शुक्रवार, 14 नवंबर 2014

नवजात शिशु की आवश्यक देखभाल...

आज की अखबार में नवजात शिशु देखभाल सप्ताह - 14 नवंबर से 21 नवंबर 2014 तक.. से संबंधित उत्तर प्रदेश सरकार की तरफ़ से एक पोस्टर देखा..

इस में बहुत सी काम की बातें लिखी हुई हैं....शायद हर पाठक इस से कोई ऐसी नईं बात जानेगा जिसे वह पहले न जानता होगा। इसलिए मैंने सोचा कि इसे एक पोस्ट के द्वारा नेट पर डाल दूं...ये सब काम की बातें अत्यंत अनुभवी विशेषज्ञों के अनुभवों के आधार पर पोस्टर पर लिखनी तय होती हैं......इसलिए कोई किंतु-परंतु की गुंजाइश नहीं होती......चुपचाप सब कुछ आंखे बंद कर मान लेने में ही बेहतरी है.....जच्चा और बच्चा दोनों की......

                        नवजात शिशु की आवश्यक देखभाल

  • प्रसव अस्पताल में ही करायें और शिशु का नियमित टीकाकरण करायें।
  • प्रसव के पश्चात् 48 घंटे तक अस्पताल में मां एवं नवजात की उचित देखभाल हेतु रूकें। 
  • विटामिन-K का इंजेक्शन अवश्य लगवाएं। 
  • नाभि को सूखा रहने दें, संक्रमण से बचाव करें, मां शिशु की व्यक्तिगत स्वच्छता का ध्यान रखें।
  • बच्चे को ठंडक (हाइपोथर्मिया) से बचाएं, मां अपने नवजात को सीने से चिपका कर गर्म रखें। जन्म के तुरन्त बाद न नहलायें। 
  • कम वजन वाले शिशुओं की विशेष देखभाल करें। 
  • जन्म के बाद नवजात का वजन अवश्य लें। 
  • जन्म के एक घंटे के भीतर मां का दूध पिलायें। शुरू में निकलने वाला मां का पीला गाढ़ा दूध नवजात को बीमारियों से सुरक्षित एवं तन्दरूस्त रखता है। 
  • स्तनपान बार-बार करायें, शिशु जितनी बार चाहे, दिन और रात में मां का दूध पिलायें। 
  • बच्चे को शहद, घुटटी इत्यादि न पिलायें, छः माह तक पानी बिल्कुल भी ना पिलायें। 
  • कुपोषण से बचाव के लिये 6 माह तक बच्चे को केवल स्तनपान करायें। 

नवजात को न 
तुरन्त नहलायें, 
पोंछ उसे कपड़े पहनायें। 
मां की छाती से 
तुरन्त लगायें, 
ठंड निमोनिया से 
उसे बचायें। 


चाय से नफ़रत के मेरे कारण....

जहां तक मुझे याद है...चाय पीना बचपन ही से मुझे खासा पसंद रहा है.....अच्छी कड़क चाय ..परांठे, आम का आचार ...बस और क्या चाहिए होता था।

चाय मैं अकसर चार बार तो ले ही लेता हूं.....मात्रा हम लोग कम ही लेते हैं......छोटे छोटे कांच के गिलास और प्यालियां हैं...दो बार तो सुबह और दो बार शाम को चाय हो जाती है। लेकिन मैं अपनी ड्यूटी पर चाय कभी नहीं पीता.....अपवाद केवल वे दिन होते हैं शायद महीने में एक दो बार जब मीटिंग में चाय पिलाई जाती है, मैं वहां भी पीना नहीं चाहता, लेकिन वही फार्मेलिटि का ढोंग तो करना ही पड़ता है।

आप सोच रहे होंगे कि अगर तुम्हें चाय इतनी ही पसंद है तो फिर यह नफ़रत वाली बात क्यों कर रहे हो। इस के ही कारण मैं आप से शेयर करना चाहता हूं।

घर में चाय पीने में कोई दिक्कत नहीं ... लेकिन मैं आप को यह भी बताना चाहता हूं कि मैंने बीस वर्ष पहले सिद्ध समाधि योग के प्रोग्राम किए....वहां पर चाय तो छुड़वा ही देते हैं......दो तीन दिन तकलीफ़ हुई....बाद में ध्यान ही नहीं जाता था....जब इन योगा एवं ध्यान प्रोग्रामों के Silence Retreats के लिए आश्रम जाना होता....चार दिन, एक सप्ताह और २८ िदन तक....तब वहां भी चाय का ध्यान नहीं आता था.....वातावरण ही कुछ ऐसा रहता है इन रमणीक स्थानों का..।

वैसे भी अगर हम नियमित ध्यान करते हैं तो फिर चाय आदि उत्तेजक पेय उस में बाधक हैं....ये ध्यान होने नहीं देते क्योंकि हम लोग सेटल ही नहीं हो पाते।

यह तो थी थ्यूरी की बातें......सब कुछ पता होते हुए भी मैंने तीन-चार वर्षों में ही चाय फिर से पीनी शुरू कर दी......फिर कुछ वर्षों बाद ध्यान आया...फिर कुछ समय के लिए छोड़ दी......यह सिलसिला तीन चार बार तो चल ही चुका है...जहां तक मुझे याद है।

सफ़र के दौरान चाय नहीं लेता..........मुझे नहीं याद कि मैंने कभी सफ़र के दौरान चाय ली हो.....कितना भी लंबा सफ़र हो, चाय मैं बाहर की नहीं ले पाता....अब होता यह है कि जब तक सफ़र खत्म होने वाला होता है चाय न पीने की वजह से मेरा हाल बुरा हो चुका होता है.....बिल्कुल वही सब बातें जो नशा छूटने पर होने लगती हैं......एसिडिटी, मितली आना, सिर भारी, सिरदर्द, बेचैनी....ऐसा मेरे साथ लगभग हर लंबे सफ़र के बाद होता ही है।

चाय के साथ बिस्कुट, भुजिया.......एक बात और भी है कि इस देश में खाली चाय को पीना जैसे अशुभ सा माना जाता है, मुझे ऐसा लगता है। जितना बार चाय उतनी बार भारी भारी बिस्कुट और भुजिया खाते खाते अब लगने लगा है कि बढ़ती उम्र के साथ साथ खाने में थोड़ा तो नियंत्रण करना ही होगा। कुछ दिनों से यह सोच रहा था कि चाय पीना ही बंद कर दूं ताकि ये सब अनाप-शनाप खाद्य पदार्थों पर भी अपने आप अंकुश लग जाएगा।

शर्बत जैसी मीठी चाय.......एक और बुरी आदत है कि अच्छी कड़क चाय और काफ़ी मीठे वाली चाय ही मुझे पसंद है। अब इतना मीठा खा खा के कैसे कोई ठीक रह पाएगा?

इन सब कारणों के रहते मैंने इस बार एक लंबे सफ़र के दौरान निश्चय किया कि अब इस चाय को त्याग ही देना है......बस इस बार ठान लिया था, अब लगभग १० दिन होने को हैं , मैंने चाय नहीं पी........दो तीन चार दिन तकलीफ़ तो हुई......मैं आपसे शेयर करना चाहता हूं कि उस तकलीफ़ के लिए मैंने क्या किया......उस के लिए मैं दिन में दो एक बार तो कोई ओमीप्राज़ोल नामक कैप्सूल (जो एसिडिटी को कंट्रोल करता है) लिया करता था.....एक तो खाली पेट.......जिस से मुझे काफी मदद मिली।

तीन चार दिन तो मैं सिरदर्द से परेशान रहा......लेटा ही रहा लगभग.....कभी कोई दवा भी ले लिया करता था। फिर तीन चार दिन के बाद सब सेटल होने लगा।

जैसा कि मैंने लिखा है कि मुझे चाय से कोई घृणा नहीं है, लेकिन इस के बिना जब बाहर नशा टूटने जैसे लक्षण पैदा होने लगते हैं तो बहुत ज़्यादा दिक्कत हो जाती है......इसलिए अब इस से किनारा करने का ही फैसला कर लिया है।

इन तीन चार दिनों के दौरान जब मैं चाय के withdrawal symptoms (नशा टूटने जैसे लक्षण)..झेल रहा था तो मैं बार बार यही सोच रहा था कि एक चाय को छोड़ना अगर इतना मुश्किल है तो दूसरे नशों को छोड़ना भी तो उतना ही मुश्किल होता होगा........शायद इस से भी ज़्यादा......इसलिए इन सब तंबाकू, शराब, ड्रग्स आदि घातक पदार्थों से दूर ही रहना चाहिए........

एक खुशखबरी.....जब से चाय छोड़ी है, फिर से प्रातःकाल का भ्रमण नियमित हो रहा है, प्राणायाम् भी फिर से शुरु किया है और ध्यान भी दो बार तो हो ही जाता है।

इसी बात पर यह गाना ध्यान में आ गया.......कितना आसां है कहना भूल जाओ, कितना मुश्किल है पर भूल जाना.....यह गाना मुझे बहुत पसंद है....यह फिल्म मैंने 1981 जनवरी में अमृतसर की नंदन टाकीज़ में देखी थी....




सुबह का नाश्ता और मधुमेह रोग

सुबह के नाश्ते की बात चलते ही मुझे अपने स्कूल के दिन याद आ जाते हैं....याद नहीं कि किसी दिन बिना ढंग से नाश्ता खाए हम लोग स्कूल-कालेज गये हों..दो परांठे..और साथ में दही शक्कर का नाश्ता अपना फेवरेट हुआ करता था...लेकिन जब मैं अपने बेटों के बारे में नाश्ते की बात करता हूं तो यह लगता है कि शायद ही कोई दिन हो जब वे नाश्ता कर के स्कूल गये हों......बस, एक गिलास दूध पी लेने से क्या होता है।

याद आ रहा है कि जब हम कालेज में थे तो ओपीडी में खड़े खड़े अगर किसी छात्रा को चक्कर जैसा महसूस होता था तो हमारे प्रोफैसर लोग लड़कियों को बड़ा डांट दिया करते थे कि तुम लोग सुबह का नाश्ता न करने के चक्कर में अपनी सेहत बिगाड़ लेती हो।

आज इस नाश्ता की बातों का ध्यान फिर से इसलिए आ गया क्योंकि आज विश्व डॉयबीटीज़ दिवस होने की वजह से अखबारों में खूब लिखा गया है इस की रोकथाम के बारे में ...टाइम्स ऑफ इंडिया के एक लेख में साफ़ साफ़ लिखा है कि एक पौष्टिक सुबह का नाश्ता भी मधुमेह रोग से बचाता है। 

सोचने वाली बात यही है कि क्या हम लोग यह नहीं जानते......जानते तो हैं लेकिन आज कल की युवा पीढ़ी अपने नाश्ते को गोल करने के चक्कर में पड़ी है, वह अपने आप में जीवनशैली से संबंधित बीमारियों को एक खुला आमंत्रण जैसा है।

मैं अकसर सुबह सुबह देखता हूं कि कुछ श्रमिक ईंटों के बीच आग जला कर जो नाश्ता बना रहे होते हैं ...मोटी मोटी रोटियां और साथ में कोई सब्जी पका रहे होते हैं....नाश्ता इस तरह से करने पर ही वे फिर दिन भर मेहनत के लिए तैयार हो पाते हैं।

उस दिन मैं एक हृदय-रोग विशेषज्ञ की बातें आपसे साझा कर रहा था तो वह भी यही बात कह रहे थे कि सुबह का पौष्टिक नाश्ता तो बहुत ज़रूरी है ही क्योंकि यह िदन भर आप के एनर्जी के स्तर को कायम रखता है।

अब पौष्टिक की परिभाषा क्या है, इसे भी समझना ज़रूरी है.....रोटी-सब्जी, दलिया, दोसा, इडली...कुछ भी जो आम तौर पर हम लोग खाते हैं यह अच्छे नाश्ते की ही श्रेणी में आता है। लेिकन बड़े शहरों में जाते जाते रास्ते में वड़ा-पाव ले कर खा लेना, कचौड़ी-समोसा रोज ही खाना, कुछ भी बिस्कुट-पाव-टोस्ट लेकर खाना....यह पौष्टिक नाश्ते के उदाहरण नहीं हैं और ना ही रोज़ रोज़ घी में तैर रहे परांठे आदि खाना ही सेहत के लिए ठीक है।

अब देखते हैं कि यह भी साधन संपन्न लोगों में एक ट्रेंड हो गया कि नाश्ते के साथ फलों का रस लेना...और वह भी ब्रांडेड किसी कंपनी का ही......नहीं, या तो ताज़ा फ्रूट जूस ही लें, अन्यथा फ्रूट ही खाना ठीक है। यह बोतल वोतल वाले फलों के रस एक आध दिन के लिए तो ठीक हैं, रोज़ रोज़ इन्हें लेना मुनासिब नहीं है...वैसे यह कोई मुद्दा नहीं है क्योकि ९९.९प्रतिशत लोग इस देश में रोज़ाना सुबह नाश्ते के साथ जूस लेते भी नहीं है, ले पाने में असमर्थ भी होते हैं और इस तरह के नाश्ते हिंदी सीरियलों में ही दिखते हैं....

अब डबलरोटी का बात कर लें......अपनी अपनी च्वाईस है, मेरा बेटा ब्राउन ब्रैड देख कर यही समझता है कि यह गेहूं की क्वालिटी ही है जिसने ब्रेड को ब्राउन कर दिया है........नहीं, ऐसा बिल्कुल भी नहंीं है, जितना मैं समझा हूं ये सब कलर्ज़-वलर्ज़ का कमाल है......वरना ब्रेड तो ब्रेड ही है।

पता नहीं मैं अपनी पसंद क्यों बीच में घुसानी शुरू कर देता हूं.....लेकिन मुझे ब्रेड से बहुत नफ़रत है......सिंकी हुई ब्रेड तो मैं फिर महीने में एक आध बार खा लेता हूं लेकिन िबना सिंकी ब्रेड तो मैं चख भी नहीं पाता.....चलिए, हर बंदे की अपनी पसंद नापसंद है........वैसे ब्रेड बनती तो मैदे से ही हैं......और मैदा (refined flour) खाना सेहत के लिए अच्छी बात नहीं है।

फिजूल में इतना कुछ लिख दिया कि नाश्ता कैसा हो, कैसा न हो.....हर बंदे को अपने सामर्थ्य के अनुसार पता ही रहता है कि अच्छा नाश्ता कैसा होता है...फिर भी हम लिखने वाले हैं, हमें तो बस लिख कर ही तसल्ली होती है। असल बात तो है सुबह सवेरे अच्छा सा नाश्ता करने की.......जैसा कि आप समझ ही गये हैं कि अच्छे का मतलब कदापि नहीं है कि महंगा.......सीधे, सादे, हिंदोस्तानी घर में तैयार नाश्ते से बढ़ कर भी क्या कोई ज़्यादा पौष्टिक सुबह का नाश्ता है?...नहीं।

बिना नाश्ता किए बच्चों का मन पढ़ाई में, काम करने वालों का काम में कैसे लगता होगा, यह भी एक रिसर्च का विषय है।

आशा है कि आप तो सुबह सवेरे एक अच्छा सा ब्रेकफास्ट ज़रूर कर ही लेते होंगे, बहुत अच्छा करते हैं, इस आदत को मत छोड़िएगा.....बहुत अच्छी और सेहतमंद आदत है।

गुरुवार, 13 नवंबर 2014

जीवनशैली से संबंधित कुछ छोटी छोटी बड़ी बातें...

बीते सोमवार बाद दोपहर में मैं विविध भारती पर पिटारा प्रोग्राम के अंतर्गत एक सुप्रसिद्ध हृदय रोग विशेषज्ञ की इंटरव्यू सुन रहा था...एक घंटे का कार्यक्रम होता है यह.....और रेडियो पर प्रसारित होने वाले सेहत संबंधी बेहतरीन कार्यक्रमों में से यह एक है।

बातें उन्होंने बहुत अच्छे से सभी समझाईं......दिखने में छोटी छोटी बातें थीं लेकिन इन का हमारी सेहत पर कितना गहरा प्रभाव होता है।

अच्छा शुरूआत करते हैं पानी पीने की बात से......आप ध्यान करें तो या तो आप को किसी ने कभी न कभी कहा होगा या आप ने आगे किसी से यह कहा होगा कि रात में सोते समय पानी मत पियो..क्योंिक फिर रात में बाथरूम जाने के लिए उठना पड़ेगा।

उस विशेषज्ञ ने बताया कि यह एक बहुत गलत बात है। वैसे ही आज कल लोग बंद दफ्तरों में वातानुकूलित कक्षों में काम करते हैं जिस की वजह से उन्हें वैसे ही प्यास कम लगती है...लेिकन इस का मतलब यह नहीं है कि शरीर में पानी की आवश्यकता नहीं है। शरीर को विभिन्न क्रियाओं के लिए पानी चाहिए.... जो भी विषैले तत्व शरीर में उपलब्ध हैं, उन को बाहर निकालने के लिए भी पानी ही चाहिए... इसलिए वह डाक्टर यह सलाह दे रहे थे कि आफिस में काम करने वालों को वाटर-कूलर तक जा कर पानी पीने की आदत डाल लेनी चाहिए.... ज़रूरी नहीं कि प्यास लगे तभी वाटर कूलर का रूख करना है। वह तो यह भी कह रहे थे कि हर घंटे के बाद एक गिलास पानी पीना चाहिए।

डाक्टर साहब आज के युवा प्रोफैशनल्ज़ की भागती दौड़ती जीवनशैली के बारे में बात करते कह रहे थे कि किस तरह से आज कल युवा १५-१६ घंटे कुर्सी टेबल पर ही बैठे रहते हैं.....ढंग से खाने का समय नहीं, एक्सरसाईज़ का समय नहीं... बस कुछ भी जंक फूड खाते रहते हैं... ऊपर से सिगरेट, तंबाकू .. ऐसे में वह बता रहे थे कि कोई ताजुब्ब की बात नहीं कि छोटी उम्र के युवा भी दिल के रोग का शिकार होने लगे हैं।

बड़ी अच्छी बात बता रहे थे कि सारे दिन के २४ घंटों में से कम से कम आधा एक घंटा तो हमें अपने शरीर को भी देना चाहिए। सुबह जल्दी उठ कर ३०-४५ मिनट का भ्रमण करना ही इतना लाभदायक होता है।

सुबह ११-१२ बजे फ्रूट ब्रेक की बात कह रहे थे .. बहुत बढ़िया लगी यह बात.... शाम को ४ बजे भी कोई फ्रूट आदि को लेने की एडवाईस दे रहे थे।

अभी मुझे लिखते लिखते यही लग रहा है कि कितनी बातें हम लोग स्कूल के दिनों से जानते हैं कि क्या खाना है, कितना  व्यायाम करना है, प्रातःकाल का भ्रमण क्यों ज़रूरी है...फल क्यों ज़रूरी हैं, तंबाकू और शराब क्यों खराब है.....सब कुछ हम सैंकड़ों बार पढ़ सुन चुके हैं.....लेकिन फिर भी सभी डाक्टर अपने अपने पेशे से संबंधित बिगड़े से बिगड़े देखते हैं.....आज ही मैंने एक ४५ वर्ष के आदमी को देखा, पहले पान खाता था फिर गुटखा शुरू कर दिया....उस के कागज़ बता रहे थे कि चार वर्ष पहले भी डायग्नोज़ हुआ था कि मुंह का कैंसर है......लेकिन अब इतना ज़्यादा फैल चुका था कि ऊपर वाले होंठ से बाहर की तरफ़ भी घाव दिख रहा था.....

मरीज़ों की खुशी हमें खुश कर देती है और मरीज़ों का दुःख हमें दुःखी कर जाता है.....हम लोग भी कोई सुपर-हयूमन थोड़े ही ना हैं......बहुत मूड खराब होता है .......मैं कल ही सोच रहा था कि सरकारी अस्पताल की ओपीडी में बैठे बैठे इसलिए हम जैसे डाक्टर लोग पता नहीं कितनी बार मन ही मन दिल ही में कितनी बार रो लेते हैं और कभी जब मरीज़ को खुश देखते हैं तो हम भी खिल उठते हैं।

जीवनशैली की तरफ़ ध्यान देना है बड़ा ज़रूरी। Take care!!

बुधवार, 12 नवंबर 2014

यादाश्त के अनूठे कारनामे को सलाम...

आज से ठीक २० वर्ष पहले जब मैंने सिद्ध समाधि योग का प्रोग्राम किया...इन के एडवांस्ड रेज़िडेंशियल प्रोग्रामों में भाग लिया तो इन के सुपर मेमोरी प्रोग्राम के बारे में पता चला कि किस तरह से एक संतुलित जीवनशैली के बलबूते ये स्कूली बच्चों की यादाश्त को बहुत ही ज़्यादा सुधार देते हैं.....यह कार्यक्रम बहुत सुंदर था.....स्कूली बच्चों के स्कोर बढ़ाने के लिए इसे खूब इस्तेमाल किया गया...सब कुछ वैज्ञानिक ढंग से...बच्चों में योग, प्राणायाम् और ध्यान के द्वारा उन की यादाश्त बढ़ती देखी मैंने इस संस्था में।

फिर कुछ समय बाद देखा कि कुछ तरह के कमर्शियल लोग भी इस प्रोफैशन में आ गए......इन के विज्ञापन तो आप लोगों ने अखबारों में भी देखे ही होंगे ......और फिर हिंदी के अखबारों के वे विज्ञापन कि बच्चों को ये सिरिप पिला दें तो उन की यादाश्त इतनी ज़्यादा बढ़ जाएगी.........उस तरह की सारी बकवास से आप वाकिफ़ ही हैं।

चलिए, ये तो बातें होती रहेंगी लेकिन आज सुबह जब मैंने आज का टाइम्स ऑफ इंडिया देखा तो उस में एक न्यूज़-रिपोर्ट थी एक जैन साधु के बारे में.... ये २४ वर्ष के हैं जिन का नाम है.. मुनिश्री अजीतचंद्रा सागर जी...और आने वाले रविवार को बंबई के एक स्टेडियम में यह दर्शकों के ५०० प्रश्न लेंगे.....ये पांच सौ के पांच सौ प्रश्न याद कर लेंगे और फिर उन्हें बढ़ते या घटते क्रम में जैसा भी कोई चाहे ये उन सभी प्रश्नों के उत्तर देंगे। है कि नहीं, दांत के तले अंगुली दबाने वाली बात......मुझे भी ऐसा ही लगा।
यह इवेंट सरस्वती साधना रिसर्च फाउंडेशन आयोजित कर रही है।

इतना ही नहीं, जब वे सारे ५०० प्रश्न सुन लेंगे तो कोई श्रोता अगर बीच ही में कह देगा कि आप प्रश्न नंबर ६३ को रिपीट करें और उस का जवाब बताएं ...तो वह भी काम करेंगे।

कुछ इंगलिश में लिखता हूं जो पेपर में लिखा था.....अच्छा लगा था पढ़ कर....
The 'Shatavdhan' or 100-question challenge is a remarkable achievement in itself. The challenger must recall 100 questions posed by onlookers, and repeat the questions and answers in ascending and descending order: When the audience calls out a random number, say 21, he must remember the question against that number. Sunday's challenge involves 500questions, so the effort is five-fold.
The previous such challenge of 1,000 questions is believed to have been accomplished by another jain monk, Muni Sunder Suriswarji Maharaj Saheb, in the court of Raja Bhoj 500 years ago. He had earned the title of 'Sahastravdhani'.

और एक बात आप इन से केवल जैन धर्म से ही संबंधित सवाल नहीं पूछ सकते, बल्कि आप जटिल से जटिल अंकगणित और इतिहास के प्रश्न भी पूछ सकते हैं।

कितनी हैरान करनी बात है ना.......हो भी क्यों नहीं. दरअसल जैन धर्म दुनिया के सर्वश्रेष्ठ धर्मों में से है जो पूरी तरह से वैज्ञानिक जीवनशैली पर आधारित है..इन का सब कुछ संतुलन में रहता है....खानपान, विचार, आचार-व्यवहार.....इन की साधना........शायद इस सब का ही यह परिणाम होता होगा कि जैन साधु इस तरह की हैरतअंगेज सिद्धियां प्राप्त कर लेते हैं........सही तरह से जैन धर्म को मानने वालों से मैं हमेशा बेहद प्रभावित रहा हूं ..इन की बोलचाल...व्यवहार, सहज ही अपनी ओर आकृष्ट कर लेता है.....आप ने नोटिस किया होगा िक मैं जैन सरनेम की बात नहीं कर रहा हूं .....मैं उन लोगों की बात कर रहा हूं जो जैन हैं और जैन धर्म की मर्यादा में रहते हुए अपना जीवनयापन करते हैं........

मुझे भी रविवार का इंतज़ार है, कोई न कोई चैनल वाला तो इस इवैंट को दिखाएगा ही.....

वैसे मेरे विचार में आप ने मेरी बात तो सुन ली, अगर आप ओरिजनल खबर भी पढ़ना चाहें तो इस लिंक पर क्लिक कर के पढ़ सकते हैं....  Jain monk to recall 500 questions by audience.

मैंने यह सन्नाटा तो नहीं मांगा था....

कुछ दिन पहले मैं ट्रेन से लखनऊ से बंबई जा रहा था... सैकेंड ए.सी के डिब्बे में एक फैमली थी.. शायद किसी प्राईव्हेट कंपनी में काम कर रहे थे...और तबादला होने पर बंबई जा रहे थे.....छोटी छोटी दो बेटियां.....एक होगी कोई तीन चार वर्ष की और दूसरी तो अभी बहुत ही छोटी थी.....बोतल में दूध पीती थी।

इतनी बातें, इतनी बातें ......मैं तंग आ गया था.....लेकिन कोई करे तो क्या करे, किसी को कुछ कहा भी तो नहीं जा सकता कि आप बातें थोड़ी सी कम कर देंगे क्या..और बच्चे तो आज कल वैसे ही बच्चे नहीं रहे....वह छोटी लड़की कभी मां की क्लास लेनी शुरू कर दे कि आपने पापा को अभी ऐसा क्यों कहा.....हार कर मां को कहना ही पड़ता कि मैंने ऐसा कुछ नहीं कहा....लेकिन फिर वह बच्ची मां को कहने लगी....आप पापा को डांट को देती हो?

शायद बंदे के बापू का फोन आया......उसने शायद खुद पहले बात करनी चाहिए....तो फिर जब बच्ची की बारी आई तो शिकायत करने लगी अपने दादू से कि मुझे आप से बात भी नहीं करने देते।

सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था....पांच छः बार चाय भी पी चुके थे वे सब, दो तीन टमाटर के सूप और लंच डिनर अच्छे से संपन्न होने के बाद ...जैसे कहावत है ना......खाली दिमाग शैतान का घर........औरत को पता नहीं क्या सूझा कि वह एक कंट्रोवरशियल मुद्दा ले कर बैठ गई.....कि मैं तो फलां फलां जगह इन बेटियों से राखी भिजवाया करूंगी। बंदे ने कुछ ऐसा कहा कि हर जगह थोड़ा ही भेजती रहोगी राखियां.....बस फिर तो उस बंदी ने उस की ऐसी क्लास ली....कि आप बताओ कि आप के मना करने का कोई लॉजिक है या बस जो आप को अच्छा नहीं लगे, वह नहीं करना है। हाथ धो कर ऐसा उस के पीछे पड़ी कि उस ने भी जान छुड़वाई यह कह कर कि ठीक है, जहां जहां मन करे , भेज देना राखियां......

इतने लंबे समय के सफ़र में मैं उन की बातें सुन सुन कर इतना थक और पक गया कि उस दिन निश्चय किया कि अगली बार से लंबा सफ़र तो फर्स्ट एसी श्रेणी से ही करने की कोशिश करूंगा। यह भी सोचा कि कान में ठूंसने के लिए कोई प्लग आदि का भी पता करना चाहिए.........जैसे रोशनी में सोने के लिए आंख के ऊपर काली पट्टी भी तो मिलती है।

बहरहाल, वापिस भी लौटना था दो दिन बाद.......सैकेंड एसी में ही आना था....डिब्बे में आते ही दिखा कि एक १८-२० वर्ष की युवती एक अधेड़ उम्र की औरत के साथ (जो उस की मां थी, बाद में पता चला)...मेरे सामने वाली सीट पर बैठी हुई थीं। उस युवती ने चेहरे पर मास्क पहना हुआ था और सिर पर एक कैप जैसा कुछ कस के बांध रखा हुआ था....ठीक से पूरी बात नहीं कर पा रही थी.....अटक अटक के अपनी बात पूरी कर रही थी.....मैं समझ गया कि ये लोग टाटा अस्पताल में किसी कैंसर आदि का इलाज करवा के लौट रहे हैं।

जी हां, वही बात थी....मन बहुत बुरा हुआ जब पता चला.....मैंने पूछा नहीं ..मुझे ऐसे पहले ही से परेशान बंदे से पर्सनल से प्रश्न पूछने अच्छे नहीं लगते...क्या हरेक को वे बार बार वही बातें दोहराएं.....लेकिन रिश्तेदार और मित्रों के उन को जो फोन आ रहे थे उससे ही पता चला कि ये दोनों उस युवती का इलाज करवा के ही लौट रहे हैं..

मैंने उस महिला को कहा कि आप भी नीचे वाली सीट पर ही आ जाएं......मैं ऊपर चला जाता हूं क्योंिक उसे बार बार उस युवती को लेकर बाथरूम जाना पड़ रहा था....पानी भी मां उसे बार बार एक माप में बार बार पिला रही थी ... डाक्टरों ने ऐसा कुछ कहा होगा......बार बार उस युवती को जूता पहना कर, उसे थोड़ा सहारा देकर बाथरूम ले कर जातीं और लौट कर उसे फिर से सेटल करतीं।

मैं तो वैसे ही गाड़ी में चुपचाप ही रहता हूं.....मुझे नहीं याद कि हम लोग परिवार में भी जब चलते हैं तो ज़्यादा बातचीत करते हैं....हमारा सिर भारी होने लगता है....बस लेटे ही रहते हैं.....इसलिए मैं भी लेटा ही रहा पूरा दिन.....लाइट बंद.....उस केबिन में एकदम सन्नाटा सा ही रहा ... बस बीच बीच में कभी कोई फोन जब आता तो वे मां-बेटी बड़ी शालीनता से बात तो कर लेतीं........एक बार तो वे दोनों किसी से बात करते करते हंसने लगीं.......मुझे बड़ा अच्छा लगा.....वरना बेटी तो लेपटाप पर लगी रही अधिकतर और मां चुपचाप चिंता में डूबी ही दिखी।

उस महिला ने बताया कि यह इंजीनियर है, सर्विस करती थी ...फिर यह तकलीफ़ हो गई.... इलाज करवाने पर ठीक ही थी लेकिन फिर से ग्रोथ हो गई है ..अब फलां फलां अस्पताल टाटा वालों ने रेफर किया है.....मैंने नहीं पूछा कि किस जगह का कैंसर है, मुझे ठीक नहीं लगा उन के मन के घाव को कुरेदना....

जब मैं ऊपर वाली सीट पर लेटा हुआ था तो मैं चुपचाप यही सोच रहा है कि भगवान, मैंने ऐसा सन्नाटा तो नहीं मांगा था.......ईश्वर से यही प्रार्थना है कि सब लोग हंसते-खेलते, मुस्कुराते और स्वस्थ रहें........बातों का क्या है, कोई ज़्यादा बातें कर भी रहा है तो उन को सुनते रहने की आदत डालनी कौन सा मुश्किल काम है......उस पूरे दिन का सन्नाटा मेरे मन को कचोट रहा था।

लखनऊ स्टेशन पहुंचते पहुंचते मेरे से रहा नहीं गया....मैंने उस बेटी को इतना आशीर्वाद तो दिया ही.......God bless you with some magical recovery! Wish you all the very best!!

ईश्वर उस युवती को तंदरूस्त करे और आगे भी सेहतमंद रखे। आमीन!!

सोमवार, 10 नवंबर 2014

बंबई में अनानास बेचने का बढ़िया ढंग

बंबई की कुछ बहुत बढ़िया रिवायते हैं.....जैसे कि नारीयल को अच्छे से फोड़ कर ग्राहक को थमाते हैं..वे इस काम में पूरे एक्सपर्ट हैं.. गन्ने का रस कितने अच्छे से निकाल कर परोसते हैं उस के बारे में एक पोस्ट मैंने २००८ में लिखी थी जिस का लिंक यहां दे रहा हूं.... गन्ने का लुत्फ तो आप भी उठाते ही होंगे


दो दिन पहले मैं बंबई में था....सड़क पर एक अनानास बेचता हुआ दिख गया......यहां यह दिखाना चाहता हूं कि आप देखें कि कितना साफ़-सुथरा तरीका है अनानास बेचने का। फल को छीलने के लिए भी उस ने अपने हाथों पर पालीथान लपेट िलया है। मैंने जब इसे साफ़ सफ़ाई का एक नमूना बताया तो मुझे बताया गया कि वह यह पालीथान तो अपने आप को किसी चोट से बचाने के लिए लपेटता होगा......मैंने कहा कि जो भी हो......it is a win-win situation!


जहां तक मेरा अनुभव रहा इस फल को खाने का....अकसर तो फल वाले इसे बिल्कुल ऐसे का ऐसा ही थमा देते हैं। घर में आकर कौन इतनी सिरदर्दी करे......और देखा गया है कि घर में इसे इतने अच्छे से काटा जा भी नहीं सकता, इसलिए खाने में अच्छा नहीं लगता क्योंकि बीच बीच में कुछ सख्त सा हिस्सा आने लगता है।


लेकिन इन तस्वीरों में आप देखें कि दुकानदार कितनी साफ़-सफ़ाई से हर अनानास से उस के सख्त हिस्सों को कितनी निपुणता से अलग कर के और बाद में इस के टुकड़े कर के आप को पार्सल थमा देता है। बंबई की इस स्पिरिट को सलाम।


हां, एक बात है छः-सात वर्ष पहले एक बार देखा था कि किस तरह से मिलावटी अनानास को दिल्ली में बेचा जा रहा था, रंग में डुबो कर.....आप इस लिंक पर जा कर देख सकते हैं, वह भी मेरी आंखो-देखी ही थी......मिलावटी खान-पान के कुछ रूप ये भी। 

मुझे बंबई वाले पाईन एपल का फ्रूट को काटने का तरीका अद्भुत लगा इसलिए मैंने उसे कह कर इस की एक वीडियो बनाई जिसे यहां एम्बेड कर रहा हूं, देखिएगा.........



सोमवार, 3 नवंबर 2014

डिठवन पर्व है आज...

आज दोपहर बाद मैंने लखनऊ के बाज़ार में देखा कि बढ़िया बढ़िया क्वालिटी के गन्ने और शकरकंदी खूब बिक रही थी, मुझे यह अनुमान लगाते देर न लगी कि आज भी कोई त्योहार है, कोई तो व्रत है, पर्व है।

एक बुज़ुर्ग रिक्शेवाला मेरे पास आकर रूका......मैंने उस से पूछा....आज क्या कोई त्योहार है। उस ने बड़े उत्साह से मुझे जवाब दिया...हां, हां, यह डिठवन है। मुझे शब्द अच्छे से पल्ले पड़ा नहीं। फिर भी उस बेचारे ने तो मुझे दो बार दोहरा कर बताने की कोशिश तो की ही...इतने में उस की सवारी आ गई।

अभी मैं जब फिर से बाज़ार में निकला तो लोगों को ताबड़तोड़ गन्ने और शकरकंदी खरीदते देखा... मैंने एक बंदे को पूछ ही लिया कि इस त्योहार का क्या नाम है। तो उसने वही शब्द बोला ...मैंने उसे कहा कि आप ज़रा लिख दें.....मैं नेट पर देख लूंगा।

उसने लिख तो दिया ...चाहे उस ने ठीक से लिखा नहीं था, लेकिन इतना बता दिया कि यहां गांव-देहात में इसे डिठवन कहते हैं.....



अब मुझे यह तो पता नहीं कि यह पर्व कैसे मनाया जाता है लेकिन फिर से नेट पर हिंदी लिख लेने का एक फायदा यह तो है कि आप गूगल से तो पूछ ही सकते हैं.....पहले तो स्पैलिंग गलत ही थे, फिर आखिर जब डिठवन लिखा तो दिख गया कुछ कुछ अपने मतलब का।

जिस पन्ने पर जाकर मैंने इस पर्व के बारे में पढ़ा, आप भी इसे यहां जाकर पढ़ सकते हैं......मन साफ होंगे तभी होंगे हरि दर्शन 

कईं बार यही अहसास होता है कि हम लोग अपने शहर की जगहों को नहीं जानते, गली मोहल्लों के नामों से वाकिफ़ नहीं है, अपने ही कितने तीज-त्योहारों के नाम तक नहीं जानते, किसी दूसरे प्रांत में चले जाएं तो वहां पर कुछ ऐसी सब्जियां दिखती हैं जो पहले कभी देखी नहीं होती........सच में हमारा ज्ञान कितना सूक्ष्म है.....फिर भी हम लोग पता नहीं किस बात पर इतराए रहते हैं, नाक पर मक्खी नहीं बैठते देते....बात सोचने लायक है कि नहीं!!

शनिवार, 1 नवंबर 2014

जुबान के जख्म बहुत जल्द भर जाते हैं..

परसों मैंने अपनी एक पोस्ट में एक महिला की जुबान की कुछ तस्वीरें लगाई थीं....और उस लेख का शीर्षक था.....नुकीले दांत जुबान काट देते हैं। 

सारी विस्तृत जानकारी तो मैंने उस महिला की तकलीफ़ के बारे में लिख ही दी थी।

दो दिन बाद आज वह वापिस चैक अप के लिए आई थी। बड़ी खुश थी.....कह रही थी कि दर्द भी गायब, गले की सूजन भी ठीक और खाना पीना भी लगभग सही हो रहा है और जुबान का ज़ख्म भी ठीक होने लगा है।

दो दिन पहले जुबान का घाव
मैंने भी जब उस की जुबान को देखा तो बहुत खुशी हुई। दो दिन में ही कितना आराम हो गया......यह भी प्रकृति का एक करिश्मा ही है कि उसने हमारे शरीर में अथाह हीलिंग क्षमता भी दे रखी है। न तो इसे कोई ऐंटीबॉयोटिक दवाईयां ही दी गई थीं और न ही इस ने कोई भी दर्द निवारक गोलियां ही लीं। बस, वह दवाई ही दो दिन लगाई।

ऐसा नहीं है कि यह जख्म दवाई लगाने से भरने लगा ...नहीं,ऐसा नहीं.. अगर कोई भी दवाई न भी लगाई जाती तो भी यह ठीक तो होना ही था क्योंकि जो नुकीला दांत जुबान में गढ़ कर ज़ख्म पैदा कर रहा था, उस को गोल कर दिया गया था।
यह तस्वीर जो आज खींची बिना फ्लैश के है....

ये दोनों तस्वीरें दो दिन बाद ..(आज की हैं).... तेज़ी से ठीक होता ज़ख्म
यह लगभग वही बात है कि हम लोगों को जब कोई नया नया जूता काटने लगता है तो हमारे पैर में ज़ख्म सा हो जाता है.....वैसे आज कल के युवा ज़्यादा चुस्त चालाक है, कम साईज़ का जूता पहनते ही नहीं हैं, हम जैसे थोड़े ना कि दुकान में जा कर शर्म इतनी आने लगती कि दुकानदार की चिकनी-चुपड़ी बातों में आकर तंग जूता खऱीद कर आ जाते थे और फिर उस में रूई और सरसों का तेल आदि लगा लगा कर कईं दिन तक कुछ जुगाड़ किया जाता था.....कईं बार तंग जूते के काटने से ज़ख्म भी हो जाता अगर तो फिर उस का इस्तेमाल कुछ दिन के लिए रोक दिया जाता .. और जूता खुलवाने के लिए किसी मोची को दे दिया जाता.......आप भी ना......ऐसे मजे ले लेकर पढ़ रहे हैं कि जैसा आपके साथ कभी ऐसा हुआ ही न हो....

कोई बात नहीं, बस यह छोटी सी पोस्ट यही बताने के लिए कि मुंह में घाव-वाव होने पर घबराईए मत, दंत चिकित्सक से अवश्य मिल लिया करें, इस महिला को भी यह ज़ख्म ६ महीने से था, डर रही थी कि कहीं कैंसर ही न हो.....चलो, अच्छा हुआ एक मरीज़ ठीक हुआ, उस की चिंता भी दूर हो गई। 

गुरुवार, 30 अक्तूबर 2014

दांतों का अपनी जगह से सरक जाना भी है पायरिया का लक्षण

यह ५०- ५५ वर्ष की महिला के दांतों की तस्वीर है.....आई तो थी ये दांत दिखाने नीचे वाले दांत....लेकिन उस ने पहले ही यह रिक्वेस्ट कर दी कि डाक्टर साहब, दांत छुईएगा मत। उसे डर था कि दांतों को चैक करने से दांत और भी हिल जाएंगे। ठीक है, जैसा वह चाहें। लेकिन देख तो सकते ही हैं।

आप इस महिला के नीचे वाले दांत इस तस्वीर में देख रहे हैं......इस ने यह भी बताया कि ये जो नीचे के दांत हैं इन सब में पहले थोड़ी थोड़ी जगह थी लेकिन अब दो दांत को बिल्कुल आपस में सट गये हैं......ऊपर वाले अगले दांतों में जैसा कि आप भी देख सकते हैं, गैप है......यह महिला बता रही थीं कि यह गैप बढ़ गया है...और एक दांत थोड़ा सा नीचे सरका दिख रहा है।

एक अहम् बात जो मैं इस पोस्ट के माध्यम से आप से शेयर करना चाहता हूं ... वह यह है कि अगर आप को लगे कि आप के दांतों में गैप बढ़ रहा है, या जहां पर पहले गैप नहीं था, अब बनने लगा है....और या फिर दो दांतों की आपस में घनिष्ठता ऐसी बढ़ने लगी है कि वे पहले से ज़्यादा पास पास आने लगे हैं या फिर कोई दांत अपनी जगह से उठा हुआ या लटका हुआ महसूस हो रहा तो .....यह सब पायरिया रोग के लक्षण हो सकते हैं......आप अपने दंत चिकित्सक से अवश्य मिल लें।

दरअसल होता यह है कि पायरिया में पहले तो मसूड़ों की सूजन होती है.....आम तौर पर लोग इसे अपने ही ढंग से.. कुछ मंजन वंजन लगा कर ठीक करने की नाकामयाब कोशिश करते रहते हैं...या फिर ब्रुश ही करना छोड़ देते हैं......इस का परिणाम यही होता है कि मसूड़ों की यह सूजन नीचे जबड़े की हड़्डी की तरफ़ बढ़ कर उसे नष्ट करना शुरू कर देती है....जिस के परिणामस्वरूप दांतों का यह हिलना-डुलना और अपनी जगह बदलना शुरू हो जाता है.....इसे डैंटल भाषा में हम कहते हैं......Pathological Migration of Teeth.

रही बात इस महिला की .....आज इस की पहली विज़िट थी.....आएंगी यह दो दिन बाद अपने पेस्ट और ब्रुश के साथ.....इलाज तो करेंगे ही ...चांद दिलाने का वायदा तो नहीं किया जा सकता लेकिन जो स्थिति है उसे तो बदतर होने से हर समय हम रोक ही सकते हैं.......यही बात जब मैंने उस से कही तो उस की समझ में आ गई। थैंक गॉड!!

खुरदरे मंजन की बरबादी की इंतहा

खुरदरे मंजन इस देश की एक विषम समस्या है.. कुछ भी फुटपाथ, बस स्टैंड आदि पर बिकता रहता है.. मंजन के नाम पर.. ब्रेंडेड मंजन-पेस्टें भी कहां कम है, कल मैंने एक मरीज़ के दांतों का उदाहरण लेकर कुछ लिखा था... खुरदरे मंजन दांत काट देते हैं।

डैंटल एबसेस ..घिसे हुए दांत की वजह से
और कल शाम को ही वह सूजे हुए मुंह के साथ आ गया.....अंदर देखने पर जो दिखा यह वह तस्वीर है। यह उसी दिन वाला ही मरीज़ है जिस का लिंक मैंने ऊपर दिया है।

बड़ी परेशानी में था, दांत चैक करने पर भी उसे परेशानी हो रही थी.....वैसे तो चैक करने लायक कुछ खास था भी नहीं...यह जो आप सूजन देख रहे हैं....यह भी खुरदरे मंजन का ही प्रकोप है......होता क्या है ना कि खुरदरे मंजन दांतों को घिसते रहते हैं.....और यह तब तक चलता ही रहता है जब तक दांत की नस नंगी नहीं हो जाती (उस के बाद भी चलता ही है यह सिलसिला)... छोटी मोटी दर्द होती है, मरीज़ बाज़ार से लेकर कोई टेबलेट खा लेते हैं......यह फिर दांत के फोड़े (dental abscess) का रूप धारण कर लेता है.... जैसा कि आप इस मरीज़ में देख रहे हैं......आप देखिए कि इस का किनारे का एक दांत पूरी तरह से घिसा हुआ है.....जिस की वजह से यह सब पस जैसा आप देख रहे हैं...

मैंने इस में से पस निकालनी चाहिए लेकिन उस ने मना कर दिया......कोई बात नहीं, दवाई दे दी है.....एक दो दिन में यह फोड़ा अपने आप ही फूट जाएगा......वरना उसे फिर से दो दिन बाद बुलाया है.....फूटे या ना फूटे तो भी.......बाद में उस दांत की रूट कनाल ट्रीटमैंट (RCT) की जायेगी और यह ठीक हो जाएगा।

तो आपने देखा कि ये खुरदरे मंजन कितने खतरनाक हैं हमारी सेहत के लिए......बच के रहिएगा। 

नुकीले दांत जुबान काट देते हैं

चार वर्ष पहले एक मरीज़ मेरे पास आया था जिस के टूटे-फूटे दांत की वजह से उस की जुबान पर एक भयंकर सा दिखने वाला ज़ख्म बन गया था। जिस दिन वह मेरे पास आया था बड़ा डरा हुआ था, मैंने उसे समझाया कि इस टूटे दांत को पहले उखाड़ देते हैं.....वही किया, और बिना कुछ किए ही वह ज़ख्म एक हफ्ते में अच्छा होने लगा था। इस की रिपोर्ट आप मेरे इस इंगलिश ब्लॉग पर देख सकते हैं... Broken Teeth Damage Tongue. 

उस से भी पहले.... लगभग पांच वर्ष पहले एक ऐसा ही मरीज़ था जिस के नुकीले दांतों ने जुबान पर चोट कर कर के कैंसर की बीमारी उत्पन्न कर दी थी, उस के बारे में जान कर बड़ी परेशानी हुई थी......वह आदमी ज़्यादा दिन निकाल नहीं पाया था...

आज भी यह जो महिला आई....यह भी कैंसर के खौफ़ से ही ग्रस्त थी......आप देख सकते हैं इस तस्वीर में किस तरह से इस की जुबान पर भी यह ज़ख्म बना हुआ था। यह पिछले लगभग छः महीनों से है.....बता रही थी कि पता नहीं कैसे हो गया, लेकिन अभी कुछ दिनों से खाना खाने में दिक्कत है, अपनी लार भी नहीं निगल पाती और नीचे जबाड़े के नीचे भी सूजन और दर्द होने लगा है।

नुकीले दांत ने बना दिया जुबान पर ज़ख्म 
आप यहां यह भी देख सकते हैं कि किस तरह से एक टूटा हुआ नुकीला दांत इस ज़ख्म के सामने ही पड़ा है जिस के बार बार घर्षण करने से यह ज़ख्म हो गया है। उसे बताया तो उसे इत्मीनान हुआ....उस की परेशानी देखते हुए अभी तो उस टूटे हुए दांत की नोक ही खत्म कीं और ज़ख्म पर लगाने वाली कुछ दवाई दे दी है.......उम्मीद है कि तीन चार रोज़ में यह ज़ख्म ठीक होने लगेगा...देखने में तो यह कैंसर नहीं लग रहा....बाकी, कुछ दिन बाद ही पता चल पाएगा.....जब यह घटने लगेगा। चार दिन बाद यह वापिस दिखाने आएगी।

नुकीले दांत जुबान में और मुंह में तरह तरह की परेशानी पैदा करते हैं, इन का इलाज करवा लेना चाहिए ...विशेषकर अगर आप को लगे कि इन की वजह से मुंह में कहीं न कहीं ज़ख्म बन रहा है।

अपना ध्यान रखिएगा, एक बात याद आ गई ....
खुदा को भी नहीं पसंद सख्ती जुबान में
इसीलिए नहीं दी हड्डी जुबान में।।

बुधवार, 29 अक्तूबर 2014

काश, तहज़ीब भी एक विषय होता...

मुझे कईं बार उन बाप बेटे की याद आ जाती है.. अरसा बीत गया इस बात को.....२० वर्ष का वह लड़का था और उस के पिता की उम्र ४५-५०के बीच ही थी....पिता को एडवांस कैंसर था। जिस दिन वे मेरे से बात कर रहे थे.. वे इलाज की बात तो कम कर रहे थे...बार बार एक डाक्टर की बात याद कर रहा था वह लड़का.....याद करते करते रूआंसा हो गया था....दरअसल वे जिस डाक्टर के पास गये थे, उसने बस उन्हें एक विशेष अस्पताल में रेफर करना है....औपचारिकता होती हैं कईं सरकारी विभागों की....तो उस डाक्टर ने इन्हें देख कर कह दिया....."एक तो आप बहुत जल्दी आ गये हो।"

मैं उस दिन उस लड़के के मुंह से यह बात सुन कर बहुत दुःखी हुआ था। एक तो वे लोग पहले ही से परेशान...किस तरह से जूझ रहे होंगे वे इस सच्चाई से....ऊपर से एक पढ़ा लिखा डाक्टर इस तरह का भद्दा कटाक्ष कर दे....क्या यह किसी अपराध से कम है?

सोचने वाली बात यह है कि क्या उन्हें नहीं पता मरीज की हालत देखते हुए कि देर हो गई.....फिर उसे यह याद दिला कर और इस तरह के बेहूदा तरीके से तकलीफ़ पहुंचाने से क्या हासिल।

ऐसे भी एक डाक्टर को जानता हूं जिस के बारे में बुज़ुर्ग औरतें कहा करती थीं कि हर उम्रदराज़ इंसान को मजाक के अंदाज़ में यही कहता है कि बाबा, माता, हुन गोड़ेयां च ग्रीस खत्म हो गई ऐ.. (बाबा, माता, अब घुटनों में ग्रीस खत्म हो गई है)...क्या यह बताने के लिए तुम बैठे हो। ग्रीस खत्म है, कम है, अब ग्रीस वापिस नहीं लगने वाली, ये सब बातें बुज़ुर्ग लोग हम से कहीं बेहतर जानते हैं। तुम्हारा काम था... उन को हौंसला देना, उम्मीद की चिंगारी लगा देना......अगर यह भी नहीं कर सकते, तो काश, तुम डाक्टर ही न बने होते।

कुछ अरसा पहले शायर मुनव्वर राना साब को सुनने गया था, उन की बात याद आ गई....
हम फ़कीरों से जो चाहे दुआ ले जाए..
खुदा जाने कब हम को हवा ले जाए...
हम तो राह बैठे हैं ले कर चिंगारी, 
जिस का दिल चाहे चिरागों को जला ले जाए।।

ये तो चंद उदाहरणें हैं दोस्तो, यह सच है कि हमें बात करने की तहजीब ही नहीं है। हम बोलने से पहले सोचते नहीं है, शब्दों को तोलते नहीं हैं......

लेकिन मेरी एक आब्ज़र्वेशन यह भी है कि जितने ज़्यादा पढ़े लिखे और अनुभवी चिकित्सक होते हैं उन में उसी अनुपात में विनम्रता भी बढ़ जाती है। एक नाम याद आ गया .....टाटा अस्पताल के डा एस ए प्रधान का, जब मैं TISS में १९९२ में पढ़ाई कर रहा था तो वे हमें एक विषय पढ़ाते थे ...मैं दंग रह जाता था उन की विनम्रता को देख कर, बातचीत का ढंग, इतनी शांतिपूर्ण स्वभाव......क्या कहने !! वैसे तो मैं ऐसी बहुत सी शख्शियतों को जानता हूं और इन से निरंतर इंस्पीरेशन लेता हूं।



हास्पीटल एडमिनिस्ट्रेशन का कोर्स था ... एक विषय हमें मैडीकल एंड साईकैट्रिक सोशल वर्क भी पढ़ाया जाता था.....आंखें उस दौरान भी खुली कि चिकित्सीय समस्याओं का सामाजिक, मनोवैज्ञानिक पहलू भी इतना नाज़ुक होता है। काश, मैडीकल कालेजों में यह विषय चिकित्सा शिक्षा में भी सम्मिलित कर लिया जाए तो बात ही बन जाए।

चिकित्सा प्रणाली में काम कर रहे हर व्यक्ति को मानवीय पहलुओं को समुचित ज्ञान होना नितांत आवश्यक है, बिना इस के तो सब कुछ एक धंधा है, जितनी मरजी बदतमीजी करो, जितना मरजी शोषण करो, कोई पूछने वाला नहीं, जितनी मरजी कमाई करो.........क्योंकि अब शिकार फंसा हुआ है। धिक्कार ही तो है इस तरह के रवैये पर।

अब मैं अपनी तहज़ीब की बात भी कर लूं.......मेरे मन में विचार आया और मैंने इस विषय पर अपने भाव प्रकट कर दिए.....इस का यह मतलब तो नहीं कि मैं बहुत तहज़ीब वाला इंसान हूं.......ऐसा नहीं मानता मैं, जैसे मैं किसी की बात यहां लिख रहा हूं, कोई मेरी बदतमीजीयों के किस्से कहीं और साझे करता होगा........ज़रूर।

यह पोस्ट केवल यह याद दिलाने के लिए......अपने आप को सब से पहले......कि मरीज़ से ढंग से बात करना... सब से ज़रूरी बात है.....चिकित्सा जितना ही महत्व रखती है यह बात कभी कभी......अकसर यह भी सोचता हूं कि वह डाक्टर ही क्या, जिस से केवल बात कर के ही मरीज़ अपने आप को आधा ठीक ना महसूस कर पाए........दवाईयां तो बाद में काम करेंगी ही।

नोट.......सारी बातें सच हैं, कुछ भी गढ़ने की आदत नहीं है...गढ़ूं भी तो आखिर क्यों, क्या हासिल!!

बीड़ी अगर मुंह जला सकती है.....

 दाईं तरफ़ के गाल के अंदर की तस्वीर 
जिस आदमी के मुंह की तस्वीर आप यहां देख रहे हैं इस की उम्र ५९ वर्ष है .....मेरे पास दांत के इलाज के लिये आया था दो दिन पहले।

यह व्यक्ति बीड़ी पीता है, लेकिन इसे इस तरह के गाल के ज़ख्मों की वजह से कोई परेशानी नहीं है, इन्हें बस कभी कभी मिर्ची लगती है मुंह में। इन्हें यह भी नहीं पता कि मुंह में ऐसे कुछ ज़ख्म भी हैं।

जब मैंने इन्हें कहा कि आप ओपीडी में लगे आइने में देख कर आएं तो इन्हें कुछ नहीं दिखा.......जब मैंने ये तस्वीरें इन्हें दिखाईं तो यह मेरी बात को समझने की कोशिश करते हुए नज़र आए।

यह जो आप इन के दाएं और बाएं गाल में लाल से जख़्म देख रहे हैं.....इसे एरिथ्रोप्लेकिया के नाम से जाना जाता है......ये बीड़ी-सिगरेट के पीने से होते हैं.....यह भी कैंसर की एक पूर्वावस्था ही है.......we call it Precancerous Oral Lesion.

बाईं तरफ़ के गाल का अंदरूनी हिस्सा ..बीड़ी का प्रकोप
इन्हें समझाया तो है बहुत, प्रेरित किया है कि छोड़ दें अभी भी ये सब तंबाकू-वाकू की आदतें। उम्मीद है मान जाएंगे। इस तरह के ज़ख्मों का इलाज ही यही है कि पहले तो तंबाकू को त्याग दिया जाए, फिर कुछ दिनों के बाद इस ज़ख्म का इलाज किया जाए......कोई भी क्रीम या जैल आदि इस तरह के ज़ख्म पर लगाने से यह ज़ख्म ठीक होने वाला नहीं है। इस का पूरा इलाज होना चाहिए ... और सही टैस्टिंग भी ज़रूरी है।

धूम्रपान करने वाले लोगों में इस तरह के ज़ख्म मुंह में बहुत ज़्यादा संख्या में पाए जाते हैं......ज़रूरत है उन्हें अवेयर करने की कम से कम इस अवस्था में तो इस ज़हर के सेवन को बंद कर दें.........भाग्यवान होते हैं जो बात मान लेते हैं ....वरना कुछ भी हो सकता है........इस तरह के ज़ख्म मुंह के कैंसर को भी जन्म दे सकते हैं। फिर कोई कह नहीं पाता कि पहले किसी ने सचेत नहीं किया था।

मैं अकसर इन मरीज़ों को कहता हूं कि देखो भाई अगर बीड़ी-सिगरेट मुंह में इस तरह से उत्पात मचा कर इस तरह के जख्म पैदा कर सकती है....तो शरीर के अंदरूनी सभी हिस्सों में यह क्या क्या नहीं करती होगी?..आप फेफड़ों की कल्पना कीजिए, शरीर की खून की नाडियों का सोचें, उन्हें तो हम इतनी आसानी से नहीं देख पाते जितना मुंह में  झट से झांक लेते हैं........इसलिए ये बातें मेरे मरीज़ों पर बहुत असर करती हैं........और यह बिल्कुल सच बातें हैं।

बीड़ी के बारे में लिखते ही, बीड़ी-सिगरेट का घोर विरोधी होते हुए भी मुझे गुलज़ार साहब का वह गीत याद आ ही जाता है........काश, बीड़ी सिगरेट का ध्यान आते ही पब्लिक वह गीत सुन कर ही काम चला लिया करे.........



खुरदरे मंजन दांत काट देते हैं.....पेश है प्रूफ़

खुरदरे मंजन की मार खाए ये आगे के दो दांत 
यह पुरूष जिस के अगले दो दांतों की तस्वीर आप देख रहे हैं, इस की उम्र ५०-५५ के करीब की है, इसे इस तरह के आगे के दो दांत घिसे होने की वजह से कोई शिकायत नहीं है, इन दांतों का तो इसने मेरे से कोई ज़िक्र ही नहीं किया.....यह दूसरे किसी दांत के इलाज के लिए मेरे पास आया था।

सरकारी अस्पताल में दंत चिकित्सक होने की वजह से बहुत सा समय लोगों का तंबाकू-ज़र्दा छुड़वाने में या फिर खुरदरे मंजनों के बुरे प्रभावों पर प्रवचन देने में निकल जाता है। मुझे ऐसा लगता है कि शायद निजी प्रैक्टिस कर रहे दंत चिकित्सकों के पास ना ही तो इस तरह की बातों के लिए इतना समय ही होता है और शायद न ही मरीज़ ये तंबाकू-वाकू की बातें उन के मुंह से सुनने में रूचि ही रखते होंगे.....यह सोच कर कि फीस भर के यह सब तो थोड़े ना सुनने आए हैं। यह इसलिए भी कह रहा हूं कि इस तरह की चीज़ों की इतनी ज़्यादा पब्लिक एक्सेप्टेंस हो चुकी है कि मेरे पास कईं बार मरीज़ जब दांत दिखाने आते हैं.....तो मुंह में पान दबाया होता है। आज से बीस वर्ष पहले मैं भड़क जाया करता था, लेकिन अब समझ चुका हूं कि इस तरह से ओवर-रिएक्ट करने से कुछ भी तो हासिल नहीं होता। शांति से कह देता हूं कि ज़रा मुंह ही साफ़ कर के आते तो दांत तो दिख जाते।

हां, तो जिस तस्वीर को आपने देखा .. वह आदमी अपने दांतों पर एक पापुलर ब्रांड का मंजन पिछले छः वर्षों से कस के रगड़ रहा था, रिजल्ट आप के सामने है। मैंने पूछा कि वह मंजन तो आप सभी दांतों पर ही घिसते होंगे तो कहने लगा कि करता तो हूं, चूंकि ये अगले दो दांत कुछ ज़्यादा ही पीले से थे, इन पर विशेष ध्यान दिया करता था।

आपने देखा कि किस तरह से ये खुरदरे मंजन दांतों को नष्ट कर देते हैं। बीसियों बार इस तरह के विषय पर लिख चुका हूं.....बार बार लिखता हूं क्योंकि मुझे लगता है कि विषय को दोहराना भी ज़रूरी है, वरना हम भूल जाते हैं।
ये कटे-फटे दांत तो मैं इस के ठीक कर ही दूंगा......आराम से हो जाएगा.......पता भी नहीं चलेगा कि इन पर कुछ काम हुआ है।

कल मैं एक माल में गया था.....वहां पर बीसियों तरह की पेस्टें मंजन देख कर, उन के चमकीले, खूबसूरत कवर देख कर अच्छा लग रहा था.....यह भी अरबों-खरबों का एक व्यवसाय है -- किसी को भी भ्रमित किया जा सकता है.....मैंने जब उस पापुलर ब्रैंड की पेस्ट को उठाया तो उस पर साफ़ लिखा था कि उस में गेरू मिट्टी भी मिली हुई है......ठीक है, इंगलिश में लिखा हुआ था, लोग समझ ही नहीं पाएंगे.......लिखा था ... Gairic powder..... यह गेरू मिट्टी ही होती है...इस मिट्टी की वजह से जब इस तरह के मंजन को दांतों पर घिसा जाता है तो दांत पूरी तरह से नष्ट हो जाते हैं, मैंने अपनी फ्लिक्र फोटोस्ट्रीम पर भी इस तरह की कईं तस्वीरें डाली हुई हैं, लेकिन पब्लिक को बार बार सचेत करना ज़रूरी जान पड़ता है।

लगे हाथ यह भी बता ही दिया जाए कि यह गेरू मिट्टी का लफड़ा है क्या, यह कौन सी मिट्टी है,  तो सुनिए जनाब यह वह मिट्टी है जो बाज़ार में बिकती है जिसे हमारा माली पानी में घोल कर गमलों को लाल रंग देने के लिए इस्तेमाल करता है।

भूलने वूलने की बात से मुझे यह सुंदर सा गीत याद आ गया.....सुनिए आप भी.....

तालू की हड्डी भी बढ़ सकती है...

तालू के बीचो बीच बढ़ी हुई हड्डी 
यह जो तस्वीर आप देख रहे हैं एक ३५-४० वर्ष की महिला की है, इस के तालू में आप नोटिस कर रहे हैं कि बीच में हड्डी बढ़ी सी हुई है......उठी सी हुई है।

यह मेरे से अपने दांतों का इलाज करवा रही है.....मैंने पूछा कि क्या उसे पता है कि उस के तालू में कुछ है। उसने कहा...नहीं। जब मैंने उसे यह तस्वीर दिखाई तो वह थोड़ी परेशान हो गई, मैंने कहा ....नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं है जिस के िलए परेशान हुआ जाए।

आखिर यह है क्या, इस तरह से जो इस के तालू के बीचो बीच उठा हुआ है.......यह जो उठी हुई हड्‍डी आप देख रहे हैं इसे मैडीकल भाषा में टोरस प्लैटिनस (torus palatinus) कहा जाता है। इस का कोई भी नुकसान नहीं है, न ही अकसर इस का कोई इलाज चाहिए होता है।

मैंने उसे कहा कि दांतों की साफ़-सफाई की तरफ़ पूरा ध्यान दिया करे,  जब बुढ़ापे में नकली दांतों का सैट लगेगा (अगर ज़रूरत पड़ी तो) तो इस तरह की हड्‍डी कईं बार परेशानी पैदा करती है.....उसे वहां से काटना पड़ता है। यह सुन कर वह हंसने लगी।

जी हां, यह महिला का सौभाग्य ही है कि उसे पता ही नहीं था कि उस के तालू में ऐसा कुछ है, वरना इस torus palatinus की वजह से कुछ मरीज़ों के दिल में यह भम्र हो जाता है कि यह कैंसर जैसा कुछ है .......जब वे किसी दंत चिकित्सक के पास जाते हैं तो उन का भ्रम का निवारण हो जाता है। 

सोमवार, 27 अक्तूबर 2014

आमिर खान के नाम एक ख़त

हैलो आमिर,

कैसे हो ?...वैसे आज सुबह तक मेरी कोई ऐसी प्लॉनिंग नहीं थी तुम्हें ख़त लिखने की। आज सुबह जब हिन्दुस्तान अखबार देखा तो बहुत ज़्यादा दुःख हुआ... इसलिए सोचा कि आज तो एक ख़त लिख ही देता हूं। 

विषय पर आने से पहले मैं यह बताना चाहता हूं कि मेरा तुम से तारूफ़ अस्सी के दशक में हुआ, जब उस दशक के अंत में मैं होस्टल में रहता था तो तुम्हारी वह फिल्म जो जीता वही सिकंदर का वह गीत हमारी फ्लोर के कमरे में खूब बजा करता था... पापा कहते हैं बड़ा काम करेगा। वह उम्र का कसूर था। 

फिर कुछ वर्षों बाद जब "अकेले तुम अकेले हम" आई....तो वह फिल्म अच्छी लगी। फिर राजा हिंदोस्तानी के गीत सुनते सुनते मेरा बेटा जवान हो गया.....और अभी भी जब उस के गाने कहीं बजते दिखते हैं तो कहता है कि पापा, मैं ये गीत कितनी बार सुन चुका हूं.....फिर हंसता है। 

उस के बाद रंग दे बसंती आई.....लोगों को बहुत पसंद आई.....पता नहीं मुझे कुछ खास नहीं लगी। हां, उस के बाद तारे ज़मीं पर .....जितनी तारीफ़ की जाए कम है। उस के बाद जब थ्री-इडिएट्स आई ...तो बहुत मज़ा आया। 

फिर टीवी पर सत्यमेव जयते शुरू हुआ....दो तीन एपिसोड देखे, फिर जब पता चला कि एक एपीसोड का तुम्हें चार करोड़ रूपया मिलता है......(पता नहीं उस में कितनी सच्चाई है, मैं नहीं जानता) ...लेकिन फिर पता नहीं क्या हुआ जब से यह पता चला तब से वह प्रोग्राम फिर देखने की कभी इच्छा ही नहीं हुई। आज तक फिर से इच्छा हुई ही नहीं।

अब बात पर आता हूं....... हां, तो आज की अखबार की जो खबर थी उस का शीर्षक था..... पीके बनने के लिए आमिर ने खाए १०,००० पान। 
आज की अखबार की खबर.. 
यह खबर पढ़ कर बहुत अजीब लगा.....अजीब क्या, बहुत बुरा लगा.......क्योंकि बहुत से युवाओं के लिए तुम शायद रोल-माडल हो, इसलिए जब उन्हें पता लगेगा कि तुम ने एक दिन में कम से कम ५० से ज्यादा पान खाए और कुल मिला कर इस फिल्म की शूटिंग के लिए १०,००० पान तो खाए ही होंगे, वे कहीं इस से इंस्पायर ही न हो जाएं।

तुम ने इतने पान असल में खाए कि नहीं......मैं नहीं जानता लेकिन मैं इतना जानता हूं कि पान खाना एक जानलेवा शौक साबित हो सकता है। पिछले ३० वर्षों से दांतों का एक साधारण सा डाक्टर हूं......१९९२ में पहली बार मुंह के कैंसर का मरीज देखा था, पान रखता था होठों के अंदर...और मुंह के कैंसर की चपेट में आ गया। 

उस के बाद इन २२ वर्षों से निरंतर गुटखे, पानमसाले, पान, तंबाकू की विनाश लीला देख रहा हूं..... इसी ब्लॉग पर बीसियों ऐसे ही मरीज़ों के दर्द की कहानियां दर्ज हैं, कभी फुर्सत में देख लेना। 

जिस तरह से मुंह के कैंसर के मरीज़ तिल तिल मरते हैं, यह देखना बड़ा दुःखद लगता है। 

मैंने डैंस्टिस्ट्री कम की है, लोगों को तंबाकू के बारे में सचेत ज़्यादा किया है, इस काम को मैंने एक मिशन की तरह करने की ठान रखी है, सुबह से शाम तक लोगों के दिलों में इन सब चीज़ों के बारे में नफ़रत पैदा करता रहता हूं। 

क्या लिखूं यार, अब, लिख दिया जितना लिखना था, तुम भी समझदार हो, आशा है कि इस बात को ज़्यादा पब्लीसाइज़ नहीं करोगे कि तुम ने कितने पान खाए......और यह जो हिंदुस्तान अखबार वालों ने कर दी है, इस का भी कुछ करोगे.......ताकि तुम्हारे रोल माडल कहीं इसी राह पर ही न चल पड़ें, मुझे ऐसा डर लगता है.......... आज के बहुत से युवा पहले ही से इन सब चीज़ों में लिप्त हैं। 

अगर तुम यह कहना चाहते हो कि पान ही तो है, क्या फ़र्क पड़ता है,..........नहीं, बहुत फर्क पड़ता है, तंबाकू वाला पान तो मुंह में सब तरह के लफड़े करता ही है, यह बिन तंबाकू वाला पान भी सुपारी की वजह से मुंह में बहुत उत्पात मचाता है.......मैंने कहा ना कि मैंने पिछले सात-आठ वर्षों से अपने ब्लॉगों में इन सब लोगों को व्यथा को दर्ज कर रखा है। 

कुछ दिन पहले मेरे पास एक आदमी आया है..जिस का मुंह खुलना बंद हो गया था.......लेकिन उस ने गुटखा-पानमसाला नहीं छोड़ा, मुंह का कैंसर इतना बढ़ गया था कि वह कितना फैल चुका है, पता ही नहीं चल रहा था, मैं उसे देख कर बहुत विचलित हुआ.....ऐसी ही एक ५०-५५ वर्ष की महिला भी कुछ दिन पहले आई.....मुंह में पान रखने की वजह से मुंह के कैंसर की वजह से नीचे वाले जबड़े की सारी हड्डी गल चुकी थी.........कुछ भी हो, इन मरीज़ों के साथ बहुत प्रेम से पेश आना होता है, इन की हर बात मान लेने की इच्छा होती है, मान भी लेता हूं, कारण लिखने की ज़रूरत नहीं है। 

बस, यार, तुम ज़रा इस पीके की पब्लिसिटी के दौरान भी पान को ग्लोरीफाई मत कर देना.......प्लीज़......बहुत कृपा होगी........पता नहीं खाई के पान बनारस वाले अमिताभ को देख कर कितनों ने यह शौक पाल लिया होगा.......नहीं जानता।

एक सलाह और.......चूंकि तुम १०००० पान थोड़े से अरसे में खा चुके हो, तो बेहतर होगा अपने मुंह का निरीक्षण भी करवा लेना.......ठीक रहेगा.......वैसे तो तुम जैसे लोगों के लिए यह कोई समस्या नहीं है...जितनी बार भी चैक-अप करवा लो, लेकिन सोचना उस आदमी के बारे में है जो मुंह का एडवांस कैंसर होने पर ही डाक्टर के पास पहुंच पाता है। 

आशा है कि तुम मेरी लिखी किसी बात को अन्यथा नहीं लोगो.......अगर तुम्हें मैं यह ख़त न लिखता तो मेरे मन में बोझ रहता। अब यह ख़त तुम्हारे तक पहुंचने की बात है तो १५ वर्ष पहले एक लेखक ने एक किस्सा सुनाया था कि एक ख़त को किसी ने बोतल में बंद कर के समुंदर में छोड़ दिया इस उम्मीद के साथ यह सही हाथों में पहुंच ही जाएगा, मैं भी ऐसी ही उम्मीद कर रहा हूं। 

पीके की सफलता के लिए शुभकामनाएं........
डा प्रवीण चोपड़ा...

गुरुवार, 23 अक्तूबर 2014

भूल सुधार करनी मुश्किल तो है..फिर भी..

सच में भूल सुधार करना बड़ा मुश्किल काम है, लेकिन फिर भी कईं बार करना पड़ता है। अब मैं भी यही काम कर रहा हूं।

आज सुबह मैंने एक पोस्ट लिखी थी कि मुझे लगा कि मेरे फ्लैट के आसपास की बिल्डिंग से कहीं से १५-२० मिनट तक किसी महिला के रोने की आवाज़ आती रही, बीच बीच में किसी बच्चे के रोने की आवाज़ भी आ रही थी। मुझे लगा कि कोई महिला पिट रही है। लंबी-चौड़ी पोस्ट मैंने उस पर लिख डाली। मैंने अपना मन भी बना लिया कि और तो कुछ मेरे से होगा नहीं, लेकिन मैं हाउसिंग सोसायटी के सैक्रेटरी के नोटिस में तो यह सब लेकर आऊंगा ही कि वह कुछ तो करे इस तरह की घृणित हरकतों की पुनरावृत्ति रोकने के लिए।

लेकिन आज मुझे एक प्रैक्टीकल सबक मिल गया कि जब तक अपनी आंखों से ना देखो, किसी बात पर यकीन मत करो, किसी बात पर विश्वास न करो।

तो हुआ यूं ......आज शाम को अभी दो एक घंटे पहले ही जब मैं ग्राउंड फ्लोर पर गया.....जैसे ही मैं बेसमैंट पार्किंग में जाने लगा तो मुझे सुबह जैसी आवाज़ें फिर से सुनाई देने लगीं....मैं ठिठक कर रूक गया कि देखूं तो सही कि ये आवाज़ें आ कहां से रही हैं।

अरे यह क्या, मैं हैरान रह गया यह देख कर कि ये आवाज़ें जो मैंनें सुबह भी लगभग आधा घंटा सुनी थीं, ये तो दरअसल लगभग १० वर्ष के एक लड़के की थीं जो एक स्पैशल, डिफरेन्टली एबल्ड लड़का था... वह ज़ोर ज़ोर से दहाड़ रहा था, और उसका बड़ा भाई या उन के घर का कोई वर्कर उसे काबू करने की कोशिश कर रहा था। बिल्कुल वही आवाज़ें जो मैं कभी कभी सुना करता था। सारी बात समझ में आ गई।

राहत मुझे इस बात की तो हुई कि सुबह की आवाज़ें किसी पिट रही महिला की नहीं थीं.........लेकिन इस स्पैशल बच्चे की मनोस्थिति मन कचोट गई। ईश्वर उसे भी सेहत प्रदान करे।

आज फिर किसी नामर्द ने बीवी पर हाथ उठाया...

दीवाली के दिन हम सब देवी की पूजा करते हैं....लेकिन घर की लक्ष्मी को कुछ लोग पीट भी लेते हैं।

लखनऊ की जिस प्राईव्हेट हाउसिंग सोसायटी में रहता हूं इस में या तो रिटायर्ड या सेवारत सरकारी मुलाजिम रहते हैं...कुछ पैसे वाले प्राईव्हेट बिजनेस वाले भी इस में रहने लगे हैं। कहने का मतलब कि कह सकते हैं कि पढ़ा लिखा तबका रहता है।

लेकिन कभी कभी किसी न किसी टॉवर से रोने चीखने की आवाज़ें आ जाती हैं......ये आवाज़ें वे नहीं होतीं जो बच्चों की आपस में मस्ती के दौरान एक दूसरे से पिट कर निकलती हैं, या मां बाप से थोड़ी बहुत चंपी होने पर निकलने वाली भी आवाज़ें नहीं होती ये, जिस घर में किसी की मौत हो उस घर से निकलने वाली आवाज़ें भी नहीं थी ये....अलग किस्म की आवाज़ें होती है ये... यह साफ़ पता चलता है।

अभी अभी मैं नाश्ता कर रहा था कि कुछ ऐसी ही अलग सी रोने चिल्लाने की आवाज़ें सुनीं........एक दो मिनट तो यही लगा कि ये किसी बच्चे की आवाज़ होगी.....लेकिन एक गैलरी, फिर दूसरी गैलरी में जाकर पता करने की कोशिश की.....लेकिन पता नहीं चल पाया कि आखिर आवाज़ कहां से आ रही है...किस बिल्डिंग से आ रही है......दोनों बॉलकनी में खड़े होकर यही लगा कि आवाज़ यहीं कहीं आसपास ही से आ रही है।

समय के साथ साथ आवाज़ तेज़ होती गई....साफ़ लग रहा था कि पिट रही कई औरत की ही आवाज़ थी, बीच बीच में किसी बच्चे की भी आवाज़ आने लगती थी...

बहुत अफसोस होता है जब कभी पता चलता है कि कोई नामर्द अपनी बीवी पर हाथ उठा रहा है.....सोचने वाली बात है कि क्या इस से ज़्यादा कोई निंदनीय काम हो सकता है?...

बेहद शर्मनाक.....आज के दौर में भी इस तरह के दरिंदे ये काम करते हैं, सोच कर भी घिन्न आती है।

कहने को कानून हैं बढ़िया बढ़िया.....लेकिन विभिन्न सामाजिक, पारिवारिक एवं आर्थिक कारणों की वजह से कितनी महिलाएं इन को इस्तेमाल कर पाती हैं......निरंतर शोषण का शिकार होती रहती हैं, रोज़ाना पिट कर पल्लू में मुंह दबा कर रोती रहती हैं।

एक टीवी में विज्ञापन भी तो आता था जिस में एक तरह से सोशल मैसेज था कि जब भी आप किसी महिला को घर में प्रताड़ित होते देखें तो कम से कम उस घर की एक बार घंटी ही बजा दें, ताकि उस नामर्द को एक अहसास हो जाए कि उस की करतूत को कोई देख-सुन रहा है।

लेकिन सोचने की बात है कि हम लोगों ने अभी तक ऐसे कितने घरों की घंटी बजाई.......कभी भी नहीं, शायद कभी बजाएंगे भी नहीं, क्योंकि हम अपने कंफर्ट ज़ोन से बाहर आना ही नहीं चाहते। मैंने भी देखिए कितनी सफाई से लिख दिया कि पता ही नहीं चला कि किस घर से आवाज़ें आ रही थीं, लेकिन मैं अपने मन से पूछता हूं कि क्या इस बात का पता लगा पाना सच में इतना ही मुश्किल था..या फिर मैं बस किसी पंगे में पड़ने से बचना चाह रहा था। सच है कि मैं पंगे से ही बचना चाह रहा था। सोच कर हैरान हूं कि कितना खोखलापन है।

मुझे ढोंगी लोगों से बड़ी ही चिढ़ है......दूसरों के सामने अपना सब से उजला पक्ष रखना....पूजापाठ का दिखावा भी करना और घर में साथ रहने वाले लोगों के जीवन को नरक बना के रखना.......यह सब क्या है। धिक्कार है ...इस से वह नास्तिक कईं गुणा भला जो रहता तो सब से प्रेम-प्यार से है।

मार-पिटाई किसी भी बात का समाधान नहीं है........किसी भी बात का........लेकिन यह बीवी-बच्चों को पीटने वाली सामाजिक समस्या भी एक घृणित अपराध के घेरे में ही आती है। लेकिन आवाज़ जब कोई उठाए तब ना..........

इसीलिए सरकारें, मां बाप बार बार चीखते रहते हैं कि लड़कियों को भी खूब पढ़ लिख कर अपने पांव पर खड़े होने की ज़रूरत है.......शायद इसी से यह अपराध बहुत हद तक कम हो सकता है........वरना उन निम्न तबके वाला फार्मूला तो है कि जैसे ही ऐसे ही किसी दारू पिए मर्द ने जोरू पर हाथ उठाने की कोशिश की.....तो उस ने भी आगे से जूती उतार कर उसे धुन डाला............सुबह फिर से सब नार्मल......जैसे कुछ हुआ ही ना हो...।

वह तो नामर्द था ही जिसने आज अपनी बीवी पर हाथ उठाया.......लेिकन ऐसे मौकों पर आसपास के दूसरे मर्दों ने क्या किया.......कुछ भी तो नहीं, ज़्यादा से ज़्यादा मेरे जैसे किसी फुकरे बुद्धिजीवि को लिखने का एक टॉपिक मिल गया.....सब के सब दोगले हैं हम....शायद तोगले.........सोचते कुछ हैं, लिखते कुछ और ......और करने के बारे में तो पूछो ही मत।

अपनी तो दीवाली हो गई आज। आप को शुभकामनाएं।

दादू दुनिया बावरी ...पत्थर पूजन जाए...
घर की चक्की कोई न पूजे...जिस का पीसा खाए।।

मंगलवार, 21 अक्तूबर 2014

दीवाली की मिठाई का हाल

अभी अभी पेपर देख रहा था तो आज की टाइम्स ऑफ इंडिया में इस खबर पर नज़र पड़ गई कि किस तरह से शुद्ध घी में जानवरों के फैट को मिला कर बेचा जा रहा है.....लिखा है सब कुछ, आप स्वयं भी पढ़ सकते हैं.
इसे अच्छे से पढ़ने के लिए इस पर क्लिक करिए.. 
और यह लखनऊ का रोना ही नहीं है, देश के हर कोने में इस तरह के मिलावटी खाद्य पदार्थ बेचने वाले आतंकवादी फैले हुए हैं, ये भी सरहद पार से आने वाले आतंकवादियों से कम खतरनाक थोड़े ही ना हैं।

त्योहारों के महीनों में इस तरह की रिपोर्टें आती हैं, सैंपल भरे जाते हैं, कार्यवाही कितनी होती है कितनी नहीं, आप सब समझदार लोग हैं, सब कुछ जानते हैं, इस रिपोर्ट में भी लिखा है कि कितनी भारी संख्या में मिलावट होने की पुष्टि हो जाती है।

मुझे बेकरी के बिस्कुट पसंद हैं, मेरे एक मित्र ने मुझे दो वर्ष पहले चेता दिया कि यह शौक बड़ा खराब है क्योंकि बहुत सी बेकरियों में ये घी में जानवरों का फैट मिला कर ये सब तैयार कर रहे हैं। फिर भी हम लोग कहां सुधरते हैं, कभी कभी खा ही लेता हूं.....लेकिन खाते हुए भी यही ध्यान रहता है कि मैं मिलावटी सामान ही खा रहा हूं।

इसी खबर में यह भी लिखा है कि किस किस खाद्य पदार्थ में किस चीज़ की मिलावट हो सकती है... और उस के क्या क्या बुरे परिणाम हैं, ये समाचार पत्र ये सब सूचनाएं आम आदमी तक पहुंचा के बहुत सेवा कर रही हैं, जागरूकता पैदा कर रहे हैं, और करें भी तो क्या करें, चार रूपये में और इन की जान लेकर मानेंगे हम।

बहुत ही बुरी खबर है यह.......पता नहीं मुझे इस समय वह बात क्यों याद आ गई ..अखबार में मैंने एक तस्वीर देखी ८-१० दिन पहले...शायद हरियाणा की किसी जगह की थी जिस में एक आदमी ने एक नाबालिग लड़की से बलात्कार करने की कोशिश की तो जनता ने पकड़ कर उस का हथियार ही काट कर उस के हाथ में थमा दिया....

जनता के आक्रोश से डर लगता है, और डर लगना भी चाहिए......किसी को भी इसे कम  समझने की नादानी नहीं करनी चाहिए.....हर चुनाव के बाद मैं यही सोचता हूं कि अजब देश की गजब डेमोक्रेसी है कि बिल्कुल शांति पूर्वक जनता सत्ता-परिवर्तन कर देती है......बड़ी समझदार जनता है इस देश की।

सरकार के पास अनेकों मुद्दें हैं......कर रही है सरकार अपना काम......लेकिन क्या हम ने अपनी जिम्मेदारी से मुंह हमेशा मोड़े ही रखना है। इतना कुछ आ रहा कि विशेषकर त्योहारों के मौसम में खाने पीने के मिलावटी सामान की भरमार रहती है, फिर भी हम नहीं सुधरते। अब सरकार हर हलवाई की दुकान पर हर गली की नुक्कड़ पर तो किसी फूड इंस्पैक्टर को खड़ा करने से रही, इसलिए हमें ही बात माननी पड़ेगी। बात न मान कर हम अपनी सेहत ही से खिलवाड़ करते जा रहे हैं।

जहां, तर्क-वितर्क की कोई ज़रूरत नहीं होती, वहां हम करते हैं। आज ३५ वर्षीय आदमी आया...बीवी के इलाज के लिए आया था, उस का भी मुंह गुटखे-पान मसाले से ठसाठस ठूंसा हुआ था। मैं भी अपनी आदत से मजबूर, उसे कहा कि मत खाया करो, यह आग का खेल है, परेशानी हो जाएगी। दो-तीन मिनट मेरे प्रवचन सुन कर कहने लगा कि डाक्टर साहब, मेरी समझ में नहीं आता कि मेरा मौसा तो कुछ भी गल्त-वल्त नहीं खाता था, उस के गुर्दे क्यों फेल हो गये।

मैंने कहा कि वह तो मुझे नहीं पता, लेकिन यह जो गुटखे वुटखे तुम मुंह में ठूंसे रहते हो, इस के तो हर पैकेट पर साफ साफ लिखा है कि इस से क्या क्या हो सकता है, सरकार ने भयानक तस्वीरें भी छाप रखी हैं, फिर भी ज़हर को देख कर कैसे खा पाते हो। शायद बात उस की समझ में आ गई, कहने लगा कि आज से नहीं खाऊंगा.......इतने में उस की बीवी कहने लगी कि अल्होकल का क्या होगा जो इतनी पीते हैं। कहने लगा कि उस का मैं अभी वायदा नहीं करता, कभी कभी कंपनी में बैठ कर पीनी ही पड़ती है .....मैंने कहा कि चलो आज से गुटखे को तो लात मारो, और पंद्रह दिन में मिलने आया करो, दारू को भी देख लेंगे।

गुरुवार, 9 अक्तूबर 2014

हेलमेट घर पे तो है ही .....

यहां लखनऊ में मैंने बहुत बार नोटिस किया है कि स्कूटर-मोटरसाईकिल चलाने वाले अपने हेल्मेट को बाजू पर लगा कर चलते हैं......अगर कहीं चालान वान का लफड़ा होता दिखेगा तो पहन लेंगे, वरना कौन गर्मी में यह सब बर्दाश्त करे।


हेल्मेट घर में तो है......

अभी दो घंटे पहले मैं लखनऊ छावनी से तेली बाग की तरफ़ अपने स्कूटर पर आ रहा था...यहां की सड़कों की एक खासियत है कि कुछ व्हीआईपी सड़कों को छोड़ कर बाकी सब सड़कों पर रात के समय रोशनी न के बराबर होती है।

दूसरी तरफ़ से आ रहे एक मोटरसाईकिल वाले को मैंने देखा कि वह अचानक बुरी तरह से गिर गया। बहुत बुरा लगा। काफी लोग इक्ट्ठे हो गये उसे देखने के लिए.......मैं भी उसे देखने गया। बहुत खुशी हुई कि वह ठीक ठाक था.....वहीं जा कर पता चला कि सड़क किनारे एक छोटे से खड्डे में उस का मोटरसाईकिल अटक गया था..लेकिन वह गिरा बुरी तरह से था।

मैंने भी उसे कहा कि चलो, ईश्वर की कृपा है कि ठीक ठाक हो, लेकिन हेल्मेट पहन कर रखना चाहिए। उसने कहा ......जी, हेल्मेट तो है, घर में है और यहीं पास ही में तो घर है।

बी पी ठीक तो मैंने दवा और परहेज छोड़ दिया..

सुबह एक ६५-७० वर्ष की महिला दांत उखड़वाने के लिए आईं... कईं बार तो मैं पूछ कर ही आश्वस्त हो जाता हूं अगर कोई कहता है कि उस का ब्लड-प्रेशऱ ठीक ही चल रहा है, विशेषकर अगर वे नियमित जांच करवाते रहते हैं। पर, मैंने इस महिला का जैसे ही ब्लड-प्रेशर देखा तो यह १९०/१०० था। बाद में उन्होंने बताया कि मैं ब्लड-प्रेशर की दवाई खाती थी, लेकिन दो महीने पहले जब मेरा ब्लड-प्रेशर ठीक रहना शुरू हो गया......तो मैंने दवाई खानी बंद कर दी।

और जब मैंने उन के द्वारा ली जाने वाली नमक की मात्रा के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि जब मेरा ब्लड-प्रेशर ठीक रहने लगा तो मैंने भी नमक का परहेज भी छोड़ दिया.....उन का ३०-४० वर्ष का बेटा भी साथ था जो कहने लगा कि इन्होंने नमक की शीशी अपने पास अलग रख छोड़ी है, हर खाद्य पदार्थ और पेय में ऊपर से नमक मिलाने की इनकी आदत तो है ही.......मैंने उन के साथ पांच मिनट तक ज्यादा नमक के खतरनाक परिणामों की चर्चा की।

बस अब तो एक ही पैकेट लेता हूं......

उस  के बाद एक २१ वर्ष का युवक आया.....बिल्कुल साफ़-सुथरा .. मां के साथ आया था जिस का मेरे पास इलाज चल रहा था...युवक का मुंह नहीं खुल रहा था....पानमसाला और गुटखा खाता था लगभग ४-५ वर्ष पहले से..रोज़ाना पांच-छः पैकेट......अब जब से मुंह पूरा खुल नहीं रहा, अब पानमसाला छोड़ दिया है........लेकिन जब मैंने और पूछा तो उसने बता ही दिया कि अब तो बस कभी कभी एक पैकेट ही खाता हूं(और वह समझता था कि इस से कोई फरक नहीं पड़ता)

दस मिनट तक उस से बात की ...आज सुबह ही मेरे पास एक मुंह के कैंसर का मरीज़ आया था....गुटखा पान मसाला मुंह में रखता था......और कैंसर बहुत फैल चुका था उसके मुंह में.........मैंने इसे उस मुंह के कैंसर वाले मरीज के मुंह की तस्वीर दिखा कर कहा कि अगर नहीं मानोगे और इस आदत को आज ही से लात नहीं मारोगे तो यह तुम्हारी ज़िंदगी को भी लात मार सकती है। रोज़ाना ऐसे केस आ रहे हैं। लगता तो है समझ गया है.......कह रहा था कि अब नहीं छुएगा। आएगा दो दिन बाद इलाज के लिए।

मैने ऊपर तीन बातें लिखी हैं, तीनों की तीनों बहुत विचारनीय हैं....



मंगलवार, 7 अक्तूबर 2014

टीन- प्रेगनेंसी रोकने हेतु कुछ स्थायी उपाय

किशोरियों में प्रेगनेंसी मुद्दे पर आप कुछ पढ़ने जा रहे हैं ..तो आप भी यही लगता होगा कि यह पश्चिम का ही मुद्दा होगा। क्या मैं ठीक कह रहा हूं?

कल शाम जब मैंने दो न्यूज़-स्टोरी देखीं तो मुझे यही लगा कि अमेरिका ने तो ईमानदारी से सारे आंकड़े इक्ट्ठा तो कर लिए और उन्होंने अपने नागरिकों के जो ठीक समझा उस की सिफारिश भी कर दी लेकिन बाकी विश्व क्यों चुप है?. क्या वहां पर ऐसी कोई समस्या जिसे हम टीन प्रेगनेंसी (स्कूल जाने वाली किशोरावस्था के दौरान होने वाली प्रेगनेंसी).....कहते हैं, है ही नहीं,  लेकिन आंकड़े हैं कहां?

ना ही तो मैं किसी नैतिक पुलिस ग्रुप का मेंबर हूं और न ही बनना चाहता हूं ..क्योंकि इस तरह के मुद्दों पर मंथन करने के लिए एक बड़ी स्टेज की ज़रूरत है, यह मंच बहुत ही छोटा है...फिर भी जो कल पढ़ा उसे केवल शेयर कर के और बहुत से प्रश्न हवा में उछाल कर खिसक लूंगा...

तो इस न्यूज़-रिपोर्ट के मुताबिक अमेरिका में किशोर युवक एवं युवतियां प्रेगनेंसी से बचने के लिए कन्डोम एवं गर्भ-निरोधक गोलियां पर भरोसे करते आ रहे हैं.......(आंकड़े आप स्वयं नीचे दिए गये दो लेखों कर क्लिक कर के देख सकते हैं...)

लेिकन अब अमेरिकी बाल रोग विशेषज्ञों की संस्था ने यह सिफ़ारिश कर दी है कि किशोरियों में प्रेगनेंसी रोकने के लिए उन में अगर लंबे समय तक चलने वाले गर्भनिरोधक उपाय फिट ही कर दिये जाएं तो टीनएज प्रेगनेंसी की दर में बहुत गिरावट आ सकती है.....वे लंबे समय तक चलने वाले जिन गर्भनिरोधक उपायों की बात कर रहे हैं, वे हैं इंट्रायूटरीन डिवाईस (IUD) और गर्भनिरोधक इंपाल्ट जिन का साइज एक दियासिलाई जितना होता है जिसे बाजू की चमड़ी के नीचे रख दिया जाता है ताकि वह निरंतर गर्भनिरोधक हार्मोन रिलीज़ करता रहे.....

Pediatricians Endorse IUDs, Implants for Teen Birth Control 
Free, Long-Acting Contraceptives May Greatly Reduce Teen Pregnancy Rate

बहुत से प्रश्न छोड़ कर जा रहा हूं, मैं भी मंथन करता हूं ..हो सके तो आप भी करिएगा...... इस पोस्ट को लिखते लिखते गुड्डी फिल्म का यह सुंदर गीत याद आ गया.......काफ़ी समय हो गया इसे सुने हुए.....





कुर्बानी पर कुर्बान ..भाग२

पिछली कुछ महीनों से एक और समस्या है कि मैं घर में आने वाली दो अखबारें --टाइम्स ऑफ इंडिया और हिंदी की हिन्दुस्तान--ढंग से नहीं पढ़ पाता। वही पुराना बहाना स्कूल कालेज के दिनों वाला कि पढ़ते ही नींद आने लगती है। लेकिन फिर भी स्नैप डील और फ्लिपकार्ट की सभी पेशकशें बेटे के मार्फ़त शाम तक काफ़ी हद तक याद हो जाती हैं......चाहे उन से कुछ लेना देना नहीं होता, बस ऐसे ही जिसे जुबानी जमा-खर्च कहते हैं ना, एक शुगल सा।

कल जब मैंने कुर्बानी पर कुर्बान का पहला लेख लिखा तो मुझे ईद के बारे में मेरे मन में उमड़े बहुत से प्रश्नों का सवाल मिल गया था।

आज सुबह जल्दी नींद खुल गई....होता है कभी कभी ऐसा भी। अब टीवी में मेरी रूचि कम हो गई है....जब से बच्चन और आमिर द्वारा केबीसी और जागते रहो के हर एपीसोड के लिए मेहनताना लेने की रकम का पता चला है, उस दिन से बिल्कुल भी रूचि रही नहीं.....बिग-बॉस वैसे ही पहली ही देखने की हिम्मत जुटा पाया था......उसे देख कर यही डर लगता है कि यार, कहीं घर में हम सारे ही ऐसे ही चलने और बतियाने ना लगें.....नज़रिया अपना अपना.......बहरहाल,  कल की टाइम्स ऑफ इंडिया पड़ी हुई थी। सोचा कि इसे भी पलट लूं........

जैसे ही मैं संपादकीय पन्ने पर पहुंचा तो दा स्पीकिंग ट्री के अंतर्गत एक लेख के शीर्षक पर नज़र पड़ गई......  Find your Ismail and Sacrifice it... ईद के विषय से संबंधित मेरे जो बचे खुचे सवाल थे, वे भी जैसे धोने के लिए ही यह सुंदर लेख मुझे आज सुबह सुबह दिख गया था....मैंने इसे पढ़ कर राहत की सांस ली, लेकिन यह मेरी राहत की सांस लेने से हुआ क्या, सोचने की बात है कुछ नहीं........वैसे भी मेरी राहत की सांस लेनी इतनी ज़रूरी कहां थी, ज़रूरी तो कुछ और था....मेरे जैसे बुद्दिजीवियों की बस इतनी कहानी..........है इतना फ़साना है इतनी कहानी.........

कल शाम को फेसबुक पर एक बहन की पोस्ट पढ़ी ......
"बकरी पाती खात है ताकी काढ़ी खाल,
जे नर बकरी खात हैं, ताको कौन हवाल" - कबीर।
सभी बकरियों व बकरों के स्वस्थ प्राकृतिक दीर्घजीवन की शुभकामनाएँ।


ताको कौन हवाल का मतलब नहीं पता था तो उन से ही पूछ लिया.... तुरंत जवाब मिल गया....
 "यानि वे किसके हवाले ? उनका क्या होगा ? उनका कौन मालिक ? वे किसके भरोसे ?"

  

सोमवार, 6 अक्तूबर 2014

जुएं मारने वाली कंघीयां....

अभी मैं नेट पर कुछ सर्च कर रहा था तो एक लिंक पर पहुंच गया..कि अपने बच्चों के सिर को जुओं के लिए देखते रहें......यकायक याद आ गई पुरानी यादें जब गली-मोहल्लों में महिलाओं को एक दूसरे के सिर में जुएं खोज खोज कर मारने के मंजर अकसर दिख जाया करते थे......अब भी होता ही होगा यह सब कुछ, शायद हमें ही इस का अनुमान नहीं है क्योंिक हमारा ही पता बदल गया है।

इस काम के लिए इस्तेमाल की जाने वाली कंघी भी एक अलग किस्म की हुआ करती थी.....पंजाबी में इसे कहते थे....बारीक दंदेयां वाली कंघी......(comb with the fine teeth!)........इसे सिर पर फिराना भी हिम्मत का काम हुआ करता था, बचपन में यह कंघी मेरी मां और बड़ी बहन ने मेरे सिर पर भी कईं बार फेरी थीं......एक दो जूं मिलने पर फिर लेक्चर भी सुनना पड़ता था....

अच्छे से मैं देखा करता था अपने आस पास कि किसी के सिर पर वह जूओं वाली कंघी फिराते फिराते जब कंघी में कोई जूं दिख जाती थी तो वह लम्हा कितना रोमांचक हुआ करता था जैसे कि वीरप्पन पकड़ लिया हो. और फिर उस जूं को अपने बाएं हाथ के अंगूठे पर शिफ्ट कर के दाएं हाथ के अंगूठे से उस का वध करना, महिलाओं को यह बड़ा सुख देता था .....और जूओं के मारे सिर में भी अपने अाप ठंडक पड़ने लगती थी।

कईं बार दो एक जुएं मिलने के बाद जब और जुएं नहीं मिल पाती थीं तो ऐसे ही निकालने वाला यह घोषित कर दिया करता था कि जुआं नहीं ने, लीखां ने......लीखां तो ही जुआं बनदीयां ने.......(जुएं नहीं है और, लीखे हैं.....लीखों ही से तो जुएं बन जाती है)......

जो गली मोहल्लों में औरते के साज-श्रृंगार का सामान साईकिल पर बेचने आया करते थे, उन्होंने भी जूओं वाली कंघी अलग से रखी होती थी....बहुत बिका करती थी ये कंघीयां।

फिर देखा धीरे धीरे जुएं मारने वाली दवाईयां आ गईं......लोग जुएं मारने के लिए इन्हें इस्तेमाल करने लगे। क्या था , एक ऐसी ही दवाई का नाम........Mediker lice killer ---- मुझे अच्छे से याद तो नहीं है, लेकिन शायद यही था......पता नहीं अब यह दवा मिलती है या नहीं, कोई आइडिया नहीं....अकसर जैसे ही हम लोगों का पता बदलता है (आप समझते हैं मैं क्या कहना चाहता हूं) हम पुरानी बातों को ऐसे भूलने का नाटक करते हैं जैसे हमारा इन से कोई वास्ता ही न हो.........ठीक है, यह इंसानी फितरत है।

आप को उस लिंक के बारे में भी बता रहा हूं जिस पर जाकर मुझे यह जुओं वाले दिनों की याद आ गई.......... हा हा हा ...  Health tip:  Check your Child for Head Lice

बात जुओं की हो रही थी तो पता नहीं यह खटमल वाला गीत कहां से याद आ गया.......सही कहते हैं अंग्रेज़-----खाली दिमाग शैतान का घर.......An empty mind is a devil's workshop!

शुक्राणुओं को भी हानि पहुंचाती है दारू

अभी मैं एक विश्वसनीय मैडीकल साइट पर देख रहा था कि दारू पीने की आदत भी किस तरह से स्पर्म (शुक्राणुओं) को हानि पहुंचाती है......आप भी इसे इस लिंक पर जा कर अवश्य देखें......Too much booze may harm your sperm. 

 मैंने इस रिपोर्ट को पूरा पढ़ा और जाना कि किस तरह से ज़्यादा दारू पीने की आदत स्पर्म के साथ साथ कईं तरह के अन्य यौन रोग संक्रमण को बढ़ावा दिये जा रही हैं.......यह लेख जिस का लिंक आप ऊपर देख रहे हैं, यह पठनीय तो है ही , इस में लिखी बातें भी मानने योग्य हैं।

मुझे पता है मैंने ऊपर लिखा है.....ज़्यादा दारू.......अब हर पाठक यही सोचेगा कि यह समस्या तो उन लोगों की है, जो ज़्यादा दारू पीते हैं, हम तो कम ही पीते हैं.......लेकिन ज़्यादा और कम दारू पीने की परिभाषा को जानने के लिए भी आपको इस लेख को देखना चाहिए।

एक बात और........बहुत से लोग अकसर कहते दिखते हैं कि डाक्टर लोग ही तो कहते हैं कि थोड़ी थोड़ी पीना दिल की सेहत के लिए अच्छा होता है। इस के उत्तर में सभी डाक्टर यही कहते हैं कि हम लोग उन्हें नहीं कहते जो लोग नहीं पीते कि आप लोग दिल की ठीक रखने के लिए पीना शुरू कर दें.......बल्कि हम यही कहते हैं जो लोग अंधाधुंध पीने के आदि हो चुके हैं, अगर वे बिल्कुल कम से कम दारू पीने लगेंगे तो उन के लिए यही ठीक रहेगा। अब यह कम दारू कितनी कम है, यह जानने के लिए आप होम-वर्क स्वयं करें या अपने फैमिली डाक्टर से परामर्श कर सकते हैं.....

कुर्बानी पर कुर्बान




बकरीद के बारे में मेरे मन में बहुत प्रश्न उमड़ आते हैं ..इन्हीं दिनों में पिछले कुछ वर्षों से....फिर जिस तरह का मैं इंसान हूं ... जब दूसरे प्रश्न तैयार हो जाते हैं तो पिछलों को तो हटना ही पड़ता है।.....इस बार भी ऐसा ही हुआ कि कुछ दिनों से मैं फिर ऐसे ही प्रश्नों से घिर गया।

यह लिख रहा हूं ...इसलिए नहीं कि मैं किसी एक धर्म से संबंधित हूं...मैं किसी भी धर्म के साथ अपने आप को आइडैंटीफाई करना ही नहीं चाहता, मुझे अपना धर्म कहीं पर लिखते हुए भी बड़ा अजीब लगता है ......बस मेरा दृढ़ विश्वास यही है कि हम सब इंसान बना कर भेजे गये हैं, बस इंसानों जैसा किरदार हो जाए......इतना ही काफ़ी है। मेरा यही धर्म है, यही इबादत है।

हां,  यार, यह जो प्रश्नों की बात हो रही है इन के बारे में कोई पूछे तो पूछे कैसे। बड़ी जिज्ञासा होती है। लखनऊ की एक मस्जिद के बाहर मैंने एक इश्तहार टंगा देखा कि कुर्बानी का हिस्सा १२०० रूपये में।  मैंने सोचा इस का क्या मतलब है, किस से पूछूं। दो चार दिन पहले जब मेरे पास एक बुज़ुर्ग महिला मरीज़ आईं तो मैंने उन से पूछ ही लिया...इस हिस्से के बारे में। उस नेक रूह ने अच्छे से हिस्सों के बारे में बता दिया और कहा कि बड़े सस्ते में हो रहा है। इस के आगे कोई बात नहीं हुई।

हां, अभी अभी लेटा हुआ था...सिर थोड़ा भारी हो रहा था ..तो मैंने आज की हिन्दुस्तान उठा ली.....उस के संपादकीय पन्ने पर एक लेख पर मेरी नज़र गई.......इस समाचार पत्र के संपादकीय पन्ने पर एक स्तंभ आता है...मनसा वाचा कर्मणा........इस में आज सूर्यकांत द्विवेदी जी का लेख ....कुर्बानी पर कुर्बान....दिख गया। इसे पढ़ कर मेरे बहुत से प्रश्न --सारे नहीं........घुल गये।

मैं चाहता था कि इसे आप भी पढ़े अगर कुछ प्रश्न आप के मन में भी उमड़ रहे हैं......... इसलिए उस सारे लेख को हु-ब-हू नकल कर के इस पोस्ट में लिखने के लिए उठा ही था......कि गूगल बाबा का ध्यान आ गया.......बस कुर्बानी पर कुर्बान लिखने भर की देर थी कि सर्च रिजल्ट के पहले नंबर पर यही लेख दिख गया..... अच्छा लगा.......मेरी गुज़ारिश है कि आप भी इसे पढ़िए........मैं भी इसे फिर से दो-तीन बार तो पढूंगा ही ..........यह रहा इस का लिंक ...
कुर्बानी पर कुर्बान ....(हिन्दुस्तान... ०६अक्टूबर २०१४) 

मैं पिछले लगभग ३५ वर्षों से कुर्बानी के इस गीत को सुन रहा हूं ...कभी बोलों पर ध्यान नहीं दिया, अब इस के बोलों पर भी ध्यान देने की, किसी विद्वान के पास बैठ कर इन बातों को समझने की चाहत सी होने लगी है.......



रविवार, 5 अक्तूबर 2014

त्योहार के मौसम में मृतक भोज

मुझे अच्छे से याद है ... १९७३ के आसपास के वो दिन...मैं पांचवी या छठी कक्षा के कुछ विषयों में अव्वल आया था... स्कूल के वार्षिक पारितोषिक वितरण उत्सव में जहां तक मुझे याद है फैज़ अहमद फैज़ जी मुख्य अतिथि के तौर पर आए थे......उस जमाने में हमें नाम भी अच्छे से कहां याद रहते हैं..लेकिन फैज़ आए थे...इतना तो मुझे धुंधली याद है। यह मैं अमृतसर के डीएवी हायर सैकण्डरी स्कूल, हाथी गेट की बातें सुना रहा हूं।

हां, पहले यह भी एक बहुत अच्छा रिवाज था कि छात्रों को इनाम में बढ़िया प्रेरणात्मक किताबें दी जाती थीं। मुझे भी अन्य किताबों के साथ साथ मुंशी प्रेमचंद का गोदान नावल मिला था..  याद है मैंने उस गोदान को बहुत शौक से कईं बार पढ़ा। एक बात तो है कि पहले हम लोग किताबें पाते थे तो उन्हें पढ़ते भी थे.....किताबों के संसार में खोए रहने का अपना अलग ही मज़ा हुआ करता था। उस के बाद ढूंढ ढूंढ कर मुंशी प्रेमचंद की कहानियां पढ़ी...बूढ़ी काकी, ईदगाह जैसे नगीने तो हमारे सिलेबस में ही थे। 

बहरहाल, अब आता हूं मृतक भोज के ऊपर.......तो जैसा कि आप जानते हैं .. मृतक भोज भी मुंशी प्रेमचंद की एक मशहूर कहानी है। वैसे तो आप इस लिंक पर भी जा कर इस कहानी को मूल रूप में पढ़ सकते हैं... मृतक भोज..

कुछ दिन पहले यहां लखनऊ की संगीत नाटक अकादमी में मृतक भोज कहानी के ऊपर तैयार किए गये एक नाटक का मंचन हुआ........मैंने इस पर अपनी एक यू-ट्यूब प्रस्तुति दो-तीन दिन लगा कर तैयार की है, आशा है आप इसे देखने का कष्ट करेंगे.......नीचे एम्बेड कर रहा हूं।

सेठ रामदास जब तक जीवित रहे, किसी का अहसान नहीं लिया। उनकी मृत्यु के बाद सेठानी को खेत, जेवर, खलिहान, बर्तन, सब िबक जाते हैं। उसके बाद भी गांव के लोग और सेठ के तथाकथित शुभचिंतक सेठ का 'मृतक भोज' करवाने के लिए उन पर दबाव डालते हैं। इस बार घर भी बिक जाता है। सेठानी और उनकी बेटी पहले बेघर होती हैं फिर पहले सेठानी की फिर बेटी की मौत हो जाती है। एक 'मृतक भोज' सेठ के बाकी बचे परिवार को लील जाता है। 

मुंशी प्रेमचंद की यह मशहूर कहानी २६ सितंबर २०१४ शुक्रवार को लखनऊ की संगीत नाटक अकादमी में नाट्य रूप में दिखाई गई। इस नाटक में यही दिखाने का प्रयास किया गया कि कैसे कुरीतियां मानवता पर भारी पड़ती हैं।

जो लोग खुद को सेठ का दोस्त और शुभचिंतक कहते थे उन्हें यह चिंता नहीं हुई कि घर बिकने के बाद सेठानी और उनकी बेटी कहां जाएंगे। सेठानी जिस घर की मालकिन होती हैं वहीं किराए पर रहने को मजबूर हो जाती हैं। सेठ के दोस्त उनकी बेटी पर बुरी नजर डालते हैं। पहले मां बीमारी से मरती है फिर बेटी जिंदगी की दुश्वारियों से हारकर खुदकुशी कर लेती है लेकिन फिर भी लोगों को यही लगता है कि सेठ का 'मृतक भोज' होना जरूरी थी। 

जिस दिन शाम को लखनऊ में इस नाटक का मंचन किया जाना था उसी दिन सुबह ९ बजे इस नाटक के निर्देशक नवीन श्रीवास्तव जी को मातृशोक हो गया....उत्तर प्रदेश संगीत नाटक संस्थान के निदेशक ने उसे इस नाटक के मंचन को स्थगित करने के लिए कहा लेकिन श्रीवास्तव जी ने "Show must go on!" की भावना से इस के मंचन को अपने निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार करवाने का निर्णय लिया। 

उस महान कहानीकार मुंशी प्रेम चंद और निदेशक नवीन श्रीवास्तव की तुलना में  यह एक धूल के कण के समान तुच्छतम् भेंट उन की दिवंगत माता जी की आत्मा की शांति के लिए मेरी तरफ़ से आहुति।

वापिस इस पोस्ट के शीर्षक पर लौटता हूं......त्योहार के मौसम में मृतक भोज........तो बस यही ध्यान में आ रहा है कि कुछ कर गुजरने के लिए मौसम नहीं, मन चाहिए।।