सोमवार, 24 नवंबर 2014

कैसा कैसा पनीर बिक रहा है!


कल हम लोग घर के पास ही एक सब्जी मंडी में थे....मैंने देखा कि किस तरह से वहां बाज़ार में पनीर बिक रहा था....१४० रूपये का एक किलो।
 लखनऊ की सब्जी मंडियों में अब पनीर ऐसे बिकने लगा है
आप के शहर में भी इस तरह से पनीर तो बिकता ही होगा। ऐसा नहीं है कि इस तरह से बिकने वाला पनीर ही खराब है या इस के ही मिलावटी दूध से बने होने की आशंका होती है। 

मेरे को तो एक बात ही हमेशा परेशान करती है कि दूध तो बाज़ार में ढंग का दिखता नहीं....फिर इतना सारा पनीर कहां से तैयार हो कर बिकने लगता है। है ना सोचने वाली बात। मिलावटी पनीर के बारे में हम लोग अकसर मीडिया में पढ़ते, देखते-सुनते रहते हैं। खराब पनीर मिलावटी दूध से तैयार तो होता ही है, इस को तैयार करने के लिए किस किस तरह के हानिकारक कैमीकल इस्तेमाल होते हैं, यह भी अकसर मीडिया में दिखता रहता है। 

दो दिन पहले मेरी पत्नी बता रही थीं कि इधर लखनऊ में एक प्रसिद्ध ब्रॉंड है दूध का ...इस कंपनी का पनीर भी खुले में बिकता है....उन्होंने कंपनी की थैली में तो डाला होता है लेकिन ऊपर से खुला होता है..

यह भी कल की ही तस्वीर है.. 
अब पनीर के बारे में कुछ व्यक्तिगत बातें कर लें......हम लोगों ने लगभग दस वर्ष हो गये कभी बाज़ार से पनीर नहीं खरीदा, हां, कभी लेना ही पड़े तो एक बहुत प्रसिद्ध ब्रॉंड है जिस का ले आते हैं। वरना हमेशा घर में ही पनीर बनाया जाता है। 

बाहर का पनीर खाया ही नहीं जाता....कईं बार तो बिल्कुल रबड़ जैसा लगता था। इसलिए शायद १०-१५ वर्षों से न तो हम बाज़ार का खुला पनीर लाये हैं (चाहे वह बड़ी बड़ी डेयरीयों में बिकता हो) और न ही हम लोगों ने बाहर कभी किसी पार्टी में या कोई रेस्टरां में पनीर की कोई भी आटइम खाई है। इच्छा ही नहीं होती......कौन इन की क्वालिटी चैक करता होगा....जिस देश मेें ऐंटीबॉयोटिक दवाईयों में चूहे मारने की दवा भरी पड़ी हो, वहां पर मिलावटी पनीर की सुध लेने की किसे फुर्सत है!

मैं तो अकसर अपने संपर्क में आने वाले लोगों को भी यही कहता हूं कि अगर बाज़ार में खुले में बिक रहा पनीर ही खाना है तो इस से बेहतर है कि आप इसे इस्तेमाल ही न करिए, हो सके तो घर ही में तैयार किये हुए पनीर की ही सब्जी खाइए। 

अब आप स्वयं अनुमान लगा सकते हैं कि जिस तरह का पनीर कल मैंने बिकते देखा ...वह किस स्तर का होगा, देखिए वह दाम तो पूरे ले रहा है, लेकिन मुझे यही भय रहता है कि ऐसे खोमचे वाले कहीं पनीर की जगह बीमारियां ही तो नहीं परोस रहे। 

लिखते लिखते अचानक ध्यान आ गया....पता नहीं मैंने कहां देखा था, शायद हरियाणा में वहां यह रवायत है कि लोग कच्चा पनीर बाज़ार में लेकर उस पर नमक-मसाला लगा कर अकसर खाते दिख जाते हैं..बस, यह ऐसे ही याद आया तो लिख दिया। 

होटल, ब्याह शादी में खाए पनीर से अनुभव बड़े कटु रहे हैं......सुबह होते ही पेट पकड़ कर बार बार बाथरूम भागने का दौर........इसलिए अब लगभग १२-१५ वर्षों से इस झंझट में पड़ते ही नहीं......किसी भी पार्टी में बस दाल चावल बहुत सुख देते हैं। आप का क्या ख्याल है? .... सही है बात ..गोलमाल है भाई सब गोलमाल है!!

मुंह में रखा गुटखा, तंबाकू कहां गायब हो जाता है?

मैं ऐसे बहुत से लोगों से मिलता हूं जिन्हें लगता है कि अगर वे धूम्रपान नहीं कर रहे हैं, बीड़ी-सिगरेट को छू नहीं रहे हैं तो एक पुण्य का काम कर रहे हैं...फिर वे उसी वक्त यह कह देते हैं कि बस थोड़ा गुटखा, तंबाकू-चूना मुंह में रख लेते हैं...और उसे भी थूक देते हैं, अंदर नहीं लेते।

यही सब से बड़ी भ्रांति है तंबाकू-गुटखा चबाने वालों में.. लेकिन वास्तविकता यह है कि तंबाकू किसी भी रूप में कहर तो बरपाएगा ही। जो तंबाकू-गुटखा लोग मुंह में होठों या गाल के अंदर दबा कर रख लेते हैं और धीरे धीरे चूसते रहते हैं, इस माध्यम से भी तंबाकू में मौजूद निकोटीन एवं अन्य हानिकारक तत्व मुंह की झिल्ली के रास्ते (through oral mucous membrane)शरीर में निरंतर प्रवेश करते ही रहते हैं। 

और शरीर में जो निकोटीन अंदर जाता है, वह चाहे किसी भी रूट से जाए, वह दिल, दिमाग एवं नाड़ियों की सेहत के लिए बराबर ही खतरनाक है। यह बात समझनी बेहद ज़रूरी है। 

शायद ही शरीर का कोई अंग हो जो इस हत्यारे की मार से बच पाता हो। शरीर में पहुंच कर तो यह उत्पात मचाता ही है, शरीर के िजस रास्ते से यह बाहर निकलता है (एक्सक्रिशन - excretion) उन को भी अपनी चपेट में ले लेता है। 

ज़ाहिर सी बात है कि तंबाकू शरीर के अंदर गया है तो इस के विषैले तत्व बाहर तो निकलेगें ही ही... और पेशाब के रास्ते से भी ये बाहर निकलते हैं। यह तो एक उदाहरण है... तंबाकू का बुरा प्रभाव शरीर के हर अंग पर होता ही है। मेरी नानी के दांतों में दर्द रहता था...किसी ने नसवार लगाने की सलाह दे दी.....नसवार (creamy snuff, पेस्ट जैसे रूप में मिलने वाला तंबाकू)....इस की उन्हें लत लग गई....नियमित इस्तेमाल करने लगीं....अचानक पेशाब में खून आने लगा..जांच होने पर पता चला कि मसाने (पेशाब की थैली - urinary bladder) का कैंसर हो गया है, आप्रेशन भी करवाया, बिजली (radiotherapy) भी लगवाई लेकिन कुछ ही महीनों में चल बसीं। पीजीआई के डाक्टरों ने बताया कि तंबाकू का कोई भी रूप इस तरह की बीमारियों भी पैदा कर देता है। 

बस यह पोस्ट तो बस इसी बात को याद दिलाने के लिए ही थी कि तंबाकू किसी भी रूप में जानलेवा ही है........अब जान किस की जायेगी और किस की बच जाएगी, यह पहले से पता लगा पाना दुर्गम सा काम है.....वही बात है जैसे कोई कहे कि असुरक्षित संभोग करने वाले, बहुत से पार्टनर के साथ सेक्स करने वाले सभी लोगों को थोड़े ना एचआईव्ही संक्रमण हो जाता है, बहुत से बच भी जाते होंगे......ठीक है, शायद बच जाते होंगे कुछ.......लेकिन मुझे दुःख इस बात का होता है कि पता है कि तंबाकू ने अगर एक बार शरीर के किसी अंग में उत्पात मचा दिया तो फिर अकसर बहुत देर हो चुकी होती है....ऐसे में भला क्यों किसी लफड़े का ही इंतज़ार किया जाए। 

यही बातें रोज़ाना पता नहीं कितनी बार ओपीडी में बैठ कर रिपीट की जाती हैं, लेकिन कोई सुनता है क्या?.... शायद, लेकिन तभी जब कोई न कोई लक्षण शरीर में दिखने लगते हैं। 

एक ग्राम कम नमक से हो सकती है अरबों डालर की बचत

अमेरिकी लोग अगर रोज़ाना लगभग साढ़े तीन ग्राम नमक की बजाये लगभग अढ़ाई ग्राम नमक लेना शुरू कर दें तो वहां पर 18 बिलियन डॉलरों की बचत हो सकती है।
केवल बस इतना सा नमक कम कर देने से ही वहां पर हाई-ब्लड-प्रैशर के मामलों में ही एक सौ दस लाख मामलों की कमी आ जायेगी। यह न्यू-यॉर्क टाइम्स की न्यूज़ रिपोर्ट मैंने आज ही देखी।
ऐसा कुछ नहीं है कि वहां अमेरिका में यह सिफारिश की जा रही है और भारत में कुछ और सिफारिशें हैं। हमारे जैसे देश में जहां वैसे ही विशेषकर आम आदमी के लिये स्वास्थ्य संसाधनों की जबरदस्त कमी है —ऐसे में हमें भी अपनी खाने-पीने की आदतों को बदलना होगा।
जबरदस्त समस्या यही है कि हम केवल नमक को ही नमकीन मानते हैं। यह पोस्ट लिखते हुये सोच रहा हूं कि नमक पर तो पहले ही से मैंने कईं लेख ठेल रखे हैं —फिर वापिस बात क्यों दोहरा रहा हूं ?
इस सबक को दोहराने का कारण यह है कि इस तरह की पोस्ट लिखना मेरे खुद के लिये भी एक जबरदस्त रिमांइडर होगा क्योंकि मैं आचार के नमक-कंटैंट को जानते हुये भी रोज़़ इसे खाने लगा हूं और नमक एवं ट्रांस-फैट्स से लैस बाकी जंक फूड तो न के ही बराबर लेता हूं ( शायद साल में एक बार !!) लेकिन यह पैकेट में आने वाला भुजिया फिर से अच्छा लगने लगा है जिस में खूब नमक ठूंसा होता है।
और एक बार और भी तो बार बार सत्संगों में जाकर भी तो हम वही बातें बार बार सुनते हैं लेकिन इस साधारण सी बातों को मानना ही आफ़त मालूम होता है, ज़्यादा नमक खाने की आदत भी कुछ वैसी ही नहीं हैं क्या ?
इसलिये इस पर तो जितना भी जितनी बार भी लिखा जाये कम है —एक छोटी सी आदत अगर छूट जाये तो हमें इस ब्लड-प्रैशर के हौअे से बचा के रख सकती है।

रविवार, 23 नवंबर 2014

ओरल सेक्स (मुख मैथुन) कईं तरह के कैंसर के लिए है रिस्क फैक्टर

इस विषय पर तो पिछले कुछ अरसे में बहुत से अध्ययन प्रकाशित हो चुके हैं कि किस तरह से ओरल सेक्स(मुख मैथुन) का विभिन्न अंगों के कैंसर होने की संभावना से सीधा संबंध है।

कुछ दिन पहले देखा था कि अमेरिका में भी रिसर्च हुई है और वहां पर भी उन्होंने यही निष्कर्ष निकाला है कि पुरूषों में भी ओरल ह्यूमन पैपीलोमा वॉयरस (Oral HPV) की इंफैक्शन (संक्रमण) महिलाओं से आ सकता है।

यह जो अध्ययन हुआ है उस से इस बात की भी पुष्टि हुई है कि यह संक्रमण मुंह से मुंह के रास्ते और मुंह और योनि (genitals) के संपर्क से भी फैलता है।

इस वॉयरस के बारे में मैंने कुछ वर्ष पहले थोड़ा लिखा तो था...महिलाओं को इस तरह के विषयों के बारे में बात करते रहना चाहिए.. आप इस लिंक पर क्लिक कर के देख सकते हैं।

ह्यूमन पैपीलोमा वॉयरस संक्रमण विश्व भर में सब से ज़्यादा फैलने वाला सैक्स-जनित रोग (sexually transmitted disease)है और इस के संक्रमण से कईं तरह के कैंसर होने का रिस्क बढ़ जाता है जैसे कि महिलाओं के प्रजनन अंगों का कैंसर (cervix, vagina, vulva), गले का कैंसर (oropharyngeal/tonsils), गुदा द्वार (anal) और शिश्न का कैंसर (penile cancer).

यह जो रिसर्च हुई है उस से यह भी पता चला कि जो पुरूष अपनी सैक्स पार्टनर के साथ ओरल सैक्स करते थे....उन पुरूषों में भी वही वॉयरस से एचपीव्ही वॉयरस संक्रमण पाया गया जो उन के पार्टनर के प्रजनन प्रणाली (genitals) में मौजूद थीं।

ओ माई गॉड....बहुत मुश्किल काम है भाई इस तरह के विषय पर हिंदी में लिखना। बंद कर रहा हूं इस पोस्ट को इस इत्मीनान के साथ कि जो काम की बात थी और जो प्रामाणिक है, वैज्ञानिक रिसर्च पर आधारित है वह तो मैंने लिख ही दी है....वैसे आप इस शोध को इस लिंक पर जा कर स्वयं भी पढ़ सकते हैं ...इस की एक एक पंक्ति बहुत महत्वपूर्ण है..........Study shows men can get oral HPV infection from women.

सोचता हूं िक इस विषय पर कभी विस्तार से लिखूंगा।

कुछ वर्ष पहले मैंने यह भी लिखा था.......अप्राकृतिक संबंधों का तूफ़ान..

Take care.....बस पोस्ट को बंद करते समय इतना ही कहना चाह रहा हूं कि ये बातें किसी नैतिक पुलिस के जनता हवलदार की नहीं है, सब कुछ वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित है.......Choice is yours!!



शनिवार, 22 नवंबर 2014

अमृतसर के पापड़ों का जवाब नहीं...

अभी जो पापड़ खाया ... 
मैं अभी मुंह के छालों के इलाज पर एक लेख लिख रहा था कि सूप सामने आ गया ...अभी मैं सूप पी रहा था तो साथ में पापड़ खाने को मिले......मेरी मजबूरी यह है कि मुझे कभी भी पापड़ खाते समय अमृतसर के पापड़ याद आ जाते हैं।

और मुझे कभी भी ये लिज्जत या किसी भी और ब्रांड के या कहीं पर भी बिकने वाले पापड़ पसंद नहीं आते। बिल्कुल भी पसंद नहीं हैं क्योंकि इन में अमृतसर के पापड़ों जैसी कोई बात होती नहीं......ये बिल्कुल पतले पतले से कमजोर और बहुत कम मसाले के होते हैं..जब कि अमृतसर के पापड़ अच्छे मोटे और मसालेदार होते हैं। 

मुझे बचपन याद आता है तो यही बात याद आती है कि जब भी हम लोग शहर से बाहर जाते थे तो एक बैग तो पापड़-वड़ियों का अलग से हुआ करता था.....कहीं भी जाना हो, तो पांच छः रिश्तेदारों के लिए और कईं बार उन के एक -दो पड़ोसियों के लिए भी पापड़ वड़ियों के आधा आधा किलो और एक एक किलो के पैकेट पैक करवा के चलते थे। और मेरे फूफा जी जो दिल्ली में रहते थे उन्हें अमृतसर की धुली हुई उड़द दाल बेहद पसंद थी......मुझे याद उन के पोस्ट कार्ड की यादें जिस में उन्होंने लिखा होता था कि आती बार पापड़-वड़ियां और धुली उड़द की दाल इतनी इतनी ले कर आईएगा। 



सच में अमृतसर की पापड़-वड़ियों को कोई जवाब नहीं.....मुझे याद है स्वर्ण मंदिर के आस पास बीसियों दुकानें पापड़-वड़ियों की हुआ करती थीं और हर एक अपनी दुकान को खानदानी दुकान प्रमोट किया करता था.....और सब की सब खूब चला करती थीं। उन दुकानदारों ने अपने बाप दादाओं की फोटू भी दुकान में लगा रखी होती थीं। 

अच्छा चलिए, आप को अमृतसर के पापड़ पर एक गीत सुनवाते हैं......मुझे बहुत अच्छा लगता है...बचपन से ही आल इंडिया रेडियो जलंधर से इसे बजता सुनते थे.....आप भी इस के शब्दों की तरफ़ ध्यान दीजिए.....

 इस गीत में यह मुटियार अपने गभरू से कह रही है कि मैं तो अमृतसर के पापड़ नहीं खाती, और जो तेरी अकड़ है वह मैं सहती नहीं..इसलिए तेरे सिर की चोटी मेरे हाथ में और मेरे सिर की चोटी तेरे हाथ में है......तूने मुझे घर में रखना है तो रख, लेकिन इस बात का ध्यान रख लेना कि मैं ही हूं जो तेरे साथ निभा रही हूं..........इस गीत में आगे अमृतसर की अन्य प्रसिद्ध खाने की चीज़ों का भी जिक्र है....वड़ियां, अमृतसर छोले, लुच्चियां....


एक बात और है, बहुत से ऐसे शहरों में देखा कि लोग दुकानदार के बाहर बोर्ड तो लगा देते हैं कि अमृतसरी पापड़-वड़ियों की दुकान ......लेकिन इन में वह बात होती नहीं......शायद अमृतसर के नाम को भुनाने की कोशिश......लेकिन एक बार यहां से खरीद कर फिर से कोई दोबारा जाता नहीं वहां......खास कर मेरे जैसे लोग जिन्होंने अमृतसर का असली माल चखा हुआ है।

बहरहाल, देखिए ना हमारा भी हाल.....लिखने क्या लगा था, और कहां से कहां निकल गया जैसे कि यह पापड़-वड़ियों वाला गीत ढूंढते ढूंढते एक गीत अपने आप बजने लग गया.......एक बार फिर से लेडीज़ संगीत वाले दिनों की याद ताज़ा हो आई......जब इस तरह के गीत खूब गाये जाते थे..........थे क्या, आज भी पंजाब तो वैसे ही खिलखिलाता है...अच्छा, तो आप भी सुनिए....वे गुरदित्ते दिआ लाला...



शुक्रवार, 21 नवंबर 2014

सोवा मेथी के बारे में कल पहली बार सुना

देश के जिन हिस्सों में मैं अभी तक रहा वहां मेथी का मतलब...मेथी आलू की सब्जी या फिर मेथी वाली मक्के की रोटी। दोनों की फोटो मैंने अपने गांव में पिछले महीने ली थीं.......यहां नीचे लगाई हैं..।
आलू मेथी की सब्जी... पकौड़ी का रायता

मेथी वाली मक्की की रोटी 
कल पहली बार इधर लखनऊ में सोवा मेथी के बारे में सुना... सोवा भी एक सब्जी है, और मेथी तो आप जानते ही हैं। कल पता चला कि यहां लखनऊ में यह सब्जी इक्ट्ठी मिलती है। मेथी का स्वाद थोड़ा कसैला होता है और सोवा का स्वाद उस से बेहतर......इसलिए दोनों को मिला कर सब्जी को तैयार किया जाता है।
सोवा और मेथी के पत्ते 
सोवा सब्जी की फोटो भी यहां ऊपर लगाई है। गूगल पर सोवा लिख कर सर्च किया तो पता चला कि यह तो एक बहुत ज़्यादा पौष्टिक साग है। इन्हें इंगलिश में Dill leaves कहते हैं।

मुझे जब इस नईं सब्जी के बारे में पता चला तो मैं यही सोच रहा था कि बाज़ार में इतनी सब्जियां हैं और हम लोग बचपन से सब्जियां खाते आ रहे हैं.....फिर भी अभी नईं नईं सब्जीयां दिखती रहती हैं जिन्हें अभी तक देखा नहीं, जिन के नाम तक नहीं जानते.....खाना तो दूर रहा।

विचार यह भी आ रहा था कि  आज की इंटरनेट पीढ़ी को कितना ज्ञान होगा इन दाल-सब्जियों का......अधिकतर युवा आज कल सब्जियों और दालों से दूर भागते हैं......यही लगा कि सब्जी खरीदते समय युवाओं को भी साथ लाना चाहिए...शायद उन की रूचि इसी बहाने साग-सब्जियों-दालों में बढ़ जाए। काश!!

एक सब्जी देखी जिस का मुझे नाम ही नहीं पता......यह रही उस की फोटो....सब्जीवाले से उस का नाम तो पूछा लेकिन याद नहीं रहा।
क्या आप इस सब्जी का नाम जानते हैं?
आगे देखा अलग तरह के शलगम नज़र आए........वैसे तो अब आम ही दिखने लगे हैं......लाल रंग के.........जैसे कि इन लोबिया की फलियों का रंग भी अलग ही दिखा।

इस रंग की लोबिया फलियां बहुत कम दिखती हैं ना..
सब्जी मार्कीट में जा कर सच में अपने अल्प ज्ञान का अहसास होने लगता है। ऐसा लगने लगा है कि बच्चों को सब्जी मार्कीट में साथ ज़रूर लेकर जाना चाहिए। वो जिन सब्जियों को जानेंगे तो फिर खाएंगे भी .....वरना, जो सब्जियां बच्चे बचपन या युवावस्था में नहीं खाते, वे फिर ताउम्र उन से दूर ही रहते हैं।

मिलखा सिंह जैसे नहीं हैं तो क्या घर बैठ जाएं.....



मिलखा सिंह अगर किसी समाज कल्याण के विज्ञापन में आकर लोगों को सक्रिय रहने के लिए प्रेरित करता तो मुझे बहुत खुशी होती......जब वह एक टॉनिक के विज्ञापन में आकर एक आदमी को कंप्लैक्स देता दिखता है कि क्या आप सीनियर सिटिज़न हैं तो मुझे तो यह ठीक नहीं लगता।

हर आदमी की अपनी शारीरिक क्षमता है...अपनी सीमाएं हैं, अपनी शारीरिक, मानसिक मनोस्थिति है....यह विज्ञापन ज़्यादा ठीक नहीं लगा मुझे कभी, इस से गलत संदेश जाता दिखता है कि जैसे एक चम्मच रोज़ाना खा लेने से ही सब कुछ बदल जाएगा। नहीं, ऐसा नहीं है।

हमें किसी को किसी भी तरह का कंप्लेक्स नहीं देना है.....हर एक को सुबह सवेरे या शाम को घर से निकलने के लिए प्रेरित करना है।

अकसर आपने सुना होगा कि रोज़ाना ३०-४० मिनट रोज़ाना टहलना शरीर के लिए बहुत फायदेमंद है। यह शरीर और मन में नई स्फूर्ति प्रदान करता है, ऐसा हम सब ने अनुभव तो किया ही है, चाहे हम इस का नियमित अभ्यास करें या ना करें।

तो फिर क्या इस का यह मतलब है कि जो इतना ना चल पाए या इतनी तेज़ न चल पाए... तो वह घर ही बैठ जाए। मुझे लगता है कि लोगों में इस बारे में बहुत गलतफहमी है।

मेरे पास दिन में बहुत से मरीज़ बुझे हुए चेहरे लेकर आते हैं......मुझे पता है कि केवल दवाईयां इन का कुछ नहीं कर पाएंगी। बात करने पर पता चलता है कि वे घर से बाहर निकलते नहीं, टहलने जाते नहीं, घुटने दुःखते हैं.....सांस फूल जाती है। ठीक है, ये सब जीवनशैली से संबंधित रोग एक उम्र के बाद घेर ही लेते हैं लेकिन इस का भी यह मतलब नहीं कि आप घर पर ही डटे रहें और सुबह सुबह सतपाल के आश्रम से बरामद होने वाली ऐश्वर्य की चीज़ों की लिस्ट बनानी शुरू कर दें।

कल ही मेरे पास एक बुज़ुर्ग महिला अपने पति की बात करने लगी कि सारा दिन अखबार, सारा दिन टीवी, सारा दिन खबरें.....कह रही थीं कि घर से निकलते ही नहीं, मैं कईं बार कहती हूं....कि कितनी देखोगे खबरें, क्या प्रधानमंत्री बनोगे?  कह रही थीं कि मेरी तो ज़िंदगी की अपनी इतनी लंबी सीडी तैयार हो चुकी है कि मैं तो वही देख देख कर थक जाती हूं।

आज एक बुज़ुर्ग आया....उसे बहुत सी तकलीफ़ें हैं...मैंने जब टहलने की बात की तो कहते हैं कि हां, सुबह घर की छत पर चला जाता हूं......घर के पास ही एक बाग है, मैंने कहा कि आप वहां चले जाया करें......और रोज़ाना एक घंटा वहां बिताएं.....सूर्योदय का आनंद लें, हरियाली देखें, पक्षियों के गीत सुने, पुराने दोस्तों-परिचितों से हंसी-ठ्ठा करिए.....आप दो चार दिन यह कर के देखिए तो आप अपने आप को कितना खुश पाएंगे.......शायद उन्हें मेरी बात अच्छी लगी, हंसने लगे, कहने लगे कि मेरा ध्यान इस तरफ़ तो कभी गया ही नहीं........मैंने कहा कि यह किस ने कहा कि कि आपने अपनी क्षमता से ज़्यादा तेज़ तेज़ चलना है, हांफना है......ऐसा कुछ नहीं है, आप खुशी खुशी जितना मस्ती से अपनी रफतार में टहल सकते हैं, टहलिए.......३०-२०-१० मिनट टहल कर अगर मन करे तो कहीं बैठ जाएं....फिर से टहलना शुरू कर दें.......वह एक घंटा बस अपने लिए रखें।

वैसे यह नुस्खा हम सब के लिए हैं.....काश, हम सब की परिस्थितियां ऐसी बन पाएं कि वे सुबह का एक घंटा हम सब प्रकृति की गोद में बिता पाएं.......

जिस बाग में मैं जाता हूं उस में जो जगह मुझे बहुत पसंद है ये तस्वीरें मैंने आज सुबह उस जगह की खींची थी......इस जगह पर पहुंचते ही मुझे जंगल में पहुंच जाने का अहसास होता है....



िजस बाग में मैं टहलने जाता हूं वहां का एक कोना
एक बात और है कि बागों में बहुत से बैंच लगे होने चाहिए ताकि कोई भी जब चाहे जहां चाहे बैठ कर सुस्ता लें, ध्यान हो जाए, प्राणायाम कर लें........

तो फिर आपने क्या सोचा.....बस हवन ही करेंगे या मस्ती से थोड़ा बहुत टहलेंगे भी !!

ऐसा ताज़ा बकरा, मुर्गा, और मछली किस काम के !!

थोड़े से पानी में छटपटाती ये मछलियां.. मार्केटिंग टूल 
आज बाद दोपहर जब मैं एक दुकान पर खड़ा था तो सामने वाली दुकान मीट-मछली की थी.....मेरा ध्यान एक बर्तन की तरफ़ गया जिस में बहुत कम पानी में कुछ मछलियां छटपटा रही थीं....बहुत बुरा लगा ये देख कर। यह जो तस्वीर आप यहां देख रहे हैं, वहीं की तस्वीर है।

ज़ाहिर सी बात है कि वह दुकानदार अपनी बिक्री चमकाने के लिए यह सब ड्रामेबाजी कर रहा था....उसी समय आप छटपटाती हुई कोई भी मछली पसंद करिए...उसे समय उसे काट कर आप को थमा िदया जायेगा। 

बात इस दुकानदार की ही नहीं है, मैंने बहुत जगहों पर इधर लखनऊ में नोटिस किया है कि मछली बेचने वालों ने एक बर्तन में थोड़ा पानी डाल कर कुछ मछलियां छटपटाने के लिए छोड़ रखी होती हैं। मुझे यह मंजर बहुत ही बुरा लगता है....अमानवीय तो है बेशक। 

इस तरह से ताज़ा-तरीन मछलियों के दाम भी दूसरी पहले से मृत मछलियों से ज़्यादा होती होगी शायद......क्योंकि मैं शाकाहारी हूं पिछले २५ वर्षों से .....कोई भी धार्मिक कारण नहीं ..बस यह सब खाना अच्छा नहीं लगता, इसलिए बिल्कुल भी नहीं.......घर में कोई भी नहीं खाता। 

कभी आपने साईकिल के पीछे मुर्गे-मुर्गियों को ठूंस कर एक जाल में ले जाते देखा है......मैंने बहुत बार देखा है.....कितना असहाय महसूस कर रहे होते हैं वे जानवर उस समय.....और तौ और, एक बात और नोटिस की कि लोग अपने सामने ज़िंदा मुर्गे को कटवाते, साफ़ करवाते हैं......सोचने वाली बात यह है कि उस जानवर के शरीर में डर खौफ़ की वजह से क्या क्या हार्मोन्ज़ रिलीज़ न होते होंगे.........लेकिन हमें क्या, हमें तो ताज़े मुर्गे से मतलब है!

मुझे जांघ चाहिए, मुझे गुर्दा, मुझे कलेजा...मुझे सिरी (दिमाग)...मुझे चांप
जब मैं स्कूल कालेज में था तो खूब मीट खाया करते थे.....मेरे पिता जी को बहुत शौक था....अलग अलग चीज़ें उस में डाल कर लज़ीज़ मीट तैयार होता था...हमें भी कहां इतना समझ थी कि हम खा क्या रहे हैं.....बस, इतना पता था कि शायद मीट की दो तरह की दुकानें हुया करती थीं...अमृतसर शहर की बात कर रहा हूं.....लेिकन मीट खरीदते जाते वक्त यह हिदायत दी जाती थी कि फलां फलां झटकई से ही लाना है......झटकई पंजाबी का शब्द है जिस का मतलब है जो झटका मीट बेचता है अर्थात् जिस कसाई के यहां बकरे की गर्दन को एक झटके ही में अलग कर दिया जाता है। 

हां, वह बात तो बताना भूल ही गया कि मीट खाना कब से बंद किया....यह १९९० के दशक के शुरूआत की बात है.....मैं और मेरी बीवी हम लोग पूना गये थे.....एक हॉटेल में गये.....वहां जो मीट हमें दिया गया......वह चबाया ही नहीं जा रहा था......हम सारी बात समझ गये.....बस उस दिन के बाद फिर मीट-मछली-मुर्गा खाने का मन ही नहीं किया। 

वैसे भी आज कल मुर्गे वुर्गे बड़े करने के चक्कर में क्या क्या गोरखधंधे हो रहे हैं, किस तरह से कैमीकल्स और हारमोन्ज़ इन में टीके की शक्ल में पहुंचाए जाते हैं, यह तो हम सब मीडिया में देखते सुनते रहते हैं...है कि नहीं?

 मुझे पता है मेरे यहां चार पंक्तियां लिखने से यह सब बंद नहीं होने वाला, लेकिन फिर भी हम लोग इस क्रूरता के बारे में तो सोच ही सकते हैं.........क्या आप को लगता है कि पानी में छटपटाती उस मछली को काट कर खा लेने से हम लोग ज़्यादा मर्द बन जाएंगे?...

नोट........इस पोस्ट को लिखने का कोई भी धार्मिक उद्देश्य नहीं है... वैसे भी मैं बस एक ही धर्म को जानता हूं जिसे मानवता कहते हैं। मछलियों की पीड़ा आज देखी तो दिल को बात लग गई, आप से साझा कर ली। 

इस फिल्मी गीत में भी शूटिंग के िलए एक मछली को छटपटाया तो गया......

बच्चों को तो हम शुरू से पढ़ाते ही हैं.....शायद उन की पहली कविता......मछली जल की रानी है, जीवन उस का पानी है, बाहर निकालो मर जायेगी.............जितनी हवा हमारे लिए ज़रूरी है, उतना ही पानी भी मछली की श्वास प्रक्रिया के लिए ज़रूरी है....कल्पना करिये किस तरह से खिड़कियां बंद होने पर हवा थोड़ी सी कम होने पर ही जब हमारा दम घुटने लगता है और हमारी फटने लगती है........है कि नहीं??

गुरुवार, 20 नवंबर 2014

ग्लुकोज़ की बोतल भी देती है ताकत

पहले कुछ लेखों में हम लोग कुछ ताकत प्रदान करने वाली चीज़ों की चर्चा कर रहे थे —कुछ दवाईयां तो छूट ही गईं। ग्लूकोज़ की बोतल, ग्लूकोज़ पावडर,कैल्शीयम की गोलियां, और खाने में मछली, चिकन-सूप, चिकन एवं मांसाहारी आहार.

ग्लूकोज़ की बोतल वाली ताकत

—बहुत से लोगों से अकसर नीम-हकीम इस ग्लूकोज़ की बोतल के द्वारा ताकत दिलाने का झूठा विश्वास दिला कर तीन-चार सौ रूपये ऐंठ लेते हैं, लेकिन ताकत कहां से आयेगी !
दरअसल अभी भी देश में यही सोच है कि अगर किसी भी कारण से कमज़ोरी सी लग रही है तो एक-दो शीशी ग्लूकोज़ की चड़वाने से यह छू-मंतर हो जायेगी।
लेकिन ग्लूकोज़ चढ़ाने के लिये क्वालीफाईड चिकित्सकों के अपने कारण होते हैं— administration of intravenous fluids has got its own indications. लेकिन मरीज़ की फरमाईश पूरी करने के चक्कर में कईं बार बहुत पंगा हो जाता है।
ग्लूकोज़ की बोतल चढ़ाने के लिये बहुत से कारण है—कईं बार उल्टी-द्स्त किसी को इतने लग जायें कि शरीर में पानी की कमी सी होने लगे (डि-हाईड्रेशन) तो भी इस के द्वारा शरीर में शक्ति पहुंचाई जाती है।

ग्लूकोज़ का पैकेट

— अकसर ग्लूकोज़ के पैकेट का भी कुछ लोगों में बहुत क्रेज़ है । बिना किसी विशेष कारण के ही यह पैकेट खरीद कर पिलाना शूरू कर दिया जाता है।
बात यह है कि यह भी डाक्टर की सलाह के अनुसार ही खरीदा जाना चाहिये। एक बात का विशेष ध्यान रखें कि कभी भी डाक्टर से अपनी तरफ़ से अलग अलग चीज़ों के नाम जैसे कि ग्लूकोज़ का पावडर आदि मरीज़ को पिलाने की बात स्वयं न करें। अगर ज़रूरत होगी तो वह स्वयं ही बता देगा।
अगर अपनी मरजी से पिला रहे हैं तो फिर चीनी पीस कर ही पानी में निंबू-नमक के मिश्रण के साथ पिला दें।

कैल्शीयम की गोलियां

— एक तो इन कैल्शीयम की गोलियों का बहुत बड़ा क्रेज़ है लेकिन इस में भी यह देखा गया है कि जिस वर्ग  को ये मिलनी ज़रूरी होती हैं वे ही नहीं खा पाते। और जिन को ज़रूरत नहीं होती वे फिज़ूल में छकते रहते हैं और अपने आप को शरीर में ज़्यादा कैल्शीयम जमा होने के दुष्परिणामों से कईं बार बचा नहीं पाते।
सब से पहली तो यह बात है कि आहार संतुलित होना बहुत ही ज़रूरी है—-लेकिन पता नहीं क्यों मुझे मंहंगाई की वजह से और समाज में व्याप्त खाने से संबंधित भ्रांतियों की वजह से यह सलाह देनी कईं बार बहुत घिसी-पिटी सी लगती है, लेकिन फिर भी देनी तो पड़ती ही है।
दरअसल यहां लैपटाप पर कोई सेहत के विषय पर पोस्ट लिखनी बहुत आसान सी बात है लेकिन वास्तविकता उतनी ही भयानक है। आज जिस तरह का मिलावटी, कैमीकल दूध जगह जगह पकड़ा जा रहा है , ऐसे में कैसे मान लें कि दूध में कैल्शीयम होगा ही ——-इस का क्या कहें, लेकिन बस यूरिया, डिटरजैंट, और तरह तरह के कैमीकल न हों तो गनीमत समझिये।
दूसरा मेरा व्यक्तिगत विश्वास है कि ये अगर किसी को ये कैल्शीयम आदि लेने के लिये कहा भी जाये तो बढ़िया कंपनी का खरीदना चाहिये —चालू किस्म की कंपनियां क्या करती होंगी, इस का अनुमान भली-भांति लगाया जा सकता है।


अगली पोस्ट में देखेंगे कि कौन कौन से खाद्य पदार्थ ताकत के वास्तविक भंडार हैं।

ताकत की दवाईयों की लिस्ट

इस तरह की दवाईयों की लिस्ट यहां देने से पहले यह कहना उचित होगा कि ऐसी कोई भी so-called ताकत की दवा है ही नहीं जो कि एक संतुलित आहार से हम प्राप्त न कर सकते हों, वो बात अलग है कि आज संतुलित आहार लेना भी विभिन्न कारणों की वजह से बहुत से लोगों की पहुंच से दूर होता जा रहा है।
जो लोग संतुलित आहार ले सकते हैं, वे महंगे कचरे ( जंक-फूड – पिज़ा, बर्गर,  ट्रांसफैट्स से लैस सभी तरह का डीप-फ्राईड़ खाना आदि) के दीवाने हो रहे हैं, फूल कर कुप्पा हुये जा रहे हैं  और फिर तरह तरह की मल्टी-विटामिन की गोलियों में शक्ति ढूंढ रहे हैं। दूसरी तरफ़  जो लोग सीधे, सादे हिंदोस्तानी संतुलित एवं पौष्टिक आहार को खरीद नहीं पाते हैं , वे डाक्टरों से सूखे हुये बच्चे के लिये टॉनिक की कोई शीशी लिखने का गुज़ारिश करते देखे जाते हैं।
मैं जब कभी किसी कमज़ोर बच्चे को, महिला को देखता हूं और उसे अपना खान-पान लाइन पर लाने की मशवरा देता हूं तो मुझे बहुत अकसर इस तरह के जवाब मिलते हैं —-
क्या करें किसी चीज़ की कमी नहीं है, लेकिन इसे दाल-सब्जी से नफ़रत है, आप कुछ टॉनिक लिख दें, तो ठीक रहेगा।
( कुछ भी ठीक नहीं रहेगा, जो काम रोटी-सब्जी-दाल ने करना है वे दुनिया के सभी महंगे से महंगे टॉनिक मिल कर नहीं कर सकते)
–इसे अनार का जूस भी पिलाना शूरू किय है, लेकिन खून ही नहीं बनता ..
(कैसे बनेगा खून जब तक दाल-सब्जी-रोटी ही नहीं खाई जायेगी, यह कमबख्त अनार का जूस भर-पेट खाना खाने के बिना कुछ भी तो नहीं कर पायेगा)
विटामिन-बी कंपैल्कस विटामिन
— जितना इस ने लोगों को चक्कर में डाला हुआ है शायद ही किसी ताकत की दवाई ने डाला हो। किसी दूसरी पो्स्ट में देखेंगे कि आखिर इस का ज़रूरत किन किन हालात में पड़ती है। इस में मौजूद शायद ही कोई ऐसा विटामिन हो जो कि संतुलित आहार से प्राप्त नहीं किया जा सकता। अपने आप ही कैमिस्ट से बढ़िया सी पैकिंग में उपलब्ध ये विटामिन आदि लेना बिल्कुल बेकार की बात है।
किसी दूसरे लेख में यह देखेंगे कि आखिर इस विटामिन की गोलियां किसे चाहिये होती हैं ?
डाक्टर, बस पांच लाल टीके लगवा दो !!
एक तो डाक्टर लोग इन लाल रंग के टीकों से बहुत परेशान हैं। क्या हैं ये टीके—-इन टीकों में विटामिन बी-1, बी –6 एवं बी –12 होता है और कुछ परिस्थितियां हैं जिन में डाक्टर इन्हें लेने की सलाह देते हैं। लेकिन पता नहीं कहां से यह टीके ताकत के भंडार माने जाने लगे हैं, यह बिल्कुल गलता धारणा है।
अकसर मरीज़ यह कहते पाये जाते हैं कि मैं तो हर साल बस ये पांच टीके लगवा के छुट्टी करता हूं। बस फिर मैं फिट ——- आखिर क्यों मरीज़ों को ऐसा लगता है, यह भी चर्चा का विषय है।
मैं खूब घूम चुका हूं और अकसर बहुत कुछ आब्ज़र्व करता रहता हूं —-इस तरह की ताकत की दवाईयों की लोकप्रियता के पीछे मरीज़ कसूरवर इस लिये हैं कि जब उन्होंने कसम ही खा रखी है कि डाक्टर की नहीं सुननी तो नहीं सुननी। अगर डाक्टर मना भी करेगा तो क्या, वे कैमिस्ट से खरीद कर खुद लगवा लेंगे। और दूसरी बात यह भी है कि शायद कुछ चिकित्सकों में भी इतनी पेशेंस नहीं है, टाइम नहीं है कि वे सभी ताकत के सभी खरीददारों से खुल कर इतनी सारी बातें कर पाये। इमानदारी से लिखूं तो यह कर पाना लगभग असंभव सा काम है —–वैसे भी लोग आजकल नसीहत की घुट्टी पीने में कम रूचि रखते हैं, उन्हें भी बस कोई ऐसा चाहिये जो बस तली पर तिल उगा दे—–वो भी तुरंत, फटाफट !!
जिम में मिलने वाले पावडर
—- कुछ युवक जिम में जाते हैं और वहां से उन्हें कुछ पावडर मिलते हैं ( जिन में कईं बार स्टीरायड् मिले रहते हैं) जिन्हें खा कर वे मेरे को और आप को डराने के लिये बॉडी-वॉडी तो बना लेते हैं लेकिन इस के क्या भयानक परिणाम हो सकते हैं और होते हैं ,इन्हें वे सुनना ही नहीं चाहते। अगर इन के बारे में जानना हो तो कृपया आप Harmful effects of anabolic steroids लिख कर गूगल-सर्च करिये।
अगर कोई किसी तरह के सप्लीमैंट्स लेने की सलाह देता भी है तो पहले किसी क्वालीफाईड एवं अनुभवी डाक्टर से ज़रूर सलाह कर लेनी चाहिये।
संबंधित पो्स्टें

तंबाकू --एक दो किस्से ये भी हैं..

मुझे इस बात से बड़ी खीझ होती है कि हिंदी फिल्म का कोई आइटम सांग तो पब्लिक को दो दिन में याद हो जाता है लेकिन हम लोगों की बात ही भूल जाते हैं।
दो दिन पहले मैं ट्रेन में यात्रा कर रहा था –एक महिला अपने शिशु को स्तन-पान करवा रही थी और बिल्कुल साथ ही बैठा उस का पति बीड़ीयां फूंके जा रहा था। ऐसा लगा कि बच्चे को अमृतपान के साथ साथ विषपान भी करवाया जा रहा हो।

कुछ महीने पहले अंबाला छावनी स्टेशन पर बैठे बैठे किसी ने मुझ से किसी गाड़ी के बारे में पूछा। दो-तीन बातें हुईं तो पता चला कि वे दोनों आदमी बिहार में अपने गांव जा रहे थे क्योंकि उन में से एक के लगभग 20-22 वर्ष के भाई की सेहत बहुत खराब है। पूछने पर पता चला कि उसे पिछले लगभग 10 साल से तंबाकू खाने की लत लग गई थी– इसलिये उसे मुंह का कैंसर हो गया है। डाक्टरों ने जवाब दे दिया है —घर में पैसा खत्म हो गया है, इसलिये यह बंदा अपना काम-धंधा छो़ड़ कर गांव जा रहा है।

उस दिन जो बात मैंने उस बंदे के मुंह से सुनी शायद मैंने पहले इस की कल्पना भी नहीं की थी। वह आदमी बहुत गुस्से में था —कह रहा था कि हम घर वाले इसे रोक रोक कर हार गये कि तंबाकू न खाया कर, लेकिन इसने भी हमारी एक न सुनी। बता रहा था कि वह तंबाकू का इस कद्र आदि हो चुका था कि तीन तीन चीज़े एक समय में इस्तेमाल किया करता था —- मैं उस की बात सुन कर हैरान हो गया कि नीचे वाले होंठ के अंदर उस का भाई गुटखा दबा लिया करता था, गाल के अंदर की तरफ़ तंबाकू -चूने का मिश्रण और साथ में बीड़ी —-अब भला ऐसे में कौन बचाता उसे मुंह के कैंसर से। उस की बात सुन कर मन बहुत दुःखी हुया ।

वैसे तो हम लोग तंबाकू और शराब के सेवन को ही एक किल्लर कंबीनेशन मानते हैं लेकिन यहां तो तंबाकू के तीन तीन उत्पाद एक साथ खाये, पीये और थूके जाते रहे —– आप के आसपास भी तो नहीं कोई यह सब कर रहा —देखते रहिये —- सचेत करते रहिये । और क्या कर सकते हैं!!

बुधवार, 19 नवंबर 2014

बाग में जाने के भी आदाब हुआ करते हैं...

निदा फ़ाजली ने कहा है...
बाग में जाने के भी आदाब हुआ करते हैं..
 तितलियों को ना फूलों से उड़ाया जाए..

बेरी पर लगे हुए बेर... 


सुबह सवेरे किसी बाग में टहलते हुए यही स्थिति होती है। आज सुबह टहलते हुए पता नहीं कितने बरसों बाद मैंने बेरी के पेढ़ पर बेर लगे हुए देखे.....बचपन में तो खूब देखते थे और पत्थर फैंक फैंक पर तोड़ते भी थे.....लेकिन पत्थरों से बेरों को नीचे गिराने वाला काम कितना मुश्किल होता है, यह तो वही जानते हैं जो ये काम बचपन में कर चुके हैं...चाहे, बेर का पेढ़ जितना भी बड़ा हो जाए इतना आर्कषित नहीं करता, लेकिन एक बात तो यह जो कि सूफ़ी गायक बार बार अपने गीतों में दोहराते हैं ... कि बेरी के पेढ़ का स्वभाव देखो, बच्चे उसे पत्थर मारते हैं और वह उन्हें मीठे मीठे बेर देता है।

हमारे बचपन के दिनों की विद्या की देवी...


रोज़ाना नईं नईं चीज़ें देखने को मिलती हैं बाग में....बहुत बार तो पुरानी यादें ताज़ा हो जाती हैं जैसा कि मैंने जब इस पेढ़ को देखा तो मुझे ध्यान आ गया कि हम लोग बचपन में इस छोटे से पौधे को विद्या-पढ़ाई का पौधा कहते थे....उस की एक छोटी सी टहनी अपनी किताब में रखना इस आस के साथ कि इस से हम अच्छे अंक ले पाएंगे, आज हास्यास्पद लगता है लेकिन हम लोगों ने अपने समय में ये सब काम खूब किए।

विद्या के पेढ़ के फूलों का एक अलग रूप..



एक बात और देखी......इस पौधे के साथ छोटे छोटे कुछ फल जैसे (पता नहीं क्या हैं, फल या कुछ और) तो पहले भी कईं बार दिख ही जाते थे लेकिन आज एक पेढ़ पर इन का अलग ही रूप देखा....पता नहीं ये हरे रंग के फल-फूल बाद में ये रूप धारण कर लेते हैं या यह इन का पहले का रूप है.....बाद में हरे हो जाते हैं.....देखेंगे..




क्या इन्हें बस जंगली फूल कह के हम फारिग हो जाएं...
बाग में थोड़ा सा ही अंदर गया तो एक कमज़ोर पेढ़ पर नज़र पढ़ गई और बहुत से बिना वजह खिले छोटे छोटे मनमोहक रंगों में खिले फूल भी दिख गये... दरअसल ऐसा नहीं कहना चाहिए कि बिना वजह खिले हुए या जंगली फूल.... ज़रूरी नहीं कि हर बात का कोई कारण है, वैसे भी हमारी अल्पज्ञ बुद्धि कहां प्रकृति के राज़ समझ पाती है। बस जो भी दिखा ...बाग में प्रकृति की सारी संरचना ध्यान की मुद्रा में ही दिखी....at ease with themselves and with surroundings.......Peaceful co-existence.....a food for thought for the early morning walkers!


ये काम बंद होने चाहिएं...
अब यह झुलस गया, इस का क्या कसूर था !










मैं बहुत बार सोचता हूं कि बागों में ऐसे नियम भी लागू होने चाहिए कि वहां पर सूखे पत्तों ओर टहनियों को आग न लगाई जाए...इस से वातावरण तो प्रदूषित होता ही है, आस पास हरे-भरे पेड़ों को भी नुकसान पहुंचता है....यह काम तुरंत बंद होना चाहिए... इस के बारे में हमें ही कुछ तो करना होगा। आप इन तस्वीरें में देख सकते हैं कि किस तरह से पेड़ ही बुरी तरह से झुलस जाते हैं इस तरह से पत्तों-टहनियों को आग लगाने से।

 अच्छा लगा इस बेल को देख कर..
चलिए, जो भी हो.....सुबह सुबह बाग में जाना बहुत आनंदित करता है......आशा है आप भी जाते होंगे, नहीं भी जाते तो अब से शुरू कर सकते हैं... अगर पास में कोई बाग नहीं भी है, तो कम से कम सुबह सवेरे घर से तो निकलए, बाहर आईए, घूमिए, टहलिए, दूध लेने के बहाने, बच्चे को स्कूल छोड़ने के बहाने, कहीं प्रवचन सुनने के लिए चल कर जाईए तो.....अच्छा लगता है।

आज जब मैं सुबह बाग में टहल रहा था तो मुझे जय भादुड़ी पर फिल्माया वह बहुत सुंदर गीत याद आ गया.... मैंनें कहा फूलों से.... अगर मैं कभी शिक्षा मंत्री बन गया ना (अब तो हर तरफ़ संभावनाएं ही संभावनाएं हैं) तो स्कूल में इस तरह के गीत सुबह सुबह एसैंबली से पहले लाउड-स्पीकर पर बजवाया करूंगा.........आप को कैसा लगा यह गीत ?



मंगलवार, 18 नवंबर 2014

ऐसा नहीं है कि कैंसर छेड़छाड़ से फैल जाए...

जब भी किसी  ऐसे मरीज़ को जिसमें मुंह का कैंसर होने का संदेह लग रहा हो...किसी मैडीकल कालेज आदि जैसी जगहों पर भेजता हूं..तो अधिकतर उस मरीज़ का या उस के साथ आये हुये व्यक्ति का यही रिएक्शन रहता है कि वहां तो इस का टुकड़ा लेकर टेस्ट करेंगे तो इस तरह की छेड़छाड़ से तो यह बहुत फैल जाता है, ऐसा बताते हैं।

यह एक बहुत ही बड़ी भ्रांति है अपने लोगों में......अब यह कहां से चल पड़ी नहीं जानता.....लेकिन इतना तो तय है कि जो कैंसर रोग विशेषज्ञ होते हैं वे अपने काम में बहुत एक्सपर्ट होते हैं कि टुकड़ा कितना लेना है, कहां से लेना है.....और कहां पर जांच के लिए भेजना है, इस के बारे में कोई दुविधा नहीं होनी चाहिए कि किसी जगह से मांस का कोई टुकड़ा आदि लेने से स्थिति बद से बदतर हो जाएगी।

मुंह के कैंसर के बारे में मैंने यह देखा कि कुछ दंत चिकित्सक या कोई अन्य सर्जन जिन्होंने मुंह के कैंसर का इलाज नहीं भी करना होता, वे भी टुकड़ा ले लेते हैं.. (इसे मैडीकल भाषा में बॉयोप्सी करना कहते हैं) और जांच के लिए उस टुकड़े को किसी लैब में भेजते हैं और अगर वहां से कैंसर की पुष्टि हो जाए तो मरीज़ को किसी कैंसर रोग विशेषज्ञ के पास रेफऱ करते हैं। ऐसा दंत चिकित्सक ही नहीं करते, मैंने बहुत बार देखा है कि ईएनटी (कान, नाक, गला रोग विशेषज्ञ) डाक्टर भी बॉयोप्सी कर देते हैं मुंह के संभावित कैंसर की........फिर बाद में किसी कैंसर सर्जन के पास रेफर करते हैं।

मुझे यह ठीक नहीं लगता क्योंिक मुंह के कैंसर के बारे में बात करें तो अधिकतर केसों को तो देखने मात्र से पता चल जाता है कि यह कैंसर ही है.....बस बॉयोप्सी से केवल पुष्टि करने भर की ज़रूरत रहती है। और मैं ऐसा मानता हूं कि दंत चिकित्सकों एवं अन्य सामान्य चिकित्सकों एवं सर्जनों को ऐसा प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए कि वे मुंह के कैंसर के बारे में देखते ही काफी कुछ जान लें..कम से कम एक अनुमान तो हो ही जाना चाहिए....यह बड़ा ज़रूरी है।

एक बात और याद आ गई.......आपने बहुत बार सुना होगा कि किसी ने अपना कोई दांत निकलवाया और उस जगह पर मुंह में कैंसर बन गया.......नहीं, ऐसा नहीं होता, दरअसल होता क्या है कि कैंसर अगर जबाड़े में हड्डी में धीरे धीरे बढ़ रहा होता है तो इस वजह से बहुत बार  उस के आस पास वाले दांत भी थोड़े हिलने लगते हैं.....कईं बार तो इतना हिलने लगते हैं कि वे अपने आप लगभग झड़ से जाते हैं......जैसा दूध के दांत अपने आप निकल जाते हैं!!

अब आप कल्पना कीजिए कि ऐसे ही किसी एक बंदे ने दांत उखड़वाया (जिस के जबड़े में कैंसर पहले से है) और दांत उखड़वाने के बाद अगर उस का ज़ख्म नहीं भर रहा और दो महीने बाद जब वही जबड़े का कैंसर उखड़े हुए दांत से बाहर आने लगता है तो ऐसा कह दिया जाता है कि दांत उखड़वाने से कैंसर हो गया.......इस में कोई सच्चाई नहीं है।

मुझे याद है दस वर्ष पहले का एक मरीज ...वह तंबाकू का खूब इस्तेमाल किया करता था.....और उस के ऊपरी आखिरी अकल की जाड़ के पास एक ज़ख्म सा था... अकसर इस तरह के ज़ख्म (जो जाड़ की रगड़ से ही होते हैं) खराब जाड़ निकालने पर दो चार दिन में ठीक हो जाते हैं....क्योंकि दांत तो उस का खूब हिल ही रहा था, उसे तो निकालना ही था, मैंने निकाल दिया...लेकिन लगभग एक महीने बाद जब वह मुझे चैकअप करवाने आया तो उसी जगह पर कैंसर जैसी ग्रोथ बन चुकी थी.......और मेरे पास आने से पहले वह बाहर दो चिकित्सकों को भी चैक करवा के आ चुका था कि कहीं दांत उखड़वाने से तो यह नहीं हो गया......उन्होंने भी उसे यही समझाया कि नहीं, यह तो पहले ही से था, अब दिखने लग गया और फिर उसे कैंसर रोग विशेषज्ञ के पास भेजा गया।

कैंसर रोग विशेषज्ञ जो बॉयोप्सी लेगा उस से उसे बीमारी के स्तर का पता तो चलता ही है, इसी से ही वह निर्णय लेते हैं कि किस तरह का इलाज इस मरीज़ के लिए उपर्युक्त है।

बात तो मैंने इस पोस्ट के माध्यम से इतनी रखनी थी कि मांस का टुकड़ा लेने से ऐसा नहीं होता कि कैंसर फैल जाए......लेकिन यह टुकड़ा कौन लेगा...ज़ाहिर सी बात है कि इस देश के मरीज़ यह निर्णय नहीं ले पाते कि यह काम किस से करवाएं......इसलिए विभिन्न चिकित्सकों को ही इसमें आत्म-अनुशासन की ज़रूरत है कि विशेषकर मुंह के कैंसर के केसों में जहां बहुत कुछ बिना कुछ टैस्ट किए ही दिख रहा है...साफ़-साफ़- और अगर उस टुकड़े की जांच करवाने पर कैंसर की पुष्टि भी हो गई तो भी सामान्य चिकित्सक अथवा सामान्य दंत चिकित्सक ने कुछ भी तो नहीं करना होता, मरीज़ को रेफर ही करना होता है.......ऐसे में जहां मरीज़ को रेफर किया जाता है, अगर वह कैंसर-रोग विशेषज्ञ फिर से बॉयोप्सी लेने को कहता है तो मरीज़ को बहुत बुरा लगता है.......इस सब के चक्कर में समय और पैसा तो बर्बाद होता ही है.........(क्योंकि पहली वाली बॉयोप्सी से बचा जा सकता था)... मरीज की परेशानी भी बढ़ जाती है....उस के लिए तो वैसे ही इस तरह की बीमारी का मात्र संदेह होने पर ही बिना सटीक इलाज के एक एक दिन बिताना भारी होता है।

जाते जाते मेरी हाथ जोड़ कर आप सब से एक ही प्रार्थना है कि अगर आप तंबाकू का किसी भी रूप में सेवन कर रहे हैं, पानमसाला खा रहे हैं......गुटखा खा रहे हैं, डली चबा रहे हैं तो अभी से इस आदत को थूक दें.........बाद में कुछ भी कर लीजिए... दरअसल बहुत ही देर हो चुकी होती है। Stay healthy!!

सोमवार, 17 नवंबर 2014

गर्भावस्था के दौरान मधुमेह रोग का जोखिम...

आज से १५-२० वर्ष पहले तक मुझे याद है कि यह बहुत कम गर्भवती महिलाओं में देखा जाता था कि वे मधुमेह का शिकार हो गईं.....चाहे यह रोग होता कुछ महीनों के लिए ही है लेकिन इस का नकारात्मक पहलू यह भी है कि इस से होने वाले बच्चे में कईं दिक्कतें आ सकती हैं और वैसे भी यह जच्चा-बच्चा दोनों के लिए जटिलतायें उत्पन्न कर सकता है।

इस तरह के मरीज मेरे संपर्क में तो आते नहीं है इसलिए मैं यही सोचता था कि यह समस्या कोई आम समस्या नहीं है। वैसे भी कभी कोई ऐसी महिला आ जाती थी अपने मुंह के इलाज के लिए।

लेिकन इस बार विश्व मधुमेह दिवस पर जब मैंने लखनऊ से प्रकाशित होने वाली अखबार में यह खबर देखी कि यहां मैडीकल कालेज में स्त्री रोग विशेषज्ञों ने एक स्टडी की है जिस में यह पाया है कि लगभग २० प्रतिशत महिलायें लखनऊ में गर्भावस्था के दौरान मधुमेह की चपेट में आ जाती है.....गर्भावस्था के दौरान होने वाला मधुमेह रोग लगभग ४ प्रतिशत गर्भवती महिलाओं में जटिलतायें उत्पन्न कर देता है।


सब से चिंताजनक बात यह पढ़ने को मिली कि जिन महिलाओं को गर्भावस्था के दौरान मधुमेह रोग पाया जाता है......उन में से आधी महिलाओं को आगे चल कर ४० साल की उम्र पार करने पर मधुमेह रोग होने की बहुत संभावना होती है और जो महिलायें गर्भावस्था के दौरान मधुमेह से ग्रस्त होती हैं, उन से पैदा होने वाले बच्चे भी अकसर ४० साल की उम्र पार करने पर मधुमेह से ग्रस्त हो जाते हैं।

इतनी सारें बातें यहां करने का यही फंडा है कि गर्भवती महिलाओं को समय समय पर अपनी सभी जांचे करवानी ज़रूरी है......वैसे तो अगर वे नियमित अपने स्त्री रोग विशेषज्ञ से मिलती रहती हैं तो यह काम स्वतः ही होता रहता है...और एक बात, गर्भवती महिलाओं को खानपान के बारे में भी सही दिशा-निर्देश दिये जाने ज़रूरी हैं....क्योंकि भारतीय समाज में एक बात तो है कि गर्भवती महिला को अच्छा पर्याप्त पौष्टिक भोजन मिलने का मतलब यही लिया जाता है कि सब तरह का खाना ..मीठा भी ... कस के खाया जाये .......और वैसे ही इस समय दौरान शारीरिक श्रम तो ज़्यादा वर्जित ही होता है.....इसलिए मोटापा होने की संभावना और फिर इस से होने वाली परेशानियों का खतरा तो बढ़ ही जाता है।

बस, यह ध्यान रखें कि गर्भावस्था में जो मधुमेह रोग होता है......वह काफी जटिलतायें पैदा कर सकता है ... जच्चा बच्चा के लिए जन्म के समय भी और ४० की उम्र पार करने पर भी यह दोनों में मधुमेह रोग उत्पन्न करने की क्षमता तो रखता ही है। ध्यान रखियेगा।

गैस से भरे गुब्बारे का खेल भी खतरनाक

आज कल बहुत दिखता है कि पार्टीयों में गैस से भरे गुब्बारे खूब टंगे रहते हैं.....कुछ ही समय में बच्चे उन्हें फोड़ना शुरू करते हैं...होता है ना यह सब आज कल खूब!!

मुझे तो गैस के गुब्बारे देख कर अपने बचपन के दिन याद आ जाते हैं.....गुब्बारे वाले ने अपनी लकड़ी पर दो तरह के गुब्बारे टंगे होते थे.....एक साधारण और दूसरे गैसी गुब्बारे। गैसी गुब्बारे का रेट साधारण गुब्बारे की तुलना भी उस समय के अनुसार काफ़ी हुआ करता था....कभी कभी जब मैं गैस का गुब्बारा खरीदता था तो उस के साथ लंबा सा धागा बांध कर बैठक में छोड़ दिया करता था।

और सुबह उठ कर जितनी शिद्दत से आज के बच्चे व्हास्ट्स-अप और फेसबुक अपडेट्स चैक करते हैं, उस से भी कहीं ज्यादा शिद्दत से मैं बैठक की तरफ़ लपक पड़ता था यह देखने के लिए अपने गैसी गुब्बारे का क्या हाल चाल है?.. अगर वह अभी भी ऊपर छत पर लगा दिखता तो बहुत मज़ा आ जाया करता था। कितनी छोटी छोटी सी बातों में अपुन की खुशियां छुपी हुआ करती थीं!!



पांच सात दिन पहले यहां लखनऊ के पास गैस वाले गुब्बारों से संबंधित एक बड़ा हादसा हो गया..एक सरकारी समारोह में गैस के गुब्बारे छोड़े गये..साथ में कोई बैनर वैनर बंधा हुआ था.. यह गुब्बारे पास ही के किसी गांव में जाकर जब नीचे गिरने लगे तो बच्चों का झुंड आ धमका....और जैसे ही ये गैसी गुब्बारे फूटे, पास ही पड़े सूखे घास में आग लग गई... और लगभग १२-१५ बच्चों आग से बुरी तरह से झुलस गये। बड़ा अफसोसजनक हादसा था यह।

फिर अगले दिन पता चला कि अब इन गैस के गुब्बारों में लोगों ने हीलियम गैस की जगह हाईड्रोजन और एसिटिलिन जैसी गैसें ज्वलनशील गैसें भरनी शुरू कर दी हैं... सब कुछ सस्ते के चक्कर में .....ये लोग अमोनियम नाइट्रेट और कास्टिक जैसे कैमीकल्स को मिला कर हाइड्रोजन जैसी गैस तैयार करते हैं जो कि शीघ्र ही आग पकड़ सकती है।

पड़े हुए हैं सब लोग अब इस बात के पीछे कि दोषियों को पकड़ो....कुछ को पकड़ा भी गया है.....लेकिन लोगों को भी सचेत किये जाने की भी बहुत ज़रूरत है......और वैसे भी गैस से भरे गुब्बारों पर प्रतिबंध की तैयारी हो ही गई है।

सोचने वाली बात है कि पहले ही से कितनी चीज़ें हैं जो प्रतिबंधित हैं और धड़ल्ले से बिक रही है.....गुटखा, पानमसाला एक उदाहरण है।

१४ नवंबर २०१४ के हिन्दुस्तान लखनऊ संस्करण में छपी खबर 
आप भी सावधान रहिए...बच्चों की पार्टियों आदि में भी ध्यान रखिए.... इन गैसी गुब्बारों-वारों से दूर ही रहने में समझदारी है। 

स्कूली बच्चों की शादी, मोबाईल चोर की हत्या और सैक्स टॉय बाज़ार

ओह माईगाड---शीर्षक कितना सनसनीखेज दिखता है ..स्कूली बच्चों की शादी, मोबाईल चोर की हत्या और सैक्स टॉय बाज़ार....कुछ कुछ उस टीवी चैनल जैसा जो हर एपीसोड से पहले कहता है कि चैन से जीना है तो जाग जाईए। इस शीर्षक की बात तो बाद में करते हैं, उससे पहले एक बात याद आ गई कि डीएवी स्कूल अमृतसर में भी सत्तर के दशक में मेरी एक ड्यूटी लगा करती थी।
मुझे स्कूल के ज़ीरो पीरियड में एक साथी के साथ लाईब्रेरी में जाकर हिंदी और इंगलिश के पेपरों की हैडलाइन्ज़ को खंगालना होता था और फिर उन में से पांच छः मुख्य खबरें छांट कर हिंदी और इंगलिश में अलग अलग नोटिस बोर्डों पर गीले चाक से लिखनी होती थीं..यह सिलसिला दो तीन साल तो चला....मुझे बड़ा गर्व महसूस होता था कि जो मैं चाहूं वही लिख दूं बोर्ड पर ..फिर आधी छुट्टी के समय स्कूल के बच्चे उन्हें पढ़ा करते थे। आज सोचता हूं कि यह तो एक संपादक जैसा ही काम हो गया...फिर मुझे स्कूल की मैगजीन का स्टूडैंट एडिटर भी बना दिया गया......अच्छा लगता था यह सब काम करना।
आज भी जब अखबार देखी तो वही दिन याद आ गये.....तीन चार खबरों ने कुछ हिला सा दिया।
खबर पढ़ने के लिए इस क्लिपिंग पर क्लिक करिये
पहली खबर यह कि आठवीं क्लास का लड़का और सातवीं कक्षा की छात्रा लखनऊ के एक कानवेंट में पढ़ने वाले लखनऊ से भाग कर नैनीताल की तरफ़ निकल पड़े। घर से कुछेक हज़ार रूपये उन्होंने साफ किए और वे शादी के मनसूबे बना कर निकल पड़े। पहुंच गये बरेली.....वहां अगला कोई कार्यक्रम बना रहे थे कि किसी बैंक अधिकारी भद्रपुरूष को कुछ शक सा हुआ उन की उम्र देख कर....उसने पुलिस को सूचित किया......पुलिस के सामने उन्होंने यह सब कबूल किया... और फिर मां बाप उन्हें वापिस ले कर आए।

यह घटना समाज का आईना तो है ही .....यह केवल बदलते समय की दस्तक ही नहीं है, आज के मां बाप की रातों की नींद हराम करने के लिए काफ़ी है। मैं खबर पढ़ते यही सोच रहा था कि भला हो उस भलेमानुस का जिस की नज़र इन बच्चों पर पड़ गई और ये किसी अनहोनी का शिकार होने से बच गये।

अभी तो ये बच्चे १६ के भी नहीं हुए होंगे और अभी से ये तेवर......




दूसरी खबर यह कि कलकता के मैडीकल छात्र जिस होस्टल में रहते थे ... वहां उन्होंने एक मोबाईल चोर को पकड़ लिया... और फिर फिर सब ने क्रूरता से उस की तुरंत हत्या ही कर डाली। बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करने वाली यह घटना। भविष्य में डाक्टर बनने वाले डाक्टरों में इतनी क्रूरता कैसे आ गई कि एक मोबाईल के चक्कर में एक जान ही ले डाली.......डर लगा यह खबर पढ़ कर कि एक जान इतनी सस्ती भी हो सकती है। वह घटना याद आ गई हरियाणा की कुछ महीने पहले की जिसमें एक बच्ची के साथ मुंह काला करने वाले युवक का लोगों ने पकड़ कर लिंग ही काट कर उसे थमा दिया। हम निःसंदेह खतरनाक समय में जी रहे हैं। एक और खबर पर नज़र पड़ गई थी जिसमें कलकत्ता के ही एक घर में जब चोर घुसे और उन्होंने ८० पार कर चुकी बुज़ुर्ग महिला को धक्का मारा तो उसने चंद मिनटों पर मृत होने का ऐसा नाटक किया कि उस की जान बच गई।

तीसरी खबर ...यह खबर मुझे बड़ी अजीब सी लगी ... हो न हो यह भी कोई स्पांसर्ड टाइप की ही खबर थी ....खबर यह बता रही है कि अब महिलाओं ने सैक्स टॉयज़ में दिलचस्पी लेनी शुरू कर दी है और वे इन के ऊपर खूब पैसा खर्च कर रही हैं....यह खबर पढ़ कर तो ऐसा लगा कि जैसे सारे देश की महिलायें ही इस तरह की ऑनलाईन खरीददारी में लगी हुई हैं......कुछ भी अखबार वाले बकवास भी तो लिख देते हैं ना....यह उसी का ही एक उदाहरण है... उन्हें बकवास लिखना भी पड़ता होगा शायद.....पर शिकायत इस तरह की खबर से यह है कि जिन की ज़िंदगी चल रही है ठीक है....वे भी क्यों ठीक ठाक चलें, बेचो उन को भी ये सैक्स टॉयज़... और तरह तरह के सैक्स टॉयज़ के नाम और वे देख के किन किन शहरों में किस किस पते पर मिलते हैं, यह भी बता दिया गया है.........जबरदस्ती का सौदा...बेकार लगा यह देख कर.

प्रातःकाल के भ्रमण की तो कोई मांग नहीं...

यह कौन सा डिज़ाईनर है....
क्या नज़ारा है......वाह..
अभी अभी अपने घर के पास ही एक बाग में टहल कर आ रहा हूं...अच्छा लगता है। आज मैंने एक बुज़ुर्ग को बिल्कुल स्कूल की पी.टी की तरह अपने बाजु वाजू हिलाते-ढुलाते देखा तो मुझे बहुत अच्छा लगा। दो चार दिन पहले की ही बात है कि मैं अपने एक मरीज से उस की दिनचर्या की बात कर रहा था तो उस बुज़ुर्ग ने भी मुझे कहा था कि सुबह टहलता हूं और थोड़ी पी टी कर लेता हूं।

पता नहीं यह क्या है...पर देख कर मज़ा आ गया
उस दिन मुझे भी अपने स्कूल का पी टी पीरियड याद आ गया था... लेिकन सोचने वाली बात है कि क्या वह पी टी केवल अपने पी टी मास्टर की पिटाई से ही बचने के लिए हम किया करते थे....शायद हां, कुछ खास मन नहीं लगता था ना उस दौरान.........लेकिन अब तो उस सब में मन लगाने की बहुत ज़रूरत है।

हां, तो मैंने आज सुबह बुज़ुर्ग को पी टी जैसा करते देखा तो मैंने भी वैसे ही करना शुरू कर दिया....अच्छा लगा।

सुबह बाग में जब जाते हैं तो सब को बहुत खुश पाते हैं....भ्रमण करते करते जब लोगों के ठहाके सुनाई देते हैं तो यही कामना होती है कि ये ठहाके यूं ही गूंजते रहें....कोई हास्य-क्लब में ठहाके लगा रहे होते हैं कुछ लोग इक्ट्ठा हो कर......कुछ यार दोस्त वैसे ही हंसी-ठिठोली करते दिखते हैं।

ऐसे नज़ारे सब को रोज़ाना दिखते रहें..काश!
आज मैं यही सोच रहा था कि जो भी हो ये लोग घर से एक घंटे के लिए बाहर आ गये और बच्चे बन गये.....यही एक बड़ी बात है....हम लोग बच्चे ही तो बनना भूलते जा रहे हैं। सारे दिन में केवल एक घंटे तो अपने आप को देना बनता है कि नहीं।

मैंने एक बात नोटिस की है कि कुछ लोग सैर करते समय गंभीर सी बातें करते सुनाई पड़ते हैं.......मुझे नहीं पता कि यह ठीक है कि नहीं, वैसे हंसी मज़ाक हो और हल्की फुल्की बातें हों तो ठीक है, ज़्यादा गंभीर विषयों को तो शायद बाकी के तेईस घंटों के लिए छोड़ देना चाहिए......यार, पहले आप अच्छे से चार्ज तो हो जाईये।

वैसे भी यह सुबह का समय होता है यह अपने आप के साथ और प्रकृति के साथ समय बिताने का एक बेहतरीन अवसर होता है.....मैं भी कुछ कुछ तस्वीरें खींच लेता हूं......आज मैंने बाग में टहलते हुए जो तस्वीरें खींचीं, यहां ठेल रहा हूं.....कैसी लगीं?

पिछले दिनों मैं एक हृदय रोग विशेषज्ञ को रेडियो पर सुन रहा था ...बता रहे थे कि कुछ लोग सुबह सैर करना इसलिए टालते रहते हैं कि सैर करने वाले बूट नहीं हैं.....वह यही बताना चाह रहे थे कि सुबह की सैर की कोई मांग नही है, शूज़ नहीं हैं तो क्या है, चप्पल तो है, उसे ही पहन कर निकल पड़े.......मैं भी देखता हूं कि बाग में कुछ गृहिणीयां चप्पल डाल कर टहल रही होती हैं....बिल्कुल ठीक है।

एक बात और याद आ रही है कि स्कूल के शुरूआती दिनों में जब प्रातःकाल का भ्रमण विषय पर हमें निबंध लिखना सिखाया जाता है ...उसे जब गर्मी की छुट्टियों में हम उसे रिवाईज़ किया करते थे तो उन दिनों सुबह सुबह पास की ग्राउंड में टहलने भी निकल जाया करते थे......क्या मज़ा आता था.......लेकिन धीरे धीरे हम क्यों यह सब भूलना शुरू कर देते हैं....स्वर्ग सिधार गये अपने मास्टर लोगों की नज़र अभी भी अपने ऊपर है........इसलिए जो भी है, जैसे भी हैं, सुबह का एक घंटा अपने शरीर के लिए रख दें तो कितना अच्छा हो ! Let's stop taking things for granted!!