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शनिवार, 29 नवंबर 2014

मुंह के अंदर कोई भी दवाई लगाने से पहले

अकसर मेरे बहुत से मरीज़ मेरे पास पहुंचने से पहले टीवी पर ताबड़-तोड़ दिखाए जाने वाले उन दो-तीन फोरन में प्रैक्टिस कर रहे दंत चिकित्सकों के विज्ञापन द्वारा कही बातें मान कर वह पेस्ट कईं महीने इस्तेमाल कर के ही पहुंचते हैं। बड़ा अजीब लगता है कि हमारी बातें तो कोई पिछले ३०सालों से सुन नहीं रहा और उस विज्ञापन में बताई जाने वाली मुश्किल से नाम वाली पेस्ट का नाम अनपढ़ी महिलाएं भी रट लेती हैं......यह तो हुआ विज्ञापन का जादू, बाकी कुछ नहीं।

दरअसल जब हम लोगों ने पढ़ाई की तो इन पेस्टों को medicated toothpastes कहा जाता था ...जिन्हें किसी विशेष कारण से ही दंत चिकित्सक मरीज़ों को इस्तेमाल करने की सलाह दिया करते थे। बिना वजह ऐसे ही कोई भी पेस्ट मंजन इस्तेमाल करने से दांतों की तकलीफ़ का निवारण हो ही नहीं सकता...यह जस की तस तो बनी रहती है, वैसे बहुत से केसों में शायद इस के प्रभाव से लक्षण दब जाते हों और दंत रोग जटिल हो जाते हैं...अकसर। अकसर ये पेस्टें महंगी तो होती ही हैं।

टुथपेस्ट-दंतमंजन का कोरा सच... भाग १
टुथपेस्ट-दंतमंजन का कोरा सच..भाग२

(जैसे एक कहावत है ना कि हलवाई अपनी मिठाई नहीं खाता....मैं अकसर एक बार किसी लेख को लिखने के बाद दो एक दिन के बाद उसे नहीं पढ़ पाता.....कारण?... यही कारण कि लगता है कि ऐसा क्या लिख दिया कि उसे बार बार देखूं......क्योंकि यह इत्मीनान होता है कि जो भी लिखा है सच एवं अपने अनुभव पर आधारित ही लिखा है तो फिर मुझे क्यों इतनी हड़बड़ी बार बार उसे देखने की..)

विषय से और न भटक जाऊं.....वापिस लौट रहा हूं....हां, तो पेस्ट को अपनी इच्छा से (और आज के दौर में विज्ञापन में दिख रहे विलायती डाक्टरों की ताकीद पर)...लेकिन परेशानी की बात है कि मुंह में कुछ भी ज़ख्म, घाव या छाले आदि होने पर भी लोग अपनी मरजी करने से बाज नहीं आ रहे हैं।

यह पोस्ट लिखने का ध्यान मुझे इसलिए आया कि मैंने एक स्टीरायड-युक्त मुंह में लगाई जाने वाली दवाई (ओएंटमैंट) के ऊपर जब लिखा देखा कि इस मुंह के छालों के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। नहीं, यह बिल्कुल गलत है, अकसर बिना दंत चिकित्सक की सलाह के इस तरह की दवाई इस्तेमाल की ही नहीं जा सकती है। यह जो स्टीरायड-युक्त मुंह में लगाई जाने वाली दवाई की मैं बात कर रहा हूं, इसे हम लोग ही बड़े सोच समझ कर लगाने की सलाह देते हैं और इस के लगाने की बहुत ही कम केसों में ज़रूरत पड़ती है।

एक बात और, मुंह में ज़ख्म, घाव या छाले किस वजह से...कब से हैं, यह तो केवल दंत चिकित्सक ही बता पाता है.....मुंह में छाले जलने से हो जाते हैं, खाने-पीने में किसी कैमीकल की वजह से होते हैं, किसी इंफैक्शन की वजह से, बिना किसी कारण के (idiopathic), किसी दांत की रगड़ से, तंबाकू-पान-गुटखा से होने वाली किसी बीमारी की वजह से, या फिर किसी दवा के रिएक्शन से ही मुंह में घाव हो गया हो.........बहुत से कारण हैं, चूंकि दंत चिकित्सकों ने इन सब तरह के सैंकड़ों-हज़ारों मरीज़ देख रखे होते हैं, अधिकांश केसों में उन्हें चंद सैकिंडों में पता चल जाता है कि क्या कारण है और उन के ऊपर कुछ लगाने की ज़रूरत है भी या ये अपने आप तीन-चार दिन में ठीक हो जाएंगे।
जुबान के ज़ख्म बहुत जल्द ठीक हो जाते हैं...

अब बुखार के बाद जो अकसर होंठ के किनारे पर जो एक छाला सा बन जाता है ...वह वायरस इंफैक्शन की वजह से होता है, किसी दवाई विशेष की ज़रूरत होती नहीं, दो दिन दिन में वैसे ही दुरूस्त हो जाता है....वैसे यह हरपीज़ सिंपलेक्स इंफैक्शन की वजह से होता है।

मरीज़ तो मुंह की हर तकलीफ़ को पेट की सफ़ाई से ही जोड़ लेते हैं, यह सरासर गलत है......वह अलग बात है कि पेट तो साफ़ रहना ही चाहिए, वह एक अलग मुद्दा है, लेकिन यह भी सदियों पुरानी एक भ्रांति है...कब्ज और मुंहों के छालों से संबंधित.....।

बाज़ार में बहुत से मसूड़ों की मालिश करने के लिए तेल मिलते हैं जिन्हें गम-पेन्ट कहते हैं......इन्हें आप चिकित्सक की सलाह अनुसार मसूडों पर लगा सकते हैं... कोई खराबी नहीं, लेकिन यह मसूडों के रोग को दुरूस्त नहीं कर पायेगा, वह तो इलाज से ही होगा, इस से शायद लक्षणों में ही थोड़ा-बहुत राहत मिल पाती है।

घाव पर लगाने वाली दवाईयों की बात करें तो तंबाकू-पान-गुटखा की वजह से होने पर ज़ख्मों में वे कोई असर नहीं करतीं, थोड़ा बहुत राहत मरीज़ को लगती होगी, लेकिन सच्चाई यह है कि इन का कुछ असर होता नहीं, कईं बार इन के चक्कर में मरीज़ बेशकीमती समय बरबाद कर देते हैं.....तंबाकू-वाकू हमेशा के लिए थूकना ही होगा और ऐसे ज़ख्मों, घावों या छालों को दंत-चिकित्सक को दिखाना ही होगा।

यह तो थी दवाईयों की बात हम लोग तो मरीज़ को लौंग का तेल घर पर अपने आप लगाने के बारे में भी सचेत करते रहते हैं क्योंकि इस का गलत इस्तेमाल भी कईं बार परेशानी पैदा कर देता है...

दांत में लौंग-तेल लगाने का सही तरीका

और मुंह में डिस्प्रीन की गोली को पीस कर लगाने से भी बहुत बार आफत हो जाती है..ऐसे प्रयोग से मुंह में बड़ा ज़ख्म हो जाता है जिसे ठीक होने में कईं दिन लग जाते हैं।

एक बात और .. अकसर मरीज़ मुंह में लगाने वाली कोई भी दवाई में भेद कर नहीं पाते, ऊपर मैंने जिस गम-पेन्ट की बात की है, उसे अगर मुंह के छालों में लगाया जाता है तो अकसर ये बुरी तरह से खराब हो जाते हैं।

लगता है अब यहीं पर विराम लगाऊं......काफ़ी लिख दिया है .......कुछ दिनों से बार बार ध्यान आ रहा था इस विषय पर लिखने के लिए.........बस, अगली बार मुंह में कोई भी दवा लगाने से पहले थोड़ा सोच-विचार कर लें या दंत चिकित्सक से पूछ लें.......या पेस्ट को सिलेक्ट करने से पहले "विलायती दंत चिकित्सकों" द्वारा दिए जा रहे विज्ञापनों के बारे में भी थोड़ा-सा सचेत रहिये ...हो सकता है कि आप को इन की ज़रूरत ही न हो, वैसे भी इन विज्ञापनों को देख कर ऐसा लगता है कि देश में साफ़-सफ़ाई की समस्या एक तरफ, और दांतों में ठंडा-गर्म लगने की समस्या दूसरी ओर.... विज्ञापन तो ऐसे कहते हैं कि जैसे १२५ करोड़ लोग ही दांतों में ठंडा-गर्म लगने से परेशान हैं..आइसक्रीम खा नहीं पा रहे हैं.........बस, वह पेस्ट करने से ही दांतों की तकलीफ़ें एक दम ठीक हो जाएंगी........ऐसा होता है क्या? मैंने तो कभी ऐसा होता देखा नहीं .......दांतों की झनझनाहट है तो उस का कारण खोज कर उसे ठीक कराएं......और याद रखने वाली बात है कि  इस झनझनाहट के भी एक नहीं, बहुत से कारण हैं।

बातें बहुत हो गईं.......एक गाना सुनते हैं.....शायद तीसरी-चौथी कक्षा में यह फिल्म देखी थी...महमूह साब भी मिलावटी चीज़ों का ही रोना रो रहे हैं.....अपने अनूठे अंदाज़ में.....खूब बजा करता था यह गाना भी रेडियो पर....आज सुबह सुबह पता नहीं कैसे इस का ध्यान आ गया....चालीस साल पहले भी बाज़ार के जो हालात थे, उस का साक्षी है यह गीत..



सोमवार, 24 नवंबर 2014

कैसा कैसा पनीर बिक रहा है!


कल हम लोग घर के पास ही एक सब्जी मंडी में थे....मैंने देखा कि किस तरह से वहां बाज़ार में पनीर बिक रहा था....१४० रूपये का एक किलो।
 लखनऊ की सब्जी मंडियों में अब पनीर ऐसे बिकने लगा है
आप के शहर में भी इस तरह से पनीर तो बिकता ही होगा। ऐसा नहीं है कि इस तरह से बिकने वाला पनीर ही खराब है या इस के ही मिलावटी दूध से बने होने की आशंका होती है। 

मेरे को तो एक बात ही हमेशा परेशान करती है कि दूध तो बाज़ार में ढंग का दिखता नहीं....फिर इतना सारा पनीर कहां से तैयार हो कर बिकने लगता है। है ना सोचने वाली बात। मिलावटी पनीर के बारे में हम लोग अकसर मीडिया में पढ़ते, देखते-सुनते रहते हैं। खराब पनीर मिलावटी दूध से तैयार तो होता ही है, इस को तैयार करने के लिए किस किस तरह के हानिकारक कैमीकल इस्तेमाल होते हैं, यह भी अकसर मीडिया में दिखता रहता है। 

दो दिन पहले मेरी पत्नी बता रही थीं कि इधर लखनऊ में एक प्रसिद्ध ब्रॉंड है दूध का ...इस कंपनी का पनीर भी खुले में बिकता है....उन्होंने कंपनी की थैली में तो डाला होता है लेकिन ऊपर से खुला होता है..

यह भी कल की ही तस्वीर है.. 
अब पनीर के बारे में कुछ व्यक्तिगत बातें कर लें......हम लोगों ने लगभग दस वर्ष हो गये कभी बाज़ार से पनीर नहीं खरीदा, हां, कभी लेना ही पड़े तो एक बहुत प्रसिद्ध ब्रॉंड है जिस का ले आते हैं। वरना हमेशा घर में ही पनीर बनाया जाता है। 

बाहर का पनीर खाया ही नहीं जाता....कईं बार तो बिल्कुल रबड़ जैसा लगता था। इसलिए शायद १०-१५ वर्षों से न तो हम बाज़ार का खुला पनीर लाये हैं (चाहे वह बड़ी बड़ी डेयरीयों में बिकता हो) और न ही हम लोगों ने बाहर कभी किसी पार्टी में या कोई रेस्टरां में पनीर की कोई भी आटइम खाई है। इच्छा ही नहीं होती......कौन इन की क्वालिटी चैक करता होगा....जिस देश मेें ऐंटीबॉयोटिक दवाईयों में चूहे मारने की दवा भरी पड़ी हो, वहां पर मिलावटी पनीर की सुध लेने की किसे फुर्सत है!

मैं तो अकसर अपने संपर्क में आने वाले लोगों को भी यही कहता हूं कि अगर बाज़ार में खुले में बिक रहा पनीर ही खाना है तो इस से बेहतर है कि आप इसे इस्तेमाल ही न करिए, हो सके तो घर ही में तैयार किये हुए पनीर की ही सब्जी खाइए। 

अब आप स्वयं अनुमान लगा सकते हैं कि जिस तरह का पनीर कल मैंने बिकते देखा ...वह किस स्तर का होगा, देखिए वह दाम तो पूरे ले रहा है, लेकिन मुझे यही भय रहता है कि ऐसे खोमचे वाले कहीं पनीर की जगह बीमारियां ही तो नहीं परोस रहे। 

लिखते लिखते अचानक ध्यान आ गया....पता नहीं मैंने कहां देखा था, शायद हरियाणा में वहां यह रवायत है कि लोग कच्चा पनीर बाज़ार में लेकर उस पर नमक-मसाला लगा कर अकसर खाते दिख जाते हैं..बस, यह ऐसे ही याद आया तो लिख दिया। 

होटल, ब्याह शादी में खाए पनीर से अनुभव बड़े कटु रहे हैं......सुबह होते ही पेट पकड़ कर बार बार बाथरूम भागने का दौर........इसलिए अब लगभग १२-१५ वर्षों से इस झंझट में पड़ते ही नहीं......किसी भी पार्टी में बस दाल चावल बहुत सुख देते हैं। आप का क्या ख्याल है? .... सही है बात ..गोलमाल है भाई सब गोलमाल है!!

गुरुवार, 20 नवंबर 2014

ताकत की दवाईयों की लिस्ट

इस तरह की दवाईयों की लिस्ट यहां देने से पहले यह कहना उचित होगा कि ऐसी कोई भी so-called ताकत की दवा है ही नहीं जो कि एक संतुलित आहार से हम प्राप्त न कर सकते हों, वो बात अलग है कि आज संतुलित आहार लेना भी विभिन्न कारणों की वजह से बहुत से लोगों की पहुंच से दूर होता जा रहा है।
जो लोग संतुलित आहार ले सकते हैं, वे महंगे कचरे ( जंक-फूड – पिज़ा, बर्गर,  ट्रांसफैट्स से लैस सभी तरह का डीप-फ्राईड़ खाना आदि) के दीवाने हो रहे हैं, फूल कर कुप्पा हुये जा रहे हैं  और फिर तरह तरह की मल्टी-विटामिन की गोलियों में शक्ति ढूंढ रहे हैं। दूसरी तरफ़  जो लोग सीधे, सादे हिंदोस्तानी संतुलित एवं पौष्टिक आहार को खरीद नहीं पाते हैं , वे डाक्टरों से सूखे हुये बच्चे के लिये टॉनिक की कोई शीशी लिखने का गुज़ारिश करते देखे जाते हैं।
मैं जब कभी किसी कमज़ोर बच्चे को, महिला को देखता हूं और उसे अपना खान-पान लाइन पर लाने की मशवरा देता हूं तो मुझे बहुत अकसर इस तरह के जवाब मिलते हैं —-
क्या करें किसी चीज़ की कमी नहीं है, लेकिन इसे दाल-सब्जी से नफ़रत है, आप कुछ टॉनिक लिख दें, तो ठीक रहेगा।
( कुछ भी ठीक नहीं रहेगा, जो काम रोटी-सब्जी-दाल ने करना है वे दुनिया के सभी महंगे से महंगे टॉनिक मिल कर नहीं कर सकते)
–इसे अनार का जूस भी पिलाना शूरू किय है, लेकिन खून ही नहीं बनता ..
(कैसे बनेगा खून जब तक दाल-सब्जी-रोटी ही नहीं खाई जायेगी, यह कमबख्त अनार का जूस भर-पेट खाना खाने के बिना कुछ भी तो नहीं कर पायेगा)
विटामिन-बी कंपैल्कस विटामिन
— जितना इस ने लोगों को चक्कर में डाला हुआ है शायद ही किसी ताकत की दवाई ने डाला हो। किसी दूसरी पो्स्ट में देखेंगे कि आखिर इस का ज़रूरत किन किन हालात में पड़ती है। इस में मौजूद शायद ही कोई ऐसा विटामिन हो जो कि संतुलित आहार से प्राप्त नहीं किया जा सकता। अपने आप ही कैमिस्ट से बढ़िया सी पैकिंग में उपलब्ध ये विटामिन आदि लेना बिल्कुल बेकार की बात है।
किसी दूसरे लेख में यह देखेंगे कि आखिर इस विटामिन की गोलियां किसे चाहिये होती हैं ?
डाक्टर, बस पांच लाल टीके लगवा दो !!
एक तो डाक्टर लोग इन लाल रंग के टीकों से बहुत परेशान हैं। क्या हैं ये टीके—-इन टीकों में विटामिन बी-1, बी –6 एवं बी –12 होता है और कुछ परिस्थितियां हैं जिन में डाक्टर इन्हें लेने की सलाह देते हैं। लेकिन पता नहीं कहां से यह टीके ताकत के भंडार माने जाने लगे हैं, यह बिल्कुल गलता धारणा है।
अकसर मरीज़ यह कहते पाये जाते हैं कि मैं तो हर साल बस ये पांच टीके लगवा के छुट्टी करता हूं। बस फिर मैं फिट ——- आखिर क्यों मरीज़ों को ऐसा लगता है, यह भी चर्चा का विषय है।
मैं खूब घूम चुका हूं और अकसर बहुत कुछ आब्ज़र्व करता रहता हूं —-इस तरह की ताकत की दवाईयों की लोकप्रियता के पीछे मरीज़ कसूरवर इस लिये हैं कि जब उन्होंने कसम ही खा रखी है कि डाक्टर की नहीं सुननी तो नहीं सुननी। अगर डाक्टर मना भी करेगा तो क्या, वे कैमिस्ट से खरीद कर खुद लगवा लेंगे। और दूसरी बात यह भी है कि शायद कुछ चिकित्सकों में भी इतनी पेशेंस नहीं है, टाइम नहीं है कि वे सभी ताकत के सभी खरीददारों से खुल कर इतनी सारी बातें कर पाये। इमानदारी से लिखूं तो यह कर पाना लगभग असंभव सा काम है —–वैसे भी लोग आजकल नसीहत की घुट्टी पीने में कम रूचि रखते हैं, उन्हें भी बस कोई ऐसा चाहिये जो बस तली पर तिल उगा दे—–वो भी तुरंत, फटाफट !!
जिम में मिलने वाले पावडर
—- कुछ युवक जिम में जाते हैं और वहां से उन्हें कुछ पावडर मिलते हैं ( जिन में कईं बार स्टीरायड् मिले रहते हैं) जिन्हें खा कर वे मेरे को और आप को डराने के लिये बॉडी-वॉडी तो बना लेते हैं लेकिन इस के क्या भयानक परिणाम हो सकते हैं और होते हैं ,इन्हें वे सुनना ही नहीं चाहते। अगर इन के बारे में जानना हो तो कृपया आप Harmful effects of anabolic steroids लिख कर गूगल-सर्च करिये।
अगर कोई किसी तरह के सप्लीमैंट्स लेने की सलाह देता भी है तो पहले किसी क्वालीफाईड एवं अनुभवी डाक्टर से ज़रूर सलाह कर लेनी चाहिये।
संबंधित पो्स्टें

बुधवार, 1 अक्तूबर 2014

अबार्शन के लिए कूरियर से मिलने वाली दवाई

मैं अकसर बहुत बार नेट पर बिकने वाली दवाईयों के बारे में सचेत करने के लिए लिखता रहता हूं, इसलिए जब कल की टाइम्स ऑफ इंडिया के पहले ही पन्ने पर इस तरह की खबर का शीर्षक दिखा (लिंक इस पोस्ट के अंत में दिया है) तो यही लगा कि यह भी कुछ वैसा ही चक्कर होगा....दवाईयां इंटरनेट के द्वारा बेचने वेचने का।

लेकिन जैसे जैसे उस न्यूज़-रिपोर्ट को पढ़ता गया मेरे सारे पूर्वाग्रह गल्त सिद्ध होते रहे।

पहले तो यही लगा कि नागपुर का जो शख्स यह काम कर रहा है, इसे एक धंधे के तौर पर ही तो कर रहा होगा...कि जो महिलाएं गर्भपात करवाने की इच्छुक हैं लेकिन जिन का देश इस बात की अनुमति नहीं देता, उन्हें यह शख्स अबार्शन करने के लिए टेबलेट्स कूरियर से भेजता है... मुझे लगा कि यह भी तो एक धंधा ही हुआ...

थोड़ा अजीब सा तो लगा कि ऐसे कैसे कोई भी औरत जिस का देश उसे गर्भपात करवाने की इजाजत नहीं देता, वह इन्हें लिखे और गर्भ को गिराने के लिए गोलियां मंगवा के खा ले......बस.......मुझे ऐसे लगा कि यह तो बड़ा जोखिम भरा काम है......दवाई मंगवाने वाली महिला को क्या पता कि वह दवा खा भी सकती है या नहीं, उस की प्रेगनेन्सी की क्या अवस्था है, इतना सब कुछ एक महिला कैसे जान पाती है, यह सब कुछ कहां समझ पाती है एक औसत घरेलू महिला।

लेकिन फिर जैसे मैंने इस िरपोर्ट को आगे पढ़ा तो इस सुंदर अभियान की परतें खुलती गईं।

तो हुआ यूं कि यह जेंटलमेन जो दवा महिलाओं को भेजते हैं ....उन को एक संस्था के बारे में पता चला ... और उस से भी पहले उस महिला चिकित्सक के बारे में इन्हें पता चला जिन्होंने ऐसे देशों की महिलाओं (जिन में अबार्शन किया जाना प्रतिबंधित था).. के लिए एक समुद्री जहाज में एक गर्भपात क्लिनिक खोल दिया....जो जहाज उस देश के बाहर खड़ा रहता था ताकि महिलाएं वहां आकर अपना अबार्शन करवा पाएं......लेकिन उस काम में कोई इन्हें ज़्यादा सफलता मिली नहीं।

फिर इन्होंने एक वेबसाइट खोली ...Women on Web......इस साइट के माध्यम से ज़रूरतमंद महिलाओं इस संस्था से संपर्क करती हैं, अधिकतर ऐसी महिलाएं जिन के देशों में स्थानीय कानून अबार्शन की अनुमति नहीं देते.... जब ये महिलाओं अपना प्रेगनेंसी टेस्ट करवा लेती हैं. और अगर हो सके तो अल्ट्रासाउंड भी करवा लेती हैं तो ये महिलाएं  एक प्रश्नोत्तरी के माध्यम से इंटरनेट पर इस संस्था की किसी महिला चिकित्सक से परामर्श लेती हैं......इस संस्था की वेबसाइट भी एक बार अवश्य देखें कि किस तरह से ज़रूरतमंद औरतों का सही मार्गदर्शन किया जाता है।

जब वह महिला चिकित्सक उन की प्रार्थना को स्वीकार कर लेती हैं तो वह गर्भपात की दवाईयों का नुस्खा उस नागपुर के इस कार्यकर्त्ता को भेज दिया है जो फिर वहां से दवाई को उस के गनतव्य स्थान की तरफ़ कूरियर कर देता है।

नागपुर का यह बंदा इस काम से कोई मुनाफ़ा नहीं कमाता....केवल सेवाभाव से काम कर रहा है, हां लेकिन महिला को इस संस्था को ९० यूरो दान के रूप में देने के लिए आग्रह किया जाता है.......लेिकन जो नहीं भी दे पातीं, उन्हें ऐसे ही दवा भिजवा तो दी ही जाती है।

 इसे भी ज़रूर देखिए....
Pills-by-post op helps women abort
The abortion ship's doctor


गुरुवार, 25 सितंबर 2014

दवा का रिएक्शन मुंह में कैसा दिखता है?

यह आदमी अपने मुंह का घाव दिखाते हुए... 
कल मेरे पास एक ४५-५० वर्ष की उम्र का आदमी आया...उसने कहा कि उसने कोई दवा खाई थी दो तीन दिन पहले जिस से उस के सारे शरीर में खुजली होने लगी और मुंह में बहुत बड़ा घाव हो गया।

यह तो पक्का ही था कि उसे दवाई लेने से ही यह घाव हुआ था क्योंकि एक टेबलेट लेने के कुछ घंटे बाद ही इस तरह मुंह में छाला सा हो गया जो तुरंत फूट गया और यह बढ़ कर यह घाव बन गया। 

इस घाव की तस्वीर आप यहां देख रहे हैं....देखने में काफ़ी बड़ा तो लग रहा है, इस आदमी को परेशान भी बहुत कर रहा है...उससे कुछ भी खाया पिया नहीं जा रहा। 

लेिकन आप चिंता न करें, यह घाव तो तीन-चार दिन में ठीक हो ही जाएगा.......बिना किसी ऐंटीबॉयोटिक जैसी दवाईयों के.....इस पर दिन में चार पांच बार मुंह में लगाने वाली दर्द निवारक एवं ऐंटीसेप्टिक जैल लगानी होगी..... कुछ के नाम मैं यहां लिख रहा हूं......Dentogel, Dologel, Zytee, Emergel आदि.....इन में से किसी भी एक जैल का इस्तेमाल किया जा सकता है। घाव में दो बूंद लगाने पर इसे पांच मिनट बाद थूक देना होता है.....विशेषकर खाना खाने से पहले इस का इस्तेमाल खाने से होने वाली दिक्कत को बहुत कम कर देता है। 

अकसर किसी भी दर्द-निवारक टेबलेट खाने की भी ज़रूरत नहीं होती.......अगर है तो कोई भी हल्की फुल्की दवा ली जा सकती है। 

टुथब्रुश एवं जुबान साफ़ करने वाली पत्ती का इस्तेमाल नियमित जारी रखना होगा.......ताकि किसी तरह की इंफैक्शन से बचा जा सके। 

एक बात बताऊं जब मैंने इस आदमी से पूछा कि आप को किस दवाई से ऐसा हुआ तो वह नाम ही नहीं बता पाया....न ही उस के पास वह दवाई मौजूद थी......इसलिए यह ध्यान रखना चाहिए की अगर इस तरह की कोई तकलीफ़ हो भी जाए तो चिकित्सक के पास कम से कम वह दवा तो दिखाने के लिए जाना ही चाहिए, ताकि आप वह दवा किसी दूसरे ट्रेडनेम से भी फिर से खाए जाने से बच सकें। 

दवा का जब किसी को रिएक्शन होता है तो नाना प्रकार के लक्षण हो सकते हैं......सारे शरीर में खुजली, इधर उधर फफोले से पड़ जाना, मुंह में फफोले और घाव आदि हो जाना.......और भी बहुत हैं, लेकिन छोड़िए क्या करेंगे खाली-पीली सभी के बारे में जान कर.......यही शुभकामना है कि आप स्वस्थ रहें। 

हां, यार, एक ध्यान आया....कुछ साल पहले लोग कुछ ज़्यादा ही सीधे हुआ करते थे शायद......कुछ लोग दांत की दर्द से निजात पाने के लिए ऐस्प्रिन की गोली को पीस कर मुंह में दुःखते दांत के सामने टिका दिया करते थे......दर्द तो कहां दूर हो पाता था, लेकिन इसी तरह का ज़ख्म ज़रूर कईं दिन तक परेशान किए रहता था।

यह तो था इन साहब के मुंह का हाल, कल मैंने एक सांस्कृतिक कार्यक्रम में किशोर दा का यह गाया हुआ यह गीत एक आर्टिस्ट की आवाज़ में सुना ... इन्हें लखनऊ में जूनियर किशोर दा कहते हैं.......अच्छा लगा अपने बचपन के दिनों का गीत सुन कर .....आप भी सुनिए... यह दिल के हाल की बात कर रहा है.........

रविवार, 21 सितंबर 2014

नेट पर बिकने वाली सेहत

इतने वर्ष हो गये नेट पर मेडीकल विषयों पर लिखते हुए ... अब यह पक्का लगने लगा है कि नेट पर जो हम लोग सेहत संबंधी विषयों के बारे में पढ़ते हैं, उसे हैंडल करना बेहद मुश्किल और जोखिम भरा काम है।

आए दिन मैडीकल रिसर्च से नईं नईं बातें सामने आ रही हैं...लेिकन बहुत सी बातें अभी भी रिसर्च की स्टेज तक ही होती हैं कि विभिन्न कारणों की वजह से --(इस में मार्कीट शक्तियों की भी बहुत भूमिका है).. उन्हें आगे कर दिया जाता है।

कोई भी नेट पर मैडीकल सामग्री पढ़ने वाला आसानी से भ्रमित हो जाता है.....जिस टेस्ट की नहीं भी ज़रूरत वह जा कर करवा के आ जाएगा, जिस जांच की ज़रूरत है वह करवाएगा नहीं, नईं नईं दवाईयों के चक्कर में या नेट पर ऑनलाइन दवाईयों के चक्कर में पड़ सकता है.....और तो और, कुछ विषयों के ऊपर पढ़ कर कईं तरह की काल्पनिक बीमारियों के चक्कर में अपने मन का चैन खो बैठता है। इस तरह के पचड़ों में पड़ने की लिस्ट खासी लंबी है, कहां तक गिनवाएं।

मैं जनसंचार (मॉस कम्यूनिकेशन)  पांच वर्ष पढ़ने के बाद से पिछले सात वर्षों से निरंतर नेट पर सेहत संबंधी विषयों पर लिख रहा हूं...इसलिए जेन्यून और फालतू जानकारी के बीच अंतर जानने में दिक्कत नहीं होती..लेिकन फिर भी बहुत बार तो मैं भी कंटाल जाता हूं.......अभी अभी खबर पढ़ी कि ये आर्टिफिशियल स्वीटनर्ज़ हैं, इस से भी मधुमेह के रोगियों में रक्त में शर्करा की मात्रा बढ़ जाती है। इस का स्क्रीन शाट यहां लगा रहा हूं।

लो, कर लो बात......
यही कारण है कि मैं किसी को भी सलाह नहीं देता कि नेट पर कुछ भी पढ़ कर आप अपनी सेहत के बारे में महत्वपूर्ण फैसले करें....यह आप के हित में है ही नहीं। आप के फैमली डाक्टर का न तो कोई विक्लप बना है, शायद न ही बन सकता है। उस से बात कर के ही आप की कईं चिंताएं हवा हो सकती हैं।

हां, नेट में अगर जानना हो तो ह्लकी फुल्की जानकारी सेहत के बारे में....किसी टेस्ट के बारे में कोई जानकारी चाहिए हो तो वह पढ़ लें, समझ लें, किसी भी आप्रेशन के बारे में कुछ भी ऐसे ऊपरी ऊपरी जानकारी पा सकते हैं, लेकिन कोई भी निर्णय इस आधार पर लेने की कोशिश न करें.......क्या है ना, डाक्टर लोग बीसियों वर्षों तक हज़ारों मरीज़ देखने के बाद इस मुकाम तक पहुंचते हैं कि आप से चंद मिनट बात कर के, आप के कुछ टेस्ट करवा के, आप की सेहत के.. बारे में जान लेते हैं.........आप कैसे ये सब निर्णय ले सकते हैं।

एक और मशविरा .... डाक्टर से आप जितने प्रश्न करें, आप का अधिकार है...लेकिन अगर अपना नेट से पढ़ा मैडीकल ज्ञान दिखाने के लिए अगर आप कुछ कह रहे हैं तो वह भी चिढ़ जाता है, आखिर है तो वह भी इंसान, उसे कुछ भी समझते देर नहीं लगती। बेहतर हो कि डाक्टर के सामने बिल्कुल अनाड़ी (और दरअसल हम हैं भी... डाक्टर की तुलना में) की तरह ही बिहेव करें......कुछ ज़्यादा लिख दिया.......चलिए, इतना तो कर ही सकते हैं कि जो डाक्टर साहब कह रहे हैं, उसे अच्छे से समझने की कोशिश करें।

नेट पर पढ़ा करें कि खुश कैसे रहें, जीवनशैली को कैसे पटड़ी पर लाएं, खाना पीना कैसे ठीक करें, व्यायाम कैसे नियमित करने की आदत डालें, विचार कैसे शुद्ध हों (जी हां, यह भी जाना जा सकता है).....कैसे शांत रहना सीखें.....बस इतना ही काफ़ी है ......लेकिन आप कहेंगे कि इन के बारे में क्या पढ़ें, डाक्टर, यह सब तो क्या हम पहले ही से नहीं जानते क्या?.......तो फिर उन्हें व्यवहार में लाने से आप को कौन रोक रहा है। 

शुक्रवार, 1 अगस्त 2014

सूंघने वाली इंसुलिन

कुछ साल पहले की बात है कि हमारी एक आंटी जी हमारे पास कुछ दिनों के लिए आईं थीं.. वह मधुमेह से पीड़ित थीं, स्वभाव की बहुत अच्छी, हंसमुख तबीयत की. अपनी बीमारी के बारे में कुछ ज़्यादा सोचती नहीं थीं। मस्त रहती थीं, उन के गुज़रे भी बहुत वर्ष बीत गये हैं।

मुझे याद है जब उन्हें दिन में कईं कईं बार इंसुलिन के टीके अपनी जांघ के पट्ठों पर लगाने पड़ते थे, सुन कर ही बहुत कठिनाई होती थी। जांघ पर ही नहीं, शरीर की अन्य जगहों पर भी बाजु, पेट (एबडॉमन)आदि पर वह टीके लगा लेती थीं इंसुलिन के। वैसे तो वह स्वयं भी लगा लिया करती थीं लेकिन बहुत बार उन की बहू उन की इस काम में मदद किया करती थीं।

मुझे अभी भी याद है वह २०-२५ वर्ष पुरानी बात जब एक बार वह टीका लगा रही थीं तो किस बेबसी के भाव से उन्होंने कहा कि क्या करूं, जिधर चमड़ी थोड़ी ठीक लगती है, उधर ही लगा लेती हूं इंजैक्शन....सारे शरीर को तो टीके लगा लगा छील दिया है !!

आज जब इस खबर पर ध्यान गया कि अब सूंघने वाली इंसुलिन को भी अमेरिकी एफडीआई की एप्रूवल मिल गई है .. तो यह जान कर प्रसन्नता हुई। चाहे बाद में लिखा गया है कि यह सूंघने वाली इंसुलिन लॉंग-एक्टिंग इंसुलिन का विकल्प नहीं है। इसे तो उस लॉंग-एक्टिंग इंसुलिन के साथ (ज़ाहिर सी बात है टीके से लगने वाली इंसुलिन).. ही लेना पड़ेगा।

इतना पढ़ कर भी ठीक ही लगा कि चलो, बीमारी से पहले से ही परेशान मधुमेह रोगी कम से कम कुछ टीकों से तो बच ही जाएंगे।

जाते जाते एक बात लिखने को मन हो रहा है ..जितनी बुरी मैनेजमैंट मैंने मधुमेह के रोगियों की देखी है, शायद ही कोई ऐसी बीमारी हो जिस का यह हाल हो। मरीज़ नियमति ब्लड-शुगर की जांच करवाते नहीं या करवा नहीं पाते, और भी आंख की या अन्य रक्त की जांच न होने की वजह से अन्य अंगों में जटिलताएं उत्पन्न तो होती ही हैं, साथ ही साथ, मधुमेह में ली जाने वाली दवाईयों को भी ठीक से एडजस्ट नहीं करवा पाते..... सही तरह से फॉलो-अप का अभाव, विशेषज्ञ चिकित्सकों तक न पहुंच पाना, नीम हकीमों के झांसे, देसी दवाईयां, पुडियां....एक ही समय में कईं कईं इलाज एक ही तकलीफ़ के करने की कोशिश.............. देश में हर बंदे  -- ९९ प्रतिशत लोगों की बड़ी जटिल समस्याएं हैं। इन के सब्र से डर लगता है--- रात को बत्ती नहीं, पानी की समस्या, सूखा, महंगाई और ऊपर से बीमारी।

ईश्वर सब को सेहतमंद रखे। खुश रखे। काश, सब के अच्छे दिन एक नारा ही न जाए, सब के दिन पलट जाएं।

Authority.. Inhaled insulin approved by FDA 

रविवार, 27 जुलाई 2014

एकदम खालिस कैफ़ीन भी बिकती है इंटरनेट पर

अभी अभी यह जानना भी मेरे लिए एक बड़ी खबर थी कि शुद्ध कैफ़ीन पावडर इंटरनेट से भी खरीदा जा सकता है।

कैफ़ीन से अपना परिचय कालेज के दिनों में हुआ.....जब हमें यह पता चला कि चाय-काफी में भी कैफ़ीन होती है और थोड़ी बहुत मात्रा में तो ठीक है, यह ताज़गी देती है लेकिन इस की ज़्यादा मात्रा से कईं प्रकार का नुकसान होता है। यह भी तो एक तरह का नशा ही हुआ क्योंकि इस के ऊपर फिर एक तरह से डिपेंडैंस हो जाती है। 

कैफ़ीन की विशेषता यह भी सुनते थे अपनी फार्माकॉलोजी की प्रोफैसर से कि गांव के लोग क्यों बुखार वार होने पर एक प्याली चाय पी कर ही ठीक हो जाया करते थे, वह भी इसी कैफ़ीन का कमाल ही होता था---दवाईयों के वे लोग ज़्यादा आदि थे नहीं, इसलिए यह भी एक दवाई का ही काम करती थी, चाय पीने के बाद उन का पसीना-वीना निकल जाता था और वे छोटी मोटी तकलीफ़ से बाहर निकल आया करते थे, तरोताज़ा सा महसूस कर लेते थे। 

अभी ध्यान आ रहा था कि बचपन में हमारे दौर के लोगों की जुबां पर एक दवाई का नाम चढ़ गया था.......एपीसी......  APC... बाद में कॉलेज में फार्माकॉलोजी पढ़ने के दौरान पता चला कि इस में ए का मतलब है एसिटाअमाईनोफैन, पी से से फिनैसेटिन और सी से कैफ़ीन.... यह टेबलेट बड़ी पापुलर सी हुआ करती थी। सरकारी अस्पतालों के नुस्खों पर पहली दवा यही हुआ करती थी..... फिर अस्सी के दशक में अमेरिका में जब फिनेसेटिन पर प्रतिबंध लगा दिया गया तो फिर यह टेबलेट यहां से भी गायब हो गई। हमारे घर में भी एपीसी की गोलियां बहुत इस्तेमाल हुआ करती थीं....दांत दर्द, बदन दर्द, सिर दर्द, बुखार, ..हर किस्म के दर्द का बस एक ही इलाज हुआ करता था। 

इस पृष्ठभूमि के साथ अपनी बात कहनी शुरू करें....शुद्ध कैफ़ीन के बारे में। यह जो शुद्ध कैफ़ीन पावडर के पैकेट इंटरनेट पर बिक रहे हैं, यह एक चिंताजनक ट्रेंड है। अमेरिकी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने इस के बारे में लोगों को सावधान करते हुआ कहा है कि शुद्ध कैफ़ीन का एक चम्मच कॉफी के २५ कपों को एक साथ पी लेने के बराबर है।

एफ डी आई ने मां-बाप को भी इस मुसीबत से बच्चों को बचाए रखने के लिए कहा है क्योंकि यह कैफ़ीन एक बहुत शक्तिशाली स्टुम्लैंट (उत्तेजित करना वाला) है और ज़रा सी भी लापरवाही से शुद्ध कैफ़ीन की थोड़ी सी मात्रा से भी ओवरडोज़ का खतरा हो सकता है। 

मैं जो चेतावनी पढ़ रहा था उस में स्पष्टता से लिखा है कि कैफ़ीन की ओवरडोज़ से दिल की धड़कन में कुछ खतरनाक बदलाव, दौरे और मृत्यु तक हो सकती है। उल्टी आना, दस्त लगना और बेसुध सा हो जाना कैफ़ीन की विषाक्ता के लक्षण हैं। और शुद्ध कैफ़ीन के पावडर रूप में सेवन करने में ये लक्षण चाय, काफ़ी, या अन्य कैफ़ीन सम्मिलित पेय पदार्थ पीने वालों की अपेक्षा में बहुत ज़्यादा उग्र किस्म के होते हैं। 
अब ऑनलाइन पर हर कुछ खरीदना वैसे ही बहुत आसान सा हो गया है, मन में विचार आया और तुरंत खरीद लिया और अगले दिन आप के द्वार पर सामान पहुंच जाता है, ऐसे में स्वयं भी सचेत रहिए, दूसरों को भी करते रहिए।


शनिवार, 26 जुलाई 2014

टी बी के मरीज़ के गिरफ्तारी वारंट

अभी अभी बीबीन्यूज़ पढ़ रहा था तो एक खबर की तरफ़ विशेष ध्यान चला गया कि कैलीफोर्निया में एक टीबी के मरीज़ ने अपना नौ महीने का दवाईयां का कोर्स पूरा नहीं किया ..और बिना बताए कहीं चला गया तो उस के गिरफ्तारी के वारंट इश्यू हो गये हैं क्योंकि प्रशासन जानता है कि इस मरीज़ के दूसरे लोगों को टीबी का मर्ज होने का खतरा है।

इस खबर का लिंक यहां लगा रहा हूं.. इस पर क्लिक कर के इसे देख सकते हैं.....  California manhunt for tuberculosis -positive patient

मैं भी पिछले ३० वर्षों से सरकारी अस्पतालों में ही काम कर रहा हूं और इसलिए जो भी सरकारी अस्पतालों में टीबी और छाती रोग विशेषज्ञ पूरी कर्त्त्व्यपरायणता से अपना काम करते हैं उन के लिए मेरे मन में एक विशेष सम्मान है। और इस के साथ ही साथ जिन चिकित्सकों का व्यवहार भी इन मरीज़ों के साथ अच्छा होता है उन के आगे तो नतमस्तक होने की इच्छा होती है।

ये विशेषज्ञ ही नहीं, बल्कि लैब में जो टैक्नीशियन इन मरीज़ों की थूक की जांच कर के सही सही रिपोर्ट देते हैं मैं उन के फन की भी बहुत तारीफ़ करता हूं।

यह रोग इतने व्यापक स्तर पर भारत में फैला हुआ है कि सरकारी अस्पताल के टीबी के सरकारी डाक्टर का व्यवहार भी मेरे विचार में यह तय करता है कि मरीज़ उन की बात को कितनी गंभीरता से लेगा या दवाई खायेगा भी कि नहीं।

इस बीमारी के इलाज में इतना गड़बड़ घोटाला है कि हम सब आए दिन अखबारों में पढ़ते हैं कि टीबी की नकली दवाईयों की खेप पकड़ी गई। मुझे लगता है कि जो भी आदमी टीबी की ऩकली दवाईयों की कमाई खा रहा है उस से तो पशु भी बेहतर हैं।

हम चाहे जितना मरजी ढोल पीट लें कि हम डाक्टरों की कार्यक्षमता की ऐसी जांच करेंगे, वैसी जांच करेंगे.......साहब, ये दिल के मामले हैं, दिल से करने वाले काम हैं, कोई भी ऐसा मापदंड ऐसा बन ही नहीं पाएगा कि किस डाक्टर ने कितनी अच्छी तरह से कितनी कुशलता से अपने काम को अंजाम दिया या फिर किस टैक्नीशियन ने कितने थूक के सैम्पल कितने अच्छे से चैक किए और उस में से इतने कम पॉज़िटिव ही क्यों आए।

थूक की जांच का पॉज़िटिव या निगेटिव आना ही बहुत बार यह तय करता है कि बंदे को टीबी की दवाईयां दी जाएंगी या नहीं,  सोच कर मन कांप उठता है कि जिस टीबी के रोगी का थूक  का टैस्ट निगेटिव आ गया और उसे दवाईयां शुरु न की गईं।

ऐसे ही बहुत बार देखने सुनने में आता है कि किसी बंदे को टीबी थी ही नहीं और उस ने छः -नौ महीने दवाईयां भी खा लीं, फिर पता चला कि इस कोर्स की तो उसे ज़रूरत नहीं थी।
मैं गलतियां नहीं गिना रहा हूं....मुझे स्वयं पता नहीं मेरे में कितनी खामियां हैं, मैंने तो गिनती ही करनी छोड़ दी है, लेकिन टीबी के मरीज़ की ज़रा बात करते करते थोड़ा भावुक सा हो गया हूं........जिस तरह से टीबी की बीमारी इस देश में प्रचलित है, ऐसे में टीबी रोग विशेषज्ञों एवं लैब टैक्नीशियन (जो थूक की जांच करते हैं) को अति उत्तम श्रेणी का प्रशिक्षण समय समय पर दिया जाना चाहिए।

पाठकों को लगता होगा कि थूक की जांच बहुत आसान सा काम है, थूक की जांच ही तो करनी है, जी नहीं, यह एक बहुत कठिन काम है, इस में गलती की कोई गुंजाइश नहीं होती, कईं बार यही रिपोर्ट ही यह तय करेगी कि मरीज़ को दवा का कोर्स दिया जायेगा या नहीं.

ऐसा नहीं है कि अन्य साधन नहीं हैं --- हैं तो ..छाती का एक्स रे है, रक्त की अन्य प्रकार की जांच है, और नये नये प्रकार के टैस्ट भी आने लगे हैं--एलाईज़ा जैसे, जिस से बड़ी सटीकता से टीबी का पता चल जाता है। अभी ध्यान आ गया जब वी मैट के दारा सिहं के वह संवाद का जिस में वह करीना और शाहिद को देख कर बड़े चुटीले अंदाज़ में कहता है कि एक नज़र से ही पता चल जाता है कि लड़के और लड़की के बीच चल क्या रहा है। जी हां, ये विशेषज्ञ भी अपने मरीज़ों की बीमारी पहचानने में भी ऐसी ही नज़र रखते हैं।


लेकिन वही बात है, कहां लोग इतने साधन-संपन्न हैं कि वे इतने इतने महंगे टैस्ट करवाते फिरें, नहीं करवा पाते, ईश्वर का शुक्र है कि एक छाती का एक्स-रे और कुछ मामूली सी रक्त जांच से ही अनुभवी विशेषज्ञ निदान कर लेते हैं और दवाई शुरू कर देते हैं।

१०-१२ वर्ष पहले की बात है कि मैं फिरोज़पुर में जहां बाल कटवाने जाता था, वहां एक लड़का एक दिन कहने लगा कि उस की मां को टीबी है, बड़ी कमज़ोर हो गई है... प्राइव्हेट से इलाज करवा रहे हैं, कुछ फ़र्क ही नहीं पड़ रहा, सरकारी अस्पताल में जाते डर लगता है कि वहां कोई ठीक से बात सुने कि नहीं।

अब मुझे इतने वर्षों के बाद यह लगने लगा कि सरकारी अस्पतालों में बहुत अच्छा टेलेंट भी है, हर किसी को एक ही लेबल लगा देना ठीक नहीं है। इस में भी कोई संदेह नहीं रहा कि कुछ के अपने स्वार्थी मनसूबे रहते होंगे, और डाक्टरी पेशे में और वह भी सरकारी अस्पताल में सरकारी कुर्सी पर बैठ कर अपना कोई भी स्वार्थी मनसूबा रखना ...मैं इस श्रेणी को भी बेहद बेवकूफ़ मानता हूं........ मरीज़ आ रहा है आप के पास आप का नाम सुन कर, शायद उस के पास उतने साधन भी नहीं हैं, आप इतने माहिर बने बैठे हैं इसी तरह के सैंकड़ों-हज़ारों मरीज़ों को देख देख कर.......फिर इस में इतना इतराने की क्या बात है, क्यों इन मरीज़ों को हम दूसरे चक्करों में डालें..........अपना सारा ज्ञान जो संजो कर रखा है वह कब काम आयेगा.....

अच्छा तो बात उस हेयर-कटर की हो रही थी, वैसे तो मेरे जाने की ज़रूरत थी ही नहीं, क्योंकि फिरोज़पुर के सिविल अस्पताल में जो टीबी के विशेषज्ञ थे उन का बहुत ही नाम था.....काबिलियत के हिसाब से भी व्यवहार के नज़िरये से भी......फिर भी मैं पहली बात जा कर उस की मां और उस का परिचय करवा के आ गया, बाद में वे लगातार जा कर दवाई वहां से जा कर लेते रहे, खाने पीने के बारे में मैं भी उस का मार्गदर्शन करता रहा, कुछ ही महीने में उस की मां एकदम फिट हो गईं, वह बहुत खुश था.....लेकिन उस ने कोर्स पूरा किया।

प्राइव्हेट में बैठे कुछ नीम हकीम के हत्थे अगर कोई इस तरह का मरीज़ चढ़ गया तो वे उसे ठीक होने ही नहीं देते, या शायद उन का ज्ञान ही उतना होता होगा, लेकिन इतने भी बेवकूफ़ न होते होंगे कि भोली -भाली जनता को सरकारी टीबी अस्पताल में ही न रेफर कर पाएं.......ये नीम-हकीम टाइप के डाक्टर तो बस थोड़ी थोड़ी दवा देते रहते हैं, कभी कोई आधा अधूरा टीका लगा दिया.......मरीज़ ठीक हो या ना हो, इस से मतलब नहीं, बस उन की दुकानदारी चमकती रहनी चाहिए।

इस देश में तो ऐसे ऐसे केस देखें हैं कि मरीज़ महीनों महीनों खांसता रहता है, उस की खांसी से ही पता चल रहा है कि सब कुछ ठीक नहीं है, लेकिन जब वह गंभीर अवस्था में किसी बड़े अस्पताल में पहुंच जाता है, और वहां मौत से चंद दिन पहले ही पता चल पाता है कि उस का तो स्पूटम-पॉज़िटिव (लार में टीबी के कण) था। बेहद अफ़सोसजनक परिस्थिति !!

शुक्रवार, 25 जुलाई 2014

बॉडी-शॉडी बनाना भी एक खतरनाक जुनून हो सकता है..

कितनी बार बातें चलती रहती हैं कि किस तरह से जिम जाने वाले लड़के तरह तरह के पावडर लेकर अपने डोले शोले बना कर अपनी बॉडी शॉडी से लोगों को इंप्रेस करने लगते हैं। जानते लगभग सब हैं कि इस तरह के प्रोडक्टस का क्या नुकसान है, लेकिन फिर भी जिस से पूछो उस का यही जवाब होता है कि बस एक या दो डिब्बे ही खाए थे, वे भी जिम से ही खरीद कर। लेकिन एक दो डिब्बे खा लेना भी किसी खतरे से कम नहीं है।

यह जो आजकल हम लोग छः पैक (सिक्स पैक) और बिल्कुल मकैनिकल सी बॉडी देखने लगे हैं, ऐसा पहले क्यों नहीं होता था...बचपन से ही हम देखते आ रहे हैं कि पहलवान कुश्तियां लड़ते थे, दंगलों में हिस्सा लेते थे, वज़न भी उठाते थे....लेकिन फिर भी उन के शरीर इस तरह के नज़र नहीं आते थे जितना आज के किसी युवा की बॉडी एक-दो महीने ही जिम जा कर दिखने लगती है।

यह सब उन हारमोन्ज़ और स्टीरॉयड आदि का प्रभाव है जो कि इतनी जल्दी मांसपेशियां इतनी फूल सी जाती हैं...
पहले भी इस विषय पर कईं बार लिख चुका हूं लेकिन आज फिर अचानक ध्यान आ गया कि किस तरह से अमेरिकी युवा इस तरह के हारमोन्ज़ एवं स्टीरायड के चक्कर में पड़ कर अपनी सेहत से खिलवाड़ कर रहे हैं।

और इस रिपोर्ट में इसी बात की परेशानी ब्यां की गई है कि इस तरह के प्रोडक्ट्स की बिक्री पर कोई रोक ही नहीं है,  लोग ये सब चीज़ें ऑनलाईन भी खरीदने लगे हैं।

 Dangerous use of Growth Hormone Surges Among U.S Teens

अगर अमेरिका जैसे देश में इतनी बेबसी है कि इन सब चीज़ों की बिक्री पर अंकुश रखने के लिए तो आप यह तो कल्पना भलीभांति कर ही सकते हैं कि यहां भारत जैसे देश में कैसी विकट समस्या होगी। यहां तो वैसे ही कुछ भी बिकने लगता है।

दरअसल ये दवाईयां हैं जो कि एक विशेषज्ञ डाक्टर ही लिखते हैं ..किन्हें लिखते हैं ..डाक्टर साहब ये दवाईयां.......ये दवाईयां दी जाती हैं एड्स के रोगियों को जिन की मांसपेशियां कमज़ोर पड़नी शुरू हो जाती हैं,  दिमागी के कुछ ट्यूमर ऐसे हैं..पिचूटरी ट्यूमर जिन में इन दवाईयों को देना पड़ता है और हां, कुछ बच्चे जो बचपन से ही कम विकास का शिकार होते हैं उन्हें भी ये दवाईयां एक विशेषज्ञ पूरी छानबीन कर के देता है.........ये वो बच्चे हरगिज़ नहीं होते जिन की ग्रोथ जंक-फूड खाने से प्रभावित होती है ...ऐसे बच्चों को भी ये दवाईयां नहीं दी जातीं, यह एक बहुत गहरा वैज्ञानिक मुद्दा है जिसे विशेषज्ञ डाक्टर ही जानते हैं. और यही बात जानने के लिए वे बीस वर्ष की डाक्टरी पढ़ाई करते हैं....... एमबीबीएस फिर एम डी ..फिर कुछ आगे डी एम ..ऐंडोक्राईनॉलॉजी में......फिर अपने अनुभव के आधार पर ये निर्णय लेते हैं अपनी निगरानी में किसे ये दवाईयां देनी हैं, किसे नहीं।

यह कैसे हो सकता है कि आपके जिम का मालिक जो कुछ हफ़्ते में एक दो फैशनेबुल कोर्स कर के आ जाए और लगे बांटने यह ज्ञान......... नहीं, ऐसा नहीं हो सकता, अपने जिम की शानोशौकत पर, दिखावे पर और जिम मालिक की स्लैंग या ट्रेंडी इंगलिश पर मत जाइए........बस, कसरत करिए और अपने आप को तंदरूस्त रखिए........क्योंकि आज रात ही रात में लखपति नहीं, करोड़पति बनने की एक दौड़ सी लगी हुई है।

कुछ डाक्टर भी स्पोर्ट्स मैडीसिन के विशेषज्ञ होते हैं, हो सके तो मैडीकल कालेज या अन्य सरकारी संस्थानों से इस तरह के प्रोडक्ट्स के बारे में चर्चा की जा सकती है। 

शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2014

यादाश्त ऐसी बढ़ने लगी तो हो गया...


आज सुबह जब नवभारत टाइम्स पेपर देखा तो उस में किंग जार्ज मैडीकल यूनिवर्सिटी के डाक्टरों द्वारा किया गया एक शोध पढ़ने को मिला. पढ़ कर अच्छा लगा कि किस तरह से ये चिकित्सा संस्थान जनमानस में व्याप्त विभिन्न भ्रांतियों का भंडा-फोड़ करने में लगे हैं......
ऐसा है ना जब बिना रिसर्च किए कोई इस तरह की दवाईयों के बारे में लिखेगा, तो उस पर ही उंगलियां उठनी शुरू हो जाती हैं लेकिन केजीएमयू जैसी संस्था में अगर इस तरह की रिसर्च हुई और उस का नतीजा यही निकाल की इस तरह की दवाईयां सब बकवास हैं, कुछ होता वोता नहीं इन से.......अगर इस तरह की स्टडीज़ को हम लोग जनमानस तक पहुंचा दें तो बात बनती दिखती है।
आशीष तिवारी की यह रिपोर्ट देख कर अच्छा इसलिए भी लगा क्योंकि बड़ी सरल सटीक भाषा में इन्होंने रिपोर्ट को लिखा है।
वैसे मुझे इस खबर को देखते ही ध्यान आया कि मैंने भी इस विषय पर एक लेख लगभग एक-डेढ़ वर्ष पहले लिखा तो था....सेहतनामा को खंगाला तो दिख ही गया, इसका लिंक यहां चसपा कर रहा हूं। देखिएगा, इस लिंक पर क्लिक करिए................. अच्छे ग्रेड पाने के लिए इस्तेमाल हो रही दवाईयां
और अगर इतना सब कुछ पढ़ने पर भी बात बनती न दिखे तो हाथ कंगन को आरसी क्या, गूगल कर लें...  लिखिए .. memory plus
मैं यह सोच रहा हूं कि इस तरह की खबरें, इस तरह के लेख हम लोगों को अपनी ओपीडी में डिस्पले कर देने चाहिए...अगर कुछ लोग भी इन्हें पढ़ कर इन बेकार के टोटकों से बच पाएं तो हो गई अपनी मेहनत सफल।
ध्यान तो यह भी आया कि यार अगर याददाश्त इस तरह से बढ़ती तो फिर ये भी देश के चुनिंदा लोगों की ही बढ़ पाती ---वही लोग इन चीज़ों का स्टॉक भी कर लेते और पानी की जगह शायद इन्हें ही पी लेते. लेकिन दोस्त, ऐसे नहीं होता......................थैंक गॉड सभी अत्यावश्यक वस्तुएं प्रकृति ने अपने सीधे कंट्रोल में ही रखी हुई हैं.............
memory 001                                                                        (आप को इस रिपोर्ट को अच्छे से पढ़ने के लिए इस पर क्लिक करना होगा)

रविवार, 16 फ़रवरी 2014

नकली दवाई के धंधे वालों को फांसी क्यों नहीं?

यह प्रश्न मुझे पिछले कईं वर्षों से परेशान किये हुए है।

हम लोग लगभग एक वर्ष पहले लखनऊ में आए...कुछ दिनों बाद हमें शुभचिन्तकों ने बताना शुरू कर दिया कि कार में पैट्रोल कहां से डलवाना है ..उन्होंने व्ही आई पी एरिया में दो एक पैट्रोल पंपों के बारे में बता दिया कि वहां पर पैट्रोल ठीक तरह से डालते हैं, मतलब आप समझते हैं कि ठीक तरह से डालने का क्या अभिप्राय है। 

कारण यह बताया गया कि ये पैट्रोल पंप जिस एरिया में हैं वहां से सभी मंत्रियों और विधायकों की गाड़ियों में तेल डलवाया जाता है। सुन कर अजीब सा लगा था, लेकिन जो भी हो, अनुभव के आधार पर इतना तो कह ही सकता हूं कि जो हमें बताया गया था बिल्कुल ठीक था। 

यह तो हो गई पैट्रोल की बात, अब आते हैं दवाईयों पर। नकली, घटिया किस्म की दवाईयों का बाज़ार बिल्कुल गर्म है। समस्या यही है कि हरेक बंदा समझता है कि नकली दवाईयां तो बाहर कहीं किसी और गांव कसबे में बिकती होंगी, हमें तो ठीक ही मिल जाती हैं, अपना कैमिस्ट तो ठीक है, पुराना है, इसलिए हम बिल मांगने से भी बहुत बार झिझक जाते हैं, है कि नहीं ?

 आज की टाइम्स ऑफ इंडिया में यह खबर दिखी ..  India-made drugs trigger safety concerns in US.
 हमेशा की तरह दुःख हुआ यह सब देख कर...विशेषकर जो उस न्यूज़-स्टोरी के टैक्स्ट बॉक में लिखा पाया वह नोट करें......

कश्मीर के एक बच्चों के अस्पताल में पिछले कुछ वर्षों में सैंकड़ों बच्चों की मौत का कारण नकली दवाईयों को बताया जा रहा है। एक आम प्रचलित ऐंटीबॉयोटिक में दवा नाम की कोई चीज़ थी ही नहीं............

इस तरह के गोरख-धंधे जहां चल रहे हों...बच्चों की दवाईयां नकली, घटिया और यहां तक कि विभिन्न प्रकार की दवाईयों के घटिया-नकली होने के किस्से हम लोग अकसर पढ़ते, देखते, सुनते ही रहते हैं। 

लिखना तो शुरू कर दिया लेकिन समझ में आ नहीं रहा कि लिखूं तो क्या िलखूं, सारा जहान जानता है कि ये मौत के सौदागर किस तरह से बच्चों से, टीबी के मरीज़ों तक की सेहत से खिलवाड़ किए जा रहे हैं। ईश्वर इन को सद्बुद्धि दे ...नहीं मानें तो फिर कोई सबक ही सिखा दे। 

आप कैसे इन नकली, घटिया किस्म की दवाईयों से बच सकते हैं ?.........मुझे नहीं लगता कि आप का अपना कोई विशेष रोल है कि आप यह करें और आप नकली, घटिया किस्म की दवाई से बच गये। ऐसा मुझे कभी भी लगा नहीं ..इतनी इतनी नामचीन कंपनियाों की दवाईयां......इसी टाइम्स ऑफ इंडिया की खबर में यह भी लिखा हुआ है.....
"A Kampala cancer institute stopped buying drugs from India in 2011 after receiving countefeit medicines with forged Cipla labels"

बस आप एक ग्राहक के रूप में इतना ही कर सकते हैं कि जब भी कोई दवा खऱीदें उस का बिल अवश्य लें......इस में बिल्कुल झिझक न करें कि दवा दस बीस रूपये की तो है, बिल लेकर क्या करेंगे ?.....  नहीं, केवल यही एक उपाय है जिस से शायद आप इन नकली, घटिया किस्म की दवाईयों से बच पाएं, कम से कम इस पर तो अमल करें।  शेष सब कुछ राम-भरोसे तो है ही। 

बड़े बडे़ अस्पताल कुछ दवाईयों की टैस्टिंग तो करवाते हैं लेिकन जब तक दवाई के घटिया (Substandard) रिपोर्ट आती है, तब तक यह काफ़ी हद तक मरीज़ों में बांटी जा चुकी होती है, कभी इस की किसी ने जांच की ?.... दवाईयों की जांच मरीज़ों को बांटने से पहले होनी चाहिए या फिर सांप के गुज़र जाने पर लकीर को पीटते रहना चाहिए। 

मैं कईं बार सोचता हूं ये जो लोग इस तरह की दवाईयों का कारोबार करते हैं, अस्पतालों में भी ये दवाईयां तो पहुंचती ही होंगी, जो जो लोग भी इन काले धंधों में लिप्त हैं, वे आखिर इस तरह के पैसे से क्या कर लेंगे....ज़्यादा से ज़्यादा, एक दो तीन चार महंगे फ्लैट, बढ़िया लंबी दो एक गाड़ियां, विदेशी टूर, महंगे दारू, या फिर रंगीन मिज़ाज अपने दूसरे शौक पूरे कर लेते होंगे.....लेकिन इन सभी लोगों का इंसाफ़ इधर ही होते देखा-सुना है। कुछ न कुछ ऐसा हो ही जाता है जो इन दलालों और इन चोरों के परिवारों को हिलाने के लिए काफ़ी होता है। क्या ईमानदारों की ज़िंदगी फूलों की सेज ही होती है, यह एक अलग मुद्दा है...यह चर्चा का विषय़ नहीं है। 

लेकिन फिर भी समझता कोई नहीं है, मैंने अकसर देखा-सुना है कि लोग इस तरह के सब धंधे-वंधे करने के बाद, बंगले -वंगले बांध के, दुनिया के सामने देवता का चोला धारण कर लेते हैं। 

अभी तक खबरें आती रहती हैं किस तरह से यूपी में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन में लिप्त लोगों ने लूट मचाई और इन का क्या हुआ यह भी बताने की ज़रूरत नहीं। 

दो चार िदन पहले मैं लखनऊ में हिन्दुस्तान अखबार देख रहा था.....शायद पहले ही पन्ने पर यह खबर थी कि एक मिलावटी कारोबारी को ऐसे मटर बेचने पर १० वर्ष की कैद हुई है जो सूखे मटरों को हरे पेन्ट से (जिस से दीवारों को पेन्ट करते हैं) रंग दिया करता था। अगर सूखे मिलावटी मटरों के लिए दस वर्ष तो मिलावटी, घटिया दवाईयों का गोरखधंधे वालों को और इन की मदद करने वालों के लिए फांसी या फिर उम्र कैद कोई ज़्यादा लगती है? नहीं ना....बिल्कुल नहीं. ....आप का क्या ख्याल है? आम आदमी वैसे ही महंगाई से बुरी तरह त्रस्त है, पता नहीं वह कैसे बीमारी का इलाज करवाने का जुगाड़ कर पाता है, ऊपर से नकली दवाई उसे थमा दी जाएगी तो उसे कौन बचाएगा?

इन बेईमानों, मिलावटखोर, बेईमान धंधों में लिप्त सभी लोगों को इन पर फिट होता एक गीत तो डैडीकेट करना बनता है........

गुरुवार, 16 जनवरी 2014

शूगर की जांच हो जायेगी बहुत सस्ती

शूगर रोग के बारे में मेरे कुछ विचार ये हैं कि इस शारीरिक अवस्था का जो बुरा प्रबंधन हो रहा है उस के लिए स्वयं मरीज और साथ में चिकित्सा व्यवस्था भी ज़िम्मेदार है। मरीज़ की गैर-ज़िम्मेदारी की बात करें तो बड़ी सीधी सी बातें हैं कि नियमित दवाई न ले पाना, विभिन्न भ्रांतियों के चलते दवाई बीच ही में छोड़ देना, किसी बाबा-वाबा के चक्कर में पड़ कर देशी किस्म की दवाईयां लेनी शुरू कर देना, परहेज़ न करना, शारीरिक परिश्रम न कर पाना और ब्लड-शूगर की नियमित जांच न करा पाना।

शूगर की अवस्था में -जो दवाईयों से नियंत्रण में हो और चाहे जीवन-शैली में बदलाव से ही काबू में हो -- नियमित शूगर जांच करवानी या करनी बहुत आवश्यक होती है ..और यह कितनी नियमितता से होनी चाहिए, इस के बारे में आप के चिकित्सक आप को सलाह देते हैं।

चलिए इस समय हम लोग एक ही बात पर केंद्रित रहेंगे कि लोग शूगर की जांच नियमित नहीं करवा पाते। सरकारी चिकित्सा संस्थानों की बात करें तो पहले दिन तो मरीज़ शायद ब्लड-शूगर की जांच का पर्चा किसी डाक्टर से बनवा पाता है, फिर वह दूसरे दिन अपने साथ नाश्ता बांध कर लाता है ...सुबह से भूखा रह कर वह अस्पताल पहुंचता है... और उस दिन ११-१२ बजे वह फ़ारिग होता है ..खाली पेट वाली (फास्टिंग) और खाने के बाद वाली (पी पी .. पोस्ट परैंडियल ब्लड-शूगर) ..फिर तीसरे दिन वह पहुंचता से अपनी रिपोर्ट लेने को। अच्छा खासा भारी भरकम सा काम लगता है ना......और ऊपर से अगर किसी की शारीरिक अवस्था ठीक नहीं है तो यह बोझ और भी बोझिल करने वाला लगता है......घर से अस्पताल आना बार बार भी आज के दौर में कहां इतना आसान रह पाया है।

मैं इस के कारणों का उल्लेख यहां करना नहीं चाहूंगा लेकिन यह भी एक कड़वा सच है कि कुछ मरीज़ों को सरकारी अस्पतालों की रिपोर्टों पर भरोसा नहीं होता.......मरीज़ ही क्यों, बहुत बार निजी क्लीनिक या अस्पताल चलाने वाले डाक्टर भी इन्हें नहीं मानते और बाहर से ये सब जांच करवाने को कह देते हैं......अकसर मरीज़ों को भी कहते देखा है कि सरकारी अस्पताल में करवाई तो शूगर इतनी आई और बाहर से इतनी ... लोगों से बातचीत के दौरान बहुत बार सुनने को मिलता है। जब वह दोनों रिपोर्टें आप के सामने रख दे तो आप क्या जवाब दें, यह एक धर्म-संकट होता है, लेकिन जो है सो है!

कुछ उच्च-मध्यम वर्गीय लोगों ने --जो एफोर्ड कर सकते हैं--घर में ही शूगर की जांच करने का जुगाड़ कर रखा है। ठीक है। एक बार मैंने मद्रास की मैरीना बीच पर देखा कि वहां सुबह सुबह लोग भ्रमण कर रहे थे और वहीं किनारे पर बैठा एक शख्स ब्लड-शूगर की जांच की सुविधा प्रदान कर रहा था। पचास रूपये में यह सुविधा दी जा रही था। इस के बारे में मेरी पोस्ट आप इस लिंक पर क्लिक कर के देख सकते हैं।

अभी दो चार दिन पहले ही की बात है कि मैंने यहां लखनऊ के एक कैमिस्ट के यहां बोर्ड लगा हुआ देखा कि यहां शूगर की जांच ३० रूपये में होती है।

घर में जो लोग इस शूगर जांच की व्यवस्था कर लेते हैं या मैरीना बीच पर बैठा जो शख्स यह सुविधा दे रहा था या फिर अब कुछ कैमिस्ट लोगों ने भी यह सब करना शुरू कर दिया है, इसे ग्लूकोमीटर की मदद से स्ट्रिप के द्वारा किया जाता है।

अब आता हूं अपनी बात पर......खुशखबरी यह है कि आज कल ये ग्लूकोमीटर विदेशों से आते हैं और इन की कीमत १०००-२५०० रूपये के बीच होती है लेकिन अब शीघ्र ही भारत ही में तैयार हुए ये ग्लूकोमीटर ५०० से ८०० रूपये में मिलने लगेंगे।

और जो स्ट्रिप इन के साथ इस्तेमाल होती है उस के दाम वर्तमान में १८ से ३५ रूपये प्रति स्ट्रिप हैं, लेकिन अब शीघ्र ही ये स्ट्रिप भी दो और चार रूपये के बीच मिलने लगेगी।

यह एक खुशखबरी है कि शूगर की जांच अब लोगों की जेब पर भारी न पड़ेगी। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने दो दिन पहले ही इस तरह की किट्स को लंॉच किया है। प्रशंसनीय बात यह है कि इन किट्स को इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ टैक्नोलॉजी मुंबई ने सूचक (Suchek) के नाम से और बिरला इंस्टीच्यूट ऑफ टैक्नोलॉजी, हैदराबाद ने क्विकचैक (QuickcheQ) के नाम से डिवेल्प किया है।

जेब पर भारी न पड़ने वाली इन किटों के बारे में आप यह समाचार इस लिंक पर क्लिक कर के देख सकते हैं..... Purse-friendly diabetic testing kits launched. 

उम्मीद है इन के बाज़ार में आने से यह जांच बहुत से लोगों की पहुंच में हो जायेगी और कम से कम कुछ लोगों की  यह बात कि महंगे टैस्ट की वजह से इस की नियमित जांच न करवा पाना रूल-आउट सा हो जायेगा लेकिन फिर भी नियमित दवाई, परहेज़ और शारीरिक व्यायाम का महत्व तो अपनी जगह पर कायम ही है........इस किट से बहुत से लोगों के हैल्थ-चैक अप करने में भी सुविधा हो जायेगी......होती है पहले भी यह जांच (कैंपों आदि में) इसी किट से ही हैं लेकिन अब यह काम बहुत सस्ता हो जायेगा, अच्छी बात है। 

बुधवार, 11 दिसंबर 2013

बदल गईं दवाईयां भी आज

कल मेरी एक महिला मरीज़ ने मुझ से पूछा कि क्या उसे अस्पताल से खुला माउथवॉश मिल जायेगा। मेरे जवाब देने से पहले ही उसे याद आ गया कि वह तो शीशी लाई ही नहीं।

अचानक मुझे भी ४० वर्ष पहले का ज़माना याद आ गया जब कुछ सरकारी अस्पतालों में जाते वक्त लोग कांच की एक दो बोतलें साथ लेकर जाते थे ..पता नहीं डाक्टर कोई पीने वाली दवाई लिख दे तो!

हमारे मोहल्ले में एक आंटी जी रहती थीं..जिन का प्रतिदिन यह नियम था कि सुबह नाश्ते के बाद उन्होंने हमारे पास ही के एक अस्पताल में जाना ही होता था, मुझे अच्छे से याद है कि उन के पास एक खाकी रंग का थैला (पुरानी पैंट से निकाला गया) हुआ करता था जिस में वह एक दो कांच की शीशीयां अवश्य लेकर चलती थीं।

वैसे तो हम लोग उस अस्पताल में कम ही जाते थे क्योंकि न तो वहां पर डाक्टर ढंग से बात ही करते थे ...मरीज़ की तरफ़ देखे बिना उस की तकलीफ़ पूरी सुने बिना...वे नुस्खा लिखना शुरू कर देते थे। हां, कभी कभी आते थे ऐसे भी डाक्टर जो ढंग से पेश आते थे लेकिन अच्छे लोगों की हर जगह ज़रूरत रहती है, जल्द ही उन की बदली हो जाया करती थी। और दूसरी बात यह भी उस अस्पताल में कि वहां पर गिनती की दो-तीन दवाईयां ही आती थीं...एपीसी, सल्फाडायाजीन, टैट्रासाईक्लिन, खाकी गोलियां-- खांसी की और दस्तों को दुरूस्त करने वालीं, खांसी का मीठा शर्बत, बुखार की पीने वाली दवाई...बस, .......नहीं नहीं मच्छी के तेल वाली छोटी छोटी गोलियां ...ये हर एक के नसीब में न हुआ करती थीं। लेकिन हम लोग पट्टी करवाने और टीका लगवाने वही जाते थे।

हम लोग जब भी कभी उस अस्पताल में जाते थे तो वह आंटी हमें ज़रूरत मिलती ... जब वह दवाई ले भी चुकी होतीं तो भी वहां पर किसी न किसी लकड़ी के बैंच पर किसी औरत से बतियाती ही मिलती। अब मुझे उस आंटी का नाम तो याद न था, लेकिन एक बात अच्छे से याद थी उस के बारे में कि सारे मोहल्ले में वह लाल-ब्लाउज वाली महिला के नाम से जानी जाती थीं, क्योंकि वह हमेशा लाल-सुर्ख ब्लाउज़ ही पहने दिखती थीं, ऐसा क्यों करती थी, यह मेरा विषय नहीं है। कल रात ही में मुझे वर्षों बाद जब उस आंटी का ध्यान आया तो मैंने अपनी मां से इतना ही कहा, बीजी, आप को याद है वह लाल-ब्लाउज वाली आंटी.......मेरी मां हंसने लगीं और कह उठीं...हां हां, जो रोज़ अस्पताल ज़रूर जाया करती थीं...वह बड़ी हंसमुख स्वभाव की थीं।

न तो डाक्टर ढंग से बात ही करते, न ही ढंग की दवाईयां, और ऊपर से दवाईयां बिना पैकिंग वाली। किसी कागज़ में लपेटी हुई दवाई दी जातीं। जल्द ही कागज़ से इस कद्र चिपक जातीं कि उन्हें बाहर नाली में ही फैंक दिया जाता। मछली के तेल वाली गोलियों के साथ भी कुछ कुछ ऐसा ही होता था। लेकिन वह खांसी की और बुखार की पीने वाली रंग-बिरंगी दवाई खूब पापुलर थीं, महीने में कुछ दिन ही वे मिलती थीं लेकिन जबरदस्त क्रेज़ था। खांसी और बुखार तो तब तक ठीक ही न होते थे जब तक इन दवाईयों को पी नहीं लिया जाता था। वैसे इन दवाईयों को अधिकतर लोग दारू की खाली कांच की बोतले में ही लेकर आते थे...सभी के कपड़ों के थैलों में एक खाली दारू का पौवा या अधिया होना ज़रूरी होता था, वैसे लोग अधिया उस फार्मासिस्ट के आगे सरकाते कुछ झिझक सी महसूस किया करते थे। लेकिन जो व्यवस्था थी सो थी, वह मैंने ज्यों की त्यों आपके सामने रख दी है।

खाने या पीने वाली दवाई लेने के बाद अगर उस कंपांउडर से पूछ लिया कि यह खानी कैसे है तो वे इस तरह से भड़क जाते थे जैसे किसी ने उन्हें गालियां दे डाली हों.. लोग भी सहमे सहमे से उन को भड़काते न थे, जैसे समझ में आया खा लेते थे वरना खुली नालियां तो हर घर के सामने हुआ ही करती थीं।

एक बात जिसे मैं हमेशा याद करता हूं ..उस अस्पताल की एक लेडी हैल्थ-विज़ीटर ...मुझे याद है वह किस तरह से हम सब के घर जा जा कर मलेरिये की गोलियां दे कर जाती थीं। मेरी मां को एक बार मलेरिया हो गया, सत्तर के दशक की बात है, और घर ही आकर पहले तो वह एक स्लाईड तैयार करतीं और फिर अगले तीन-चार दिन तक रोज़ाना आकर अपने सामने मलेरिया की दवाई खिला कर जाया करतीं.......वह यह सब काम अपने लेडी-साईकिल पर किया करती थीं। उस महिला की डेडीकेशन भी कहीं न कहीं मेरे लिए इंस्पिरेशन रही होगी। हम लोग अकसर उसे याद करते हैं....

हर एक के साथ अच्छे से बात करना, उसे हौंसला देना और मरीज़ को चाहिए क्या होता है, दवाई तो जब अपना काम करेगी तब करेगी। मैं जिस अस्पताल की बात कर रहा हूं वहां पर एक एमबीबीएस लेडी डाक्टर भी हुआ करती थीं, मुझे एक बार बुखार हो गया, १०-१२ साल की अवस्था होगी, मुझे याद है वह मुझे घर देखने आई........आते ही ...उसने यह कहा.....ओ हो, इतना ज़्यादा बुखार........अब डाक्टर के मुंह से ऐसे शब्द मेरे बाल मन इन का मतलब न समझ पाए हों, लेकिन मैं अपने पिता जी के मुंह पर हवाईयां उड़ती ज़रूर देखी थीं कि कहीं यह मरने वाला तो नहीं.....वे मुझे तुरंत एक प्राईव्हेट डाक्टर कपूर के पास ले गये ....उन का मरीज़ों को ठीक करने का अपना अनूठा ढंग था.... सब से ज़्यादा अच्छे से बात सुनने, समझाने और हौंसला देने का अनूठा ढंग.......मैं अगले ही दिन ठीक हो गया।

कांच की दवाई वाली शीशीयों से ध्यान आया कि अमृतसर के पुतलीघर चौक में एक बहुत जैंटलमेन डाक्टर कपूर हुआ करते थे जो दिखने में भी अपने ढील-ढौल से, अपनी बातचीत से भी डाक्टर दिखते थे। वे बहुत काबिल डाक्टर थे, हरफनमौला थे, हर बीमारी का इलाज करते थे.....फैमली डाक्टर की एक परफैक्ट उदाहरण। मुझे याद है ..एक बार मेरी आंख में कुछ चला गया, लाली आ गई, पानी से धोने के बाद भी वह नहीं निकला, शायद कुछ लोहे का कण सा था..रिक्शा लेकर मेरी मां मुझे वहां तुरंत ले गईं.....उन्होंने तुरंत ऊपर की पुतली को पकड़ा और शायद कुछ चुंबक-वुंबक हाथ में लिया ...मुझे नहीं पता क्या था, लेकिन अगल ही क्षण मैं ठीक हो गया।

डाक्टर कपूर पुरानी डिग्री वाले डाक्टर थे, होता था ना कुछ लाइसैंशियट-वियट वाली डिग्री.......हां, जो सब से अहम् बात मैंने उन के क्लिनिक के बारे में बतानी है वह यह कि वे नुस्खा लिखते जिसे हम एक खिड़की पर जाकर उन के कंपांउडर के हाथ थमाते......वह चंद मिनटों में हमें खाने की गोलियां और पीने वाली दवाई की एक -दो शीशीयां थमा देता। कांच की शीशियां जिन पर कागज़ का एक स्टिकर भी लगा रहता कि एक बार में दवाई की कितनी खुराक पीनी है। यह जो मैंने कांच की शीशी की तस्वीर ऊपर लगाई है ...ये डाक्टर कपूर के द्वारा हमें दी जाने वाली शीशीयां भी कुछ इसी तरह की ही हुआ करती थीं जैसी कि आप पहली तस्वीर में देख रहे हैं....बहुत बार तो इन के ऊपर निशान पहले ही से लगा रहता था जैसा कि आप उस तस्वीर में भी देख सकते हैं....कभी कभी उस पर उन का कंपांउडर कागज़ का एक स्टिकर सा लगा देता था जिस तरह का मैंने इस दूसरी तस्वीर में दिखाया है।

दवाईयों का रूप फिर धीरे धीरे बिल्कुल बदलना शुरू हो गया.....कांच की बोतलों की जगह सस्ते से पलास्टिक ने ले ली, खुली दवाईयां भी उन दिनों ऐसा लगता है कि शुद्ध हुआ करती होंगी ..क्योंकि आज कल की फैशनेबुल पैकिंग वाली कुछ दवाईयों को किस तरह से लालच की फंगस लग चुकी है, यह हम नित्य प्रतिदिन मीडिया में देखते हैं। और तो और, कुछ तो दवाईयां ऐसीं कि ऊपर लिखा है ६०रूपये और चलता-पुर्ज़ा मरीज़ उसे १० रूपये में ले उड़ता है, ये काल्पनिक बातें नहीं है, सब कुछ हो रहा है.....। लेकिन अनपढ़, गरीब आदमी को उसे ६० में ही बेचा जाएगा। चलिए, इसे यही छोड़ते हैं, इस पर किसी दूसरे दिन मगजमारी कर लेंगे।

लिखते लिखते और भी इतनी बातें याद आ रही हैं कि इतना सब कुछ तो एक नावल में ही समा पाएगा। इसलिए इस पोस्ट को यहीं विराम देता हूं। इस विषय पर बाकी बातें फिर कभी कर लेंगे।

शनिवार, 30 जुलाई 2011

सेहत खराब करने वाली दवाईयां आखिर बिकती ही क्यों हैं?

परसों मेरा एक मित्र मुझ से पूछने लगा कि वज़न बढ़ाने के लिये ये जो फूड-सप्लीमैंट्स आते हैं इन्हें खा लेने में आखिर दिक्तत है क्या। मैंने कहा कि लगभग इन सब में कुछ ऐसे प्रतिबंधित दवाईयां –स्टीरॉयड आदि – होते हैं जो कि सेहत के लिये बहुत नुकसानदायक हैं। अच्छा, आगे उस ने कहा कि यह जो जिम-विम वाले हैं वे तो कहते हैं कि जो डिब्बे वो बेच रहे हैं, वे बिल्कुल ठीक हैं। बात वही है कि अगर उन्होंने इन डिब्बों को आठ-नौ सौ रूपये में बेचना है तो इतना सा आश्वासन देने में उन का क्या जाता है, कौन सा ग्राहक इन की टैस्टिंग करवाने लगा है, और सच बात तो यह है कि किसी को पता भी तो नहीं कि यह टैस्टिंग हो कहां पर सकती है।

पिछले सप्ताह अस्पताल में एक युवक मेरे से कोई दवाई लेने आया ...अच्छा, अब पता झट चल जाता है कि सेहत का राज़ क्या है, शारीरिक व्यायाम, पौष्टिक आहार या फिर वही डिब्बे वाला सप्लीमेंट से डोले-शोले बना रखे हैं ....मुझे लगा कि यह डिब्बों वाला केस है ...मेरे पूछने पर उस ने बताया कि सर, दो महीने डिब्बे खाये हैं, पहले महीने तो मुझे अपने आप में लगा कि मुझ में नई स्फूर्ति का संचार हो रहा है तो दूसरे महीने मुझे देख कर लोगों ने कहना शुरू कर दिया। आगे पूछने लगा कि सर, क्या आप अपने बेटे को ये सप्लीमैंट्स खिलाने के लिये पूछ रहे हैं.....उस के बाद मुझे इन सप्लीमैंट्स की सारी पोल खोलनी पड़ी।

हां, तो मैं उस मित्र की बात कर रहा था जो कह रहा था कि जिम संचालक तो कहते हैं कुछ नहीं इन में सिवाए बॉडी को फिट रखने वाले तत्वों के ......लेकिन जो बात उस ने आगे की, मुझे वह सुन कर बहुत शर्म आई क्योंकि मेरे पास उस की बात का कोई जवाब नहीं था।

हां, जानिए उस मित्र ने क्या पूछा....उस ने कहा ..डाक्टर साहब, मैं आप के पास आया हूं, आप ने बता दिया और मैंने मान लिया ...लेकिन उन हज़ारों युवकों का क्या होगा जो ये सप्लीमैंट्स खाए जा रहे हैं.... उस ने यह भी कहा कि इन डिब्बों पर तो स्टीरायड नामक प्रतिबंधित दवाईयों के उस पावडर में डाले जाने की बात कही नहीं होती।

अब इस का मैं क्या जवाब देता ? – बस, यूं ही यह कह कर कि कोई कुछ भी कहें, इन में कुछ प्रतिबंधित दवाईयां तो होती ही हैं जो शरीर के लिये नुकसानदायक होती हैं। लेकिन उस का प्रश्न अपनी जगह टिका था कि अगर ये नुकसानदायक हैं तो फिर ये सरे-आम बिकती क्यों हैं, अब इस का जवाब मैं जानते हुए भी उसे क्या देता!! बस, किसी तरह यह बात कह कर इस विषय को चटाई के नीच सरका दिया कि लोगों की अवेयरनेस से ही सारी उम्मीद है। लेकिन उस बंदे के सारे प्रश्न बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करने वाले हैं।

परसों उस मित्र से होने वाली इस बातचीत का यकायक ध्यान इसलिए आ गया क्योंकि कल मैंने अमेरिकी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन की साइट पर एक पब्लिक के लिये नोटिस देखा जिस में उन्होंने जनता को आगाह किया था एक गर्भनिरोधक दवाई न लें क्योंकि वह नकली हो सकती है, इस से नुकसान हो सकता है.....यह उस तरह की दवाई थी जो एमरजैंसी गर्भनिरोधक के तौर पर महिलाओं द्वारा खाई जाती है.....असुरक्षित संभोग के बाद (unprotected sex) ….. वैसे तो अब इस तरह की दवाईयों के विज्ञापन भारतीय मीडिया में भी खूब दिखने लगे हैं....इन की गुणवत्ता पर मैं की प्रश्नचिंह नहीं लगा रहा हूं लेकिन फिर भी कुछ मुद्दे अब महिला रोग विशेषज्ञ संगठनों ने इन के इस्तेमाल से संबंधित उठाने शुरू कर दिये हैं।

सौजन्य .. फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन
पहला तो यह कि कुछ महिलाओं ने इसे रूटीन के तौर पर इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है ... दंपति यह समझने लगे हैं कि यह भी गर्भनिरोध का एक दूसरा उपाय है....लेकिन नहीं, यह एमरजैंसी शब्द जो इन के साथ लगा है यह बहुत ज़रूरी शब्द है. वरना रूटीन इस्तेमाल के लिये अगर इसे गर्भनिरोधक गोलियों (माला आदि) की जगह इसे इस्तेमाल किया जाने लगेगा तो अनर्थ हो जाएगा, महिलाओं की सेहत के ऊपर बुरा असर – after all, these are hormonal preparations-- और दूसरी बात यह कि लोगों को यह गलतफहमी है कि इस तरह का एमरजैंसी गर्भनिरोधक लेने से यौन-संचारित रोगों की चिंता से भी मुक्ति मिलती है, लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है।

हम भी कहां के कहां निकल गये ....वापिस लौटते हैं उस अमेरिकी एफडीआई की चेतावनी की तरह जिस में उन्होंने एक ऐसे ही प्रोडक्ट की फोटो अपनी वेबसाइट पर डाल दी है ताकि समझने वाले समझ सकें, लेकिन मेरी भी तमन्ना है कि जो किसी भी नागरिक के लिये खराब है ...पहली बात है वो कैमिस्टों की दुकानों पर बिके ही क्यों और दूसरी यह कि क्यों न अखबारों में, चैनलों पर इन के बारे में जनता को निरंतर सूचित किया जाए ..........आखिर चैनल हमें प्रवचनों की हैवी डोज़ या फिर सास-बहू के षड़यंत्र दिखाने-सिखाने के लिए ही तो नहीं बने....सामाजिक सरोकार तो भी कोई चीज़ है। कोई मेरी बात सुन रहा है या मैं यूं ही चीखे जा रहा हूं?

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शुक्रवार, 29 जुलाई 2011

डिप्रेशन से उभरने के लिए क्या करते हैं हिंदोस्तानी?

आज जो मैंने एक खबर देखी कि अमीर देशों में लोग डिप्रेशन के ज़्यादा शिकार होते हैं .. अमेरिका में ही कहा जा रहा है कि 30 प्रतिशत से भी ज़्यादा जनसंख्या अवसाद में डूबी हुई है लेकिन साथ ही भारत का भी नाम लिखा हुआ है कि यहां भी अवसाद के बहुत से केस हैं। मैडलाइन पर यह खबर दिखी .. Depression higher in wealthier nations.

भारत में अवसाद के अधिकतर रोगियों की समस्या यह है कि वे कभी किसी मनोरोग विशेषज्ञ के पास गये ही नहीं... अब इन के किसी विशेषज्ञ के पास न जाने के दो पहलू हैं...इसी हम सीधा यह नहीं कह सकते कि ये किसी विशेषज्ञ से परामर्श न लेकर ठीक नहीं कर रहे।

कभी कभी मीडिया में बताया जाता है कि अवसाद जैसे रोगियों की संख्या भारत में बहुत ज़्यादा हैं लेकिन अकसर लोग सोचते हैं कि इस के बारे में किसी विशेषज्ञ के पास जाने से उन की लेबलिंग कहीं यह न हो जाए कि इस का दिमाग खिसका हुआ है, चाहे है यह भ्रांति लेकिन है तो !

मैडीकल नज़रिये से नहीं कह रहा हूं और न ही कह सकता हूं ...लेकिन व्यक्तिगत विचार लिख रहा हूं कि बहुत कम लोग हैं जो डिप्रेशन के लिये अंग्रेज़ी दवाईयां लेकर ठीक होते मैंने देखा है। हां, अगर अवसाद इस तरह का है कि दैनिक दिनचर्या में ही रूकावट पैदा होने लगी है... तो समझा जा सकता है कि एमरजैंसी उपाय के रूप में थोड़ी अवधि के लिये अंग्रेज़ी दवाईयां लेना उचित सा लगता है। एक बार फिर से लिख रहा हूं कि यह मेरी अनुभूति हो सकती है ...क्योंकि मैंने अकसर देखा है कि इस तरह की दवाईयां लेने वाले सुस्त से रहते हैं ....वो चुस्ती वाली कोई बात देखी नहीं। और भी एक बात है कि लोगों के मन में यह भी डर रहता है कि कहीं इन दवाईयों की लत ही न लग जाए ....अब काफ़ी हद तक लोगों का यह सोचना ठीक भी है।

अच्छा, अवसाद के लिये श्रेष्ठ चिकित्सक है आप का फैमिली डाक्टर जो आप के सारे परिवार को, स्रारी पारिवारिक परिस्थितियों को जानता है ... अकसर मनोरोग चिकित्सक के पास आम लोग जा ही नहीं पाते ... उन के पास भी काउंसिलिंग तकनीक द्वारा मरीज को अवसाद से बाहर निकालने की क्षमता होती है लेकिन मैंने यह देखा है लोग अकसर इस चक्कर में पड़ते नहीं... बस, यूं ही कुछ भी जुगाड़ कर के अपने आप इस अवसाद की खाई से बाहर निकलते रहते हैं, फिर फिसलने लगते हैं, फिर किसी सहारे की मदद मिल जाती है।

चाहे हम कुछ भी कहें अभी भी भारत में ऐसी परिस्थितियों के लिये सोशल-बैकअप भी काफ़ी हद तक कायम ही है ....थोड़ा बहुत अवसाद घेरने लगता है तो किसी के यहां मिलने चले जाते हैं, कोई इन्हें मिलने आ जाता है, हंसी ठठ्ठा हो जाता है, बस मजाक मजाक में इन्हें अच्छा लगने लगता है।

और एक खूबसूरत बात देश में यह है ...अधिकांश लोग अपनी आस्था के अनुसार किसी मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारे या किसी अन्य धर्म-स्थल में जा बैठते हैं ...कीर्तन –पूजा-पाठ , भजन, प्रवचन करते हैं, सुनते हैं और इन्हें अच्छा लगने लगता है। कहने का मतलब यही है कि यहां बैक-अप है, लोग अभी भी आपस में बात करते हैं, त्योहार एक साथ मनाते हैं, हर्षोल्लास में भाग लेते हैं ..............यही ज़िंदगी है ... बाकी तो जितना किसी मैडीकल विषय की पेचीदगीयों में पड़ेंगे, कुछ खास हासिल होने वाला नहीं है।

और ये जो बातें मैंने लिखी हैं अवसाद से निकलने के लिये ये कोई अंधश्रद्धा को बढ़ावा देने वाली नहीं हैं....मैं ऐसे अध्ययन देख चुका हूं जिनमें विकसित देशों के वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध कर दिया है कि जो लोग आध्यात्मिक बैठकों आदि से जुडे रहते हैं वे अकसर ऐसी तकलीफ़ों से दूर रहते हैं......अच्छा, आप एक बात बताईए, आप जिस भी सत्संग में जाते हैं वहां आप को कभी कोई उदास सा, बिल्कुल हारा हुआ, बिल्कुल चुपचाप, गुमसुम बंदा दिखा है....................कोई जल्दी नहीं, आराम से सोच विचार करना कि आंकड़ें चाहे जो भी कहें कि इतने ज़्यादा भारतीय अवसाद के शिकार हैं, लेकिन फिर भी ये सीमित संसाधनों के बावजूद भी, बहुत सी दैनिक समस्याओं को झेलते हुए ..बस किसी तरह खुश से दिखते हैं।

इसीलिए मुझे कोई उदास सा प्राणी दिखता है तो मैं उसे किसी मनोरोग विशेषज्ञ का रूख करने की बजाए किसी सत्संग में जाने की सलाह दिया करता हूं ... मनोरोग विशेषज्ञ चाहे कहें कि मैं ठीक नहीं करता ....लेकिन मैं तो ऐसा ही ठीक समझता हूं और ऐसा ही करता हूं।

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शनिवार, 23 जुलाई 2011

बिना डाक्टर की पर्ची के दवाईयां न बेचने पर इतना बवाल!

कुछ दिन पहले मैं एक खबर की चर्चा कर रहा था जिस से पता चला था कि इंदौर में डाक्टर दो पर्चीयां बनाया करेंगे –एक मरीज़ के पास रहेगी और दूसरी कैमिस्ट अपने पास रख लिया करेगा। लेकिन आज सुबह पता चला कि दिल्ली में भी कुछ ऐसा ही होने जा रहा है जिस की वजह से वहां कैमिस्टों ने खासा बवाल मचा रखा है।

कैमिस्टों का कहना है कि दिल्ली में यह जो ओटीसी दवाईयों के ऊपर प्रतिबंध लगाने का प्रस्ताव है, यह उन के लिए बहुत कठिन काम है। ऐंटीबॉयोटिक दवाईयों के बारे में उन का कहना है कि उन की जितनी कुल दवाईयां बिकती हैं उन का 60 प्रतिशत तो ऐंटीबॉयोटिक दवाईयां ही तो होती हैं...ऐसे में कैमिस्ट का एक वर्ष तक उन सभी डाक्टरी नुस्खों को संभाल के रखना संभव नहीं है।

न्यूज़ में यह भी लिखा है कि कुछ 16 ऐसी दवाईयां जिन्हें बेहद आपातकालीन परिस्थितियों (life-threatening conditions) में ही इस्तेमाल किया जाता है जैसे कि कैंसर एवं दिल के रोग से संबंधित किसी एमरजैंसी के लिये – इन को भी केवल अस्पताल में स्थित दवाई की दुकानों में ही बेचे जाने का प्रस्ताव है। पढ़ तो मैंने यह लिया लेकिन मुझे यह समझ में नहीं आया कि अगर ऐसा कुछ सरकार कर रही है तो इस में आखिर बुराई क्या है!

हां, कैमिस्ट एसोशिएशन का यह भी मानना है कि इस तरह की व्यवस्था हो जाएगी तो ऐंटीबॉयोटिक दवाईयों की कालाबाज़ारी शुरू हो जाएगी।

चलिए खबर में लिखी बातों की बात तो हो गई...अब ज़रा मैं भी आपसे दो बातें कर लूं।

ऐसा है कि जितना स्वास्थ्य दुनिया में लोगों को इन ऐंटीबॉयोटिक दवाईयों ने खराब किया है, शायद ही किसी अन्य दवाई ने किया है। बस नाम पता होना चाहिए...जिस की जो मर्जी होती है कोई भी सख्त से सख्त ऐंटीबॉयोटिक कैमिस्ट से खरीद कर लेना शुरू कर देता है ....बीमारी का पता नहीं, आम मौसमी खांसी जुकाम के लिये भी ऐंटीबॉयोटिक दवाईयां लेना आम सी बात है। ऐसी दवाईयों का पूरा डाक्टर की सलाह से न करना भी आज विश्व के लिये एक बहुत बड़ी चुनौती है। घटिया, नकली दवाईयां, तरह तरह की हर जगह होने वाली सैटिंग ... खुले ऐंटीबॉयोटिक के नाम पर अजीबो गरीब साल्ट बेचे जाना एक आम सी बात हो गई है... ऊपर से यह जैनरिक और एथिकल दवाईयों का पंगा ... जैनरिक दवाईयां ---जिन के उदाहरणतयः प्रिंट तो रहेगा 60 रूपये की दस कैप्सूल की स्ट्रिप –लेकिन आप के कैमिस्ट से संबंधों के अनुसार वह 30 की मिले, 18 की मिले या आठ रूपये की ही मिल जाए.....................यह एक ऐसा एरिया है जिसे मैंने पिछले 10 वर्षों से जानना चाहिए लेकिन हार कर जब कुछ भी कोई ढंग से बता ही नहीं पाता (या बताना चाहता ही नहीं?) तो मैंने भी घुटने टेक देने में ही समझदारी समझी।

आलम यह है कि मुझे 25 साल इस व्यव्साय में बिताने के बाद आज तक यह पता नहीं है कि जैनरिक दवाई को एथिकल दवाई से कैसे पहचान सकते हैं। एथिकल दवाईयों जैसे ही नाम में आती हैं जैनरिक दवाईयां --- अब पता नहीं इस राज़ को कौन खोलेगा!

अच्छा, यह जो इन कैमिस्ट ऐसोसिएशनों का कहना है कि इस से ऐंटीबॉय़ोटिक दवाईयों की कालाबाज़ारी शूरू हो जाएगी ... मुझे ऐसा बिलकुल नहीं लगता .. जिन्हें सही में इस तरह की दवाईयां चाहिए होंगी उन को तो कभी भी इन को प्राप्त करने में कोई कठिनाई आयेगी नहीं और जिन्हें केवल काल्पनिक, रोगों के लिये, अपनी मरजी से ही इस तरह की दवाईयां चाहिए उन के लिये ऐसी कालाबाज़ारी कल की बजाए आज शुरू हो जाए तो बेहतर होगा..... कम से कम इस तरह की दवाईयां कम ही तो खरीद पाएंगे ...इसलिये इन्हें खाया भी कम ही जाएगा जिस से वे सारी दुनिया का भला ही करेंगे।

यह जो मैं बार बार लिख रहा हूं कि बिना कारण इस तरह की ऐंटीबॉयोटिक दवाईयां न खा कर भला कैसे कोई सारे विश्व का भला कर सकता है? ¬¬¬ ---दरअसल समस्या यह है कि ऐसी महत्वपूर्ण दवाईयों के अंधाधुंध उपयोग से बहुत सी महत्वपूर्ण दवाईयां जीवाणु मारने की क्षमता खोने लगी हैं --- जीवाणुओं पर अब इन का असर ही नहीं होता --- (Drug Resistance) … जिस की वजह से बीमारी पैदा करने वाले जीवाणु ढीठ होते जा रहे हैं .. यह एक भयंकर समस्या है .... सोचिए जब पैनसिलिन नहीं था तो किस तरह से मौतें हुया करती थीं . किस तरह से टीबी की दवाईयां आने से पहले टीबी होने का मतलब मौत ही समझा जाता था।

जो भी सरकार इस तरह के नियम बना रही है बहुत अच्छी कर रही है.... इस तरह के फैसले बड़ी सोच विचार करने के बाद, विशेषज्ञों की सहमति से लिये जाते हैं... इसलिये इन पर कोई भी प्रश्नचिंह लगा ही नहीं सकता। सरकार का दायित्व है कि उस ने सारी जनता के हितों की रक्षा करनी है ---अब अगर कुछ लोग अनाप शनाप दवाईयां खाकर कुछ इस तरह के बैक्टीरिया उत्पन्न करने में मदद कर रहे हैं जिन के ऊपर दवाईयां असर ही नहीं करेंगी तो फिर कैसे चलेगा, सरकारों ने तो यह सब कुछ देखना है।

जितना लिख दिया था लिख दिया मैंने ---लेकिन इतना तो तय है कि जितने मरजी नियम आ जाएं ... यह जो लोग अपनी मरजी से दवाई खरीद कर खाने के आदि हो चुके हैं, ये बाज नहीं आने वाले, ये कैसे भी जुगाड़बाजी कर के मनचाही दवाईयां खरीद ही लेते हैं ....इस के अनेकों कारण हैं।

इससे दुःखद बात क्या हो सकती है कि अधिकांश अस्पतालों में कोई ऐंटीबॉयोटिक पालिसी ही नहीं है ....और अगर कहीं कहीं है भी तो डाक्टरों को ही उस का नहीं पता .....क्या कहा, पता होगा! --- मुझे तो कभी नहीं लगा ...जिस तरह से सादे खांसी जुकाम के लिये धड़ाधड़ महंगे से महंगे, सख्त से सख्त ऐंटीबॉयोटिक दवाईयां लिखी जा रही हैं, उस के बाद भी कैसे मान लूं कि कहीं पर भी कोई ऐंटीबॉयोटिक पालिसी है।

Source : Chemists plan to protest OTC ban

शनिवार, 16 जुलाई 2011

पेट का साइज़ कम कर के हो रहा है मोटापे का उपचार



पेट का साइज कम करवा कर मोटापा कम करने का क्रेज़ ज़ोर पकड़ रहा है –अभी कुछ दस दिन पहले ही टाइम्स ऑफ इंडिया में एक रिपोर्ट थी, आपने भी देखी होगी – Scalpel helps teen fight flab. इस में बताया गया था कि किस तरह से सर्जरी के द्वारा पेट का साइज़ कम करवा कर, लगभग दो-अढ़ाई लाख रूपये खर्च कर के लोग अपने बच्चों को मोटापे से निजात दिलाने का जुगाड़ कर रहे हैं।

सब से पहले तो थोड़ा यह देख लें कि यहां यह जिस पेट को कम करने की बात हो रही है यह है क्या...यह वह पेट नहीं है जिस पर हाथ फेर कर लोग कहते हैं ...पापी पेट! नहीं, यह पेट जिस का साइज सर्जरी से कम करने की बात की जा रही है यह शरीर में एक थैली की तरह का अंग है जिस में हमारा खाना जाता है ... फंडा यही है कि जब सर्जरी के द्वारा इस का साइज़ ही कम दिया जाए ताकि न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी ... जब इस में खाने की कैपेसिटि ही कम होगी तो इंसान कम ही तो खायेगा, कहीं बांध के थोड़ा रख लेगा।

हां, तो जिस सर्जरी की बात हो रही है पेट के साइज को कम करने की इसे बेरिएटरिक सर्जरी (bariatric surgery) कहते हैं और भारत के मुंबई जैसे महानगरों में ऐसे केसों की संख्या बढ़ने लगी है – 2008 में 1200, 2009 में 2200 और अब 2010 के आंकड़ें 3000 केस बताते हैं ... ये आंकड़े मेरे नहीं है, टाइम्स की स्टोरी में दिये गये हैं जिस का लिंक ऊपर दिया गया है।

एक बात समझ में नहीं आई –इस रिपोर्ट में लिखा है लैंसट नामक मैडीकल जर्नल में छपा है कि लगभग 5 में से एक भारतीय पुरूष और 6 में से एक से ज़्यादा भारतीय महिलायें ओव्हरवेट (मोटे) हैं... और साथ ही लिखा है कि कुछ शहरी इलाकों में तो 40 प्रतिशत जनसंख्या इस मोटापा रोग से पीड़ित हैं।

लेकिन चंद मिनटों बाद जब मेरी नज़र रिटर्ज़ की साइट पर पड़ी तो मुझे बड़ी हैरानगी हुई ...नीचे लिखा तो है विश्व स्वास्थ्य संगठन के सौजन्य से ये आंकड़े हैं लेकिन उस में मुझे भारत का नाम सब से नीचे देख कर पहले तो चिंता सी हुई लेकिन जब ठीक से पढ़ा तो समझ आई कि इस के अनुसार तो भारत में मोटापे की दर सब से कम है....इस इमेज में आप इसे देख सकते हैं। इस में आप यह भी देख सकते हैं कि किस तरह से अनुमान लगाया गया है कि अगले तीन वर्ष में मोटापा कम करने वाली दवाईयों का बाज़ार कितने अरबों-खरबों का हो जाएगा।



चलो, यार, इन आंकड़ों के चक्कर में ज़्यादा क्या पड़ना.....यह तो हमें दिख ही रहा है ना कि देश तो मोटा हो ही रहा है.... कोई शक ही नहीं है इस में ...बच्चों को भी यह रोग छोटी अवस्था से ही अपनी चपेट में लेना शुरू कर रहा है—thanks to the junk and fast foods , lack of physical activity, over-indulgence in TV and net leading to “couch potatoes”.

मैंने जब ऊपर वाली पेट को कम करने वाली खबर पढ़ी थी तो यही सोच रहा था कि अन्य कईं तरह के क्रेज़ अलग अलग समय पर उत्पन्न हो जाते हैं --- कहीं यह भी एक नया क्रेज़ न उभर आए --- अब अगर मां-बाप ही युवाओं की इस तरह की सर्जरी के लिये जिद्द करने लगेंगे तो आखिर चिकित्सक कहां तक उन्हें ऐसा करवाने से रोक पाएंगे?

ऐसी सर्जरी होती तो है लेकिन morbid obesity के लिये अर्थात् उस तरह के मोटापे के लिये जहां मोटापा इतना बढ़ चुका है कि बंदा अपनी चलने-फिरने के भी योग्य नहीं है, अपनी दैनिक-क्रियाएं करने में सक्षम नहीं रहा ....ऐसे केसों में उन के चिकित्सक ऐंडोक्राईनॉजिस्ट विशेषज्ञ के साथ सलाह-मशविरा कर के सर्जरी का निर्णय लेते हैं।

इस पोस्ट को विराम देते देते ध्यान आ रहा है कि अमेरिका में एक न्यूज़ रिपोर्ट ने बवाल मचा रखा है जिस में यह छपा था कि जो बच्चे बहुत ज़्यादा मोटे हैं, इस की वजह से जिन के बीमारी से ग्रस्त होने की आशंका बुहत ज़्यादा होगी उन्हें सरकार को उनके मांबाप से अलग कर के अपने पास रख कर उन का लालन-पालन करना होगा --- लेकिन ऐसा हो नहीं पायेगा ---लोगों ने खूब हो-हल्ला किया इस बात पर ..... लेकिन इस से एक आइडिया तो कम से कम हम हिंदोस्तानियों को मिल ही गया कि अब गब्बर के ज़माने को बीते बहुत साल हो गये – अब तो बच्चों को दाल-भाजी-रोटी खिलाने के लिये बस इतना ही काफ़ी है --- चुपचाप यह खाना खा ले, अगर चिप्स-बर्गर-नूडल खा खा के मोटा हो गया तो सरकार उठा कर ले जायेगी...।

पता नहीं इस लेख को समाप्त करते समय क्यों उन जबरदस्ती नसबंदी वाले दिनों की याद आ गई ...समझने वाले समझ गये जो न समझे वो अनाड़ी हैं ।

इस ब्लॉग के बहुत से अन्य लेखों में मोटापे कम करने वाली दवाईयों और अन्य तरह तरह के इलाजों के बारे में बहुत से लेख पहले भी लिखे जा चुके हैं... थोड़ी मेहनत करिये...लिंक जान बूझ कर नहीं दे रहा हूं क्योंकि थोड़ी मेहनत करेंगे तो सेहत के लिये भी अच्छा रहेगा।

नकली दवाईयों की फैक्टरी पकड़ी गई


आज की दा हिंदु में खबर छपी है कि फरीदाबाद में एक नकली दवाईयों की फैक्टरी पकड़ी गई है ... और लाखों रूपये की नकली दवाईयां बरामद की गई हैं। आतंकवादी घटनाओं से जितना सारा देश हिल जाता है उतना इस तरह की खबरों को सुनने से क्यों नहीं हिलता .... मेरे विचार में दोनों ही बातें बेहद शर्मनाक है। आतंकी तो पीठ में छुरा घोंपने जैसी बात करते हैं, लेकिन ये जो अपने ही सफेदपोश जिन्हें समाज अपना ही कहता है, ऐसा धंधा करने वाले लोग आतंकियों की श्रेणी में कब आएंगे?

किसी भी सरकारी अस्पताल में हाल-बेहाल घंटों इंतज़ार करने वाले मरीज़ों के चेहरों को याद भी नहीं करते ऐसा धंधा करने वाले लोग – वे लोग घंटों डाक्टर की इंतज़ार में भूखे-प्यासे इंतज़ार करते रहते हैं कि डाक्टर उन के मरीज़ को देखेगा, बढ़िया सी दवाई लिखेगा ...कोई बात नहीं अच्छी कंपनी की दवाई खरीद लेंगे कैसे भी ..अपना मरीज़ ठीक होना चाहिए। लेकिन मैं जिस खबर की बात कर रहा हूं उस में मशहूर कंपनियों की दवाईयों के नकली बनाए जाने की बात कही गई है।

यही सोच रहा हूं कि आम आदमी आखिर मरे तो मरे कहां, अगर आतंकी हमलों से बच भी गया तो बेचारा इन नकली दवाईयों की वजह से कोई सफेदपोश, संभ्रांत आतंकी उसे मार गिरायेगा। सोच रहा हूं पहली बार तो इस तरह की दवाईयां पकडी नहीं गई ...हम लोग लगातार नियमित तौर पर ये सब भंडे फूटते देखते सुनते रहते हैं लेकिन आगे के आंकड़े पता करने की बात है ---उन का आगे जा कर बना क्या, कितनो को सज़ा हुई .....कितनो को कोई ऐसा सबक मिला कि उन्होंने ऐसे धंधों से तौबा कर ली।

बात यह नहीं है कि इतने लाखों की दवाईयां पकड़ी गईं----लेकिन सोचने वाली बात यह है कि ये नकली दवाओं का धंधा करने वाले मौत के सौदागर पता नहीं कितने वर्षों से इन धंधों में लिप्त रहते हुये कितने हज़ारों-लाखों लोगों की ज़िंदगी से खिलवाड़ करते रहे .... यह तो तय है कि इन की नकली दवाईयों से हज़ारों-लाखों ज़िदगीयां खत्म तो हुई ही होंगी ...लेकिन उस बात का हिसाब कौन रखेगा। यह भी तय है कि बिना किसी साक्ष्य के पिछली करतूतों को किस सफ़ाई से ढक दिया जाएगा।

नकली दवाई का धंधा ... माफ़ कीजिए, यह नाम सुनते ही इस तरह का धंधा करने वाले शैतानों की मानसिकता के बारे में सोच कर घिन्न आने लगती है। एक उदाहरण देखिये ---आज कल यह Drug Resistance अर्थात् जब किसी बीमारी के जीवाणुओं पर कोई दवा असर करना बंद कर देती है, उसे हम कह देते हैं कि ये ढीठ हो गये हैं.... इसे ही ड्रग-रिसिस्टैंस कहते हैं ... सब से बड़ा मुद्दा है आज चिकित्सकों के सामने टीबी की बीमारी के इलाज में टीबी की दवाईयों का काम न कर पाना। है ना, यह तो आप भी यहां वहां देखते सुनते ही हैं।

अब देखिए..गरीब मज़दूर, टीबी हुई ...पहले तो सरकार को कितना प्यार से समझाना बुझाना पड़ता है कि खा ले दवाईयां ठीक हो जाएगा, चलो जी उस ने कहीं से मुफ्त में लेकर या कहीं से कैसे भी जुगाड़ कर के मार्कीट से दवाईयां ले भी लीं .. लेकिन अगर दवाईयां किसी शैतान की फैक्टरी से निकली नकली या घटिया किस्म की दवाईयां हैं, तो उस की स्थिति में सुधार नहीं होगा, तो चिकित्सकों के पास और कोई चारा नहीं होगा, और स्ट्रांग दवाईयां दी जाने लगेंगी, लेकिन अगर वे भी नकली-घटिया हैं तो उस गरीब को कोई मौत के मुंह से बचा के तो दिखाए।

यह तो एक उदाहरण थी .. किसी भी बीमारी के लिये यह कल्पना कीजिए कि ऐसी वैसी दवाईयां क्या कोहराम मचाती होंगी....शूगर में, ब्लड-प्रैशर में, किसी इंफैक्शन में ... किसी भी स्थिति में यह दवाईयां मरीज़ों की हालत बद से बदतर ही करती हैं। मैं आप से पूछता हूं कि ऐसा धंधा करने वाले आतंकी क्यों नहीं है।

आज सुबह पेपर में देखा कि अमिताभ ने बंबई बम विस्फोटों के संदर्भ में लोगों से कहा है कि आप सब अब पुलिस की तरह ही अपना रवैया रखो --- अर्थात् फूंक फूंक कर कदम रखो .... सोच रहा हूं कहने सुनने के लिये बातें अच्छी लगती हैं, बुद्धिजीवि सोच है.....काश, इन नकली दवाईयों के लिये भी कुछ समाधान सामन आ जाए ... एक छोटा सा सुझाव यह है कि कोई भी दवाई खरीदते समय उस का बिल ज़रूर लिया करें... ऐसा करना अपने आप में ऐसे धंधों को न पनपने देने की एक रोकथाम ही है। चालू किस्म की दवाईयां, बस अड्डों में जो बसों में जो बिल्कुल सस्ती दवाईयां बेचते होंगे, वे क्या बेचते होंगे, इस में अब कोई शक नहीं होना...............और यह तो है कि यह नकली दवाईयों के धंधे का कोढ़ इतना फैल चुका है कि इस की कल्पना भी करना कठिन है।

कल्पना करिये तो बस इस बात की अगर दमे के अटैक के समय दी जाने वाली दवाई नकली निकले, हार्ट अटैक में दिया जाने वाला टीका मिलावटी हो, बच्चे के निमोनिये के टीके नकली हैं, आप्रेशन के वक्त बेहोश करने वाली दवाई नकली हो, गर्भवती औरत को रक्त बढ़ाने के लिये दी जाने वाली दवाईयां घटिया हों.................................सिर दुःखता है न सोच कर.... दुःखना ही चाहिये, यह पाठकों की मानसिक सेहत की निशानी है, अगर सिर दुःखेगा तो ही आप और हम सजग रहेंगे, जितना हो सकेगा पूरे प्रयास करेंगे कि ऐसी दवाईयों से बचा जा सकें (?????) ..हर दवाई का बिल लें, यहां वहां से खुली दवाईयां, टैबलेट न लें..... इस के अलावा एक आम करे भी तो क्या करे.............ध्यान आ रहा है कि बड़ी बड़ी मशहूर कंपनियों की दवाईयों को अगर इन नकली फैक्टरियों ने मिट्टी पलीत कर दी है तो ये जो झोलाछाप, गांवों-कसबों-शहरों में बैठे नीम हकीम ये जो खुली दवाईयां खिलाये जा रहे हैं, यह क्या खिला रहे होंगे, सोचने की बात है!!

कोई नहीं, इतनी टेंशन लेने की बात नहीं है, थोड़ी दार्शनिक सोच रखेंगे तो ही यहां जी पाएंगे---जो हो रहा है अच्छा हो रहा है, जो हुआ अच्छा ही हुआ और जो होगा वह भी अच्छा ही होगा...........तो फिर चिंता काहे की, यही बातें आप वाले सत्संग में भी बार बार दोहराई जाती हैं ना .......... शुभकामनाएं।

रविवार, 10 जुलाई 2011

डोपिंग के कुछ अनछुए पहलू

कुछ दिनों से खूब सुन रहे हैं किस तरह से कुछ खिलाड़ीयों का डोप टैस्ट पॉजीटिव आया है। अफरातफरी में राष्ट्रीय खेल संस्थान के बाहर कैमिस्टों पर छापे मारे गये, प्रतिबंधित दवाईयां पकड़ी गईं ...रिकार्डों में भी गड़बड़ थी, और प्रिंट मीडिया में इस बात का भी खुलासा किया गया कि वहां से बिना डाक्टरी नुस्खा के ही कोई भी दवाई खरीदी जा सकती है।
चलिये थोड़े दिनों की बात है..धूल नीचे बैठ जायेगी...और हमारी यादाश्त वैसी भी कोई विशेष तेज़ तो है नहीं ---अब इस देश का आमजन किस किस तरह के आंकड़े याद रखे ... थोड़ी ही दिनों में वह किसी और घोटाले के चटखारे लेने लगेगा, ऐसे में कहां यह डोपिंग वोपिंग वाली बात किसी को याद ही रहने वाली है।
लेकिन असल मुद्दा यह है कि क्या इस तरह की दवाईयां केवल पटियाला के इस संस्थान के बाहर कैमिस्टों की दुकानों से ही मिलती हैं.... इस बात पर लगता है कि कोई यकीन करेगा ? --- इस देश में कहीं से भी कुछ भी खरीद लो...बस तमाशा देखने के लिये पैसा फैंकने की ज़रूरत है।
दो एक दिन पहले मुझे सायना नेहवाल की एक बात जो मैंने पेपर में देखी, वह मुझे बिल्कुल ठीक लगी। वह कह रही थी कि कुछ खिलाड़ी इतने पढ़े लिखे हैं नहीं ...इस वजह से वे इस सारी बात को अच्छी तरह से समझ ही नहीं पाते। उन्हें इस बात का आभास तक भी शायद नहीं होता होगा कि वे जिन सप्लीमैंट्स को ले रहे हैं उन में किस तरह के प्रतिबंधित साल्ट मिले हुये हैं।
जो भी हो, खिलाडि़यों को इन सब बातों का पूर्ण ज्ञान तो दिया ही जाना चाहिये.... लेकिन डोपिंग के ये कुछ किस्से तो सारे देश के सामने आ जाते हैं लेकिन जो डोपिंग इस देश के हर शहर में, हर गांव में हो रही है उस का कोई क्या करे।
आज का युवा एवं युवतियां सुडौल शरीर के लिये जो तरह तरह के सप्लीमैंट्स कैमिस्टों से खरीद लाते हैं उन में ये सब लफड़े वाली दवाईयां मिली रहती हैं ---और यह धंधा करने वाले इतने बेखौफ़ हैं (यह हर कोई जानता है कि इस बेखौफ़ी के पीछे क्या राज़ है !!) कि अधिकतर सप्लीमैंट फूड्स पर इन साल्टों के बारे में कुछ भी लिखा ही नहीं होता। इसलिये युवा वर्ग अंधेरे में ही ये सब खाता रहता है।
इस सब प्रतिबंधित पदार्थों के बहुत नुकसान हैं ---- कुछ ही दिनों में मांसपेशियां सुडौल हो जाएं केवल यही न देखा जाए... ये दवाईयां ऐसी होती हैं जिन्हें किसी प्रशिक्षित चिकित्सक के नुस्खे के बिना खाना खतरा मोल लेने जैसा है।
ये जिम वाले भी जो पावडर- वाउडर एक्सरसाईज़ करने वालों को थमा देते हैं इन में भी इन्हीं ऐनाबॉलिक स्टीरायड्स की मिलावट तो रहती ही है। मैं इतनी बार अमेरिकी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन की साइट पर इस तरह की चेतावनियां पढ़ चुका हूं कि मुझे यही लगने लगा है कि अगर अमेरिका जैसे देश में यह सब बार बार सामने आता रहता है तो हम लोग तो इस के बारे में चुप ही रहें तो बेहतर होगा-- यहां तो कुछ भी बिकता है, बस थोड़ी बहुत इधर-उधर सैटिंग करने की बात है !!
इस पोस्ट के माध्यम से जो बात रेखांकित की जा रही है कि डोपिंग के मामले केवल वही नहीं हैं जो मीडिया हमारे सामने ले आता है -- शायद हज़ारों-लाखों किस्से इन सप्लीमैंट्स के कारण देश में हो रहे होंगे --- शायद कोई मैडल वैडल जीतने से कहीं ज़्यादा ज़रूरी है कि खिलाड़ियों की सेहत ठीक रहे ... क्योंकि बार बार अमेरिकी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन भी चेता दिया करती है कि प्रतिबंधित दवाईयों का बेरोकटोक इस्तेमाल ख़तरों से खाली नहीं है। और झोलाछाप डाक्टर भी इस तरह के धंधों में तबीयत से चांदी कूटे जा रहे हैं !!