इन का ट्रेड-नेम तो आठ-दस भारतीय भाषाओं में भी लिखा होता है। अंदर की बात तो यही है कि ये नहीं चाहतीं कि ग्राहक यह सब पढ़ सके, समझ सके........क्या पता कभी उस पर लिखी चेतावनी अगर उस की भाषा( कम से कम राष्ट्रीय भाषा में )में ही हो तो वह इसे पढ़ कर इसे छोड़ने के लिए ही मन बना ले या किसी अनपढ़ बंदे को उस का प्राइमरी कक्षा में पढ़ रहा बच्चा जब इस चेतावनी के बारे में हिंदी में पढ़ कर सुनाए तो.......। लेकिन इन सब से इन कंपनियों को क्या लेना देना.....भाड़ में जाये लोगों की सेहत, इन का पाउच एक रूपये में बिक गया तो बस इन का मिशन पूरा हो गया।

एक तंबाकू के उत्पाद के ऊपर तो यह भी लिखा था कि इसे गोल्ड-मैडल मिला हुया है....अब यह पता नहीं किस सिरफिरे ने इस तरह के उत्पाद को गोल्ड-मैडल देने की हिमाकत की होगी जो कि हर साल करोड़ों कीमती जानें लील लेता है।

इस तरह के कईं प्रोडक्ट्स पर एक स्क्वेयर के अंदर एक हरा सा बिंदु देख कर दुःख भी हुया और हंसी भी आई। कंपनी यह चिल्ला रही है कि यह शाकाहारी है...लेकिन ज़हर शाकाहारी हो या मांसाहारी इस से आखिर फर्क क्या पड़ता है।
इतने सारे प्रोड्क्ट्स पर इस चेतावनी को देखने पर यही पाया है कि इस में भी बहुत से लूप-होल्स हैं..... इस चेतावनी को पैकिंग पर बहुत ही छोटे से साइज़ में लिखा होता है और वह भी अंग्रेज़ी में, सब के सब पान-मसाले गुटखे के पैकेटों पर इन्ग्रिडिऐन्ट्स को ही हमेशा मैंने छोटे-छोटे फोंट में अंग्रेज़ी में ही लिखे पाया। बस, सीधी सी बात यह है कि इनके ये उत्पादक यह चाहते हैं कि किसी तरह से ग्राहक कुछ पढ़ ही न पाये ।

और यह एक उत्पादक ने तो यह लिखवाया हुया है कि 100% शुद्ध देशी गुटखा....अब इस को कौन समझाये कि तू काहे इतना शुद्धता के लिए परेशान हो रहा है। इस से क्या ज़हर का असर कम हो जायेगा। और एक मजेदार बात और भी है कि बहुत से पाउचों पर उन के मालिकों की सूट-टाई गाड़े हुए फोटो देख कर बहुत अजीब लगता है कि अमां, तुम काम कौन सा कर रहे हो और फिर भी लाइम-लाइट में रहने के इतने लालायित क्यों हो भई।
लाइम-लाइट में तो वैसे भी यह रह ही लेते हैं...किसी बड़े समारोह को स्पोंसर कर के, या किसी धार्मिक समारोह में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेकर ये बेगुनाहों को अंधी गली में धकेलने से कमाये हुये पाप की गठड़ी थोड़ी हल्की करने की कोशिश कर के मन को क्षणिक तसल्ली दे लेते हैं।

लेकिन मैं यह सब चीख चीख कर क्यों परेशान हो रहा हूं......क्यों कि चीखना मेरा कर्म है......क्या पता किसी एक के भी मन को मेरी बात लग जाये और क्या पता इस केस में भी स्नो-बॉल इफैक्ट हो जाये। इँशा-अल्लाह.........आप भी लगे हाथों कह ही दें......आमीन !!!!

शनिवार, 16 फ़रवरी 2008

टिप्पणीयों पर टिप्पणी...

बहुत अच्छा, ठीक है, बहुत बढ़िया,..........हिंदी ब्लोगर्स पार्क में घूमते घूमते पिछले कुछ हफ्तों से कुछ ब्लोग्स देखें हैं और बहुत सी टिप्पणीयां देखी हैं। इन सब को देखने के बाद मेरे मन में कुछ विचार आ रहे है। पता नहीं ये विचार कितने सिल्ली हों, लेकिन मैंने तो अपनी स्लेट पर इन्हें लिखने का फैसला कर लिया है। जो कुछ भी इन टिप्पणीयों के बारे में मेरे मन में है, वह इस तरह से है......
मार्ग-दर्शक टिप्पणीयां....मुझे याद है जब मैंने हिंदी ब्लोगरी में नया नया पांव रखा था, तो मुझे शास्त्री जी की कुछ इस तरह की ही टिप्पणीयां मिलीं......जिन्होंने मेरा मार्ग-दर्शन किया—जैसे कि उन्होंने मुझे फोंट और टेंप्लेट के बारे में बताया। और मैंने उन्हें माना भी, इसलिए मैं चाहे कभी भी कितना भी इस हिंदी ब्लोगरी में पुराना हो जाऊं, मैं हमेशा इन्हें याद रखूंगा कि जब मैं इस पार्क में चलना सीख रहा था तो किसी ने मेरी उंगली पकड़ी थी।
उत्साह-वर्धक टिप्पणीयां.....इस प्रकार की टिप्पणीयां मुझे बहुत से लोगों से मिलीं...विशेषकर ज्ञानचंद पांडेय जी, रेडियोवाणी के यूनुस जी की टिप्पणीयां शुरू शुरू में ब्लोगर्स का हौंसला बहुत बुलंद करती हैं।


.........................................मैं तो फिर एक बार लिखना शुरू करता हूं तो फिर यह भी ध्यान में नहीं रखता कि पढ़ने वालों पर भी थोड़ा रहम करना चाहिए। सो, अब इस तरह की श्रेणीयां लिखना लिखना बंद कर रहा हूं और सीधा अपनी बात पर आता हूं।
भई, मै तो टिप्पणी उस को ही समझता हूं कि जिसे लिखे बिना आप भई बस रह ही न सको । जिस लिखने में हमें कभी आलस्य न आए, .....न इस तरह का बोझ महसूस हो कि यार अब कौन इस टिप्पणी को लिखने के लिए उस फार्म पर अपना यूज़र नेम भरे, कौन यूआरएल भरे.......बस, जब इस तरह का आलस्य मन में आये तो समझना चाहिए कि हम दिल से उस ब्लोगर को कुछ कहना चाह ही नहीं रहे हैं। हम तो बस यही बताना चाह रहे हैं कि भई हमने तो तुम्हारी पोस्ट पढ़ ली है, तुम भी हमारी पढ़ा करो और टिप्पणी दिया करो। वैसे ऐसा करना अपने आप को किसी बंधन में कैद करने जैसा लगता है। मुझे कुछ कुछ याद आ रहा है कि कुछ दिन पहले ही श्री सुरेश चिपलूणकर जी के ब्लोग पर एक बहुत ही बढ़िया पोस्ट थी जिस पर कुछ बातें कहीं गईं थीं कि अपनी ब्लोग को कैसे पापुलर बनाया जाये...उस में कुछ इस तरह की भी बहुत सुंदर सी बात कही गई थी कि आप चाहे किसी की पोस्ट पढ़ो या नहीं, सीधा पेज खुलने पर टिप्पणी पर क्लिक मारो, और दिन में ऐसी कईं टिप्पणीयां दे मारो । वैसे कईं एक-दो या कुछ शब्दों की टिप्पणीयों से कईं बार कुछ ऐसा ही लगता है।
वैसे मैं तो सोचता हूं कि टिप्पणी वह हो , जो या तो बलोगर की किसी ताकत को निकाल कर बाहर लाये, उसे बताए कि तुम्हारी ब्लोग की या पोस्ट में मुझे ये ये बातें बहुत पसंद हैं, ये ये बातें हमारे मन को छू जाती हैं। या टिप्पणी वह भी है जो कि ब्लोगर को गाइड करें कि वह अपनी कमियों को किस तरह से दूर करे या उस के मन में कुछ शंकाएं हैं तो टिप्पणीकार उन का निवारण ही कर डाले।
मुझे शुरू शुरू में इस कमैंट्स माडरेशन के बारे में कुछ शंकाएं थीं, एक दो पोस्टें भी लिखीं...लेकिन एक बार तरूण जी( निठल्ला चिंतन बलोग ) ने ऐसी एक टिप्पणी भेज कर ऐसी तसल्ली करवा दी कि दोबारा फिर कभी ऐसी शंका उत्पन्न ही नहीं हुई । लेकिन मुझे वह अपराध-बोध हमेशा सताता रहेगा कि जब मेरी तो तसल्ली हो गई, लेकिन मैंने तुरंत उस पोस्ट को और टिप्पणी को डिलीट कर दिया.....यह गिल्टी-कांशिय्सनैस तब और भी बढ़ गई जब मेरा पांचवी कक्षा में पढ़ रहे बेटे ने अगले दिन मुझे यह कहा कि पापा , आप को ऐसा तो नहीं करना चाहिए था। ( हां, वह अपना हमराज़ ही है, नैट पर कुछ भी करते हुए सारा समय साथ ही बंध कर जो बैठा रहता है) मेरे पास उस की बात का कोई जवाब नहीं था, लेकिन मैंने उसे इतना एश्यूर कर दिया कि बेटा, सॉरी, अब कभी आगे से ऐसा नहीं करूंगा।
पिछले कुछ दिनों पहले संजय तिवारी की विस्फोट ब्लोग पर उन की (तरूण )एक और टिप्पणी देख कर मन बहुत खुश हुया जिस में उन्होंने लिखा था कि आप लोग अपनी बलोग को एक डॉयरी की तरह ही क्यों नहीं लिखते हो, वैसे तो ब्लोग का सही मतलब भी तो यह है।
तो, मेरा इतना ही अनुग्रह है कि जब किसी को भी टिप्पणी हम दें तो शब्दों को दिल खोल कर इस्तेमाल करें....न टाइम की परवाह करें, और ना ही किसी और चीज़ की.....बस उस समय तो केवल अपनी बात उस बलोगर तक पहुंचाने की ही हमें फिक्र हो। पता नहीं हमारी उस टिप्पणी ने क्या काम करना होता है। यह तो भई एक वार्तालाप है ,अगर हम दिल से नहीं करेंगे, तो कैसे कुछ असर होगा। नहीं होगा ना, तो फिर आज से टिप्पणी भी पूरे दिल से दिया करेंगे। अच्छा पता सब को बहुत ही जल्दी लग जाता है कि यह टिप्पणी सुपरफिशियल है या मन से निकली आवाज़ है......देखो, भई, कोई भी मांइड तो करे नहीं , लेकिन बहुत ही ब्रीफ सी टिप्पणी पढ़ कर मज़ा नहीं आता। अगर किसी बात की तारीफ करनी है तो खोल कर करें ,ताकि ब्लोगर को अच्छा लगे, और अगर उस को किसी कमियों , खामियों से अवगत करवाना है तो भी पूरे विस्तार से करें ताकि उस को यह आभास भी न हो कि बिना जगह टांग ही खींची जा रही है,......उस को कुछ यूज़फुल टिप्स बताये जायें। मैंने जो कुछ हफ्तों में देखा है वह यही है कि हिंदी बलोग्री में ज्ञान का भरपूर भंडार है....एक से एक विद्वान हैं...इसलिए हमें एक दूसरे से बहुत कुछ सीखना है.......यह कोई अंग्रेजी भाषा की तरह कोई ठंडा सा माध्यम नहीं है, यहां पर सब लोग बहुत गर्मजोशी से मिलते हैं, बाते करते हैं और टिप्पणीयां देते हैं।
लेकिन मुझे समझ नहीं आता कि हम लोग एक दूसरे को कोई संबोधन करते हुए क्यों झिझकते हैं, डरते हैं या ऐसे ही अंग्रेज़ी बलोगरी की परंपराओं का पालन करना ही अपना धर्म समझ बैठे हैं।यह बात सोचने की है। मैं भी शुरू शुरू में बहुत इस्तेमाल किया करता था...दोस्तो, ..लेकिन अब मैंने भी अपने आप पर कंट्रोल कर लिया है कि मैं ही क्यों यह दोस्तो , दोस्तो पुकारता रहता हूं... मैं इस के द्वारा हिंदी ब्लोगरी की तैयार हो रही नींवों को सारे विश्व में कमज़ोर तो नहीं कर रहा, सो मैंने अब यह दोस्तो, वोस्तो लिखना बंद कर दिया है। वैसे मैं तो भई आप की तरह ही ...वसुधैव कुटुंबकम् ..का ही पक्षधर हूं।
तो चलिए हिंदी बलोगरी की नींवों को बिना किसी तरह की कन्वैंशन्ज़ को फॉलो करते हुए अपने नये ढंग से रखें।

बुधवार, 13 फ़रवरी 2008

यह फूला हुया गुब्बारा पेट में क्या कर रहा है ?

आप्रेशन के दौरान गलती से पेट में कोई सर्जीकल औजार, छोटा-मोटा तौलिया या कोई गाज़-पीस(पट्टी) की खबरें कभी कभी मीडिया में देखने-सुनने के बाद आप का इस पेट में पड़े हुए गुब्बारे के बारे में इतना उतावलापन भी मुनासिब जान पड़ता है।
                                                


लेकिन यहां पर जिस गुब्बारे की बात की जायेगी वह फूला हुया गुब्बारा तो जान बूझ कर किसी बंदे की भलाई के लिए ही उस के पेट में छोड़ा जाता है......जी हां, बिल्कुल उस के फायदा के लिए ही इसे पेट में पहुंचाया जाता है ताकि उस बंदे का वज़न कम हो सके। अब तो मोटापे को कम करने के लिए गोलियां चल पड़ीं हैं, शरीर के कुछ हिस्सों से वसा को सर्जरी के द्वारा निकाल दिया जाता है (liposuction), और यहां तक कि पेट का आप्रेशन कर के उसे छोटा कर दिया जाता है । शायद अब पेट में बस गुब्बारे छोड़ने की ही कसर बाकी थी।(कहीं वह पेट में चूहे दौड़ने वाली कहावत बदल कर आने वाले समय में बदल कर पेट में गुब्बारे फूट रहे हैं ...ही न हो जाये)... चलिए इस के बारे में थोड़ी जानकारी हासिल करते हैं।
सिलीकॉन के इस पिचके हुए गुब्बारे को मरीज के शरीर में दूरबीन के द्वारा( endoscope) उस के पेट में डाला जाता है, उस के तुरंत बाद इस खाली गुब्बारे में एक कैथीटर( एक तरह की ट्यूब) की मदद से लगभग आधा लिटर नार्मल सेलाइन (जिस में थोड़ी कलर्ड-डाई मैथिलिन ब्लयू मिला दी जाती है) भर दिया जाता है। जब गुब्बारे में वह तरल पदार्थ भर जाता है तो डाक्टर द्वारा उस कैथीटर को बहुत ही आराम से बाहर निकाल लिया जाता है। इस गुब्बारे में एक इस तरह का वॉल्व होता है जो कि स्वयं ही बंद हो जाता है, और यह गुब्बारा पेट में फ्लोट करना शुरू कर देता है। इस सारे काम को करने में 15-20 मिनट का समय लगता है और एक रिपोर्ट के अनुसार ऐसे चालीस केस बंबई में किए जा चुके हैं जिस पर लगभग सत्तर से नब्बे हज़ार रूपये का खर्च आने की बात कही गई है।
अब प्रश्न जो उठता है वह यही है कि यह पेट में घूम रहा पानी से भरा गुब्बारा आखिर कैसे करेगा बंदे का वज़न कम। दरअसल जब यह गुब्बारा पेट में होता है तो पेट के तीन-चौथाई हिस्से में तो यही चहल-कदमी करता रहता है, ऐसे में मरीज़ पहले से एक-चौथाई खाना खा लेने पर ही संतुष्टि अनुभव कर लेता है। सीधा सा मतलब यही हुया कि यह मरीज को कम खाने में मदद करता है जिस से छःमहीने में उस का वज़न 10-15किलो घट सकता है।
इस गुब्बारे को छःमहीने बाद पेट से दूरबीन की मदद से निकाल दिया जाता है। पेट के अंदर मौजूद एसिड्स इस सिलिकॉन के गुब्बारे को कमज़ोर कर देते हैं जिस के कारण वह कभी भी अंदर लीक हो सकता है। वैसे तो कंपनी की वेब-साइट पर तो यह लिखा है कि ऐसा होने पर यह टायलैट के रास्ते बाहर निकल जाता है लेकिन कईं कईं केस में इस कंडीशन में इस पिचके हुए गुब्बारे को आंतड़ियों से बाहर निकालने के लिए आप्रेशन भी करना पड़ा है।
वैसे तो सामान्य हालात में इस को जब छःमहीने बाद पेट से निकाला जाता है तो दूरबीन की मदद से ही आसानी से निकाल दिया जाता है और इस को बाहर निकालने से पहले इस को पंचर कर दिया जाता है जिस से यह पिचक जाता है और एंडोस्कोप की मदद से आसानी से मुंह के रास्ते बाहर निकाल लिया जाता है।
वैसे तो जब इस गुब्बारे को पेट में छोड़ा जाता है तो मरीज़ को यह अच्छी तरह से समझा दिया जाता है कि अगर आप के पेशाब का रंग कभी भी नीला लगे तो डाक्टर को तुरंत सूचित करें....इस का मतलब यही होता है कि यह गुब्बारा लीक हो गया है और फिर इसे किसी भी समय दूरबीन से निकाल दिया जाता है।
जब इस गुब्बारे को पेट में छोड़ा जाता है तो शुरू शुरू में मरीज़ को एडजस्ट होने में दो-तीन दिन लगते हैं......मरीज़ को शुरू शुरू में थोड़ा उल्टी जैसा लगता है जो कुछ दिन में ठीक हो जाता है। इस के साथ साथ जब तक मरीज़ के पेट में यह गुब्बारा रहता है तब तक पेट में एसिड की मात्रा को कंट्रोल करने के लिए दवाईयां भी लेने पड़ती हैं। और आहार में भी संतुलित के साथ साथ कुछ संयम बरतने को कहा जाता है।
इस विधि द्वारा वज़न कम करने की भी अपनी सीमायें हैं। क्योंकि अगर गुब्बारा पेट से निकालने के बाद अगर खाने-पीने एवं शारीरिक श्रम जैसी महत्त्वपूर्ण बातों की तरफ ध्यान नहीं दिया जाता है तो बंदे का वज़न वापिस बढ़ जाता है। दूसरा यह है कि इस वज़न कम करने वाली विधि का उपयोग कईं बार उन मरीज़ों में किया जाता है जो इतने ही ज्यादा स्थूल हैं कि वे अपनी दिन-चर्या करने में ही असमर्थ हैं और कईं बार तो बहुत ही ज़्यादा वज़न वाले व्यक्तियों को किसी आप्रेशन के लिए तैयार करने से पहले भी इस विधि के द्वारा उनका वज़न कम किया जाता है ताकि उन की सर्जरी सेफ एंड साउंड तरीके से की जा सके---कम से कम उस सर्जरी से संबंधित रिस्क तो कम किये जा सकते हैं।
अब यह तकनीक तो हमारे देश में भी आ ही गई है, लेकिन मैं यही सोचता हूं कि इस गुब्बारे को पेट डलवाने की भी कहीं होड़ सी न लग जाये.....पूरी तरह अच्छी तरह सोच समझ कर , सैकेंड ओपिनियन लेकर ही इस तरह का फैसला लेने में ही समझदारी है। वैसे भी संतुलित आहार, रैगुलर रूटीन एवं नियमित व्यायाम का तो अभी तक कोई विकल्प मिला ही नहीं है।

रविवार, 10 फ़रवरी 2008

हिंदी अखबारों में छपने वाले इस तरह के भ्रामक विज्ञापन...


हार्ट अटैक से बचाव के लिए पेट गैस और एसिडिटि की रोकथाम जरूरी होती है....यह तो है शीर्षक हिंदी के जाने-माने अखबार में छपे आज एक विज्ञापन का। उस के साथ ही किसी डाक्टर का मोबाइल नंबर दिया गया है जो यह सब कुछ कह रहा है। आगे लिखा है कि अम्लपित्त या Acidity के कारणों में शराब, तम्बाकू, पान मसाला, हार्मोन, स्टीरॉयड व दर्द नाशक गोलियों को डा.......गिनते हैं जो कि ......सीरप के पीने से नियंत्रण में रहते हैं। डा..........जड़ी-बूटियों से बनी ......सीरप के प्रयोग की सिफारिश करते हैं उन लोगों को भी जो जंकफूड, स्नैक्स, गोलगप्पे, पिज्जा, बर्गर, चाउमीन खाने के बाद सिरदर्द, आन्तड़ियों व गुर्दों की तकलीफों पेट की जलन गैस से परेशान होते हैं...........................
मीडिया डाक्टर की टिप्पणी --- मैंने इस विज्ञापन की आधी से भी ज़्यादा डिटेल्स नहीं लिखी हैं क्योंकि ऐसे विज्ञापन पढ़ कर मेरा सिर फटने लगता है। मैं समझता हूं कि ऐसे विज्ञापन केवल गुमराह करते हैं। डाक्टर होने के साथ-साथ पत्रकारिता से भी जुड़े होने के नाते मैं यह भी अच्छी तरह से समझता हूं कि मेरी ब्लोग की पहुंच तो केवल अच्छे-खासे पढ़े-लिखे सौ-पचास लोगों तक ही होगी, जो कि शायद मेरे द्वारा कही गई ज़्यादातर बातें पहले ही से जानते होंगे, लेकिन ऐसे भ्रामक विज्ञापनों की पहुंच बहुत दूर दूर तक है। विशेषकर मुझे चिंता है उस वर्ग की जो सड़क के किनारे बने एक चाय के खोखे में ये अखबारें पढ़ते हैं। आप ने भी तो देखा ही होगा कि किस तरह बहुत से मज़दूर, रिक्शा चालक अथवा छोटी-मोटी रेहड़ी लगाने वाले सारी अखबार का एक एक पन्ना आपस में बांट कर किस तरह एक अखबार का गर्मा-गर्म चाय के साथ मज़ा लूट रहे होते हैं। यही वर्ग सब से ज्यादा ऐसे लुभावने विज्ञापनों की चपेट में आ जाता है।
मैं पिछले चार-पांच वर्षों से इस तरह के विज्ञापनों के पीछे ही पड़ा हूं....लेकिन अभी तक कुछ कर नहीं पाया हूं...पता नहीं आगे चल कर भी कुछ कर पायूंगा या ....। सबसे पहले तो मैंने अखबारवालों को खूब लिखा कि आप ऐसे विज्ञापन क्यों छापते हैं.....लेकिन कुछ नहीं हुया। फिर मैंने नोटिस किया कि वो तो बड़ी चालाकी से एक चेतावनी सी छपवा कर पल्ला झाड़ लेते हैं। खूब फैक्स किए, खूब पत्र लिखे, खूब ई-मेल भेजीं.......लेकिन कुछ भी टस से मस न हुया। इन से संबंधित कुछ लेख भी भेजे, लेकिन वो भी शायद रद्दी की टोकरी के सुपुर्द ही हो गये होंगे......यह तो होना ही था । विज्ञापनों के स्तर को कायम रखने वाली एक संस्था को भी बहुत बार लिखा....उन को जब ई-मेल भेजता, तो कहते थे कि चिट्ठीयों में सब कुछ प्रूफ के साथ भेजें ...सब कुछ किया.....इन के भेजने में काफी पैसा और समय भी नष्ट किया........लेकिन रिज़ल्ट ज़ीरो.....ज़ीरो ...सिर्फ ज़ीरो। उस संस्था की कार्य-प्रणाली इतनी पेचीदा लगी कि मैंने वह सब लिखना भी बंद कर दिया क्योंकि मुझे कुछ महीनों में ही यह आभास हो गया कि कुछ भी नहीं होने वाला ...सब कुछ ऐसे ही चलने वाला है.......बस, अपना ही माथा फोड़ने वाली बात है।
इन सब से परेशान हो के बैठा ही था कि बेटा ने आवाज़ लगा दी कि बापू, अब तू हिंदी में ई-मेल भी भेज पायेगा, चिट्ठी भी लिख पायेगा.........बस, उसी दिन से इस ब्लोगिंग के चक्कर में पड़ गया हूं.....क्योंकि यह तो मुझे भी बहुत अच्छी तरह से पता है कि अकेला चना भाड़ कभी नहीं फोड़ सकता , लेकिन अब जो कुछ भी मन को कचोट रहा है उस को इस ब्लोग के ज़रिये प्रकाशित करने की छूट तो है। अब तो बस उसी चीनी कहावत की याद कर लेता हूं.....A journey of three thousand miles starts with a single step !!.....चीनी ही क्यों, यहां भी तो अकसर लोग कुछ इस तरह की बातें कर के आपस में एक-दूसरे का मनोबल बढ़ाते रहते हैं......
कौन कहता है कि आसमां में सुराख हो नहीं सकता,
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो।
इन परिंदों को भी मिलेगी मंज़िल एक दिन,
यह हवा में खुले इस के पंख बोलते हैं।
माना कि परिंदों के पर हुया करते हैं,
ख्वाबों में उड़ना कोई गुनाह तो नहीं।
अभी कल-परसों ही पत्रकार संजय तिवारी की जी एक ब्लोग पोस्ट से पता चला कि वे कुछ इस दिशा में करने की इच्छा करते हैं कि मीडिया में आने वाली खबरों की खबर कैसे ली जाए....किस तरह से, किस के पास अपना दुःखड़ा रोया जाये...आप भी उन की वह पोस्ट ज़रूर देखिएगा। मुझे उन का यह आइडिया बहुत पसंद आया।
जाते जाते मैं यह भी बता दूं कि मैंने इस तरह के विज्ञापनों से निपटने का अपना ढंग इजाद कर लिया है.....एक पैन लेकर पहले उस के ऊपर ही अपना दिल खोल कर......., फिर उस को कूड़े के डिब्बे में फैंक देता हूं।

शनिवार, 9 फ़रवरी 2008

हेयर-डाई से होने वाली एलर्जी के बढ़ते केस...


इस सप्ताह के ब्रिटिश मैडीकल जर्नल में प्रकाशित एक रिपोर्ट में कहा गया है कि अब कम उम्र के लोगों में भी हेयर-डाई का इस्तेमाल बढ़ने से इस से होने वाले एलर्जिक रिएक्शन के केस भी बढ़ रहे हैं।

इस से चेहरे की चमड़ी पर सूजन (dermatitis)आ सकती है और कभी कभी तो चेहरा सूज भी सकता है।

रिपोर्ट में यह कहा गया है कि दो-तिहाई हेयर-डाईयों में पैराफिनाइलीनडॉयामीन( para-phenylenediamine…PPD) और उस से ही संबंधित पदार्थ होते हैं। बीसवीं सदी में इस पीपीडी (PPD) से होने वाली एलर्जी एक ऐसा गंभीर समस्या बन गई कि हेयर-डाई में इस के इस्तेमाल पर जर्मनी, फ्रांस एवं स्वीडन नें प्रतिबंध लगा दिया गया।

आजकल प्रचलित यूरोपीय कानून के अंतर्गत हेयर-डाई में पीपीडी की मात्रा 6प्रतिशत तक रखने की अनुमति है। चिंता की बात यह भी है कि इन बालों को स्थायी तौर पर रंग करने के लिए इस पीपीडी का कोई ढंग का विकल्प मिल नहीं रहा है।

चमड़ी रोग विशेषज्ञों के अनुसार पीपीडी युक्त हेयर-डाई के द्वारा पैच-टैस्ट करने पर पाज़िटिव टैस्ट के केसों में लगातार वृद्धि हो रही है। लंदन में किए गये एक सर्वे के अनुसार पिछले छःसालों में इस प्रकार के चर्म-रोग( contact dermatitis) की फ्रिक्वैंसी दोगुनी हो कर 7.1प्रतिशत तक पहुंच गई है। दूसरे देशों में भी इसी ट्रेंड को देखा गया है।

मार्कीट रिसर्च से यह भी पता चला है कि ज़्यादा लोग अब बालों को रंग करने लगे हैं और वह भी कम उम्र में ही। 1992 में जापान में किए गए एक सर्वे से पता चला था कि 13प्रतिशत हाई-स्कूल की छात्राओं , 6प्रतिशत बीस से तीस साल की उम्र की महिलाओं तथा इसी उम्र के 2 प्रतिशत पुरूषों ने हेयर-कलर के इस्तेमाल की बात स्वीकारी थी , लेकिन 2001 तक पहुंचते पहुंचते इन तीनों ग्रुपों का अनुपात 41%, 85% तथा 33% तक पहुंच चुका है।

यहां तक कि हाल ही में बच्चों में हेयर-डाई से होने वाले गंभीर रिएक्शनों की भी रिपोर्टें प्राप्त हुई हैं।

इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि अब समय आ गया है जब इन हेयर-डाई की सेफ्टी एवं इन की कंपोज़िशन पर चर्चाएं होनी चाहिएं। चिंता की बात यह भी बताई गई है कि मरीज़ों को इन के दुष्परिणामों का पता होते हुए भी वे इनको इस्तेमाल करने से बाज नहीं आते।

मीडिया डाक्टर की टिप्पणी---- आप ने यह तो देख लिया कि पश्चिमी देशों में इस हेयर-कलर के इस्तेमाल ने कितनी चिंताजनक स्थिति उत्पन्न कर दी है। तो, क्या अपने यहां सब कुछ ठीक ठाक है....बिल्कुल नहीं। हमें तो यह भी नहीं पता कि जिस मेंहदी को इस देश में इतने चाव से बालों की रंगाई के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है, उस में कौन कौन से कैमीकल इस्तेमाल किए जा रहे हैं और कितनी मात्रा में। ब्रिटेन में लोगों को पता तो है कि इस हेयर-कलर में इतनी प्रतिशत पीपीडी है, लेकिन हमें तो कुछ पता भी नहीं......लेकिन ये सब बालों को रंग करने के लिए बिकने वाली मेहंदीयां ( उदाहरणतः काली मेहन्दी के पैकेट) खूब धड़ल्ले से बिक रही हैं। इन में ज़रूर ही कोई कैमीकल मिले होते हैं , अन्यथा मेहंदी कभी (हिंदी फिल्मी गीतों के इलावा) इतना रंग छोड़ती है क्या ....और काली मेहंदी, यह कौन सी बला है , मुझे तो बिलकुल नहीं पता कि यह कहां उगती है, मैं तो यही समझता हूं कि इसे इसी तरह के कैमीकल वगैरह डाल कर ही काला किया होता है। अगर देश में कहीं काली मेंहदी की पैदावार होती है तो मुझे प्लीज़ इस की सूचना दीजिएगा। देश की अधिकांश जनता इन सस्ते उत्पादों से ही काम चला रही है...बस वे इन से होने वाले नुकसानों से अनभिज्ञ हैं या कहूं कि किसी हद तक मजबूर भी हैं।

लेकिन देश में बिकने वाले महंगे हेयर-कलर्ज़ की भी हालत कुछ इतनी अच्छी नहीं है। मैंने एक ऐसा ही बहुत बड़ी कंपनी का पैक देखा है...खूब महंगा भी है। लेकिन डिब्बे पर , पैम्फलेट पर कहीं भी नहीं लिखा कि इस हेयर-डाई में कौन से कैमीकल्स मौज़ूद हैं। केवल ट्यूब के ऊपर बहुत ही चालाकी से अंग्रेज़ी में लिखा हुया है कि इस में पैराफिनाइलीनडायामीन है और साथ में उस की मात्रा बताई गई है। बड़ी इंटरएस्टिंग बात यह है कि पैम्फलेट को तो अंग्रेज़ी के इलावा हिंदी , गुजराती और दक्षिण भारतीय भाषाओं में भी छपवाया गया है, लेकिन यह जो टयूब के ऊपर लिखा है ...पीपीडी वाली बात....यह केवल अंग्रेज़ी में ही लिखी है ( हां, हां, बिल्कुल उस मशहूर सी मच्छर भगाने वाली दवा की पैकिंग की तरह जिस में सारी जानकारी शायद भारत की अधिकांश क्षेत्रीय भाषाओं में उपलब्ध करवाई जाती है) ...मैं तो इस तरह के पैम्फलेट जब भी देखता हूं तो यही सोचता हूं कि जब इन कंपनियों को अपने ग्राहकों की इतनी फिक्र है( या कहूं कि सेल्स की फिक्र है) तो पता नहीं इन पान मसालों एवं गुटखा बेचने वालों को क्यों वैधानिक चेतावनी ढंग से देते समय क्यों सांप सूंघ जाता है( चलिए , किसी दूसरी पोस्ट में यह पर्दा-फाश भी करूंगा कि किस तरह ये गुटखे-पान मसाले वाले वैधानिक चेतावनी की धज्जियां उड़ा रहे हैं।)

हां, तो बात उस महंगी वाली हेयर-कलर की पैकिंग की हो रही थी , एक मज़ेदार बात यह भी है कि उस की पैकिंग के बाहर ही छोटे छोटे अक्षरों में वैसे यह चेतावनी भी दी गई है कि इस के इस्तेमाल के 48 घंटे पहले आप स्किन एलर्जी टैस्ट ज़रूर कर लें। लेकिन प्रैक्टीकल रूप में देखें तो कितने लोग घर में यह टैस्ट करते होंगे या कितने हेयर-ड्रैसर इस बात को मान कर ग्राहक का टैस्ट कर के उसे 48 घंटे बाद आने की सलाह देते हैं। नहीं हो रहा ना यह सब कुछ, यह तो आप भी मानते हैं । एक चेतावनी और दिखती है कि इन कलर्ज़ को आंखों में न लगने दें, रंग आंखों में लग जाये तो तुरंत गुनगुने पानी से धोयें , इससे अपनी बरौनियों, भौहों को न रंगे क्योंकि इसके ऐसे इस्तेमाल से अंधापन हो सकता है।

चिंता की बात यह भी तो है कि टैलीविज़न में देख-देख कर छोटे छोटे बच्ची –बच्चियां भी अब इन तरह तरह के रंगों के हेयर-कलर्ज़ का इस्तेमाल करने लगे हैं।

तो, अब यह सब कुछ लिखने के पश्चात मेरा सुझाव यही है कि ज्ञान दत्त पांडे जी अपनी बुधवारीय पंकज अवधिया जी की अतिथि पोस्ट में इस हेयर-कलर की कुछ देशी (जड़ी-बूटी पर आधारित) विधियों पर प्रकाश डालें.....हम सब को इस का इंतज़ार रहेगा। आप भी ज्ञान दत्त जी से तथा पंकज अवधिया जी से ऐसा आग्रह कीजिए।

शुक्रवार, 8 फ़रवरी 2008

वो टैटू तो जब आयेगा, तब देखेंगे....लेकिन अभी तो....


वो टैटू तो जब आयेगा,तब देखेंगे लेकिन हमें आज ज़रूरत है मौज़ूदा टैटू बनवाने की मशीनों से बचने की।

आज समाचार-पत्रों में यह खबर दिखी है कि टैटू गुदवाने का जो चलन फैशन और स्टाइल के नाम पर ही शुरू हुआ था, अब यह जल्दी ही बीमारियों से बचाव का जरिया भी बन जाएगा। जर्मनी के शोधकर्त्ताओं ने इस बात का पता लगाया है कि टैटू गुदवाने की प्रक्रिया शरीर में दवा के प्रवेश की सबसे असरदार विधा है। खासकर डीएनए वाले टीकों के मामले में यह विधा इंट्रा मस्कुलर इंजेक्शन से कहीं बेहतर है। रिपोर्ट के अनुसार फ्लू से लेकर कैंसर जैसी बीमारियों के इलाज में भी टैटू के जरिए बेहतर टीकाकरण हो सकता है।

विशेष टिप्पणी----- मैडीकल साईंस भी बहुत जल्द आगे बढ़ रही है...दिन प्रतिदिन नये नये अनुसंधान हो रहे हैं। अभी मैं दो दिन पहले ही एक रिपोर्ट पढ़ रहा था कि अब इंजैक्शन बिना सूईं के लगाने की तैयारी हो रही है। तो आज यह पढ़ लिया कि अब टैटू के जरिये भी दवाई शरीर में पहुंचाई जाएगी। यह तो आप समझ ही गये होंगे कि यहां पर उन टैटुओं की बात नहीं हो रही जो बच्चे एवं बड़े आज कल शौंक के तौर पर अपने शरीर के विभिन्न हिस्सों में चिपका लेते हैं और जो बाद में नहाने-धोने से साफ भी हो जाते हैं। लेकिन यहां बात हो रही है उस विधि की जिस का एक बिल्कुल देशी तरीका आप ने भी मेरी तरह किसी गांव के मेले में देखा होगा।

एक ज़मीन पर बैठा हुया टैटूवाला किस तरह एक बैटरी से चल रही मशीन द्वारा बीसियों लोगों के टैटू बनाता जाता है...साथ में कोई स्याही भी इस्तेमाल करता है......किसी तरह की कोई साफ़-सफाई का कोई ध्यान नहीं....न ही ऐसे हालात में यह संभव ही हो सकता है, अब कैसे वह डिस्पोज़ेबल मशीन इस्तेमाल करे अथवा कहां जा कर उस मशीन को एक बार इस्तेमाल करने के बाद किटाणु-रहित ( स्टैरीलाइज़) करे...यह संभव ही नहीं है। ऐसे टैटू हमारे परिवार में किसी बड़े-बुज़ुर्ग के हाथ पर अथवा बाजू पर दिख ही जाते हैं। लेकिन यह टैटू गुदवाना बेहद खतरनाक है......मुझे नहीं पता कि पहले यह सब कैसे चलता था......था क्या, आज भी यह सब धड़ल्ले से चल रहा है और हैपेटाइटिस बी एवं एचआईव्ही इंफैक्शन्स को फैलाने में खूब योगदान कर रहा होगा। लोग अज्ञानतावश बहुत खुशी खुशी अपनी मन पसंद आकृतियां अपने शरीर पर इस टैटू के द्वारा गुदवाते रहते हैं। लेकिन इस प्रकार के टैटू गुदवाने से हमेशा परहेज़ करना निहायत ज़रूरी है।

यह तो आने वाला समय ही बतायेगा कि कि जिस टैटू की इस रिपोर्ट में बात कही गई है, उस की क्या प्रक्रिया होती है। लेकिन मेरी हमेशा यही चिंता रहती है कि जहां कहां भी यह सूईंयां –वूईंयां इस्तेमाल होती हों वहां पर पूरी एहतियात बरती जा पायेगी या नहीं.....यह बहुत बड़ा मुद्दा है, बड़े सेंटरों एवं हस्पतालों की तो मैं बात नहीं कर रहा, लेकिन गांवों में भोले-भाले लोगों को नीम-हकीम किस तरह एक ही सूईं से टीके लगा लगा कर बीमार करते रहते हैं ..यह सब आप से भी कहां छिपा है। पंजाब में भटिंडा के पास एक गांव में एक झोला-छाप डाक्टर पकड़ा गया था जो सारे गांव को एक ही नीडल से इंजैक्शन लगाया करता था ....इस का खतरनाक परिणाम यह निकला सारे का सारा गांव ही हैपेटाइटिस बी की चपेट में आ गया।

बात कहां से शुरू हुई थी, कहां पहुंच गई। लेकिन कोई कुछ भी कहे...जब भी इंजैक्शन लगवाएं यह तो शत-प्रतिशत सुनिश्चित करें कि नईं डिस्पोज़ेबल सूंईं ही इस्तेमाल की जा रही है। मैं तो मरीज़ों को इतना भी कहता हूं कि कहीं लैब में अपना ब्लड-सैंपल भी देने जाते हो तो यह सुनिश्चित किया करो कि डिस्पोज़ेबल सूईं को आप के सामने ही खोला गया है.......क्या है न, कईं जगह थोड़ा एक्स्ट्रा-काशियश ही होना अच्छा है, ऐसे ही बाद में व्यर्थ की चिंता करने से तो अच्छा ही है न कि पहले ही थोड़ी एहतियात बरत लें। सो, हमेशा इन बातों का ध्यान रखिएगा।

आधा लिटर चकुंदर का जूस पीने के लिए कितने चकुंदर चाहिए होंगे ?



आज सुबह से मुझे यह प्रश्न परेशान कर रहा है, क्योंकि आज की टाइम्स ऑफ इंडिया में उस चकुंदर वाली खबर में यह जानकारी नहीं थी। एक न्यूज़ रिपोर्ट आज की टाइम्स में दिखीं कि प्रतिदिन सिर्फ़ 500 मिली.चकुंदर का जूस पीने से उच्च रक्तचाप घट सकता है ( Researchers from………have discovered that drinking just 500ml of beetroot juice a day can significantly reduce BP)…..अंग्रेज़ी में इसलिए लिख दिया है ताकि आप कहीं यह मत समझ लें कि 500मिली.से पहले मैंने सिर्फ़ अपने आप लिखा है। चौदह वलंटियरों पर यह अध्ययन विलियम हार्वे रिसर्च इंस्टीच्यूट एवं लंदन स्कूल ऑफ मैडीसन में किया गया। अध्ययन करने वाले वैज्ञानिक के अनुसार बीट-रूट जूस में मौजूद डायटिरि नाइट्रेट की वजह से रक्त का बहाव खुल जाता है...( it’s the ingestion of dietary nitrate contained within beetroot juice that dilates blood flow).
इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि अपोलो हास्पीटल के एक कार्डियोलॉजिस्ट ने इस संबंध में टिप्पणी देते हुए कहा है कि एक टेबलेट ले लेना बीट-रूट(चकुंदर) के जूस निकालने एवं उसे पीने से आसान है। उस ने आगे यह भी कहा है कि इस जूस के पीने से बीपी कुछ समय के लिए कम हो जाता होगा, लेकिन क्या यह मरीज़ की क्लीनिक कंडीशन में सुधार ला सकता है ?...साथ में उन्होंने यह भी कहा है कि एक बीपी कम करने वाली टेबलेट सस्ती भी पड़ेगी।
इस बात का जवाब अध्ययन करने वाली वैज्ञानिक ने कुछ इस तरह से दिया है कि हम यह नहीं कह रहे हैं कि सभी बीपी के मरीज़ों के लिए बीट-रूट(चकुंदर) एक राम-बाण( panacea) है। उन्होंने यह भी कहा है कि उन का अध्ययन आगे भी यह देखने के लिए जारी है कि अगर नाइट्रेस को टेबलेट फार्म में लिया जाए तो क्या फिर भी वे बीपी को कम करने का काम कर सकते हैं। उस अध्ययनकर्त्ता ने यह कहा है कि हम तो कह रहे हैं कि ताजा चकुंदर का जूस भी लाभदायक सिद्ध हो सकता है...थोड़ा-बहुत अगर आप अपनी डाइट में इसे शामिल करेंगे तो इस से आप को बीपी कम करने में मदद मिलेगी।
टिप्पणी...............अच्छी बात है कि लोगों को प्राकृतिक खाने की इस रिपोर्ट से प्रेरणा मिलेगी। वैसे भी तो चकुंदर के बहुत से गुण हैं जिन का हमें लाभ पहुंच सकता है। लेकिन यह आधा लिटर चकुंदर जूस वाली बात कुछ मुश्किल जान पड़ती है...अब रिपोर्ट में यह कहीं नहीं लिखा कि इस अभियान में शामिल होने के लिए कितने चकुंदर चाहिए होंगे.....वैसे तो चकुंदर बाज़ार में कम ही दिखते हैं....ये चकुंदर जो आप इस तस्वीर में देख रहे हैं , ये भी पिछले दिनों Reliance Fresh से खरीदे गये थे......बस ये तो वहां पर ही कभी कभी दिखते हैं।
जो भी हो, लेकिन हम इन चकुंदरों का कम से कम थोड़ा बहुत प्रयोग करना तो शुरू कर ही सकते हैं। अगर आप ने अभी तक कभी इस्तेमाल नहीं किया तो स्लाद के रूप में ही इस का इस्तेमाल शुरू तो करिए.....बहुत फायदेमंद है।
मुझे लोगों से यह आपत्ति है कि एक बार किसी बात को सुन लेते हैं न तो फिर हाथ धो कर उस के पीछे पड़ जाते है....कईं बार कईं शुगर के मरीज़ जामुनों का एवं जामुन के बीजों को भी इस तरह से ही इस्तेमाल करते हैं.....कुछ लोग सब दवाईयां, सब परहेज़ छोड़-छाड़ कर शुगर कंट्रोल करने के लिए बस करेलों का जूस पीने ही में लगे हैं । ठीक है, इन खाद्य पदार्थों का बहुत महत्त्व बताया गया है ....लेकिन यह भी तो नहीं कि बस केवल वही चीज़े खाने से या उन का जूस पी लेने से ही रोग कट जायेगा...आप ऐसा कुछ भी करें तो भी अपने चिकित्सक(किसी भी चिकित्सा पद्धति से संबंधित) के नोटिस में यह बात ज़रूर लाया करें....यह तो बिल्कुल नहीं कि अब मैंने करेले का जूस पीना शुरू कर दिया है , इसलिए अब मुझे शुगर की किसी तरह की दवाईयां खाने की ज़रूरत नहीं है.....ऐसा सोचना भी आत्मघाती है....क्योंकि एक क्वालीफाइड चिकित्सक केवल आप के शुगर अथवा बीपी के स्तर को ही नहीं देखता---उन की निगाह आप के शरीर के विभिन्न अंगों की कार्य-प्रणाली पर भी बनी रहती है कि क्या सारी मशीनरी ठीक ढंग से चल रही है या नहीं। इसलिए इन सब खाने-पीने वाली चीज़ों को एक support के रूप में इस्तेमाल करें , लेकिन फिर भी अपने क्वालीफाइड चिकित्सक को तो नियमित आप को मिलते रहना ही चाहिए।
बात इतनी लंबी हो गई है कि पता नहीं मेरा प्रश्न ही कहां गुम हो गया है कि .......आधा लिटर चकुंदर का जूस पीने के लिए कितने चकुंदरों को जूसर में पिसना होगा.......अगर आप में से कोई इस एक्सपैरीमैंट को करे तो मेरे को ज़रूर बतलाइएगा ताकि किसी मरीज़ के पूछने पर मैं फिर उसे पूरी जानकारी दे सकूं। लेकिन, हां, यहां सब इतना आसान थोड़े ही है ...चकुंदर का जूस तैयार भी हो गया तो भी कईं तरह के वहम-भुलेखे...कुछ कहेंगे कि यह गर्म है , कुछ कहेंगे यह ठंडा है., कुछ कहेंगे ठंडी में नहीं लेना, कुछ कहेंगे यह......कुछ कहेंगे....वह......, लेकिन काम की बात यही है कि है यह चकुंदर बहुत काम की चीज़, जितना इसका इस्तेमाल कर सकते हो कर लिया करें।

कैंसर की आखिरी स्टेज में है तो क्या है, उस का नायक तो वह ही है !


जी हां, अगर वह कैंसर की आखिरी स्टेज या बहुत ही ज्यादा फैल चुकी टीबी रोग से या गुर्दै फेल होने की टर्मिनल स्टेज से भी ग्रस्त है तो भी एक हिंदोस्तानी नारी का नायक तो उस का पति ही है...मेरी इस बात से तो आप शत-प्रतिशत सहमत हैं ना।

तो चलिए मैं सीधे अपनी बात पर आता हूं...मैं पिछले कईं दिनों से इस के बारे में बहुत ज़्यादा सोच विचार कर रहा हूं कि आखिर कुछ डाक्टरों का इतना ज़्यादा नाम हो जाता है और कुछ डाक्टर लोग अपने फील्ड में बहुत ज़्यादा महारत हासिल किएहुए होते भी इतने पापुलर नहीं हो पाते यानि कि मरीज़ों की नज़र में उन की इमेज इतनी ज़्यादा अच्छी नहीं होती।

तो, मुझे तो सब से महत्त्वपूर्ण बात यही दिखी कि डाक्टर की कम्यूनिकेश्नस स्किल्स एवं इंटरपर्सनल स्किल्स बहुत ही ज़्यादा अच्छी होनी चाहिए...इस मे ज़रासी भी कम्प्रोमाइज़ करने की गुंजाइश नहीं है।

जब कोई मरीज़ डाक्टर के पास जाता है तो वह ही नहीं उस के साथ आने वाले उस के रिश्तेदार डाक्टर की बात का एक एक शब्द बेहद ध्यान से सुन रहे होते हैं, वे उस के शब्द के साथ साथ उस के चेहरे के भाव एवं उस की बॉडी-लैंग्वेज़ को भी पढ़ने की पूरी कोशिश करते रहते हैं। वैसे देखा जाए तो यह सब है भी तो कितना स्वाभाविक ही ....क्या हम ऐसा नहीं करते ?....करते हैं भई बिलकुल करते हैं, इस में आखिर बुराई क्या है।

जिस बात पर मैं विचार कर रहा था वह यही है कि जब कभी भी कोई डाक्टर किसी भी मरीज़ के साथ पूरे सम्मानपूर्वक ढंग से बात नहीं करता तो वह उस मरीज़ की नज़रों में तो शायद इतना न गिर जाता होगा जितना उस मरीज़ के साथ आए उस के अभिभावकों की नज़र में बहुत ही ज़्यादा ही गिर जाता है। एक उदाहरण लेते हैं ..अब बीमारी पर तो किसी का कोई बस है नहीं....अब अगर किसी को बहुत ही कोई भयानक रोग है तो अगर किसी डाक्टर ने उस के बीवी के सामने उसे पूरा सम्मान न दिया या यहां तक कि तुम ही कह दिया तो उस महिला को बहुत ही ज़्यादा चोट पहुंचती है, मेरे ख्याल में वह स्वयं बहुत अपमानित महसूस करती है....बंदा चाहे बीमार है तो क्या है, बीमारी का क्या है , उस का नायक तो वही है , उसे किसी दूसरे की अच्छी सेहत से क्या लेना देना, उस की सारी ज़िंदगी तो भई उस बंदे की सेहत की धुरी के इर्द-गिर्द ही घूमती है

यह सब मैं पता नहीं क्यों लिख रहा हूं...बस यूं ही लिखना चाह रहा हूं । इस में कोई थ्यूरी इनवाल्व नहीं है, पिछले पच्चीस सालों से मरीज़ों के एवं उन के अभिभावकों के चेहरों को पढ़ रहा हूं, जो इन से पढ़ा बस वही लिखना चाह रहा हूं।

अब बच्चा वैसे अपने पिता की कोई बात माने या ना माने लेकिन वो किसी डाक्टर द्वारा अपने पिता को तुम कहे जाने से नाराज़ हो उठता है , किसी ह्स्पताल के कर्मचारी के द्वारा उस के पिता की शान में कहे कुछ शब्द जो उसे पसंद नहीं होते, इस से वह भड़क उठता है, कईं बार अपना आपा खो बैठता है...दोस्तो, बात वही है ...किसी डाक्टर के लिए तो शायद वह कोई अन्य मरीज़ ही होगा, लेकिन उस के बेटे के लिए तो वह संसार है, जब उस के पिता को आई.सी.यू में रखा गया है तो उस के दिमाग में बचपन के वे सब सीन घूम रहे होते हैं जब उस के पिता ने उसे अंधेरे का सामना करना सिखाया था, जब उसे उस का पिता कंधे पर चढ़ा कर सारा मेला घुमा लाता था, जब उन की उंगली पकड़ कर उस ने चलना सीखा था, जब साइकिल सीखने के दिनों में बार बार गिरने पर भी उस के पिता ने उसे कभी भी निरूत्त्साहित नहीं होने दिया था। ऐसे हालात में कैसे वह किसी तरह की गुस्ताखी बर्दाश्त कर सकता है। चाहे उस का पिता एँड-स्टेज किडनी फेल्यर से आईसीयू में पड़ा हुया है लेकिन उस बच्चे के लिए तो उस का पिता ही है ...मॉय डैड..स्ट्रांगैस्ट , ये तो केवल कुछ उदाहरण हैं लेकिन इन बातों को हम कितनी ही ऐसी सिचुएशन्स में अप्लाई कर सकते हैं।

अब मैं देखता हूं कि किस तरह से बहुत बहुत बुज़ुर्ग अपनी वयोवृद्ध बीवियों को उन के छाती के कैंसर अथवा बच्चेदानी के कैंसर के इलाज के लिए बेचारे बावले से हुए फिरते हैं....निःसंदेह यह देख कर यही लगता है कि शायद दिस हैपन्स आन्ली इन इंडिया....जहां पति पत्नी का रिश्ता सचमुच आज भी एक रूहानी रिश्ता है....सैक्स वैक्स से बहुत ही ज़्यादा ऊपर की बात जो शायद वैस्टर्न वर्ल्ड की भी अब समझ मेंथोड़ी-थोड़ी आ रही हैं।

बस ,बात अपनी यही खत्म करता हूं कि डाक्टर की डिग्रीयों के साथ साथ उस की बोलचाल का ढंग भी बहुत ही बढ़िया होना बेहद लाज़मी है, क्यों कि उसे बेहद अन्य फैक्टर्ज़ का भी ध्यान रखना होगा, नहीं तो लोग क्लीनिक से बाहरनिकल कर इलाज की बात करने से पहले कईं बार यह बात करनी भी नहीं भूलते...यार, डाक्टर है तो लायक लेकिन पता नहीं इतना बदतमीज़ क्यों है।

वो टैटू तो जब आयेगा, तब देखेंगे....लेकिन अभी तो....



वो टैटू तो जब आयेगा,तब देखेंगे लेकिन हमें आज ज़रूरत है मौज़ूदा टैटू बनवाने की मशीनों से बचने की।
आज समाचार-पत्रों में यह खबर दिखी है कि टैटू गुदवाने का जो चलन फैशन और स्टाइल के नाम पर ही शुरू हुआ था, अब यह जल्दी ही बीमारियों से बचाव का जरिया भी बन जाएगा। जर्मनी के शोधकर्त्ताओं ने इस बात का पता लगाया है कि टैटू गुदवाने की प्रक्रिया शरीर में दवा के प्रवेश की सबसे असरदार विधा है। खासकर डीएनए वाले टीकों के मामले में यह विधा इंट्रा मस्कुलर इंजेक्शन से कहीं बेहतर है। रिपोर्ट के अनुसार फ्लू से लेकर कैंसर जैसी बीमारियों के इलाज में भी टैटू के जरिए बेहतर टीकाकरण हो सकता है।
विशेष टिप्पणी----- मैडीकल साईंस भी बहुत जल्द आगे बढ़ रही है...दिन प्रतिदिन नये नये अनुसंधान हो रहे हैं। अभी मैं दो दिन पहले ही एक रिपोर्ट पढ़ रहा था कि अब इंजैक्शन बिना सूईं के लगाने की तैयारी हो रही है। तो आज यह पढ़ लिया कि अब टैटू के जरिये भी दवाई शरीर में पहुंचाई जाएगी। यह तो आप समझ ही गये होंगे कि यहां पर उन टैटुओं की बात नहीं हो रही जो बच्चे एवं बड़े आज कल शौंक के तौर पर अपने शरीर के विभिन्न हिस्सों में चिपका लेते हैं और जो बाद में नहाने-धोने से साफ भी हो जाते हैं। लेकिन यहां बात हो रही है उस विधि की जिस का एक बिल्कुल देशी तरीका आप ने भी मेरी तरह किसी गांव के मेले में देखा होगा।
एक ज़मीन पर बैठा हुया टैटूवाला किस तरह एक बैटरी से चल रही मशीन द्वारा बीसियों लोगों के टैटू बनाता जाता है...साथ में कोई स्याही भी इस्तेमाल करता है......किसी तरह की कोई साफ़-सफाई का कोई ध्यान नहीं....न ही ऐसे हालात में यह संभव ही हो सकता है, अब कैसे वह डिस्पोज़ेबल मशीन इस्तेमाल करे अथवा कहां जा कर उस मशीन को एक बार इस्तेमाल करने के बाद किटाणु-रहित ( स्टैरीलाइज़) करे...यह संभव ही नहीं है। ऐसे टैटू हमारे परिवार में किसी बड़े-बुज़ुर्ग के हाथ पर अथवा बाजू पर दिख ही जाते हैं। लेकिन यह टैटू गुदवाना बेहद खतरनाक है......मुझे नहीं पता कि पहले यह सब कैसे चलता था......था क्या, आज भी यह सब धड़ल्ले से चल रहा है और हैपेटाइटिस बी एवं एचआईव्ही इंफैक्शन्स को फैलाने में खूब योगदान कर रहा होगा। लोग अज्ञानतावश बहुत खुशी खुशी अपनी मन पसंद आकृतियां अपने शरीर पर इस टैटू के द्वारा गुदवाते रहते हैं। लेकिन इस प्रकार के टैटू गुदवाने से हमेशा परहेज़ करना निहायत ज़रूरी है।
यह तो आने वाला समय ही बतायेगा कि कि जिस टैटू की इस रिपोर्ट में बात कही गई है, उस की क्या प्रक्रिया होती है। लेकिन मेरी हमेशा यही चिंता रहती है कि जहां कहां भी यह सूईंयां –वूईंयां इस्तेमाल होती हों वहां पर पूरी एहतियात बरती जा पायेगी या नहीं.....यह बहुत बड़ा मुद्दा है, बड़े सेंटरों एवं हस्पतालों की तो मैं बात नहीं कर रहा, लेकिन गांवों में भोले-भाले लोगों को नीम-हकीम किस तरह एक ही सूईं से टीके लगा लगा कर बीमार करते रहते हैं ..यह सब आप से भी कहां छिपा है। पंजाब में भटिंडा के पास एक गांव में एक झोला-छाप डाक्टर पकड़ा गया था जो सारे गांव को एक ही नीडल से इंजैक्शन लगाया करता था ....इस का खतरनाक परिणाम यह निकला सारे का सारा गांव ही हैपेटाइटिस बी की चपेट में आ गया।
बात कहां से शुरू हुई थी, कहां पहुंच गई। लेकिन कोई कुछ भी कहे...जब भी इंजैक्शन लगवाएं यह तो शत-प्रतिशत सुनिश्चित करें कि नईं डिस्पोज़ेबल सूंईं ही इस्तेमाल की जा रही है। मैं तो मरीज़ों को इतना भी कहता हूं कि कहीं लैब में अपना ब्लड-सैंपल भी देने जाते हो तो यह सुनिश्चित किया करो कि डिस्पोज़ेबल सूईं को आप के सामने ही खोला गया है.......क्या है न, कईं जगह थोड़ा एक्स्ट्रा-काशियश ही होना अच्छा है, ऐसे ही बाद में व्यर्थ की चिंता करने से तो अच्छा ही है न कि पहले ही थोड़ी एहतियात बरत लें। सो, हमेशा इन बातों का ध्यान रखिएगा।

1 comments:

Gyandutt Pandey said...
आप सही हैँ डाक्टर साहब। अगर सम्भव हो तो गुदना गुदाने पर प्रतिबन्ध होना चाहिये। या कम से कम व्यापक प्रचार तो होना ही चाहिये इससे सम्भावित नुक्सान पर।

मंगलवार, 5 फ़रवरी 2008

और मैं बन गया एफएम रेडियो का ब्रांड-अम्बैसेडर.....


ज़िंदगी एक टू-इन-वन के सहारे विविध भारती के प्रोग्राम सुन कर बढ़िया चल रही थी कि लगभग डेढ़ दशक पहले , जहां तक मुझे याद ही कहीं जून 1993 के आसपास मुझे पता चला कि बाज़ार में एक एफएम रेडियो सैट आ गया है ---कुछ ज़्यादा तो इस के बारे में पता था नहीं सिवाए इस बात के कि इस पर सब बहुत ही क्लियर सुनता है यानि कि साऊंड क्वालिटि बेहतरीन होती है। रिसेप्शन बेहद उत्तम किस्म का होता है।

बस फिर क्या था, रेडियो दीवाने इस को खरीदने में कहां पीछे रहने वाले थे। सो, किसी तरह एक अदद एफएम रेडियो को ढूंढता हुया मैं बम्बई की ग्रांट रोड (लेमिंगटन रोड) पर पहुंच गया। दो-तीन दुकानों से पूछने के बाद आखिर एक दुकान में यह मिल गया--- उसी दिन शायद तेरह-सौ रूपये का फिलिप्स का एक वर्ल्ड-रिसीवर खरीद लाया। वैसे वर्ल्ड-रिसीवर से मुझे कुछ खास लेना देना तो था नहीं--- मुझे तो बस दुकानदार का इतना कहना ही काफी था कि इस में एफएम रेडियो भी कैच होगा और अच्छी क्वालिटि की आवाज़ सुनने को मिलेगी।

दुकानदार ने तीन बड़े सैल डाल कर एफएम की क्वालिटि चैक भी करवा दी थी....क्योंकि उस समय शाम थी, और एफएम प्रसारण दिन में सुबह, दोपहर एवं शाम केवल निर्धारित समय सारणी के अनुसार ही होता था। यकीन मानिए, मैंने भी उस वर्ल्ड-रिसीवर पर विविध भारती एवं एफएम के इलावा कुछ नहीं सुना।

मुझे अभी भी अच्छी तरह से याद है कि उस इलैक्ट्रोनिक्स की दुकान वाले को मुझे एफएम की अच्छी क्वालिटि का नमूना दिखाने के लिए दुकान से बाहर फुटपाथ पर आना पड़ा था और साथ में वह यह भी कह रहा था कि यहां पर ट्रैफिक की वजह से थोड़ी सी अभी डिस्टर्बैंस है, आप की बिल्डिंग से तो सब कुछ एकदम क्रिस्टिल क्लीयर ही सुनेगा। एक बात इस की और भी तो बहुत विशेष थी कि यह बिजली के साथ सैलों से भी चलने वाला सैट था। वैसे, इसे बिजली से चलाने के लिए एक अलग से अडैप्टर भी लगभग 150रूपये में खरीदना पड़ा था।

इस वर्ल्ड रिसीवर पर अब मुझे एफएम के कार्यक्रमों के समेत सभी प्रोग्राम सुनने बहुत रास आ रहे थे। इसे मैंने अपनी ड्यूटी पर रख छोड़ा था और अकसर मेरे वेटिंग-रूम में यह बजता रहता था। जहां तक मुझे याद है इस पर शुरू शुरू में times..fm के कार्यक्रम जो दोपहर एक बजे शुरू हो जाते थे( वो बहुत ही बढ़िया सी सिग्नेचर ट्यून के साथ) और फिर शायद दो-अढ़ाई घंटे तक चलते थे, मुझे बेहद पसंद थे। इस में एक प्रोग्राम होता था ..नॉको के सौजन्य से, जिस में एड्स कंट्रोल के बारे में जनता को जानकारी उपलब्ध करवाई जाती थी और उस प्रोग्राम में बहुत बढिया किस्म के फिल्मी गीत भी सुनाए जाते थे। कुछ दिन पहले ही मैं राष्ट्रीय एड्स कंट्रोल संगठन की अध्यक्षा को एक पत्र लिख रहा था तो मैंने इस देश में इस रेडियो प्रोग्राम की भूमिका का बहुत अच्छे से उल्लेख किया था।

मुझे तो बस इस एफएम सुनने का चस्का कुछ इस कदर लगा कि कुछ दिनों बाद ही हमें लोनावला जाना था, मुझे अच्छी तरह से याद है कि मैं एफएम सुनने की खातिर उस शाम को ए.सी कंपार्टमैंट से बाहर ही खड़ा रहा था जिस की वजह से मैं अपने उस वर्ल्ड-रिसीवर पर एफएम के सुरीले प्रोग्राम का मज़ा ले रहा था। लेकिन यह क्या, जैसे ही गाड़ी कल्याण से थोड़ा आगे चली, उस की रिसैप्शन में गड़बड़ी शुरू और देखते ही देखते चंद मिनटों में मेरे कईं बार उसे उल्टा-सीधा करने के बावजूद कुछ भी सुनाई देना बंद हो गया। हां, हां, तब याद आया कि अभी एफएम कार्यक्रमों की रेंज बम्बई से 50-60 किलोमीटर तक ही है। सो, मन ममोस कर एसी कंपार्टमैंट के अंदर आना ही पड़ा। मैं भी कितना अनाड़ी था कि एक वर्ल्ड-रिसीवर खरीद कर यही समझ बैठा कि शायद कोई सैटेलाइट ही खरीद लिया है....!!

इस वर्ल्ड-रिसीवर पर तो मैं इस कद्र फिदा था कि जब कभी दिल्ली की तरफ जाने का प्रोग्राम बनता तो भी मैं इसे अपने साथ ही रखता...क्योंकि इस की रेंज दिल्ली से 60-70 किलोमीटर तक सुन रखी थी, इसलिए घर बैठ कर भी इस के प्रोग्राम सुनने का आनंद आता था। मुझे याद है कि कईं बार बिजली का साथ भी नहीं होता था, लेकिन इस ने कभी धोखा नहीं दिया......अब इतनी अच्छी सी क्लियर आवाज़ में जब दोपहर को 2-3 घंटे बढ़िया गाने बज रहे होते थे तो कज़िन वगैरह जरूर इस के बारे में पूछते थे.......आप को यह नहीं लगता कि एक तरह से मैं एफएम का एक सैल्फ-स्टाइल्ड ब्रांड-अम्बैसेडर ही बन चुका था। और हां, एक बात यह तो बतानी भूल ही गया कि उस वर्ल्ड-रिसीवर के साथ एक बड़ा सा एंटीना भी था, जिसे अकसर मुझे किसी लोहे की वस्तु से टच करवा कर रखना होता था, ताकि रिसैप्शन एकदम परफैक्ट हो।

इस के बाद की एफएम की यादों की बारात में फिर कभी शामिल होते हैं।

सोमवार, 4 फ़रवरी 2008

संडे हो या मंडे--रोज़ खाओ अंडे.....लेकिन इसे पढ़ने के बाद !


मुझे पता है कि आप ने वह संडे हो या मंडे- रोज़ खाओ अंडे वाला विज्ञापन बहुत बार देखा है, लेकिन आज कल चूंकि देश के कुछ हिस्सों में बर्ड-फ्लू के नाम से थोड़े भयभीत से हैं, इसलिए कुछ बातों की तरफ ध्यान देना बहुत ज़रूरी है।

· विशेषज्ञों ने कच्चे एवं हॉफ-ब्वायलड ( raw and soft boiled eggs) अंडो से परहेज़ करने की सलाह दी है। जिन अंड़ों को उच्च तापमान पर पकाया नहीं जाता, उन के खाने से बर्ड-फ्लू के जीवाणु के इलावा टॉयफाड एवं अन्य जीवाणुओं से होने वाली बीमारियों का खतरा मंडराता रहता है।

· बर्ड-फ्लू से बचने के लिए केवल पूरी तरह उबले अंडों (full boiled eggs) का ही इस्तेमाल किया जाना चाहिए।

· दूध में कच्चे अंडे डाल कर नहीं पीना चाहिए । आधे उबले अंडों ( half- boiled eggs) एवं ऐसे अंडे जिन का योक- अर्थात् वही पीला भाग- तरल सी अवस्था में बह रहा हो ( runny yolk) ,इन का भी सेवन नहीं करना चाहिए।

· जो लोग बाहर खाते हैं उन्हें भी इस बात को सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि अंडे से बनी सभी पकवानों को उच्च तापमान पर ही तैयार किया गया है। सामान्यतः एक हॉफ-ब्वायलड अंडे को तैयार होने में तीन मिनट, मीडियम ब्वायलड को पांच मिनट और फुल-ब्वायलड अंडे को तैयार होने में दस मिनट का समय लगता है।

· विशेषज्ञों ने स्पष्ट किया है कि केक खाना सुरक्षित है ...चूंकि उस में अंडा पड़ा होता है, लेकिन केक की बेकिंग के लिए 200डिग्री सैल्सियस का तापमान चाहिए होता है, जिस के परिणामस्वरूप अंडे में मौजूद बैक्टीरिया एवं अन्य जीवाणु नष्ट हो जाते हैं। यह ध्यान रहे कि हॉफ-ब्वायलड अंडे आम तौर पर रशियन सलाद जैसी प्रैपरेशन्स में डलते हैं।

· एक बात जो बहुत ही ज़रूरी है लेकिन कभी कोई इस तरफ कम ही ध्यान देता है ..वह यह है कि अंडों को इस्तेमाल करने से पहले धो लेना निहायत ही ज़रूरी है क्योंकि जीवाणु केवल अंडे के शैल ( shell of egg) के अंदर ही नहीं होते, ये शैल के बाहर भी मौजूद हो सकते हैं। और एक बात और भी इतनी ही ज़रूरी है कि कच्चे अंडों को हाथ लगाने के बाद भी हाथ धोना ज़रूरी है।

So, take care !!

संडे हो या मंडे--रोज़ खाओ अंडे.....लेकिन इसे पढ़ने के बाद !



मुझे पता है कि आप ने वह संडे हो या मंडे- रोज़ खाओ अंडे वाला विज्ञापन बहुत बार देखा है, लेकिन आज कल चूंकि देश के कुछ हिस्सों में बर्ड-फ्लू के नाम से थोड़े भयभीत से हैं, इसलिए कुछ बातों की तरफ ध्यान देना बहुत ज़रूरी है।

· विशेषज्ञों ने कच्चे एवं हॉफ-ब्वायलड ( raw and soft boiled eggs) अंडो से परहेज़ करने की सलाह दी है। जिन अंड़ों को उच्च तापमान पर पकाया नहीं जाता, उन के खाने से बर्ड-फ्लू के जीवाणु के इलावा टॉयफाड एवं अन्य जीवाणुओं से होने वाली बीमारियों का खतरा मंडराता रहता है।

· बर्ड-फ्लू से बचने के लिए केवल पूरी तरह उबले अंडों (full boiled eggs) का ही इस्तेमाल किया जाना चाहिए।

· दूध में कच्चे अंडे डाल कर नहीं पीना चाहिए । आधे उबले अंडों ( half- boiled eggs) एवं ऐसे अंडे जिन का योक- अर्थात् वही पीला भाग- तरल सी अवस्था में बह रहा हो ( runny yolk) ,इन का भी सेवन नहीं करना चाहिए।

· जो लोग बाहर खाते हैं उन्हें भी इस बात को सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि अंडे से बनी सभी पकवानों को उच्च तापमान पर ही तैयार किया गया है। सामान्यतः एक हॉफ-ब्वायलड अंडे को तैयार होने में तीन मिनट, मीडियम ब्वायलड को पांच मिनट और फुल-ब्वायलड अंडे को तैयार होने में दस मिनट का समय लगता है।

· विशेषज्ञों ने स्पष्ट किया है कि केक खाना सुरक्षित है ...चूंकि उस में अंडा पड़ा होता है, लेकिन केक की बेकिंग के लिए 200डिग्री सैल्सियस का तापमान चाहिए होता है, जिस के परिणामस्वरूप अंडे में मौजूद बैक्टीरिया एवं अन्य जीवाणु नष्ट हो जाते हैं। यह ध्यान रहे कि हॉफ-ब्वायलड अंडे आम तौर पर रशियन सलाद जैसी प्रैपरेशन्स में डलते हैं।

· एक बात जो बहुत ही ज़रूरी है लेकिन कभी कोई इस तरफ कम ही ध्यान देता है ..वह यह है कि अंडों को इस्तेमाल करने से पहले धो लेना निहायत ही ज़रूरी है क्योंकि जीवाणु केवल अंडे के शैल ( shell of egg) के अंदर ही नहीं होते, ये शैल के बाहर भी मौजूद हो सकते हैं। और एक बात और भी इतनी ही ज़रूरी है कि कच्चे अंडों को हाथ लगाने के बाद भी हाथ धोना ज़रूरी है।

So, take care !!

2 comments:

Gyandutt Pandey said...

डाक्टर साहब, मैं तो अण्डा नहीं खाता पर पोस्ट में निहित खाद्य सामग्री को उच्च ताप पर जीवाणु रहित करना समझ में आया।
कुछ लोग बर्ड फ्लू के कारण सस्ते चिकन का इस आधार पर अधिक सेवन कर रहे हैं कि उसे कस कर कूकर में कुक कर लेते हैं। कितना उचित है उनका यह करना?

Dr.Parveen Chopra said...

लेकिन यह जानकारी तो केवल अंडो तक ही सीमित है। सस्ते चिकन से तो मेरी समझ से बच कर रहने में ही समझदारी है।

पंक्षियों के फ्लू से आखिर हम क्यों हैं इतने आतंकित ?


बर्ड-फ्लू अर्थात् पक्षियों का फ्लू आज कल काफी चर्चा में है। लेकिन जन मानस को इस रोग के बारे में कुछ ढंग की जानकारी नहीं है। चलिए सब से पहले शुरू यहां ही से करते हैं कि बर्ड-फ्लू को चिकित्सा भाषा में एवियन इनफ्लूऐंज़ा कहते हैं। दूसरी बात यह है कि जब हम पक्षियों की बात करते हैं तो इस में मुर्गे, मुर्गियां, बत्तखें इत्यादि भी शामिल हैं।

एवियन इनफ्लूऐंज़ा पक्षियों में इनफ्लूऐँज़ा वॉयरस की ए श्रेणी के द्वारा होने वाली एक इंफैक्शन (छूत) की बीमारी है। इस बीमारी को सर्वप्रथम 100वर्ष पूर्व इटली में पाया गया था, लेकिन यह महामारी के रूप में तो कहीं भी फूट सकती है।

एवियन इनफ्लूऐंज़ा किसी भी पक्षी को अपना शिकार बना सकती है। यह इंफैक्शन होने से पक्षियों में विविध रोग-लक्षण पैदा हो सकते हैं जो कि एक मामूली बीमारी से लेकर एक अत्यन्त संक्रामक जानलेवा रोग का रूप ले सकता है, तथा यह महामारी का रूप धारण कर लेती है। अत्यन्त उग्र एवियन इनफ्लूऐंज़ा में पक्षी अचानक ही बहुत बीमार हो जाते हैं और शीघ्र ही मर जाते हैं, शत-प्रतिशत केसों में यह जानलेवा सिद्ध हो सकती है।

सामान्य तौर पर एवियन इनफ्लूऐँजा वॉयरस पक्षियों एवं सूअरों के अतिरिक्त अन्य किसी प्राणी में बीमारी पैदा नहीं करते। सबसे पहले 1977 में हांग-कांग में इस वॉयरस ने मनुष्यों को अपनी चपेट में लिया। वैज्ञानिक जांच ने बताया है कि मनुष्यों में यह बीमारी बर्ड-फ्लू से ग्रस्त जीवित मुर्गे-मुर्गियों के नज़दीकी संपर्क के कारण हुई। जिन 18व्यक्तियों का यह बीमारी हुई उन में से 6की मौत हो गई। इस के परिणाम स्वरूप हांग-कांग के सारे मुर्गे-मुर्गियों का , जो उस समय लगभग 15 लाख के करीब थे, सफाया कर दिया गया। उस के बाद सन 1999 में फिर हांग-कांग में तथा सन 2003 में यह हांग-कांग एवं नैदरलैंड में फैली।

अकसर मरीज हम से पूछते हैं कि इस बीमारी के रहते कुछ अरसा पहले चीन में 14000 बत्तखों को क्यों मार दिया गया ?—उस का कारण यही है कि जंगली बत्तखों में एवियन इनफ्लूऐँज़ा वायरसों का प्राकृतिक भंडार होते हुए भी, उन में इस बीमारी से इंफैक्शन होने की संभावना बहुत कम होती है। मुरगी-खाने के जीवों – मुर्गों, मुर्गियों, पीरू( अमेरिकी गीध) में इस उग्र रूप वाले घातक एवियन इनफ्लूऐंज़ा का रोग होने की आशंका बनी रहती है। इन मुर्गे, मुर्गियों का जंगली बत्तखों से सीधा संपर्क एवं अप्रत्यक्ष संपर्क महामारी का कारण बनता है। जिंदा पंक्षियों की मार्कीट भी इस महामारी को फैलाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

जब कभी इस रोग के केस दिखने शुरू होते हैं तो विभिन्न देशों में दूसरे देशों से मुर्गों के आयात पर प्रतिबंध लगाना शुरू कर दिया जाता है।

कुछ देश दूसरे देशों से आने वाले चिकन का निरीक्षण करते तो हैं लिकन विश्व स्वास्थ्य संगठन की इस बात का हमें विशेष रूप से ध्यान रखना होगा जिस के अनुसार जिन पक्षियों ( मुर्गे, मुर्गियों इत्यादि) में यह इंफैक्शन होती है और वे बच जाते हैं, वे कम से कम दस दिन तक मुंह से एवं मल द्वारा वॉयरस फैलाते रहते हैं, जिस से ज़िंदा मुर्गे-मुर्गियों के बाज़ारों में तथा प्रवासी पंक्षियों में यह बीमारी बड़ी आसानी से फैल सकती है।

एक बात और हमें समझनी जरूरी है कि इस बीमारी से संबद्ध जो वॉयरस होते हैं वे बड़ी शीघ्र गति से बदलते रहते हैं और इन विषाणुओं में एक और विशेषता यह रहती है कि आम तौर पर पक्षियों में एवियन इनफ्लूऐँज़ा पैदा करने वाले वॉयरस तथा मनुष्यों में इनफ्लूऐँज़ा फैलाने वाले वॉयरस कुछ इस तरह से मिल जाते हैं जिस से फिर कुछ ऐसे वॉयरस विकसित होते हैं जिन के अभी टीके का भी विकास नहीं हुया होता और यह रोग एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में फैलना शुरू हो जाता है, जिस से कि एक बहुत ही विषम स्थिति पैदा हो जाती है।

आप भी यही सोच रहे होंगे कि इस तरह का मेल-मिलाप संभव कहां है ?--- यह संभव है उन मनुष्यों में जो कि घरेलू मुर्गी एवं मुर्गों के नज़दीक रहते हैं और सूअर भी इस मिलाप को संभव बनाते हैं। सूअर दोनों तरह की ही अर्थात् मनुष्य एवं पक्षियों को बीमारी फैलाने वाली वॉयरसों से ही ग्रस्त होने के कारण उन वॉयरसों को मिलाने एवं नए उग्र वॉयरस उत्पन्न करने का काम भी करते हैं , जिन का अभी कोई टीका भी नहीं आया होता।

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अंतर्राष्ट्रीय यात्रियों को सचेत किया है कि वे जब ऐसे क्षेत्रों में जायें जहां के मुर्गे, मुर्गियों में यह महामारी फैली हुई है , तो वे ज़िंदा पशुओं की मार्कीट एवं मुरगी –खानों के संपर्क में बिल्कुल न आएं। ऐसे पक्षियों की ड्रापिंग्स ( मल, बीट) भी इस बीमारी की वॉयरसों से लैस होती हैं।

एक महत्त्वपूर्ण यह भी है कि एवियन इनफ्लूऐंज़ा वॉयरस ताप से नष्ट हो जाती है। अतः उपभोक्ताओं को अच्छी तरह से सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि पोल्ट्री से प्राप्त खाने की चीज़ों ( अंडे आदि भी) को अच्छी तरह से पकाया गया है।