मंगलवार, 5 अगस्त 2014

केवल बिस्तर से उठना ही तो मुश्किल होता है..

हम में से शायद ही कोई ऐसा हो जिसने सुबह सवेरे की खूबसूरती का कभी न कभी आनंद न लूटा हो.. है कि नहीं, कभी बचपन में गर्मी की छुट्टियों में हम लोग सुबह उठ कर जब भ्रमण के लिए निकल जाया करते थे। फिर जब बड़े हुए तो हमारी कुछ अलग यादें बन गईं......मैं बंबई में जब रहा तो कुछ बार सुबह समुद्र के किनारे मैरीन ड्राइव पर टहलने चले जाना, बहुत बार महालक्ष्मी रेस-कोर्स की तरफ़ सुबह चल पड़ना...शाहर से बाहर गये हैं तो मद्रास का मैरीना समुद्री तट........कहने का मतलब केवल यही कि ये सब यादें ही हमें कितना सुख दे देती हैं।

और एक बात यह भी है कि अब भी हम सब लोग सुबह सवेरे उठ कर टहलना, बाग की हरियाली को निहारते हुए वक्त बिताना, योगाभ्यास, प्राणायाम, प्रार्थना ...सब कुछ करना चाहते हैं, उस में नैसर्गिक आनंद है, लेकिन पता नहीं मेरे जैसे लोग सब कुछ जानते हुए क्यों इतना आलस करते रहते हैं......वैसे भी सुबह सवेरे नेट पर दोस्तों के दस स्टेट्स पढ़ने से कहीं ज़्यादा ज़रूरी है कि हम अपने आप को समय देना शुरू करें। 

मैंने कुछ दिन पहले निहाल सिंह के बारे में बात की थी कि वे किस तरह से मिलने वाले लोगों को योगाभ्यास के लिए प्रेरित करते रहते हैं। आज सुबह मैं अपने एक मित्र को लेकर उसी पार्क में पहुंच गया जहां उन का ग्रुप योगाभ्यास करता है। 

योगाभ्यास तो कितना हुआ या नहीं हुआ, किस से नीचे बैठा गया और किस से नहंीं, कौन प्राणायाम की बारीकी समझ पाया, कौन नहीं........यह तो बिल्कुल भी मुद्दा है ही नहीं.......अहम् बात तो यह है कि सुबह सवेरे घर से बाहर निकल कर खुली फ़िज़ाओं में रहना एक अजीब सी तरोताज़गी देता है। मैं अपने मित्र से कह रहा था कि योगाभ्यास तो हम ने पांच-छः मिनट ही किया होगा, लेकिन उस से भी हम कितना हल्का महसूस कर रहे हैं। उन का भी यही मानना था कि केवल से बिस्तर से उठना ही मुश्किल होता है, बाकी तो फिर बस एक आदत बनने की बात होती है। 

हम लोग अकसर यही सोचते हैं ना कि हम से न  हो पायेगा यह योग वोग..हम नहीं कर पाएंगे प्राणायाम् ....कोई बात नहीं, सुबह सवेरे बिस्तर से उठ कर बैठ गये, इस से ही लाभ मिलने शुरू हो गये.......और घर से टहलते हुए पास के किसी पार्क में पहुंच गये, लाभ बढ़ गया.........वहां जाकर थोड़ा बहुत भ्रमण किया, हरियाली देख, फूल-पत्ते देख कर मन हर्षित हुआ......(एक आदमी को सुबह सुबह फूल तोड़ते देख कर मन थोड़ा दुःखी हुआ).... और उस के बाद जितना भई हो सका, योगाभ्यास किया, प्राणायाम् किया......ध्यान किया............ये सब लाभ जुड़ते जुड़ते आप अनुमान लगाईए कि लाभ की गठड़ी कितनी भारी भरकम हो जाएगी। 

आज उस योगाभ्यास की पाठशाला में भी यही बात कह रहे थे कि बस, योग का आनंद लो, सहजता लाओ, अपने आप पर दबाव डाल कर कुछ करने की कोशिश न करो...... सब कुछ अपने आप होने लगा, कुछ लोग पालथी मार नहीं बैठ पाते थे वे अब पद्मासन करने लगे हैं, जिन के घुटनों में तकलीफ़ थी और घुटने बदलवाने की कगार पर थे, वे अब पांच किलोमीटर तक सैर करते दिखते हैं........लोग कुछ न कुछ अनुभव बांट रहे थे। 

आदमी जैसी संगति में रहता है, उन की कुछ न कुछ बातें ग्रहण भी करने लगता है.......आज उन्होंने ने हमें आंखों की सफ़ाई करने वाले कप दिए------और कहा कि रात को सोते वक्त उन में पानी भर कर आंखों पर लगाकर आईलिड्स को हिलाएं कुछ समय ...फिर पानी को फैंक दें। अच्छा लगा जब अभी अभी घर आकर यह किया। 

संगति की बात हो रही थी तो कल की ही बात याद आ गई......कुछ दिन पहले मेरे पास एक लगभग १८-२० वर्ष का लड़का आया अपनी मां के साथ....गुटखे पान मसाले का व्यसन लग चुका था, मुंह में छोटे मोटे घाव........ऐसे युवाओं को इस गुटखे रूपी कोढ़ से मुक्ति दिलाना मैं अपनी सब से अहम् ड्यूटी समझता हूं.....उस दिन मैंने उस के साथ १०-१५ मिनट बिताए....उसे अच्छे से समझाया....डरा भी दिया कि नहीं छोड़ोगे तो क्या हो जाएगा। 

आज जब आया तो बताने लगा कि उस दिन के बाद मैंने गुटखा पान मसाला छुआ तक नहीं......उस की सच्चाई का उस के मुंह ही से पता चल रहा था। मैंने कहा कि जो यार दोस्त थोड़ा बहुत देने की कोशिश करते हैं, उन का क्या करते हो। तो उसने बताया कि अब उस ने उन दोस्तों को ही इग्नोर करना शुरू कर दिया है। मैंने पूछा कि छोड़ने में दिक्कत तो नहीं हुई, कहने लगा कि दो-तीन दिन थोड़ा सिर भारी रहा, लेकिन आप के बताए अनुसार मैं कोई दर्दनिवारक टिकिया ले लिया करता था --बस दो तीन दिन....... और फिर तो पता ही नहीं चला कि कब तलब ही लगनी बंद हो गई। 

और खुशी की बात तो यह कि ३-४ दोस्तों ने भी उस के कहने पर यह गुटखा-वुटखा खाना-चबाना छोड़ दिया है। मैंने जब खुश हो कर उस की पीठ थपथपाई तो मुझे यही लगा कि जैसे मैंने अपने बेटे को इस ज़हर से बचा लिया हो। 
अच्छा लगता है जब आप की वजह से कोई सीधे रास्ते पर आ जाए........ यह प्रयास बार बार करने योग्य है। 

बचपन से ही अपनी मां के मुंह को यह गीत गुनगुनाते पाया है, इसलिए इस समय याद आ गया....

सोमवार, 4 अगस्त 2014

एक इंसान जिस ने ५ करोड़ लोगों को दिया जीवन-दान

आज मैंने एक ऐसे इंसान के बारे में जाना जिस ने एक ऐसा काम कर दिखाया जिस से अब तक ५ करोड़ जानें बच गईं। हैरान करने वाली बात लगती है ना, लेकिन है यह बिल्कुल सच।

और यह करिश्मा हो पाया इस डाक्टर की रिसर्च से.. जिस ने जीवन रक्षक घोल का आविष्कार किया। जिसे इंगलिश में हम लोग ओ आर एस घोल भी कहते हैं और जिस के बारे में अकसर हम सब सरकारी सेहत विभागों के विज्ञापनों के बारे में सुनते रहते हैं।

इस घोल को तो मैं भी जानता हूं लेकिन कभी भी इस तरफ़ बिल्कुल भी ध्यान नहीं किया कि इस घोल का आविष्कार करना भी कितना जटिल काम रहा होगा। आप सब की तरह मैं भी ऐसा ही सोचा करता था कि ठीक है, पानी में नमक मिलाया, चीनी मिलाई...घोल तैयार और अगर नींबू आसानी से उस समय उपलब्ध है तो उस की चंद बूंदें भी उस घोल में डाल दी जाएं (स्वाद के अनुसार)... हां, इतना ज़रूर रहा कि जब भी मैंने इसे बनाना चाहा या बनाने में मदद की, मेरी डाक्टर बीवी ने इतना ज़रूर ध्यान रखा कि न तो नमक न ही चीनी ...न ही कम हो और न ही ज़्यादा हो.....जब भी मैंने ज्यादा चीनी डालनी चाहिए तो उन्होंने रोक लिया..यह कहते हुए कि इस का फ़ायदा नहीं, नुकसान होगा... दस्त रोग में।

जब हम छोटे छोटे थे तो --शायद सात आठ साल की अवस्था रही होगी,  रेडीमेड पाउच भी मिलना शुरू हो गये था.....जिन्हें पानी में मिला कर पिला दिया जाता था।

मैंने बीबीसी की साइट पर यह लेख पढ़ने के बाद डा आनंद की अद्भुत किताब को भी देखना चाहा---पहले भी कईं बार देख चुका हूं वैसे तो ... लेकिन फिर भी देखना ज़रूरी लगता है। उन्होंने अपनी किताब में लिखा है कि आज कर बाज़ार में रेडीमेड ओ आर एस -जीवन रक्षक घोल के रेडीमेड पाउच मिलने लगे हैं, जिन्हें पानी में घोलने के बाद तुंरत घोल तैयार हो जाता है, लेकिन वे कहते हैं कि वे मार्कीट में बिकने वाले इस तरह के उन पाउचों के पक्ष में नहीं हैं जिन में ग्लूकोज़ की मात्रा रिक्मैंडेड मात्रा से अधिक होती है, और इस से बात बनने की बजाए बिगड़ सकती है।

लिखते लिखते ध्यान आ जाता है पुरानी से पुरानी बातों का.......बचपन में हम देखा करते थे कि किसी को दस्त लग गए, एक तो रेडीमेड पाउच आदि पानी में घोल कर पिला दिया जाता था और उस की खटिया के पास स्टूल पर एक छोटा सा गत्ते का ग्लूकोज का डिब्बा भी रख दिया जाता था जो कुछ कुछ समय के अंतराल के बाद उसे घोल घोल कर पिला दिया जाता था।

एक तो पोस्ट इतनी लंबी होने लगी हैं कि मेरी मां भी मेरे लेखों की आलोचना में यही कहती हैं......लिखता तूं बढ़िया है, प्रेरणा मिलती है, जानकारी मिलती है तेरे लिखने से..... पर तू लिखता बड़ा लंबा है।

मेरी दिक्कत यह है कि मैं थोड़े शब्दों में अपनी बात कहना सीख ही नहीं पाया।

हां, तो बात चल रही थी, उस घोल में ज्यादा चीनी की, ज्यादा नमक की...... इस को जानने समझने के लिए कि यह क्या चक्कर है, आप को उस महान डाक्टर नार्बट हिर्स्चार्ण के काम के बारे में जानना होगा।

यह डाक्टर साहब १९६४में पूर्वी पाकिस्तान जिसे अब बंगला देश कहा जाता है में पोस्टेड थे.....वहां पर हैजे से मरने वालों की संख्या बहुत ज्यादा थी..... ऐसे मरीज़ों की दस्त की वजह से ही मौत हो जाया करती थी क्योंकि जितने लोगों को  इंट्राविनस फ्लयूड्स (जिसे ग्लूकोज या सेलाइन चढ़ाना कहते हैं ...बोतल जब चढ़ाई जाती है).. मिलने ज़रूरी थे उतने इंतज़ाम हो नहीं पा रहे थे।

इस महान डाक्टर ने बड़ी सावधानी से रिसर्च करनी शुरू की .....कईं बार साथी डाक्टरों ने विरोध भी किया लेकिन फिर फिर भी इन्होंने फूंक फूंक कर पैर रखा इस रिसर्च में और आखिर एक ऐसा आविष्कार कर के ही दम लिया जिस ने अब तक ५ करोड़ लोगों की जान तो बचा ही ली है, और अभी भी यह गिनती निरंतर बढ़ रही है।

समझने वाली बात केवल यही है कि अगर दस्त के मरीज को ऐसा घोल दिया जाए जिस में मौजूद घटकों की मात्रा और रक्त में मौजूद उन घटकों की मात्रा एक जैसी हो तो समझो बात बन गई........ यही आविष्कार सब से अहम् था और इसे बीसवीं सदी का सब से बड़ा मैडीकल आविष्कार भी कहा जा रहा है।

अगर ये घटक अधिक या कम मात्रा में होंगे तो इस का फायदा तो क्या होना है, बल्कि विपरीत असर ही होगा।
जीवन रक्षक घोल को घर बनाने की विधि......एक लिटर उबाला हुआ पानी जिसे ठंडा कर दिया गया हो, उस में एक टी-््स्पून नमक (लेवल किया हो, ऊपर तक न भरा हो), और ८ टी-स्पून शक्कर के डाल (लेवल किया हो).. इन्हें मिला कर घोल बना लें और फिर नींबू के रस की कुछ बूंदे स्वाद अनुसार मिला दें। बना कर फ्रिज में रख दें और थोड़े थोड़े समय बाद दस्त के मरीज को दें और स्वयं देखिए की किस तरह से संजीवनी बूटी जैसे यह सस्ता सा, बिल्कुल घर ही में तैयार किया हुआ घोल सब को ठीक ठाक कर देता है.........जैसा कि आप उस बीबीसी रिपोर्ट में (जिस का लिंक मैं नीचे लगा दूंगा) एक स्लाईड शो में भी देखेंगे कि किस तरह के एक छोटा दस्त की वजह से बिल्कुल निढाल सा हुआ आता है.. लेिकन जीवन रक्षक घोल लेने के आधे एक घंटें में किस तरह से चुस्ती लौटने लगती है और तुरंत स्तनपान करने लगता है, जब वह आया तो उस में स्तनपान करने की भी शक्ति न थी।

वैसे तो एमरजैंसी में तो ऐसा भी कहा गया है कि अगह पानी उबालने वालने का कोई जुगाड़ न हो, तो भी एक गिलास पानी में एक चम्मच चीनी और एक चुटकी नमक मिला कर हिलाएं, चंद बूंदें नींबू के पानी की डाल दें और दस्त से ग्रस्त बच्चे या बड़े व्यक्ति को यह देना शुरू करें.......... रिजल्ट तुरंत मिल जायेगा।

सोचने वाली बात यह तो है कि क्या इस तरह के डाक्टर किसी फरिश्ते से कम हैं जिन्हें ईश्वर किसी खास मकसद के लिए धरती पर भेजता है.........इन की इंटरव्यू भी ज़रूर देखिए, नीचे दिए गये लिंक पर ही मिलेगी.......कितनी सहजता, कितना साधारण व्यक्तित्व और कितना ठहराव। इन को हमारा सब का कोटि कोटि नमन।

लिखना तो और भी चाहता हूं ---मां की नसीहत याद आ गई फिर से.......छोटे लेख लिखा कर।
Inspiration........ The man who helped saved 50 million lives (BBC Report) 

One of the outstanding useful videos i ever came across.........

रविवार, 3 अगस्त 2014

बेबी फेक्ट्री जहां मिलती है किराए की कोख

किराए की कोख के बारे में आप सब देखते सुनते रहते ही हैं। अभी मैंने भी बीबीसी हिंदी की साइट पर एक रिपोर्ट देखी है...... गुज़रात की बेबी फेक्ट्री जहां मिलती है किराए की कोख।

रिपोर्ट बनाने में खासी मेहनत की गई लगती है।

मेरा तो ध्यान नियम कायदों की जगह अटक गया......
  • सरोगेट माताओं को डॉर्मेट्री में रहना अनिवार्य है.
  • गर्भावस्था के दौरान सेक्स की इजाजत नहीं.
  • दंपति, अस्पताल या डॉक्टर किसी भी दुर्घटना के लिए जिम्मेदार नहीं.
  • सप्ताह में सिर्फ रविवार को ही पति एवं बच्चों को ही माताओं से मिलने की इजाजत
  • एक महिला अधिकतम तीन बार बन सकती है सरोगेट.
  • जन्म देने के बाद कुछ महिलाओं को दंपति इस बच्चे की देखरेख की नौकरी दे देते हैं.

एक बात पढ़ कर और भी अजीब सा लगा ...अगर सरोगेट माता जुड़वां बच्चों को जन्म देती है तो उसे करीब सवा छह लाख रुपए मिलता है और यदि पहले ही गर्भ गिर गया तो उसे करीब 38,000 रुपए देकर विदा कर दिया जाता है.

सोचने की बात है कि उस मां के लिए कितना मुश्किल होता होगा यह सब कर पाना, यह सब सहना, अपने परिवार से दूर रहना, बिल्कुल जेल जैसी बात ही हो गई.. पैसा के लिए यह सब सह जाती हैं भारतीय नारी.

बीबीसी की रिपोर्ट का लिकं यह है..... गुज़रात की बेबी फेक्ट्री जहां मिलती है किराए की कोख...और उस रिपोर्ट के नीचे भी इस से संबंधित उपयोगी जानकारी हेतु लिंक्स दिए गये हैं। 

फल-फ्रूट व सब्जियों को नमकीन पानी से धोना क्यों जरूरी

अभी अभी टाइम्स ऑफ इंडिया में एक रिपोर्ट दिखी है कि फल-फ्रूट एवं सब्जियों को टेप-वार्म से निजात दिलाने के लिए इन्हें नमकीन पानी से धोना बहुत ज़रूरी है। यह बात लखनऊ में संजय गांधी पोस्ट-ग्रेजुएट इंस्टीच्यूट आफ मैडीकल साईंस में न्यूरोलॉजीकल सोसाइटी के एक अधिवेशन में बताई गई है।

अगर यह छोटी सी बात मान ली जाए तो यू पी के जनता को भी इस का बड़ा फायदा होगा क्योंकि इस क्षेत्र में टेप-वार्म से होने वाली बीमारी न्यूरोसिस्टीसरकोसिस व्याप्त है।

यू पी में न्यूरोसिस्टीसरकोसिस ४ प्रतिशत जनता में पाई जाती है जब कि इस बीमारी का राष्ट्रीय औसत ३ प्रतिशत है।

रिपोर्ट में लिखा है कि लखनऊ के पास एक जगह मोहनलालगंज क्षेत्र में एक सूअर पालने वाले समुदाय में इस बीमारी -टेपवर्म इंफैक्शन- को १८ प्रतिशत लोगों में पाया गया जब कि इन में से ५.८प्रतिशत लोगों में सक्रिय मिर्गी रोग भी पाया गया। और जिन लोगों में मिर्गी रोग मिला उन में से ४८ प्रतिशत लोगों में न्यूरोसिस्टीसरकोसिस संक्रमण पाए जाने के पुख्ता सबूत भी मिले।

रिपोर्ट में डा सुनील प्रधान ने लिखा है........ "In cities, raw vegetables in junk food were the main source of the disease. Salads were the next big cause. We have gathered inputs that even the best of restaurants do not take adequate measures to get vegetables rid of tapeworm."


अब इतना सारा जंक फूड देश में सडकों के किनारे बिकता है, वे कहां धोते फिरते होंगे ये सब्जियां नमकीन पानी से, इसीलिए डा प्रधान ने यह बात कही है कि जंक फूड में इस्तेमाल की जाने वाली सब्जियां इस बीमारी का बहुत बड़ा कारण है, और जो सलाद सार्वजनिक स्थानों में दिया जाता है.....शादी ब्याह की दावतों में या फिर भंडारों आदि में--उन के बारे में सोचने की भी बहुत ज़रूरत है।

ये डाक्टर लोग जब कोई बात कहते हैं तो सारे जीवन की पढ़ाई लिखाई का अपने पेशे का अनुभव मुफ्त में बांट रहे होते हैं, इन की बात बिना किसी किंतु-परतु के मान लेनी चाहिए, और वैसे भी नमकीन पानी में फल-सब्जियां धोना या जंक-फूड को त्यागना इतनी बड़ी बात भी नहीं है...क्योंकि टेपवर्म जो दिमाग में पहुंच कर उत्पात मचाता है, यह एक विकट समस्या बन जाती है।

शायद लोगों को यही पता होगा कि सूअर का आधा कच्चा-आधा पक्का मीट खाने से ही यह टेपवर्म की बीमारी हो सकती है, लेकिन इन विशेषज्ञों ने इस की गहराई पर भी प्रकाश डाला है।

Source:   Wash veggies in salt water to get rid of tapeworm 

शनिवार, 2 अगस्त 2014

सौ साल से बड़ी उम्र की महिलाओं को मिली सिलाई मशीनें?

बीबीसी न्यूज़ को दिन में एक बार देख लेना चाहिए.. पता चलता रहता है कि देश में चल क्या रहा है।
ऐसी ही एक खबर पर अभी अभी नज़र पड़ी है जिस में बताया गया है कि छत्तीसगढ़ के रायपुर में १०० से ज्यादा वाली सैंकड़ों महिलाओं को सिलाई मशीनें बांटी गई हैं।

रिपोर्ट में बताया गया है कि ६हज़ार से भी ज्यादा महिलाएं ऐसी हैं जिन्हें इस स्कीम के अंतर्गत लाभ प्राप्त हुआ है और जिन की उम्र ११४ वर्ष से भी ज़्यादा है।

क्या करें, यकीन कर लें, इस बात पर भी या पहले छानबीन चलने दें। इस स्कीम में करोड़ों रूपये खर्च हुये हैं और आजकल इस की भी छानबीन चल रही है।

भारत में कभी चारे की खरीद में लफड़ेबाजी, फिर जवानों के कफ़न के साथ, फिर पुलिस वालों की जेकेटों के साथ.....दवाईयों की तो बात ही क्या करें, दवाईयों से खाने-खिलाने की बातें तो बहुत पुरानी हो गई हैं, लोग नाम तक भी नहीं लेते।

India: Sewing machines given to '100-year-old' woman

1957 से पहले जन्मे लोगों को क्या खसरे का टीका फिर से लगवा लेना चाहिए?

 आज एक न्यूयार्क-टाइम्स के एक पेज पर नज़र पड़ी जिस में एक व्यक्ति ने विशेषज्ञ ने यह पूछा था कि क्या बड़ी उम्र के लोगों को खसरे से बचाव का टीका फिर से लगवाना चाहिए।

उत्तर में विशेषज्ञ ने साफ साफ बता दिया कि अगर तो आप का जन्म १९५७ के पहले हुआ है तो कोई आवश्यकता नहीं है लेकिन अगर आप का जन्म १९५७ के बाद का है तो आप को इसे लगवा लेना चाहिए।

Do i need a measles shot?

खसरा अर्थात् मीसल्ज़ का टीका अन्य दो बीमारियों से बचाव के टीके के साथ ही लगता है जिसे एमएमआर वैक्सीन कहते हैं।

१९५७ वाली बात मेरे को कुछ अजीब सी लगी, जिज्ञासा हुई कि यह १९५७ का क्या चक्कर है? लेकिन सीडीसी की साइट पर इस का सटीक जवाब भी मिल गया... जिन लोगों का जन्म १९५७ से पहले हुआ, उन लोगों का जीवनकाल उस समय के दौरान गुज़रा जब मीसल्ज़ का पहला टीका नहीं आया था ...इसलिए इस बात की पूरी संभावना है कि उन लोगों में मीसल्ज़ की बीमारी हो चुकी होगी। सर्वे से भी यही पता चला है कि ९५ से ९८ प्रतिशत लोग जिन का जन्म १९५७ से पहले का है, उन में से ९५ से ९८ प्रतिशत लोगों में इस बीमारी की इम्यूनिटी है --अर्था्त् उन में इस के लिए रोग प्रतिरोधक क्षमता उपलब्ध है। साथ में यह भी लिखा था कि यह १९५७ का नियम केवल मीसल्ज़ और मम्स दो
बीमारियों के लिए लागू है, यह रूबैला पर लागू नहीं है।

अब अगला प्रश्न था कि क्या जिन लोगों को १९६० के दशक में एमएमआर जैसे टीके लगे हों, क्या उन को फिर से ये टीके लगवाने होंगे?.... यह कोई इतना ज़रूरी नहीं है। जिन लोगों के पास तो इस तरह का कोई रिकार्ड उपलब्ध है कि १९६० में उन्हें लाइव मीसल्ज वैक्सीन लग चुका है, उन्हें तो इसे फिर से लगवाने की ज़रूरत नहीं है।

जिन लोगों का यह टीकाकरण १९६८ से पहले हुआ है और उन में निष्क्रिय (मृत) मीसल्ज वैक्सीन का या ऐसे वैक्सीन का इस्तेमाल किया गया हो जिन का उन्हें अब पता नहीं---ऐसे लोगों को इस नये लाइव एटैन्यूएटेड वैक्सीन की एक खुराक हासिल कर लेनी चाहिए। यह सिफारिश केवल उन लोगों के लिए है जिन को ऐसे मीसल्ज़ टीके से वैक्सीनेट किया गया जो कि १९६३-१९६७ के बीच उपलब्ध तो था लेकिन वह इस रोग की रोकथाम के लिए प्रभावी नहीं था।
बहुत भारी हो गया ना आप सब के लिए यह समझना ...१९५७ की लक्ष्मण-रेखा, मृत टीका, लाइव टीका...यह सब कुछ ज्यादा ही डाक्टरी झाड़ने जैसा लग रहो होगा आपको। कोई बात नहीं कुछ खबरें बस केवल ध्यान में रखने के लिए ही काफी होती हैं। इस बात को भी ध्यान में रखिए। 
अमेरिका में तो वैसे यह समस्या इतनी नहीं है लेकिन फिर भी देशवासियों के स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता बढ़ाने का उन का संक्लप प्रशंसनीय है। सोचने वाली बात यही है कि भारत में इस तरह की जानकारी लोगों पर विश्वसनीय सोत्रों से विशेषकर सरकारी वेबसाइटों पर क्यों उपलब्ध नहीं है, और वह भी हिंदी में ....वैसे तो इंगलिश में ही कुछ खास उपलब्ध नहीं है तो हिंदी में कब आयेगा, कौन बता सकता है!
 लेकिन इस तरह की सेहत से संबंधित जानकारी हिंदी में ही उपलब्ध होनी चाहिए। इंगलिश को हम चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े लोग तो पढ़-समझ भी लें, एक गैर-चिकित्सक के लिए यह सब समझना इतना आसान नहीं है। 
सब कोई आवाज़े लगा रहा है कि हिंदी मे कंटैंट बढ़ना चाहिए, हर कोई कह रहा है... हर तरफ़ से ज़ोर ज़ोर से आवाज़ें आ तो रही हैं, लेिकन जो लोग हिंदी में कंटैंंट तैयार कर रहे हैं, उन की भी कोई सोचेगा या उन के हाथ में कटोरा ही ठीक है। ऐसे नहीं बढ़ता कंटैंट-वैंट, दुनिया में काफ़ी काम हैं ठीक है शौक से किए जा रहे हैं, और लोग कर रहे हैं, मिशन समझ कर लोग अपनी धुन में लगे हुए हैं, लेकिन जो बंदा सारा दिन हिंदी का कंटैंट ही तैयार करता रहेगा, उस की और उस के परिवार की भी तो ज़रूरते होंगी, वह कौन पूरी करेगा? इसलिए मुझे यह सब आडंबर लगता है कि हम किसी को भी इमोशनल ब्लैकमेल करते रहें कि हिंदी भाषा अपनी है, इस में लिखो, ऑनलाइन कंटैंट तैयार करो, लेकिन तैयार करने वाले का ध्यान कौन करेगा? 
चलिए इस बात पर अभी मिट्टी डालते हैं और आप को कुछ अच्छे से लिंक दे रहा हूं जहां से आपको ऊपर दिए गये प्रश्नों के जवाब तलाशने में सुविधा रहेगी। पाठकों से अनुरोध है कि अपने बारे में फिर से टीका लगवाने के बारे में निर्णय लेने से पहले अपने फ़िजिशियन से इस की चर्चा कर लें। यहां तो वैसे ही यह बीमारी इतनी व्यापक स्तर पर है कि शायद आप को भी वैसे ही प्राकृतिक इम्यूनिटी प्राप्त हो चुकी हो। फिर भी ज़्यादा जानकारी नीचे दिए गये लिंक्स पर जा कर पाई जा सकती है........ 

खाद्य पदार्थों में मिलावट की जांच के लिए

भारतीय खाद्य संरक्षा एवं मानक प्राधिकरण- जिसे इंगलिश में फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्डज़ अथॉरिटी ऑफ इंडिया कहते हैं जो एक सरकारी साइट है और जिस के बारे में आप इस लिंक पर क्लिक कर के और भी जान सकते हैं।

जब से यह साइट तैयार हुई है या यूं कह लें कि जब से यह प्राधिकरण बना है मैं इस साइट पर अकसर जाता रहता हूं कि शायद कुछ बढ़िया सा उपभोक्ता के दृष्टिकोण से मिल जाए।

एक बात पहले ही नोटिस कर लें कि इस साइट पर ऊपर एक बटन मिलेगा --भाषा के लिए.. उस पर क्लिक करने पर एक मेन्यू खुलता है जिस में शायद बीस से भी ज़्यादा भाषाओं के विक्लप बताये जाते हैं.......अर्था्त् जिस भी भाषा में --भारतीय हो या विदेशी, आप उस पर क्लिक करें तो सारी जानकारी उस भाषा में उपलब्ध हो जायेगी। लेकिन ध्यान रहे कि ऐसा कुछ है नहीं, बस केवल होम पेज पर सारे शीर्षक ज़रूर हिंदी या आप के द्वारा चुनी भाषा में आ जाएंगे ...बाकी फिर उस के आगे सब कुछ इंगलिश ही इंगलिश।

इन का ब्लॉग क्या ब्लॉग कहा जा सकता है, इस का फैसला मैं आप पर छोड़ता हूं। मैंने देखा कि इन्होंने अखबारों में से कुछ लेख जैसे के तैसे उस ब्लॉग पर टिकाए होते हैं......मैंने उस पर टिप्पणी भी दी कि ऐसा मत किया करो, पाठक आप की साइट पर कुछ नया ढूंडने के चक्कर में आता है। अब पिछले लगभग सवा साल से इन्होंने ब्लॉग को अपडेट ही नहीं किया। चलिए, इन से जान पहचान तो मैंने करवा दी.......बाकी आप स्वयं इन की साइट पर जा कर कर लीजिएगा। अगर मुझे भूल में सुधार करना हो तो कृपया इस पोस्ट की टिप्पणी में लिखिएगा।

हां, जिस काम के लिए मैं यह पोस्ट लिख रहा हूं --वह यह है कि इस प्राधिकरण की साइट पर खाद्य पदार्थों की मिलावट की घरेलू जांच हेतु कुछ अच्छी जानकारी भी उपलब्ध है, इस की पीडीएफ फाइल का लिकं यहां लगा रहा हूं....  Quick Test for some adulterants in food.

यह सारी जानकारी इंगलिश में है , पहले तो इन को यह सारी जानकारी हिंदी में ही नहीं, सभी भारतीय भाषाओं में उपलब्ध करवानी चाहिए ताकि जनता जनार्दन को पता तो चले कि उन की सेहत के साथ खिलवाड़ किन किन वस्तुओं की मिलावट से हो रहा है। शायद यह पहला स्टेप होगा जागरूकता का।

मैंने पढ़ा है वह सारा डाक्यूमैंट। चाहे मैं इस तरह के विषय को बहुत बार ढूंढ चुका था, इस तरह की प्रामाणिक जानकारी......लेकिन इतने सारे कैमीकल्स, उपकरण.......इक्ट्ठे करने....ऐसे तो पहले घर को लैबोरेटरी बनाने वाली बात हो गई।

लेकिन बात वह भी है कि अगर किसी भी मिलावट के पुख्ता सबूत चाहिए तो कुछ तो मेहनत करनी ही होगी। मैं कल से सोच रहा हूं कि इस मैन्युल में बताए गये टैस्टों का  क्या कोई वैकल्पिक जुगाड़ नहीं हो सकता ...कुछ भी...जैसे बड़े बड़े शहरों की हाउसिंग सोसाइटी की तरफ़ से, गांवों में पंचायतों, शहरों में मोहल्ला कमेटियों की तरफ़ से ...इस तरह का उपकरण मंगवा कर ..फिर टैस्टिंग शुरू की जा सकती है।

यह सब महंगा बिल्कुल भी नहीं है...लेकिन घर घर में इस तरह के सामान कहां कोई इक्ट्ठे करता फिरेगा और फिर उन्हें संभाल कर रखेगा। इसलिए टैस्टिंग की कोई वैकल्पिक व्यवस्था हो पाए तो बात बने। वरना तो हम जैसे साईंस पढ़े लोग ही इन सब को खरीदने की सिरदर्दी से दूर भागते हैं।

जो भी हो, जानकारी तो बहुत बढ़िया दी गई है। अब बारी है यह सोचने कि आखिर हो क्या जाएगा इस तरह की टैस्टिंग करने से ........घर, मोहल्ले में टैस्टिंग से क्या हासिल, किसी को फांसी को दिलवाने से रहे, लेकिन फिर भी एक बात तो पक्की है कि जन जागरूकता तो बढ़ेगी, लोगों में -व्यापारियों में भी बात तो फैलेगी कि लोग अब टैस्टिंग करने लगे हैं, इसलिए ये जो परचून के व्यापारी हैं ..सब से पहले तो शायद यही लोग मिलावट से तौबा करने लगें।

जब घर, मोहल्ले में इन चीज़ों की टैस्टिंग की जाए और मिलावट पाई जाए तो उस को विभिन्न माध्यमों से शेयर किया जाए, लोकल केबल चैनल से, अखबार के स्थानीय संस्करण के द्वारा या बड़े शहरों में ग्रुप हाउसिंग सोसाइटी के नोटिस बोर्ड पर, सोशल मीडिया पर...  इस के बारे में लिख कर ........ऐसे जागरूकता फैलती जाएगी, छोटे मोटे व्यापारी मिलावट करने से डरने लगेंगे।

थोड़ा लिखिएगा इस पोस्ट की टिप्पणी में अगर आप के पास भी कोई आइडिया है कि खाद्य प्राधिकरण के इस मैन्युल को कैसे प्रैक्टिस में उतारा जा सकता है, जब काम की जानकारी उपलब्ध हुई है तो उस का फायदा भी लिया जाए।

कम से कम इस मैन्युल को डाउनलोड कर के, प्रिंट आउट ले कर रखा जाए ... कुल २२ पेज ही तो हैं......ताकि यदा कदा उस पर नज़र पड़ती रहे, विशेषकर बच्चों की .......जो हम से कहीं ज्यादा सचेत रहना चाहते हैं, उद्यमी होते हैं .......देखिए उन के पास ही कितने आइडिया होते हैं .......सभी को इस मिलावट रूपी जहर के प्रति जागरूक करने के िलए। ज़रूरत है बस इस बात की इस जागरूकता रूपी मशाल को हमेशा जलाए रखने की।

चोरों के लिए कईं बार बस इतना ही काफ़ी होता है कि कहीं पर कोई न कोई नज़र रखे है। तिनका तो होता ही है उन की दाढ़ी में...

शुक्रवार, 1 अगस्त 2014

सूंघने वाली इंसुलिन

कुछ साल पहले की बात है कि हमारी एक आंटी जी हमारे पास कुछ दिनों के लिए आईं थीं.. वह मधुमेह से पीड़ित थीं, स्वभाव की बहुत अच्छी, हंसमुख तबीयत की. अपनी बीमारी के बारे में कुछ ज़्यादा सोचती नहीं थीं। मस्त रहती थीं, उन के गुज़रे भी बहुत वर्ष बीत गये हैं।

मुझे याद है जब उन्हें दिन में कईं कईं बार इंसुलिन के टीके अपनी जांघ के पट्ठों पर लगाने पड़ते थे, सुन कर ही बहुत कठिनाई होती थी। जांघ पर ही नहीं, शरीर की अन्य जगहों पर भी बाजु, पेट (एबडॉमन)आदि पर वह टीके लगा लेती थीं इंसुलिन के। वैसे तो वह स्वयं भी लगा लिया करती थीं लेकिन बहुत बार उन की बहू उन की इस काम में मदद किया करती थीं।

मुझे अभी भी याद है वह २०-२५ वर्ष पुरानी बात जब एक बार वह टीका लगा रही थीं तो किस बेबसी के भाव से उन्होंने कहा कि क्या करूं, जिधर चमड़ी थोड़ी ठीक लगती है, उधर ही लगा लेती हूं इंजैक्शन....सारे शरीर को तो टीके लगा लगा छील दिया है !!

आज जब इस खबर पर ध्यान गया कि अब सूंघने वाली इंसुलिन को भी अमेरिकी एफडीआई की एप्रूवल मिल गई है .. तो यह जान कर प्रसन्नता हुई। चाहे बाद में लिखा गया है कि यह सूंघने वाली इंसुलिन लॉंग-एक्टिंग इंसुलिन का विकल्प नहीं है। इसे तो उस लॉंग-एक्टिंग इंसुलिन के साथ (ज़ाहिर सी बात है टीके से लगने वाली इंसुलिन).. ही लेना पड़ेगा।

इतना पढ़ कर भी ठीक ही लगा कि चलो, बीमारी से पहले से ही परेशान मधुमेह रोगी कम से कम कुछ टीकों से तो बच ही जाएंगे।

जाते जाते एक बात लिखने को मन हो रहा है ..जितनी बुरी मैनेजमैंट मैंने मधुमेह के रोगियों की देखी है, शायद ही कोई ऐसी बीमारी हो जिस का यह हाल हो। मरीज़ नियमति ब्लड-शुगर की जांच करवाते नहीं या करवा नहीं पाते, और भी आंख की या अन्य रक्त की जांच न होने की वजह से अन्य अंगों में जटिलताएं उत्पन्न तो होती ही हैं, साथ ही साथ, मधुमेह में ली जाने वाली दवाईयों को भी ठीक से एडजस्ट नहीं करवा पाते..... सही तरह से फॉलो-अप का अभाव, विशेषज्ञ चिकित्सकों तक न पहुंच पाना, नीम हकीमों के झांसे, देसी दवाईयां, पुडियां....एक ही समय में कईं कईं इलाज एक ही तकलीफ़ के करने की कोशिश.............. देश में हर बंदे  -- ९९ प्रतिशत लोगों की बड़ी जटिल समस्याएं हैं। इन के सब्र से डर लगता है--- रात को बत्ती नहीं, पानी की समस्या, सूखा, महंगाई और ऊपर से बीमारी।

ईश्वर सब को सेहतमंद रखे। खुश रखे। काश, सब के अच्छे दिन एक नारा ही न जाए, सब के दिन पलट जाएं।

Authority.. Inhaled insulin approved by FDA 

जापानी बुखार के बारे में लिखने की ज़रूरत ही क्या है!

जैसे हम लोग हर वर्ष कुछ दिन मनाते हैं ना, मुझे बेहद अफ़सोस से कहना पड़ रहा है कि यह जापानी बुखार के प्रकोप के दिनों में भी कुछ ऐसा माहौल सा बनता दिखता है बस कुछ दिन।

मीडिया विशेषकर इलैक्ट्रोनिक मीडिया कुछेक बार इस समस्या को दिखाते हैं। यू.पी, बिहार या पश्चिमी बंगाल के बच्चों के दिमागी बुखार या जापानी बुखार के ग्रस्त होने की खबरें आती हैं। हम सब के लिए वे खबरें ही होती हैं, है कि नहीं ? अब तो जापानी बुखार के केस देश के अन्य भागों से भी नियमित होने लगे हैं। 

लेिकन जिस घर से ये सैंकड़ों बच्चों के जनाजे उठते हैं उन पर जो बीतती है वे वही जानते हैं। ईश्वर से यही प्रार्थना है कि सब लोग तंदरूस्त रहें और बड़े बड़े अस्पताल खूब घाटे में चलने लगें। आमीन...
दो चार दिन पहले मैंने रिटर्ज़ पर यह खबर देखी..... India battles to contain 'brain fever' as deaths reach almost 570
 It is most often caused by eating or drinking contaminated food or water, from mosquito or other insect bites, or through breathing in respiratory droplets from an infected person.
इस खबर में यह लिखा पाया कि यह बीमारी आम तौर पर दूषित खाना या पानी खाने-पीने से, मच्छरों एवं अन्य कीड़ों के काटने से या फिर संक्रमित व्यक्ति के पास बैठे इंसान को उस की सांस से बाहर निकले ड्रापलैट्स के द्वारा होती है।
मुझे पढ़ कर अजीब सा इसलिए लगा कि जहां तक मेरी जानकारी है, यह जापानी बुखार मच्छरों के काटने से ही होता है।

फिर मैंने हिंदोस्तान की सेहत से संबंधित सरकारी साइटों की मदद लेनी चाहिए.......लेिकन वे भी मुझे किसी बाबू की टेबल की तरह वैसे तो खूब भारी भरकम लगीं लेकिन आम जन के लिए किसी भी तरह की जनोपयोगी सेहत संबंधी सामग्री नहीं मिली.......हिंदी को तो भूल ही जाइए, अंग्रेजी में भी नहीं मिलीं। जिन साइटों को मैंने खंगाला वे केन्द्रीय सेहत मंत्रालय की साइट, एम्स दिल्ली की साइट और इंडियन काउंसिल ऑफ मैडीकल रिसर्च जैसी साइटों की पूरी तलाशी ले ली, कुछ भी नहीं मिला। इस जापानी बुखार के बारे में ही नहीं, बल्कि किसी भी आम शारीरिक समस्या के बारे में भी कुछ भी नहीं। शायद मेरे ढूंढने में कोई कमी रह गई होगी, इसलिए आप भी चैक कर लीजिएगा और अगर कुछ मिले तो बतलाईए, मैं अपनी गलती को सुधार लूंगा।

जिस संस्था के लिए काम करता हूं , उस के ७००-८०० डाक्टरों ने फेसबुक पर एक ग्रुप बना रखा है, एक्टिव उस में १०-२० ही रहते हैं, बाकी तो बस स्वाद लेने वाले हैं, चुपचाप सब कुछ पढ़ कर बिना कुछ कहे, दबे पांव खिसक लेते हैं। मैंने उस फोरम में भी यह समस्या रखी कि क्या यह जो रिटर्ज़ की साइट पर लिखा है, यह सही है ?  लेकिन हैरानी की बात उन में से किसी ने भी इस बात का जवाब नहीं दिया।

बहरहाल, फिर वही ढूंढते ढांढते विश्व स्वास्थ्य संगठन की साइट पर इस से संबंधित सटीक जानकारी मिल गई ....वहां पर भी यही लिखा हुआ था कि यह जापानी बुखार मच्छरों के काटने से ही होता है...और कुछ खाने पीने से यह बीमारी होने की बात नहीं कही गई। इस बीमारी से प्रभावित क्षेत्रों में लोगों को मच्छरदानी लगा कर सोने की सलाह दी गई है और सूअर पालने के लिए मना किया गया है।
 इस बीमारी के बारे में ठीक से जानने के लिए मेरे कहने पर WHO के इस पेज को अवश्य देखिएगा....... Japanese Encephalitis 

बस सोच रहा था कि मुझे इस तरह की जानकारी तक पहुंचाने में इतनी मशक्कत करनी पड़ी, ऐसे में कहां हर कोई इतनी मगजमारी करना चाहेगा। दावे चाहे कितने भी हों, लेकिन सच्चाई यह है कि नेट पर हिंदी की तो छोड़िए, अंग्रेज़ी में भी भारत में पाई जाने वाली बीमारियों के बारे में सरकारी साइटों पर कुछ खास नहीं है ("कुछ भी" लिखते डर सा लगता है, बस इसलिए "कुछ खास" लिख दिया....) ...हर कोई बड़ी बड़ी हस्तियों के साथ फोटू वोटू निकलवा कर साइटों में डालने में ज़्यादा रूचि लेता दिखता है।

हां, तो जापानी बुखार की बात कुछ तो कर लें......यह होता उन क्षेत्रों में ही है जहां धान के खेतों में बाढ़ का पानी इक्ट्ठआ होता है, मच्छऱ पनपते हैं, फिर सूअर के शरीर में यह वॉयरस इक्ट्ठा होती है, फिर ये मच्छर तक पहुंच जाती है और आगे फिर मच्छर जब लोगों को काटता है तो यह बीमारी पैदा हो जाती है। छोटे बच्चों में यह बीमारी बहुत बार तो उन की जान ही ले लेती है। इस के टीके भी उपलब्ध हैं, और सुना है कि कोशिश की जा रही है कि कम से कम इस रोग से प्रभावित क्षेत्रों के लोगों का टीकाकरण ही कर दिया जाए। महंगा तो काफ़ी है टीका, लेकिन किसी भी बच्चे की जान की कीमत से तो उस के दाम की तुलना नहीं की जा सकती।

जब टीके के दाम का ध्यान आ गया तो यही विचार आया कि उन लोगों को चुल्लू भर पानी में डूब मरने की ज़रूरत है जिन्होंने राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन में करोड़ों रूपयों से घर भर लिए और फिर वे सब किस तरह से निकले, यह सारा संसार जानता है। जो भी पैसा किसी भी कर्मचारी या अधिकारी के घर में पड़ा पड़ा सडने लगा वह किसी न किसी स्कीम के लिए ही तो आवंटित होगा, शायद इन्हीं बच्चों को जापानी बुखार से बचाने वाले टीकों के लिए भी सुरक्षित पैसा इन के पलंगों के बक्सों के अंदर पहुंच गया। लेकिन क्या फायदा?..  कुछ भी तो नहीं, लेकिन फिर भी कुछ लोगों ने ना समझने की कसम खा रखी होती है।

गुरुवार, 31 जुलाई 2014

ई-बोला वॉयरस इंफैक्शन आजकल बहुत चर्चा में है---क्या है यह?

 ई-बोला हैमरेजिक बुखार एक बहुत ही खतरनाक बीमारी है जो कि ९०प्रतिशत केसों में जान ही ले लेती है और यह मानव एवं प्राइमेट्स में (जैसे कि बंदर, गोरिल्ला) में होती है। 
यह बीमारी एक वॉयरस के द्वारा होती है -वैज्ञानिकों ने पांच तरह की ई-बोला वॉयरस की पहचान की है। अभी तक तो यह बीमारी अफ्रीका के कुछ भागों तक ही सीमित थी। 
मैं आज कहीं पढ़ रहा था कि इस वॉयरस को बॉयो-टेरेरिज़म के लिए भी इस्तेमाल किया जा सकता है। 
मनुष्यों में यह बीमारी संक्रमित पशुओं एवं पशुओं के पदार्थों से (animal materials)..फैल सकती है। ई-बोला वॉयरस इंसानों में आपस में नज़दीकी संपर्क से एवं संक्रमित शारीरिक द्रव्यों के द्वारा और अस्पताल में संक्रमित सूईंयों से फैल सकती है।
इस की जांच के लिए विभिन्न तरह के टैस्ट उपलब्ध हैं। 
शुरूआती दौर में इस के लक्षण हैं जो कि लगभग एक हफ्ते तक रह सकते हैं...... जोड़ों में दर्द, पीठ दर्द, कंपकपाहट, दस्त, थकान, बुखार, कुछ न करने का मन, मतली, गले में दर्द, उल्टी होना....
बाद में यह लक्षण आ जाते हैं..... आंखों, कानों और नाक से खून बहना, मुंह से और गुदा द्वार से रक्त बहना, आंख की सूजन, यौन अंगों की सूजन (महिलाओं में योनि द्वार - लेबिया और पुरूषों में अंडकोष की सूजन), चमडी में ज्यादा दर्द महसूस होना, सारे शरीर में अजीब तरह की रक्त-रंजित खारिश, और मुंह में तालू लाल दिखने लगता है। 
इस बीमारी का इलाज कुछ है नहीं, लगभग ९० प्रतिकेस तो जान गंवा बैठते हैं. वैसे मरीज़ को आईसीयू में रहने की ज़रूरत पड़ती है और वहां पर उसे रक्त या प्लेटलेट्स दिये जा सकते हैं। अकसर मरीज की मौत रक्त चाप बहुत नीचे गिर जाने से होती है। 
अधिक जानकारी के लिए यहां पढ़िए.....   Ebola Hemorrhagic fever
Further reading.......
                   Sierra Leone declares Ebola Emergency
                   Why Ebola is so dangerous?

मैंने अपनी कमर माप ली, क्या आप ने मापी...

आज सुबह बीबीसी न्यूज़ पर यह रिपोर्ट दिखी तो एक बार फिर से आंखें खुल गईं। क्या करें, आंखें तो कईं बार पहले भी खुल चुकी हैं, लेकिन हम मानते कहां है, कहां मीठा खाने पर कंट्रोल ही करते हैं और कहां नियमित शारीरिक परिश्रम ही करते हैं।

हां तो इस रिपोर्ट में लिखा है जिन पुरूषों की कमर ४० इंच और महिलाओं की ३५ इंच होती है उन में मधुमेह रोग का खतरा पांच गुणा बढ़ जाता है। पूरी रिपोर्ट पढ़ने के लिए आप इस नीचे दिए गये लिंक पर क्लिक कर सकते हैं।
'Tape measure test' call on type 2 diabetes

जैसा अकसर हमारे जैसे घरों में होता है, सुबह जब खबर पढ़ी तब तो इंचीटेप मिला नहीं, हां, जब श्रीमति जी ने दोपहर में ढूंढ लिया तो मैंने कमर मपवाई...बिल्कुल ऐसे ही जैसे इस रिपोर्ट की फोटो में दिखाई गई है..अर्थात् अम्बलाईकस के इर्द-गिर्द। मुझे उम्मीद थी कि यह ४० के करीब होगी। नहीं, ये ४२ से थोड़ी ऊपर थी।

फिर वह पैंट का भी माप लिया जो मैं पहनता हूं और जो अभी ठीक आती है, वह ४१ इंच के लगभग थी।
सीधी सीधी बात कि आंकड़ा ४० इंच तक तो शर्तिया पहुंच ही चुका है और उम्र ५० के पार हो गई है, इसलिए इस तरह की रिपोर्टें मेरे जैसों को यही याद दिलाने के लिए होती हैं कि अभी भी सुधर जाओ....खाना पीना ठीक कर लो, वैसे तो खाना पीना ठीक ही है, पीना है नहीं, लेकिन मीठा ज़्यादा हो ही जाता है और नियमित शारीरिक परिश्रम का अभाव बना हुआ है।

अब इन दोनों बातों का ध्य़ान रखना होगा, और दो एक दिन में फिर से साईक्लिंग शुरू करनी होगी।
आप भी अपनी कमर अभी माप ही लीजिए.....लेकिन मापिए नाभि को रेफरेंस लेकर ही। प्रेरणा हमें कहीं से भी मिल सकती है ..कभी भी.......... There is never a wrong time to do the right thing. So, just check!

आम हिंदोस्तानी की छोटी बड़ी मजबूरियां...

मेरे पास कुछ महीने पहले एक व्यक्ति आता था.. ७० के ऊपर की उम्र... २० साल से कोर्ट कचहरी के धक्के खा रहा है, लेकिन कहीं सुनवाई नहीं हुई..रिटायर हुए भी १२-१३ वर्ष हो गये हैं लेकिन अभी भी बड़ा हैरान, परेशान और एकदम पज़ल सा दिखा मुझे वह।

हैरान परेशान का कारण यही कि अभी तक कोर्ट-कचहरी में इतना पिसता रहा कि अभी भी तीनों बेटियों को ब्याहना है। और जिस बेटी को वह मेरे पास लेकर आया वह बेटी चाहती थी कि उस के आगे के सभी दांत एक दम सुंदर दिखने लगें .. सफ़ेद हो जाएं.. हंसते हुए जो थोड़े भद्दे से दिखते हैं, वे अच्छे दिखें......मैं सब समझ गया जब उस बुज़ुर्ग ने कहा कि लड़के वाले फोटो मंगवा रहे हैं, हम अभी भेज नहीं रहे हैं, ज़्यादा देर नहीं कर सकते, हम चाहते हैं इस के दांत अच्छे दिखने लगें तो ही फोटू खिंचवाए।

एक बाप की मजबूरी मैं समझ रहा था......मैंने भी कुछ दिन लगा दिए उस के दांतों को अपनी तरफ़ से बिल्कुल सफ़ेद-और बिल्कुल तरतीब में करने में। वे बाप और बेटी दोनों खुश थे। उन को खुश देख कर मैं भी बहुत खुश हुआ।
यह पोस्ट मैं इसलिए नहीं लिख रहा कि मैंने बहुत महान काम किया....सरकारी अस्पताल में सरकारी लोगों का अच्छे से इलाज करना मेरा पेशा है, सरकार उस के लिए मेरा ध्यान रखती है...ऐसे बहुत से युवत-युवतियों के चेहरों को सुंदर बनाया होगा.....लेकिन यह केस मुझे भुलाये नहीं भूलता क्योंकि यहां एक बाप की मजबूरी हर पल मुझे द्रवित करती थी।

लगभग ३० वर्ष की रही होगी उस की बेटी लेकिन वह बुजुर्ग बाप बेचारा इलाज के दौरान सामने बैठा  बीच बीच में उस के दांत को ऐसा चैक करता था -- जैसे कि कोई मां-बाप अपने छोटे शिशु को इलाज के लिए लाये हों। मुझे बिल्कुल भी असहज महसूस नहीं हुआ ..हर बाप का अधिकार है ...मैंने तो उन्हें इतना भी कहा कि वह इस बेटी की मां को भी साथ ला सकते हैं, लेकिन उसने बिल्कुल भोलेपन से जब कहा कि डा साहब, वह तो खाट पर पड़ी है, अगर आप कहेंगे तो टैक्सी कर के ले आएंगे। मैंने कहा ..नहीं, नहीं, मैं तो आप की संतुष्टि के लिए कह रहा था।

बहरहाल, इतने वर्ष हो गये इस काम को करते हुए लेकिन जितनी लाचारी, बेबसी और उम्मीद मैंने इस बुज़ुर्ग बाप की आंखों में देखी, मैंने शायद पहले कभी इस का अनुभव नहीं किया होगा। शुक्र है ईश्वर का कि मैं बाप बेटी की उम्मीदों पर खरा उतर सका।

सच में एक औसत हिंदोस्तानी की कितनी अजीबोगरीब मजबूरियां हैं ना....... क्या करे, हाय रे, हमारी सामाजिक व्यवस्था.......सुबह कभी तो आएगी।

बिल्कुल विश्वसनीय हैल्थ जानकारी हिंदी में मैडलाइन प्लस पर..

पांच छः वर्ष पहले मैंने एक लेख इस विषय पर लिखा था कि इंटरनेट पर सेहत से संबंधी जानकारी आप किन किन साइटों से प्राप्त कर सकते हैं। एक बार फिर से इस का लिंक यहां दे रहा हूं..

इंटरनेट पर स्वास्थ्य से संबंधित जानकारी के लिए वेबसाइटें

ये वेबसाइटें एक दम पुख्ता जानकारी उपलब्ध तो करवाती हैं लेकिन इंगलिश भाषा में। होता है कईं बार इंगलिश में किसी को बात ठीक से समझ न आए, ऐसे में कोई क्या करे। अब हिंदोस्तानी साइटों पर --सरकारी पर भी--मुझे तो कुछ इस तरह का इन सात-आठ सालों में दिखा नहीं कि मैं आप को उस की सिफ़ारिश कर सकूं।

लेकिन मुझे कुछ समय पहले यह अवश्य पता चला कि मैडलाइन प्लस नामक वेबसाइट पर सेहत से संबंधित जानकारी हिंदी में भी उपलब्ध करवाई जा रही है। यह जानकारी अमेरिकी की सरकारी संस्था नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मैडीसन से उपलब्ध करवाई जाती है....इस का वेबएड्रस जरूर नोट कर लें। बहुत काम की बात है।

इस का यूआर एल है .....   http://www.nlm.nih.gov/medlineplus/languages/hindi.html#E

मैं इस साइट पर लिखी बातों को एक दम विश्वसनीय मानता हूं.....मानता हूं क्या, यह एक दम विश्वसनीय ही है। जिस तरह से हम सरकारी अस्पताल के किसी वरिष्ठ, अनुभवी और ईमानदार चिकित्सक के परामर्श को बिल्कुल विश्वसनीय मानते हैं, बिना किसी नुकुर-टुकुर के आंख बंद कर के उस की सभी बातों पर विश्वास कर लेते हैं, उन्हें मान लेते हैं, इस साइट पर भी जितनी भी सेहत संबंधी जानकारी है वह उसी उच्च कोटि की है.........इंगलिश का पेज भी हिंदी के साथ ही लगा हुआ है, इसलिए किसी तरह की गलतफहमी की कोई गुंजाइश भी नहीं।

होता है कभी हमें किसी सेहत से संबंधित जानकारी को हिंदी में ही पढ़ना होता है, समझना होता है, तो इसके लिए ऊपर दिये गये लिंक से बेहतर विकल्प अभी तक मेरे को दिखा नहीं......भारत की सरकारी वेबसाइटें की छान ली हैं इन वर्षों में ..वहां भी रस्म-अदायगी ज़्यादा है, कहीं कहीं तो वह भी नहीं है। एक कड़ुवा सच।

मुर्गा खाना भी बीमारियों को बुलावे जैसे

मैं जहां रहता हूं लखनऊ ...उस कॉलोनी से बाहर निकलने पर जिस तरह से सड़क के किनारे लकड़ी की अलमारियों में बंद मुर्गे-मुर्गियां देखता हूं.... एक बड़ी ही दयनीय स्थिति लगती है।

मैं अभी कुछ दिन पहले ही सोच रहा था कि ये सब के सब बिल्कुल दुबके से, एक दूसरे से चिपके से, उदास से ऐसे पड़े हुए हैं जैसे इन को इन का अंजाम पता चल गया है और ये एकदूसरे के हमदर्द बने ऐसे दिखते हैं जैसे कि एक दूसरे का हौंसला बढ़ा रहे हों कि चिंता मत करो, देखेंगे जो होगा, देख लेंगे... हम इक्ट्ठे तो हैं .......hoping against hope. Poor souls!

लेकिन अकसर नोटिस यह भी करता हूं कि इन के मसल तो ठीक ठाक होते हैं लेकिन ऊपर की चमड़ी अजीब सी लाल, पंख कमजोर से, झड़ चुके या झड़ने की कगार पर.

इन्हें देखने ही से लगता है कि यार इन बेचारों के साथ सब कुछ ठीक ठाक नहीं है। सोचने वाली बात है कि अगर आदम जात के पट्ठे बनाने के लिए स्टीरॉयड जैसे कैमीकल्स, हारमोन्स आदि इस्तेमाल किए जाते हैं, जिस देश में दस-बीस रूपये किलो बिकने वाली सब्जियों को बढ़ा करने के लिए टीके लगते हों, वहां क्या चूज़ों को बढ़ा करने के लिए तरह तरह की अनाप-शनाप दवाईयों पिलाई या लगाई न जाती होंगी।

मेरी सोच कुछ ऐसी ही रही है कि कुछ न कुछ तो गड़बड़ जरूर इन को बढ़ा करने के चक्कर में होती ही होगी। वैसे तो नॉन-वैज नहीं खाता, कोई भी इस का धार्मिक कारण नहीं है....किंचित मात्र भी नहीं, बस वैसे ही बुरा लगता है किसी जीव को अपने मुंह के स्वाद के लिए पहले मार देना फिर उस को भून कर या तल कर खा लेना। और ऊपर से अगर यह सब बीमारियों का घर हो, तो क्या सोचने मात्र से ही सिर भारी नहीं हो जाता।

आज भी सुबह ऐसा ही हुआ है, टाइम्स ऑफ इंडिया और दा हिंदोस्तान ..दोनों अखबारों के पहले पन्ने पर बड़े बडे़ शीर्षकों के साथ खबर छपी है कि सैंटर फॉर साईंस एंड एन्वायरमैंट की स्टडी में पाया गया है कि चिकन के ४०प्रतिशत नमूनों में ऐंटीबॉयोटिक दवाईयों की मात्रा पाई गई है।

अब सोचने लायक बात यह है आखिर चिकन के नाम पर खाया क्या कुछ जा रहा है, ताकत वाकत की बात छोड़ ही दें, जो पहले से बची-खुची है अगर वही न लुट जाए तो गनीमत जानिए......

यह मार्कीट शक्तियों का रातों रात अमीर होने का जुनून कहीं हमारी जान ही न ले ले ...हर तरफ़ मिलावट...घोर मिलावट.....बीमार कर देने वाली, बहुत बीमार कर देने वाली, जो जानलेवा तक भी हो सकती है।

एक बात और..यह भी नहीं कि आज अखबार में परोसी खबर ही से हमें पता चला हो कि मुर्गों के साथ यह सब कुछ हो रहा है, बहुत बार सुन चुके हैं, देख चुके हैं, पढ़ते भी रहते हैं ...लेकिन इन्हें खा खा कर एक बार नहीं बार बार अपने पैरों पर कुल्हाड़ी से वार किए जा रहे हैं, चोटिल हुए जा रहे हैं, शायद किसी विशेष बीमारी के निमंत्रण का इंतज़ार। अगली बार मुर्गा शुर्गा खाने से पहले आप भी सोचिएगा।

Source-- Antibiotics in your chicken 
              Antibiotic residues in chicken 
लिखते लिखते लव शव ते चिकन खुराना फिल्म का ध्यान आ गया...... कोई गीत ढूंढने लगा तो यह सीन हाथ लग गया, आप भी देखिए...मेरी पोस्ट पढ़ने से जो सिर भारी हुआ होगा वह हल्का हो जाएगा इस परिवार की कच्छा चर्चा सुन कर।

बुधवार, 30 जुलाई 2014

आग बुझाने वालों में नाम शामिल हो तो बात बने....

एक बार सत्संग में एक प्रेरणात्मक प्रसंग सुना...खेत मे एक जगह सूखे भूसे जैसा कुछ पड़ा हुआ था, एक शैतान पंक्षी को शरारत सूझी, कहीं से आग की चिंगारी उठा ले आकर उस पर फैंक दी, देखते ही देखते आग जंगल की आग की तरह चारों तरफ़ फैलने लगी। एक चिड़िया दूर किसी पेड़ पर बैठी यह मंज़र देख रही थी.....वह तुरंत उड़ कर दूर एक तालाब तक गई, वहां से चोंच में भर कर पानी लाई... और धधकती आग पर उस पानी को छिड़क कर वापिस तालाब से पानी लेने चली गई..यह सिलसिला चल रहा था, तपिश के कारण उस का बुरा हाल हो रहा था, लेकिन उस की सेवा निरंतर चल रही थी।

इतने में दूर से आग का मंज़र देख रहे एक आदमी से रहा नहीं गया, उस ने उस से पूछ ही लिया.. अरी चिड़िया, तुम जो इतना परेशान हो रही है, इतनी बड़ी आग है, चोंच भर पानी के छिड़काव से आखिर क्या हो जाएगा। चिड़िया ने तुरंत जवाब दिया.....देखो, समझदार इंसान, मुझे नहीं पता कुछ होगा कि नहीं, लेकिन इतना तो मानते हो कि जब इस आग का इतिहास लिखा जाएगा, तो मेरा नाम आग लगाने वालों में नहीं, बल्कि आग बुझाने वालों में दर्ज होगा। क्या इतना कम है?

मुझे इस प्रेरक प्रसंग ने बहुत बार प्रेरणा दी।
 श्री निहाल सिंह जी
आज एक इंसान से आप को मिलाना है, यह तस्वीर आप जो देख रहे हैं, यह ७८ वर्षीय रिटायर्ड रेलकर्मी श्री निहाल सिंह जी की है। इन्हें रेलवे से सेवानिवृत्त हुए बीस वर्ष हो चुके हैं, लेकिन अभी भी मैं इनमें बच्चों जैसा उत्साह देखता हूं। खूब साईकिल चलाते हैं, योगाभ्यास करते हैं और सदैव खुश रहते हैं।

मैं इन को पिछले लगभग एक वर्ष से देख रहा हूं...यह लोगों को योगाभ्यास करने के लिए प्रेरित करते हैं......उन्हें योग की किताबें-प्रतिकाएं पढ़ने को दे जाते हैं, और कुछ भी अपने अनुभव बांटते रहते हैं।
मैं जब भी इन्हें देखता हूं तो यही सोचता हूं कि समाज सेवा केवल कोई बड़े बड़े संगठनों द्वारा ही नहीं की जा रही, बल्कि ऐसे लोग भी अपनी धुन में पता नहीं कितने लोगों का अपनी क्षमता के अनुसार भला करते रहते हैं।

जितनी बार भी मिलता हूं इन से और बात करता हूं तो इन का एक अलग पहलू ही जानने को मिलता है....कईं बार ये जोधपुर के सेवा संस्थान के लिए दान देने के लिए प्रेरित करते दिखते हैं.. कभी अनाथ बच्चों की किसी संस्था के समर्थन में आप से दो बातें करते हैं।

अस्पताल में जहां कहीं भी दिखते हैं किसी न किसी की सहायता या किसी का मार्गदर्शन ही करते इन्हें देखा है।
 आज भी जब यह अस्पताल में आए तो इन के पास एक अखबार में प्रकाशित एक विज्ञापन की कुछ कापियां थीं, मुझे भी पांच छः देकर कहने लगे कि आप भी इसे आगे बांट देना। विज्ञापन यही है कि एक समाचार पत्र ने पर्यावरण संरक्षा हेतु पुराने अखबार अपने नेटवर्क द्वारा इक्ट्ठा करने का एक अभियान चला रखा है, यही लिखा था उस पर और पेड़ों के महत्व की बातें बड़े अच्छे ढंग से लिखी थीं।

आप सुन रहे हैं ना इन का कुछ भी अच्छा काम रोज़ाना करने का ज़ज्बा..........हां, एक और बात......आप पता चला कि ये सुबह सुबह जब सैर के लिए निकलते हैं तो सड़कों पर चल रही स्ट्रीट लाइटों के स्विचों को बंद करते चलते हैं। जब उन्होंने यह कहा कि पता है कि एक घंटे में ये मरकरी के लैंप कितनी बिजली खा जाते हैं तो मुझे उन के दर्द में बिल्कुल ऐसा अपनापन था जैसा अपने घऱ में बिजली की फिजूलखर्ची पर होता है।

रेलवे में हूं ......ऐसी बहुत सी शख्सियतों से मिलता रहता हूं.....जो कुछ न कुछ प्रेरणादायी किए जा रहे हैं। पहले जहां था वहां एक ८५ से भी ऊपर के शख्स थे जो रिटायर्ड लोगों की चिट्ठीयों की मदद, उन की विधवाओं की पैंशन के फार्म या किसी परेशान करने वाले बाबू या किसी की भी खबर लेनी होती थी तो पहुंच जाते थे। सब कुछ निःस्वार्थ भाव की सेवा।

एक रिटायर्ड कर्मचारी को मैं देखता था कि बैंक में , एक को डाकखाने में जा कर लोगों के फार्म भरने, लोगंों को गाइड करना, उन की जितनी भी हो सके मदद कर देना......यह सब मैं लगभग १५ वर्षों से देख रहा हूं। अच्छा लगता है कि रिटायर होने पर किस कद्र सेवा का जज्बा इन में ज़िंदा है,  हम सब के लिए प्रेरणा का एक स्रोत है।

एक बार और...जाते जाते पता नहीं क्या बात हुई........कि कहने लगे श्री निहाल सिंह जी कि डाक्टर साहब, अब ये कुर्ते-पायजामे पांच-छः इक्ट्ठे हो गये हैं मेरे पास, इतने क्या करने हैं, कुर्ते फटते तो हैं नहीं, घर में रखे रखे क्या करना है इन्हें, अब इन्हें भी बांटना शुरू कर दूंगा।

वाह जी वाह, क्या बात कही........वे तो चले गये लेकिन मुझे यह ध्यान आया कि यह शख्स की तो पांच कुर्तों से ही ऐसी तृप्ति हो गई कि वे अब इन्हें ज़रूरतमंद बंदों को बांटने वाले हैं लेकिन जो मेरे घर में सैंकड़ों कमीज़े-पतलूनें पड़ी हैं, जिन  का एक एक साल भर नंबर नहीं आता, मैंने उन्हें बांटने के लिए क्या किया ?....... कुछ भी तो नहीं, एक कड़वा सच। बस विचार आया और यह गया, वो गया, इस के आगे कुछ भी तो नहीं।

अब मैं ऊपर लिखे प्रेरक प्रसंग से निहाल सिंह जी जैसे लोगों के कामों को रिलेट कर सकता हूं......हमारे पास अनेकों अनेकों काम करने वाले हैं, लेकिन यही लगता है ना बहुत बार कि एक हमारे करने से क्या बदल जायेगा, नहीं ऐसा नहीं है, सब बदलेगा.....लेकिन वही चिड़िया जैसी भावना होनी चाहिए.......

शुद्ध पानी भी मिलता है एटीएम से

मेरी नईं नईं नौकरी लगी थी १९९१ में दिल्ली के ईएसआई अस्पताल में.....जहां किराये पर घर लिया उस के पास ही मदर डेयरी का बूथ था। शाम को जाओ, उस बूथ पर बैठे क्लर्क को पैसा दो, वह कुछ टोकन देगा, उन्हें मशीन में डालो और अपना बर्तन टोटी के नीचे रखो ...बस, दूध बाहर आ जायेगा। बड़ी हैरानगी सी हुई थी उस दिन जब पहली बार इस तरह के दूध लेकर आया था....क्योंकि जहां से हम दूध लेना देखते रहे थे, वहां पर लंबा समय इंतजार करो, इधर उधर की बक बक भी सुनो, मक्खियों-मच्छरों को सहो... फिर कहीं जा कर दूध मिलता था।

अब लगता है कि शायद उस समय के लोगों में पेशेंस कुछ ज़्यादा ही थी.......याद है बचपन में पहले साईकिल चला कर दूर डेयरी पर दूध का डोल टांग कर जाना, फिर वहां लाइन में उन की बिखरी चारपाईयों पर बैठो...फिर मशक्कत, फिर दूध......आधे-एक घंटे की तो स्कीम हो ही जाया करती थी। चलिए, वह भी समय अच्छा था, आज भी अच्छे दिन लगभग आ ही गये हैं, आहट नहीं भी सुनी तो कोई बात नहीं.

एटीएम से दूध का मिलना.....इस की खबर मुझे हिंदोस्तानी मीडिया से नहीं, बल्कि दो दिन पहले बीबीसी की न्यूज़ साइट पर मिली। पहले तो एक साधारण सी बात दिखी ...लेकिन जब इस खबर को ढंग से देखा और सुना तो लगा कि यह तो बड़े काम की चीज है।

पानी से एटीएम से दिल्ली में मिलता है शुद्ध पानी (इस लिंक पर क्लिक करने पर जो पेज खुलेगा, वहां पर लगी वीडियो भी ज़रूर देखिएगा)

दिल्ली के कईं इलाकों में पानी की एटीएम मशीनें लगी हुई हैं ...जहां पर लोग कुछ पैसा खर्च करके अपने पीने का पानी ले लेते हैं। बहुत अच्छी शुरूआत है। सारी खबर मैंने पढ़ सुन ली, लेकिन मुझे उत्सुकता थी कि आखिर कितने पैसे खर्च करने पड़ते होंगे लोगों को इस को पीने के लिए।

सर्वजल वालों की साइट पर भी रेट की कोई बात नहीं दिखी तो फिर वही किया जो हम लोग हार कर करते हैं, गूगल बाबा की शरण में चला गया। उस के सर्च रिज़ल्टस में एक पेज खुल गया जिस में हिमाचल प्रदेश में भी एक ऐसी ही पानी की एटीएम योजना शुरू की जा रही है, आज ही की खबर थी...रेट लिखा था ..पचास पैसे में एक लिटर शुद्ध पानी। बात नहीं भी हजम हो रही तो कैसे भी कर लें, लिखा तो है इस पेज पर सब कुछ साफ साफ।

अब मैं सोच रहा था कि अगर पचास पैसे में वहां हिमाचल में मिलेगा एक लिटर ऐसा शुद्ध जल तो दिल्ली में तो शायद सस्ता ही मिलना चाहिए... क्योंकि यह तो भू-जल ही है, हिमाचल के झरनों से भरा हुआ तो है नहीं, जिसे शुद्ध कर के दिल्ली की जनता तक पहुंचाया जा रहा है। बहरहाल, मुझे दिल्ली के रेट का कुछ पता नहीं है, अगर किसी पाठक को पता हो तो कमैंट में ज़रूर लिखिएगा।

पानी के बारे में यह कह देना कि कुछ लोगों को कैसा भी पानी पीने की आदत हो जाती है, बिल्कुल बेवकूफ़ों वाली बात है. जैसा पानी मेरे को चाहिए वैसा ही मेरे चपरासी को भी चाहिए, जैसे हमारे बच्चों को वैसा भी हमारे नौकर के बच्चों को भी चाहिए, कोई भी सुपर-ह्यूमन नहीं है कि किसी को तो दूषित पानी मार कर देता है किसी को नहीं करता। वो ठीक है कि कुछ समय तक वह मार दिखती न होगी, और एक ही साथ कईं बार धमाका हो जाता है।

बंबई में पिछले दिनों गया था, वहां पर पीने के पानी की २० लिटर की जो बोतल आती है वह लगभग ८०-८५ रूपये की होती है.....अब चार-पांच घर में लोग हैं तो पीने के ज़रूरतों के लिए तो सही है, और शायद उच्च-मध्यवर्गीय लोगों के लिए यह कोई विशेष बात भी न होगी कि एक-डेढ़ हज़ार पीने वाले पानी पर ही खर्च कर दिया जाए।

लेकिन यह बताने की बात नहीं है कि एक औसत भारतीय घर का बजट इतनी महंगी २० लिटर की बोतल में पटड़ी से नीचे उतर जायेगा। इसलिए जब इस तरह के सर्वजल के सस्ते, शुद्ध जल की बात सुनी तो मन खुश हुआ कि चलो, इस तरह का जल सब को मुहैया हो पाएगा।

मुझे इस तरह की स्कीम का कुछ ज़्यादा तो पता नहीं, लेकिन दुआ यही है कि दिल्ली क्या, देश के ज़्यादा से ज़्यादा इलाकों में इस तरह की स्कीमें पहुंचे......और इन के दाम लोगों की पहुंच में हों, ताकि सभी लोग पानी से होने वाली बीमारियों से बच पाएं.....गंगा मैया को साफ़ होने में समय लग सकता है, भाईयो, लेकिन इंसान के शरीर को तो हर समय साफ़-स्वच्छ जल चाहिए। काश, यह हर बाशिंदे को नसीब हो।

जो भी कंपनी ऐसे काम  करती है , ज़ाहिर सी बात है, कुछ मुनाफ़े के लिए ही करती होगी, किसी भी तरह का मुनाफ़ा--- और कुछ नहीं तो सामाजिक सरोकार (या शोहरत ?) के लिए ही सही..... लेिकन फिर भी अच्छा है....बिल्कुल सुलभ-शौचालय जैसे अभियान की हल्की सी खुशबू आ रही है......क्या आप को आई?

अब बारी आती है ..पोस्ट के अंत में एक फिल्मी गीत फिट करने की......शायद जितने भी लेख मैंने पेय जल पर लिखे हैं... उन में से कुछ के अंत में यही सुपर-हिट गीत आप को टिका मिलेगा......क्या करें, बचपन के ८-१० वर्ष की अवस्था के दौरान हमारे ऐतिहासिक रेडियो पर यही बार बार बजता था, यही याद रह गया, आप भी सुनिएगा...........

डा आनंद की बच्चों की देखभाल संबंधी गाइड

  डा आनंद, महान चिकित्सक
डा आर के आनंद विश्व विख्यात बच्चों के डाक्टर हैं, बंबई में रहते हैं, वहां मैडीकल कालेज में वरिष्ठ प्रोफैसर रह चुके हैं और आज से कुछ वर्ष पहले तक बंबई के ओपेरा हाउस के पास (चरनी रोड़ रेलवे स्टेशन) इन का क्लिनिक था। शायद आज भी होगा। इन के जैसा बच्चों का रोगों का माहिर मैंने आज तक नहीं देखा, जो आज से १७-१८ साल पहले भी बच्चों की ओपीडी स्लिप पर यह अकसर लिखा करते थे......किसी दवा की ज़रूरत नहीं है।

आप सोच रहे होंगे, आज सुबह सुबह डा आनंद का कैसे ध्यान आ गया। तो होता यूं है कि आज कल हम देखते हैं कि मां-बाप बच्चों की बिल्कुल छोटी छोटी तकलीफ़ों के लिए बड़े से बड़े ऐंटीबॉयोटिक शुरू कर देते हैं, छोटी मोटी तकलीफ़ों के लिए बड़े से बड़े व्यस्त विशेषज्ञ के पास पहुंच जाते हैं.......ऐसा नहीं है कि डाक्टर के पास जाने में कोई बुराई है, ठीक है, लेकिन अगर बिल्कुल बेसिक सी बातें पता हों तो बहुत बार ऐसे मां-बाप बिना वजह के पैनिक से बच सकते हैं।

हमारे छोटे बेटे का जन्म बंबई में ही हुआ था..१९९७ में और हम उसे सामान्य चैक अप के लिए उन के यहां ही लेकर जाते थे। हर बच्चे और उस के मां बाप को वे पूरा समय देते थे, कोई जल्दी नहीं, हर बात को अच्छे से समझाना, माताओं को स्तनपान के लिए प्रेरित करते रहना, किसी के भी मन में कैसे कोई डाउट रह जाए, सब से दिल से बात करना यह इस महान डाक्टर की फितरत है, वरना डाक्टर तो सब अच्छे ही होते हैं, सेवा कर रहे होते हैं, लेकिन कईं बार मैंने नोटिस किया है कि कुछ महान डाक्टरों में थोड़ा अहम् सा आ जाता है, जो इन में मैंने लेशमात्र भी न पाया। एकदम विनम्र शख्शियत.... यह भी और इन की पत्नी भी जो इन के क्लिनिक में इन के साथ रहती हैं।

हां, तो मैं बताना चाहता था कि छोटे बच्चों वाले घर में एक किताब तो ज़रूर ही होनी चाहिए और वह ही डा आनंद के द्वारा लिखी गई...... गाइड टू चाइल्ड केयर। मुझे याद है शायद १९९७ के दिन रहे होंगे, बंबई के हाजीअली एरिया में एक किताबों की मशहूर दुकान है, क्रॉसवर्ड, वहां पर इन की इस किताब का लोकार्पण हुआ था.......लोकार्पण ही बोलते हैं ना, जब तालियों की गड़गड़ाहट के बीच नईं किताब को बड़े बड़े लोग चमकीले कागज से बाहर निकाल कर फोटू खिंचवाते हैं। इन के निमंत्रण पर मैंने और मेरी श्रीमति जी ने भी वह कार्यक्रम अटैंड किया था। उन के दस्तखत की हुई किताब के पन्नों को अभी भी हम लोग यदा-कदा उटलते-पटलते रहते हैं।

किताब क्या है, मैं नहीं सोचता कि इतनी ईमानदारी और दिल से लिखी किताब मैंने किसी डाक्टर के द्वारा लिखी कभी पढ़ी है। एकदम परफैक्ट.......बच्चों के बारे में सब बातें उन्होंने बिल्कुल आम भाषा में उन्होंने ब्यां कर दी हैं। बच्चों की तरूणावस्था तक के मुद्दे उस में हैं। बच्चों की सभी छोटी मोटी तकलीफ़ों का उस में बहुत सुंदर वर्णन है। मैं ऐसा समझता हूं कि इसे बच्चों वाले हर घर में होना चाहिए।

एक उदाहरण है कि छोटे बच्चों का नाक बंद, सांस लेने में दिक्कत आ रही है, ऐसे में कैसे उस के नाक में घर तैयार की गई सेलाइन नेज़ल ड्राप्स डाल कर आप तुरंत उस की हेल्प कर सकते हैं।

आज पहली बार इस किताब की उस तरह की प्रशंसा करने की इच्छा हो रही है जिस तरह की तारीफ़ स्टेट रोड़वेज़ की बस में दस रूपये में पांच किताबें बेचने वाला लड़का हमें किताबें लेने पर विवश सा कर देता है, हम वे खरीद तो लेते हैं ..फिर सोचते हैं कि इन्हें देंगे किसे किसे। लेिकन यह डा आनंद की किताब तो एक बेशकीमती उपहार भी है मेरे विचार में किसी भी छोटे शिशु और उसके मां बाप के लिए।

टीकों के बारे में कितने प्रश्न रहते हैं,  मां बाप के मन में, टीका लगवाने के बारे कईं बार बच्चों को छोटी मोटी तकलीफ़े एक दो दिन रहती है, सब के बारे में आश्वस्त किया गया है इस किताब के बारे में। आज कल नये नये महंगे टीके भी आ गये हैं, इन सब के बारे में यह किताब आप को अच्छे से समझा देती है।

मुझे अभी अभी याद आ रहा था, आज से लगभग १५-१६ वर्ष पहले की बात थी, हमारा छोटा बेटा स्तनपान करता था उन दिनों, मेरे श्रीमति जी को चिकन-पॉक्स हो गया। डा आनंद को फोन किया ...मिला नहीं, तुरंत इन की किताब उठाई इस प्रश्न का उत्तर ढूंढने के लिए कि क्या इस अवस्था में मां स्तनपान करवा सकती है। तुरंत जवाब भी मिल गया..कि बिना किसी परेशानी के मां चिकन-पॉक्स होते हुए भी शिशु को स्तनपान करवा सकती है, ऐसा करना शिशु के हित ही में है क्योंकि इस से उस में भी चिकन-पॉक्स के लिए रोग प्रतिरोधक शक्ति (इम्यूनिटि) का विकास होता है।

अब ऐसे मैं डा अानंद की और उन की किताब की कितनी भी प्रशंसा किए जाऊं, आप को तभी पता चलेगा जब आप उन की किताब को देखेंगे।

इस लिंक पर जा कर आप उस किताब के बारे में और भी जानकारी पा सकते हैं..... गाइड टू चाइल्ड केयर 
मुझे भी अभी अभी पता चला है कि अब यह किताब हिंदी में भी उपलब्ध हो चुकी है, बहुत ही अच्छा लगा यह देख कर।

मेरे विचार में बहुत हो गया आज के दिन के लिए। और कितनी तारीफ़ करूं, आप स्वयं उन के बारे में जानिए और उन के बेशकीमती अनुभव से लाभ उठाईए।
Guide to Child Care --Dr Anand

मंगलवार, 29 जुलाई 2014

अब यह नितंब बड़ा करने का अजीब सा अमेरिकी फितूर

मेरे पास जब कोई सड़क छाप डैंटिस्ट से कोई काम करवा के आता है .. तो मुझे बहुत गुस्सा आता इस लिए है कि उस के किए हुए काम को अन-डू करने के चक्कर में कईं बार मेरे इंस्टर्यूमैंट्स मुड़-वुड़ जाते हैं. लेकिन उसे कैसे भी अन-डू करना ज़रूरी होता है क्योंकि वे मरीज़ के मुंह के साथ बिल्कुल कसाई जैसे पेश आते हैं।

बहुत बार इस समस्या के बारे में लिख भी चुका हूं --लेकिन फिर भी झुंझलाहट तो होती ही थी कि क्या, यार, हम लोग अभी तक इन नीम-हकीमों और सड़क छाप डाक्टरों, हकीमों और दंदान-साज़ों से लोगों को निजात नहीं दिला सके। शायद कागज़ों में पूरी कार्यवाही होती रहती है लेकिन ये सब खुराफ़ाती लोग समाज की सेहत को बिगाड़ने--- बहुत ज़्यादा बिगाड़ने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते।

मैं सोचा करता था कि यह नीम-हकीम और इन के चक्कर में हमारी जनता ही पड़ती है. नहीं, लेकिन मुझे कल एक रिपोर्ट पढ़ कर यह पता चला कि अमेरिका जैसे विकसित देश में भी लोग इस तरह के चक्करों में पड़ कर अपनी सेहत खराब क्या, जान तक गंवा बैठते हैं। और वह भी किस तरह के काम के लिए, आप भी जानेंगे तो दंग रह जाएंगे?

वैसे तो शरीर का शायद ही कोई अंग है जो ठीक नहीं किया जा सकता हो, हर तरह की प्लास्टिक सर्जरी हो रही है, बडे़ शहरों की अखबारों में शादी से पहले युवतियों को अपने निजी अगों को दुरूस्त करवाने तक की सलाह दी जा रही है। लेकिन यह जो अमेरिकी महिलाओं में आज कल नितंबों को बड़ा, सुढौल करवाने का क्रेज़ है ...या फितूर है.....इस के बारे में मैंने कल पहली बार पढ़ा, इसलिए आप के साथ शेयर करना चाहा।

अच्छा तो बात यूं है कि अमेरिकी महिलाओं को लगता है कि जिन महिलाओं के नितंब बड़े, सुढौल और सैक्सी होते हैं, उन्हें हर जगह फायदा रहता है, नौकरी में भी, समाज में भी.....हर जगह वे लोगों को मोह लेती हैं, यह कथन मेरा नहीं, नीचे दिए गए लिंक में लिखा है यह सब कुछ।

नितंबों को बढ़ाने और सुढौल बनाने के लिए करवाई जाने वाली प्लास्टिक सर्जरी एक महंगा झंझट है---हज़ारों पाउंड उस पर खर्च होते हैं अगर यह सर्जरी किसी अच्छे प्लास्टिक सर्जन से करवाई जाती है।

लेिकन जैसा कि होता है, महंगे इलाज के बहुत से सस्ते विक्लप भी दिखने लगते हैं। ऐसा ही इस काम के लिए भी हुआ। कुछ महिलाओं की आपबीती भी आप इस लिंक पर पढ़ सकते हैं कि किस तरह से ऑनलाइन उन की किसी डाक्टरनुमा इंसान से मुलाकात हुई, वह उन के घर पर आकर प्लास्टिक के सिरिंज से उन के नितंबों में कुछ इंजैक्शन ठोक गया। ज़ाहिर सी बात है यह सब बहुत ही सस्ता विक्लप था।

कुछ दिन तो इन महिलाओं को लगा कि सब कुछ सुढौल हो गया है, लेकिन जल्द ही उन्हें एमरजैंसी विभागों में दाखिल किया जाने लगा....क्योंकि वे अमेिरकी झोलाछाप इंजैक्शन के नाम पर विभिन्न तरह के खतरनाक पदार्थ... सीमैंट, सुपर-ग्लियू (गोंद) , टायरों के सिलेंट तक के टीके लगा देते थे। एक महिला को तो इन सब के चक्कर में जान ही गंवानी पड़ी। और बहुत लोगों को तो सर्जरी से वह सब कचरा अपने नितंबों से निकलवाना पड़ा। एक ऐसी ही करैक्टिव सर्जरी वाले डाक्टर ने तो वे सब सामान इक्ट्ठा कर के रखे हैं जो वह इस तरह के इलाज की शिकार महिलाओं के नितंबों से निकाल चुका है।

महिलाओं को जागरूक तो वहां बहुत किया जा रहा है..ठीक है, अगर इस तरह के इलाज से उन की जान बच भी जाती है तो उन के नितंबों का, उस एरिया की चमड़ी का इतना बुरा हाल हो जाता है, झुलस जाता है सब कुछ कि वे बिना सहायता से उठ-बैठ भी नहीं पाती हैं।

इस रिपोर्ट से ही पता चला कि महिलाओं इस तरह का काम करवाने के लिए झिझक सी महसूस करती हैं, इसलिए अंडरग्राउंड होने वाले इन गोरखधंधों के चक्कर में पड़ कर अच्छी भली सेहत खराब कर लेती हैं।

दुनिया अजीब है ना, कहीं पर तो नितंबों को बड़ा, सुढौल करने के लिए ये खतरनाक उपाय किए जा रहे हैं और कईं जगहों पर इन्हीं पर चढ़ी चर्बी को उतरवाने के लिए लाइपोसक्शन आप्रेशन करवाए जा रहे हैं।

आप को क्या लगता है कि यह फितूर कहीं अपने यहां भी न आ जाए, क्या पता बड़े शहरों में आ ही चुका हो, यहां पर सब कुछ गुप-चुप चलता रहता है। लेकिन मुझे लगता है कि अपुन के देश में लोगों को इस काम के लिए विभिन्न प्रकार के टीके चुभवाने की ज़रूरत न पड़ेगी............अपना खानपान, अपना देसी घी प्रेम, अपना जंक-फूड, कोल्ड-ड्रिंक मोह जिंदाबाद.........ये सब कितनी सहजता से वही काम कर देते हैं, न किसी नीम-हकीम के चक्कर में पड़ने का झंझट और न ही कोई एक्सट्रा खर्च।
Idea --   Illegal botton injections on rise in US



रविवार, 27 जुलाई 2014

चलिए मिलते हैं आज ९० वर्ष के युवा सैक्सपर्ट डा महेन्द्र वत्स से.....

रेडियो में देर रात आजकल एक प्रोग्राम आता है ..लव गुरू.......जो भी उस कार्यक्रम में लव गुरू का काम करता है, वह लोगों को अच्छे से बिल्कुल दोस्ताना अंदाज़ में गाइड करता दिखता है। बिल्कुल एक सच्चे दोस्त की तरह वह अपनी सिचुएशन ब्यां करने वाले लोगों को उस से जूझने का रास्ता सुझा देता है। बीच बीच में पुराने फिल्मी गीतों की अच्छी डोज़ भी दी जाती है। यह कार्यक्रम रात में रेडियो सिटी चैनल पर आता है।

सैक्स गुरू .. डा महेन्द्र वत्स 
बीबीसी न्यूज़ के होमपेज पर आज एक सैक्स गुरू के चित्र के साथ  एक लिंक देखा जो कि ९० वर्ष की उम्र में भी पूरी सक्रियता से लोगों के सेक्स से संबंधित प्श्नों का रोज़ाना उत्तर देते हैं। अब तक ३०हज़ार के करीब प्रश्नों के उत्तर वे दे चुके हैं।
Ask the Sexpert : The 90-year-old sex guru

अभी मैंने डा वत्स के बारे में पढ़ना शुरू ही किया था तो मुझे ऐसे लगा कि नाम तो कुछ जाना पहचाना सा लग रहा है। फिर आगे इसी लेख में पढ़ा कि वे रोज़ाना मुंबई मिरर में पाठकों के सैक्स से संबंधित प्रश्नों का जवाब देते हैं। फिर मुझे ध्यान आया कि अच्छा, तो यह ग्रेट बंदा है जो इतनी सच्चाई और सटीकता से इन सब प्रश्नों का जवाब देता है।

अभी कुछ दिन पहले मैं मुंबई में था तो रोज़ाना मुंबई मिरर पढ़ता ही था, और उन के कॉलम पर भी नज़र पड़ ही जाती थी। उस कॉलम में प्रश्न और उन के उत्तर देख कर यही लगता था कि ये उत्तर किसी ऐसे वैसे ने नहीं बल्कि किसी विशेषज्ञ द्वारा ही दिए गये हैं, क्योंकि हर प्रश्न को बड़ी सहानुभूति एवं वैज्ञानिक सत्यता के आधार पर हैंडल किया गया पाया। लेकिन आज इस का राज़ खुला जब यह खुलासा हुआ कि इस कॉलम के कर्ता-धर्ता ये डा वत्स साहब हैं।

सैक्स ऐजुकेशन के बारे में क्या बात करें, आए दिन जब विध्यार्थियों को सैक्स ऐजुकेशन दिए जाने की बात होती है तो इतनी राजनीति होती है अगले कुछ दिनों तक फिर सब कुछ ठंडा पड़ जाता है और एक स्तरीय सैक्स ऐजुकेशन के अभाव में छात्रों को उन की तरूणावस्था और युवावस्था के शुरूआती दिनों में भगवान के भरोसे छोड़ कर चैन की सांस ले ली जाती है।

बहुत आ रहा है कि सैक्स ऐजुकेशन का न ही यह मतलब है कि बस आप को बच्चों को प्रजनन अंगों की नीरस सी बॉयोलाजी ही पढ़ानी है, और न ही सैक्स ऐजुकेशन से कोई ऐसी मांग ही की जा रही है कि वह काम-सूत्र के पाठ पढ़ाने लगेगी.....नहीं, ऐसा बिल्कुल नहीं .....बस इतना सी अपेक्षा तो बनती है कि छात्रों की उन की अवस्था के अनुसार उन के शरीर में होने वाले बदलावों के बारे में अच्छे से आश्वस्त तो करवा ही दिया जाए...लड़के हों या लड़कियां, उस उम्र में प्रश्न केवल दो चार ही होते हैं ..सैक्सुएलिटी के बारे में......लेकिन पांच-सात-दस साल तक वही प्रश्न हमारी जान लिए रहते हैं।

अपने दिल पर हाथ रख के टटोलें कि ऐसा आप के साथ हुआ कि नहीं, क्या कुछ प्रश्न ऐसे नहीं थे जिस की वजह से आप अपनी पढ़ाई ठीक से न कर पाए या अभी भी पढ़ाई में मन नहीं लगा पा रहे.......हां, मैं तो नहीं कर पाया, उस उम्र में होने वाली सामान्य सी शारीरिक परिस्थितियों को मैं पांच-सात वर्ष तक विभिन्न काल्पनिक बीमारियों से इक्वेट करता रहा ...किस से पूछते उस दौर में कि ऐसा क्यों होता है ..रात में सोते सोते अपने आप वीर्य स्खलन कैसे हो जाता है, इतने कामुक स्वपन उस उम्र में क्यों आते हैं ...वगैरह वगैरह....... उफ़, वे भी क्या दिन थे....सिर भारी ही रहता था सोच सोच कर कि पता नहीं यह सब क्या है, पता नहीं यह क्या कोई भयंकर बीमारी है क्या।

पढ़ाई में बिल्कुल मन नहीं लगता था ...कहीं से २१ उम्र में एक किताब हाथ लग गई कि यह सब सामान्य है, बस उसे पढ़ कर जैसी ज़िंदगी ही बदल गई। धीरे धीरे सब कुछ अपने आप ठीक हो गया....ठीक क्या हो गया, पहले भी ठीक ही था, लेकिन मुझे ही नहीं पता था कि यह सब उस उम्र में कितनी सामान्य सी बात थी।

हां, बात तो हो रही थी इन डाक्टर साहब की। इन की इंटरव्यू आप इस लिंक पर जा कर देख सकते हैं। इंगलिश में बात कर रहे हैं, लेकिन आसानी से बातें समझ में आ जाएंगी।

बीबीसी न्यूज़ की साइट पर पड़े इस आर्टीकल को आप पूरा ज़रूर पढ़ें और देखें अगर आप को ज़रूरत लगती है किसी के साथ इस लेख को शेयर करने की तो शेयर भी करें।

अब डा वत्स के इतने बढ़िए लेख के बारे में मैं और क्या लिखूं......सब कुछ तो इतने बढ़िया तरीके से वह पिछले ५० वर्षों से किए जा रहे हैं, काश, हमें भी कोई ऐसे डा वत्स स्कूल के दिनों में मिल गये होते तो हम भी अपना दिमाग फिजूल की चिंताओं से मुक्त कर पाते। आते तो थे हमारे स्कूल में भी कुछ डाक्टरनुमा लोग जो हर वर्ष हमारा हैल्थ-चैक अप करते थे.....कभी उन से इन सब के बारे में बात करने की तमन्ना तो बहुत होती थी, लेकिन कभी भी हिम्मत न हो पाई....बस, एक बार इतनी हिम्मत सी जुटा ली कि उन्हें कह दिया कि कमज़ोरी सी महसूस होती है। उन्होंने एक पर्चे पर वॉटरबरी टॉनिक लिख दिया....... शाम को पापा को वह पर्चा दिया, वे बाज़ार से तुरंत ले कर आ गए। लेिकन मन की बातें तो मन ही में रह गईं।

मेरा इन डाक्टर वत्स साहब के बारे में यह विचार है कि वे एक बहुत ही महान काम कर रहे हैं, जहां लोग सैक्स के बारे में बोलना एक पाप जैसा समझते हैं, ऐसे में इन डा साहब की वजह से लोग दिल खोल कर अपनी शंकाओं का निवारण कर रहे हैं। कभी फुर्सत हो तो इन के प्रश्न-उत्तर के इन पन्नों को खोल कर देखिएगा (न तो मैं यौन रोग विशेषज्ञ हूं और न ही इस तरह के विभिन्न अनुभव हैं... वैसे इस से कोई खास फर्क भी नहीं पड़ता,  मैं इतना तो कह ही सकता हूं कि कम से कम डा वत्स जैसा कोई ऐसा शख्स  है तो जो इन सब के बारे में बात कर रहा है, जिस से आप अपना दिल खोल सकते हैं, लेकिन कुछ निर्णय लेने आप के अपने विवेक पर भी निर्भर होते हैं...........बहरहाल, मेरी राय में वे एक प्रशंसनीय काम कर रहे हैं)

और जहां तक स्कूल में सैक्स शिक्षा की बात है, इसी लेख में एक वीडियो भी है जिस में इस पर बहुत सही कटाक्ष किया गया है कि हमारे सिस्टम ने सैक्स शिक्षा को कितना बड़ा मज़ाक बना कर रखा हुआ है।इस यू-ट्यूब वीडियो को  कुछ ही दिनों में १५ लाख के करीब लोग देख चुके हैं।


लगता है अब बस करूं......डा साहब का लेख और उन के प्रश्न उत्तर पढ़ने का भी समय आप को मिलना चाहिए।
जाते जाते एक बात.......अकसर हिंदी की स्थानीय अखबारों में देखते हैं किस तरह से युवाओं को गुमराह करने वाले विज्ञापन और यहां तक की नीम हकीमों के नुस्खे छपते रहते हैं जो उन की काल्पनिक तकलीफ़ों को दूर करने का ढोल पीटते नहीं थकते। बाकी सब तो आप उस लेख में पढ़ ही लेंगे लेकिन उस पेज पर डा वत्स से पूछे दो एक प्रश्न और उन के जवाबों को  शेयर करने से रहा नहीं जा रहा.......

प्रश्नकर्ता- डा साहब, मेरा लिंग छोटा है, और मुझे लगता है कि मैं अपनी गर्ल-फ्रेंड को संतुष्ट नहीं कर पाता हूं। मेरे ज्योतिषी ने मुझे कहा है कि मैं इसे रोज़ाना एक शलोक को पढ़ते हुए १५ मिनट तक खींचा करूं। मैं यह सब पिछले एक महीने से कर रहा हूं लेकिन कुछ भी फायदा नहीं हुआ...अब मुझे क्या करना चाहिए?

डा वत्स ने उत्तर दिया है.......... बच्चे, अगर तुम्हारा ज्योतिषी सही कह रहा होता तो ज्यादातर पुरूषों के लिंग इतने लंबे हो जाते कि वे उन की घुटनों तक पहुंच जाते। ईश्वर भी इस तरह से किसी की भी बात में आ जाने वाले बेवकूफ़ लोगों की मदद नहीं कर पाते। जाओ, जा कर किसे ऐसे सैक्स एक्सपर्ट से परामर्श लो जो तुम्हें प्यार करने के फंडे सिखा पाये।

एक और प्रश्न सुनिए.....मेरे परिवार की मांग है कि मैं शादी कर लूं लेकिन मैं लड़की के कौमार्य (विर्जिन) को  लेकर कैसे आश्वस्त हो सकता हूं ...

डा वत्स का जवाब सुनिए.....मेरी सलाह है कि तुम शादी कर लो। जब तक तुम किसी लड़की की विर्जिनिटी जानने के लिए जासूस ही न रख लो, तुम यह नहीं जान पाओगे। अपनी शक्की स्वभाव से बेचारी लड़की को बचा लो।

  PS......ईमानदारी से सब कुछ लिखना बहुत हल्कापन लाता है........लेिकन इसे आते आते बहुत समय बीत जाता है।
आप इस लिंक पर क्लिक कर के डा वत्स के बारे में हिंदी में भी बहुत कुछ जान सकते हैं।


एकदम खालिस कैफ़ीन भी बिकती है इंटरनेट पर

अभी अभी यह जानना भी मेरे लिए एक बड़ी खबर थी कि शुद्ध कैफ़ीन पावडर इंटरनेट से भी खरीदा जा सकता है।

कैफ़ीन से अपना परिचय कालेज के दिनों में हुआ.....जब हमें यह पता चला कि चाय-काफी में भी कैफ़ीन होती है और थोड़ी बहुत मात्रा में तो ठीक है, यह ताज़गी देती है लेकिन इस की ज़्यादा मात्रा से कईं प्रकार का नुकसान होता है। यह भी तो एक तरह का नशा ही हुआ क्योंकि इस के ऊपर फिर एक तरह से डिपेंडैंस हो जाती है। 

कैफ़ीन की विशेषता यह भी सुनते थे अपनी फार्माकॉलोजी की प्रोफैसर से कि गांव के लोग क्यों बुखार वार होने पर एक प्याली चाय पी कर ही ठीक हो जाया करते थे, वह भी इसी कैफ़ीन का कमाल ही होता था---दवाईयों के वे लोग ज़्यादा आदि थे नहीं, इसलिए यह भी एक दवाई का ही काम करती थी, चाय पीने के बाद उन का पसीना-वीना निकल जाता था और वे छोटी मोटी तकलीफ़ से बाहर निकल आया करते थे, तरोताज़ा सा महसूस कर लेते थे। 

अभी ध्यान आ रहा था कि बचपन में हमारे दौर के लोगों की जुबां पर एक दवाई का नाम चढ़ गया था.......एपीसी......  APC... बाद में कॉलेज में फार्माकॉलोजी पढ़ने के दौरान पता चला कि इस में ए का मतलब है एसिटाअमाईनोफैन, पी से से फिनैसेटिन और सी से कैफ़ीन.... यह टेबलेट बड़ी पापुलर सी हुआ करती थी। सरकारी अस्पतालों के नुस्खों पर पहली दवा यही हुआ करती थी..... फिर अस्सी के दशक में अमेरिका में जब फिनेसेटिन पर प्रतिबंध लगा दिया गया तो फिर यह टेबलेट यहां से भी गायब हो गई। हमारे घर में भी एपीसी की गोलियां बहुत इस्तेमाल हुआ करती थीं....दांत दर्द, बदन दर्द, सिर दर्द, बुखार, ..हर किस्म के दर्द का बस एक ही इलाज हुआ करता था। 

इस पृष्ठभूमि के साथ अपनी बात कहनी शुरू करें....शुद्ध कैफ़ीन के बारे में। यह जो शुद्ध कैफ़ीन पावडर के पैकेट इंटरनेट पर बिक रहे हैं, यह एक चिंताजनक ट्रेंड है। अमेरिकी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने इस के बारे में लोगों को सावधान करते हुआ कहा है कि शुद्ध कैफ़ीन का एक चम्मच कॉफी के २५ कपों को एक साथ पी लेने के बराबर है।

एफ डी आई ने मां-बाप को भी इस मुसीबत से बच्चों को बचाए रखने के लिए कहा है क्योंकि यह कैफ़ीन एक बहुत शक्तिशाली स्टुम्लैंट (उत्तेजित करना वाला) है और ज़रा सी भी लापरवाही से शुद्ध कैफ़ीन की थोड़ी सी मात्रा से भी ओवरडोज़ का खतरा हो सकता है। 

मैं जो चेतावनी पढ़ रहा था उस में स्पष्टता से लिखा है कि कैफ़ीन की ओवरडोज़ से दिल की धड़कन में कुछ खतरनाक बदलाव, दौरे और मृत्यु तक हो सकती है। उल्टी आना, दस्त लगना और बेसुध सा हो जाना कैफ़ीन की विषाक्ता के लक्षण हैं। और शुद्ध कैफ़ीन के पावडर रूप में सेवन करने में ये लक्षण चाय, काफ़ी, या अन्य कैफ़ीन सम्मिलित पेय पदार्थ पीने वालों की अपेक्षा में बहुत ज़्यादा उग्र किस्म के होते हैं। 
अब ऑनलाइन पर हर कुछ खरीदना वैसे ही बहुत आसान सा हो गया है, मन में विचार आया और तुरंत खरीद लिया और अगले दिन आप के द्वार पर सामान पहुंच जाता है, ऐसे में स्वयं भी सचेत रहिए, दूसरों को भी करते रहिए।


शनिवार, 26 जुलाई 2014

टी बी के मरीज़ के गिरफ्तारी वारंट

अभी अभी बीबीन्यूज़ पढ़ रहा था तो एक खबर की तरफ़ विशेष ध्यान चला गया कि कैलीफोर्निया में एक टीबी के मरीज़ ने अपना नौ महीने का दवाईयां का कोर्स पूरा नहीं किया ..और बिना बताए कहीं चला गया तो उस के गिरफ्तारी के वारंट इश्यू हो गये हैं क्योंकि प्रशासन जानता है कि इस मरीज़ के दूसरे लोगों को टीबी का मर्ज होने का खतरा है।

इस खबर का लिंक यहां लगा रहा हूं.. इस पर क्लिक कर के इसे देख सकते हैं.....  California manhunt for tuberculosis -positive patient

मैं भी पिछले ३० वर्षों से सरकारी अस्पतालों में ही काम कर रहा हूं और इसलिए जो भी सरकारी अस्पतालों में टीबी और छाती रोग विशेषज्ञ पूरी कर्त्त्व्यपरायणता से अपना काम करते हैं उन के लिए मेरे मन में एक विशेष सम्मान है। और इस के साथ ही साथ जिन चिकित्सकों का व्यवहार भी इन मरीज़ों के साथ अच्छा होता है उन के आगे तो नतमस्तक होने की इच्छा होती है।

ये विशेषज्ञ ही नहीं, बल्कि लैब में जो टैक्नीशियन इन मरीज़ों की थूक की जांच कर के सही सही रिपोर्ट देते हैं मैं उन के फन की भी बहुत तारीफ़ करता हूं।

यह रोग इतने व्यापक स्तर पर भारत में फैला हुआ है कि सरकारी अस्पताल के टीबी के सरकारी डाक्टर का व्यवहार भी मेरे विचार में यह तय करता है कि मरीज़ उन की बात को कितनी गंभीरता से लेगा या दवाई खायेगा भी कि नहीं।

इस बीमारी के इलाज में इतना गड़बड़ घोटाला है कि हम सब आए दिन अखबारों में पढ़ते हैं कि टीबी की नकली दवाईयों की खेप पकड़ी गई। मुझे लगता है कि जो भी आदमी टीबी की ऩकली दवाईयों की कमाई खा रहा है उस से तो पशु भी बेहतर हैं।

हम चाहे जितना मरजी ढोल पीट लें कि हम डाक्टरों की कार्यक्षमता की ऐसी जांच करेंगे, वैसी जांच करेंगे.......साहब, ये दिल के मामले हैं, दिल से करने वाले काम हैं, कोई भी ऐसा मापदंड ऐसा बन ही नहीं पाएगा कि किस डाक्टर ने कितनी अच्छी तरह से कितनी कुशलता से अपने काम को अंजाम दिया या फिर किस टैक्नीशियन ने कितने थूक के सैम्पल कितने अच्छे से चैक किए और उस में से इतने कम पॉज़िटिव ही क्यों आए।

थूक की जांच का पॉज़िटिव या निगेटिव आना ही बहुत बार यह तय करता है कि बंदे को टीबी की दवाईयां दी जाएंगी या नहीं,  सोच कर मन कांप उठता है कि जिस टीबी के रोगी का थूक  का टैस्ट निगेटिव आ गया और उसे दवाईयां शुरु न की गईं।

ऐसे ही बहुत बार देखने सुनने में आता है कि किसी बंदे को टीबी थी ही नहीं और उस ने छः -नौ महीने दवाईयां भी खा लीं, फिर पता चला कि इस कोर्स की तो उसे ज़रूरत नहीं थी।
मैं गलतियां नहीं गिना रहा हूं....मुझे स्वयं पता नहीं मेरे में कितनी खामियां हैं, मैंने तो गिनती ही करनी छोड़ दी है, लेकिन टीबी के मरीज़ की ज़रा बात करते करते थोड़ा भावुक सा हो गया हूं........जिस तरह से टीबी की बीमारी इस देश में प्रचलित है, ऐसे में टीबी रोग विशेषज्ञों एवं लैब टैक्नीशियन (जो थूक की जांच करते हैं) को अति उत्तम श्रेणी का प्रशिक्षण समय समय पर दिया जाना चाहिए।

पाठकों को लगता होगा कि थूक की जांच बहुत आसान सा काम है, थूक की जांच ही तो करनी है, जी नहीं, यह एक बहुत कठिन काम है, इस में गलती की कोई गुंजाइश नहीं होती, कईं बार यही रिपोर्ट ही यह तय करेगी कि मरीज़ को दवा का कोर्स दिया जायेगा या नहीं.

ऐसा नहीं है कि अन्य साधन नहीं हैं --- हैं तो ..छाती का एक्स रे है, रक्त की अन्य प्रकार की जांच है, और नये नये प्रकार के टैस्ट भी आने लगे हैं--एलाईज़ा जैसे, जिस से बड़ी सटीकता से टीबी का पता चल जाता है। अभी ध्यान आ गया जब वी मैट के दारा सिहं के वह संवाद का जिस में वह करीना और शाहिद को देख कर बड़े चुटीले अंदाज़ में कहता है कि एक नज़र से ही पता चल जाता है कि लड़के और लड़की के बीच चल क्या रहा है। जी हां, ये विशेषज्ञ भी अपने मरीज़ों की बीमारी पहचानने में भी ऐसी ही नज़र रखते हैं।


लेकिन वही बात है, कहां लोग इतने साधन-संपन्न हैं कि वे इतने इतने महंगे टैस्ट करवाते फिरें, नहीं करवा पाते, ईश्वर का शुक्र है कि एक छाती का एक्स-रे और कुछ मामूली सी रक्त जांच से ही अनुभवी विशेषज्ञ निदान कर लेते हैं और दवाई शुरू कर देते हैं।

१०-१२ वर्ष पहले की बात है कि मैं फिरोज़पुर में जहां बाल कटवाने जाता था, वहां एक लड़का एक दिन कहने लगा कि उस की मां को टीबी है, बड़ी कमज़ोर हो गई है... प्राइव्हेट से इलाज करवा रहे हैं, कुछ फ़र्क ही नहीं पड़ रहा, सरकारी अस्पताल में जाते डर लगता है कि वहां कोई ठीक से बात सुने कि नहीं।

अब मुझे इतने वर्षों के बाद यह लगने लगा कि सरकारी अस्पतालों में बहुत अच्छा टेलेंट भी है, हर किसी को एक ही लेबल लगा देना ठीक नहीं है। इस में भी कोई संदेह नहीं रहा कि कुछ के अपने स्वार्थी मनसूबे रहते होंगे, और डाक्टरी पेशे में और वह भी सरकारी अस्पताल में सरकारी कुर्सी पर बैठ कर अपना कोई भी स्वार्थी मनसूबा रखना ...मैं इस श्रेणी को भी बेहद बेवकूफ़ मानता हूं........ मरीज़ आ रहा है आप के पास आप का नाम सुन कर, शायद उस के पास उतने साधन भी नहीं हैं, आप इतने माहिर बने बैठे हैं इसी तरह के सैंकड़ों-हज़ारों मरीज़ों को देख देख कर.......फिर इस में इतना इतराने की क्या बात है, क्यों इन मरीज़ों को हम दूसरे चक्करों में डालें..........अपना सारा ज्ञान जो संजो कर रखा है वह कब काम आयेगा.....

अच्छा तो बात उस हेयर-कटर की हो रही थी, वैसे तो मेरे जाने की ज़रूरत थी ही नहीं, क्योंकि फिरोज़पुर के सिविल अस्पताल में जो टीबी के विशेषज्ञ थे उन का बहुत ही नाम था.....काबिलियत के हिसाब से भी व्यवहार के नज़िरये से भी......फिर भी मैं पहली बात जा कर उस की मां और उस का परिचय करवा के आ गया, बाद में वे लगातार जा कर दवाई वहां से जा कर लेते रहे, खाने पीने के बारे में मैं भी उस का मार्गदर्शन करता रहा, कुछ ही महीने में उस की मां एकदम फिट हो गईं, वह बहुत खुश था.....लेकिन उस ने कोर्स पूरा किया।

प्राइव्हेट में बैठे कुछ नीम हकीम के हत्थे अगर कोई इस तरह का मरीज़ चढ़ गया तो वे उसे ठीक होने ही नहीं देते, या शायद उन का ज्ञान ही उतना होता होगा, लेकिन इतने भी बेवकूफ़ न होते होंगे कि भोली -भाली जनता को सरकारी टीबी अस्पताल में ही न रेफर कर पाएं.......ये नीम-हकीम टाइप के डाक्टर तो बस थोड़ी थोड़ी दवा देते रहते हैं, कभी कोई आधा अधूरा टीका लगा दिया.......मरीज़ ठीक हो या ना हो, इस से मतलब नहीं, बस उन की दुकानदारी चमकती रहनी चाहिए।

इस देश में तो ऐसे ऐसे केस देखें हैं कि मरीज़ महीनों महीनों खांसता रहता है, उस की खांसी से ही पता चल रहा है कि सब कुछ ठीक नहीं है, लेकिन जब वह गंभीर अवस्था में किसी बड़े अस्पताल में पहुंच जाता है, और वहां मौत से चंद दिन पहले ही पता चल पाता है कि उस का तो स्पूटम-पॉज़िटिव (लार में टीबी के कण) था। बेहद अफ़सोसजनक परिस्थिति !!

शुक्रवार, 25 जुलाई 2014

भसीड़ा, कमलगट्टा और कमल का फूल एक साथ.....

आज शाम को लखनऊ के आलमबाग एरिया में ऐसे ही आवारागर्दी कर रहा था तो सड़क किनारे एक भाई कुछ साग सब्जियां बेच रहा था।

जमीन पर सजी उस की दुकान की तरफ़ मेरा ध्यान खिंचने का कारण था कोलडोडे....जी हां, पंजाबी में कमल के फल को कोलडोडे ही कहते हैं। इधर यूपी में इधर क्या कहते हैं, मुझे पता नहीं था। मेरे पूछने पर उस ने बताया कि इसे कमलगट्टा कहते हैं। यह बाज़ार में बहुत कम बिकता दिखाई देता है, शायद मैं भी वर्षों बाद इस के दर्शन कर रहा था।

कमलगट्टा -इस के बीजों का छिलका उतार कर खाया जाता है
मेरी उस कमलगट्टे में रूचि देखते हुए एक बुज़ुर्ग महानुभाव की भी रूचि उस कमलगट्टे में पैदा हो गई। वह भी पूछने लगे कि यह क्या है, मैंने बताया ..फिर पूछने लगे कि इस की सब्जी बनती है क्या, इसे कैसे खाते हैं। मैंने उस कमलगट्टे का एक बीज निकाला, उस का छिलका उतार कर उन्हें खाने के लिए पेश किया तो वे लगे दूर दूर हटने......मैंने कहा, नहीं, यह तो आपको खाना ही होगा, झिझकते हुए उन्होंने खा लिया.. और उन्हें उस का स्वाद अच्छा लगा। और उन्होंने भी दस रूपये के तीन कमलगट्टे तुरंत खरीद लिए। जाते समय शुक्रिया अदा करने लगे कि मेरी वजह से उन्होंने आज ज़िंदगी में पहली बार इसे चखा।

हम केवल स्कूल-कालेज में ही तो नहीं सीखते, हर जगह सीखते रहते हैं, शर्त केवल इतनी है कि सीखने की अभिलाषा होनी चाहिए। हम भी राह चलते फुटपाथों से ही बहुत कुछ सीखते रहते हैं......जाने अनजाने यह प्रक्रिया सदैव चलती रहती है।

मुझे यह जो कमलगट्टा है खाने में बहुत अच्छा लगता है। इस के बीज का छिलका उतार कर खाया जाता है। लेकिन अभी गूगल सर्च किया तो पता चला कि यह तंत्र-वंत्र के लिए भी प्रयोग किया जाता है। बहरहाल, वह अपना विषय कभी भी नहीं रहा।
कमलगट्टा, भसीड़ा और कमल का फूल 
कमलगट्टे के साथ ही कमल-ककड़ी पड़ी हुई थी..... मेरी श्रीमति इसे कमल-ककड़ी कहती हैं, शायह हरियाणा में जहां पर हम पहले रहते थे, वहां यह इसी नाम से पहचानी जाती है। पंजाब में इसे 'भें' कहा जाता है।   दुकानदार वाले भैया ने बताया कि इसे यूपी में भसीड़ा कहते हैं। गूगल पर अभी देखा तो पता चला कि इस का साग वाग भी बनता है. लेकिन अकसर हम लोग तो इस की और आलू की सब्जी बना कर खाते हैं।

दुकानदार ने भी यह  बता दिया था कि कमल की जड़ जो पानी मे होती है जिसे भसीड़ा कहते हैं इस का साग बनता है। और जो भाग फूल के रूप में पानी के ऊपर होता है वही बाद में कमलगट्टे का रूप ले लेता है।

अब उत्सुकता यह थी कि कमलगट्टा हो गया, भसीड़ा भी हो गया लेकिन यह कमल के फूल यहां इस दुकान में क्या कर रहे हैं, मैंने पूछा कि क्या इस की भी सब्जी बनती है, इतने में एक और ग्राहक बीच में बोल पड़ा कि आज कल पूजा चल रही है, इसे पूजा के लिए इस्तेमाल किया जाता है। और उसी ने बताया कि ये जो आप कमलगट्टे की बात कर रहे थे, मखाने भी इसी से तैयार होते हैं।

कितना अद्भुत देश है, उम्र पचास के पार हो गई, लेकिन अभी तक सब्जियों की पहचान कर रहे हैं, उन महानुभाव की बात करें जिन्होंने सत्तर की उम्र के आस पास होने के बावजूद कमलगट्टे का स्वाद नहीं चखा।

यह तो हो गई मेरी पीढ़ी की बात, मेरी से थोड़ी पिछली की भी बात, लेकिन आज की युवा पीढ़ी का क्या, उन्हें कैसे पता चलेगा कि कितनी कितनी अद्भुत चीज़ें हैं जिन का हमें अभी पता ही नहीं है, ये छोटी छोटी दुकान चलाने वाले दो पैसे कमाने के लिए कितनी मेहनत कर के इन्हें हमारे तक पहुंचाते हैं। शायद यह जानने पर हम इन लोगों की मेहनत की कुछ कद्र कर सकें।

मेरे पूछने पर क्या किसी भी तलाब से इसे उखाड़ लिया जाता है तो वह भैया बताने लगा कि नांव में नदी तालाब के अंदर जाना पड़ता है इस के लिए।

आते आते मुझे अपने स्कूल के हिंदी के मास्टर साब की वे पंक्तियां याद आ गईं.....जब भी वे विज्ञान के लाभ हानियां पर निबंध लिखवाते तो ये ज़रूर लिखवाते कि अपने आप में कुछ भी भला या बुरा नहीं होता....

नज़र का भेद ही सब भला बुरा दिखता है,
कोई कमल का फूल देखता है कीचड़ में,
किसी को चांद में भी दाग नज़र आता है।